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कलिङ्गका इतिहास और समाद खारवेल : एक अध्यय
उड़ीसा के मुरुण्ड राजाओं का राज्य ईसा की दूसरी केशरी गुफाओं का निर्माण हुआ था । ललाटेन्दु फेशरी शताब्दी के शेष भाग से ईसा की चौथी शताब्दी तक गफा से यह भी ज्ञात होता है कि देशीगण के प्राचार्य प्रचलित था" । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ईस्वी सन की कमदचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र वहाँ यात्रार्थ माये थे"। चतुर्थ शताब्दी तक वहां जैनियों का राज्य प्रचलित था।
कलिंग में जैनधर्म का हास चतुर्थ शताब्दी मे कलिंग छोटे-छोटे राज्यो में बट उद्योत केशरी के बाद वहां शंवों का प्रभुत्व मधिक गया था। जो गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिये गए बढ़ा, उससे जैन संस्कृतिको बड़ा धक्का लगा। अकेले भुवथे। पांचवीं शताब्दी के मध्य कलिंग में पितृ भक्त कुल नेश्वर नगरमें ईसवी सन् को ७वी शताब्दी में सैकड़ों शिव के तथा दक्षिण कलिंग मे माठर और वशिष्ट वशों के मन्दिर बन गये थे। कुछ समय बाद वहाँ ऐसी विकट राजा क्रमश: सिंहपुर (वर्तमान सिंगपुरम) और पूर्व मे परिस्थिति बनी, जिसमें जैनधर्म का निर्वाह करना भी गोदावरी से राज करते थे। पर इनसे अधिक पराक्रमी कठिन हो गया। शवधर्म का वह विषाक्त वातावरण गग गजा थे जिनका कलिंग पर छठी शताब्दी से ८वी दूसरे बौद्ध और जैन सम्प्रदायों की संस्कृति को नष्टभ्रष्ट शताब्दी तक और बाद मे १०वीं से १३वी सदी तक करने पर कटिबद्ध हो रहा था, अब उन्हें धर्म परिवर्तन अधिकार रहा है। इनके समय में यद्यपि किसी जैन राजा करना या अपना सर्वस्व छोड़ कर अन्यत्र चले जाना ये का पता नही चलता किन्तु जैन धर्म के धारक श्रावक दो मार्ग ही शेष रह गये थे । जिन्होंने धर्म परिवर्तन कर अवश्य थे। छटी और सातवीं सदियों में कुछ समय के लिया वह वहां रहे, और जिन्होंने धर्म परिवर्तन करने से लिए शशाक हर्षवर्धन की भी सत्ता वहाँ रही है। उसी इंकार किया उन्हें वहां से भागना पड़ा, या जीवन का समय वहाँ चीनी यात्री युवानच्यांग प्राया था। गंगो की बलिदान करना पड़ा। दक्षिण भारत में शैवों ने जो कुछ राजधानी कलिंग नगर थी, जिसकी पहिचान वंशधारा किया, इतिहासज्ञ उससे भलीभांति परिचित है। उससे नदी पर स्थित श्रीकाकुलम् जिले के मुखलिंगम् और बदतर व्यवहार यहां किया गया। उडीसा मे जैनों की कलिंग पत्तनम् से की गई है । कलिग मे समय समय संस्कृति और धर्म के विनष्ट होने के बावजूद धार्मिक पर अनेक छोटे-छोटे राज्य होते रहे जिनकी राजधानियाँ और सांस्कृतिक सम्प्रदाय के साथ स्वोपाजित सम्पत्ति से विभिन्न स्थानों में थी।
भी हाथ धोना पड़ा। वहाँ जैनियों के साथ जो गुजरा गुप्तोत्तर मध्य युग में उडीसा के विभिन्न प्रान्तों में उसका किंचित् प्रभास निम्न उल्लेखों से स्पष्ट है : प्रसिद्ध राज वशों ने राज्य किया। उनमे गंगवंश, तोषल वामनघाटी प्रान्त के (१२वी सदी) के ताम्रपत्र से का भौमवश, खिजली मंडल का भजवा और कोशलो. ज्ञात होता है कि मयूरभंज के भंजवंशी राजाओं ने स्कल का सोमवंश थे। यह समय बौद्धों और जनों के श्रावकों को बहुत ग्राम दिये थे। उक्त वंश के संस्थापक अध:पतन का था । बौद्धधर्म तो अपने अस्तित्व के संरक्षण
वीरभद्र एक करोड़ साधुनों के गुरु थे। ये जैन थे और के लिए तांत्रिकता का प्राश्रय लेकर वज्रयान और
वहां की तांबे की खानि में इस स्थान के श्रावक काम सहजयान पंथों में परिणत हो गया। किन्तु जैन धर्म उस कर
म करते थे। वहाँ के गांवों में बहुत सी प्राचीन कीर्तियां समय भी अपने संरक्षण मे गतिशील बना रहा । उस अब
अब भी मौजूद है । यह अंचल श्रावकों के प्राधीन था। समय कलिंग मे उद्योत केशरी का राज्य था । यद्यपि वह २१. मों श्रीमत उद्योत केशरी देवस्य प्रवर्द्धमाने विजय. शैव धर्मानुयायी था फिर भी जैन धर्म मे उसका प्राकर्षण राज्ये संवत् १८ श्री प्रार्य सघे ग्रहकुल विनिर्गत था। उस समय खण्डगिरि मे नवमुनि गुफा और ललाटेन्दु देशीगणाचार्य श्रीकुलचन्द्र भट्टारकस्य तस्य शिस्य १९. डा० साहू ए., हिस्ट्री माफ उड़ीसा भाग २,
शुभचन्द्रस्य ।
-नबमुनि गुफालेख पृ०३३४
२२. हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्रवसु भाग ३, पृ. १६५। २०. हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्र वसु भाग ३. पृ. १६५ २३. बगाल जर्नल ए० एस० ई. १८७१ पृ० १६१-६२ ।