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पुनीत पागम साहित्य का नीतिशास्त्रीय सिंहावलोकन
१२३ मारक्त पुरुष के लक्षण हैं । कामासक्त स्त्रियों की पहचान
अर्थात्-सिंह की जटाओं, सती स्त्री की जघानों, शरण भी देखिए :
में पाये हुए सुभट और प्राशीविष सर्प के मस्तक की मणि ___"सकटाक्ष नयनो से देखना, बालों को संवारना, कान को कभी नही स्पर्श करना चाहिए। और नाक को खुजलाना, गुह्य प्रग को दिखाना, घर्षण सुमतिसूरि के 'जिनदत्ताख्यान' मे पर स्त्री दर्शन के प्रालिंगन तथा अपने प्रिय के समक्ष अपने दुश्चरित्रो का त्याग का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :बखान करना, उसके हीन गुणों की प्रशसा करना, पैर के ते कह न वंदणिज्जा, जे ते वन्टुण परकलत्ताई। अंगूठे से जमीन खोदना और खखारना-" ये पूरुष के धाराहयव्य वसहा, बच्चंति महिं पलोयंता॥ प्रति प्रासक्त स्त्री के लक्षण समझने चाहिए।
अर्थात् ऐसे लोग क्यों वन्दनीय न हों जो स्त्री को मागमोत्तर कालीन जैन-धर्म साहित्य में नीति
देख कर वर्षा से पाहत वृषभो की भाँति नीचे जमीन की (५वी शताब्दी मे १०वी शताब्दी तक):
ओर मुह किए चुपचाप चले जाते है । प्रागम युगीन जैन ग्रन्थो मे भी कही-कही व्यावहा
प्रश्न शैली में पृथ्वी को स्वर्ग बनाने वाले चार रिक नीति उपलब्ध होती है । इस दृष्टि से रत्नशेखर सूरि ।
पदार्थो का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :के 'व्यवहार शुद्धि प्रकाश' बहुत उत्तम है। यहाँ पाजी
उच्छुगामे वासो सेयं सगोरसा सालो। विका के साथ उपाय पुत्र, ऋण, परदेश आदि जीवन के
इहाय जस्स भज्जा पिययम! कि तस्स रज्जेण?" व्यावहारिक पक्ष पर सुन्दर विचार प्रस्तुत किया गया है । प्राकृत भाषा का कथा-साहित्य भी अत्यन्त समृद्ध है।
हे प्रियतम ! ईख वाले गांव में वास, सफेद वस्त्रों यद्यपि इस वाङमय का अधिकाश धर्म प्रचार के लिए का धारण गोरस और शालि का भक्षण तथा इष्ट भार्ग गढ़ा है किन्तु उनमे व्यवहार नीति का प्रश भी प्रचर जिसके निकट हो उसे राज्य से क्या प्रयोजन ? मात्रा में समाहित है। नीति शिक्षा प्रायः छन्दोबद्ध रहती यहाँ अनेक गाथाओं मे स्त्री-पुरुषों के स्वभावादि के है। इसमें उपमा, रूपक, दृष्टान्त प्रावि अलंकारों का प्रचुर सम्बन्ध मे सुन्दर कथन है। एक गाथा का व्यंग्या प्रयोग किया गया है।
कितना सत्य एवं व्यवहार सिद्ध है:देवभद्र सूरि के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कहारयण कोस' (कथा- धन्ना ता महिलामो जाणं पुरिसेसु कित्तिमो नेहो। रत्न कोष) में धन की महिमा इस प्रकार गाई गई है:- पाएण जमो पुरिसा महयरसरिसा सहावेणं ॥ परिगलइ मई मइलिज्जई जसो नाऽदरंति सयणा वि ।
अर्थात् पुरुषो से कृत्रिम स्नेह करने वाली स्त्रियाँ भी पालस्स च पयट्टइ विष्फरह मणम्मि रणरणयो।
धन्य हैं क्योंकि पुरुषों का स्वभाव भी तो भौरों जैसा ही उच्छरह अणुच्छाहो पसरइ सव्वांगियो महाबाहो।
होता है। कि किवन होइ दुहं प्रथविहोणस्य पुरिमस्स ।।
हरिभद्रमूरि के उवएमपद (उपदेश पद) की प्रश्नो. अर्थात् धन के अभाव मे मति भ्रष्ट हो जाती है,
त्तर शैली दो गाथा में देखिएयश मलिन हो जाता है, स्वजन भी आदर नही करत,
को धम्मो जीवदया, कि सोक्खमरोग्गयाउ जीवस्स । पालस्य आने लगता है, मन उद्विग्न होता जाता है, काम
को सोहो सवभावो कि पडिव्वं परिच्छेनो। में उत्साह नही रहता, समस्त मग मे महा दाह उन्पन्न
कि विसमं कज्जा, कि लखव्वं जणो गुणग्गाही। हो जाता है । धनहीन पुरुष को कौन-सा दुव नही होता?
कि सहगेश सुयणो, कि दुग्गेज्झे खलो लोग्रो॥ कुमारपाल प्रतिबोध का एक सुभाषित इस प्रकार
अर्थात् धर्म क्या है ? जीव दया! मुख क्या है ? सोहह केसर सइहि, उरु सरणागमो सुहडस्स । पारोग्य । स्नेह क्या है? सद्भाव । पाडित्य क्या है ? मणि मत्थइ प्रासीविसह किं धिप्पइ प्रमुयस्स ।। हितहित का विवेक । बिषम क्या है? कार्य को गति ।