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________________ १२२, बर्ष २४, कि०३ अनेकान्त प्रदर्शित करेगा तो वायु के झोके से इधर-उघर डोलने ६. "सांसारिक धर्मों से विरत जो कोई जगत में विचवाले तृग की भांति तेरा चित्त कही भी स्थिर न रहेगा।" रते है, उन्हें सबके साथ वही बर्ताव करना चाहिए इसी प्रकार पच्चीसबै अध्ययन में ब्राह्मण तपस्वी जो वे (दूसरो से अपने प्रति) कराना चाहते है।" मादि के लक्षण तथा कर्म महिमा इस प्रकार गाई गई पागम वाटिका इस प्रकार के नीति-कुसुमो की दिव्य है-"इस लोक मे जो अग्नि की तरह पूज्य है, उसे कुशल गध से सतत सुसुवासित है । अावश्यकता इस स्वस्थ एवं पुरुष ब्रह्मण कहते है। मिर मुडा लेने से श्रमण नही मगधित पवन को, मन-प्राण और जीवन में उतारने होता, मोकार जाप करने से ब्राह्मण नही होता। जंगल वी है। मे रहने से मुनि नहीं होता और कुश चीवर धारण करने प्रागमों की व्याख्या साहित्य में नीति : से कोई तपस्वी नहीं कहा जाता। समता से श्रमण, ब्रह्म आगमो के सकलन के पश्चात् दूसरी से लेकर सोलचर्य से ब्राह्यण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता हवी शताब्दी तक आगम साहित्य के समझने-समझाने के है। कम से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, धर्म से वैश्य और लिए नियुक्ति, भाष्य, टीका, चूणि इत्यादि टीका-साहित्य कर्म से ही मनुष्य शद्र कहा जाता है । की विपुल सष्टि हुई। इसमें भी प्रसगवश हमे कही कहीं स्पष्ट है कि प्रागम साहित्य नैतिक कथनों का अपूर्व पद्यमय नीति कथन प्राप्त हो जाने है। उदाहरणार्थ मंडार है। ये कथन दिक्कालातीत, सार्वदेशिक एव मार्व माणिक्यशेखर सूरि ने प्रावश्यक निमुक्ति की अपनी भौमिक सत्य है । जैन धर्म की अक्षय विधि होते हए भी दीपिका में कछ सुन्दर रीति बच कहे है :ये मानव मात्र की निधि है। इनकी महिमा का अधिक । जहा खरो चदण भारवाही, भारस्स भागीन चंदणस्य । पाख्यान न करते हुए कुछ बहुमूल्य कथन उद्धृत करना एवं ख नाणी चरणण हीणो, नाणस्य भगी न ह सोग्गईए । पधिक उपयोगी होगा हयं नाणं कियाहीण, हया धन्नाणपो किया। १. “(महापुरुष वह है) जो नाभालाभ मे, सुख-दुख मे, पासतो पगुलो दड्ढो, धावमाणो प्र अंधश्रो। जीवन-मरण मे, निन्दा और प्रशसा मे तथा मान संजोगसिद्धोइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अपमान मे समभाव हो।" २. "स्वार्थ-रहित देने वाला दुर्लभ है, ग्वार्थ-रहित जीवन अधों यो पग य बणे समिच्चा, ते सपउत्ता नगरं पविट्ठा ।। निर्वाह करने वाला दूर्लभ है । स्वार्थ रहित देने वाला -प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० २०५ पर उद्धत पौर स्वार्थ रहित होकर जीने वाला दोनो ही स्वर्ग अर्थात जैसे चन्दन का भार ढोने वाला गधा भार को जाते है।" का ही भागी होता है, चन्दन का नही, उसी प्रकार चरित्र ३. जैसे विडाल के रहने के स्थान के पास चूहों का से हीन ज्ञानी और केवल ज्ञान का ही भागी होता है रहना प्रशस्त नही है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास । सद्गति का नही। क्रिया रहित ज्ञान और प्रज्ञानी की स्थान के बीच में ब्रह्मचारियो का रहना क्षम्य क्रिया नष्ट हुई समझनी चाहिए। (जगल मे प्राग लग नही है।" जाने पर) चुपचाप खड़ा हुआ पगु और भागता हुआ ४. "लोहे के काटी से मुहूर्त मात्र दुख होता है, वे भी अन्धा दोनो हा प्राग म जल मरत (शरीर से) सुगमता पूर्वक निकाले जा सकते है, परतु सिद्धि होती है। एक पहिए से रथ नही चल सकता। कटुवचन कठिनाई से निकली है जो वैर बढ़ाने और निशीथभाप्य के कामासक्ति सम्बन्धी दो कथन महाभय उत्पन्न करने के लिए बोले जाय।" देखिए :५. "क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय का नाश "कानी अाँख से देखना रोमांचित हो जाना, शरीर करता है, कपट मित्रो का नाश करता है और लोभ में कम्प होना, पसीना छटने लगना, मह पर लाली दिखाई सब कुछ विनष्ट कर देता है।" पड़ना, बार-बार निश्वास और जमाई लेना" ये स्त्रीमे
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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