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पुनीत आगम साहित्य का नोतिशास्त्रीय सिंहावलोकन
डा० बालकृष्ण 'अकिंचन' एम. ए. पी-एच. डी.
विश्व के धार्मिक साहित्य को जैन साहित्य एव दर्शा प्रयत्-मृत्यु का प्राना निश्चित है। सब प्राणियों का महत्व निर्विवाद है । जैन धर्मावलम्बियों मे को अपना जीवन प्रिय है, सभी सुख चाहते हैं, दुख कोई जितना ऊचा स्थान प्रागमों का है, उतना सम्भवतः अन्य नहीं चाहता, मरण सभी को अप्रिय है। सभी जीना का नहीं। इन पुनीत पागमों का निर्माण तो स्वयं भगवान् चाहते है । प्रत्येक प्राणी जीवन की इच्छा रखता है, सबको प्रहंत ने किया था किन्तु वाद में उन्हें सूत्र रूपो में अर्थ जीवित रहना अच्छा लगता है। मागधी भाषा मे निबद्ध उनके गणघरों ने किया। कारण जैन साहित्य में मूल सूत्रों का वही माहात्म्य है जो यह था कि दुर्भिक्षों एवं विपलवों आदि प्रापत्तियों के बौद्ध साहित्य मे धम्मपद का । इसके उत्सरज्झयण (उत्तराकारण प्रागम साहित्य विखडित होता रहा था। भगवान् ध्ययन) के प्रथस अध्याय में 'विनय' का वर्णन इस प्रकार महावीर जी के निर्वाण के लगभग ६८० या ६६३ वर्ष हैपश्चात् (ई० सं० ४५३-४६६) के वलभी सम्मेलन मे मा गलियस्सेव कसं वयणमिच्छे पुणो पुणो। मागम लिपिबद्ध किये गये, अतः निश्चित है कि भगवान् कसं व बठ्ठमाइन्ने, पावगं परिवज्जए ।। महावीर की भाषा का मूल अर्थ मागधी मे उस समय तक प्रर्थात्-मरियल घोड़े को बार-बार कोड़े लगाने की । पर्याप्त अन्तर अवश्य आ गया होगा। जो हो ये सूत्र जरूरत होती है, वैसे मुमुक्षु को बार-वार गुरु के उपदेश दिव्य ज्ञान के महान स्रोत है। श्री भगवतशरण उपाध्याय की अपेक्षा न करनी चाहिए। जैसे अच्छी नस्ल का घोड़ा के विश्व साहित्य की रूप-रेखा पृ० ५०६ के अनुसार तो __चाबुक देखते ही ठीक रास्ते पर चलने लगता है, उसी "इन ग्रन्थों की सीमा मे सारा मानव ज्ञान जैसे सिमट प्रकार गुरु के प्राशय को समझकर मुमुखको पाप कर्म कर पा गया है।"-इसका सम्पादन बल्लभी परिषद के त्याग देना चाहिए। द्वारा ४६ ग्रन्थो में हुआ है । इनमें
यही पर तीसरे अध्ययन में प्रप्रमाद की शिक्षा देते १. पायारंग, सूयगडंग इत्यादि १२ अंग
हए कहा गया है कि "टूटा हा जीवन-तन्तु फिर से नहीं २. प्रोववाइय, रायसपैणइय इत्यादि १२ उपांग; जुड़ सकता, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद ३. चउसरण, पाउरपच्चकरवाण इत्यादि १० पइन्ना न कर । जरा से ग्रस्त पुरुष का कोई शरण नहीं है, फिर ४. निसोह, महानिसीह इत्यादि ६ छेयसुत्त; और प्रमादी-हिंसक और प्रयत्नशील जीव किसकी शरण ५.उत्तरज्झयण, दसवेयालिय इत्यादि ४ मूलसुत्त हैं। जायेंगे।
जैन शास्त्रों के अनुसार अंगों और मूल सूतों में सर्वा- बाईसवें अध्ययन में सती का अपने ऊपर मासक्त धिक महत्त्वपूर्ण है पायारंग। प्राचीनतम जैन सूत्र भी श्रमण रथनेमि को फटकारना कितना कल्यणकारी तथा यही है। इस सूत्र की महिमा सम्पूर्ण जैन साहित्य में एक प्रभावोत्पादक है-"हे रथनेमि ! यदि तू रूप से वैश्रमण, स्वर में गाई गई है। भाव निदर्शन के किए एक उदरण चेष्टा से नलकूवर अथवा साक्षात् इन्द्र ही क्यों न बन प्रस्तुत है
जाय, तो भी मैं तुझे न चाहूँगी । हे यश के अभिलाशी ! "नत्यि कालास णागमो। सम्वे पाणा पियाउया, तू जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु का पुनः सेवन करना सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्यियवहा, पियजीविणो जीवि- चाहता है । इससे तो मर जाना श्रेयस्कर है । जिस किसी सकामासम्वेसि जीवियं पियं ।
भी नारी को देखकर यदि तू उसके प्रति पासक्ति भाष