SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कलिङ्ग का इतिहास और सम्राट खारवेल : एक अध्ययन कलिंग का शासक था। वैशाली गणतंत्र के राजा सिद्धार्थ जितशत्र ने कुमारगिरि पर दीक्षा ली और भगवान महा. की छोटी वहिन यशोदया से उसका विवाह हुमा था। वार इस कारण वह भगवान महावीर का फूफा था। भगवान महावीर का समवसरण अनेक बार कुमार गिरि पर गया और उनके उपदेश से कलिंग की जनता में जितशत्रु भगवान महावीर के जन्मोत्सव के समय कुण्डपुर पाया था। राजा सिद्धार्थ ने इसका खूब आदर. जैनधर्म का प्रचार और प्रसार हुा । जैन संस्कृति में सत्कार किया था। उसके यशोदा नाम की पुत्री थी, उनकी सुदृढ प्रास्था हुई । उस समय कलिंग में जनधर्म अत्यधिक रूप में प्रचलित था। उसके अधिष्ठाता श्रावकों जिसका विवाह वह महावीर के साथ करना चाहता था। की सख्या अन्य लोगों की अपेक्षा अत्यधिक थी और वहाँ परन्तु भगवान महावीर ने विरक्त होकर दीक्षा ले ली और तपश्चरण द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। उस समय के पहाड़ों में जैन श्रमणों का निवास था। उनके तप-तेज से कलिंग गौरवान्वित हो रहा था। राजा श्रेणिक ने जितशत्रु मुनि के सम्बन्ध में पूछा तब गौतम गणधर ने कहा कि पृथिवी में प्रसिद्ध यह जितशत्रु मगध और कलिंग दोनों प्रतिद्वन्दी राज्य थे । कलिंग राजा हरिवश रूपी आकाश का सूर्य था और जिसने अन्य की समृद्धि और सम्पन्नता मगध की ईर्ष्या का कारण राजाओं की स्थिति को तिरस्कृत कर दिया था और बनी, उससे मगघ नरेशों ने अपनी समृद्धि में रुकावटे अनुभव की। उमने राज्य लक्ष्मी का स्वयं परित्याग कर जिनेन्द्र देव के नन्द की कलिंग पर विजयः-फलतः मगध के राजा समीप प्रव्रज्या (दीक्षा) ग्रहण की। और अन्य लोगों के नन्दिवर्धन ने कलिंग पर प्राक्रमणकर विजय प्राप्त की। द्वारा कठिन बाह्य और आभ्यन्तर तप का अनुष्ठान नन्दिवर्धन अथवा कालाशोक एक दिग्विजयी सम्राट् था। किया था। आज उसने घातिया कर्मों को नष्ट कर केवल वह मगध के दक्षिण-पूरब समुद्र-तट पर कलिंग देश ज्ञान प्राप्त किया है। अतएव जिनमार्ग की प्रभावना को जीत कर उसने अपने साम्राज्य में मिला लिया। करने वाले देवो ने उनकी पूजा की है, और मुनिराज ने कर्म-बन्धन से मुक्त हो अविनाशी पद प्राप्त किया। कलिंग या उड़ीसा उस युग मे जैनधर्म का अनुयायी $ जितशत्र: क्षितो ख्यातो धरित्रीपतिरत्र यः । नृपोऽयमाखण्डलतुल्यविक्रमः॥ यशोदयायां सुतया यशोदया, प्राप्त एव धरित्रीश ! भवतः श्रोत्र गोचरम् ॥१८७ पवित्रया वीरविवाहमङ्गलम् । हरिवश नभो भानुभिभूतनृपस्थितिः । अनेक कन्या परिवारयारुहराज्यश्रिय परित्यज्य प्रावाजीज्जिन सन्निधौ ॥१८८ समीक्षितुं तुङ्ग मनोरथं तदा ॥ ८ ॥ तपो दुष्करमन्येषा बाह्यमाध्यात्मिक च सः । स्थितेऽथ नाथे तपसि स्वयंभवि, कृत्वा प्राप्तोऽद्य घात्यन्ते केवलज्ञानमद् भुतम् ॥१८६ प्रजातकैवल्यविशाललोचने । तेनाय ममरैः सर्वैर्जनमार्गोपबहकः।। जगद्विभूत्य विहरत्यपि क्षिति, क्षिति विहाय स्थितवांस्तपस्यम् ।। स पुनर्बोधिलाभार्थ भक्तितोऽत्यचितो यतिः ।।१६० अमष्य जाताद्य तपोबलान्मुनेरवाप्त, -हरिवंशपुराण कैवल्य फला मनुष्यता। १४. भवान्न किं श्रेणिक वैत्ति भूपति, नृपेन्द्रसिद्धार्थ कनीयसी पतिम् । मनुष्यमावो हि महाफल भवे, भवेदयं प्राप्त फलस्तपः फलम् ।। इमं प्रसिद्ध जितशत्रुमाख्यया, विहृत्य पूज्योऽपि मही महीयसां, प्रतापवन्तं जितशत्रुमण्डलम् ।। ६ महामुनिर्मोचित कर्मबन्धनः । जिनेन्द्र वीरस्य समुद्भवोत्सवे, इयाय मोक्षं जितशत्रु केवली, तदागतः कुण्डपुरं सुहृत्परः । निरन्तर सौख्य प्रतिबद्ध मक्षयम् । सुपूजितः कुण्डपुरस्य भूभृता, हरिवंश पुराण ६६-६, ७, ८, ९, १०, ११
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy