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संत कबीर प्रौर द्यानतराय
भावना से जैन भक्तों ने भी तन, घन और परिवार के प्राप्ति के लिए पानी जन्य व्याकुलता और तडपन की सम्बन्ध मे सतों की सी उक्तियाँ कहो। द्यानतराय प्रत्यक्ष अनुभुति की थी। कहते है
तलफ बिन बालम मोर जिया।
दिन नहिं चन रात नहिं निदिया, जुवती तन पन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे ।
तलफ तलफ के भोर किया। यह संसार सुपन की माया, अखि पाँच दिख राव रे।
द्यानतराय को तडपन जैन भक्ति के परम्परा मनुभक्ति :
मार राजमती के माध्यम से अभिव्यक्ति हुई है :रूढियों का विध्वस कर मदाचार का प्रचार करने
भूषण वसन कुसुम न सुहावै कहा करूं कित जाऊँ। वाले निर्गुण सतो के काव्य मे अनुरागमूलक भक्ति भी
'द्यानत' कब मैं दरसन पाऊँ लागि रहौं प्रभु पाऊँ ॥२३६ अन्तनिहित है। उन्होने अपने उपास्य की पागधना
ब्रह्म का निरूपण, नाम स्मरण की महत्ता, बाह्याचार प्रमुखत: दो भावो मे की है-- दास्यभाव और पत्नी भाव।
का वडन, मदाचार, भक्ति प्रादि विविध तत्वों की दृष्टि दोनो ही भावो की चरम परिणति सगुण काव्य मे हुई से कबीर प्रौर द्यानतराय की तुलना करने पर स्पष्ट है है। अपने ग्रागध्य के प्रति कबीर की दास्यभावी अनन्यता कि जैन काव्य का एक पक्ष अपनी संस्कृति और दर्शन देखिए :
की मौलिकता को सभाले हुए भी सत काव्य से भी समतारण तिरण तिरण तू तारण और न दूजा जानौं।
कक्षता रखता है। वस्तुत: जैन भक्ति काव्य वह प्रयाग कहै कबीर सरनाई प्रायो, प्रान देव नहि मानौ ।११२॥ राज है जहाँ निर्गुण और सगुण काव्य की पवित्र धाराए
यह अनन्य भाव द्याननराय म भी विद्यमान है :- अभिन्न भाव से मिल गई है। भारतीय संस्कृति की सममात तात तू ही बड़ भ्राता, तो सौ प्रेम घनेरा।
ग्रता और मध्ययुगीन हिन्दी भकिकाव्य की पूर्णता के 'द्यानत' तार निकार जगत तं, फर न ह भव फेरा। लिा ममन्वयवादी द्यानत राय पाश्र्वदास प्रादि जैन भक्तो
कबीर ने ईश्वर का अपना पति मानकर उसको की रचनायो का अध्ययन और विवेचन परम अनिवार्य है
सदोषता
मुनि श्री कन्हैयालाल स्वर्णकार अपनी दुकान मे तन्मयता से कार्य कर रहा था । सहसा एक ग्राहक मोना खरीदने मा पहुँचा। स्वर्णकार गुजा के साथ सोना तोलने लगा । गुजा से रहा नहीं गया । तडककर अपनो मानसिक व्यथा सुनाते हुए स्वर्णकार से कहने लगी-स्वामिन् ! मुझे इस अधम मोने के साथ क्यो तौल रहे हो? कहाँ मै कुलीन और कहाँ यह पातको सोना। मेरा निवास सधनतम कानन है। मेरा घर (वेल) सर्वदा रहा-भरा रहता है। मेरी जाति ऊंची है। मैं उस घर मे प्रानन्द की बहार लूट रही थी। सहमा एक दिन दुर्भाग्यवश इस नीच की संगति प्राप्त हुई और उसी समय मेरा मुह काला होगया ।
स्वर्ण को यह सब कब सा था। उसने कठोर शब्दो मे गंजा से कहा--मेरे विरुद्ध व्यर्थ ही इतना विप क्यों उगल रही हो? तुझे इतना गुमराह किसने कर दिया। यदि तेरे मे ही कोई गुण है तो मेरे साथ अग्नि कुड मे एक छलांग भर । तेरे अहंकार का नशा कुछ ही क्षणों में धूलिसात हो जायगा।
स्वर्ण की चुनौती का प्रत्युत्तर देते हुए गुंजा ने कहा-अरे अधम ! तू मेरी समानता कर सकता है ? कहाँ मेरा गुरुत्व और कहाँ तेरा लघुत्व । मेरे बिना तेरा मोल भी नहीं होता। मदान्ध ! संसार उसी को जलाता है जो अवगुणी होता है। मुझ निर्दोष को तेरे साथ अग्नि कुण्ड मे कूदने की क्या आवश्यकता? सभी स्वर्णकार तुझे धधकते हए अगारों में इसीलिए तो जलाते है कि तू अवगुण का पुनला है।