________________
१४, वर्ष २४, कि०२
अनेकान्त जिनवाणी को मोक्ष की दात्री बतलाते हैं तथा स्वयं ही कर मनका लौ प्रासन मारयो, बाहिज लोक रिमाई। मन, वचन और कर्म से भगवान जिनेन्द्र की पूजा करते कहा भयो बक-ध्यान घरेते, जो मन थिर न रहाई। हैं । इन धार्मिक विधानो में रत रहते हुए भी प्रधानता मास मास उपवास किए ते, काया बहुत सुखाई। मन की पवित्रता पौर निष्कामता को ही देते है:
कोष मान छल लोभ न जीत्या, कारज कोन सराई। प्राणी ! लाल छोटो मन चपलाई।
मन वच काय जोग धिर करके, त्यागो विषय-कषाई। धार मौन दया जिन पूजा, काया बहुत तपाई। 'द्यानत' सुरग मोरव सुखदाई, सद्गुरु सोख बताई।४७ मन को शल्य गयो नहिं जब लौं, करनी सकल गंवाई।। सदाचार :
वैष्णव, काजी, ब्राह्मण आदि की बाह्याचार की संत सूधारवादी थे। सम्प्रदाय और जाति सम्बन्धी निन्दा करते समय कबीर की वाणी मे उग्रता और तीखा- विविध भेदो को मिटाकर मानव को एक दूसरे के अधिक पन पा गया था। बुराई से घृणा करने वाले संत बुराई । निकट लाने के लिए ही उनके काव्य का सृजन हुआ था। मे लिप्त व्यक्तियो के प्रति अपना हृदय साफ नही कर लोक सूधारक कबीर और अन्य संतों के काव्य में क्षमा, सके । अस्पृश्यता की भावना को मिटाने के उद्देश्य से संतोप, निर्मोह, अक्रोध आदि विविध मानवीय प्रवृत्तियों ब्राह्मण पर उबल पडत है-'अरे ब्राह्मण, यदि तू ब्राह्मण पर प्रचुर मात्रा मे साखिया और पद विद्यमान है । एकका जाया है तो अन्य मार्ग से क्यो नहीं पाया? पोथी एक मानवीय प्रवृत्ति के सम्बन्ध में प्रत्येक सत ने अलगपढने वाले पंडित को कोसते हुए वे कहते है-'अरे अभागे, अलग 'अंग' लिखे है। प्राचार धर्म को प्रधानता देने वाले तू किस दुर्बुद्धि का शिकार हया है जो राम का नाम नही जैन धर्म के अनुयायी द्यानत, बुधजन, पार्वदास आदि लेता।" कबीर के तीखे उपालम्भो से कुरान पढ़ने वाले जैन भक्त इस क्षेत्र मे कैसे पीछे रहो । उन्होंने अपने काजी भी नहीं बच पाते :
पदों मे भी सदाचार की बात कही है। द्यानतराय शील काजी कौन कतेब बखान ।
के बिना जप और तप को भी निरर्थक समझते है - पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एक नहिं जाने ।५६॥
रे जिय! सोल सदा दिढ़ राखि हिये ! कबीर की इन तीखी उक्तियो में कितनी ही सच्चाई
जाप जपत तप तपत विविध विष, रही हो; किन्तु उनके कहने के ढग से उन्ही के प्रति
सील बिना धिक्कार ।१३६॥ ममाज मे कटुता बनी। इसी कारण मुल्ला और पडित
वह मन को पवित्र करने की एकमात्र औषधि सत्सग शायद अनुकूल प्रभाव भी ग्रहण न कर सके । जैन कवि को मानते हए उसके पाचरण की प्रेरणा देते हैजानते थे कि धार्मिक कृत्यों में विदित कर्मकाण्ड को कोस दोष घटे प्रगट गुन मनसा, निर्मल ह तजि चपलाई। कर कटुता पैदा करने की अपेक्षा घर्मावलम्बियो को मन 'द्यानत' धन्य धन्य जिनके घट, सतसंगति सरधा भाई। की पवित्रता की ओर प्रेरित करना अधिक लाभदायक सभी संत और सगुण भक्तो ने तन-धन को नश्वर होगा। यही उन्होने किया। वैदिक युग मे यज्ञ और हिंसा और परिजनो को स्वार्थी बतलाते हए संसार की निन्दा का विरोध करते हुए भी उनके प्रतिपादक ब्राह्मणो के की थी। उन्होने सभवतः भौतिकता में अधिक प्रति उन्होंने कूटोक्तियां कभी नहीं कही। जैन कवि द्यानत लिप्त न हो जाने की धारणा से ही ऐसा कहा था। यदि राय मन की स्थिरता के बिना ग्रासन, उपवास, ध्यान, ऐसा न होता तो उनमे कई सत और वैष्णव भक्त गृहस्थ योग की स्थिरता को बढे सरल ढग से समझाते है :- न होते ! ससार से निवृत्त हो जाने अथवा उसे पूर्णत: ६. जो तू बाभन बभनी जाया,
त्याग देने का सकेत उनकी उक्तियो मे ढढना हमारी ही पान बाट ह क्यो नहि पाया।
भूल होगी। सभी जानते है कि धन पुत्रादि मे अधिक ७. पाडे कौन कुमति तोहि लागी ।
प्रासक्ति रखने से मानव कितना दानव बन जाता है । तू राम न जपत अभागी। कबीर ग्रन्थावली भौतिकता के प्रति अत्यधिक प्रासक्ति को दूर करने की