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२६ वर्ष २४, कि०६
अनेकान्त
अवस्था में देखकर भविष्य वाणी की था कि वह किसी कमठ का जीव संवर देव विमान में कही जा रहा था। दिन उत्तर प्रदेश का राजा होगा। कहते हैं कि वह उसका विमान इकाइक रुक गया, उसने नीचे उतरकर भविष्य वाणी सत्य सिद्ध हुई, और वह इस नगर का राजा देखा तो उसे पार्श्वनाथ दिखाई पड़े। उन्हें देखते ही बना । कोट का वर्तमान घेरा साढ़े तीन मील के लगभग उसके पूर्व भव का वैर स्मृत हो उठा, पूर्व वैर के स्मृत है। इस किले के चारों मोर एक चौड़ी परिखा खाई होते ही उनने क्षमाशील पावं नाथ पर घोर उपसर्ग थी जिसमें पानी भरा रहता था । खाई के चिन्ह प्रव किया । इतनी अधिक वर्षा की कि पानी पार्श्वनाथ की भी दिखाई पड़ते हैं। पुराने कोट के टीले रामनगर के ग्रीवा तक पहुँच गया, किन्तु फिर भी पार्श्वनाथ अपने प्रास-पास तक फैले हुए हैं । ये टीले प्राचीन मदिरों, ध्यान से विचलित नहीं हुए । तभी धरणेन्द्र का प्रासन स्तूपों और अन्य इमारतों के सूचक जान पड़ते हैं। कम्पायमान हुमा मोर उसने प्रवधिज्ञान से पाश्वनाथ
बौदों ने उक्त जनश्रुति मे परिवर्तन किया । क्यों पर भयानक उपसर्ग होना जानकर तत्काल घरणेन्द्र पनाकिनसांग ने लिखा है कि नगर के बाहर नागहृद वती सहित पाकर उन्हें ऊपर उठाकर उनके सिर पर
अथवा सपं सरोवर था जिसके समीप बुद्ध ने सात दिवस फण का क्षत्र तान दिया । उपसर्ग दूर होते ही उन्हें तक नागराज के पक्ष में प्रचार किया था । और सम्राट् ज्ञान प्राप्त हो गया । पश्चात् उस सम्बर देव ने भी अशोक ने इस स्थान पर स्तूप बनवाया था मेरा अनुमान उनकी शरण मे सम्यकत्व प्राप्त किया। पोर अन्य सात है कि बौद्ध कथा मे नागराज को फण फैलाकर बुद्ध पर सौ तपस्वियो ने भी जिन दीक्षा लेकर मात्म कल्याण माया करते दिखलाया गया है मेरा यह भी विचार है कि किया। इस घटना का उल्लेख भाचार्य समन्तभद्र ने उक्त घटना के स्थान पर बनाए गए स्तूप का नाम महि- वृहत्स्वयंभू स्तोत्र में किया है। च्छत्र (सर्पछत्र) रखा होगा।
अहिच्छत्र का उल्लेख प्राचार्य सोमदेव ने अपने पाश्र्वनाथ बनारस के राजा विश्वसेन भोर वामा यशस्तिलक चम्पू [शक सं०८८१ --वि० सं०१० देवी के पुत्र थे। पार्श्वनाथ कुमार अवस्था मे एक दिन के उपासकाध्ययन में किया है।
हो जाने कळतप हरिषेण ने अपने कथाकोश की १२वीं कथा मे पहिसियो को अग्नि जलाकर तप करते देखा। पाश्र्वनाथ ने छत्र के राजा दुर्मुख का उल्लेख किया है। पोर २० अपने विशिष्ट ज्ञान से यह जानकर उन्होने तापस से कहा वी कथा मे केवल पहिच्छत्र का उल्लेख ही नहीं किया
मिली का गल किन्तु वहाँ के राजा वसुपाल ने एक उत्तुग सहस्त्र कूट है। लकडी चीरने पर उसमे से सर्प युगल निकला। चैत्यालय का निर्माण कराया था और भगवान पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ ने उन्हे मरणासन्न जानकर पच नमस्कार की एक सुन्दर कलात्मक मूर्ति तय्यार कराकर उसमें मत्र उनके कान में पढ़ा । उसके प्रभाव से वह युगल विराजमान की थी। राजा ने एक कलाकार द्वारा पाव मर कर नाग कुमार देवों का अधिपति धरणेन्द्र और नाथ की मूर्ति का निर्माण कराया, किन्तु वह उसे पूरी पद्मावती हुमा । इस घटना के बाद पार्श्वनाथ दीक्षित नहीं बना सका । पौर भी अनेक कलाकार पाए, पर वे हो गए । विहार करते हुए वे अहिच्छत्र पहुंचे। भी उसे बना नहीं सके । बहुत दिनों बाद दूसरा कुशल वास्तव में यह घटना सन् ८७६ ईसवो पूर्व तीर्थकर
१. पाञ्चाल देशेषु श्रीमत्पावनाथ परमेश्वरयशः पार्षनाथ के तपस्वी जीवन से सम्बन्धित है । बुद्ध तो
प्रकाशने मन्त्रे पहिच्छेत्रे चन्द्राननाङ्गनारतिकुसुम उस समय पंदा भी नहीं हुए थे। और न उनके जीवन के
चापस्य द्विष तपस्य भूपते रुदितोदित.........." साथ ऐसी कोई घटना ही घटी है। ऐसी स्थित में बौद्धों
-उपासकाध्ययन पृ०८४ के साथ इस घटना का सम्बन्ध बतलाना उचित प्रतीत २. पहिच्छत्रपुरे राजा दुर्मुखोऽभवदिद्धधी। नहीं होता। जब वे अहिच्छत्र में ध्यानस्थ थे उस समय
-हरिषेण कथाकोश पृ० २२