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________________ १४, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त सिमांतसार संग्रह (नरेन्द्रसेनाचार्य) परिच्छेद ३- अर्थ किसी शब्दकोश में नहीं पाया जाता। शायद वास्त क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं, दासी दासस्तथा पुनः । को वस्तु (चीज) समझ लिया हो)। सुवर्ण रजतं भांड, हिरण्यं च परिग्रहं ॥३॥ हिन्दी प्रन्थ बाह्यो वश प्रकारोऽयं संख्यादि विशेषत: ॥१४॥ ८. उमास्वामी श्रावकाचार श्लोक ३८१ की हलायुध (इसमे 'कुप्य' न देकर 'रजत' दिया है) जी कृत हिन्दी टीका पृ० १३१ । (३) देवसेन कृत माराघनासार की रत्ननंदि कृत टीका ६. श्रावक धर्मसंग्रह (दरयावसिंह जी सोषिया कृत) (गाथा ३०) पृ० ३८ पृ० २१६, १३२ । "क्षेत्रवास्तु हिरण्य सुवर्ण धनधान्य दासीदास कुप्य १०. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १० की सदासूख जी भांड बाह्य परिग्रहाणां"। कृत वचनिका मे। (४) दर्शन पाहुड गाथा १४ और भाव पाहुड गाथा ५६ ११. धर्म शिक्षावलो चतुर्थ भाग। की श्रुतसागरी टीका मे १२. सरल जैनधर्म चतुर्थ भाग पृ० २३ । क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं, द्विपदं च चतुष्पदं । १३. वरागचरित का हिन्दी अनुवाद (गोरा बाला जी) हिरण्य च सुवर्ण च, कुप्यं भाडं बहिर्वश ।। पृ० ३४६ । -इति पागम भाषया १४. पुरुषार्थ सिद्धघुपाय की सत्यधर जी कृत हिन्दी टीका (दासी दास की जगह यहाँ द्विपद चतुष्पद कर दिया (श्लोक १२८)। है और इन्हें आगम का कथन बताया है किन्तु दि. १५. "विश्वशांति और अपरिग्रहवाद" पृ० २१ । मागम में तो ऐसा कथन देखा नही जाता, सभवत: "पागम १६. पाराधनासार की हिन्दी टीका १०६१ । भाषया,' से तात्पर्य श्वे. मागम-ग्रन्थों से हो; क्योंकि श्वे. १७. जैन धर्मामृत (पं० हीरालाल जी) पृ० १५० । ग्रन्थों में ऐसे कथन पाये जाते है)। १८. नागकुमार चरित हिन्दी (उदयलाल जी काशली(५) बोधपाहुड गाथा ४५ की श्रुतसागरी टीका में वाल) १० ६५, ६६ ।। केते दश बाह्य परिग्रहा: ? क्षेत्र, वास्तु, हिरण्यं, १६. योगसार टीका (ब० शीतलप्रसाद जी कृत) १० सुवर्ण, धनं, धान्यं दासी, दासः, कुप्य । १७६, १६६-१९७। (तत्त्वार्थ सूत्र के इन नामो को ही प्रोर वह भी २०. जैनधर्म प्रकाश (ब० शीतल प्रसाद जी कृत) १० बिना 'भांड' नाम मिलाये ही दश परिग्रह बता दिये है १५१-१५२ । और हिन्दी अनुवादक जी ने भी कुप्य का जो चन्दना- २१. मोक्षमार्ग प्रकाश भाग २ (५० शीतलप्रसाद जी कृत) गुरु' प्रर्थ दिया उसे १०वा भेद बना डाला है)। पृ. ३५। (६) भावसंग्रह संस्कृत (वामदेव कृत) पृ० ११२- २२. श्री वर्धमान महावीर (दिगंबरदास जी मुख्तार) क्षत्रं गृह धनं धान्यं, सुवर्ण रजत तथा । पृ. २६८। बास्यो वासाश्च भांड च, कुप्यं बाह्य परिग्रहाः ॥६२५ २३. छहढाला-हिन्दी टीका (पं. बुद्धिलाल जी, देवरी) (७) लाटीसंहिता (प. रायमल्लजी कृत) सर्ग ६ श्लोक १०१६ । ९८ से १०७ २४. छहढाला-हिन्दी टीका (पं० मनोहरलाल जी, (पूर्ववत् कथन ही दिया है किन्तु क्षेत्र में गृह को जबलपुर) परिशिष्ट पु० ७६ । भी सामिल कर दिया है। "क्षेत्र स्याद् वसतिस्थानं २५. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्रकृत संस्कृत धान्याधिष्ठानमेव वा" । और वास्तु का प्रथं गृह न देकर टीका का हिन्दी अनुवाद पृ० २०३ पौर २८३ । वस्त्रादि दिया है "वास्तु वस्त्रादि सामान्य"। किन्तु (संस्कृत टीका मे सही है)। वास्तु' का अर्थ वसतिस्थान 'गृह' होता है, 'वस्त्रादि' २६. पचलब्धि (मूलशंकर जी देशाई) पृ. ६४ ॥ ' तुम
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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