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________________ वश बाह्य-परिग्रह A १० परिग्रह बताए है। इन प्रमाणो में--खेत, घर, धन, दिए हैं उनकी संख्या भी ही हैं, दस नही। ये नाम धान्य, दोपाये चौपाये, सवारी, शयनासन, कुप्य और भी सामान्य है पन्ग्रिह के व्यावर्तक भेद रूप नहीं है भांड ये दश प्रकार के बाह्य परिग्रह बताये है। इनमे क्योकि इनमें जो "हिरण्य-सुवर्ण" नाम है वे तो 'धन में संसार के यावन्मात्र चेतन अचेतन मिश्र सभी प्रकार के गभित हो जाते है, 'दासीदास' 'द्विपद' मे मा जाते हैं पदार्थों का समावेश हो जाता है। प्रमाण न० ५, ११, इसके सिवा चोपाये, यान, शयनासन और भाड ये नाम १३. और १६ मे "यान"-(सवारी) नही दिया है। हैं ही नहीं। फिर भी कुछ ग्रंथकारो ने परिग्रह परिमाण "शयनासन" के शयन और प्रासन ऐसे दो भेद करके व्रत के इन अतिचार नामो मे "भाड" और मिलाकर उन्ही में 'यान' को गभित कर दिया है। कुल १० सख्या बना दी है और उन्हे दश बाह्य परिवह १६. प्रबोधसार (यश.कीतिकृत) अध्याय २ बना दिया है जो ममुचित प्रतीत नहीं होता। विद्वानों को भूमिर्वास्तु धनं धान्यं, वस्त्रादि शयनासनं । इस पर विचार करना चाहिए। पं० भूधर जी मिश्र को द्विपदाः पशु रत्नादि, बाह्योऽयं दशधोपधिः ॥१०॥ भी इस विषय मे शंका हई है उन्होने "चर्चासमाषान" इसमे 'चतुष्पद' की जगह 'पशु' शब्द दिया है और पृ० ५६ पर बाह्यपरिग्रह के वास्तविक १० भेद देते हा 'कूप्य' की जगह 'वस्त्रादि' दिया है तथा 'भांड' की जगह (जो पूर्व म प्रमाण न. १७ मे उद्धृत किए गए हैं) 'रत्नादि' दिया है जो सब समनार्थक ही है। लिखा है कि-"इहा कोई कहे सूत्र जी में परिग्रह के ३०. घवला पुस्तक १३ पृष्ठ ६५ मे-"खेत्त वत्थ भेद मोर भांति कहे है सो क्यो? तिसका उत्तर-कुप्य धण घण्ण दुवय च उप्पय जाण सयणासण सिरस कुल गण नाम भेद मे सब गभित है"। सधेहि' बाह्य परिग्रह बताये है । इनमे दश भेद की दृष्टि प. भूधर जी ने जो समाधान दिया है वह सम्यक से कथन नही है फिर भी उन्ही का समर्थन किया गया है। प्रतीत नही होता; क्योकि-कृप्य मे सब गभित नही होते अगर होत है तो १० भंद करने की जरूरत नही थी फिर क्योकि ८ नाम तो क्रमशः वे ही है। तो १ 'कुप्य' हो दे देना चाहिए था व्ययं अन्य नाम क्यो मोक्षशास्त्र अ० ७ सूत्र २६ दिए ? इसस अच्छा तो 'धन' रहता जिसमे सब गभित क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्ण धनधान्य, दासीवास कुप्य हो जात। प्रमाणाति क्रमाः सही बात तो यह है कि-मिश्र जो का शका समाइस सूत्र मे परिग्रह परिमाणवत के ५ प्रतिचार धान ही व्यथ है कारण कि-तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ७ बताए है । जिनका खुलासा इस प्रकार है : सूत्र २६ म परिग्रह क दश भेद नहीं बताय है वहाँ तो सागार धर्मामृत अध्याय ४ ५ प्रतिचार बताये है जो परिग्रह वस्तुमो के माघार वास्तुक्षेत्र योगाधन धान्ये बंधनात्कनक रूप्ये। पर है। दानात्कुप्ये भावान्न गवादी गर्भतो मितिमतीयात् ॥६४॥ ऐसा प्रतीत होता है कि-इस तथ्य को ठीक तरह श्रावकधर्म विधि प्रकरण (हरिभद्र श्वे.) से नही समझने के कारण कुछ अर्वाचीन अथकारो ने खेताह हिरण्णाई घणाइ दुपयाइ कुप्प पमाण कमे। भ्रमवश इन्हे परिग्रह के भेद समझ लिया है और इसो से जोयण पयाण बधण कारण भावे हि नो कुणइ ।।८।। इनमे 'भाड' पौर मिला कर बाह्य परिग्रह के १० मंद इनमे बताया है कि-क्षेत्र और गृह को परस्पर कर दिए है जो कितने गलत है यह पूर्व में बता पाए है संबद्ध करके, हिरण्य और सुवर्ण का दान करके, धन और र धान्य को बधक-गिरवी रखके, दोपाये चौपाये को गर्भा- अब उनका नीचे परिचय प्रस्तुत किया जाता है :धान से और कुप्य को भाव (परिमाणान्तर) से अतिक्रम (१) द्रव्य संग्रह की ब्रह्मदेव रचित टीका (गाथा ५५/नहीं करना चाहिए। इस तरह युग्म रूप से ५ अतिचार क्षेत्रवास्तु हिरण्य सुवर्णधन धान्य वासी वास कर बताए हैं। परिग्रह के भेद नहीं बताये है। जो नाम भांडाभिधान वशविष बहिरंग परिग्रहेण च रहितं ।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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