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वश बाह-परिग्रह
जी.
२७. रलकरंड श्रावकाचार की हिन्दी टीका (क्षीरसागर भ्रमवश परिग्रह के भेद समझ कर की है जब कि ये कथन जी महाराज कृत) १० ३५ ।
परिग्रह परिमाण व्रत के अतिचार है देखिए :२८. बृहज्जैन शब्दार्णव भाग २ (ब. शीतलप्रसाद जी) पच प्रतिक्रमण पृ०६:पृ० ५३१ ।
धण षण्ण खित्त वत्थ, रुप्य सुवण्णेष कुविन परिमाणे । इन २८ ग्रन्थों में गलत दश बाह्य परिग्रह दिये गये दुपए चउपयम्मिय, पडिकम्मे देसि सव्वं ॥१८॥ हैं। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ७ सूत्र २६ के कथन को परिग्रह इच्छा परिमाणस्स समणोवासएणं इमे पंच-षणके प्राचीन भेद समझ लिया गया है जो भ्रम-मूलक है। घण्ण पमाणा इक्कमे, खित्त वत्थ पमाणाइक्कमे, हिरण अगर सूत्रकार १० नाम देते तो कदाचित् भ्राति सभव सुबष्ण पमाणाइक्कमे, दुपय चउप्पय पमाणाइक्कमे, कुविय थी; किन्तु सूत्रकार ने ही नाम दिये है और वे भी अति- पमाणाइक्कमे । (आवश्यक सूत्र पृ० ८२५)। चार रूप में दिये हैं परिग्रह के भेद रूप में नहीं, फिर भी तत्त्वार्थ सूत्र के परिग्रह परिमाण अतिचार मे और इस भ्रांति का प्रचार दीर्घकाल से हो रहा है और अब उपरोक्त मे सिर्फ यह अन्तर है कि उपरोक्त के "दुपय तो पाठ्यपुस्तकों तक में यह गलती प्रचलित हो गई है चउप्पय" की जगह तत्त्वार्थ सूत्र मे 'दासी दास" है तदअत: विचारक विद्वानों को इस पोर ध्यान देना चाहिए नुसार ही श्वे० दि० ग्रथकारों के गलत परिग्रह भेदों मे ताकि इस गलती की पुनरावृत्ति न हो। बाह्य परिग्रह के
अन्तर पड गया है इस विषय में एक अन्तर और है दि. वास्तविक दशभेद वे ही है जो निबघ के प्रारम्भ मे २० ग्रथकारो ने तो "भाड" और मिला कर कुल १० बाह्य शास्त्र प्रमाणों द्वारा प्रस्तुत किए गए है।
परिग्रह बताए है क्योंकि दि० सप्रदाय मे बाह्य परिग्रह इस विषय में श्वे. शास्त्रों में कैसा कथन है वह
की १० संख्या प्राचीन काल से प्रचलित रही है जैसा कि नीचे संक्षेप में बनाया जाता है :
रत्नकरड श्रावकाचार कारिका १४५ से भी सूचित होता (i) तत्त्वार्थसूत्र अ०७ सूत्र १२ की सिद्धसेन गणी है "बाह्य षुदशसु वस्तुषु"। जब कि श्वे० ग्रन्थकारों ने कृत टीका (भाग २ पृ० ८०)
बिना कोई परिवर्धन किए ही बाह्यपरिग्रह बताए हैं। "बहिरपि वास्तु क्षेत्र धनधान्य शय्यासन यान कुप्य यहाँ एक बात और ज्ञातव्य है कि-'परिग्रह परिद्वित्रि चतुःपादभांडाख्य इति"।
माण' व्रत मे सामान्य परिग्रह का ही ग्रहण किया है शेष यह उल्लेख बाह्य परिग्रह के वास्तविक दश भेदों के भोगोपभोग सामग्री, 'भोगोपभोग परिमाण' गुणव्रत में कथनानुसार है अत: सही है किन्तु कुछ दि० ग्रंथकारों की गभित की गई है जब कि दश बाह्य परिग्रहों में सभी तरह कुछ श्वे० ग्रन्थकारों ने भी इस विषय मे भूल की परिग्रह और सभी भोगोपभोग-सामग्री गर्भित की गई है। है, देखिए :
बाह्य परिग्रह के वास्तविक दश भेद-क्षेत्र, वास्तु, (i) मोक्षशास्त्र-अध्यात्मोपनिषद (हेमचन्द्राचार्य) धन, धान्य, द्विपद चतुष्पद, यान, शय्यासन, कुप्य, भांड द्वितीय प्रकाश के श्लोक नं०११५ का स्वोपज्ञ भाष्य का नोच थोड़ा विवरण प्रस्तुत किया ।
का नीचे थोड़ा विवरण प्रस्तुत किया जाता है। जिससे पत्र १५५--
यह जाना जा सकेगा कि किस भेद में क्या पदार्थ गर्भित धन धान्यं स्वर्णरूप्य, कुप्यानि क्षेत्र वास्तुनी।
द्विपाच्चतुष्पादचेतिस्य, नव बाह्याः परिपहाः ॥१॥ १. क्षेत्र-सभी प्रकार की जमीन-खेत, खला, डोहली, (ii) पच प्रतिकृमण (प. सुखलाल जी संघवी) १०
प्लाट, पर्वत, नदी, नाला, समुद्र, बावड़ी, कुमां, ३११३१२।
बांध, बाग, बगीचा आदि। "धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, सोना, चांदी, वर्तन, विपद, २. वास्तु-सभी प्रकार के मकान-मंदिर, मकान, चतुष्पद' ये नव प्रकार के परिग्रह बताए है।
नोहरा, (निकटगृह), महल, भवन, कोठार, तलघर, यह भूल इन ग्रन्थकारों ने निम्नाकित कथनों को अटारी, खाई, गुफा, कोटर, घंटाघर मादि ।