________________
१६, वर्ष २४, कि०२
अनेकान्त
प्राचीनता। वैदिक संस्कृति एवं जैन संस्कृति का तुलना. काशी। प्रकाशक गणेशवर्णी ग्रन्थमाला, १११२८ डुमराव त्मक अध्ययन । जैन धर्म का प्राशय । जैन कथा साहित्य, कालोनी अस्सी वाराणसी, मूल्य ५) रुपया। जैन कथानों में अध्यात्मवाद । जैन कथानों में चित्रित
प्रस्तुत ग्रन्थ मे प्राचार्य पुष्पदन्त प्रणीत सत्प्ररूपणा सामाजिक जीवन । प्रादि विषयो पर लेखक ने अच्छा।
सूत्र दिया हुआ है । प्राचार्य पुष्पदन्त चन्द्रगुहा निवासी प्रकाश डाला है। कथाओं के सांस्कृतिक अध्येतानो के
प्राचार्य घरसेन के विद्या शिष्य थे। उनसे महा कर्मप्रकृति लिए पुस्तक उपयोगी है। प्रकाशन सुन्दर और गेटप मनो
प्राभूत पढ़कर प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर प्रस्तुत हर है, परन्तु पुस्तक का मूल्य कुछ मधिक जान पडता है। सत्प्ररूपणा सूत्र रचे और जिन पालित को दीक्षित कर ४. लोक विजययंत्र-सानुवाद और विस्तृत विवेचन
तथा पढाकर उन्हें प्राचार्य भूत वलि के पास भेजे । प्राचार्य सहित । सम्पादक डा० नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य, अध्यक्ष
भूतबली ने उन्हें पाकर और पुष्पदन्त को अल्पायुसंस्कृत विमाग, एच०डी० कालेज पारा (बिहार) प्रका- जान कर महाकर्म प्रकृति प्राभत के विच्छेद के भय से शक वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट । प्राप्ति स्थान, मन्त्री वीर द्रव्यप्रमाणानुगम को प्रादि लेकर, जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, सेवा मन्दिर ट्रस्ट, चमेली कुटीर, १।१२८ डुमराव बन्धस्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्धरूप कालोनी मस्सी, वाराणसी-६, मूल्य दस रुपया । षट्खण्डागम सूत्रों की रचना की। प्राचार्य पुष्पदन्त ने
_इस लोक विजय मन्त्रमें अंक संख्या के निर्धारण द्वारा घर सेनाचार्य से प्राप्त ज्ञान को सत्प्ररूपणा के रूप में मानव के सुख-दुःख, समर्घ-महर्ष, वर्षा-वायु, सुभिक्षदुर्भिक्ष, सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया था। यद्यपि यह सत्प्ररूपणा रोग, धन-धाग्य-रस निष्पत्ति, समृद्धि प्रादि की सही धवला टीका और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ श्रीमान जानकारी प्राप्त करानेका प्रयास किया गया है। ग्रंथमें लोक सेठ लक्ष्मीचन्द सितावराव जैन साहित्योद्धारक फण्ड विजययन्त्रको बनाने, देश और दिशा दोनों ध्रुवांकों के द्वारा अमरावती से षट्खण्डागम की प्रथम पुस्तक के रूप में गणित करके फला देश निकालने का अच्छा विवेचन किया प्रकाशित हो चुका है। किन्तु वह पुस्तक इस समय प्राप्य गया है। डा० साहब ने उदाहरण देकर उसे स्पष्ट किया नहीं है । इस कारण इसे प्रकाशित करना आवश्यक था। है डा० नेमिचन्द्र जी ने ५३ १० की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना श्री पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री ने उक्त सूत्रों का सकलन पोर परिशिष्टों द्वारा इस विषय को अत्यन्त सुगम बनाने और हिन्दी अनुवाद किया और उसमे कुछ उपयोगी का प्रयत्न किया है। यद्यपि ग्रन्थ की मूल गाथा ३० है, शका समाधान को सन्निहित कर स्वाध्यायी जनों के लिए पौर में प्रतापगढ़ के वैद्य जवाहरलालजी से मुख्तार साहब सुलभ कर दिया है । साथ ही प्राक्कथन लिखकर तो उसे को प्राप्त हुई थीं । इसमें सन्देह नहीं कि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण और भी उपयोगी बना दिया है। प्रावकथन में षट्खण्डाहै, परन्तु उसके अनुवाद और विस्तृत विवेचन के बिना गम और प्रज्ञापना के सम्बन्ध में भी विचार किया है। उसके समझने में कठिनाई होती थी। पर डा. साहबने अपने किन्तु वह बहत सक्षिप्त है, उसके सम्बन्ध में और भी विवेचन से उसे सरल एव सुगम बना दिया है। इसके लिए प्रकाश डालना जरूरी है। जिससे पं० दलसुख मालवडा० साहब का पाभार मानना आवश्यक है । ग्रन्थ का णिया का वह प्रामाणिक उत्तर ही न हो, किन्तु पाठकों मूल्य दस रुपया है। ज्योतिष के अध्येतानों और सुभिक्ष को क्षेत्रों की तरह दिगम्बर शास्त्रो को अपना बनाने की दुभिक्षादि के फला देश जिज्ञासुओं के लिए ग्रन्थ उपयोगी भावना का भी निदाकरण हो सके । और समाज में तथा है। मंगाकर पढ़ना चाहिए । वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट का विद्वानों में उसके संरक्षण की भावना भी जागृत हो सके। यह प्रकाशन सुन्दर है।
वर्णी प्रांथमाला का यह प्रकाशन सुन्दर है। छपाई ५. सत्प्ररूपणा सूत्र-(हिन्दी अनुवाद सहित) मूल सफाई उत्तम है। यह ग्रन्थ मन्दिरों, ग्रन्थ भण्डारों, पुस्तलेखक प्राचार्य पूष्पदन्त, सम्पादक और अनुवादक पं० कालयों और स्वाध्यायी जनों को मंगा कर अवश्य पढ़ना कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, प्राचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय चाहिए।