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________________ साहित्य-समीक्षा प्रशस्ति को मूल ग्रंथकार की मान ली जाये । अतः उक्त प्रशस्ति के आधार पर धनपाल की भविष्यदत्त कथा को विक्रम की १४वीं शताब्दी की रचना मानना किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता ज्ञानपीठसे शोध प्रबन्ध छपने से पहले मैंने उसके रचना काल पर विचार लेख को डा० गोकुलचन्द जी को बतलाया था, और उन्होने कहा था कि सशोधन हो जायगा । फिर भी सशोधन नहीं हुआ, वह ज्यों का त्यों छपा दिया गया, गोप प्रवश्यक निर्णायकों ने भी उस पर विचार नहीं किया। लेखक को भूल जात होने पर भी उसका सुधार नहीं किया गया, आशा है डा० देवेन्द्रकुमार उसका संशो धन करेंगे । शोध-प्रबन्धों में इस तरह की स्थूल भूलों का रह जाना बड़ा खटकता है । ज्ञानपीठ का प्रकाशन सुन्दर है। पाठकों को उसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए । । २. द्विसधान महाकाव्य (संस्कृत हिन्दी टीका सहित) मूलधनजय कवि सम्पादक प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला | प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, सुभाषमार्ग दिल्ली | पृष्ठ संख्या ५०६ मूल्य १५ ) रुपया । । प्रस्तुत काव्य का नाम द्विसन्धान काव्य है, जिसे राघवपाण्डवीय काव्य भी कहते है । इस ग्रन्थ मे रामायण और महाभारत की कथा इस कौशल से लिखी गई है कि उसके एक अर्थ मे राम का चरित्र निकलता है तो दूसरे मे कृष्ण चरित्र । इस रूप मे लिखा गया यह काव्य सर्वश्रेष्ठ काव्य है । यह कृति गृहस्थ कवि घनजय की रचना है रचना बड़ी सुन्दर और दो की प्रतिपादक है। यद्यपि बाद के विद्वानों ने अनेक काव्य रमे है, परन्तु उनमे धनजय की यह कृति सबसे प्राचीन और गम्भीर अर्थ की द्योतक है । ग्रंथ में १८ सर्ग है जिनके ११०४ इलाको मे इस महा काव्यको रचना हुई है। इसका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद प्रो० खुवालचन्द जी गोरावालाने किया है धनुवाद सामान्यतया अच्छा और सरल है। ग्रन्थ की दो टीकाए है उनमें से मूल के साथ विनयनन्दि के प्रशिष्य और देवनन्द के शिष्य नेमिचन्द की पद कौमुदी नामकी संस्कृति टीका भी दे दी गई है। इसकी दूसरी टीका राघव पाण्डवीय भी प्रकाशित है जिसके कर्ता परवादिचरट्ट ६५ रामभट्ट के पुत्र कवि देवर है। ये दोनों टीकाएं प्रारा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद हैं। डा० हीरालाल और डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस ग्रन्थ की महत्वपूर्ण प्रस्तावना अंग्रेजी और हिन्दी में लिखी है । कवि ने अपना कोई परिचय और गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया प्रस्तावना में धनंजय कवि की अन्य कृति विषाहार स्तोत्र ( श्रादिनाथ स्तोत्र ) और धनंजय नाममाला है । इस ग्रन्थ के १८वें सर्ग के १४६३ श्लोक में वलेपरूप में धनंजय के पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम श्रीदेवी और गुरु का नाम दशरथ उपलब्ध होता है । जो दशरूपक के कर्ता से भिन्न हैं । कवि धनजय का समय डा० हीरालालजी और डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में ८०० ई० अनुमानित किया है, जो उचित जान पड़ता है क्योंकि विक्रम की हवी शताब्दी के विद्वान और षट्खण्डागम तथा कसायपाहुड की घवला जयघबला टीकाओंों के कर्ता वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका की पुस्तक ९ पू० २३७ मे धनजय नाममाला का एक पद्य उद्धृत किया है । जो इस प्रकार है: : "तावेवं प्रकारादी व्यवच्छेदे विषये । प्रादुर्भावे समाप्ते च इति शब्दः प्रकीर्तितः ॥" इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत धनंजय उसके बाद के विद्वान नहीं हो सकते ग्रन्थ का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है, प्रकाशन उसके अनुरूप हुआ है। पाठकों को मंगाकर उसे अवश्य पढना चाहिए । ३. जैन कथानों का सांस्कृतिक अध्ययन - लेखक श्रीचन्द जैन प्रकाशक सुशील बोहरा, बोहरा प्रकाशन, चैनसुखदास मार्ग, जयपुर पृष्ठ संख्या १६० मूल्य १३ रुपये । प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन कथानों का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने संस्कृति और सभ्यता का तथा इनके पारस्परिक भेदकत्व, संस्कृति के अवान्तर रूप, लोक जीवन में संस्कृति का सम्बन्ध, जैन संस्कृति का विश्लेषण, जैन कथानों में गुम्फित सूक्तियां । संस्कृति की विशेषताएं धौर मूल तत्व, जैन संस्कृति की मापेक्षिक
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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