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________________ १६८, वय २४, कि०४ अनेकान्त श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए । संसार पाठ-प्रहर का प्रोषवोपवास करके वहाँ रहे हुए थे । को त्याग कर चले गये। जन्म-ग्रहण की परम्परा का उन्होंने यह विचार किया कि भावोद्योत प्रांत ज्ञानरूपी उच्छेद कर चले गये। उनके जन्म जरा, और मरण के प्रकाश चला गया है अतः अब हम द्रव्योद्योन करेगे अर्थात् सभी बन्धन नष्ट होगये। भगवान सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगये दीपावली प्रज्वलित करेंगे ॥१२७।। सब दुःखों का अन्त कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । कल्पसूत्र के इस विवरण से कई महत्वपूर्ण बातों पर महावीर जिस समय कोलधर्म को प्राप्त हए, उस प्रकाश पड़ता है-(१) भगवान महावीर का निर्वाण समय चन्द्र नामक द्वितीय सवत्सर चल रहा था। प्रीति- राजा हस्तिपाल की नगरी पावापुरी में हुषा था । (२) वर्षन मास नन्दिवर्धन पक्ष, अग्निवेश दिवस (जिसका भगवान के निर्माण के समय वहाँ पर मल्लगण संघ के नौ, दूसरा नाम 'उवसम' भी है) देवानन्दा नामक रात्रि (जिसे लिच्छवि गण संघ के नौ और काशी-कोशल के अठारह निरइ भी कहते हैं)। प्रर्थनामक लव, सिद्धनामकस्तोक, राजा (गण संस्थागार के सदस्य) विद्यमान थे। (३) नाग नामककरण, सर्वार्थसिद्धि नामक मुहूर्त तथा स्वाति उस घोर अन्धकाराच्छन्न रात्रि में देवी-देवताओं के कारण नक्षत्र का योग था। ऐसे समय भगवान कालधर्म को तो प्रकाश था ही, उन राजानों ने द्रव्योद्योत किया। प्राप्त हुए, वे ससार छोड कर चले गये। उनके सम्पूर्ण (४) तथा यह पावा मध्यम पावा कहलाती थी। दुःख नष्ट हो गये।" इस महत्वपूर्ण विवरण के पश्चात् विस्तार सख्या भगवान के निर्वाण-गमन के समय अनेक देवी-देव- १४६ में इसी सत्र में यह भी कथन किया गया है कि तामो के कारण प्रकाश फैल रहा था। तथा उस समय इस प्रवपिणी काल का दुषम-सुषम नामक चतुर्थ पारा अनेक राजा वहा उपस्थित थे और उन्होने द्रव्यो द्योत बहुत कुछ व्यतीत होने पर तथा उस चतुर्थ पारे के तीन किया था, इसका वर्णन करते हए कल्पत्रकार कहते है- वर्ष और साढ़े पाठ महीना शेष रहने पर मध्यम पाबा 'ज रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए नगरी मे हस्तिपाल गजा की रज्जुक सभा में एकाकी, जाव सव्वदुक्खप्पहीणे साणं रयणी वहि देवेहि षष्ठम तप के साथ स्वाती नक्षत्र का योग होते ही, प्रत्यूष य देवेहि य प्रोवयमाणेण य उपयमाणेहि य उज्जो- काल के समय (चार घट का रात्रि अवशेप रहने पर विया यावि होत्या ।।१२४॥ पद्मासन से बैठे हा भगवान वल्याण फल-विपाक के 'ज रयीण च णं समणे जाव सव्वदक्खप्पहीणे पचपन अध्ययन, और पाप फ7 विप.क के दूसरे पचपन तं रणि च ण नव मल्लइ नव लिच्छई कासी- अध्ययन, और अपृष्ट अर्थात् किसी के द्वारा प्रश्न न किये कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो अमावसाए जाने पर भी उनके समाधान करने वाले छत्तीस अध्ययनो पाराभोयं पोसहोववास पवइंसु, गते से भाव. को कहते-कहते काल धर्म को प्राप्त हुए।' ज्जोए दव्वज्जोव करिस्सामो ॥१२७।। इस विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवान अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर काल- निर्वाण के समय राजा हस्तिपाल की सभा में थे। वहीं धर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःखपूर्ण रूप से उपदेश करते-करते उनका निर्वाण होगया। इससे एक नष्ट हो गये, उस रात्रि में बहुत से देव और देवियाँ अन्य निष्कर्ष यह भी निकलता है कि भगवान समवसरण नीचे पा जा रही थी; जिससे वह रात्रि खूब उद्योतमयी के बिना भी उपदेश करते थे । यदि राजा हस्तिपाल की हो गई थी ।।१२४।। उम सभा (सस्थागार। मे ही देवतानों ने समवसरण की जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को रचना कर दी थी तो भगवान के निर्वाण-काल तक समप्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये, उस वसरण था, इसका विसर्जन नही हुमा था पोर न भगवान रात्रि में नौ मल्लसघ के, नौ लिच्छवि संघ के पौर ने अन्तिम समय में योगों का निरोध ही किया था। वे काशी-कोशल के पठारह गणराजा अमावस्या के दिन बोलते ही बोलते मुक्त होगये थे।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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