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________________ ४८, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त समाज और संस्कृति और सामान्य-विशेष साध्वाचार में नहीं मिलता। साधु के आहार-विहार प्रादि पर विचार किया गया है, प्राचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दशवी तपश्चर्या परिषह जय, साधु की प्रतिमाए और सल्लेखना शताब्दी है। तत्त्वार्थसार की हिन्दी टीका पं० पन्नालाल पर विशेष विचार किया गया गया है। साथ ही विषय जी साहित्याचार्य ने बनाई है टीका सरल भोर अपने को स्पष्ट करने के लिए संक्षिप्त एवं सरलरूप में वस्तु विषय की अभिव्यंजक है, ३८ पृष्ठ की प्रस्तावना मे तत्त्व को रखने का उपक्रम किया गया है। चार परि सम्पादक ने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में अच्छा शिष्टों द्वारा उसे और भी सरल करने का प्रयत्न किया प्रकाश डाला है। प्रस्तावना में तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध है। इस तरह सारा ही ग्रन्थ लेखक की भावना पोर १२ टीकामों का उल्लेख किया है, निम्न दो टीकामों का परिश्रम से सून्दर बन पड़ा है। भाषा मुहावरेदार है उसमें उसमें उल्लेख नहीं है। गति है-प्रवाह है। इसके लेखक महानुभाव धन्यवादाहं श्रवण वेल्गोला के शिलालेख नं० १०५ में शिवकोटि हैं। ग्रन्थ के इस सुन्दर प्रकाशन के लिए विद्याश्रम के को समन्तभद्र का शिष्य और तत्त्वार्थसूत्र की टीका का सचालकगण धन्यवाद के पात्र है। प्राशा है भविष्य मे कर्ता उदघोषित किया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से जनाश्रम से और भी अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन हो प्रकट है :सकेगा। तस्यैव शिष्यो शिवकोटि सूरि स्तपोलतालम्बव देहयष्टिः । ४. तत्वार्थसार-प्राचार्य अमृतचन्द्र सम्पादक पं. संसारवाराकरपोतमेतत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार । पन्नालाल जैन साहित्याचार्य । प्रकाशक मत्री गणेश वर्णी दूसरी टीका उन प्रभाचन्द की है जो भ० धर्मचन्द्र ग्रन्थमाला डुमराब वाग अस्सी वाराणसी ५ । डेमीसाइज ज के पट्टधर थे। जिसे उन्होने जताख्य नाम के ब्रह्मचारी मूल्य ६) रुपया। के सम्बोधनार्थ संवत् १४८६ में भाद्रपद शुक्ला पचमी के ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है । प्रस्तुत ग्रंथ दिन बनाकर समाप्त किया था। इनके अतिरिक्त अन्वे. मे प्राचार्य अमृतचन्द ने तत्त्वार्थ सूत्र के सार को पल्लवित षण करने पर और भी ठीकानों का उल्लेख प्राप्त हो एव विकसित करते हुए वस्तुतत्व का विवेचन किया है । सकता है। और कहीं-कही तो उन्होंने अनेक नवीन तथ्यों का उद्घा. ___ ग्रन्थ का प्राक्कथन पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य टन किया है, जिससे विषय को समझने में सरलता हो ने लिखा है, जिसमें प्राचार्य प्रमतचन्द्र के सम्बन्ध मे अच्छा गयी है । प्राचार्य अमृतचन्द्र बहुश्रुत विद्वान थे, भाषा और प्रकाश डाला है। इसके लिए पंडित जी भोर सम्पादक विषय पर उनका अधिकार था। पा. कुन्दकुन्द के सारत्रय दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं। ग्रन्थों की जो टीका बनाई है वह कितनी महत्वपूर्ण है ___ ग्रन्थ का प्रकाशन गणेश वर्णी ग्रन्थमाला से हुमा इसे बतलाने की अावश्यकता नही है उसके रसिकजन है। ग्रन्थमाला के मत्री डा० दरवारीलाल जी ने प्रयत्न उसकी महत्ता से स्वय परिचित है। टीकाकार ने ग्रंथ के करके ग्रन्थमाला को पुनरुज्जीवित किया है। प्राश है हार्द को उद्घाटित करने का पूरा प्रयत्न किया है । भाषा डा. माके सद प्रयत्न से ग्रन्थमाला मौर भी पल्लावित गभीर मौर सरस है, पढने में बड़ी रुचिकर प्रतीत होती होगी। इस उपयोगी प्रकाशन के लिए मंत्री महोदय है। जान पड़ता है अथकार के भाव को टीकाकार ने धन्यवाद के पात्र हैं। पात्मसात् किया है, वे प्रध्यात्म विषय के महान विद्वान -परमानन्दन शास्त्री थे । पुरुषार्थ सिद्धघुपाय नाम की २२६ श्लोकों की प्रसाद गुणयुक्त रचना है, जो श्रावकाचारों में अपना महत्वपूर्ण १. देखो, अनेकान्त वर्ष ८ कि. स्थान रखती है, उसमे रत्नत्रय का सुन्दर कथन दिया है २. अनेकान्त वर्ष २ किरण ६ पृ. ३७५. और अहिंसा का जो सूक्ष्म विवेचन किया है वैसा अन्यत्र ३. जैन प्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग १ पृ० १७३
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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