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________________ पं० मिलापचन्द जी कटारिया का देहावसान पडित मिलाप चन्द जी कटारिया अच्छे विद्वान और लेखक थे। जैन समाज उनके खोजपूर्ण लेखों से भली भांति परिचित है । वे प्रतिष्ठाचार्य भी थे, अनेक मन्दिर और मूर्तियों की प्रतिष्ठा उन्होंने कराई थी, पर उन्होने प्रतिष्ठानों से कभी धन कमाने की इच्छा नहीं की। प्रतिष्ठाशास्त्र के अच्छे विद्वान तथा शास्त्र प्रवक्ता थे । अनेक शंकानो का समाधान करते हुए मैने उन्हे देखा है। वे वस्तु की तह मे प्रविष्ट होकर उसके हार्द को समझाने में कुशल थे। उनको परिणति शान्त थी। अपना कार्य करते हुए भी वे सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते रहते थे। केकडी की जैन समाज मे उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। वे आज नही है, वैशाख सुदी १० वी बुध. वार को उनका स्वर्गवास बोलते-बोलते हो गया। उनके सुपुत्र प० रतनलाल जी कटारिया प्राने पिता के समान ही विद्वान और लेखक हैं। उनके भोजपूर्ण लेख अनेक पत्रों में तथा अनेकान्त में प्रकाशित हुए हैं । मै और अनेकान्त परिवार उनके इस वियोग जन्य दुःख मे समवेदना व्यक्त करते हुए दिवगत प्रात्मा के लिए सुख-शान्ति की कामना करता हूँ। प्राशा है ५० रतनलाल जी अपने पिता जी की कीति को चिर स्थायी बनाये रखेगे । (पृ० ४१ का शेष) वस्तु है। गले में माला है । किरीट भी दिखाई देता है। नीचे पद्मासन मुद्रा में पुन: ५-५ इनके मध्य मे एक के सप्त फणावली भी सिर पर अकित है। इस फणाबली के नीचे एक चार प्रतिमाए, जिनमें तीन पद्मासन मुद्रा ऊपर एक पद्मासन मुद्रा मे तीर्थकर प्रतिमा है। देवी की में और एक खड्गासन मुद्रा में है। अन्तिम प्रतिमा पर प्रतिमा के दोनों ओर ऊपर नीचे दो देव है। ऊपर के देव छत्र है। यह सबसे आकार में बड़ी भी है। ग्रासन पर चवरधारी है । नीचे के देव कुतो पर सवार दिखाई देते हिरण चिन्ह अकित है जिससे यह शान्तिनाथ भगवान की है। प्रतिमा का प्रासन एक कमल के फूल पर बनाया चौवीसी ज्ञात होती है। इसी मन्दिर में एक चौवीसी गया है। ऐसी भी है जिसमें २५ प्रतिमाए अकित है, सभवतः इसमें इसी मन्दिर में सेठ गोपाली माब परन साहब मूल नायक प्रतिमा को अलग से बनाया गया है जबकि सिवनी द्वारा निर्मित म० न० ११ मे एक पापाण निर्मित प्रथम चौवीसी में ऐसा नही है। लेख दो पक्तियों में चोवीसी है जिसके पासन पर एक लेख भी अकित है जो संस्कृत भाषा मे नागरी लिपि में प्रकित है। म०२० इस प्रकार है १५, १८, १९, २०, २२ में विराजमान प्राचीन प्रतिमाएँ भी दृष्टव्य है। किन्तु शिल्प कला की दृष्टि से म० न० संवत् १८७२ साके १७३(८) भादी सुदि १४ बी कीमति हो । मलसघे सरस्वती गने णे (गच्छे) वलात्कारगणे कुन्द- कुन्द- इस भांति कलचुरि काल मे जैनधर्म की स्थिति ठीक म जाति कुन्दान्वये बदली प्रतिष्ठितं सु(शु) भ भवतु । बनी रही ज्ञात होती है। तत्कालीन जैनी कला पूजारी चौवीसी में दोनों मोर खड्गासन मुद्रा में ५-५ उनके भी रहे है।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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