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________________ साहित्य-समीक्षा १ समयसार-वैभव-लेखक पं. नाथूराम डोंगरीय किया है। . शास्त्री प्रकाशक, जैनधर्म प्रकाशन कार्यालय ५/१ तम्बोली वर्तमान में पाठकों का झुकाव समयसार के मध्ययन 'बाखल, इन्दौर (म० प्र०) मूल्य ३) रुपया। की ओर बढ़ रहा है, वह समयसार को समझे या न समझे. प्रस्तुत पुस्तक प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द के समक्सार उसका पाठ तो हो जाता है, पर उसके मर्म का पोष का पद्यानुवाद है जिसे पं. नाथ राम जी डोंगरीय ने बड़े नही हो पाता। क्योंकि कर्म सिद्धान्त और दर्शनशास्त्र के परिश्रम से तैयार किया है। अनुवाद करते समय लेखक ने अभ्यास बिना समयसार का हृदयंगम होना कठिन है । अनेकान्त नीति का अनुसरण करते हुए ग्रन्यकर्ता को मूल- हो, उसे इतना ही लाभ हो पाता है कि वह थोड़ी बहुत गाथा का भाव स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । पद्यानु- अध्यात्म चर्चा करने लगता है। चर्चा केवल अध्यात्म की वाद पढते समय अध्यात्म रस का पान हुए बिना नही होती है पर व्यवहार और निश्चय को समझे बिना समयरहता । जब प्रात्मा वस्तुतत्त्व की दृष्टि से स्वसंवेदन सार के रहस्य का बोध नही हो पाता। कोरे अध्यात्मद्वारा भेद ज्ञान की पोर झुकता है । तब वह सफलता के बाद की चर्चा जीवन को एकान्त की प्रोर ले जाती है । सोपान पर चढता है। भेद ज्ञान से ही जीव मिथ्यात्व- मैंने समयसार के अनेक ऐसे पाठको को देखा है, जिन्हे विहीन होता है । जब तक भेद विज्ञान नहीं होता तब तक निश्चय और व्यवहार का यथार्थ बोध नहीं है, और न मात्मा अपने स्वरूप का भान नहीं कर पाता अतएव भेद. सिद्धान्त का ही परिज्ञान है। अनेकान्त और नयों को विज्ञान को प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है। रहस्यपूर्ण चर्चा का परिज्ञान तो दूर की बात है । ऐसी यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए समयसार बंभव स्थिति में समयसार के अध्ययन से क्या उन्हे शुद्धात्मतत्त्व के कछ पद्य नीचे दिये जाते है, जिसमें पाठक पद्यानुवाद का परिज्ञान हो सकता है ? अतः ऐसे लोगों का कर्तव्य की उपयोगिता का परिज्ञान कर सकें। है कि वे पहले सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त करे, और बाद में वीतराग के दिव्य ज्ञान में प्रात्मतत्त्व पुद्गल से भिन्न, समयसार का अध्ययन करे, तब उन्हे समयसार का झलक रहा वह ज्ञान ज्योतिमय चिदानन्द रस पूर्ण प्रखिन्न। प्रांशिक बोध हो सकता है। अत: अध्यात्म रसिकों का कैसे हो सकता चेतन का पुद्गल संग अविभक्त स्वभाव, कर्तव्य है कि वे समयमार के वास्तविक रहस्य को पाने के जो तूं जड़ परिकर को कहता-मेरे-मेरे चेतन राव॥ लिए प्रयत्न करे । भाव का रुकना संवर है, उसका हेतु भेद विज्ञान, ग्रन्थ की प्रस्तावना ५० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री मात्मतत्त्व उपयोग मयी है, क्रोधादिक से भिन्न महान् । कटनी ने लिखी है जा डोगरीय जी के विद्या गुरु है । वर्शन ज्ञानमयी होता है चेतन का उपयोग प्रवीण, प्रस्तावना मे समयसार के अधिकारो का सक्षिप्त परिचय उससे भिन्न कोष मानादिक है कषाय की वत्ति मलीन ॥ कराते हुए पद्यानुवाद कर्ता के सम्बन्ध में भी लिखा है । गाथा का भावानुवाद यदि एक पद्य मे नही पा सका, ग्रन्थ उपयोगी है, इसके के लिए लेखक महानुभाव धन्यतो कवि ने उसे दूसरे पद्य द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास वाद के पात्र है । परमानन्द शास्त्री वह बोली-यह ठोक है कि यह सब अवशरूप में हुमा है स्वर मे कहा-रत्नमाला ! तुम ठीक कहती हो । हमे • किन्तु उसके प्रभाव से तो नहीं बचा जा सकता। कल अपने महान् प्रयोजन के लिए इस जर्जर मोह बन्धन को मेरी या तम्हारी निर्बलता हमे विचलित भी कर सकती तोड़ना चाहिए और वह भी पाज ही। हमारी निस्कृति है। क्यों न हम इस अस्वाभाविक जीवन को समाप्त इसी में है। करके अपने सकल्पो को मूर्तरूप दे। हमारी साधना में प्रातःकाल का सूर्य निकला और वह साधना निरत लोक प्रदर्शन क्यों बाधक बने । दम्पति घर से निकल पड़ा। राह कठिन थी। बी. ___मणिभद्र अब तक पूर्णतः स्वस्थ हो चुका था। उसे मोह के पर्वत खड़े थे, भावनाप्रो के तूफान चल अपनी दुर्बलता पर ग्लानि हो रही थी। रत्नमाला ने किन्तु वे इन सबकी पर्वाह किये बिना बढ़ते है जो कहा था, वही उसे भी युक्तिस गत लगा। उसने दृढ़ लक्ष्य की मोर, अनन्त की मोर ।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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