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मास्व-विजय की राह
पा। निकट ही स्वर्ण पीठ पर दूष की झारी पोर बनाते रहे । इसी तरह दिन बीतते गये। दिन कामों में मिष्ठान्न रक्खा हुआ था । दीपाधार पर सुवासित तेल के बीतता और रात विराग पर्चा में । एक सोता दूसरा सहस्र दीप गुच्छक जल रहे थे। गवाक्ष से शीतल चांदनी मारम-चिन्तन करता। अद्भुत जीवन या उन प्रेमियों मा रही थी। मन्द-मन्द शीतल पवन बह रही थी। युगल का। प्रेमी पलंग पर भाव विमोहित से बैठे हुए थे । मणिभद्र एक दिन रत्नमाला सो रही थी, मणिभद्र जाग रहा ने मौन भंग करते हुए कहा-देवी ! तुम्हे पाकर में धन्य था। नीद की बेहोशी मे बेसुध पड़ी रत्नमाला कामाचल हा। तुम्हें पाने की ललक एक दिन मेरे मन में उठी उसके उन्नत वक्ष से हट गया था। श्वास के साथ उरोजों थी, वह आज पूरी हो गई। किन्तु क्या भोग ही जीवन का ग्रारोह-अवतीत एक लय के साथ हो रहा । निशीय की चरम परिणति है, मै यही सोच रहा हूँ।
की गहरी निस्तब्यता थी। गहराता यौवन, एक शैया, रत्नमाला भाव लोक मे विचरण कर रही थी। एकान्त कक्ष । मणिभद्र अपलक निहार रहा था उसके सुनकर वह जैसे जागी। वह बोली-आर्यपुत्र का कथन कमनीय रूप को । विचारो की रंगीन तरगे उसके मन में सत्य है। भोग जीवन की विकृति है। जीवन का प्रयोजन अन्धकार भरती जा रही थी। तभी वह चौका । रत्नमाला इससे महान है । हमे उस महान प्रयोजन को भुला देना की वेणी शय्या के नीचे लटकी हुई थी और उसके सहारे नही है।
एक भयानक नाग ऊपर चढ़ने का प्रयत्न कर रहा था । देवी ! सच है। हमें उस महान प्रयोजन के लिए वह झुका और उसने हाथ बढा कर वेणी को पकड कर मिलकर प्रयत्न करना है। इस प्रयोजन की राह मे हमें
छिटक दिया । नाग तो प्रलग जा पडा। किन्तु इस हड़भोगो को नही पाने देना है। क्या देवी के मन मे किसी
बड़ी में वह अपना सतुलन न रख सका और अप्रत्याशित कान मे भोगो की कोई स्पृहा तो नही है।
रूप से रत्नमाला के वक्ष पर गिर पड़ा। रत्नमाला की नही है देव ! में जो कल थी, वही प्राज भी हूँ।
सुरभित श्वास उसके नासा-पुटों मे भर गई । क्षणभर के लोकदृष्टि मे हम पति-पत्नी है, किन्तु मेरे मन मे विवाह
इस मादक स्पर्श ने उसके शरीर को रोमांचित कर दिया । ने कोई अन्तर नही डाला।'
रत्नमाला की पाखे खुल गई। मणिभद्र सयत होकर बैठ ___धन्य है देवी! किन्तु सम्भव है, चिर साहचर्य
गया, किन्तु लज्जा से अभिभूत हो उठा। उसने अपने सकल्प को निर्बल कर दे। उसका उपाय करना होगा' ।
, कृत्य की सफाई भी दी, किन्तु उसकी देह प्रव तक रोमांमणिभद्र ने कहा।
चित हो रही थी। रत्नमाला गहरे विचार में डूब गई और कुछ देर रत्नमाला ने ध्यान से यह देखा और वह उठकर बोली पश्चात् बोली-मैंने उपाय मोच लिया है। हम दोनों -मणिभद्र ! यों कब तक चलेगा। भोग के साधनों में इस शय्या पर सोवेगे, किन्तु क्रम-क्रम से । क्या यह उपाय रहकर विराग की दीवारे किसी दिन ढह सकतो हैं। उचित न होगा।
अस्वाभाविक जीवन की छलना में जीवन बिताया नहीं मणिभद्र प्रसन्नता से उछल पड़ा। यह उपाय सर्वथा जा सकता। जो कुछ भी हुमा है वह फिर किसी दिन उचित था । यह बोला-देवी ने जो उपाय बताया है, भी हो सकता है। तुम्हारा मन निबंल हो रहा है, क्या निष्कलक है। हमारी राह कटकाकीर्ण है, किन्तु तुम मुझे यह सच नहीं है ? सहारा देनी रहना। तुम्हारा संबल पाकर मै कृतार्थ हो मणिभद्र सुनकर सकुचित हो उठा-देवी ! अपने गया। हमे इस जोवन को साधनामय बनाना होगा, तभी कृत्य पर मै लज्जित हूँ। किन्तु जो कुछ हमा, वह अवशहम अपने प्रयोजन में सफल हो सकेगे । तुम जैसी पत्नी रूप से हुआ है। को पाकर मै धन्य हो गया। देवी ! मै अब निश्चिन्त हूँ।' रत्नमाला भी जानती थी, किन्तु भविष्य में भी ऐसी
युगल प्रेमी प्रणय की उस रात में यों ही योजना सम्भावनामों का तो अन्त नहीं हो जायगा । यह सोचकह