SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१०, २४,कि.५ अनेकान्त राशि अपित करते हैं, जिसका सदुपयोग मिनमन्दिर के एकैदिय जोणिहिं परिभमीउ, वियलेंदिय बह दुक्खागमोड लिए किया जाता है। दूसरे जयमाला-पूजा के अन्त मे अलहंतउ पण नवकार ताnि : निजत की जाती है, जिसमे पर्चना के विषय का सार नारी एनरह भमाडियउ, पूण मोगरघाहि ताडीयउ । गभित रहता है। तीसरे जयमाला स्वप्न के रूप में किसी नवकार विविज्जिय तिरी ह उ. बहकायकिलेम नामि भी विषय का महात्म्य प्रतिपादन करने के लिए पूजा-पाठ मण्यत्त-णिरोय-सोयभारीउ, नवकार तहमि न समाचरीउ। के अन्त में सयुक्त रूप से निबद्ध की जाती है। प्रतएव मिच्छत्तसहिय देवत्त पत्त, जयमाला के रूप में भगवद्भक्ति करने की विधि साहित्यिक तित्य वि माणस-दुखेण तत। रूप में अपभ्रश, पुरानी हिन्दी और हिन्दी भाषा की रच- ___इय हिडिवि जिय तुहं च उगहि, नामों में विशेष रूप से परिलक्षित होती है। इससे यह सुह कहवि न लद्धउ भवसहि। भी पता चलता है कि यह मध्य युग की देन है और चउरासी लक्खई जोणि दुहुं, जइ वण्णउ धम्मउ जीव तहं। मोतिक इतिहास की एक परम्परा । यह केवल देश के पचहें परमिििह तणउ सुह, जिय माय जहि नवकार लह। किसी एक भू-भाग तक सीमित न रह कर पूजा के साथ जय मायहि विडं नवकार मणे,जे असुहकम्म विहह खणे। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर और पूर्व से लेकर पश्चिम ज पंचपयइ प्राराहियाई,तें बारह अंगडं साडिया। भाषा-भेद के साथ लगभग समान साहित्यिक विधा के नवकार बप्प नवकार माइ, नवकार खणि उवसम्ममा न मास्तिरों में प्रचलित हुई और तब से प्राज सुहसज्जणबंधवइमित्तु, नवकारें कोवि न होइ सत्त । तक प्रनवच्छिन्न प्रवर्तमान है। जयमाला-साहित्य का गह-रक्खस-भूय-पिसाय जेवि, नवकारमंति नासंति तेवि । सहसलिए भी अधिक है कि इनकी रचना प्रायः बोल- नवकार हलहरचक्कवइ, नवकार विषडाहियह । साल की भाषा में की गयी। क्योंकि जन सामान्य के नवकारफलें तित्ययरदेव. जम aufima लिए पूजा-साहित्य लिखा जाता रहा है। परन्तु इनमे लिखा जाता रहा है। परन्तु इनमें नवकार जि इदियबलखंडउ, भव-समदृ नवकार-तरंडउ । . साहित्यिकता का प्रभाव नहीं है । जन भाषा में लिखित नवकारजि सबल जंत सम्गि, नवकारसहिज्जउ मोक्खमग्गि। होने पर भी इनमें साहित्यक पुट बराबर दिया गया है। घता-इह नवकारह तणुं फल, जिय कायहि एक्क मणु । इस बात का निर्णय स्वय पाठक रचनामो को पढ़ कर दसणनाणसमुज्जलु, पुणु पामइ सिद्धितण ।। कर सकते हैं कि इनमें साहित्यिकता किस स्तर तक चविकणिसासणिदेवीयहं, कीय साहित्तु विचित्त । विषय के अनुरूप मार्मिकता से अभिव्यजित हो सकी है। पाराहिप्पणु मंति जिणु, किय नवकार कवित्तु । पश की एक ऐसी अज्ञात जयमाला विग्गंबर दस दरसहिन्छ, इच्छ म भेत्ति परिज्ज। किया जा रहा है जो कई दृष्टियों जिणसासणि भवियणहो, अविचल चित्त धरिज्ज । बाकी प्रतिलिपि मध्य प्रदेश के चंदप्पह जिणचंदप्पह, चंदकित्ति वंदेप्पिण चंदाणण । गटके से की गई है। इसमे रचना के पसरतिय सियतणु कंतिय, धवलय सयल दिसासण ॥१॥ लेखक का नाम श्री उदयकीर्ति मुनि कहा गया है । रचना णमो गयराय जगत्तयराय मसी और कहा उत्पन्न हुए थे, इस सम्बन्ध पयासिय णिम्मल केवलणाण, वियह षण सय देहपमाण । विवरण नहीं मिलता। रचना मे सुहासिय तोसिय पोसियभन्व, सुलक्खणनाह समम्भियगम्य । केसप्रसिद्ध परम नमस्कार-मन्त्र का माहात्म्य, मए जिय संकुलि जम्म-समहि, जरामरणभव मोरी । वर्णन है । जयमाला निम्नलिखित है दुरुत्तररुदुस्सह दुक्खतिरगि, कसायविहीसण वाडवग्गि । , भावे विमल सहा भतीए, सतिजिणेसरहो। प्रणतउ काल दुरंत विचित्त, निरंतर दक्ख परंपर पत्त । निसणिजउभवियउभवदुहखवीउ, पुणुमक्खमिनवकारफल। न कोई विकासु वि बंध न मित्त. नवकारविहूणउ जीव तुहं, भवि भवि संपत्त अणंत दुहुँ । न कोई विकासु वि सयण न सत्त।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy