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अपभ्रंश की एक अज्ञात जयमाला
डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री
साहित्य की विधि भक्ति मूलक प्रवृत्तियो म जयमाला की साहित्यिक विद्या निश्चय ही भावानुरंजन के साथ शिक्षा, इतिहास, संस्कृति और अर्चना-विधि की व्यावहारिक परम्परा की अभिव्यंजक है । जयमाला जहां विविध राग-रागनियों में पूजा-पाठ के मध्य मे गाई जाती रही है वही नृत्य-गान के साथ बहुवि हाथों-मायो मे जिनमूर्ति के समक्ष सस्वर स्वरो में मुखरित होती रही है । आज भी जैन मन्दिरों मे जिन-पूजा के मध्य मे जयमाला-पाठ करने की प्रथा प्रचलित है । जयमाला में सार है। दोनों का परस्पर युद्ध होता है। युद्ध मे दोनों श्रोर के योद्धा अपना-अपना पराक्रम दिखलाते है, सन्धि का भी उपक्रम किया जाता है परन्तु वह हो नहीं पाती । मोह के प्रबल सेनानियों का विवेक के पराक्रमी सुभटों के साथ भीषण युद्ध होता है । परन्तु एकाएक मोह की सेना मे भगदड मच जाती है। माह का निग्रह हो जाता है । उसके गिरते हो सब सामन्त निष्प्रभ हो जाते है। विवेक की कुशलता की प्रशमा होती है, और वह लोक मे शान्ति स्थापित करता है ।
इसी अवसर पर चेतना राग परमहंस राजा कहती है किस्वामी, माया ने जो किया, उसका धापने अनुभवन किया ही है । अब तक जो हुआ सो हुआ; किन्तु श्रागे को सावधान होना आवश्यक है। अब श्राप जिस अशुचि, मल
संयुक्त दुर्गन्धित कायापुरी मे धनुरक्त हो रहे हैं, कामक्रोधादि १०८ चोरी वाली वस्ती में श्राप का रहना ठीक नही । आप स्वयं विचार करे और अपने घखड चैतन्य तेज धाम की और ध्यान दे। मोह राजा और मनमंत्री का विनाश हो चुका है। रानी के इस सुन्दर सुझाव का समादर करते हुए परम हम ने अपने चैतन्य स्वरूप की ओर ध्यान दिया । और योग्य श्रनुष्ठान द्वारा श्रात्मशक्ति को जागृत कर स्वात्मलब्धि को प्राप्त किया। इस तरह यह
रूप में पूजा-अर्चना के मूल भावो को संक्षिप्त रूप में प्रकट किय जाता है। इनमें इतिहास, संस्कृति और परम्परा तक का गुणानुवाद किया जाता है। जयमाला कई रूपों में लिखी जाती रही है। प्रथम वे जयमालाएं है जो पुष्प जयमाला के नाम से प्रसिद्ध रही है, जिनमे जिनमूर्ति के कलशाभिषेकोत्सव के अनन्तर जयमाला की बोली लगती है और पुष्पमाला को जिनशासन की माला के प्रतीक के रूप मे ग्रहण कर भक्त श्रावक या श्राविका स्वीकार कर अपने उत्साह और उमंग को प्रकट कर स्वेच्छा से धनरूपक-काव्य स्व-पर-सम्बोधक है। ब्रह्म जिनदास के अन्य चरित रासको मे भी काव्य रस मिलता है। ये रासा प्रका शन के योग्य है ।
ब्रह्मजिनदास के शिष्य
ब्रह्म जिनदास के अनेक शिष्य थे। उनमें छह का नामोल्लेख नीचे किया जाता है। अन्य शिष्यों के नामादिका उल्लेखनीय है। हरिवंश राम की प्रास्ति मे उन्होंने अपने तीन शिष्यों का उल्लेख किया है। मनोहर, मल्लि दास, और गुणदास और परम हंस रास मे 'नेमिदास' नाम के एक शिष्य का उल्लेख मिलता है। जिनदास ने अपने एक शिष्य शान्तिदास का भी उल्लेख किया है जिसने अपभ्रंश गुजराती और संस्कृत मिश्रित पूजा-पाठ विषयक ग्रंथों की रचना की है। जिनदास ने 'गुणकीति' नाम के धन्य शिष्य का भी उल्लेख किया है जो अच्छे विद्वान थे और जिन्होंने 'राम-सीता-राम' बनाया था।
१. ब्रह्मजिनदास भणे रूबडो पढता पुण्य अपार । शिष्य मनोहर रूप मल्लिदास गुणदास || हरिवश रास २. ब्रहा जिनदास शिष्य निरमला नेमिदास सुविचार |
-- परमहंस राम