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________________ मात्म-विजय की राह अपोषेय ज्ञान का विरोध वह निग्गंठ महाश्रमण कर माघार हो। अपने पुत्र मणिभद्र पर कठोर दृष्टि रखो, रहा है और निर्ग्रन्थ के दर्शन सेठ पुत्र मणिभद्र कर चुका ब्राह्मण समाज तुम्हारे प्रायश्चित से सन्तुष्ट है । वह है, इससे बड़ा अपराध संसार में दूसरा कोई नही हो अपने निर्णय को वापिस लेता है। सकता, और यह सेठ उसी मणिभद्र का पिता है, वह सेठ सुन कर प्रत्यन्त माल्हादित हो गया। उसने वैदिक परम्परा का नेता है। इससे इस अपराध की गुरुता उठ कर सभी ब्राह्मणों का चरण स्पर्श किया और सबको पार यधिक बढ़ गई है। वह क्षमा नही किया जा सकता, सन्तुष्ट करके बिदा किया। किसी मूल्य पर भी नहीं। प्राचार्य ने सोचा और बड़ी (२) दृढ़ता से बोले-श्रेष्ठी! अपने अपराध की गम्भीरता कुमार मणिभद्र एकान्त में बन्दी था। परिवार का से तुम भी इनकार नहीं करोगे। क्या मणिभद्र तुम्हारी कोई सदस्य सेठ के कोप के भय से उसके पास जाने का प्रेरणा के बिना वहां जाने का साहस कर सकता था। साहस नहीं कर सकता था। कुमार सुबह से भूखा-प्यासा चार कर रहे हो पड़ा हुआ था। वह सोच नहीं पा रहा था कि उसका पोर दूसरी ओर तुम उस निर्ग्रन्थ को निमन्त्रण देकर अपराध क्या है, जिसका यह भनानक दण्ड दिया जा श्रेष्ठी समाज में सम्मान पाने का प्रयत्न कर रहे हो। रहा है। वह मात विहीन था, घर में सबसे छोटा था। तुम्हारे इस अनाचार को ब्राह्मण समाज कभी क्षमा न सबका प्रेम पात्र था। किन्तु प्राज उससे सभी विमुख हो करेगा और उसने जो निर्णय किया है, उसे कभी वापिस रहे है. सभी उसके प्रति निष्ठुर हो रहे है। क्यों है यह नहीं लेगा। सब। उसने बहुत सोचा, किन्तु उसकी समझ मे कोई सेठ समन्तभद्र जानता था कि प्राचार्य माण्डव्य का कारण नही पाया। शासन कठोर है, उनका निर्णय अपरिवर्तनीय है। किन्तु रात चारदण्ड व्यतीत हो चुकी थी। मणिभद्र की वह निराश नहीं हुआ। उसने प्राचार्य के चरणो को कस माखो मे नीद का नाम न था। भूख और प्यास से उर कर पकड़ लिया और गिडगिड़ाते हुए कहने लगा- दशा सोचनीय हो रही थी। इस सम्पन्न समृद्ध परिवार प्राचार्य ! पाप जो भी प्रायश्चित दे, वह मुझे स्वीकार । मे वह प्राज एकाकी था, असहाय, अवश । किन्तु सन्तोष है। किन्तु आप अपना निर्णय वापिस लौटा लीजिए। य वापिस लाटा लीजिए। का एक सम्बल भी था उगके पास । जब से वह त्रिलोकमै मणिभद्र को अभी प्रकोष्ठ मे बन्द कर देता हूँ। और पति भगवान महावीर के दर्शन करके लौटा है, उनका उसे तभी मुक्त करूंगा, जब तीर्थंकर महावीर श्रावस्त कर महावार श्रावस्त वह भुवन मोहन रूप उसकी प्रखिों के मागे फिर रहा त्याग कर दूर पहुँच जायंगे। मै अपने पुत्र मणिभद्र के है। वह अपनी आँखे बन्द करके उसी रूप को निहार प्रायश्चित स्वरूप नगर के ब्राह्मणो मे से प्रत्येक को सहस्र रहा है। उस रूप में अनन्त करुणा और जगत को अभयमुद्रा दूगा, स्वर्ण मण्डित सीगो वाली गाये दूंगा, ब्रह्म दान की मन्दाकिनी प्रवाहित हो रही है। प्रोर मणिभद्र भोज दूगा। और जो माप प्राज्ञा देगे, वह सब करूगा। उस दिव्य मन्दाकिनी को शीतल धारा में पालोडन कर किन्तु पाप अपना निर्णय लोटा ले । प्राचार्य । अपना रहा है। संसार का कोई ताप, कोई प्राकुलता अब उसे निर्णय लोटा ले। स्पर्श नहीं कर रही है । उस सकट की इस बेला मे भी प्राचार्य ने प्रायश्चित की अन्तिम बाते ध्यान से प्रनिर्वचनीय शान्ति का अनुभव हो रहा है । सुनीं। उन्होंने वहां एकत्रित नगर के प्रमुख ब्राह्मणों की तभी दरवाजा खुलने की आवाज से वह चौक उठा, मोर देखा । उनकी आँखों में प्राचार्य ने पढ़ा-प्रायश्चित उसने नेत्र खोलकर देखा-स्वर्ग की एक देवाङ्गना उसके स्वीकार्य है । प्राचार्य की वणी मे कोमलता प्रा गई- निकट पा रही है । विस्मय से वह अवाक रह गया। वह 'समन्तभद्र ! तुम वैदिक समाज के नेता हो । सम्पूर्ण उस दिव्य रूप को अपलक निहारता रहा । तभी वह देवी जम्बूद्वीप की दृष्टि तुम्हीं पर केन्द्रित है। तुम्हीं उसके बोली-"कुमार ! तुम्हारे पिता तुम्हारे शत्रु बन ग
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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