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अनेकान्त
हैं। किन्तु अब तुम मुक्त हो।"
की दासी थी, किन्तु उसका जीवन प्रत्यन्त नीरस होगमा किन्तु देवी! आप कौन हैं ? जो इस भाग्यहीन की था। उसकी धर्मपरायण पत्नी का जबसे देहान्त हुपा था, मुक्ति का वरदान बनकर अवतरित हुई हो? क्या माप उसके जीवन का सारा रस सूख गया था और व्यापार से स्वर्ग की देवी है या नाग कन्या है?
भी प्रायः विरक्त हो गया। उसकी एकमात्र सन्तान . सुनकर देवी के होठ सम्पुट मन्द हास्य से कुछ विक. उसकी पुत्री रत्नमाला थी। उसका सारा मोह उसी पर सित हो गए, मानो कली चटक उठी हो, वह सस्मित था। किन्तु पुत्री भी उसके विराग का ही कारण बन गई बोली- मै देवी नही साधारण मानवी हैं। किन्तु इन थी। वह सोलह साल बसन्तों का सम्पूर्ण सौरभ अपने बातों की भी मीमांसा का यह अवसर नही है। तुम यहाँ अंगों मे भरकर गदराये प्रादमी की तरह मधुर और से शीघ्र निकल जामो। परिचय का अवसर फिर भी सुरभित हो गई थी। किन्तु यौवन जैसे उसके लिए उपेक्षा मिल सकेगा। यदि किसी को ज्ञात हो गया तो तुम्हारी की वस्तु था। यौवन की दहलीज पर खड़े होकर भी मुक्ति असम्भव हो जायगी। यह चाबी लो और पिछवाड़े मादकता कभी उसके मन में नही जागी थी। बल्कि वह के द्वार से उद्यान में होकर निकल जायो । यों कह कर जीवन के शैशव काल से ही संयम और साधना के मार्ग उसने चाबी कुमार के हाथ में दे दी।
की पथिक बन गई थी। वह विराग का पाथेय लेकर किन्तु चाबी देते समय हाथ का स्पर्श हो गया जिससे एक सध्वी की तरह अपने मार्ग में बढ़ती जा रही थी। दोनों के शरीर रोमाचित हो उठे। कुमार प्रातःकाल से विकार उसके मन मे कभी अकुरित नहीं हो पाये । इस प्रसभावित कारण से खिन्न था-मन में सोचने लगा साधना की दीप्ति ने उसके प्रग-प्रत्यगों को एक अनि
-काश! मै यही इसी बन्धन में पड़ा रहूँ और यह वचनीय लावण्य से जगमगा दिया था। किन्तु उस लावण्य दिव्य बाला इसी प्रकार मुक्ति का सन्देश लेकर मुझे मे प्रशान्त मोहन था, उन्माद का उत्ताप नही; एक चाबी थमाती रहे। कुछ क्षण दोनो ही प्रात्मविस्मृत से मोहक स्निग्धता थी, जिसमें से पावकता की धाराए अजस्र वहीं खड़े रहे। तभी वह बाला सयत होकर बोली- वेग मे निसृत होती थी। "कमार ! बिलम्ब करने से अनर्थ की सम्भावना है। पिता ने अपनी लाडली पुत्री से अनेक बार विवाह शीघ्रता करना ही श्रेयस्कर है।"
का अनुरोध किया, किन्तु पुत्री ने सदा विवाह से इनकार किन्तु कुमार की इच्छा जाने की नहीं हो रही थी। किया। तब व्यवहार चतुर पिता ने सोचा-यदि तीर्थउस दिव्य रूपराशि के सम्मोह ने उसे जड़ बना दिया वन्दना के बहाने इमे देशाटन कराया जाय तो शायद मेरी था। किन्तु उस रूपवती का बार-बार का प्राग्रह भी पुत्री में कुछ परिवर्तन पा सके और उसमे नये रूप में टाला नही जा सकता था, अत: वह अनिच्छा से अवश्य जीवन की स्पष्टता जाग सके। यह सोचकर वह अपनी चल दिया। किन्तु वह बार-बार मुड़कर देखता जाता पुत्री को लेकर विविध तीर्थों की यात्रा कराता हा था और जब तक वह दृष्टि से प्रोभल न हो गया, वह श्रावस्ती पाया । सेठ समन्तभद्र उसके अनन्य मित्रों में से बाला भी उसी ओर जाने वाले को अपलक देखती रही थे। उन्होने अनेक बार वसुभूति से श्रावस्ती पाने का जब वह प्रोझल हो गया तो एक गहरी निश्वास उसके प्राग्रह भी किया था। प्रतः वसुभूति अपनी पुत्री रत्नमाला अनचाहे की निकल गई।
को लेकर समन्तभद्र के घर पर पहुँचे। सेठ समन्तभद्र ने
अपने अनन्य सुहृद का हृदय से स्वागत किया और रत्नवसभति कौशाम्बी का नगर सेठ था। उसका व्यापार माला को बड़े वात्सल्य और दुलार से अपनी पत्रीकी सुदूर देशों में था। नगर का वह प्रतिष्ठित नागरिक था। तरह ग्रहण किया। जैनधर्म पर उसकी अगाध प्रास्था थी, भगवान महावीर वसुभूति को तभी प्रावषयक कार्य से कोशम्बी लोटना के प्रति उसकी प्रसदिग्ध भक्ति थी । लक्ष्मी उसके चरणों पड़ा और वह रलमाला को छोड़कर चला गया। रल