________________
प्रास्म-विजय की राह
माला को यहाँ पाये दो ही दिन हुए थे । किन्तु इसी बीच लगी । प्राचार्य माण्डव्य यमराज की-सी भयंकर मुद्रा लिये उपकी दृष्टि मणिभद्र की ओर आकर्षित हुई। वह सौम्य समन्तभद्र के प्रावास में पहुँचे। उनके सग ब्राह्मणों की प्रकृति का स्वस्थ और सुन्दर युवक था। उसे देखते ही एक विशाल भीड चली जा रही थी। उन्होने जाकर देखा रत्नमाला की अवधारा में अकस्मात ही परिवर्तन होने -समन्तभद्र शोक मूति बना हुमा यज्ञ मण्डप मे धूल-मे लगा और वह जीवन के बारे में एक नये ही दृष्टिकोण से लोट रहा है। अभी दो दण्ड दिन ही चढ़ा था, किन्तु सोचने लगी। उसके चिन्तन की धारा विलक्षण थी। इतने ही समय में सेठ शायद अपनी प्रायु से पचास वर्ष उसके मनमे भोगो की लालसा तो एक क्षण को भी नहीं अधिक हो गया था। प्राई, किन्तु विवाह की एक अव्यक्त ललक रह रहकर भाचार्य और ब्राह्मणों ने अपने अदम्य क्षोभ को नाना उसे प्रान्दोलित करने लगी। सम्भव है इससे पिता जी के भांति प्रसयत और अनर्गल भाषा मे व्यक्त किया। किन्तु जीवन में एक शान्ति, एक सन्तोष पा सके ।
शोक मूच्छित सेठ के कानो में कोई शब्द न पहुँचा। तभी ब्राह्मण समाज की कुटिल दुरभि सन्धि की भनक उसके कानों मे पडी पोर कुमार मणिभद्र के कारा- जगद् बन्धु महावीर श्रावस्ती के बाहर जेतवन मे वास का समाचार भी उसने सुना। सुनकर वह स्थिर न विराजमान थे। जेतवन युवराज जतकुमार का विलास रह सकी । समय का जो आवरण उसने बड़े यत्न से अपने उद्यान था। विलास की सभी सुविधाए वहाँ उपलब्ध चारो पोर डाल रक्खा था, वह भी तार-तार कर गलने थी। युवराज प्राचार्य माण्डव्य के शिष्य थे। तीर्थकर लगा। उसमें दुस्साहस की एक उद्दाम भावना प्रबल वेग महावीर के वहिष्कार प्रान्दोलन के नेता थे। ब्राह्मण से जागृत हुई और वह कही से सूचिका गुच्छक लेकर समाज को उन पर पूर्ण विश्वास था। किन्तु ब्राह्मण एकान्त निशीथ मे उस एकान्त प्रकोष्ठ में जा पहुँची, जहाँ समाज को यह जानकर अत्यन्त प्राश्चर्य हुमा कि स्वयं मणिभद्र को बन्दी बनाकर रखा गया था। उसने परि. युवराज ने तीर्थकर प्रभु से जेतवन मे पधारने का प्राग्रह णाम की चिन्ता किये बिना मणिभद्र को मुक्त करा दिया किया था और महाप्रभु उसकी विनय को स्वीकार करके और जब वह अपने शयन कक्ष में गुप्त रूप से लौटकर वहाँ पधारे तो महाराज प्रसेनजित के साथ युवराज भी आई, तब उसक मन का सारा उद्वेग शान हो चुका था। उनके चरणो मे बद्धाजलि उपस्थित था।
किन्तु प्रात:काल का सूर्य सेठ समन्तभद्र के लिए प्रम- श्रावस्ती आज पाश्चर्यो का प्रागार बनी हुई थी। गल और अवमानना का उत्ताप लेकर उदित हुप्रा । प्रातः ब्राह्मण समाज विस्मय और उत्तेजना के साथ इन पाश्चर्यो होते ही यह प्रकट हो गया कि मणिभद्र कारागार के को देख रहा था । जेतकुमार उनके दल को छोड़कर तीर्थप्रकोष्ठ में नही है। वह मुक्त किया गया है। किन्तु कर का भक्त बन चुका था। सेठ समन्तभद्र के दो पुत्र किसने उसे मुक्त करने का साहस किया है, यह लाख महाश्रमण के उपासक बन गये थे। सारी श्रावस्ती उनके प्रयत्न करने पर भी ज्ञात नही हो पाया। इतना ही नही दर्शनो के लिए उमड़ पड़ी थी। तब प्राचार्य माण्डव्य सब मुक्त होकर मणिभद्र प्रभु महावीर के चरणो में जाकर कही यह प्रचारित करने में जुट पड़े कि तीर्थकर मायावी बैठा है। इससे भी भयानक एक दुस्सवाद यह भी मिला है, वे सम्मोहन विद्या में पारगत है। उनकी सम्मोहन कि सेठ का मध्यम पुत्र सुभद्र भी तीर्थकर महावीर को माया के जाल मे युवराज पौर श्रेष्ठ पत्र फस गये हैं। शरण मे चला गया है।
किन्तु प्राचार्य इससे निराश नहीं हुए। उनका प्रह ब्राह्मण वर्ग ने इन अमगल समाचारों को वैदिक धर्म अपनी पराजय स्वीकार करने को तैयार नहीं था। के प्रति सेठ समन्तभद्र के घोर विश्वासघात के रूप मे उन्होने अपने पक्ष के सभी ब्राह्मणों और बेष्ठियों की लिया। श्रावस्ती के समस्त वैदिक जन मेदिनी में समन्त- परिपद् बुलाई। परिषद् में अद्भुत गम्भीरता व्याप्त भद्र के प्रति अनर्गल भाषा में माकोशपूर्ण चर्चा चलने थी। क्षण-क्षण में उस महाश्रमण के निकट अपने पक्ष के