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जैन शिल्प में सरस्वती की मूर्तियाँ
मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी
जैन सम्प्रदाय में चौवीस तीर्थंकरों के प्रतिरिक्त समस्त देव समूह किसी न किसी रूप में अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्धित प्रतीत होता है। जनों ने सर्वोपरि स्थान तीर्थंकरों को दिया और शेष समस्त देवताओं को उन्हीं से सम्बद्ध करके उनके अनुयायी या सेवक के रूप में कल्पित किया। डॉ० भट्टाचार्य के विपरीत डा० यू० पी० शाह की धारणा है कि सरस्वती की गणना १६ विद्यादेवियों के अन्तर्गत नहीं की जानी चाहिए, वरन् उसे स्वतंत्र देवी रूप मे प्रतिष्ठित करना चाहिए' । सरस्वती को अन्य कई नामों से भी सम्बोधित किया जाता है, यथा, श्रुतदेवता, शारदा, भारती, भाषा, वाक् वाक् देवता, वागीश्वरी, वाग्वादिनी, वाणी, ब्राह्मी । जैनधर्म के ज्ञान व बुद्धि की देवी सरस्वती की प्राराधना इस विश्व से अज्ञानता रूपी अन्धकार के नाश के लिए की जाती है। श्रुतदेवता के रूप मे सरस्वती सभी तीर्थंकरों की शिक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जैन शिल्प में सरस्वती को मुख्यतः द्विभुज, चतुर्भुज या बहुभुज (षड्भुज या भ्रष्टभुज) मूर्तिगत किया गया है । सरस्वती की विभिन्न भुजाओं प्रदर्शित श्रायुधों में वीणा ( येन केन वादन की मुद्रा में ), अक्षमाला, वरद या अभयमुद्रा प्रमुख है । प्रतिमानों में देवी को सामान्यतः कमलासन पर ललितासन मुद्रा में भासीन, जिसमे देवी का एक पाद नीचे लटका रहता है, या कभी खड़ा प्रदर्शित किया जाता है । देवी का वाहन हंस, जिसका स्थान कभी-कभी मयूर भी ले लेता है, को देवी के समीप ही कहीं उत्कीर्ण किया जाता है।
में
मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त कुषाण युगीन सरस्वती मूर्ति इस समय लखनऊ के प्रान्तीय संग्रहालय में संग्रहीत ( नं० २४ ) पर स्थित है। मूर्ति (१.६३” X २३) में द्विभुज सरस्वती को समकोण चतुर्भुज के प्राकार की पीठिका पर दोनों पैर ऊपर किये पलथी मारकर बैठी हुई चित्रित किया गया है। शीर्ष भाग जो प्रभामण्डल से युक्त था, संप्रति भग्न हो गया है। वाम वक्षस्थल भी खंडित है । वाम भुजा में एक पुस्तक प्रदर्शित है और
2. Shah, U. P., Iconography of the Jain.
Goddess Sarasvati, Jour. University of Bombay, Vol. X (New Series) Pt. 2. Sept. 1941, p. 212.
२. Smith, Vincent A, The Jain Stupa and other Antiquities of Mathura, Varanasi, 1969; Bajpai, K. D., Jain Images of Sarasvati in the Lucknow Museum, Jaina Ant, Vol. XI, No. II, Jan. 1946, pp. 1-4.
दाहिनी ऊपर उठी भुजा, जो संप्रति खंडित है, संभवतः अभय मुद्रा में रही होगी । कटिप्रदेश में पीले वस्त्रों से सुसज्जित है । दोनों कलाइयों में कंगन हैं । स्कन्ध वस्त्रों से ढंके हैं। दोनों पावों में एक उपासक प्राकृति उत्कीर्ण है, जिनकी केश रचना वृत्तों के रूप में निर्मित है । पीठिका पर कुषाण कालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण लेख के आधार पर इस मूर्ति को १३२ ईसवी शती में तिथ्यां कित किया गया है । इस प्रतिमा के अतिरिक्त कुषाण युग में प्रतिष्ठित अन्य कोई उदाहरण नही प्राप्त होता । साथ ही सरस्वती प्रतिमा का गुप्त युगीन उदाहरण भी मप्राप्त है ।
सरस्वती को कांस्य प्रतिमा
सरस्वती दुपट्टों और निचले वस्त्रों से युक्त कांस्य प्रतिमा वसंतगढ़ सग्रह से उपलब्ध होती है' । द्विभुज
3. Shah U. P., Bronze Haord from Vasanta. garh, Lalit Kala, Nos. 1-2, April 1955March 1956, p. 61.