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५४, वर्ष २४, कि०२
अनेकान्त
प्रकलंक सामि सिरि पायपूय,
इंदाइ महाका भट्ट हूय । सिरि मिचन्द .सिद्धतिमा
सिखंतसार मणि गविवि ताइ । चाउमुह सुयंभु सिरि पुष्फयंतु, . .. सरसइ णिवासु गुणगण महंतु । असमिति मणीसह बसणिहाण,
पंडिय राधू कह गुण प्रमाण । गुणभद्दसूरि पुणभद्द ठाणु,
सिरि सहणपालु बहु बुद्धि जाणु । पूर्वकवियों के कीर्तन के उपरांत कवि अपनी प्रज्ञानता को स्पष्ट प्रकट करता हुमा कहता है कि मैंने शब्दशास्त्र नही देखा, मैं कर्ता, कर्म मोर क्रिया नहीं जानता। मुझे जाति (छद), धातु मोर सन्धि तथा लिंग एवं अलकार का ज्ञान भी नहीं है। कवि के शब्दों में:ण विट्ठा सेषिय सुसेय,
मई सहसत्य जाणिय न भेय। जो कसा कंम् ण किरिय जुत्ति,
उ बाइ पाउ गवि संधि उत्ति । लिंगालंकार ग पय समत्ति,
जो वुज्निय मह इक्कवि वित्ति ।, जो अमरकोसु सो मुत्तठाण, .
माणित मा अण्णु ण णाम माण। णिग्धंट वियाणिवउ वणि गहंदु,
सुईवि गढहिउ मणु मइंदु । पिंगल सुवष्णु तं बह रहित,
जाषिउ मह प्रण न कोदि गहिर। इसलिए शानी जन इस काव्य-व्यापार को देखकर कोप न करें?
यहाँ पर सहज ही. प्रश्न उठता है कि जब तुम प्रशानी हो और इस काव्य-व्यापार को जानतेसमझते नहीं हो तब काव्य-रचना क्यों कर रहे हो? रचनाकार का उत्तर हैजह विणयह नहि उज्जोउ करा,
ईता किन्जमिड उ
बह कोहल रसह सुमहरवाणि,
किटिट्टिर - हा तुण्हत ठाणि । जइ वियसाइ- सुरहिय पराउ
कि उ फुलह किसुय बराउ । नह पाहु विवज्जइ गहिरणाउ,
ता इयर म वजउ तुच्छ भाउ। जह सरवहि मह सुहंसु लील,
कि उ परि मंगणिबह सवील। मण मित मयहि तह कायरतु,
करि विणल भत्ति हय दुष्वरित्तु । धर विणउ प्रयासिवि सज्जणाह,
कण्हाण करि खलयणगणाह । प्रर्थात् यदि दिमकर (सूर्य) प्रकाश न करे तो क्या खद्योत (जुगमू) स्फुरण न करे ? यदि कोयल सुमधुर वाणी मे पालाप भरती है तो क्या टिटहरी मौन रहे ? यदि चम्पक पुष्प अपनी सुरभि चारों भोर प्रसारित करता है तो क्या बेचारा टेसू का फूल नहीं फले ? यदि नगाड़े गम्भीर नाद करते हैं तो क्या अन्य वाद्य वादित ग हों? यदि सरोवर में हंस लीला करते हैं तो क्या घर के प्रांगन मे अनेक सवील (प्रबाबोल) ? पक्षी क्रीडाए न करें ? इत्यादि।
कवि ने अपने परिषय के सम्बन्ध मे कुछ भी नहीं लिखा। केवल सम्धि के अन्त में उल्लेख से यह पता - चलता है कि वे इल्लिराम के पुत्र थे। इसी प्रकार से अन्तिम प्रशस्ति से स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि वे दिल्ली के.भासपास के किसी गांव के रहने वाले थे। उन्होंने इस कामं की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) के श्रावक विद्वान साधारण की प्रेरणा से की थी। उन दिनों दिल्ली के निहासन पर शहनशाह बाबर का शासन था। ग्रन्थ का रचना काल विक्रम संवत् १५६७ है। इस १. प्रायडू गथपमाणु वि लक्खि उ,
ते पाल सयइं गणि कइय ण प्रक्खिउ । विण्हेण वि ऊधा पुत्तएण, भूदेवेण वि गुणगणजुएण। लिहियाउ चित्तेण विसावहाणु,
इहु गंयु बिवुह सर जाय भार्ग। विक्कमरायहु ववगय कालह, .