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६८, वर्ष २४, कि०२
अनेकान्त
मद मठ पापी फिर ज साथी, द्रव्य पर चित न घरो। मद प्रष्ट को चित टार वेई, सिद्ध समरण में धरों।
कहे नेमनाथ सुनो जु राजल चित अपना बसि करो।। जब होय कर्म को नास हितनी चित्त संजम तुम धरो। दोहा-माघ महीना प्रति कठन, पत्थर से गलि जात । कहे नेमिनाथ सुनोज राजल चित प्रपनो वसि करो।।
तुम शरीर कोमल बहुत, कसे धीर रहात ॥४२ दोहा-पायो मास वैसाख ही ग्रीषम ऋतु दुखदाय । चाल-प्रायोज़ मास सु माघ प्रीतम, वर जमे है सागरा। गिरस्यं उतरो नेमिजी, घरां चलो सुषदाय ॥५३
यह मनष देह कहां परी है, समझ चितमें तुम धरा॥ चाल-प्रायोज मास वैशाष ग्रीषम नीर शीतल सुख करें। जब शीत दाहै, प्राग चाहे कैसे मन में थिर रहे।
तुम देह कोमल रहो कैसे घाम स्य प्रति तन जर ।। गिरनार गढ़ चलो नेमजी, राजमति चितवन करे। असे कठोर भये ज कब से, ममत ताजी के सिव वर। दोहा-माघ ज प्रावो भावस्युं, रहस्यु संवर छाय।। गिरनारगढ सुं चलो नेमजी राजमति चितवन कर।।
मन थिर राखो प्रापणों, मकत रमण हित लाय ॥ दोहा-प्रायो अति उछाहस्यों, मास वैशाख महान । चाल-संवर अवर वाय राखो सीत पालो ना लगे।
धर्म करत तन ना करे राजल निह जान ॥५५॥ जहाँ छान छाऊं छोमा केटो, पच इंद्री नही जगे। चाल-करै धर्म जो नर भाव सेती फहो नहीं कहा पाहवी। मद प्रष्ट पापी वार जारु, शीत स्य में कहा उरो। दर्शन ज्ञान चारित्र धार, तातें सिव-मग ध्यावहीं ।
कहे नेमिनाथ सुनो ज राजुल चित अपनो वसि करो॥ जहाँ दया धारं धर्म पाल, मोह राल जीव हो । दोहा-फागुण मदस्यू गहगह्यो, प्रायो है सिरताज। कहे नेमिनाथ सुनो ज राजल चित प्रपनो वसि करो।
गौरी गावे गीत भी, कैसे रहसो लाज ।।४५ दोहा-प्रायो जेठ ज़ चितस्पू, नर्म जु नहि रहात ॥५६॥ चाल-पायो ज फागण मास, प्रीतम, गोरी पावे गावती। घाम पर प्रति दुख कर संबर सब भाग जात ।
पिचकारी हाथां काय माता ढफ बजावत ध्यावती॥ चाल-ग्रायो ज जेठ कठिन प्रीतम, धर्म कहो कैसे राखिये। गावत गीत धमाल मधुरे, ध्यान तुम सबही हरै।
लय बाजे वदन दाज, नहिं हठ किचित भाषिये। गिरनारगढ सं चलो नेमजी राजमनि चिनवन करे ।
नहि चले पयो देश मारग भूष त्रषा अति दुख करै । दोहा-फागुन पायो हर्ष के हमरो कहा विगार ।
गिरनार गढ़ सुं चलो नेमिजी राजमति चितवन करें। मुकतमण स्यूं खलस्यु, सब साखयन स सार ॥४७ दोहा-जंठ मास प्रायो तरत कायर जावे भाग। चाल-ढ़ होरि खेलू सुनो राजल घर अपने चावस्यूं। सूरवीर पहुंचे तुरत अरि सिर षावं वाग ।५।
सखी पंच अपने संग लेकर प्रष्ट करम उडावस्यूं ॥ चाल-नर जनम होणों बहुत दुर्लभ जौन श्रावक नहि परी। समकित कोच क्यारि भरि २ मक्ति कामनी से परो। दुर्लभ धर्म धरत जे नर, रत्नत्रय व्रत फनि धरी।
कहे नेमिनाथ सुनो जु राजल चित अपनो वसि करो। दुर्लभ षोड़श भावना पनि, मक्तिमार्ग कहा परयो। दोहा-चत्र मास बहु विध भलो, घर घर मंगलाचार । कहे नेमनिाथ सुनोज राजुल चित अपनो वसि करो।
रुत वसंत फूल सरस, घर चालो पिय मार ||४६ दोहा-बारह मास पूरा प्रा, नेम न पचल्यो कोई । चाल-चैत्र ज पायो सबन भायो. कंथ चायो कामनी।
राजुल कू समझाबई, तुरत अजिका होई ।६१॥ फुलगी कामन कंथ घर में, खेने घर में रामनी॥ चाल-राजल तब ही होय अजिका, सिद्ध ध्यान लगाईयो। सब बाल और गोपाल कन्हई तुमस्यूं अब हेत करें।
मद मोह त्यागो काम भागो, स्वर्ण षोडश पाइयो । गिरनारगढ स्यूँ चलो नेमिजी राजमति चितवन पर ।।
प्रभ कर्म अष्ट जराय के, तुम मोक्ष मारग जाबही। दोहा-चैत्र मास में खेलस्यूं मुकत रमणि के साथ।
पाँडे जीवन सुनो भविजन, रैन दिन जिन ध्यायही । तीन लोक जाने हमें असे व्याल कटात ॥५१
इति : नेमनाथजी को बारहमासा सम्पूर्ण । चाल-लोक तीन में जाने राजल, पंच इद्रि बस करों।
सं. १९१० का मीती जेठ वदि १०॥ *