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मोम महंम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
॥
नवम्बर
वर्ष २४ किरण ५
बोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९८, वि० सं० २०२७
दिसम्बर १९७१
अर्हत् परमेष्ठी स्तवन रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्त संगग्रहात, प्रस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधद्वेषो ऽपि संभाव्यते। तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणामानन्दादि गुणा श्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥३॥
अर्थ-जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रह रूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय में राग नहीं है, त्रिशूल आदि आयुधों से रहित होने के कारण उक्त प्ररहंत परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की भी संभावना नहीं की जा सकती है। इसी लिए राग-द्वेष रहित हो जाने के कारण उनके समता भाव आविर्भूत हना है, और इस समता भाव के प्रकट हो जाने से उनके पात्मावबोध तथा इससे उनके कर्मों का वियोग हुग्रा है। अतएव कर्मों का क्षय से जो महंत परमेष्ठी अनन्त सुख प्रादि गुणों के प्राथय को प्राप्त हुए हैं वे अर्हत् परमेष्ठी सर्वदा पाप लोगों की रक्षा करें॥३