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डा० दरबारीलाल कोठिया
भारतीयदर्शन की एक अप्रतिम कृति प्रष्टसहस्त्री
प्राचार्य विद्यानन्द-रचित 'भ्रष्टसहस्त्री' जनदर्शन की ही नहीं, समग्र भारतीय दर्शन की एक प्रपूर्व, अद्वितीय श्रौर उच्चकोटि की व्याख्या कृति है । भारतीय दर्शन वाङ्मय मे जो विशेष उल्लेखनीय उपलब्ध रचनाए है उनमे यह निःसन्देह बेजोड़ है। विषय, भाषा और शैली तीनो से यह अपनी साहित्यिक गरिमा और स्वस्थ, प्रसन्न तथा गम्भीर विचारधारा को विद्वन्मानस पर श्रकित करती है । सम्भवत: इसी से यह प्रतीत में विद्वद्-ग्राह्म मौर उपास्य रही है तथा भाज भी निष्पक्ष मनीषियों द्वारा अभिनन्दनीय एवं प्रशंसनीय है । यहा पर हम उसी का कुछ परिचय देने का प्रयत्न करेंगे ।
मूलग्रन्थ : देवागम --
यह जिस महत्त्वपूर्ण मूल ग्रन्थ को व्याख्या है वह विक्रम संवत् की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान् प्रभावक दार्शनिक प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित 'देवागम' है। इसी का दूसरा नाम 'प्राप्तमीमांसा' है। अतः यह 'भक्तामर', 'कल्याणमन्दिर' प्रादि स्तोत्रों की तरह 'देवागम' पद से प्रारम्भ होता है, अतः यह 'चैवागम' कहा जाता है और प्रकलङ्क, विद्यानन्द', वादिराज, हस्तिमल्ल" प्रादि प्राचीन ग्रन्थकारों ने इसका इसी नाम से उल्लेख किया है । और 'प्राप्तमीमांसा' नाम स्वयं समन्तभद्र ने ग्रन्थान्त मे दिया है, इससे यह 'प्राप्तमीमांसा' नाम से भी विख्यात है। विद्यानन्द ने इस नाम का
१. 'देवागम- नभोयान... ' - देवागम का ० १ । २. 'कृत्वा विव्रियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ।' -भ्रष्टश० प्रार० १०२ ।
३. 'इति देवागमाख्ये स्वोक्तपरिच्छेदे शास्त्र...'
- प्रष्टस० पृ० २६४ ।
४. 'देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदश्यंते ।' पाश्वनाथचरित ।
५. 'देवागमन सूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्वितः ।' - विक्रान्तकौरव |
६. ' इतीवमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् ।'
- देवा० का० ११४ ।
७.
भ्रष्टस० पृ० १, मङ्गलपद्य, प्राप्तपरीक्षा पृ० २३३, २६२ ।
भी अपने ग्रन्थों में उपयोग किया है। इस तरह यह कृति जैन साहित्य मे दोनो नामो से विश्रुत है ।
इसमे श्राचार्य समन्तभद्र ने प्राप्त ( स्तुत्य ) कौन हो सकता है, उसमे प्राप्तत्व के लिए अनिवार्य गुण ( असाधारण विशेषताए) क्या होना चाहिए, इसकी युक्ति पुरस्सर मीमासा (परीक्षा) की है और यह सिद्ध किया है कि पूर्ण निर्दोषता, सर्वज्ञता और युक्तिशास्त्राविरोधिवक्तृता ये तीन गुण प्राप्तत्व के लिए नितान्त वांछनीय और अनिवार्य है । अन्य वैभव शोभामात्र है । अन्ततः ऐसा प्राप्तत्व उन्होने वीर जिन में उपलब्ध कर उनकी स्तुति की तथा भन्यो ( एकान्तवादियों) के उपदेशो - एकान्तवादों की समीक्षापूर्वक उनके उपदेश की है।
स्याद्वाद की स्थापना
इसे हम जब उस युग के सन्दर्भ मे देखते हैं तो प्रतीत होता है कि वह युग ही इस प्रकार का था। इस काल में प्रत्येक सम्प्रदाय प्रवर्तक हमें अन्य देव तथा उसके मत की आलोचना और अपने इष्ट देव तथा उसके उपदेश की ८. दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ - देवागम का० ४, ५, ६
६. . इति स्याद्वाद - संस्थितिः ॥ ' - देवागम का. ११३ ।