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________________ १९२, २४, कि० ५ 9 शाह तुगलक ने 'हृतिकान्त' पर हमला किया था, उस समय 'हसनखी' नाम का एक अफगान लोदी परी का अधिकारी बन बैठा था और वही बरायनाम चन्द्रवाड का भी जागीरदार कहलाने लगा। तुगलक शाह ने जो फतेह का पुत्र और फीरोजशाह का पोता या चन्द्रवाट को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। उस समय यहाँ के राजा ने भागकर अपनी रक्षा की थी, उसका नाम सावंतसिंह था । जो चन्द्रसेन का पुत्र था। उस समय तो वह किसी तरह बच गया; किन्तु उसने कुछ ही समय बाद बड़ी भारी फौज के साथ पुनः घेर लिया, और उसे बर्बाद किया। कहा जाता है कि उसी समय चन्द्रप्रभ भगवान की स्फटिक मणि की एक सुन्दर मूर्ति यमुना नदी की बीच धारा में डाल दी गई थी। यह मूर्ति बडी सातिशय थी और जो बाद को यमुना नदी के प्रवाह से बाहर निकाली गई थी। जो उस समय फिरोजाबाद के अटा के मन्दिर में विराजमान की गई थी। सवत् १४६४ मे खिजर ने इसे अपने अधिकार में कर लिया और भी गाँव के राजा से खिराज वसूल किया। प्रनेकान्त सं० १४९१ में हसनख लोदी ने चन्द्रवाड को अपनी जागीर बनाया, किन्तु सैयदों ने उस पर अधिकार नहीं होने दिया । पश्चान् राजा प्रतापराय या प्रतापरुद्र को, जो जागीरदार था चन्द्रवाट भोगांव मैनपुरी की जागीरे, और रपरी, इटावा की जागीर कुतुब खाँ को मंजूर की। , जब सुलतान बहलोल लोदी का जौनपुर के नवाब से युद्ध हुआ, उस समय बडी में स्वरपरी का जागीरदार नियत किया गया। तब चन्द्रवाड और इटावा भी उसके अधिकार मे रहे थे। सन् १४८७ (वि.सं. १५४४) में बहलोल लोदी ने रपरी में जौनपुर के बादशाह हुसेनखा को हराया था । अनन्तर सिकन्दर लोदी ने सं० १५४६ मे (सन् १४८६ ) मे चन्द्रवाड और इटावा की जागीरें अपने भाई बालमखां को प्रदान कर दीं। परन्तु वह उससे रुष्ट हो गया और उसने बाबर को बुला भेजा; किन्तु चन्द्रवा में उसे हुमायूं ने पराजित कर दिया, यह परिस्थिति राणा सांगा से सहन न हुई और उसने मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया और मुगलों का अधिकार चन्द्रवाड मोर रपरी पर हो गया । पर यह सब क्षणिक था । शेरशाह ने हुमायूं को पराजित कर उस पर अपना अधिकार कर लिया । उस समय प्रजा में कुछ जोग प्राया और अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये उसने विद्रोह कर दिया। किन्तु शेरशाह १२००० घुडसवार हिन्द सरकार से लाकर हृतिकांत में रहा और उसने अपना अधिकार पक्षुण्ण बनाये रखा। उसने इस देश मे सड़के तथा सराय बनवाईं। श्रकबर के समय परी और चन्द्रवाड के प्रदेश सूबा मागरा में मिला लिये गए । इस तरह चन्द्रवाड प्रादि की परिस्थिति विषम होता गई और वह अपनी सोई हुई थी सम्पन्नता को फिर नहीं पा सका, और आज वह खण्डहरों के रूप में अपनी पूर्व जीवन गाथा पर धांसू बहा रहा है, वहां जैनियों के अनेक विशाल मन्दिर थे, जो भूगर्भ में अपनी श्री सम्पन्नता को दबाये हुए सिसकियाँ ले रहे है, वहा आज भी भूगर्भ मे अनेक मूर्तिया दबी पड़ी है। खुदाई होने पर जैन कोटियो के प्रचुररूप में मिलने की संभावना है. साथही जंतर सामग्री भी प्रचुर मात्रा में मिल सकती है। खुदाई मे ऐतिहासिक सामग्री का मिलना संभव है। महां एक जीर्ण मन्दिर पशिष्ट था जिसका जीर्णोद्वार फिरोजाबाद पंचायत ने कराया था, उसमे इस समय कोई जैन मूर्ति नहीं है किन्तु मेले के समय मूर्ति फिरोजाबाद से से जाई जाती है। इस सब विवेचन पर से स्पष्ट हो जाता है कि घागरा धौर रुहेलखण्ड मे चन्द्रवाड, इटावा, हतिकान्त रपरी, साईखेड़ा, करहल, मैनपुरी और भोगांव श्रादि स्थान उत्तर भारत की जैन संस्कृति के प्रमुख केन्द्र थे । ये स्थान जहाँ चौहान वंश की उज्ज्वलता के प्रतीक है वहाँ जैन संस्कृति के अतीत गौरव की झांकी प्रस्तुत * देखो भूगोल का संयुक्त प्रान्त प्रक, भूगोल कार्यालय इलाहाबाद । करते हैं । Atken: on 'Statistical des criptione and Historical Acount of the N. W. P. S. of India Vol. TV, P. T. P. 373 - 375.
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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