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________________ महामात्य कुशराज परमानन्द जैन गोपाद्रि में तोमरवंशी राजाधिराज वीरमेन्द्र का जीवन परिचय दिया हुना है। यह पौराणिक के राज्य में महामात्य कुशराज थे जो जैसवाल चरित्र बड़ा हो रुचिकर प्रिय और दयारूपी अमत कुल के भूषण थे। इनके पिता का नाम जैनपाल का श्रोत बहाने वाला है। इस पर अनेक विद्वानों और माता का नाम 'लोणा' देवी था, पितामह का द्वारा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी गुजराती नाम 'भल्लण' और पितामही का नाम उदिता भाषा में ग्रन्थ रचे गये हैं। देवी था। कुशराज के पांच भाई और भो थे, कवि ने यह ग्रंथ वीरमदेव के राज्यकाल में जिनमें चार बड़े और एक छोटा था। हसराज, कुशराज की प्रेरणा से रचा था। सन् १४०० सैराज, रैराज्य, भवराज, ये बड़े भाई थे और के आस-पास ही राजसत्ता वीरमदेव के हाथ हेमराज छोटा भाई था। इन सब में शराज बड़ा में आई थी, हिजरी सन ८०५ और वि० और धर्मात्मा तथा राजनीति में कुशल था। जैन- सं० १४६२ में अथवा १४०५ A. D. में मल्ल धर्मका प्रतिपालक और देवशास्त्र-गुरु का भक्त इसने इकवाल खां ने ग्वालियर पर चढ़ाई की थी। परन्तु ग्वालियर में चन्द्रप्रभ जिन का एक विशाल जिन- उस समय उसे निराश होकर ही लौटना पड़ा। मन्दिर बनवाया था और उसके प्रतिष्ठादि कार्य प्राचार्य अमृतचन्द्र की 'तत्त्वदीपिका' (प्रवचनको बड़े भारी समारोह के साथ सम्पन्न किया था। सार टीका) की लेखक प्रशस्ति में जो वि० स० शराज की तीन स्त्रिया थी. रल्हो. लक्षणश्री और १४६६ में लिखी गई है, गोपाद्रि (ग्वालियर) में कौशीरा। ये तीनों ही पत्नियां सती, साध्वी तथा उस समय वीरमदेव के राज्य का उल्लेख किया गुणवती थी और नित्य पूजन किया करती थी; गया है। कुशराज ने स० १४७५ में एक यंत्र को रल्हो से कल्याणसिंह नाम का एक पुत्र उत्पन्न प्रतिष्ठित किया था जो नरवर के मन्दिर में विद्यहुअा था, जो बड़ा ही रूपवान, दानी और जिनगुरु मान है-सं० १४७५ अषाढ सुदि ५ गोपाद्रि .. चरणाराधन में तत्पर था। राजाधिराज श्री वीरमेन्द्रराज्ये श्री कर्षता जनैः संघीन्द्रवंशे साधु भुल्लण भार्या पितामही पुत्र जैनकुशराज जहाँ धर्मनिष्ठ और कर्तव्य परायण था वहाँ वह राजनीति में भी चतुर था । वह राज्य पाल भार्या लोणा देवी तयोः पूत्राः परम श्रावकः सेवा को अपना कर्तव्य मानकर करता था। महा साघु कुशराजोऽभूत भार्ये रल्हो, लक्षणश्री कौशीरा मात्य होते हुए भी उसमें अहंकार नही था, बड़ा हो तत्पुत्र कल्याण मलभूत भार्ये द्वे धर्मश्री जयतम्मिदे इत्यादि परिवारेण समं शाह कुशराजो यत्र प्रणउदार और हँसमुख था। वह वीरमदेव का महान मति । और अमरकीति के षट्कर्मोपदेश की आमेर विश्वासपात्र महामात्य था और पृथ्वी की रक्षा करने में तत्पर था प्रति में, जो स. १४७६ को लिखी हुई है उसमें भी वीरम देव के राज्य का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है सर्वगुण सम्पन्न कुशराज ने श्रुतभक्तिवश कि १४६२ से १४७६ तक वीरमदेव का राज्य रहा यगोबर चारत का रचना पद्मनाभ कायस्थ स कराइ है। वही समय कूशराज्य का है। थी, जिसमें राजा यशोधर और रानी चन्द्रमती का (जैन ग्रंथ प्रशस्ति सग्रह भा. १ पृ० ५-६)
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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