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१४२, वर्ष २४, कि०४
अनेकान्त
"बंदी इन्द्रपुरी जखिपुरी कि कुबेरपुरी,
के लिए मृगेन्द्र (सिंह) समान, तथा श्रुत-सिद्धान्त-सागर रिद्धि सिद्धि भरी द्वारिका सी घरी घर मै । के बुद्धिमान गणधर और पचम काल के ऋषीन्द्र बत. घौलहा धाय घर-घर में विचित्र वाम,
लाया है :नर कामदेव कैसे सेव सुख सर मै ।
"जग भूषन, भट्टारक तिहि थलि, काम करिद-मइंदो हो। वापी बाग वारुण बाजार वीथी, विद्या वेद, श्रुत-सिद्धांत-उदधि बुधि गणहरु पंचम काल रिसिदो हो।" विबुध विनोद वानी बोले मुख नर मैं ।
इनके पट्टघर भ० विश्वभूषण ने भी भ० जगतभूषण तहा कर राज राव भावस्यंध महाराज,
का उल्लेख किया है। हिंदु धर्म लाज पाति सही प्राज कर मै ।" १३
जगताभूषण पट्टदिनेशं । विश्वभूषणमहिमाजगणेशं ।
-तीर्थवंदन संग्रह, पृ० ६४ ब्रदी में उस समय अनेक श्रावक रहते थे और अपने
इतना ही नही किन्तु उन्हें पाडे रूपचन्द जी ने धर्म का पालन करते थे।
'भारतीभूषण' चारित्र के पालक और तपोभषण बतलाया शाह लोहट भी जिनधर्म का प्राराधन करने थे।
है यथा :१५वी शताब्दी के कवि पद्मनाभ कायस्थ द्वारा निर्मित
तरी प्रमदप्रकाशविलसत श्री भारतीभूषणः, संस्कृत भाषा के यशोघर चरित का हिन्दी पद्यानुवाद
चारित्राचरणाच्चमत्कृतदशः किं वा तपो भूषणः । कवि ने वि० स० १७२१ मे आषाढ़ शुक्ला तीज गुरुवार
श्री भट्टारक वंदितां हि युगलौ गण्योऽपनुव दूषणः, के दिन समाप्त किया था।
इश्वत् किन्ननमस्यते बुधगणः श्रीमज्जगद् भूषणः । इनकी दूसरी कृति 'षट्लेश्यावेलि' है, जिसका रचना काल स० १७३० पासोज मुदी ६ बतलाया है।
इनके शिष्य ब्रह्मगुलाल ने कई ग्रन्थो की रचना की
है, उन सबमे भ० जगभषण का उल्लेख किया है। भट्टारक जगभूषण या जगभूषण भट्टारक जगभूषण ग्वालियर गद्दी के मूलसघी भट्टा
बीमा कवि की एक मात्र कृति हिंडोलना' है, जो मल्हार राग रक थे । और भ० ज्ञानभूषण के उत्तराधिकारी एवं पट. मे गाई जाती है, रचना सुन्दर पोर मनमोहक है। घर थे । मंस्कृा और हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान और
अमन मणिमय थभ कोने रतन खचित अपारि । कवि थे । ब्रह्य गुलाल इन्ही के शिष्य थे। सवन् १६५१
पच वर्ण संवारि मानउ रतन पटली चारि ॥ मे जब कवि भगवतीदास अग्रवाल ने 'अर्गलपुर जिनवदना' रुचिर मोती माल डोरा किंकणी रण सार । नाम की रचना लिखी है, उसमे भट्टारक जगभूषण का सुरहि साथ हिंडोलना तहं मूलत नाभिकुमार ॥ उल्लेख किया गया है। उस समय वे प्रागरा में मौजूद
सुभग हिड लना मूलत जगपति ज॥१॥ थ। भगवतीदास ने उन्हे कामरूपी करीन्द्र को वश करन
अलिकल कलित कलेवर नील नीरद तषा चातक मोर । ३. श्रावक लोग वस धर्मवत, पूजा कर जप प्ररहत ।
दश दिशा प्रति बीजु चमकति करत दादुर सोर ।। तिनको सेवक लोहट साह, करी चौपई बरि शुभलाह ।१४
पहिरि सारी सुखाराति लाह कंचुको गांठ । ४. वरषा रिति पागम सुभसार, मास अषाढ़ तीज गुरवार ।
जुवति सलत नाभिसुत, संग प्रथम मास अषाढ़ ।। पाख उजाल पूरी यह भई, सरल प्ररथ भाषा निरमई२६ नटत किन्नर किन्नरी जन मुरज वीना वनु ॥२॥ सवत सत्रहस इकईस, करी चौपई फली जगीत ।
सुरस बाजत जलद वरसत दबंगई सब रैनु । मन अभिनाष सपूरन भए,
सरभि शीतल पवन कोकिल मोर विसाल ।। श्रीजिन गुरु चरण शीशधरि लए ॥२८
अमर सायनि रमत जगपति पायो सावन मास । -यशोधर चरित प्रशस्ति
झिरत झिरना गहिर सीता उमडि चलत तडाग ।। ५. देवो राजस्थान जैन ग्रन्थ सूची भा० ४, पृ० ३६६। १. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भा० १, पृ० १५६