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६०, वर्ष २४, कि० २
अनेकान्त
हुप्रा।
ऐसा कहने पर प्रजा ने उनकी पूजा की। प्रजा ने जिस नरेश वृषभसैन अनेक राजारों के साथ भगवान के पास स्थान पर भगवान की पूजा की, वह स्थान पूजा के पहुंचा और दीक्षा लेकर भगवान का प्रथम गणधर बना । कारण 'प्रयाग' इस नाम को प्राप्त हुआ।
तब इस युग में प्रथम तीर्थकर का प्रथम उपदेश यही इसी प्रकार प्राचार्य रविषेण ने 'पद्म पुराण' में कहा पर हुअा। भगवान ऋषभदेव ने धर्मचक्र प्रवर्तन प्रयाग
मे ही किया। प्रजाग इनि देशोऽसौ प्रजाम्योऽस्मिन् गतो यतः ।
भगवान की दीक्षा के कारण इस नगर का नाम प्रकृष्टो वा कृतस्त्यागः प्रयागस्तेन कीर्तितः ॥३-२८६। बदल कर प्रयाग हो गया और जिस वट वृक्ष के नीचे
भगवान वृषभदेव प्रजा से दूर हो उस स्थान पर उन्हें अक्षय ज्ञान लक्ष्मी प्राप्त हुई वह वट वृक्ष 'अक्षयवट' पहुंचे थे, इस लिए उस स्थान का नाम 'प्रजाग' प्रसिद्ध कहलान लगा हो गया। प्रथवा भगवान ने उस स्थान पर बहुत भारी
नन्दि संघ की गुर्वावली में अक्षय वट का उल्लेख इस त्याग किया था इस लिए उसका नाम 'प्रयाग' भी प्रसिद्ध
प्रकार मिलता है-"श्री सम्मेदगिरि-चम्पापुरी-ऊर्ज
यन्तगिरि-अक्षय वट-प्रादीश्वर दीक्षा सर्वसिद्ध क्षेत्र इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेव के
कृत यात्राणा । इसमे अक्षय वट को तीर्थ स्थान माना है। कारण ही इस स्थान का नाम 'प्रयाग' पड़ा और फिर
इस प्रकार दीक्षा और ज्ञान कल्याणक यहां मनाए पुरिमताल नगर भी प्रयाग कहलाने लगा। क्योंकि जैन गए। इसलिए यह सदा से जैन तीर्थ क्षेत्र के रूप में साहित्य में ऋषभदेव के पश्चात् पूरिमताल नामक किसी
प्रसिद्ध रहा है। नगर का नाम देखने में नही आया। भगवान प्रजापति
यह स्थान प्राकृतिक सुषमा से समृद्ध है । गगा-यमुना कहलाते थे और प्रजा उन्हे हृदय से प्रेम करती, उनपर
और सरस्वती का यह सगम स्थल है। इन तीन नदियों श्रद्धा रखती थी। इसलिए भगवान के सर्वस्व त्याग जैसी
की श्वेत, नील और रक्त धाराएं मिलकर एक दूसरे में अपूर्व घटना के कारण 'प्रयाग' नाम पड़ा और वही स्थायी
समाहित हो गई है । यह अक्षयवट इस त्रिवेणी संगम के हो गया।
तट पर खड़े हुए किले के भीतर है । इसमे तो सदेह नही दीक्षा लेने के बाद भगवान यहाँ पर केवल छह मास
है कि वह मूल प्रक्षयवट समाप्त हो गया, किन्तु उसकी तक ही रहे । इसके पश्चात् वे विभिन्न देशों में विहार
वंश परम्परा के द्वारा अब तक एक अक्षयवट विद्यमान करते रहे। ठीक एक हजार वर्ष पश्चात वे पनः इसी है। पहले पातालपुरी गुफा में कुछ पंडे लोग एक मूखी स्थान पर पधारे । भगवज्जिनसेनाचार्य के शब्दों में लकडी को कपड़े में लपेट कर और उसे अक्षयवट कहकर 'मौनी, ध्यानी और मान से रहित वे अतिशय बुद्धिमान
भक्त जनता को उसका दर्शन कराते थे। किन्तु अब कहते भगवान धीरे-धीरे अनेक देशो मे विहार करते हर किसी हैं, अक्षयवट का पता चल गया और अब सप्ताह में दो दिम पुरिमताल नामक नगर के समीप जा पहुंचे। वहां दिन उसके दर्शन कराये जाते है। यमुना किनारे के शकट नामक वन में वट वृक्ष के नीचे एक शिला पर फाटक से यहाँ पा सकते है । पर्यासन में विराजमान हो गए। उन्होंने ध्यानाग्नि द्वारा इस स्थान की यात्रा करने से भगवान ऋषभदेव की घातिया कर्मों का नाश कर दिया और फाल्गुण कृष्णा स्मृति मन में जाग उठती है और मन अनिवर्चनीय भक्तिएकादशी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में भगवान को निर्मल भाव से प्लावित हो उठता है। केवलशान उत्पन्न हो गया । सम्पूर्ण देवों और इन्द्रों ने पुरातत्व-यहाँ किले में एक प्राचीन स्तम्भ है। वहाँ पाकर केवलज्ञान की पूजा की और केवलज्ञान का भगवान ऋषभदेव की कल्याणक भूमि होने के कारण महोत्सव मनाया, इन्द्र को प्राज्ञा से देवों ने उसी स्थान मौर्य सम्राट् सम्प्रति ने इसका निर्माण कराया था। उस र समवसरण की रचना की। उस समय उस नगर का स्तम्भ को भूल से अशोक स्तम्भ कहने लगे हैं। इसके