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युगवीर-निबन्धावली अथवा बालकको प्रसव कराकर उसे कही जगल आदिमे डाल आओ या मार डालो, परन्तु खुले रूपमे जाति-बिरादरीके सामने यह वात न आने दो कि तुमने उस विधवाके साथ सम्बन्ध किया है, इसीमे तुम्हारी खैर है-मुक्ति है-और नहीं तो जातिसे खारिज कर दिये जाओगे।' जाति-विरादरियो अथवा पचायतोकी ऐसी नीति और व्यवहारके कारण ही आजकल भारतवर्षका और उसमे भी उच्च कहलानेवाली जातियोका बहुत ही ज्यादा नैतिक पतन हो रहा है। ऐसी हालतमे पापियोका सुधार और पतितोका उद्धार कौन करे, यह एक बड़ी ही कठिन समस्या उपस्थित है।
एक बात और भी नोट किये जानेके योग्य है और वह यह कि यदि कोई मनुष्य ,पाप-कर्म करके पतित होता है तो उसके लिये इस बातकी खास जरूरत रहती है कि वह अपने पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये अधिक धर्म करे, उसे ज्यादा धर्मकी ओर लगाया जाय और अधिक धर्म करनेका मौका दिया जाय, परन्तु आजकल कुछ जैन-जातियो और जैन-पचायतोकी ऐसी उलटी रीति पाई जाती है कि वे ऐसे लोगोको धर्म करनेसे रोकती हैउन्हे जिनमन्दिरोमे जाने नही देती अथवा वीतराग भगवानकी पूजा-प्रक्षालन नहीं करने देती और-और भी कितनी ही आपत्तियाँ उनके धार्मिक अधिकारोपर खडी कर देती हैं । समझमे नही आता यह कैसी पापोसे घृणा और धर्मसे प्रीति अथवा पतितोके उद्धारकी इच्छा है | और किसी बिरादरी या पचायतको किसीके धार्मिक अधिकारोमे हस्तक्षेप करनेका क्या अधिकार है ।।
जैनियोमे 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' का भी एक दर्जा ( चतुर्थ गुणस्थान ) है, और अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं जो