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वाताधिकारः
तदैक्याद् वर्षगणेऽप्येकं तेन सर्वसमाः समाः ॥ ४ ॥ तदध्यक्षविरोधोऽयं वातभेदात् प्रतिस्थलम् । नैतच्छक्यं यतो वातो वाते भेदत्रयस्मृते ॥ ५ ॥
(४५)
यतस्तत्रैव - क्या णं भन्ते ! ईसिंपुरे वाया जाव वायन्ति ? गोयमा ! जया णं वाउकाए आहारियं रियन्ति, तया णं ईसिंपुरेवाया० जाव वायन्ति ॥ १ ॥ कया णं भन्ते । ईसिं० जाव वायन्ति ? गोयमा ! जयाणं वाउकाए उत्तर किरियं क रेति तथा णं ईसिं० जाव वायन्ति ॥ २ ॥ कयाणं भन्ते ! ईसिंपुरे वाया पच्छावाया ? गोयमा ! जया णं वायुकुमारा वायुकुमारीओ वा अप्पणो वा, परस्सा वा, तदुभयस्स वा, अट्ठाए वाउकायं उदीरेंति, तया णं ईसिंपुरे वायां० जाव महावाया वायन्ति ॥३॥
इति 'अहारियं रियंति' त्ति रीतं रीतिः स्वभाव इत्यर्थः । तस्थानतिक्रमेण यथारीतं रीयते गच्छति, यथा स्वाभाविक्या
वर्णन किया, उनमें से एक एक भी वर्षाद के निमित्त है. यदि सब अनु कूल हों तो वर्षा अनुकूल होती है ॥ ४ ॥ वायु के भेद से प्रत्येक स्थल का बड़ा विरोध है, ये जानना सुगम नहीं है । इस लिये वायु को जाननेका अभ्यास करना चाहिये। वायु चलने के तीन कारण आगममें कहे हैं ॥ ५ ॥
हे भगवन् ! ईषत्पुरो वायु आदि वायु कब चलते हैं ? हे गौतम ! जब वायुकाय अपना स्वभाव पूर्वक गति करे तब ये वायु चलते हैं ॥ १ ॥ हे भगवन् ! ये वायु कब चलते हैं ? हे गोतम ! जब वायुकाय उत्तर क्रिया पूर्वक वैकिय शरीर बनाकर गति करे तब ये वायु चलते हैं ||२|| हे भगवन् ? ये वायु कब चलते हैं ? हे गौतम ! जब वायुकुमार और वायुकुमारियां अपने या दूसरों के लिये या दोनों के लिये वायुकाय को उदीरे ( गतिकराते ) हैं तब ये वायु चलते हैं ॥ ३ ॥
"Aho Shrutgyanam"