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संवत्सराधिकारः
अध्वरे निरता विप्रा वीतरोगा विवैरिणः || ५४ ॥ भावाब्दे प्रचुरा रोगा मध्याः सस्याघवृष्टयः । राजानो युद्धनिरता स्तथापि सुखिनो जनाः ॥५५॥ प्रभूतपयसो गावः सुखिनः सर्वजन्तवः । सर्वकामक्रियासक्ता युवाब्दे युवतीजनाः ॥५६॥ धातृवर्षेऽखिलाः क्ष्मेशाः सदा युद्धपरायणाः । सम्पूर्णा धरणी भाति बहुसस्यार्घवृष्टिभिः ॥५७॥ ईश्वराब्देऽखिलान् जन्तून् धात्री धात्रीव सर्वदा । पोषयस्यतुलं चान्नं फलमाषेनुव्रीहिभिः ॥ ५८ ॥ अनीतिरतुला वृष्टि हुधानाख्यवत्सरे । विविधैर्धान्यनिचयैः सम्पूर्णा चाखिला धरा ॥ ५९ ॥ न मुञ्चति पयोवाहः कुत्रचित्कुत्रचिज्जलम् । मध्यमा वृष्टिरर्घश्च नूनमब्दे प्रमाथिनि ॥ ६० ॥ विक्रमाब्दे धराधीशा विक्रमाक्रान्तभूमयः । सर्वत्र सर्वदा मेचा मुञ्जन्ति प्रचुरं जलम् ॥ ६१ ॥
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ब्राह्मण यज्ञकर्म में प्रवृत्त हों रोग और शत्रुता रहित हों ॥ ५४ ॥ भाववर्ष में बहुत रोग हों, धान्य और वर्षा मध्यम हो, राजा युद्ध करें तो भी लोग सुखी हों ।। ५५ ।। युवावर्ष में गौ बहुत दूध दें, सब प्राणी सुखी हों और स्त्रीजन कामक्रिया में आसक्त हों ॥ ५६ ॥ धाता वर्ष में सब राजा युद्ध के लिये तत्पर हो समस्त पृथ्वी वर्षा द्वारा धन धान्यसे : पूर्ण हो || ५७ || ईश्ववर्ष में पृथ्वी सब प्राणियों को माता की समान फल, 'माघ ( उडद), ऊख (इक्षु), चावल (व्रीहि) आदि अनाज से पालन करे || ५८ || बहुधान्यवर्ष में ईति रहित बहुत वर्षा हो, पृथ्वी अनेक प्रकार के अन्न से पूर्ण हो ॥ ५६ ॥ प्रमाथीवर्ष में वर्षा न वरसे, कहीं कहीं मध्यम वर्षा और धान्य पैदा हो ॥ ६० ॥ विक्रमवर्ष में राजा पराक्रम
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