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संवत्सराधिकारः
सर्वधार्यब्देके भूपाः प्रजापालनतत्पराः । प्रशान्तवैराः सर्वत्र बहुसस्यार्घवृष्टयः ॥ ६९॥ शीतलादिविकारः स्याद् बालानां तस्करा जनाः । अल्पक्षीरास्तथा गावो विरोधश्व विरोधिनि ॥ ७० ॥ मुष्णन्ति तस्करा लोकान् तोडाः स्युः शलभाः शुकाः । विकारकृद्जलवृष्टि - विकृतेऽब्दे प्रजारुजः ॥ ७१ ॥ स्वल्पा वृष्टिः स्वल्पधान्यं खण्डवृष्टिर्नृपक्षयः । छत्रभङ्गः प्रजापीडा खरेऽब्दे खरता जने ॥ ७२ ॥ सुभिक्षं सुखिनो लोका व्याधिशोक विवर्जिताः । नन्दनं च धनैर्धान्यैर्नन्दने वत्सरे भवेत् ॥ ७३ ॥ युध्यन्ते भूभृतोऽन्योऽन्यं लोकानां च धनक्षयः । दुर्भिक्षं च कचित् स्वस्थं बहुसख्यार्घवृष्टयः ॥ ७४ ॥ जयमङ्गलघोषाद्यै- धरणी भाति सर्वदा । जयाब्दे धरणीनाथाः संग्रामे जयकाङ्क्षिणः ॥ ७५ ॥
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त्यागें || ६८ ॥ सर्वधारी वर्ष में वैररहित होकर राजा प्रजा के पालन में तत्पर हों, बहुत धन धान्य और जलवर्षा हों ॥ ६६ ॥ विरोधीवर्ष में बालकों को शीतलादि का रोग हो, लोक चौरी करें, गौएं थोड़ा दूध दें || ७० || विकृतवर्ष में लोगों को चोर दुःख दें, टीड्डी शलभ शुक आदि विशेष हो, विकार करने वाली जलवर्षा हो और प्रजा को रोग हो ॥ ७१ ॥ खरसंवत्सर में थोडी वर्षा, थोडा ही धान्य, खण्डवृष्टि, राजाका विनाश, भंग, प्रजाको दुःख और मनुष्योंमें क्रूरता हो । ७२ || नन्दनवर्षमें सुभिक्ष, लोक सुखी, व्याधि और शोकसे रहित और धन धान्यसे सुखी हों ॥ ७३॥ विजयसंवत्सर में राजा परस्पर युद्ध करें, लोगोंका धन क्षय हो, दुष्काल पड़े, कहीं शान्तता और धन धान्य हो, वर्षा हो || ७४ || जयसंवत्सर में जय मंगल के शब्दों से पृथ्वी सर्वदा शोभायमान हो, राजा संग्राम में जय की
छत्र
"Aho Shrutgyanam"