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सूर्यचारकथनम्
तुर्ये धिष्ण्ये च पूर्वस्माद् यदि वारे तृतीयके । संक्रमो निशि सूर्य य सुभिक्षं स्यात् तदोत्तमम् ||३३|| लोके तु जिणवारे रविस्त्र मे, तिथी चउथे वार ! अशुभ फेडी शुभ करे, जोसी खरुं विचार ||३४|| पांचा होह करवरो, तिहु रस मुहंघो होय | जो आवे दो छठडे, पृथिवी परलय जोय ॥ ३५ ॥ बीजे श्रीजे पांचमे, रवि संचारो होय । खप्पर हत्थी जग भमे, जीवे चिरलो कोय ॥३६॥ सूर्यस्यान्यग्रहाणां वा गुरुभेऽभ्युदयास्तकौ । शशिष्टौ सुभिक्षं स्याद् दुर्भिक्षं लघुभे पुनः ॥ ३७॥ तिथिदिनोडुलझाना मायकराटे रविस्थितौ । सुभिक्षं जायतेऽवश्यं दुर्भिक्षं तु त्रिकण्टके ||३८||
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विप्लव हो और पृथ्वीपर मनुष्य तृतीयांश रह जाय ||३२|| यदि चौथा नक्षक्षेत्र और तीसरा वार में रात्रि के समय सूर्यसंक्रान्ति हो तो अच्छा सुभिक्ष हो ॥ ३३ ॥ लोक भाषा में बोलते है कि — जिस वार में पूर्वकी संक्रांति हो उससे चौथे वार में यदि दूसरी संक्रांति हो तो अशुभ को दूर करके शुभ फल करें ॥ ३४ ॥ यदि पाचवां वारमें प्रवेश हो तो करवरा हो । तीसरे वार में प्रवेश हो तो रस महँगा हो । छड्डे वार में प्रवेश हो तो पृथ्वी प्रलय हो याने बहुत से प्राणी मृत्यु प्राप्त हो || ३५ || दूसरे तीसरे या पांचवें वार में सूर्यसंक्रांति हो तो मनुष्य भीक्षा के लिये खप्पड़ लेकर घूमे याने बड़ा दुष्काल हो जिससे बहुत से प्राणियों का विनाश हो || ३६ || सूर्य या दूसरें ग्रह गुरु ( बृहत् ) नक्षत्र पर उदय हो या अस्त हो और उस पर
मा की दृष्टि हो तो मुभिक्ष होता है और लघुसंज्ञक नक्षत्र पर हो तो दुभि होता है ॥ ३७ ॥ तिथि वार नक्षत्र और लग्न इन के पाद्य भागमें हो तो सुभिक्ष होता है और अन्त्यभाग में हो तो दुर्भिक्ष हो ॥
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" Aho Shrutgyanam"