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मङ्गल चारफलम्
धातुमूलजीववस्तुष्वेवमर्ध समादिशेत् । ग्रहवेधो न चेत्तत्र सर्वतोभद्रसम्भवः ॥ ११८ ॥ सकलापि कलाभृतः कला यदि नास्त्यचला चलाचला । जलदैर्जल दैन्यवार कै- बहुधान्योदयलब्धवारकैः ॥ ११६ ॥
(४३७)
अथ मङ्गलचारः ।
नक्षत्रोपरिचारफलम् --- शीतपीडाविनीभौमे तुषधान्यमर्घता ।
द्विजपीडा भरण्यारे नाशः स्यादतसीद्रुमे ॥ १२० ॥ सर्वदेशे ग्रामपीडा धान्यानां च महघेता । कृत्तिकायां मङ्गलः स्याद् भङ्गोऽपि तापसाश्रमे ॥ १२१ ॥ वृक्षपीडा श्वापदानां रोगः स्यादु रोहिणीकुजे । महघेतापि कर्पासे वस्त्रे सूत्रे विशेषतः ॥ १२२ ॥
बराबर हो तो समान भाव रहें, यह तीन प्रकार से धान्यकी अर्वता कही || ११७ ॥ इसी तरह धातु मूल और जीव वस्तुओंका भाव कहें, यदि वहां सर्वतोभद्र से उत्पन्न ग्रहवेध न हो तो ॥ ११८ ॥ कलाको धारण करनेवाले चन्द्र की कला जल की दीनता को निवारण करनेवाले तथा बहुत धान्य के उदयकी प्राप्ति को निवारण करनेवाले ऐसे मेघोंसे अचल नहीं हैं किंतु चलाचल है ॥ ११६ ॥
मंगल अश्विनी नक्षत्र पर हो तो शीतकी पीडा, तुष और धान्य महँगे हो ! भरणीनक्षत्र पर मंगल हो तो ब्राहाणोंको पीडा, और वृक्ष में अलसी का नाश हो ॥ १२० ॥ तथा सब देशों में गाँवको पीडा और धान्य महँगे . हो । कृत्तिका में मंगल हो तो तापसोंके आश्रम का विनाश हो ॥१२१॥ रोहिणी में मंगल हो तो वृक्षों का नाश तथा पशुओं को रोग हो । और
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