Book Title: Meghmahodaya Harshprabodha
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Bhagwandas Jain

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Page 510
________________ (BED) मेघमहोदये बर्षे मेघमहोदयावगमने स्फारेऽधिकारे मया । सर्वस्मिन् रमति ध्रुवं वरमतिर्यस्य प्रभाशालिनः, शास्त्रेऽस्मिन्ननु तस्य वश्यमखिलं जायेत भूमण्डलम् ।११४ इति श्रीमेघमहोदयसाधने वर्ष बांधे तपागच्छीयमहोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते द्वारचतुष्टयकथनो नाम: द्वादशोऽधिकारः ॥ अथ शकुननिरूपणो नाम त्रयोदशोऽधिकारः । तत्र प्रथमं पृच्छाल नम् छालने चतुर्थस्थौ शनिराह यदा पुनः । दुर्भिक्षं च महाघोरं तत्र वर्षे धुवं भवेत् ॥ १॥ चतुर्णामपि केन्द्राणां मध्ये यत्र शुभा ग्रहाः । तस्यां दिशि च निष्पत्ति: सुभिक्षं च प्रजायते ॥२॥ यस्यां दिशि शनिर्दष्टः क्रूरैः शत्रुग्रहस्थितः । इसी प्रकार महोदय का ज्ञान करानेवाला वर्ष प्रबोध - तुष्ट नाम का बारहवां अधिकार मैंने कहा, जिस प्रभावशाली की श्रेष्ठ बुद्धि इस सम्पूर्ण शास्त्र में रमति है उसको संपूर्व भूमंडल निश्चय से बशीभूत होता है ॥ ११४ ॥ सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत- पादलिप्त पुरनिवासिना पण्डितभगवानदासा व्यजैनेन विरचितया मेघमहोदये बालाव बोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितो - हारचतुष्टयनामो द्वादशोऽधिकारः । वर्षा प्रश्न में चौथे स्थान में शनि और राहु हो तो उस वर्ष में महाघोर दुर्भिक्ष हो ॥१॥ प्रथम चतुर्थ सप्तम और दशम इन चारों केन्द्र के मध्य में जहां शुभ ग्रह हो उसी दिशा में धान्य प्राप्ति और सुभिक्ष हो - ॥ २ ॥ क्रूर ग्रह के साथ या शत्रु ग्रह में स्थित शनि की दृष्टि जिस दिशा में "Aho Shrutgyanam"

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