________________
मासव्यं धृष्टिकरो पाच्या
ततो न वृष्टिहिमपात एव ।। ६० ॥ मासदयेऽतीव घनः प्रतीच्या,
निष्पत्तिरम्नस्य तदोच्चभूम्याम् । स्ततोऽप्यवृष्टियदि वाल्पवर्षा,
स वातवृष्टिः पवनस्य कोणे ॥११॥ पूर्व न वृष्टिनिकतौ पयोदाः,
पश्चाद् घना लोकसरोगता च । स्यादुस्तरस्यां भवने सुभिक्ष
मीशानभागेऽपि सुखं सुभिक्षम् ॥२॥ गार्गीयसंहितायां तुवृक्षाग्रे तु महावर्षा वृक्षमध्ये तु मध्यमा । अधःस्थाने नैव वर्षा वृक्षे काकालयाद वदेत् ॥६॥ वक्षकोटरके गेहे प्राकारे काकमालके । दुर्भिक्षं विग्रहो राज्ञां याम्यां छत्रस्य पातनम् ॥१४॥ दक्षिणमें बनावे तो दो महीनौ वर्षा हो और पीछे वर्षा न हो किंतु हिमपात हो ॥६०॥ पश्चिम दिशा में बनावे तो दो महीने बहुत वर्षा हो तब ऊंची भूमिमें धान्यकी उत्पत्ति अच्छी हो, और पीछे दो महीने वर्षा न हो या थोड़ी. वर्षा हो । वायु कोण में बनाये तो वायु के साथ वर्षा हो । ६१ ॥ नैर्ऋत्य कोणमें बनावे तो रहले वर्षा न हो पीछे बहुत वर्षा हो
और. लोकमें रोग हो । कौआ अपना घोंसला उत्तर दिशा में बनाये तो सुभिक्ष होता है । ईशान कोणमें बनावे तो भी सुभिक्ष और सुख हो ॥६२॥ ___. कौवा. अपना वोंसला वृक्ष उपरके अग्र भागमें बनावे तो महा वर्षा, मध्य भागमें बनावे तो मध्यम वर्षा और नीचेके भाग में बनाये तो वर्षा न हो ॥६३॥ कौओंका घोंसला वृक्षके कोटर (खोखला) घर और किला में
"Aho Shrutgyanam"