Book Title: Meghmahodaya Harshprabodha
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Bhagwandas Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦). શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ હીરાજૈન સોસાયટી, રામનગર, સાબરમતી, અમદાવાદ-૦૫. (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 268 456 420 १४. 638 192 428 070 406 પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી या पुस्तat परथी upl stGnels sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ભાષા કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्दति बृदन्यास अध्याय-६ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 056 | विविध तीर्थ कल्प पू. जिनविजयजी म.सा. 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृति टीका श्री धर्मदतसूरि 06080 संजीत राममा श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) सं श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ 062 | व्युत्पतिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय | श्री सुदर्शनाचार्य 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी पू. मेघविजयजी गणि 064 | विवेक विलास सं/४. श्री दामोदर गोविंदाचार्य 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध सं | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 066 | सन्मतितत्वसोपानम् पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 067 | 6:शभादीशुशनुवाई पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 068 | मोहराजापराजयम् सं पू . चतुरविजयजी म.सा. 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह | सं/Y४. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन | 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं | श्री भगवानदास जैन 074 | सामुदिइनi uiय थी ४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र supम ला1-1 ४. श्री साराभाई नवाब 0768नयित्र पद्मसाग-२ ४. श्री साराभाई नवाब 077 | संगीत नाटय ३पावली ४. श्री विद्या साराभाई नवाब 078 मारतनां न तीर्थो सनतनुशिल्पस्थापत्य १४. श्री साराभाई नवाब 079 | शिल्पयिन्तामलिला-१ १४. श्री मनसुखलाल भुदरमल 080 दशल्य शाखा -१ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 081 | शिल्पशाखलास-२ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 082 | शल्य शास्त्रला1-3 | श्री जगन्नाथ अंबाराम 083 | यायुर्वहनासानुसूत प्रयोगीला-१ १४. पू. कान्तिसागरजी 084 ल्याएR8 १४. श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री 085 | विश्वलोचन कोश सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 086 | Bथा रत्न शास-1 श्री बेचरदास जीवराज दोशी 087 | Bथा रत्न शा1-2 श्री बेचरदास जीवराज दोशी 088 |इस्तसजीवन | सं. पू. मेघविजयजीगणि એ%ચતુર્વિશતિકા पूज. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા | सं. आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 308 128 532 376 374 538 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 ४. 230 322 089 114 560 Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૭૩ 'મેઘમહોદય વર્ષપ્રબોધ : દ્રવ્યસહાયક : પ.પૂ.પા.ગચ્છાધિપતિ આ.ભ.શ્રી રામસૂરીશ્વરજી મ.સા.(ડહેલાવાળા)ના સમુદાયના પ.પૂ. ગચ્છાધિપતિ આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી ચંદ્રયશાશ્રીજી તથા પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી અમિપ્રજ્ઞાશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી મૌલીકરત્નાશ્રીજી મ.સા. તથા પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી પુનિતપ્રજ્ઞાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી ચન્દ્ર-ગુણ-અમિ આરાધક ટ્રસ્ટ, જીનાલય એપાર્ટમેન્ટ, સાબરમતીના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬ ઈ.સ. ૨૦૧૦ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ne: EHATREE P VETam %E IN MITE - - NEW PLETELEnereneEUPER CULSUGLCULSURLUSCLE CELESED श्री धीतरागाय नमः। श्रीमन्महामहोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचित मेघमहोदय-वर्षप्रबोध CAT Troooooooooooooooooooooooooo अनुवादक व प्रकाशक पण्डित भगवानदास जैन neaantiranandedEETTERNETENSITENTIEnent lionairtelEnetenenापदान InPnAmlEREMONETENEMEMENT LS4LSEXUSLUSLELSLCLALCLELEUSLEEPIPURTELartun ENA TRA वीरनिर्वाणसं० २४५२ विक्रमसं० १९८३ १० स० १९२६ प्रथमावृत्ति १००० मूल्य ४) रूपिया इम ग्रंथके सर्वाधिकार प्रकाशकने स्वाधीन रखे हैं। SR दीठिया जैन प्रिंटिंग प्रेस बीकानेर 9-4-26 "Aho Shrutgyanam" Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञापनजैनाचार्यों के बनायें हुए ज्योतिष गणित सामुद्रिक शिल्प शकुन वैद्यक और कला भादि विज्ञान विषयों के प्राचीन ग्रंथरत्न शीघ्रही प्रकाशित हो रहे हैं । जो महाशय इनका स्थायी प्राहक बनना चाहे वे एक रुपिया भेजकर स्थायी ग्राहक श्रेणी में अपना नाम लिखवा लें , जिससे उनको मेरी तरफसे छपनेवाली हरएक पुस्तकें पौनी किमतसे मिल जायेंगी। शीघ्र ही प्रकाशित होंगेगणितसारसंग्रह-- श्रीमहावीराचार्य विरचित, इसका हिन्दी अनु. वाद, उदाहरण-समेत खुलासा वार किया गया है। भुवनदीपक सटीक-- श्रीपद्मप्रभसूरिप्रणीत मूल और श्रीसिंहतिलकसूरिकृत टीका के साथ हिन्दी अनुवाद समेत । यह प्रश्न कुंडली पासे अनेक प्रकार के शुभाशुभ फल जाननेका अत्युत्तम ग्रंथ है । X वास्तुसार (शिल्पशास्त्र)- परमजैन श्रीठक्कर-फेरु विरचित प्राकृतगाथा बद्ध और हिन्दी अनुवाद समेत इसमें मकान मंदिर प्रतिमा(मूर्ति) प्रादि बनानेका अधिकार विवेचन पूर्वक किया गया है। त्रैलोक्यप्रकाश- श्रीहेमप्रभसुरि प्रणीत यह जातक ताजक तथा समस्त वर्ष में सुकाल दुष्काल आदि जानने का बहुत विस्तार पूर्वक खुलासावार है। इनसे अतिरिक्त उपरोक्त विषयके ग्रंथ तैयार हो रहे हैं। पुस्तक मिलनेका पता4. भगवानदास जैन सेठिया जैन प्रिंटिंग प्रेस. बीकानेर (राजपूताना "Aho Shrutgyanam" Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समर्पण MISHReadtrategyeReceRSecky बीकानेर-निवासी श्रीमान् दानवीर उदारहृदय साहित्यप्रेमीमेठ भैरोंदानजी जेठमलजी मेठिया की मेवामें, माननीय महोदय . अापने अपनी उदारता से धर्म और समाज के अभ्युदय के लिये ग्रन्थालय ( लायब्रेरी ) विद्यालय और कन्यापाटशाला आदि पारमार्थिक जैन संस्थाओं की स्थापना करके श्रीमानों के सामने सुंदर प्रादर्श खडा कर दिया है । इतना ही नहीं किन्तु धर्म और समाज की मेवाके लिये आपने अपने आपको अर्पित कर दिया है। इत्यादि प्रशंसनीय कार्यों में प्राकर्षित होकर यह छोटीसी भेंट आपके कर कमलोंमें सादर समर्पिन करता हूँ। भवदीय----- भगवानदास जैन. "Aho Shrutgyanam" Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. हरएक मनुष्य को प्रायः यह वर्ष कैसा होगा? वषां कब और कितनी बरसेगी? सुकाल होगाया दुकाल? अन्न सस्ता होगा या महँगा? इत्या-- दि जानने की बहुत उत्कंठा रहा करती है अतः इनके भावी शुभाशुभ का जानने के लिये प्राचीन प्राचार्यों ने ज्योतिष- फलादेश के अनेक ग्रथों का निर्माण किया हैं, उनमेसें अनेक प्राचीन ग्रंथों का साररूप संग्रह कर के रचा हुआ यह ग्रंथ सुभित दुर्भिक्ष वृष्टि आदि जानने का प्रत्युत्तम साधन हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिताप्रवरपंडितमहामहोपाध्याय-श्री मेधविजयगणि हैं। ये अठारहवीं शताब्दीमें तपागञ्छगणनायक जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरीश्वरजी के पट्टपरंपरा आये हुए जैनाचार्य श्रीविजयप्रभसूरि और जैनाचार्य श्रीविजयरत्नसूरि के शासनमें विद्यमान थे। इन्होंने अपनी वंशपरंपरा अपने बनाये हुए शान्तिनाथचरित्र-महाकाव्य के अंतमें इस प्रकारलिखी है" तदनु गणधरालीपूर्वदिगभानुमाली विजयपदमपूर्व हीरपूर्व दधानः ॥६॥ कनकविजयशर्माऽस्यान्तिषत् प्रौढधर्मा शुचितरवरशीलः शीलनामा तदीयः। कमलविजयधीरः सिद्धिसंसिद्धितीर स्तदनुज इह रेजे वाचकश्रीशरीरः॥६७॥ चारित्रशब्दाद् विजयाभिधान स्त्रयी सगधृाशीलधर्मा । एषां विनयाः कवयः कृपाद्याः पद्यास्वरूपाः समयाम्बुराशौ ॥६८॥ नत्पादाम्बुजभृङ्गमेघविजयः प्राप्तस्फुरद्वाचक ख्यातिःश्रीविजयप्रभाख्यभगवत्सूरेस्तपागच्छपात्। नुनोऽयं निजमेरुपूर्वविजयप्राज्ञादिशिष्यैरिमां चक्रे निर्मलनैषधीयववतः श्रीशान्तिक्रिस्तुतिम् ॥६६॥" "Aho Shrutgyanam" Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकर्त्ता का : वैशवृक्ष कमलविजय (२) हीरविजय } कनकविजय 1 शीलविजय " सिद्धिविजय चारित्र विजय 1 कृपाविजय 1 मेघविजय मेघमहोदय ( वर्षप्रबोध) आदि ज्योतिषग्रंथों के अतिरिक्त न्याय व्याकरण काव्य आदि विषयों के भी अनेक ग्रंथ रचे हैं १ देवानन्दाभ्युदय-महाकाव्ये २ शान्तिनाथचरित्र - महाकाव्यै १ यह माघकाव्य की पादपूर्ति सप्तसर्गीय महाकाव्य संवत् १७६० में रचा हुआ है । इसमें जैनाचार्यश्रीविजयदेवसूरीश्वरजीका आदर्श जीवनचरित्र वर्णित है । यह यशोविजयनग्रंथमाला में प्रकाशित हो गया है । २. इसमें श्रीहर्षकविविरचित नैववीय महाकाव्य की पादपूर्तिरूप श्रीशान्तिनाथजन् चरित्र बड़ा मनोहर लालित्य लोकोंमें वर्णित है। इसका कुछ लोक पाठकों के सामने उत करता हूँ श्रियामभिव्यक्तमनाऽनुरक्तता विशालसालवितयश्रिया स्फुटा । तया बभासे स जगत्त्रयीविभुर्ज्वलत्प्रतापावलिकीर्तिमण्डलः ॥१॥ निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथाः सुराः सुराज्यादिसुखं बहिर्मुखम् । प्रपेदिरेऽन्तः स्थिरतन्मयाशयाः सदा सदानन्दभृतः प्रशंसया ॥२॥ यथाश्रुतस्येह निपीतत्तत्कथा - स्तथावियन्ते न बुधाः सुधामपि । • सुधाभुजां जन्म न तन्मनःप्रियं भवेद् भवे यत्र न तत्कथा प्रथा ॥ ३ ॥ सदीयपादाम्बुजभक्तिनिर्भरात् प्रभावतस्तुल्यतया प्रभावतः । नलः सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः क्षमापतिः प्राप यशः- प्रशस्यताम् ॥४॥ द्विधापि धर्मानुगतिर्महीपति द्वावधेः शैशवः एष शेवधिः । *मेगा की विजये दिशां जिनः स राशिराशीन्महसां महोज्ज्वलः ॥१५ ॥ यह जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला का वां पुष्प रूपसे मुद्रित है । "Aho Shrutgyanam" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ दिगविजयमहाकाव्यै ५ चंद्रप्रभा ७ युक्तिप्रबोधनाटक ६ सप्त संघनामहाकाव्यं मेघदूतसमस्यालेख ६ मातृकाप्रसाद विजयदेवमाहात्म्यविवर फ १० हस्तसंजीवनें ३. यह त्रयोदश सर्गीय महाकाव्य में जैनाचार्य श्री विजयप्रभसूरि का आदर्श जीवन विस्तार पूर्वक बर्णित हैं । ४] ग्रंथकर्त्ता दक्षिण देश में औरंगाबाद नाम के नगर में चातुर्मास रह थे, वहां से सोरठ देश में द्वीपबंदर नामके नगर में चातुर्मास रहे हुए गच्छाधीश्वर श्रीविजयप्रभसूरिजी के पास विज्ञप्तिपत्रिकारूप भेजा हुआ श्री कालीदास विरचित मेघदूत महाकाव्य की पादपूर्तिरूप यथार्थ नामवाला यह ग्रंथ नगरादि का वर्णन सरस सुंदर लोकों से वर्णित है । यह आत्मानंद जैन ग्रंथमाला का २४ वां रत्न रूपसे प्रकाशित हो गया है । ५. यह व्याकरणविषय का ग्रंथ श्रीहेमचंद्राचार्य विरचित सिद्धमव्याकरण के सूत्रों को अष्टाध्याय क्रमसे हटाकर सूत्रोंको प्रयोग सिद्धि की परिपाटी रूप रखकर रचा है । इस लिये पाणिनीय व्याकरण की कौमुदी की तरह इसको भी सिद्ध हेमव्याकरण की ' हैमकौमुदी' या 'चन्द्रिका' कहते है । यह पांच हजार लोक प्रमाण है और गोपालगिरि नग‍ में विक्रम संवत १७५५ में रचा है । ६. अध्यात्म विषय का ग्रंथ है, इसमें ॐ नमः सिद्धम्' इस वर्णाम्नाय का बिस्तारपूर्वक विवेचन करके ॐ शब्द का रहस्य को अच्छी तरह स्फुट किया है। धर्मनगर में विक्रम संवत् १७४७ में रचा है । ७ यह भी मुख्यतया अध्यात्म विषय का ग्रंथ है। 人 = पन्यास श्रीवल्लभविजयगण ने रवा है, इसमें कितने प्रयोगों का इस थकार स्फुटतया विवेचन किया है । 8 इसमें जैनदर्शन के कथनानुसार श्री ऋषभनाथ, श्रीशान्तिनाथ, श्री पार्श्वनाथ, श्रीनेमिनाथ और श्री महावीरस्वामी इन पांच तीर्थकरों का तथा श्रीकृष्णवासुदेव और श्रीगमचंद्र इन सात उत्तम पुरुषों का माहात्म्य वर्णित है। इन महान पुरुषों का पवित्र जीवन सदृश न होने पर भी सदृश शब्दों से भिन्न घटनाओंका वर्णन करके 'सप्तसंधान' नाम यथार्थ किया । तथा अनुप्रासले यमक इत्यादि शाब्दिक और आर्थिक अलंकार युक्त सेवन विहार आराम ऋतु नगर आदि का वर्णन यथास्थित करके महाकाव्य की पंक्ति में इसको उत्तम बनाया है। यह जैन विविध साहित्य शाम्रमाला ३ गं पुष्प रूपमे प्रकाशित हुमा है I १० सामुद्रिक विषय का ग्रंथ है, इसमें हस्त की रेखाओं पर से भविष्य का शुभा "Aho Shrutgyanam" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ब्रह्मबोधे १२ लघुत्रिषधि चरि १३ भक्तामरस्तोत्र टीका इत्यादि उपलब्ध ग्रन्थरत्नों से आपके न्यायव्याकरण साहित्य विषयक प्रखर पाण्डित्य का पता लगता है। इसके अतिरिक्त गुजराती भाषामें भी कईएक रासा आदि जोड़कर गुजराती भाषा साहित्य की वृद्धि की है इससे साफ मालूम होता है कि आप का शान परिमित नहीं-अत्यन्त विशाल था। प्रस्तुत ग्रंथ तेरह अधिकारोंमें अनेक विषयोंसे पूर्ण हुआ है । जैसेउत्पात प्रकरण, कर्पूरचक्र,पभिनीचक्र,मण्डल प्रकरण, सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण फल, प्रत्येक मासमें वायुका विचार, वर्षा को बरसानेका और बंध करनेका मंत्र यंत्र, साठ संवत्सरोंका मतमतान्तर-पूर्वक विस्तार से फल, ग्रहों का राशियों पर उदय अस्त या वक्री हो उनका फल, प्रयन मास पक्ष और दिन का विचार, संक्रांति फल, वर्षके राजा मंत्री प्रादि का विचार, वर्षा के गर्भ का विचार, विश्वाविचार, प्राय और व्ययका विचार, सर्वतोभद्रचक्र और वर्षा जानने का शकुन, इत्यादि उपयोगी विषयोंका अनेक मतमतान्तरोंसे विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। इसका प्रतिदिन अनुशीलन किया जाय तो अगले वर्ष में दुष्काल होगा या सुकाल, वर्ग कब और कितनी कितने दिन बरसेगी, धान्य, सोना चांदी आदि धातु, कपास, सूत और क्रयाणक वस्तु, इन सब का तेजी होनाया मंदी ये अच्छी तरह जान सकते है।सारांश यही है किभावी वर्ष का शुभाशुभ जानने के लिए कोई भी विषय इसमें नहीं छोड़ा है। वर्षप्रबोध के नाम से हिन्दी भाषा के साथ दो संस्करण और हो गये हैं। एक मुरादाबाद निवासी पं. ज्वालाप्रसादजी मिश्र अनुवादित ज्ञानसागरप्रेस बम्बईसे और दूसरा जयपुर निवासी पं.हनूमानजी शर्मा अनुवादित श्री वेङ्कटेश्वरप्रेस बम्बई से प्रकट हुअा हैं । पहले अनुशुभ फलादेश जानने के लिये अत्युत्तम है । यह 'मिद्धज्ञान' नाम से भी प्रसिद्ध है । ११ प्राध्यात्मिक विषय का ग्रंथ है। १२ चौवीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव प्रतिवासुदेव और नव बलदेव ये तेसट महान् उत्तम पुरुषों का चरित्र ५००० श्लोक प्रमाण है और विस्तारसे कलि काल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य ने ३६००० श्लोक प्रमाण रचा है। १३ श्रीमान् मानतुंगसूरि विरचित भक्तामर स्तोत्रकी विस्तार पूर्वक टीका है। "Aho Shrutgyanam" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाद के विषय में दूसरे अनुवादक पं हनूमानजी शर्मा लिखते है कि" ( यह ग्रंथ) सव्यवस्था रूपसे अब कहीं मिलता भी नहीं है यद्यपि भाषा टीका सहित एक मिलता है किंतु वह ऐसा है मानों खुले पत्रोंकी पुस्तक अांधीमें उड़ गई हो और उसीको ढूँढ ढांढ कर विना नम्बर देखे ही ज्यों की त्यों छाप दी हो, क्योंकि उस में एक ही विषय के दश दश अंगोंमसे आठ २ अंग जाते रहे हैं। और कई एक विषय इधर उधर छिन्न भिन्न होकर खंडित हो रहे है । यह दशा तो पहले संस्करण की है। परंतु दुसरा संस्करण और भी एकदम विचित्र है। समस्त ग्रंथ का प्रमाण ३५०० श्लोक है, पर दूसरे में भी लगभग २००० श्लोक नदारद हैं। इसमें भी हमे अत्यन्त आश्चर्य तोतब होता है जबयह देखते हैं कि पं. हनुमानजी शर्माने अपनी ओर से कईएक जहां तहां के श्लोक घुसेड़ कर प्रथम मंगलाचरगा से ही पूर्ण ग्रंथ का बिलकुल परिवर्तन कर दिया है। अतः मुझे दुःख पूर्वक कहना पड़ता है कि अच्छा होता यदि पं. महाशयने इतिहास और प्राचीन साहित्य में क्षति पहुँचाने के लिये कलम ही न चलाई होती, अथवा अन्त में ग्रंथकर्ता श्री मेघविजयजी की प्रशस्ति न देकर अपने नाम से ही प्रकट किया होता। इस पर भी अनुवादक तुरी यह लिखते है कि " ... इसे अन्य कोई छापनेका दुस्साहस न करें" धन्य महाशय न जाने किस हनु से आपके संस्करण में ग्रंथ का सारा स्वरूप बदला गया है, और उसे असली हालत में जनता के उपकारार्थ प्रगट करनेवाले का साहस दुस्साहस होगा? अस्तु । ऐसे अनुवादकों को मेरी प्रार्थना है कि प्राचीन साहित्य का इस तरह दुरुपयोग न कीजिये । यों ही संस्कृत साहित्य कहीं भण्डारों में पड़ा हुआ दीमक या चूहों का आहार बन रहे हैं । जो कुछ प्राप्त हो सकता है उसे इस तरह विकृत कर डालना वड़ी अप्रशंसा की बात है। उक्त दोनों अनुवादकों और प्रकाशकोंने यदि उदारता से इस ग्रंथ की पूरी खोज की होती तो शायद मुझे इस नवीन अनुवाद को लेकर न उपस्थित होना पडता । परंतु हमारे दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। इसलिए इसका प्रकाशित होना न होना लगभग बराबर ही था। इसी कारण मैंने इस ग्रंथको व्यवस्थित ढंगसे पूरे पाठकी खोज करके और प्राचीन टिप्पणियोंसे युक्त करके पाठकों के समक्ष रखनेका दुस्साहस(१) "Aho Shrutgyanam" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है । निःसंदेह इसमें बहुतसी त्रुटियां अब भी मौजूद होगी। इस के कई कारण है-प्रथम तो मेरी मातृभाषा हिन्दी नहीं, गुजराती है। दुसरा कारण वश इसे बहुत शीघ्रतासे प्रकाशित किया है फिर भी यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि मैंने ग्रंथको अधूरा नहीं रक्खा है। इस ग्रंथ की पूर्ण प्रेसकोपी जयपुर निवासी राज्यज्योतिषी पं. गोकुलचन्द्रजी भावन द्वारा ज्योतिषशास्त्री पं. श्यामसुन्दरलालजी भावन ने पूर्ण परिश्रम लेकर सुधार दी है। तथा मुद्रितफॉर्म पाली (मारवाड) निवासी दैवज्ञभूषण ज्योतिषरत्न पं. मीठालालजी व्यास ने सुधार दिये है। इस लिये उन सबका आभार मानता हूँ। इसको शुद्ध करनेके लिए निम्न लिखित सज्जनों ने मेधमहोदय की हस्त लिखित प्रतिये भेजने की कृपा की है. इसलिये मैं उनका भी पूर्ण उपकार मानता हूँ। १ श्रीमान् पूज्यपाद शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी के शास्त्रभंडार भावनगर से श्रीयुत अभयचन्द भगवानदास गांधी द्वारा प्राप्त । २ श्रीमान् महोपाध्याय श्री वीरविजयजी शास्त्रसंग्रह बडोदा से श्रीयुत पं. लालचन्द भगवानदास गांधी द्वारा प्राप्त । ३ श्रीमान् मुनि महाराज श्री अमरविजयजी से प्राप्त । ४ जयपुर निवासी राज्यज्योतिषी पं. मुकुन्दलालजी शर्मा से प्राप्त। ५ पाली निवासी देवज्ञभूषण ज्योतिषरत्न पं. मीठालालजी व्यास से प्राप्त। . उक्त पांच प्रति प्रायः इसी शताब्दी में लीखी हुई अशुद्ध थी, इनमें जयपुरवाले पंडितजी की प्रति में कहीं २ प्राचीन टिप्पणी भी थी वह मैंने यथा स्थान लगा दी है। किंतु यही प्रति पं. श्यामसुन्दरलालजी भावनके पास प्रेसकोपी सुधारने के लिये रह जाने से विलंबसे मिली. जिस से जो बाकी रही गई टिप्पणियें मैंने ग्रंथ के अंतमें लीख दी है, आशा है- पाठक गया वहां से देख लेंगे। विद्वान् जनों से सविनय प्रार्थना है कि मेरी मातृभाषा गुजराती होने से हिन्दी अनुवाद में भाषा की तो बहुतसी त्रुटियां अवश्य होंगी: परंतु कहीं श्लोकों का गूढ श्राशय में भूल देखने में आवे तो उसे सुधार कर पढ़ने की कृपा करें और मेरेको सूचित करेंगे तो दूसरी प्राप्ति में सुधार दी जायगी। जैसे "Aho Shrutgyanam" Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) पृष्ठ ३६६ श्लोक१६१"नवम्यां स्वातिसंयोगे भाद्रमासे सिते यदा" इत्यादि श्लोकोंका मैंने प्रथम "भाद्रपद शुक्ल नवमी के दिन स्वातिनक्षत्र हो" ऐसा अर्थ किया था, किंतु पीछेसे प्राचीन (स्त्रोप?)टिप्पणी युक्त प्रति मिलनेसे इसका गूह प्राशय "भाद्रपद शुक्ल नवमी या स्वातिनक्षत्र के दिन शुक्रवार हो"ऐसा समझ में आनेसे सुधार दिया है। पूर्ण प्राशा है कि पाठक गण इससे विशेष लाभ उठाकर मेरा परिश्रम को सफल करेंगे। इत्यलं सुक्षेषु. सं १९८३ द्वितीय चैत्र आपका कृपापात्र--- ___ शुक्ल १३ रविवार (श्री महावीरजिन जयंती) भगवानदास जैन हिन्दी अनुवाद समेत जोइसहीर (ज्योतिषसार) यह प्रारंभिक शिक्षा के लिये अत्युत्तम है, इसमें मुहूर्त आदि देखने की संक्षिप्त पूर्वक बहुत सरल रीति बतलाई है । साथ कुछ स्वरोदय ज्ञान भी दिया गया है । पृष्ठ संख्या ८८ किमत पांच भाना. किंतु स्थायी ग्राहकोंके लिये भेंट. "Aho Shrutgyanam" Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिषयानुक्रमणिका । वायुचक १३ १ मा विषय पृष्ठांक विषय पृष्ठांक मंगलाचरण । दूसरा वाताधिकारउत्पातप्रकरण वायु के भेद पन्मिनीचक्र या कूर्मचक्र ११ शनिदृष्टिचक्र चैत्रमासमें वायुविचार सर्वतोभद्रचकसे दिविचार १२ वैशाखमासमें वायुविचार कपूरचक्र से देशान्तरों में वर्ष का ज्येष्ठमासमें वायुविचार ५२ शुभाशुभ शानके लिये प्रथम चक्र आषाढमासमें वायुविचार ५५ न्यास प्रकार आषाढ पूर्णिमाके दिनका वायु ६ प्रकारान्तरसे कर्पूरचक्रका दूसरा मार्गशीर्षमासमें वायुविचार ६० पाठ पौषमासमें वायुविचार शुक्र का उदय से देशों में वर्ष का माघमासमें वायुविचार ६५ | फाल्गुनमासमें वायुविचार ६२ शुक्रास्तसे देशों में वर्षका ज्ञान २४ तीसरा देवाधिकारमण्डलप्रकरण में प्रथमानेय वर्षा करनेवाले देवांका वर्णन ६५ मण्डल वर्षा होनेके मंत्र और यंत्र ७२ वायुमण्डल वर्षास्तंभनके मंत्र और यंत्र ७७ वारुणमण्डल माहेन्द्रमण्डल चौथा संवत्सराधिकारमण्डल कब फलदायक होते हैं? २६ | वर्षके द्वार उत्पातभेद शुभाशुभ वर्ष गन्धर्वनगर ३३ षष्टि (साठ) संवत्सर विद्युत्लक्षण सैद्धांतिक पांच संवत्सर ८७ केतुफल ३४ षष्टि संवत्सर लाने का प्रकार चंद्र और सूर्य ग्रहणका फल तथा उनका फल रामविनोद के वर्षाके गर्भ लक्षण ३६ मतसे "Aho Shrutgyanam" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ २०८ पृष्ठांक विषय पृष्ठांक रौद्रीयमेघमाला के षष्टि संवत्सर राशियों पर गुरुका अस्तफल १८५ १०० मेघों का विचार दुर्गदेवमुनि कृत पष्टि संवत्सर पांचवां अधिकारफल : संवत्सरशरीर १६४ प्राचीन वचनों से विस्तार पूर्वक राशियों पर शनिचारविचार २६४ पष्टि संवत्सर फल नक्षत्रीपरी शनिफल २०६ गुरु (बृहस्पति) चार फल सप्त यमजिह्वा २०८ गुरुके वर्षका विचार शनिका उदय विचार मेषराशिस्थ गुरुफल शनिका अस्त विचार २०६ वृषराशिस्थ गुरुफल १५६ कूर्मचक्र या पद्मचक्र मिथुनराशिस्थ गुरुफल १५८ राहुचार का फल २१८ कर्कराशिस्थ गुरुफल राहुका राशिग्रहगा फल २२३ सिंहराशिस्थ गुरुफल १६० नक्ष ग्रहणफल कन्याराशिस्थ गुरुफल केतुचार का फल २२७ तुलाराशिस्थ गुरुफल छहा अधिकार---- वृश्चिकराशिस्थ गुरुफल अयनफल धनराशिस्थ गुरुफल मासकल मकरराशिस्थ गुरुफल अधिकमासफल कुंभराशिस्थ गुरुफल मीनराशिस्थ गुरुफल तिथि क्षय या वृद्धिका फल २४४ दिनविचार गुरु (बृहस्पति) वऋविचार-- मेषराशिसे मीनराशि तक बारह । रोहिणी परसेवांका दिनमान२५४ राशियों में स्थित वक्री गुरु का वर्षमें वृष्टिको दिनसंख्या २५५ १७२से१७६ तिथि और चारमें रोहिणीफल२५६ फल गुरु के भोग नक्षत्र का फल १७७ प्रथम वर्ष के दिनफल २५७ गुरु के चतुष्कफल १७६ सातवां अधिकार-- पुनःगुरुके भोगनक्षत्रका फल १८ ! अगस्तिद्वार २५६ राशियों पर गुरुका उदयफल १८३ वर्षराज मंत्री आदिका विचार२६१ गुरुदय का मासफल १८४ वर्षाधिपति का फल : २६ 04 4 4 4 44 YWWX" "Aho Shrutgyanam" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ विषय पृष्ठांक विषय “पृष्ठोंक वर्षमंत्री फल २६७ स्वातियोग सस्याधिपति फल २६९ फाल्गुनमासमें वादलविचार ३१५ मन्तान्तरों से वर्षराजादि का आठवां अधिकारविचार २७१ : मेघगर्भलक्षणा रामविनोद के मत से वर्षराज मार्गशीर्षकृष्णादि के गर्भ ३२३ २७२ मेघचक्र ३२७ वशिष्ठमतसे वर्षमंत्री फल २७३ तात्कालिक गर्भलक्षणा ३२६ धान्येश फल २७४ गर्भविनाश तथा प्रसुति का मेघाधिपति फल लक्षण ३३१ रसेश फल २७७ | शीघ्र वर्षाका लक्षण . ३३४ सस्याधिपति फल २७८ नववा अधिकारनीरसाधिपति फल २७९ तिथियों में आर्द्रा प्रवेशफल २८० वर्षस्तंभ चतुय । विंशोपकालानेका प्रकार ३४३ २८१ वारोंमें रामविनोद के मतसे तुधादि के नक्षत्रों में पार्दा प्रवेशके समयफल विश्वा वर्ष जन्मलग्न विचार २८३ चैत्रमासमें तिथिफल अभ्र (बादल) द्वार वैशाखमासमें " चैत्रमासमें वादल विचार ज्येष्ठमासमें .. वैशाखमासमें आषाढमासमें " ज्येष्ठमासमें कालीरोहिणी विचार ३५१ आषाढमासमें आषाढ पूर्णिमा विचार श्रावणमासमें २६८ श्रावणमासमें तिथिफल ३६० भाद्रमासमें ३०१ श्रावणा अमावसका विचार ३६२ पाश्विनमासमें : भाद्रमासमें तिथिफल ३६५ कार्तिकमासमें ३०३ भाद्रपद अमावसका विचार ३६६ मार्गशीर्षमासमें ३०४ आश्विनमासमें तिथिफल ३६६ पौषमासमें ३०५ कार्तिकमासमें तिथिफल ३७२ माघमासमें ३१० ! मार्गशीर्षमासमें . ३७५ २८१ २८३ ہے ا س ०.....mmmmH . MMM "Aho Shrutgyanam" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M . WWWWWW ३८२ ३८४ विषय पृष्टांक विषय पृष्ठांक पौषमासमें तिथिफल सप्तनाडीचक ४२३ माघमासमें " चन्द्रोदयफल ४३० फाल्गुनमासमें " ३८० चन्द्रास्तफल बारह पूर्णिमाका विचार चन्द्रमा नक्षत्र और तिथि योग वर्षा दिन संख्या के फल ४३३ अकालवर्षा ३८५ आय व्यय चक्र ४३६ दशवां अधिकार मंगलचारफल संक्रांति प्रकरण मंगलवक्रीफल संक्रांतिसंशा और वारफल ३८७ ग्रहवक्रीफल चंद्रमंडलों में संक्रांतिका फल ३८७ अतिचार (शीघ्र गति) फल दिन और रात्रि विभागसे संक्रांति मंगलका उदयफल फल ३८८ मंगल का अस्तफल करणद्वारा संक्रांतिकी स्थिति३८८ बुधवार फल संक्रांति मुहर्त विचार ३८६ बुधका उद्यफल संक्रांतिके वाहन आदि ३६० बुधका अस्तफल ४॥२ बारह संक्रांतिके फल । शुक्रचार ४५३ नक्षत्र वार के योग से संक्रांति शुक्रचतुष्क ४५३ फल ४०८ शुक्रवार योगचक्र शुक्रोदयमासफल बारह संक्रांतियों में वर्षा का शुक्रोदयराशिफल ४५७ विचार शुक्रोदयननत्रफल ४४७ ग्याहरवां अधिकार- शुक्रोदय तिथिफल ४५८ बन्द्रचार शुक्रास्त मासफल रोहिणी शकटयोग ४१६ शुक्रास्त राशिफल चन्द्रकी प्राकृति ग्रहयोग फल चन्द्रके वस्त्र ४२१ बारहवां अधिकारगोकुल क्रीडा ४२२ नक्षत्रद्वार चन्द्रसे अर्घज्ञान ४२२ रोहिगीचक्र 00 .x4 "Aho Shrutgyanam" Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) पृष्ठांक | विषय ४६६ | पुंस्त्री नपुंसक ग्रह ૨ विषय दिना और मासार्घ श्रार्द्रा प्रवेश नक्षत्रद्वार सर्वतोभद्रचक्र नक्षत्र क्रम से देश और वस्तु के नाम ४७५ देशकाल और परायका निर्णय४५० देश आदिके स्वामीका ज्ञान बलद्वारा स्वामी का निर्णय वक्रोदय फल उच्चवल स्वामी द्वारा वेधफल वर्ण आदि पर दृष्टि ज्ञान वेध द्वारा विश्वा निर्णय जलयोग सूर्य चंद्र कृत जलयोग ३७२ ४७३. ४८० ४८१ ४८१ ર વર્ ४८३ ४८४ ४८६ ४८८ तेरहवां अधिकार पृच्छा लग्न वृष्टि पृच्छा ऋक्षय तृतीया विचार रक्षापर्व विचार आषाढ पूर्णिमा विचार शुभ ज्ञान अंधकार प्रशस्ति अवशिष्ट शियें. "Aho Shrutgyanam" पृष्ठांक ४८६ कुसुम लता फल कौपके डेका फल टिट्टिभके प्रण्डे का फल कौएं के घोंसले का फल काकपिण्डफल गौतमीय ज्ञान से वर्ष का शुभा ક *&? કર ४६३ ४६५ ४६८ ५०१ ५०१ ૦૬ ५०६ ५०७ ५०६ ५११ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाली (मारवाड) निवासी श्रीमान् ज्योतिषरत्न पं-मीठालालजी व्यास ने नीचे लिखे हुए श्लोकों का अर्थ सूधार कर भेजा है पृष्ठ- १३ श्लोक ४६- ४७- ४८ -- ज्येष्टशुक्ल अष्टमी आदि चार दिन तक मृदु (सुखस्पर्श)वायु, शुभ(पुर्व उत्तर या ईशान का) वायु चले तथा स्निग्ध और विनागतिके वादल हो तो धारणा शुभ होती है, इससे संवत्सर श्रेष्ट होता है ॥४६॥ इन्हीं दिनोंमें स्वाति आदि चार नक्षत्रोंमें वर्षा हो जाय तो धारणा परिश्रुत हो जाती है इसलिये क्रमसे श्रावणादि चार महीनों में वर्षा न हो ॥४७॥ अष्टम्यादि चारों दिन उपर के श्लोक ४६ के अनुसार एकसे (यथार्थ) निकले तो सुभिक्ष तथा सुखकारक जानना । यदि यथार्थ न निकले तो वर्ष अच्छा न हो और चौर तथा अग्नि का भयदायक हो॥४८॥ पृष्ठ-१५६ श्लोक- ३६ - उदगवीथी याने आकाशमै उत्तरमार्गके माने हुए नव नक्षत्रों पर गुरु हो तो सुभिक्ष और कल्यागा कारक है तथा मध्यमार्ग के नक्षत्रों पर हो तो मध्यम फल कहना ।। पृष्ट- २५२ श्लोक. ५११... मिगमा वाय न वाइश्रा याने सूर्य के मृगशिर ननअमें वायु न चले । पृष्ठ २८४--- श्लोक १३७----मेष प्रवेश लग्नमें तथा वर्षप्रवेश लममें यदि सप्तम स्थानमें पापग्रह हो तो धान्यका विनाश हो ॥१३॥ पृष्ठ २६५ श्लोक- २०८- मूलनक्षत्र के चरणों में क्रमसे वर्षा हो तो आषाढादि चार महीनों में क्रम से वर्षा का अवरोध हो । इसी प्रकार श्रवण और धनिष्ठा के चरणों में वर्षा न हो तो क्रमसे आषाढादि चार मासमें वर्षाका अभाव हो ॥२०८॥ पृष्ट ३३६ श्लोक. ३- प्राषाढशुक्ल प्रतिपदाको पुनर्वसु नक्षत्र हो तो धान्य की प्राप्ति हो । पृष्ट. ३६ ४ श्लोक १५२– श्राखा रोहिण नवि मिले पोसी मूल न होय' याने अक्षय तृतीया को रोहिणी और पौष अमावस को मूल न हो तो पृष्ठ ३७२ श्लोक १६.८- 'आश्विन अमावस' के स्थान पर कोई भी मास की अमावस समझना . पृष्ठ ३७६ श्लोक २२५-- मार्गशीर एकादशी को पुनर्वसु नक्षत्र हो तो कपास कई सूत आदि का संग्रह करने से वैशाखमासमें लाभदायक होगा ॥२२॥ "Aho Shrutgyanam' Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ ॥श्रीमेघमहोदयो-वर्षप्रबोधः॥ (भाषाटीकासमेतः) ग्रन्थकारस्य मंगलाचरणम् । श्री तीर्थनाथवृषभं प्रभुमाश्वसेनि, शलेश्वरं नतसुरेन्द्रनरेन्द्रघन्द्रम् । ध्यापन समेघविजयं सुखमावबुद्धन्यै, शास्त्रं करोमि किल मेघमहोदयार्थम् ॥१॥ येनायं प्रभुपाबमाप्तवृषभं विश्वैकवीरं हृदि । - स्मारस्मारमहर्निशं पटुधिया ग्रन्थाः समभ्यस्यते । प्रेधा तस्य सुवर्णसिद्धिकमला मेधावलात् प्रैधते, राजद्राजसभासु भासुरतया कीर्तिर्नरीसत्यते ॥२॥ नत्वा जिनेन्द्रं प्रभुपार्श्वनाथ, देवासुरैरचितपादपभम् । वर्षप्रबोधस्य करोमि टीका, बालावबोवाय सुभाषयाहम् ॥ १॥ भावार्थ--देवेन्द्र नरेन्द्र और चन्द्र मादि जिन को नमस्कार करते हैं, ऐसे धनेन्द्र पद्मावती सहित तीर्थकर श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ प्रभु का ध्यान करता हुभा, मेघ के उदय के अर्थ को सुखपूर्वक जानने के लिये मैं ( महामहोपाध्याय श्रीमेघविजयगणि ) मेघमहोदय है अर्थ जिस का ऐसे मेघमहोदय नाम के अन्य को बनाता हूं ॥१॥ श्रेष्ठों में श्रेष्ठ और जगत् में एक वीर ऐसे श्रीपार्श्वनाथ प्रभु को हृदय में निरंतर स्नरम करके जो बुद्धिमान् इस ग्रन्थ का अभ्यास करता है, उसको तीन प्रकार की विद्या, सिद्धि और लक्ष्मी बुद्भिबल से प्राप्त होती है, और बड़ी २ शोभायमान राजसभाओं में विशेष प्रकाश रूप से उसकी कीर्ति भी अत्यन्त नाचती है याने फैलती है ॥ २ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये दीपोत्सवदिने प्रात ग्रन्थः प्रारभ्यते मया । अस्मिन् जगद्गुरोर्भक्त्या भूयाद् वाक् सिद्धिसन्निधिः ॥३॥ स्थानाङ्के दशमस्थाने न्यवेदि सुषमोदयः । श्रीमद्वीर जिनेन्द्रेण सर्वलोकहितैषिणा ॥ ४ ॥ वृष्टेः कालाकालरूप स्थानाद्यर्यनिरूपणात् । सौत्रं विवरणं स्पष्टं, ग्रन्थेऽस्मिन्नभिधीयते ॥ ५ ॥ यदागमः --- दसहि ठाणेहिं प्रगाढं इसमें जाणिज्जा. तंजहा - प्रकाले न वरिसइ १, काले वरिसह २, असाहू न पूजति ३, साह पूजति ४, गुरूहिं जणो रूम्मं पडिवको ५, मगुण्णा सदा ६, मणुण्णा रूवा ७, मणुण्या रसा ८, मण्णा गंधा १, मणुष्णा फासा १०, इति ॥ ग्रन्थस्याभ्यसनादस्य सिद्धान्तप्रतिपादनम् । तदाचनेऽस्य तत्वज्ञे निश्शङ्कत्वं विधीयताम् ॥ ६ ॥ दिवाली के दिन प्रातः काल के समय मैंने इस ग्रन्थ का प्रारम्भ किया | इस जगत् में जगद्गुरु (श्री हीर विजयसूरि) की भक्ति से मेरी वचनसिद्धि का विस्तार हो ॥३॥ स्थानांगसूत्र के दशवें स्थान में सर्वलोक के हितेच्छु श्रीमहावीरजिनवर ने सुखम नाम के आरा ( युग ) का वर्णन किया है ॥ ४ ॥ वर्षा का काल अकाल रूप और स्थान आदि के अर्थ को जानने के लिये इस ग्रन्थ में सूत्रों का विवेचन स्पष्ट रूप से कहा जाता है ||५|| स्थानांगसूत्र के दर्शवें स्थान में उत्कृष्ट सुखाकल का वर्णन इस प्रकार है--- अकाल में वर्षा न बरसे १, कल में बरसे २, असाधु को न पूजे ३, साधु को पूजे ४, गुरु का अच्छे भाव से विनय करें ५, अनुकूल ( मनोज्ञ ) शब्द ई, अनुकूल रूप ७, अनुकूल रस ८, अनुकूल गंधε, और अनुकूल स्पर्श १० ये दश सुखनकाल में होते हैं ॥ इस ग्रन्थ के अभ्यास करने से सिद्धान्त प्रतिपादन किया जासकता है, उस "Aho Shrutgyanam" Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षा हेतुः वृष्टिहेतोः शुभं वर्ष तेन तावत् स उच्यते । देशो वातञ्च देवादिवृष्टिहेतुस्त्रिधामतः ॥ ७ ॥ यदागम:-तिहि ठाणेहिं महावुट्टीकाए सिया, तंजहा-सिंचां देसंसि वा पएसंसि वा बहवे उद्गजोगिया जीवाय पोरगला य उद्गत्ताए वक्कमति विउक्कमति चयंति उववज्जति ॥ १ ॥ देवा नागा जक्खा भूता सम्ममाराहिता भवति, अन्नत्थ समुट्ठितं उद्गपोग्गलं परिणयं वासिउकामं तं देसं साहति ॥ २ ॥ अब्भवद्दलगं च णं समुट्ठितं परिशायं वासिउकामं णो वाउच्या विहुति ॥ ३ ॥ टीका वर्षणं वृष्टिरघःपतनं वृष्टिप्रधानः कायो- जीवनिकायो व्योमनि पदपूकाय इत्यर्थः । वर्षण धर्मयुक्तं बोदकं वृष्टिस्तस्याः कायो राशिर्वृष्टिकायः । महांश्चासौ वृ ष्टिकायश्च महावृष्टिकायः स ' स्याद् भवेत् । तस्मित्तत्र मालवकुङ्कणादौ । च शब्दो महावृष्टिकारणान्तर समुच्चयार्थः । णमित्यलंकारे । देशे जनपदे प्रदेशे तस्यैव एक देश " को बाँचने में विद्वानों को निःशंक रहना चाहिये ॥ ६ ॥ वर्षा होने से वर्ष अछा होता है, इसलिये प्रथम वर्षा के हेतु कहते हैं- देश वायु और देव ये तीन वर्षा के कारण माने हैं | जी तीसरे स्थानांग में वर्षा होने का कारण तीन प्रकार से कहा है, जिस देश में जलयोनि के जीवों के पुगलों का विनाश और उत्पत्ति हो उस समय वहाँ बहुत वर्षा होती है ॥ १ ॥ जहाँ नागकुमार यक्ष और भूत आदि देवों की अच्छी तरह पूजा की जाती हो वहाँ दूसरे देश में मेघ बरसने लगे वहाँ से लेआकर वे देव बरसावें ||२|| वर्षा के बादल उदय होकर वरसने लगे उस समय पायु नाश न करें ||३|| इन तीन स्थानों में दर्षा अच्छी होती है । "Aho Shrutgyanam" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये रूपे।वाशब्दौ विकल्पाऔं, उदकस्य योनया परिणामकारणभूता उदकयोनयस्त एवोदकयोनिका उदकजननस्वभावाः। व्युत्क्रामन्ति उत्पद्यन्ते, व्यपक्रामन्ति च्यवन्ते, एतदेव यथायोग्य पर्यायत आचष्टे च्यवन्ते उत्पद्यन्ते, वारं वारं क्षेत्रस्वभावादित्येकम् ॥१॥ तथा देवा वैमानिका ज्योतिष्का नागा नागकुमारा भवनपत्युपलक्षण मेतत्, यक्षा भूता इति व्यन्तरोपलक्षणम्, अथवा देवा इति सामान्य, नागादयस्तु विशेषः। एतद् ग्रहणं च प्राय एषामेवंविधे कर्मणि प्रवृत्तिरिति ज्ञापनाय विचित्रत्वाद् वा मृघ्रगतेरिति सम्यगाराधिता भवन्ति । विनयकरणाजानपदैरिति गम्यते ततोऽन्यत्र मरुस्थलादौ देशे प्रदेशे वा तस्यैव समुत्थितमुत्पन्नं, उदकप्रघानं, पौद्गलं पुनलसमूहो मेघइत्यर्थः । उदकपौद्गल तथा परिणतं उदकदायकावस्था प्राप्तम्, अत एवं वियुदादिकरणाद् वर्षितुकामं सत् तं देशं मगधादिकं संहरन्ति नयन्तीति द्वितीयम् ॥ २॥ अभ्राणि मेघास्तैर्वदलकं-दुर्दिनमभ्रवलिकं तस्मिन् देशे समुत्थितमुत्पन्नं वायुकायः प्रचण्डवातो नो विधुनोति न विध्वंसयतीति तृतीयमिति तवृत्तिः ॥३॥ इति स्थानाङ्गसूत्रे ॥ अनूपो' जागलो मिश्र-स्त्रिधा देशो बुधर्मतः । तत्तत् स्वभावं विज्ञाय जलवृष्टिनिवेद्यते ॥८॥ तस्मान् मालवदेशादौ समानेऽपि ग्रहोदये। वृष्टिः स्यादेष नियता कालात् क्षेत्रे यलिष्ठता ॥९॥ जलमयदेश, जांगलदेश और मिश्रदेश, ये तीन प्रकार के देश बुद्धिमानों ने माने हैं, उनके स्वभाव को पहिचानने से जलवृष्टि जानी जाती है ॥८॥ इसी कारण से मालवा आदि अनूपदेशों में समानग्रह याने काकी करने वाला दुष्ट ग्रह के उदय होने पर भी जलवृष्टि नियम से "Aho Shrutgyanam" Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पातप्रकरणम् तदा दुष्टे ग्रहादीनां योगे दुर्भिक्षता नहि किन्तु विग्रह-मार्यादिस्तत्कृतं वैकृतं भवेत् ॥१०॥ एवं मरुस्थलादौ स्याद् यदा शुभो ग्रहोदयः । तथाप्यवग्रहो वृष्ट-र्वाच्यः स्वल्पोऽपि धीमता ॥११॥ ज्ञेयं वाताभ्रयोगेन देशे वर्षशुभाशुभम् ।। तेनायं बलवान् सर्व-अजयोगेभ्य इष्यते ॥१२॥ देशे स्वभावानुत्पातः कदाचिद् तत्वतो बली। तस्माद् वर्षक्यिोधाय लक्षयेत् तं विचक्षणः ॥ १३ ॥ यदुक्तं विवेकविलासे उत्पातप्रकरणम् --~-- स्ववासदेशमाय निमित्तान्यवलोकयेत् । तस्योत्पातादिकं वीक्ष्य त्यजेत् तं पुनरुद्यमी ॥१४॥ होती है, क्योंकि काल की अपेक्षा क्षेत्र ( देश ) में बलिउता है ।।६।। इसलिये वहां ग्रहों का दुष्टयोग होने पर भी दुकाल नहीं होता, किंतु संग्राम प्लेग आदि उपद्रयों के कारण से विपरीत भी हो जाता है ।।१०।। उसके अनुसार मारवाड़ आदि जांगल देशों में अधिक वर्षा करने वाले शुभ ग्रहों का उदय होने पर भी बरसात का अभाव होता है, क्योंकि इस देश में बुद्धिमानों ने कम वृष्टि का योग बतलाया है ॥११॥ देश में वायु और बादल के योग से वर्ष का शुभाशुभ जानना । यह योग सब दृष्टियोगों से बलवान् कहा है ॥१२॥ देश में कभी स्वाभाविक उत्पात हो तो वास्तविक बलवान होता है । इसलिये विद्वान् लोग वर्षफल जानने के लिये उस उत्पात को जानें ॥१३॥ __अपने रहने के स्थान के और समग्र देश के कल्याण के लिये निमित्त ( शकुन ) आदि देखना चाहिये, उन में उत्पात आदि को देख कर अपने स्थान का और देशका उद्यमी पुरुष त्याग कर दें ॥१४॥ जो पदार्थ जिस स्वरूप में सर्वदा रहता है, उस में कुछ फेरफार मालून "Aho Shrutgyanam" Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये प्रकृतेश्चान्यथा भावे उत्पातः स त्वनेकधा । स यत्र तत्र दुर्भिक्ष देशराज्यप्रजाक्षयः ॥१५॥ देवानां वैकृतं माझं चित्रेष्वायतनेषु च । ध्वजश्चोर्ध्वमुखो यत्र तत्र राष्ट्राद्युपप्लवः॥ १६ ॥ राजादिः कृषिजीवीचेद् विधर्मी पशुपालकः। देवताप्रतिमाभङ्गो लिङ्गिविप्रवधस्तथा ॥१७॥ ऋतौ विपर्ययो यत्र तत्र देशभयं भवेत् । देवध्वंसः प्रजापीडा दुर्भिक्षं विप्रघातकः ॥१८॥ जलस्थलपुरारण्य-जीवान्यस्थानदर्शनम् । शिवाकाकादिकाक्रन्दः पुरमध्ये पुरच्छिदे ॥१९॥ छत्रनाकारसेनादि-दाहाद्यैर्नृपभीः पुनः । अस्त्राणां ज्वलनं कोशानिर्गमः स्वयमाहवे ॥२०॥ हो तब उसको उत्पात कहते हैं , वह अनेक प्रकार के हैं । उत्पात जहाँ होता है वहाँ दुष्काल पड़ता है, तथा देश राज्य और प्रजा का नाश होता है ॥१५।। जहाँ रंगीन तसबीरों में और देव मंदिरों में देवों की मूर्तियों के स्वरूप में फेरफार या भंग हो और ध्वजा ऊंची उडती देख पडे तो राष्ट्र (देश ) आदि में उपद्रव होते हैं ॥१६॥ राजा आदि खेती करने लगें, विधर्मी लोग पशु पालने लगें, देव की प्रतिमा का भंग हो, तब लिंगी ( सन्यासी) और ब्राह्मण का नाश होता है ॥१७॥ जहां ऋतु में फेरफार हो वहां देशमें भंय, देवालय का नाश, प्रजा को दुःख, दुकाल और ब्राह्मण का नाश होता है ॥१८॥ जिस नगर में जलचर जीत्र भूमि पर और भूचर जीव जल में, नगरके जीव जंगल में, और जंगल के जीव नगर में स्वाभाविक रीति से देखने में आवे, गीदड (शियाल ) और कौवे बहुत शब्द करते देखपड़े तो उस नगर का नाश होता है ॥१६॥ छत्र किला और सेना "Aho Shrutgyanam" Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पातप्रकरणम् अन्यायकुसुमाचारौ पाखण्डाधिकता जने । सर्वमाकस्मिकं जातं वैकृतं देशनाशनम् ॥ २१ ॥ प्रावृष्यैन्द्रं धनुर्दुष्ट नाहि सूर्यस्य सन्मुखम् । रात्रौ दुष्टं सदा शेष - काले वर्णव्यवस्थया ॥ २२ ॥ सित-रक्त-पीत- कृष्णं सुरेन्द्रस्य शरासनम् । भवेद् विप्रादिवर्णानां चतुणी नाशनं क्रमात् ॥ २३ ॥ काले पुष्पिता वृक्षाः फलिताश्चान्य भूभुजे । अल्पेऽल्पं महति प्राज्यं दुर्निमित्तैः फलं वदेत् ॥ २४ ॥ अश्वत्थोद्स्थरचटू-लक्षाः पुनरकालतः । विपक्षत्रियविट्शूद्र वर्णानां क्रमतो भिये ॥ २५ ॥ आदि मैं अग्नि का उपद्रव हो तो राजा को भय उत्पन्न होता है, और शत्रु ज्वलायमान देखनडे या सर्प म्यान में से बाहर निकल पड़े तो संत्रास होता है | २० | जब लोगों में अन्याय दुराचार और धूर्तता अधिक देखाड़े और अस्तात् सब रीति रिवाज विपरीत होजाय, तब देश का नाश होता है ॥२१॥ वर्षाकाल में इन्द्रधनुष दिन में सूर्य के संमुख देखपड़े तो दोष नहीं है, मगर वह रात्रि में देखड़े तो अशुभ ज्ञानना, और बाकी के समय देखाड़े तो रंग के अनुसार शुभाशुभ जानना ॥ २२ ॥ वह इन्द्रधनुष सफेद, लाल, पीला और कृन्य रंग के समान देखपड़े त क्रम से ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन का विनाश होता है ॥ २३ ॥ यदि अकाल में [ चिना ऋतु ] वृक्षों में फल फूल आजान तो राज्य परिवर्तन होता है । दुष्ट निमित्त अल्प हो तो अल्प और अधिक हो तो अधिक फल कहना ॥ २४ ॥ पीपल, गूलर, बरगद (वड ), लक्ष ये चार वृक्ष अकाल में फल फूल दें तो पसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैन और शूद्र, इन चार वर्णों को भय होता है ||२५|| वृक्ष के उपर वृक्ष, पत्र के उपर पत्र, फल के उपर फल और फूल के उपर फूल लगा हुआ देख " "Aho Shrutgyanam" Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये वृक्षे पत्रे फले पुष्पे वृक्षः पुष्पं फलं दलम् । जायते चेत् तदा लोके दुर्भिक्षादिमहाभयः ॥ २६ ॥ गोध्वनिर्निशि सर्वत्र कलिर्वा दरः शिखी । श्वेतकाकश्च गृध्रादिभ्रमणं देशनाशनम् ॥ २७॥ अपूज्यपूजा पूज्याना-मपूजा करिणीमदः । शृगालोऽहि लवन् रात्रौ तित्तिरश्च जगभिये ॥२८॥ खरस्य रसतश्चापि समकालं यदा रसेत् । अन्यो वा नखरी जीवो दुर्भिक्षादिस्तदा भवेत् ॥ २९ मांसाशनं स्वजातेश्च घिनौतून् भुजगांस्तिमीन् । काकादेरपि भक्षस्य गोपनं सस्यहानये ॥३०॥ अन्यजातेरन्यजाते-र्भाषणं प्रसवः शिशोः । मैथुनं च खरीसूति-दर्शनं चापि भीप्रदम् ॥ ३१॥ पड़े तो जगत में बड़ा भय देनेवाले दुष्काल भादि उपद्रव होते हैं ॥२६॥ सब जगह रात्रि में गौओं का शब्द सुनने में भावे, जहाँ तहा कलह हो, शिखा वाले मेडक देखपड़े, सफेद कौवा कुत्ता और गीध पक्षी इन का घुमना अधिक देखपड़े तो देश का नाश होता है ॥२७॥ जहाँ पूजनीय पुरुषों की पूजा न हो, अपूननीय पुरुषों की पूजा हो हथिणी के गंडस्थलमेंसे मद झरने लगे, शियाल [ गीदड़ ] दिन में शब्द करे और रात्रि में तीतरपक्षी बोले तो जगत् में भय उत्पन्न होता है ॥२८॥ जिस समय गदहा [ गधा ] रेंकता हो उस समय उसके साथ कोई भी नखवाला जीव भोंकने लगे तो दुकाल आदि उपद्रव होते हैं ॥२६॥ बिल्ली, सर्प और मच्छी ये तीन जीवों को छोड़कर बाकी के जीव अपनी अपनी जाति के जीवों का मांस भक्षण करें, और कौवा प्रादि अपना भक्ष्य [खोराग] छुपा दे तो धान्य का नाश होता है ॥३०॥ अन्य जाति के जीव अन्य जति के जीवों के साथ भाषण या मैथुन करें, अन्यजाति "Aho Shrutgyanam" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यातप्रकरणम् अन्तःपुरपुरानीक-कोशयानपुरोधसाम् । राजपुत्रप्रकृत्यादे-रपि रिष्टफलं भवेत् ॥३२॥ पक्षमासर्तुषण्मास-वर्षमध्ये न चेत् फलम् । रिष्टं तद् व्यर्थमेव स्यादुत्पन्ने शान्तिरिष्यते ॥ ३३ ॥ दौरथ्ये भाविनि देशस्य निमित्तं शकुनाः सुराः । देयो ज्योतिषमन्त्रादिः सर्व व्यभिवरेच्छुभम् ॥ ३४॥ प्रवासयन्ति प्रथम स्वदेवान् परदेवताः । दार्शयन्ति निमितानि भने भामिनि नान्यथा ॥३५॥ एवनुत्पातसंयोगान् ज्ञात्वा शारान्तादपि । वर्षे शुभाशुभ देशे ज्ञेय वृटिपरीक्षकैः ॥ ३६॥ सुषमा ज्ञापर्क सूत्रं स्थानाङ्गे वीरभाषितम। तदुत्पात रिज्ञानात् सुज्ञानं सुविया स्वयम् ॥ ३७॥ में अन्य जाति के बच्चे का प्रसव हो और गदही बचा प्रस्त्रवती देखपड़े तो भा उत्पन्न होता है ॥३१॥ अन्तःपुर, नगर, सेना, भंडार, वाहन, [ हाथी, घोडा, पालखी आदि ] राजगुरु, राजा, राजपुत्र, और मंत्री आदि को उत्पात का फल होता है ॥३२॥ एक पक्ष, एक मास, दो मास, छ: मास या एक वर्ष इन में उत्पात का फल न मिले तो वह उत्पात व्यर्थ सनझना । उत्पात होने पर शान्ति कराना अच्छा है ॥३३॥ जब देश की खराब दशा होने वाली होती है तब निमित्त, शकुन, देवता, देवी, ज्योतिष और मंत्र आदि शुभ हो तो भी विपरीत फल देते हैं ॥३४॥ जब भविश्य में देश आदि का नाश होने वाला हो तब ही दूसरे देवता अपने देश के देवता को निकाल देते हैं और दुष्ट उत्पात दिखलाते हैं। जब नाश न होने वाला हो तब ऐसे उत्पात नहीं होते हैं ॥३५॥ इसी तरह दूसरे शास्त्रों से भी उत्पात योगों को जानकर देश में वर्ष का शुभाशुभ ज्योतिषियों को जानना चाहिये ॥३६॥ स्थानांग सूत्र में सुम्माज्ञारक सूत्र "Aho Shrutgyanam" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) मेघमशेदये अनुगात स्वभावेन देशे स्युर्जलयोनिकः। बहवः पुद्गला जीवा महावृष्टिस्तदा भवेत् ॥ ३८ ॥ एवं च जाङ्गलेऽपि स्यु-भूयांसो जलयोनिकाः। शुभग्रहप्रसङ्गेन महावृष्टिविधायिनः ॥ ३९॥ अनूपेऽपि यदा क्रूर-ग्रहवेधो हि सम्भवेत् । तदा जीवाः पुद्गलाश्च स्वल्पाः स्युजलयोनिकाः ॥४०॥ अनावृष्टिस्तदादेश्याः स्वभावस्य विपर्ययात् । ततो यथोदितं वीक्ष्य सर्वदेशेषु वाईलम् ॥४१॥ यदाह मेघमालाकार:----- मेषसंक्रान्तिकालान्तु नवस्वपि दिनेष्वथ । यत्राभ्र वातो विद्युद् वप्याादौ तत्र वर्षति ॥४२॥ यद्वात्र नवयामेषु वाताभ्रादिविनियः । यस्यां दिशि यत्र यामे दिगधिष्ण्ये तत्र वर्षति ॥ ४३ ॥ को श्री वी जिन ने कहा है कि उन उत्पात को जानने से बुद्धिमान् स्वयं अच्छे ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं ॥३७॥ जर देश में बहुत से जलयोनि के पौगलिक जीव स्तभाव से ही उत्पन्न · होते हैं, तब बड़ी वर्षा होती है, उसको उत्पात नहीं कहना चाहिये ॥३८॥ इसी तरह जांगल देश में भी बहुत से जलयोनि के जीव हैं वे शुभग्रह के प्रसंग से बड़ी बर्षा करने वाले हैं । ॥३६॥ जल नय प्रदेश में भी जब क्रूर ग्रह का वेध हो तब जलयोनि के जीव और पुद्गल थोड़े होते हैं ॥४०॥ स्वभाव में जब कुछ फेरफार देख पड़े तब अावृष्टि कहना, इसलिये सब देश में बद्दल को देखकर ही यथायोग्य कहता ॥४१॥ मेषसंक्रांति के समय से नव दिनों जब बद्दल, वयु और विजली हो तब क्रमसे आादि नव नक्षत्रों में वर्षा होती है ॥४२॥ वैसे नव प्रहर में भी वायु-बदल आदि का निर्णय करना, "Aho Shrutgyanam Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमिनीय कर्मचकं पा (११) किंवा नवसु यामेषु वाताभादिशुभं भवेत् । यस्यां दिशि च सम्पूर्ण तदेशे विपुलं जलम् ॥४४॥ लौकिकमपिआर्दा थका नक्षत्र नय, जो वरसे मेह अनंत । भडली सुणे भरडो भणे, रहिजे होइसिचिंत ॥ ४५ ॥ जिण दिसि आभो अधिक हुई, सा दिस साची जाण । सा धण घान्न रसाउली, भडली भली वखाण ॥ ४६॥ अथ पद्मिनीचकं कूर्मचक्र वा-~-- अथ तस्मात् प्रवश्यामि ग्रहयोः करसोग्ययोः । वेवज्ञानाय देशानां चक्रं पद्माह्वयं यथा ॥४७॥ अष्टपत्र लिखेचक पद्माकारं मनोहरम् । कर्णिका नवमीमध्ये तत्र देशांश्च विन्यस्येत् ॥४८॥ कृत्तिकादीनि मानीह त्रीणि त्रीणि यथाक्रमम् । संस्थाप्य वीक्ष्यते चक्र तस्कूर्मापरनामकम् ॥ ४९ ॥ यत्र भृक्षे स्थितः सौरि-स्तदिशो देशमण्डले । दुर्भिक्षं यदि वा युद्धं व्याधिदुःखं प्रजायते ।। ५० ॥ जिस दिशा में और जिस प्रहर में हो, उस दिशा और उसी ही नक्षत्र में वर्षा होती है ॥४३॥ यदि नव प्रहर में वायु-बद्दल आदि होतो अच्छा है जिस दिशा में संपूर्ण हो उस देश में बहुत वर्षा होती है ॥४४॥ लोक भाषा में विशेष कहा है कि अर्दा से नव नक्षत्रों में वर्षा होतो निश्चित रहना ऐसा ब्राह्मण कहता है और भडली सुनती है ॥४५॥ जिस दिशा में बादल अधिक हो वह दिशा सही जानना, वह धन धान्य से पूर्ण करें।४६। देशों में शुभाशुभ ग्रहों का वेध जानने के लिये पद्म नामके चक्र को मैं कहता हूं, जैसे-मनोहर आठ पांखडी वाला कमल का आकार सदृश चक्र बनाकर इस देशों के नान और कृत्तिकादि तीन२ नक्षत्र अनुक्रम "Aho Shrutgyanam" Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेममहोदय पनिनीचस्थापना यथा--- थथशनिदृष्टिचक्रम्--- मेषादित्रितये प्राच्यामपाच्या कर्कटये । तुलानये पश्चिमायामुदीच्यां मकरनये ॥५१ ।। शनैश्चरः क्रमात् पश्यन् तत्तद्देशान् प्रपीडयेत् । दुर्भिक्षदेशभङ्गायै-विंग्रहो राजविड्वरैः ॥५२॥ अथ सर्वतोभद्रचक्रे दिग्विचार:-- याम्यां भगाग्निदेवत्ये पुष्यं पैन्यं द्विदैवतम् । पूर्वभाद्रपदं याम्यं मासानष्टौ प्रपीडयेत ॥५३॥ ब्रह्मेन्द्रराधाश्रवण-तराषाढाश्च वास्वम् । पूर्वस्यां सप्तदिवसान् यावच्छुभकरं भवेत् ॥५४॥ मृगादित्याश्विनीहस्तास्त्वाष्टमुत्तरफाल्गुनी। उत्तरस्यां च पीडाकृद् यावन्मासदयं भवेत् ॥५५॥ से लिख कर चक्र को देखना चाहिये । इस पम्म नाम के चक्र हो वू चक्र भी कहते हैं । जिस नक्षत्र पर शनिश्चर रहा हो उसी दिशा के देशमंडल में दुष्काल, युद्ध, रोग, और दुःख आदि उपद्रव होते हैं ॥४७ से ५०॥ __ मेष वृष और मिथुन रशिका शनिश्चर पूर्वदिशा को, कर्क सिंह और कन्या राशि का दक्षिणदिशा को, तुला वृश्चिक और धन राशि का पश्चिम दिशा को, मकर कुम्भ और मीन राशिका उत्तर दिशा को देखता है । तो उन उन दिशा के देशों में दुष्काल देशभंग विग्रह और परचक्र आदि उपद्रवों से दुःखी करता है ॥५१॥५२॥ दक्षिणदिशा में पूर्वाफाल्गुनी, कृत्तिका, पुष्य, मघा, विशाखा, पूर्वाभाद्रपदा और भरणी ये नक्षत्र आठ मास दुःख कारक हैं। पूर्व दिशा में रोहिणी, ज्येष्ठा, अनुराधा, श्रवण, उत्तराषाठा और धनिष्ठां ये सात दिन शुभ कारक हैं। उत्तर दिशा में मृगशीर्ष, पुनर्वसु, "Aho Shrutgyanam" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कश्चिमम् आर्द्राश्लेषामूलपोष्ण-धारुगोत्तरभाद्रपात। मासं यावत् पश्चिमायां शुभाय कथितं बुधैः ॥५६॥ चक्रे श्रीसर्वतोभद्रे शुभवेधे शुभं मतम् । ऋरवेधे भवेत् पीडा तत्सदेशेषु निश्चयात् ॥५७॥ __ अथ कर्पूरचक्रेण देशान्तरेषु वर्षे शुभाशुभज्ञानं यथा तत्र प्रथम चक्रन्यासप्रकार:---- गाथा-पणमिय पयारविंदं, तिलुकनाहस्स जगपरिवुहस्स । वुच्छामि लोगविजयं, जैतं जंतूण सिद्धिकए ॥५८॥ सिरिरिसहेसरसामिय, पारणप्पगारब्भ (?) गणिय धुवं । दस उयरेहिं ठवियं, जं तं देवाण सारमिणं ॥५९॥ नवकोएण सुद्ध, इगसय पणयाल १४५ अंक गणियपयं । इकिक होई वुड्ढी, तिपन्नसय वियाणाहि ॥६॥ अश्विनी हस्त चित्रा और उत्तराफाल्गुनी ये दो मास दुःख कारक हैं । पश्चिमदिशा में मार्दा, प्राश्लेषा, मूल, रेवती, शतभिषा और उत्तराभाद्रपदा ये एक मास शुभकारक हैं ! इस सर्वतोभद्रचक्र में जिस देश में शुभग्रह का वेध हो तो शुभ और क्रूरग्रह का वेव होतो दुःख निश्चय कर के होता है ||५३ से ५७॥ त्रिलोक के नाथ और जगत् के स्वामी के चरणकमल को नमस्कार करके प्राणीमात्र की सिद्धि के लिये लोकविजय को कहता हूं ॥ ५८ ॥ श्री ऋषभदेवस्वामी का पारणा के दिन याने अक्षय तृतीया को बादल का निश्चय करें । [जो देवों के साररूप दश अंक हैं वे बिच में रखें] ॥५६॥ नवकोण वाला चक बनाकर बीच में १४५ .अंक लिखें, पीछे उसमें एक एक अंक १५३ तक बढाकर उत्तर ईशान पूर्व इत्यादि क्रम से पाठों ही दिशा में लिखें ॥६॥ देश के ध्रुवांक, दिशा के ध्रुवांक और अश्वियादि से जिस नक्षत्र पर शनि हो उतना अंक, ये तीनों मिला "Aho Shrutgyanam" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) मंघमहादये निहिभत्ते जं सेसं, तमंकसारेण गणिय जो देसी। संवच्छररायाओ, प्रारम्भं दसाकमे भणिया ॥६॥ जो जंको जं देसे, बोधव्वो देसगामनगरस्स । आइच्चाइगहाणं, फलं च पभणंति गीयत्था ॥६२॥ जं जम्मि देसनयरे, गामे ठाणे वि नत्थि मूल धुवो । तं नामेण य रिक्खं, रुईकं करिय तम्मिस्सं ॥६॥ निहिभत्ते जं सेसं, धुक्मणियं देसनयरगामाणं । मूलदसाकमगणियं, पुस्तकम्मं वियाणाहि ॥६॥ मेहबुट्ठो अणवुट्टी, सपरचकं च रोगभयं । अन्नसुपत्ती नासो, रायाकडं चहवं च ॥६५॥ संवच्छररायायो, गणियव्वं देसी [स?] कमेण फलं। प्राइचाइग्गहाणं, सुहासुहं जाणए कुरुले ॥६६॥ कर नवका भाग देला, जो शेष बचें वह वर्तमान संवत्सर के राजा से विं. शोत्तरी,शा क्रन से गिनकर फल कहना ॥६१॥ जो जो अक जिस जिस देश में हैं वे देश गांव नगर के अंजानना । इनसे विद्वानों ने रवि आदि ग्रहों का फल कहा है ॥६२॥ जो जो देश नगर गांव या स्थान का मूल धवांक न हो तो उनके दिशा के १४५ आदि मूल अंक, वर्ष के राजा का विंशोत्तरी शा का मूल वर्षीक, शनि जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र से गांव के नक्षत्र तक के अंक और दिशा के अंक ये सव इकठे कर ग्यारह से गुणा करना, पीछे उसमें नवका भाग देना, शेष रहे उस ग्रह के अनुसार देश नगर गांव का मूल दशाक्रम से फल कहना ॥६३, ६४॥ मेववृष्टि , अनावृष्टि, स्वचक्र और परचक्र का भय, रोगभय, अन्नाज की उत्पत्ति तथा विनाश, राजकष्ट, सेना में उपद्रव ये सब संवरत्स के राजा से देशक्रम से सूर्य आदि ब्रहों का शुभाशुभ फल को कुशल पुरुष जाने ।। ६५, ६६ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरचकर (१५) आइथे आरोगी लोयाणं हवाइ समपत्ती । रायासुतेजसुयो अ सवित्तीयं किंचिवि भयं ॥६॥ चंदेहि नरवराणं आरुग्गा सुहं च धणबुडूडी। थोयजला अन्ननिप्पत्ती अमियरसोहोइ पुढवीए ॥६८॥ 'दुन्भिवं रायदुक्खं यहाणपनीवा महाघोरा। जुज्झति रायपुरिसा भूमे अरिभयं गणियं ॥१९॥ रह रिद्विविणासो ठाणभंसं च रायपज्जाणं । मक्ख पुरेहि भंगो नयरदेसस्स संहारो ॥७॥ बहुदुद्धा गोमहिसी सस्सनिप्पती च बहुमेहा । रायमुई नत्यि भयं उतमणियासु जीवेण ॥७॥ मंदे नरवरमरणं उवद्दवं सयललोयमजकरिम । दिय दूसगाय लोया घरि घरि भमंति कुलवहा ॥७२॥ यालयोसिसुमरणं धणनासं च रोगसंभवो । ठाणे ठाणे रायागं संहारं च बुहे नर ॥७॥ सूर्यकल----लोक सुखी, धान्ध की सनान प्राप्ति, राजाओं में पराकाता और ब्राह्मणों को कुछ भय हो ॥ ६७ ॥ चन्द्रकल-राजा प्रजा सुखी और आरोग्य हो, धन की वृद्धि हो, जल थोड़ा, अनाज की प्राष्टि और पृथ्वी अमृत रसवाली हो ॥६८॥ मंगलफल-दुर्भिक्ष, राजा को कट, हाथी घोड़ा का विनाश तारक बड़ा भयंकर राजपुरुषों का युद्र हो, और शशु का भय हो ॥६६॥ राहुल---ऋद्धि का विनाश, राजा प्रजा के स्थान का विनाश और उसको महादुः ब, पुर का भंा और देश नगर का विनाश हो ७०॥ गुरुल -गौ भैस बहुत दूब दें, धान्य की उत्पत्ति हो, वर्षा बहुत हो, राजाओं को मुख हो और भय न हो ॥७१॥ शनिकल---- राजा का मण, सात लोक में उपद्रव, लोकों में दुषण त रा घर घर कुलार भरकती फिरे ॥७२॥ बुधफल --- बालक स्त्री का मरण, धन का "Aho Shrutgyanam" Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधमहोदये रायाण ठाणभंसो पयासुहं च बहुघणावुट्टी। संवच्छरपत्याओ वासापुन्नो हवइ देसो ॥७४॥ सुक्के मिच्छाण जसं बहुवस्सा मेहसंकलियं । उतम जाई पीडा धणधन्न समाउला पुहवी ॥७॥ पुनः-युवाइ दिसा चउरो जाया विचरंति चउसु विदिसासु। अंगारयतमसणिया सा परचकं भयं घोरा ॥५६॥ कूरा कुणंति दुक्खं सेसा सव्वे सुहंकरा नेया । संमुह दाहिणवामा दिट्ठीए सुहयरा हुंति ॥७॥ सूरो वि हरह तेयं संमुहा हवइ रायलोयाणं । सोमो करइ सामं भीमो अग्गी अइसारो ॥७८॥ बुद्धिकरो वुढिकरो बहुअ लोयाण बहुय केकहरो । कोसं कोहागारं पूरेई सुरगुरू उडूहो ॥७९॥ नाश, रोग का संभव और स्थान स्थान पर राजांनों का संहार हो ॥७३॥ केतुफल--राजाओं का स्थान भ्रष्ट हो, प्रजा सुखी, : बहुत मेघवर्षा, और देश संवत्सर तक वर्षा से पूर्ण हो ॥७४॥ शुक्रफल-ग्लेच्छों का यशः हो, मेवों से आच्छादित बहुत वर्षा हो, उत्तर जन को पीड़ा और धन धान्य से समाकुल (पूर्ण) पृथ्वी हो ॥ ७५॥ फिर भी---- पूर्वादि चार दिशा और चार विदिशा में जो ग्रह विचरते हैं, उनमें मंग्ल राहु और शनि ये काग्रह परचक्र का भपकारक हैं ॥७६!! कांग्रह दु:ख कारक हैं तथा बाकी के सब प्राह सुखकारक हैं, और ये संमुख दक्षिण और बायी दृष्टि से सुखदायक हैं ॥७७॥ सूर्य संमुख हो तो राजलोगों के तेज का नाश करता है। चंद्रमा --शांतिदायक है । मंगल-अग्नि और रोग करता है॥७८॥ बुध-बहुत वर्षाकारक, तपा केकयदेश के लोगों का बहुत विनाश कारक है । गुरु-खजाना और कोठार को समस्त प्रकार से पूर्ण करें ॥७६।। शुक्र-राजा प्रजा की वृद्धि याने उन्नतिकारक मौर "Aho Shrutgyanam" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरचक्रम् (१७) सुक्को रायपयाणं वुढिकरो जणियजगामाणंदो। मंदो नरवइकडं दुन्भिक्खभयंकरो घोरो ॥ ८०॥ राहू खप्पर रज्ज धूव विणासेइ उत्तमवहूणं । दुप्पयपसुसंहारो अइअरित्तनासकरो केऊ ॥ ८१॥ अक्कजराह मिलिया कत्तरिजोगेण एगए ससिट्टिया। जं जं नक्खत्तं वेधइ तत्थेव करोय (करेइ) महारं ॥ ८२॥ अंगारो अग्गिकर अन्नविसलाखे जंतुपिट्टिचरो। तत्थ विदिसाविभागो दुक्खं वणियाणं निवमरणं ॥८३॥ तिहिाविमी सियपक्खे भहवयपासमाहमासाणं । निवमरणं दुन्भिक्खं विहिकुलहाणं च मासेसु ॥ ८४ ॥ मासक्खओ पुन्निमहीणा तुल्लिा अहिया अहियत्तरी । दुभिक्खं होइ महग्धं समग्धं होइ सुभिक्खं ॥ ८५ ।। मनुष्यों को प्रानंददायक है। शनि-गजा को कष्ट और भयंकर दुर्भिक्षकारक है ॥ ८० ॥ गहु- खर्पर राज्य का और उत्तम बधूओं का विनाशकारक है । केतु-मनुष्य और पशुओं का विनाशकारक है ॥ ८१ ॥ कर्तरीयोगसे शनि गहु मिल जाय और साथ चंद्रमा होकर जो जो नक्षत्र को वेधे उनका नाश करें ॥८२ ।। मंगल अग्निकारक है, रवि अन्ननाशक है, इसी तरह विदिशा विभाग में व्यापारी को दुःख और राजा का मरण हो ॥ ८३ ॥ भाद्रपद पौष और माघ महीने के शुक्लपक्ष की तिथि का क्षय हो तो गजा का मगण, दुर्भिक्ष, विधिकुल (ब्रह्मकुल) की हानी हो ॥८४ ॥ क्षयमास हो या पूर्णिमा का क्षय हो तो दुर्भिक्ष हो, पूर्णिमा समान हो तो समान भाव और अधिक या विशेष अधिक हो तो सुभिक्ष होता है । ८५ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) मेघमाहोदये पुनः प्रकारान्तरेण कपूरचक्रस्य द्वितीयपाठःदिशश्चतस्रो विदिशश्चके न्यस्य तदन्तरे। पुरी उज्जयिनी स्थाप्या मालवस्था पुरातनी ॥ ८६ ।। भूमध्यरेखाविश्रान्ता लकातो मेरुगामिनी । तेन श्रीऋषभेणेयं पुरीमध्ये निवेशिता ।। ८७॥ अन्येयुरस्या भूपेन विक्रमार्केण चिन्तितम् । ज्ञायते सुखदुःखानि कथञ्चित् पार्श्ववासिनाम् ॥ ८८ । परं न दूरदेशानां सुखदुःखादि वेद्यते ।। अत्रान्तरे मनोऽभिक्षः कपूरः प्राह भूपतिम् ।। ८९॥ कर्पूरचक्रं मम वर्तते पुरा, तस्य प्रमाणेन समस्तभूतले । शेयानि वाताम्बुदराजविग्रह-प्रजासुखावृष्टिभयाभयानि च।।६। विक्रम उवाच-किं तच्चक्रं कृतं केन कथं तस्मानिवेद्यते । सुखदुःखे अवृष्टिर्वा वृष्टिलॊके शुभाशुभम् ॥ ९१ ॥ चक्र में चार दिशा और चार विदिशा रखकर बीच में मालवा देश में आई हुई प्राचीन उज्जयिनी नगरी को स्थापन करना ॥८६॥ वह नगरी लंकासे मेरु तक गई हुई भूमध्यरेखा के प्रदेश में है, तथा श्रीकृषभदेव का निवास (मंदिर) से युक्त है ॥ ८७ ॥ एक दिन विक्रमादित्य राजा ने विचार किया कि ममीप रहे हुए देशों का शुभाशुभ सुख दुःख कुछ जान सकते हैं ॥ ८८ ॥ परंतु दूर रहे हुए देशों का सुख दुःख नहीं जान सकते, इस अवसर पर मन के अभिप्राय को जाननेवाला कर्पूर नाम का देवज्ञ राजा को कहने लगा ।। ८६ II कि मेरे पास कर्पूर चक्र है, उसके प्रमाण से समस्त भूतल पर वायु, वर्षा, राजविग्रह, प्रजाओं का सुख दुःख, अवृष्टि, भय और निर्भय इत्यादि सब जान सकते हैं ।। ६० ॥राजा बोलावह चक्र क्या है ? किसने बनाया ? और उससे जगत में सुख दुःख, अवृष्टि, वृष्टि, और सब शुभाशुभ कैसे जाने जाते हैं ? ॥ ६१ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरचक्रम् (१९) कपूर उवाच-एतचक्रं नृपश्रेष्ठ ! गर्गाचार्येण भाषितम् । सर्वज्ञशासनादेशाद् ज्ञानं यन्त्र प्रकाशितम्।। ९२ ।। पुरग्रामाकरस्था वा नदीपर्वतवासिनः । तेषां शुभाशुभं सर्व ग्रहयोगेन बुध्यते ॥ १३ ॥ अवन्त्यादौ मण्डलान्ते योजनानां शतदये। लोके दुःखं सुखं सर्व ज्ञायते चक्रचिन्तनात् ॥ १४ ॥ अवन्तीतः समारभ्य सृष्टिमार्गे निरूपयेत् । अकानां च लिपिर्लेख्या नवभिर्भाज्यतेऽथ सा ।। ९५ ॥ शेषाङ्के वर्षराजाकं योजयित्वा दशाक्रमात् । शुभाशुभं च विज्ञेयं ग्रहवासेन मण्डले ॥ ६ ॥ कचित्तु तहिशस्त्वके योज्यते ग्रामतो ध्रुवः । संमोल्य शनिनक्षत्रं नवभिर्भागमाहरेत् ॥ २७॥ शेषाङ्कसंख्यया वर्ष-राजतो गणने कृते। विंशोत्तरीदशारीत्या ग्रहाणां फलमूचिरे ॥ ८॥ कर्पूर बोला .. हे नृपश्रेष्ठ ! यह चक्र गर्माचार्य ने कहा, इसने सर्वज्ञ प्रणीत आगप्नों का ज्ञान इस यन्त्र द्वारा प्रकाशित किया । ६२ ।। पुर गांव किला नदी पर्वत आदि स्थानों में रहने वालों का शुभाशुभ सब ग्रह योग से इस चक्र द्वारा जाना जाता है ।। ६३ ।। इस चक्र को जानने से उज्जयिनी से चारों तरफ के देशों में दो सौ योजन तक मुख दुःख सब जान सकते हैं ।। ६४ ॥ उज्जयिनी से प्रारम्भ कर सृष्टिमार्ग द्वारा निरूपणं किए हुए १४५ आदि अंकों की लिपि लिखना, उसमें नव का भाग देना ।। ६५ ।। शेष बचे उसमें वर्ष के राजा का अंक जोड़ कर विंशोतरी दशाकमसे ग्रहों का देशों में शुभाशुभ फल जानना || ६६ ॥ कोई इस तरह भी कहते हैं - उस दिशा के अंक में गाँव का ध्रुवांक मिलाकर, फिर उसमें शनि नक्षत्र को मिला दें और पीछे उसमें नव का भाग दें ॥ ७ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) मेवमहोदये यत्र ग्रामे ध्रुवो न स्यात् संदिग्धों वा लिपेर्वशात् । तस्य ग्रामस्य नक्षत्रे दिशोङ्कान् मीलयेद् बुधः ॥६६॥ ततो रुद्राङ्कयोगेन क्रियतेऽथ नवो ध्रुवः । प्राग्वत् सर्वे ततः कृत्वा ग्रहाणां फलमिष्यते ॥ १००॥ रवौ गावा बहुक्षीरा बहुवर्षा: प्रजासुखम् । निधानं भूपतेः सौख्यं ब्राह्मणानां महाबलम् ॥१०१॥ सोमवासे प्रजासौख्यं बहुपुण्यं धनागमः । राजाऽऽरोग्यं तृणोत्पत्तिः स्वल्पमेघाः सुखी जनः ॥ १०२ ॥ भौमवासे च दुर्भिक्षं राज्ञः कष्टं महद्भयम् | वह्निभीतिः प्रजापीड़ा सस्यनाशो न संशयः ॥ १०३॥ बुधवासेऽनलव्याप्तिर्षालरोगस्य सम्भवः । राज्ञो दुःखं पुरे भङ्ग उपद्रवपरम्परा ॥ १०४॥ जो शेष बच्चे इससे वर्त्तमान राजा से गीन कर विंशोत्तरी दशाक्रम से ग्रहों का फलं कहैं ॥ ६८ ॥ जिस गांव का ध्रुवांक न हो या लिपिवश से अशुद्ध (शंकाशील) हो, तो उस गाँव का नक्षत्रांक में उसी दिशा के अंक मिलाना ॥ ६६ ॥ पीछे रुदांक योग से याने पहिले (गाथा- ६ ३-६४ ) की तरह करके नवीन ध्रुवांक बनाना, इससे ग्रहों का फल कहना ॥१००॥ . रविफल - गौ बहुत दूध दें, बहुत वर्षा, प्रजा सुखी, राजा का मरण और ब्राह्मणों को बहुत मुख हो ॥ १०१ ॥ चन्द्रफल- प्रजा सुखी, बहुत आनन्द, धन की प्राप्ति, राजा आरोग्य, तृण की उत्पत्ति, वर्षा ॥ थोड़ी और मनुष्य सुखी हो ॥ १०२ मंगलफल - दुर्भिक्ष, राजा को अग्नि का भय, प्रजा को पीडा, और धान्य का विनाश हो ॥ १०३ ॥ बुधफल- - अग्नि का उपद्रव, बालकों को रोग की उत्पति, कष्ट, बड़ा भय, राजा को दुःख, पुर का भंग और बहुत उपद्रव हों ॥ १०४ ॥ गुरुफलगौ बहुत दूध दें, वर्षा अच्छी हो, राजा और प्रजाको सुख और बहुत "Aho Shrutgyanam" · Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरचक्रम् (२१) जीववासे बहुक्षीरा धेनवी मेघसम्भवः । प्रजानां भूपतेः सौख्यं सस्योत्पत्तिस्तु भूयसी ॥ १०५ ॥ शुक्रवासे सुखी राजा धर्मी लोको धनागमः । प्रजारोग्यं महालाभः पुत्रोत्पत्तिजया नृणाम् ॥ १०६ ॥ सौरिवासे नृपध्वंस उपलिङ्गाजनक्षयः। दुर्भिक्षं सभया विप्रा धर्महानिः कुतः सुखम् ॥ १०७॥ राहुवासे प्रजापीडा भूपयुद्धं महाभयम् । वहिचौरभयं दुःखं राज्ञां मृत्युः प्रजायते ॥ १०८ ॥ केतुवासे सवेनाशः स्थानभ्रष्टा जनाः किल । गृहे गृहे महद्वैरं देशभङ्गः क्रमाद् भवेत् ॥ १०९ ।। चतुर्दिक्षु स्थिताः खेटास्तत्र ज्ञेयं शुभाशुभम् । पूर्वादिक्रमता ज्ञेया वर्षराजादयः किल ॥ ११० ॥ सौरिभौमस्तथा राहुर्बुधः केतुश्च गहिशि । तत्र भङ्गो भवेद्धानिः सौम्येषु सुखसम्पदः ॥ १११ ॥ धान्य प्राप्ति हो ॥ १०५ ॥ शुक्रफल जामुखी, लोक धर्मी, धन प्राप्ति, प्रजा आरोग्य, महान् लाभ, पुत्रोत्पत्ति अधिक, और राजाओं का ज हो ।। १०६ ।। शनिफन्ट .... गजा का विनाश, प.ग्वंडियों से मनुष्यों का विनाश, दुर्भिक्ष, ब्राह्मणों को मय, धर्म की हानि होनेम सुख भी नहीं ॥ १०७ ।। गहुफल ---- प्रजा को पीडा, गजा का युद्ध, महान भय, अग्नि और चोर का भय, दुःख और जागा का परण हो ।।१०८|| केतुफल ... ---समस्त विनाश, लोग स्थान भ्र, घर पर अधिक द्वेश औः क्रमस देशभंग हो ।।१०।। पूर्वादिक्रममें चारों ही दिशा में रहे हुए वर्ष के राजा के जो रवि आदि ग्रह हैं, उनसे शुभाशुभ जानना ॥११०॥ शनि मंगल राहु बुध और केतु जिस दिशा में हो वहां हानि हो, और सौम्यग्रह हो तो सुख संपति हो ||१११॥ संमुख दक्षिण पीछाड़ी और बॉयी तरफ रहे हुए ग्रहों के पृथक् २ "Aho Shrutgyanam" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) मेघमहोदये सम्मुखे दक्षिणे पृष्ठे वामपार्श्व यदा ग्रहाः । तदा तदा पृथग भावो ज्ञातव्यश्च मनीषिभिः ॥११२।। सम्मुखे च रवौ हानिः सोमे राज्ञां सुखं भवेत्। भौमे भूपस्य लोकानां वह्निजातं भयं भवेत् ॥११३॥ बुधे धर्मरतो राजा प्रजादुःखं महाभयम् । गुरुणा बद्धते कोशः प्रजाः सर्वान्नपूरिताः ॥११४॥ शुक्रे भूपप्रजावृद्धिजिलोकः सुखी भवेत् । शनौ चतुष्पदे पीडा प्रजा दुर्भिक्षपीडिता ॥११॥ राहौ च नियते राजा प्रजा च क्रमपीडिता । केतौ शरीरदुःखं च प्रजा देशात प्रवासिता ॥११६॥इति ॥ अथ भगुसुतोदयतो देशेषु वर्षज्ञानं यथा ---- भृगुसुतः कुरुतेऽभ्युदयं यदा, सुरगणक्षगतः खलु सिन्धुषु । सकलगुर्जरकबटमण्डले, भवति सस्थविनाशमहारुजे।।११७१ भाव विद्वानों को जानना चाहिये ॥११२॥ संमुख रवि हो तो हानि, सोम हो तो राजा को सुख, मंगल हो तो राजा तथा प्रजा को अग्नि का भय हो ॥११३॥ बुध हो तो राजा धर्म में तत्पर हो और प्रजा को दुःख, तथा महान् भय हो । गुरु हो तो खजाना की वृद्धि हो और प्रजा समस्त अन्नसे पूर्ण हो ॥११४।। शुक्र हो तो राजा और प्रजा की वृद्धि, तथा ब्राह्मण लोक सुखी हो, शनि हो तो पशुओं को पीडा और प्रजा दुर्भिक्ष से दुःखी हो ॥१५॥ राहु हो तो राजा का मरण, प्रजा दुःखी, केतु हो तो शरीर को दुःख और प्रजा अपने देश से प्रवास करे याने परदेश जाय । ११६। ___ यदि शुक्रका उदय देवगणे के नक्षत्र में हो तो सिंधु गुजरात कर्बट देशों में खेती का नाश और महारोग हों ।।११।। जालन्धरमें दुर्भिक्ष १ देवगण-- अशिवनी, मुगशिर, रेवति, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण मौर स्वाति । "Aho Shrutgyanam" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्रोदय फलस् (२३) जालन्धरेऽपि दुर्भिक्षं विग्रहो रणसम्भवः । मनुष्यगणभे शुक्रो-दये सौराष्ट्रविग्रहः ॥११८ कलिङ्गन्देशे स्त्रीराज्ये मध्यम वर्षमुच्यते । मरुस्थले च दुर्भिक्षं घृतधान्यमहर्घता ॥११९॥ स्वर्ण रूप्यं महर्ष स्यात् पीडा गोमहिषीबजे । कार्पासतूलसूत्रादेमहर्घत्वं प्रजायते ॥१२०॥ नक्षत्रे राक्षसगणे शुक्रस्याभ्युदये सति । गुजरे पुद्गल भयं दुर्भिक्षं द्रव्यहीनता ॥१२१ पञ्चवर्ण पट्टसूत्रं मूल्येनापि च दुर्लभम् । श्रीफलं दुर्लभं मृत्युः श्रेष्ठपुंसश्च कस्यचित् ॥१२२॥ उत्पातश्चीनदेशे स्यात् सिन्धुदेशेऽतिविग्रहः । दिनत्रयमवाणिज्य विग्रहो मालवादिके ॥१२३॥ विग्रह और लडाई हो । यदि शुक्र उदय गनवगण के नक्षत्र में हो तो सौराष्ट्र देशमें विग्रह हो ॥११८॥ कलिंग देश और स्त्रोराज्य में यह वर्ष मध्यम रहे, मारवाड देश में दुर्भिक्ष, घी और धान्य महँगे हो ॥१.१६॥ सोना चांदी की तेजी हो, गौ भैंस की जाती में पीड़ा हो, कपास रुई सूत आदि महँगे हों ।।१२०॥ यदि शुक्र का उदय राक्षसगण के नक्षत्र में हो तो गुर्जर (गुजरात) देश में पुद्गल भय, दुर्भिक्ष और द्रव्यहीन हों ।। १२१॥ पंचवर्ण के पट्टसूत्र (रेशमी वस्त्र ) मोल से भी मिले नहीं अर्थात् बहुत तेज हो, श्रीफल का अभाव हो और कोई श्रेष्ठ-उत्तम पुरुष की मृत्यु हो ॥१२२॥ चीन देश में उत्पात, · सिन्धु देश में विग्रह, तीन दिन व्यापार बंद रहे और मालवा आदि देशमें विग्रह हो ॥१२३॥ १ मानवगण न झत्र--तीनों पूर्वा, तीनों उत्तरा, रोहिणी मार्दा और भरणी । २ राक्षगण नक्षत्र--कृत्तिका, मघा, आश्लेषा, विशाखा, शतभिषा, चित्रा, ज्येष्टा धनिष्ठा और मूल । "Aho Shrutgyanam" Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) मेघमोहदय शुक्रार नतो देशेषु वर्षजानं यथा--- सुरगणे भृगुजास्तगतिर्यदा, हवसगुर्जरमालयमण्डले । भवति देशभयं नृपविग्रहः,प्रथमतोऽपि च धान्यमहर्घता॥१२४॥ पश्चात् समर्घता किश्चिन्मासमेकं प्रवर्तते । खुरसाने महोत्पातो द्रव्यनाशोऽतिदण्डतः ॥ १२ ॥ प्रयला जलवृष्टिश्च मासषटकात् परं भवेत । हेमरूप्यमहार्घत्वं निद्रालुः सकलो जनः ॥ १२६॥ मरुस्थलेषु दुर्भिक्षं दिल्लयां राज ववर्तनम् । गोपालगिरिदेशे स्यान्मरको नरकोपमः ॥ १२७ ।। खरे हरमजेऽपि व्यापारः कोऽपि नो भवेत् । भृगुकच्छेऽथ चम्पायां धूलिपातश्च शून्यता ।। १२८ ।। रोगबाहुल्यमथवा परचक्रपराभवः । व्यापारे बहुला लक्ष्मीः सुभिक्षमुत्तरापथे ।। १५९ ॥ यदि देवगण के नक्षत्र में शुक्र का अस्त हो तो हबशी गुर्जर मालवा इन देशों में भय और गजविग्रह हों प्रथम से धान्य महँगा हो ॥१२४॥ पीछे एक मास तक सस्ते विकें । खुरासान में उत्पात, द्रव्य का नाश और दंड बहुत हों ॥ १२५ ।। छ: मास पीछे बहुत जलवर्षा हो , सोना चांदी तेज हों और मनुष्यों में आलस्य अधिक हो ।। १२६ !! मरुस्थल ( मारवाड ) देश में दुर्भिक्ष, दिल्ली में राज्यपरिवर्तन, गोपालगिरिदेश में महामारी( प्लेग)हो ।। १२७॥ खर्पर,हरमज देश में कोई व्यापार भी नहीं हो, भृगुकच्छ ( भरूच ) और चंपानगरी में धुल की वृष्टी और शून्यता हो ॥ १२८ ॥ उत्तर दिशा में बहुत रोग हो या शत्रु का पगभव हो, व्यापार में बहुत लक्ष्मी की प्राप्ति हो और मुभिक्ष सुकाल हो ॥ १२६ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्रास्तफलम् मनुष्यगणशुक्रास्ते वह्निभी रोमपत्तने । देशवासः कोङ्कणे च लाटे सिन्धौ तु शून्यता ॥ १३० ॥ दुर्भिक्षमुत्तरे देशे विग्रहो द्रविडाश्रये । गुर्जरे च सुभिक्षं स्याद्वनस्पतिफलोदयः ॥ १३१ ॥ मासमेकं महर्घ स्यात् ततो धान्ये समर्पता । घृततैलान्न निष्पत्तिः पट्टसूत्राणि सर्वतः ॥ १३२ ॥ राजानः सुखिनः सर्वाः प्रजा रोगविवर्जिताः । सर्वत्र वसतिर्देशे दुर्गेष्वानन्दनन्दिताः ॥१३३॥ शुक्रास्ते राक्षसगणे हिन्दूदेशेषु विग्रहः । स्वर्णरे राजयुद्धानि मिश्रदेशेऽन्नविग्रहः ॥ १३४॥ मरुस्थले सिन्धुदेशे दुर्भिक्षं मध्यमं भवेत् । असिया उडभङ्गः स्याद् गुर्जरे मुद्गलाद् भयम् ॥ १३५ ॥ यानपात्र विनाशोऽब्धौ फिरङ्गाणां च विग्रहः । (२५) यदि मनुष्यगण के नक्षत्र में शुक्रका अस्त होतो रोमदेश में अनि का भय हो, कोंकण देशमें भय, तथा लाट और सिंधु देशमें शून्यता हो ॥ १३० ॥ उत्तर देशमें दुर्भिक्ष, द्रविड देशमें विग्रह, गुर्जरदेश में सुभिक्ष हो, और 'वनस्पतियों में फलफूल आवैं ॥ १३१ ॥ एक महीना अनाज तेज रहें और पीछे समभाव रहें, घी, तेल, अन्न और पट्टसूत्र ईन की विशेष उत्पत्ति हो ॥ १३२ ॥ सब राजा सुखी रहें, प्रजा रोग रहित हों, वसति (वास) देश और किला आदि सब जगह आनन्द रहें ॥ १३३ ॥ यदि शुक्र का अस्त राक्षसगण नक्षत्र में होतो हिन्दू देशमें विग्रह हो, स्वर्पर देश में राजयुद्ध हो और मिश्रदेशमें अन्नं की तंगी रहे ॥ १३४ ॥ मरुस्थल और सिंधुदेशमें सामान्य दुर्भिक्ष हो, असिया और उडदेश का भंग हो, गुर्जर देश में जंतु आदि के उपद्रव का भय हो ॥ १३५ ॥ समुद्र में जहाजों का विनाश और फिरंगियों का विग्रह हो, विराट, ढुंढ, पांचाल " Aho Shrutgyanam" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये विराटदुण्ठपाञ्चाल सौराष्ट्रेषु च रौरवम् ॥ १३६ ॥ तथा राज्यपरावर्त्तो मालवेषु जनक्षयः । जीर्णदुर्गे भयं भङ्गः पत्तनेऽन्नमर्घता ॥१३७॥ नव्यमुद्राप्रकाशः स्याद् दक्षिणे सुखसम्पदः । द्रव्यक्षेत्र कालभावाभ्यासादेष विनिश्चयः ॥ १३८ ॥ ॥ इति शुक्रास्तगणेन देशवर्षज्ञानम् ॥ अथ मण्डत्तविचारख्या उत्पातेन देशेषु वर्षज्ञानम् । तत्र प्रथमाग्नेयमण्डलं यथा कृत्तिका भरणी पुष्यं द्विदेवं पूर्वफाल्गुनी । पूर्वाभाद्रपदं पैत्र्यं स्मृतमाग्नेयमण्डलम् ॥ १३९ ॥ ययस्मिन् धूलिवर्षादेर्विकारः कोऽपि जायते । भूमिकम्पोऽशनेः पात उल्कापातोऽन्धकारिता ॥ १४० ॥ दर्शनं धूमकेतच ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः । रक्तवृष्टिज्वलदृष्टिरन्यद्वा किञ्चिदद्भुतम् ॥ १४१ ॥ तदाग्निमण्डलात् प्राज्ञो जानीयाद् भावि लक्षणम् । (२६) और सौराष्ट्र इन देशों में महाकष्ट हों ॥। १३६ ।। तथा मालवा देश में राज्यपरिवर्तन हो और मनुष्यों का विनाश हो । जीर्ण किले को टूटने का भय तथा पट्टन में अन्न महँगा हों ॥ १३७ ॥ नवीन सिक्का चले और दक्षि में सुख संपदा हों। इसी तरह शुक्र का विचार द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के अनुकूल करना चाहिये ॥ १३८ ॥ कृत्तिका भरणी पुष्य विशाखा पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाभाद्रपद और मघा ये आयमण्डल के नक्षत्र हैं ॥ १३६ ॥ यदि इनमें धुलीवर्षादिका कोई विकार हो, भूमिकंप, वज्रपात, उल्कापात, अन्धकार १४० ॥ धूमकेतु का दर्शन, चन्द्र सूर्य का ग्रहण, रक्तवृष्टी अनिवृष्टि अथवा कोई अद्भुत वार्ता हो ॥ १४१ ॥ तो इस अग्निमण्डल से बुद्धिमान् भावी होनहार को जानें- -नेत्रों का रोग, " Aho Shrutgyanam" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डळफळम् नेत्ररोगमतीसारं देशेऽग्निप्रबलोदयम् ॥ १४२ ॥ गवां दुग्धघृताल्पत्वं द्रुमे पुष्पफलाल्पताम् । अर्थनाशं च चौरेभ्यः स्वल्पां वृष्टिं समादिशेत ॥१४३॥ क्षुधया पीडिता लोका भिक्षाखपरधारिणः । सैन्धवा यमुनातीर - घृताटंकोजबा ल्हिकाः ॥ १४४ ॥ जालन्धराश्च काश्मीराः समस्तश्चांतरापथः । एते देशा विनश्यन्ति तस्मिन्नुत्पातदर्शने ॥ १४५ ॥ वायुमण्डलम् - मृगादित्याश्विनीहस्ता-चित्रास्वातिसमन्विताः । उत्तराफाल्गुनी वायो-रिदं मण्डलमुच्यते ॥ १४६ ॥ यद्येषु जायते किञ्चित् पूर्वोक्तोत्पातलक्षणम् । महावातास्तदा वान्ति महद्भयमुपस्थितम् ||१४|| उन्नीता अपि पर्जन्या न मुञ्चन्ति तदा जलम् । विनाशो देवविप्राणां नृपाणां विन्ध्यवासिनाम् ॥ १४८ ॥ (२७) अतीसार, देशमें अग्नि का विशेष लगना ॥ १४२ ॥ गायों के दूध घी की अल्पता, वृक्षों में फल फूल थोड़े, चोरों से अर्थ का नाश और थोड़ी वर्षा जाननी || १४३ ॥ लोग क्षुधा से दुःखी होकर भिक्षा और खर्पर ( खप्पड ) धारणा करने वाले हों । सिंधुदेश, यमुनाके तट के देश, घृताटकोज. बाल्हिक ॥ १४४ ॥ जालंधर, काश्मीर और समस्त उत्तर प्रदेश, इन देशों में यदि उत्पात देखने में आवे तो उनका विनाश होता है ॥ १४५ ॥ मृगशीर्ष पुनर्वसु अश्विनी हस्त चित्रा स्वाती और उत्तराफाल्गुनी ये वायु मण्डल के नक्षत्र हैं ॥ १४६ ॥ यदि इन नक्षत्रों में पूर्वोक्त कोई उत्पात हो तो महावायु चले, बड़ा भय उपस्थित हो ॥ १४७ ॥ उदय हुए भरे बादल भी जल न छोड़, देव ब्राह्मणों का विनाश हो, विन्ध्यवासी राजाओं में कलह हो ॥ १४८ ॥ परकोट किला पर्वतों के शिखर और तोरण के स्थान की "Aho Shrutgyanam" Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) मेघमहोदये प्राकार गिरिशृङ्गाणि तोरणस्थलभूमिकाः । वायुवेगविधूतानि वनानि निपतन्ति हि ॥१४६॥ वारुणमण्डलम् आर्द्राश्लेषोत्तराभाद्रपदं पौष्णं च वारुणम् । पूर्वाषाढा मूलमेतद् वारुगां मण्डलं स्मृतम् ॥ १५०॥ एषूत्पातोदये पूर्व गदिते स्यात् प्रजासुखम् । बहुक्षीरघृता गावो बहुपुष्पफला द्रुमाः ॥ १५१ ॥ बहुधान्या मही लोके नैरुज्यं बहु मङ्गलम् । धान्यानि च समर्धाणि सुभिक्षं प्रबलं भवेत् ॥ १५२ ॥ कोटका मूषकाः सर्पाः शलभा मृगकुक्कुटाः । मारिः पिपीलिकाकाण्डं स्थलदेशे प्रजायते ॥ १५३॥ माहेन्द्रमण्डलम् - ज्येष्ठानुराधारोहिण्यौ धनिष्ठा श्रवणस्तथा । अभिजिचोत्तराषाढा शुभं माहेन्द्रमण्डलम् ॥ १५४ ॥ एषूत्पातोदये लोकाः सर्वे मुदितमानसाः । भूमि ये सब वायु वेग से भंग हो जाय और वन के वृक्ष गिर पड़ें ॥१४६॥ आर्द्रा आश्लेषा उत्तराभाद्रपद रेवती शतभिषा पूर्वाषाढा और मूल ये वारुणमण्डल के नक्षत्र हैं ।। १५० ।। यदि इनमें पूर्वोक्त कोई उत्पात हो तो प्रजा को सुख हो, गायों में दूध बहुत हों, वृक्षों में फलफूल बहुत हों ॥। ११५१ ॥ पृथ्वी पर बहुत धान्य उत्पन्न हों, निरोगता और मंगल हों, धान्य सस्ते और सर्वत्र सुभिक्ष हो ॥ १५२ ॥ कीड़े मूसें सर्प शलभ मृग कुक्कुट मारी ( प्लेग ) और चींटी ये स्थल प्रदेश में अधिक हो ॥ १५३ ॥ ज्येष्ठा अनुराधा रोहिणी धनिष्ठा श्रवण अभिजित् और उत्तराषाढा ये माहेन्द्रमण्डल के नक्षत्र हैं ॥ १५४ ॥ इनमें पूर्वोक्त कोई उत्पात हो "Aho Shrutgyanam" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलफलम् (२९) सन्धि कुर्वन्ति भूमीशाः सुभिक्षं मङ्गलोदयः ॥१५५।। कस्मिन् समय मण्डलानि फलदायकानि ? ...... उल्कापातादय. सर्वेऽमीषु स्वस्वफलप्रदाः । वर्षाकालं विना ज्ञेया वर्षाकाले तु वृष्टिदाः ॥१५॥ माहेन्द्रं सप्तरात्रेण सद्यो वारुणमण्डलम् । आग्नेयमर्धमासेन फलं मासेन वायवम् ।। १५७॥ सुभिक्षं क्षेभमारोग्यं राज्ञां सन्धिः परस्परम् । अन्त्यमण्डलयोर्जेयं तद्विपर्ययमाद्ययोः ॥१५८॥ माहेन्द्रे वारुणे चैव हृष्टा भवन्ति धेनवः । उत्पाताः प्रलयं यान्ति धरणी व ते शिवः ।। १५६ ॥ अर्घकाण्डे तुत्रिमासिकं तु चाग्नेयं वायव्यं च द्विमासिकम् । तो सब लोग आनन्दसे रहें, गजा परस्पर संधि करे, सुभिक्ष और मङ्गल हो ॥ १५५ ॥ उल्कापातादिक जो उत्पात हैं, वे इन मण्डलों में अपने २ फल को वर्षाकाल के विना दूसरे समय में देते हैं और वर्षाकाल में तो वृष्टि करने वाले होते हैं ॥ १५६ ॥ माहेन्द्रमण्डल का फल सात दिन में, वारुणमण्डल का फल शीघही, अग्निमण्डल का फल प्राधे मास में और वायुमण्डल का फल एक मास में होता है ।। १५७ ॥ सुभिक्ष क्षेम (कल्याण) पारोग्य और राजाओं की परस्पर सन्धि ये सब अन्त्य के दो मण्डलों में जानना, और आदि के दो मण्डलों में इससे विपरीत जानना॥१५८॥ माहेन्द्र और वारुणमण्डल में गौ प्रसन्न होती हैं, उत्पात नष्ट हो जाते हैं, और पृथ्वी पर मांगलिक होते हैं ॥ १५६ ॥ अर्घकांड में कहा है कितीन महीने में आग्नेय, दो महीने में वायव्य, एक महीने में वारुणा और सात "Aho Shrutgyanam" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ महोदये मासमेकं च वारुण्यं माहेन्द्रं सप्तरात्रिकम् ॥ १६० ॥ पुनः विवेकविलासे (३०) ――― मण्डलेऽग्नेरष्टमा सै- द्वाभ्यां वायव्य के पुनः । मासेन वारुणे सप्त-रात्रान्माहेन्द्रके फलम् ॥ १६९ ॥ रुद्रदेवः प्राह - वायव्यं मासयुग्मेन माहेन्द्रं सप्तरात्रिकम् । आग्नेयमर्द्धमासेन वारुणं शीघ्रवारिदम् ॥ १६२ ॥ वारुणाग्नेययो भौमानिलयोः फलमन्दता । अन्योऽन्यमभिघातेन तद्विमृश्य वदेत् फलम् ॥ १६३ ॥ भूमिकम्परजोवर्ष दिग्दाहाकालवर्षणम् । इत्याद्याकस्मिकं सर्वमुत्पात इति कीर्त्यते ॥ १६४ ॥ ईत्यनीतिप्रजारोगरगाद्युत्पातजं फलम् । मण्डलाख्यासमं प्रायो वह्निबाष्पादिकं तथा ।। १६५ ॥ रात्रि में माहेन्द्रमण्डल का फल होता है ॥ १६० ॥ विवेकविलास में लिखा है कि-अग्निमण्डल आठ महीने, वायु का दो महीने, वरुण का एक महीना और महेन्द्र का सात दिन, इतने समय मंडलों का फल रहता हैं ॥ १६१ ।। रुद्रदेवने कहा है कि वायु का दो महीने, महेन्द्र का सात दिन, अग्नि का आधा महीना याने पंद्रह दिन और वरुणमण्डल शीघ्र ही जल देने वाला हैं ।। १६२ ॥ वरुण और अग्निमण्डल के मिलने से तथा माहेन्द्र और वायुमण्डल के मिलने से फल की मंदता होती है । ऐसे परस्पर मण्डल के मिल जाने से विचार पूर्वक इन का फल कहना ॥ १६३ ॥ भूमिकंप, धूलि की वर्षा, दिग्दाह, अकाल में वर्षा इत्यादि उपद्रव अकस्मात् हों तो उनको उत्पात कहते हैं ।। १६४ || टीड्डी मूसें आदि के उपद्रव, अनीति, प्रजा को रोग और लडाई ये सब उत्पात के फल जानने चाहिये । प्राय: करके मण्डल के नाम सदृश अग्नि वायु आदि के उस्पात होते हैं ॥ १६५ ॥ अग्निमण्डल में दक्षिण दिशा, वायुमण्डल में "Aho Shrutgyanam" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पातमेदः (३१) आग्नेये पीज्यते याम्या वायव्ये पुनरुत्तरा । वाकणे पश्चिमा चात्र पूर्वा माहेन्द्रमण्डले ॥ १६६ ॥ ॥ इति मण्डलोपरि उत्पातेन देशे वर्षज्ञानम् ॥ अथ प्रसंगत उत्पातभेदा यथा-- भूमिकम्पे प्रजापीडा निर्घाते तु नृपक्षयः । अनावृष्टिस्तु दिग्दाहे दुर्भिक्षं पांशुवर्षणे ॥१६॥ क्षयकृत्पांशुवृष्टिश्च नीहारश्च भयङ्करः । दिग्दाहोऽग्निभयं कुर्यान्निर्धातो नृपभीतिदः ॥१८॥ झञ्झावायुश्चण्डशब्दश्चौरभीतिप्रदायकः। भूकम्पो दुःखदायी च परिवेषश्च रोगकृत् ॥१६९।। ग्रहयुद्धे राजयुद्धं केतौ दृष्टे तथैव च । ग्रहणान्ते महावृष्टिः सर्वदोषविनाशिनी ॥१७०॥ उल्कापाते श्रेष्ठनाशो द्रुमच्छिन्ने धनक्षयः । उत्तर दिशा, वारुणमण्डल में पश्चिम दिशा और माहेन्द्रमण्डल में पूर्व दिशा पीडित होती है ॥ १६६ ॥ . भूमिकंपसे प्रजा को पीड़ा, वज्र गिरने से राजा का नाश, दिग्दाह मे अनावृष्टि, धूल की वर्षा होने से दुर्भिक्ष होता है ॥ १६७ ॥ धूल की वार्थ क्षय करती है, कुहर (बरफ) गिरे तो भयदायक है, दिग्दाह हो तो अग्नि का भय करता है और वज्र गिरने से राजा को भय होता है।॥१६८॥ झंझावायु और तीक्ष्णशब्द ये दोनों चोरों का भय करता है, भूकम्प होना दुःखदायक है, चन्द्रसूर्य का परिवेष (घेरा) रोग करता है ॥ १६६ ॥ ग्रहों के युद्ध से, तथा केतु के दर्शन से राजाओं में युद्ध होता है । यदि ग्रहण के अंत में अधिक वर्षा हो तो सब दोषों का विनाश हो जाता है ॥१७॥ उल्कापातसे श्रेष्ठ पुरुष का नाश, वृक्ष के टूटने से धन का नाश और प "Aho Shrutgyanam" Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) मेघमहोदये पाषाणवर्षणे ज्ञेया सर्वधान्यमहर्घता ॥१७१॥ विद्युत्पाते जलाभावः प्रजानाशोऽन्धकारिते। ऋतूनां व्यत्यये रोगः सर्वजन्तुषु जायते ॥१७२॥ जन्तूनां विकृतोत्पत्ती राजविघ्नकरी मता । विग्रहो जायते घोरश्चन्द्रसूर्यविपर्यये ॥१७३॥ ग्रहयुद्धे भवेद् युद्धं युतौ चैव महर्घता। सूर्येन्दुपरिवेषाणां फलं वक्ष्ये स्वरूपतः ॥१७४॥ दूरस्थे मण्डलेऽन्यत्र स्वदेशे मध्यवर्निनि । प्रत्यासन्ने फलं ज्ञेयं मण्डलाधिपतेर्महत् ॥१७॥ श्वेतवर्णे भवेद् भव्यं पीतवर्णे रुजाकरः । रक्तवर्णे भवेद युद्ध कृष्णवर्णे नृपक्षयः॥१७६।। नीलवणे महावृष्टि-धूम्रवर्णे च धूमरी । त्थर की वर्षा होनेसे सब अन्न महँगे होते हैं ।। १७१ । विद्युत् के उत्पात में जल का अभाव, अंधकार से प्रजा का नाश, ऋतुओं की विपरीतता से सब प्राणियों में रोग होता है ॥ १७२ ॥ जन्तुओं की विकृत (विरूप) उत्पत्ति राजा को विघ्नकारी होती है, चन्द्रसूर्य की विपरीतता से बड़ा संग्राम होता है ॥ १७३ ॥ ग्रहों के युद्ध से युद्ध और ग्रहयुति से धान्य की महर्घता होती है । सूर्यचन्द्रमा के मण्डल का फल अपने रूप के अनुसार कहना चाहिये ॥ १७४ || दूरदेश स्वदेश और मध्यदेश इन में जहां मण्डल का अधिपतित्व हो वहां विशेष फल जानना । १७५ ।। श्वेत वर्ण का मण्डल हो तो कल्याण कारक, पीत वर्ण का रोग कारक, रक्त वर्ण का युद्ध कराने वाला, कृष्ण वर्ण का राजा का क्षय कारक | १७६ ॥ निल वर्ण का हो तो महावर्षा, धूम्र वर्ण होनेसे धूमस, थोडा वर्ण होने से थोडा और अधिक होने से अधिक फल दायक होता है ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धर्वनगरम् स्वल्पे स्वल्पफलं सर्व बहूनां तु फलं महत् ॥ १७७॥ जलार्द्रत्वे महावृष्टिर्बिम्बनाशे नृपक्षयः । अकाले फलपुष्पाणि सस्यनाशकराणि च ॥ १७८ ॥ यस्य राज्ये च राष्ट्रे च देवध्वंसः प्रजायते । सपरिवार भूपस्य तस्य ध्वंसः प्रजायते ॥ १७९ ॥ सूर्येन्द्रोः सर्वथा ग्रासे सर्वस्यापि महर्घता । भौमादिग्रहवर्गस्य वक्रे च प्राक्तनं फलम् ॥१८०॥ अथ गन्धर्वनगरम्— कपिलं सस्यघाताय माञ्जिष्ठ हरणं गवाम् । अव्यक्तवर्ण कुरुते बलक्षोभ न संशयः ॥ १८९ ॥ गन्धर्वनगरं स्निग्धं सप्राकारं सतोरणम् । सौम्यां दिशं समाश्रित्य राज्ञस्तद्विजयङ्करम् ॥१८२॥ १७७ ॥ मण्डल में से जल के कण का स्राव हो, या मण्डल जल से भीगा हुआ मालुम पड़ें तो अत्यन्त वर्षा होती है । बिम्ब के नाश से राजा की मृत्यु होती है। अकाल में फल पुष्पों का होना खेती का विनाश कारक है ॥ १७८ ॥ जिस के राज्य या देश में देवता का विनाश हो उस देश के राजा का परिवार सहित नाश होता है ॥ १७६ ॥ सूर्य चन्द्रमा का पूर्ण ग्रास हो तो सब चीजों का भाव तेज हो । मङ्गलादि ग्रह वक्री हो तो उनका पूर्वोक्त ही फल कहना ॥ १८० ॥ गंधर्वनगर कपिल वर्ण याने मजीठ रंग का दीखे तो गायों को पड़े तो बल का क्षोभ करता है ।। रिकोट (किला) और ध्वजा सहित विजय होता है ॥ १८२ ॥ भूरा दीखे तो खेती का विनाश हो, पीड़ा कारक है, अप्रकट रंग का देख १८१ ।। यदि गंधर्व नगर स्निग्ध पपूर्व दिशा में देख पड़े तो राजा का "Aho Shrutgyanam" Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) मेघमहोदये विदंशुल्लक्षणाम्-- कपिलाविशुदनिलं कुर्यात् पीता तु वृष्टये । लोहिता आतपाय स्यात् मिता दुर्भिक्षहेतवे ॥१८३।। केतुफलम् . . श्रावणे भाद्रमासे च केतवो वारुणा दश । जलवृष्टिकरा लोके तदा धान्यसमर्थता ॥१८४॥ आश्विने कार्तिके ते स्युः सूर्यपुत्राश्चतुर्दश । कुर्युश्चतुष्पदे मृत्यु दुर्भिक्षं देशनाशनम् ॥१८५॥ वह्निपुत्राश्चतुरित्रशतु केतवो मागपौषयोः । अग्निदाहं चौरभयमनावृष्टिं दिशन्त्यमी ॥१८६॥ केतवो यमपुत्राः स्युर्माघफाल्गुनयोर्नव । धान्यं महर्ष दुभिक्षं कुर्युभूपमहारगाम ॥१८७॥ केतवोऽष्टादश सुता धनदस्य वसन्तके। कपिल वर्ण की (भूरी) बिजली चमके तो पवन चले, पीले रंग की चमके तो बहुत वर्षा हो, लाल रंग की चमके तो मग्मी अधिक पडे और श्वेत वर्ण की चमके तो दुर्भिक्ष पड़े ।। १८३ ॥ ___ श्रावण और भादौ महीने में दश केतु वरुण के पुत्र हैं, ये लोक में उदय होनेसे जल की वृष्टि और अनाज सस्ता करते हैं।।१८४॥ आसोज और कार्तिक में चौदह केतु सूर्य के पुत्र हैं, ये पशुओं का विनाश , दुर्भिक्ष और देश का नाश करते हैं ।। १८५ ॥ मार्गशिर और पोष मास में चौतीस केतु अग्निके पुत्र हैं, ये अग्निदाह चोरभय और अनावृष्टि करते हैं ॥ १८६ ॥ माघ और फाल्गुन मास में नव केतु यम के पुत्र हैं, ये धान्य की महर्घता दुष्काल और राजाओं में विग्रह करते हैं ॥ १८७ ॥ चैत्र और वैसाख में अठारह केतु कुबेर के पुत्र हैं, ये लोक में उदय होनेसे सुख मंगल और सुभिक्ष करते हैं "Aho Shrutgyanam" Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केतृदयफ कम् लोके सुखं मङ्गलानि सुभिक्षं कुर्युरुद्यताः ॥ १८८॥ ज्येष्ठाषाढांदिता वायोः पुत्रा विंशतिकेतवः । सवातजलवर्षायै तरुप्रासादभङ्गदाः ॥ १८६॥ एवं पञ्चोत्तरं शतं कचिदष्टोत्तरं शतम | केचिदेोत्तरं शतं केतुनां स्यान्मतत्रयात् ॥ १९०॥ दशैव रविजा गरायाः शतमेकोत्तरं ततः । त्रयोविंशा वायुजाताः शतमष्टोत्तरं तदा ॥ १९९॥ अथ १०५ केतूदयफलम् - एषां कदा फलमिति ज्ञेयमृक्षं विलोकयेत् । महोत्पातहते ऋक्षे देशेऽनावृष्टिसम्भवः ॥ १६२॥ यदुक्तम् - उल्कापानां दिशां दाहो भूकम्पों ब्रह्मवर्चसम् । दृष्ट्वा ऋक्षे भवेद् यत्र तादृक्ष पीडितं भवेत् ॥ १६३ ॥ लौकिकमपि - भूकंपगा तारापडया रगतपाहाणवुट्टि । (३५) ॥ १८ ॥ जेठ और आषाढमें वीस केतु वायु के पुत्र हैं, ये उदय होने से वायु और जल वर्षा करते हैं, तथा वृक्ष और महल का विनाश करते हैं ॥१८६॥ इस प्रकार एकसो पांच केतु हैं, कोई एक्सौ आठ और कोई एकसौ एक, एसे तीन मत से केतुओं की संख्या मानते हैं ॥ १६० ॥ जो सूर्य के पुत्र दश केतु माने तो एक सो एक और वायु के पुत्र तेईस केतु माने तो एकसौ आठ संख्या होती है ।। १६१ ॥ इनका फल देखने के लिये नक्षत्र को देखे, यदि नक्षत्र का महोत्पात से आघात हो तो देशमें अनावृष्टि होती है ॥ १६२ ॥ उल्कापात, दिग्दाह भूकंप और ब्रह्मतेज आदि को देख कर विद्वान् विचार करें, जो नक्षत्र उस दिन हो वही नक्षत्र पीडित होता है ॥ १६३ ॥ भूकंप, तारे का गिरना, रक्त और पाषाण की वृष्टि, केतु का उदय, सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण, इनमें स "Aho Shrutgyanam" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये केतुगामण रविससिगहण इक्कमि होइ उकिट्टि ॥ १६४ ॥ जिण नक्खत्ति भडली कांई होइ अनिट्ठ । तिण नवि वरसे अंबुधर जाणे गन्भविण ॥१६५॥ अथ प्रसक्तानुप्रसक्तचन्द्रसूर्यग्रहणफलम्सूर्याचन्द्रमसोर्ग्रहः शुभकरो मार्गे तथा कार्त्तिके, पौषे धान्यमहर्घता जनभयं वर्षे पुरो मध्यमम् । माघे वाञ्छितवृष्टिरन्नविगमः स्यात् फाल्गुने दुःखचैत्रे चित्रकरादिलेखक महापीडा समा मध्यमा ॥ १९६ ॥ वैशाखे तिलतैलमुद्गरुतं कार्पासकं नाशयेद्, ज्येष्ठेऽवर्षणधान्यनाशनकरं स्याद् भाविवर्ष शुभम् । आषाढे कचिदेव वर्षति घनो रोगोऽन्नलाभः कचिद्, वृक्षे मूलफलानि हन्ति सहसा वर्ष शुभं सम्भवेत् ॥ १६७॥ एक भी हो तो कष्ट देने वाला होता है ॥ १६४ ॥ भडली का कहना है कि जिस नक्षत्र पर अनिष्ट ( उत्पात ) हो, उस नक्षत्र में जल नहीं वरसता है और गर्भ का विनाश होता है ।। १६५ ॥ + सूर्य चन्द्रमा का ग्रहण कार्त्तिक और मार्गशिर मास में हो तो शुभ करता है । पौष मास में हो तो धान्य का भाव तेज, मनुष्यों को भय और अगला वर्ष मध्यम करता है। माघ मास में हो तो इच्छानुसार वृष्टि और अन्न की प्राप्ति विशेष होती है । फाल्गुन मास में हो तो दुःख दायक है । चैत मास में हो तो चित्रकार और लेखक आदि को महा पीडा तथा वर्ष मध्यम हो ॥ १६६ ॥ वैशाख मास में हो तो तिल तैल मूंग रूई और कपास का नाश हों । ज्येष्ठ मास में हो तो वृष्टि न हो और धान्य का नाश और अगला वर्ष शुभ हो । आषाढ में ग्रहण हो तो कहीं जल वर्षे, कहीं रोग और कहीं अन्न का लाभ हो, वृक्षों के मूल फल टूट पड़े, शेष वर्ष शुभ रहे || १६७ ॥ श्रावण मास में हो तो घोडियों के और (24) "Aho Shrutgyanam" ~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रसूर्यग्रहणफलम् (३७) गर्भाः श्रावणकेऽश्वगर्दभभवास्तूर्णा पतन्त्युल्वणम्, स्त्रीगर्भान् विनिहन्ति भाद्रपदके सौख्यं मुभिक्षं जने । कुर्यादाश्विनकेऽथ सूर्यशशिनोरेकत्र मासे ग्रह - छन्वं चेन्नरनायका बहुबला युद्धयन्ति कोपोत्कटाः॥१९८॥ कदाचिदधिके मासे ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः । सर्वराष्ट्रभयं भङ्गः क्षयं यान्ति महीभुजः ॥ १६ ॥ रवेर्ग्रहाच पक्षान्ते यदि चन्द्रग्रहो भवेत् । तदा दर्शनिनां पूजा धर्मवृद्धिमहोदयः ।। २००॥ क्रूरसंयुक्तसूर्येन्द्रोग्रहणे नृपतिक्षयः । राष्ट्रभङ्ग इति प्रादुर्भद्रबाहुमुनीश्वराः ॥ २०१॥ रविवारे ग्रहे वर्ष मध्यमं धान्यसङ्गहः । राजयुद्धं च दुर्मिक्षं घृतायस्तैलविक्रयाः ॥२०२॥ सोमेऽर्द्धग्रहणे राजविग्रहोऽन्नमहर्घता। गदहियों के गर्भ पतित हों, बिजली वा करकादिक पड़े। भाद्रपद में हो तो स्त्रियों के गर्भ पतित हों आसोज मास में हो तो लोग में सुख और सुभिक्षा हो। यदि एक ही मास में सूर्य और चन्द्रमा ढोनों का ग्रहण हो तो राजा लोग परस्पर महा क्रोध करके युद्ध करने तत्पर हो ॥ १८॥ कभी अधिक मास में चन्द्र सूर्य का ग्रहण हो तो राष्ट्र भंग और राजाओं का क्षय हो ॥ १६६ ॥ सूर्य के ग्रहण बाद एक ही पक्षान्त में यदि चन्द्रग्रहण हो तो साधु जनों की पूजा, धर्म की वृद्धि और बड़े पुरुषों का उदय हों ।। २०० ।। क्रूर ग्रह से युक्त सूर्य चन्द्रमा का ग्रहण हो तो राजाओं का नाश और देश भंग हो, ऐसे भद्रबाहु मुनीश्वर कहते हैं ।। २०१॥ रविवार को ग्रहण हो तो वर्ष मध्यम रहें, धान्य का संग्रह करना उचित है, राजयुद्ध दुर्भिक्ष घृत लोहा और तैल इनका विक्रय करना ॥ २०२ ॥ सोमवार को ग्रहण हो तो राजविग्रह, अनाज के भाव तेज, "Aho Shrutgyanam" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) मेघमहोदये लाभस्तैलघृतादिभ्यो भौमे वह्निभयं भवेत् ।। २०३॥ भौमवारे ग्रहे भानोरन्योऽन्यं नृपतिक्षयः । इन्दोद्महे च कर्पासरूतस्त्रमहर्षता ॥२०४॥ बुधे पूगोरक्तवस्त्रसङ्गहो लाभदायकः । गुरौ पीतरक्तवस्तुतैलगन्धादिलाभदः ॥ २०५॥ शुक्रे सुभिक्ष माङ्गल्यं सर्वलोकशुभंकरम् । शनौ युगन्धरीलाभः श्यामवस्तुमहर्घता ॥२०६॥ पीतरक्तवस्त्रताम्रवृषभादिकसङ्गहे। मासद्धये तस्य लाभ इत्युक्तं ज्ञानिभिः पुरा ॥२०७॥ अोऽर्द्वमासिके लाभस्त्रिभागश्च त्रिमासिके । चतुर्भागश्चतुर्मासेऽस्तमिते वर्षसम्भवः ॥२०८॥ ग्रहणाये च सर्वस्मिन्नुत्पातः प्रबलो यदा । और तैल वी आदि से लाभ हो । भोमवार को ग्रहण हो तो अग्निभय हो | २०३ ।। मंगलवार को सूर्य ग्रहण हो तो गजाओं में अन्योऽन्य विग्रह हो । चन्द्र ग्रहण हो तो कपास रूई और सूत महंगे हों ।। २०४ ॥ बुधवार को ग्रहण हो तो मुपारी तथा लाल वस्तु का संग्रह करना लाभदायक है । गुरुवार को ग्रहण हो तो पीली और लाल वस्तु तथा तैल गंधादिक संग्रह करना लाभ दायक है || २०५। शुक्र के दिन ग्रहण हो तो सब लोग में शुभकारक सुभिक्ष और मांगलिक होता है । शनिवार को ग्रहण हो तो युगंधरी (जुवार) से लाभ और काली वस्तु महँगी हों ॥ २०६ ॥ पीत तथा रक्त वस्त्र, तांबा, वृषभादिक का संग्रह करने से दो महीने पीछे उनसे लाभ होगा, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है ||२०७॥ अर्द्र ग्रास से आधे मास में लाभ, तीन भाग से तीन मास में लाभ, चतुर्थ भाग से चौथे मास में लाभ, और अस्त में ग्रहण हो तो एक वर्ष में लाभ होगा। २०८॥ सब (चंद्र या सूर्य) ग्रहण की प्रादि में उत्पात प्रबल हो किंतु ग्रहण के "Aho Shrutgyanam" Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रसूर्यग्रहणफलम् (३९) पश्चात् संजायते मेघोऽरिष्टभङ्गं तदादिशेत् ॥२०९॥ एवमुत्पातरहिते यस्मिन्नुदकयोनिकाः । जीवा वा पुद्गला दृश्यास्तद्देशे वृष्टिरुत्तमा ॥२१०॥ एतेन गर्भाः सर्वेऽपि सूचिता वातवर्जिताः। स्थानाङ्गसूत्रकारेण तेषां नीरात् समुद्भवात् ॥२११॥ यदागमः-चत्तारि दगगब्भापण्णत्ता तंजहा--उस्सा महिया सीया उसिणा । चत्तारि दगगम्भा पण्णत्ता तंजहाहेमगा अब्भसंथडा सीओसिणा पंचरूवियामाहे उ हेमगा गम्भा फग्गुणे अब्भसंथडा। सीओसिगाओ य चित्त वइसाहे पंचरूविया ॥२१२॥ सप्तमे सप्तमे मासे गर्भतः सप्तमेऽहनि । बाद ही वर्षा हो जाय तो सब उत्पात के फल का नाश हो जाता है ॥२०॥ इसी तरह जिस देश में उत्पात रहित जल योनि के जीव या पुद्गल देखने में आवे, उस देश में अच्छी वर्षा होती है ॥ २१० ॥ ये सब वर्षा के गर्भ जल से उत्पन्न होने के कारण स्थानांग सूत्रकार ने वायु रहित सूचित किया ॥ २११ ॥ ओस (धूमस) महिका शीत और उष्ण ये चार प्रकार के उदक गर्भ हैं । मतान्तर से- हिम मेवाडंबर (बादल का समूह) शीत और गरमी ऐसे भी चार प्रकार के हैं । इन प्रत्येक के गर्जना विजली जल वायु और बद्दल, इस तरह पांच पांच प्रकार है । माघ मास में हिम का गिरना, फाल्गुन मास में बादल से आकाश आच्छादिक रहना, चैत्र मास में शीत और गरमी, तथा वैशाख मास में मेव गर्जना, बिजली, वर्षा, वायु और बादल येच प्रकार के गर्भ का लक्षण होता है ॥२१२॥ गर्भ सात मास और सात दिन में परिपक्क होता है, जैसा गर्भ हो वैसा फल जानना ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) मेघमहोदये गर्भाः पार्क नियच्छन्ति यादृशास्तादृशं फलम् ॥२१३॥ हिमं तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमका हिमपातरूपा इत्यर्थः। 'अब्भसंथड' त्ति अभ्रसंस्थितानि मेघेराकाशाच्छादनानीत्यर्थः । नात्यन्तिके शीतोष्णे पश्चानां रूपाणां गर्जितविधुज्जलवाताभ्रलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपंतदस्ति येषां ते पश्चरूपिका उदकंगर्भा इति । इह मतान्तरमेवंपौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । नात्यर्थ मार्गशीर्षे शीतं पौषेऽतिहिमपातः ॥२१४॥ मावे प्रबलो वायुस्तुषारकलुषद्युती रविशशाङ्कौ । अतिशीतं सघनस्य च भानोरस्तोदयौ धन्यौ॥२१॥ फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्डः पवनोऽभ्रसम्प्लवाः स्निग्धाः। परिवेषाश्च सकलाः कपिलस्ताम्रो रविश्व शुभः ॥२१६|| पवनधनवृष्टियुक्ताश्चत्रे गर्भाः शुभाः सपरिवेषाः । धनपवनसलिलविद्युतस्तनितैश्च हिताय वैशाखे ॥२१७॥ २१३ ॥ मतान्तर से- मागसिर और पौष मास में सन्ध्या रंगवाली हो, और जल के परिमण्डल देख पड़े, मार्गशिर में विशेष शीत ठंड) और पौष में विशेष हिम न पड़े ॥ २१४ ॥ माघ मास में प्रबल वायु वाय, सूर्य चन्द्रमा तुषार से स्वच्छ देख न पड़े, विशेष ठंड पड़े और सूर्य के उदय अस्त में बदल देखने में आवे तो शुभ है ॥ २१५ फाल्गुन मास में रूखा और तेज पवन चले, बहुत स्निग्ध बादल आकाश में चलते देख पड़ें, परिमण्डल भी हो, सूर्य कपिल (भूरा) और रक्त वर्ण का हो तो शुभ है ॥२१६।। चैत मास में पवन बद्दल और वृष्टि के साथ परिमण्डल वाले गर्भ हो तो शुभ है । वैशाख मास में वादल वायु वर्षा विमली और गर्जना वाले गर्भ श्रेय: है ॥ २१७ ॥ ऐसा स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थानाङ्ग में लिखा हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदकगर्भलक्षणम् (४१). तानेव मासभेदेन दर्शयति माहेत्यादिरिति ॥ इति स्था नासूत्रवृत्तिः ॥ हीर मेघमालायामपि - परिवेष वाय वद्दल संझारागं च इंदधणु होइ । हिम करह गज्ज चिज्जु छंटा गन्भो भणिएहिं ॥ २९८ ॥ जीवेभ्यः पुद्गलाः सूत्रे पृथगेव समीरिताः । तेन केचिदजीवाः स्युर्महावृष्टेश्च हेतवः ॥ २१९ ॥ जलयोनिकजीवादेः सद्भूतिः प्रच्युतिर्यथा । , विचार्यते देशतस्ते तथा ग्रामे च मण्डले ।। २२० ॥ यद्दिनेऽभ्रादिसम्भूतिर्मेघशास्त्रे निरूपिता । यथा सा वृष्टिहेतुः स्यात् तथाभ्रादेः परिच्युतिः ।। २२१ ॥ यदुक्तम् आर्द्रादौ दश क्षाणि ज्येष्ठे शुक्ले निरीक्षयेत् । साभ्रेषु हन्यते वृष्टिर्निरभ्रे वृष्टिरुत्तमा ॥ २२२ ॥ हीरमेघमाला में कहा है कि परिमंडल, वायु, बादल, संध्याराग, इन्द्रधनुष, करह (ओला), गर्जना, विजली और जल के छींटे ये दश गर्भ के लक्षण जानना ॥ २९८ ॥ आगम में जीवों से पुद्गल पृथक् ही माने हैं, इस लिये कितनैक पुद्गल महावृष्टि के कारण हैं ॥ २१६ ॥ जैसे - जलयोनि के जीवों की उत्पत्ति और विनाश का विचार करते हैं, वैसे समग्र देश गाँव (नगर) और देश का भी विचार करना चाहिये ॥ २२० ॥ जिस दिन बादल की उत्पत्ति मेवशास्त्र में कही है, वह जैसे वृष्टि के हेतु है वैसे बद्दल के नाशक भी है ।। २२१ || कहा है कि आर्द्रा आदि दश नक्षत्र ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में देखने चाहिये, यदि वे बद्दल सहित देख पड़े तो वृष्टि के नाशक है और बादल रहित निर्मल देख पड़े तो उत्तम वृष्टि जानना || २२२ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) मेघमहोदये एवं देशनिवेशपुद्गलजलप्राण्यादिसंमूर्च्छनाद्, हेतून् प्रागवगम्य सम्यगुदकासारस्य सारस्यदीन् । ब्रूते मेघमहोदयं सविजयं तस्य श्रियो वश्यतामुत्कर्षादिव चारुरूप्यकनकैवर्षन्ति सिद्धिप्रदाः ||२२३ || इति श्रीमेघमहोदये वर्षप्रबोधापरनाम्नि महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिकृते देशाधिकारः ॥ इस प्रकार देश गाँव आदि में पुद्गल जल और प्राणी आदि का संमूर्च्छन से ( स्वाभाविक उत्पत्ति और परिवर्तन से ) प्रथम जल की अच्छी वर्षा के हेतुओं को अच्छी तरह जान करके सफलीभूत मेघ के उदय को जो कहता है, उस को लक्ष्मी आधीन होती है और सुंदर चांदि सोने से सिद्धि कारक वर्षा होती है ॥ २२३ ॥ श्री सौराष्ट्र राष्ट्रान्तरर्गत पादलिप्तपुर निवासिना पण्डितभगवानदासाख्य जैनेन विरचितया मेघमहोदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकित: प्रथमो देशाधिकारः । "Aho Shrutgyanam" Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ वाताधिकारः । अथ मरुदभिगम्यः सम्यगाभोगरम्यः कृतभुवन विनोदः प्रौढपाथोदमोदः । प्रमुदितमरुदेवः श्रीप्रभुः पार्श्वदेवः, सृजति सरसवर्ष भोगिनां दत्तहर्षः ॥ १ ॥ वातस्त्रिलोक्या आधारः सर्वार्थेभ्यो महाबलः । व्याप्तः सर्वत्र लोकेऽपि बादरः शाश्वतः स्वतः ॥ २ ॥ प्राच्योदीच्यादिभेदेन बहुधा वसुधातले । वर्षणेऽवर्षणे हेतुः केतुर्वेक्रियरूपभाक् ॥ ३ ॥ यदागमः - रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी, प्रत्थि गं भंते! ईसिंपुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति ? हंता, अस्थि । अस्थि णं भन्ते ! पुरस्थि मे णं ईसिंपुरेवाया 3 देवताओं के वंदनीय, अच्छे अच्छे चौतीस अतीशयादि विभूतियों से पूर्ण, जगत् को आनन्द देनेवाले और जिनसे मेवमाली इन्द्र वायुकुमारदेव और नागकुमार देव ये हर्षित हुए हैं, ऐसे श्रीपार्श्वनाथ प्रभु रसवाले वर्षको उत्पन्न करते हैं ॥ १ ॥ वायु तीन लोक का आधार है, सब पदार्थों से महाबली है, सर्वत्र लोकमें व्याप्त है तथा बादर और शाश्वत है || २ || पूर्व पश्चिमादि भेदों से बहुत प्रकार के वायु पृथ्वी पर हैं, ये वृष्टि और अनावृष्टि के कारण भूत हैं और ये वायु वैक्रियशरीर वाले और ध्वजाकार के सदृशरूप वाले हैं ॥ ३ ॥ राजगृहनगर में गौतम स्वामी श्री सर्वज्ञ महावीरप्रभु को इस प्रकार बोले- हे भगवन् ! ईषत्पुरोवायु ( भीना चलने वाला चिकना वायु ) वनस्पति आदि को हितकर पथ्यवायु, मन्द चलने वाला मन्द वायु और "Aho Shrutgyanam" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति ? हंता, अस्थि । एवं पच्चत्थिमेणं दाहिणे णं उत्तरे णं उत्तरपुरस्थिमे णं, दाहिणपुरत्थिमे णं दाहिणपञ्चस्थिमे णं उत्तरपचत्थिमे णं, जयाणं भन्ते ! पुरत्थिमे णं ईसिं० जाव वायंति । तयाणं पबत्थिमे णं वि ईसिंपुरेवाया जयाणं पच्चत्थिमे णं ईसिपुरे - वाया० जाव वायन्ति । तयाणं पुरत्थिमे णं वि ईसिं तयाणं पञ्चस्थिमेण वि ईसि । एवं दिसासु विदिसासु ॥ इतिश्रीभगवत्यां पञ्चमशतके द्वितीयो देशके ॥ (४४) अत्ययमर्थो यदुत वाता वान्तीति योगः कीदृशा (श: ? ) इत्याह :- 'ईसिपुरेवाय'त्ति मनाक् सस्नेहवाताः । 'पच्छावाय त्ति वनस्पत्यादिहिता वायवः | 'मन्दावाय' त्ति शनैः संचारिणो न महावाता इत्यर्थः । 'महावाय' त्ति उद्दण्डवाता अनल्पा इत्यर्थः । 'पुरस्थिमेणं' ति सुमेरोः पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः । ननु सूत्रोक्तरीत्येवं द्वीपे वातैक्यमापतेत् । तेज चलने वाला महावायु चलते हैं ? हे गौतम ! हां, ये वायु चलते हैं । हे भगवन् ! पूर्व दिशा में ईषत्पुरोवायु पथ्यवायु मन्द्रवायु और महावायु चलते हैं ? हे गौतन ! हां, चलते हैं । इस प्रकार पश्चिम में, दक्षिणा में, उत्तर में, ईशानकोण में, अग्निकोणमें, नैऋत्यकोण में और वायव्यकोण में समझना । हे भगवन् ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवायु पश्यवायु मंदवायु और महावायु चलते हैं तत्र पश्चिम में भी ईषत्पुरोवायु आदिवायु चलते हैं ? और जब पश्चिम में ये वायु चलते हैं तब ये पूर्व में भी चलते हैं ? हे गौतम! जब पूर्व में ईषत्पुरोवायु आदि वायु चलते हैं तब ये पश्चिम में भी चलते हैं । और जब पश्चिम में ईरोवायु आदि वायु चलते हैं तब ये पूर्व में भी चलते हैं । इसी तरह सत्र दिशा और विदिशा में भी समझना । यह सूत्रोक्त रीति से द्वीप ( स्थल ) में रहे हुए वायु के समूह का "Aho Shrutgyanam" Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधिकारः तदैक्याद् वर्षगणेऽप्येकं तेन सर्वसमाः समाः ॥ ४ ॥ तदध्यक्षविरोधोऽयं वातभेदात् प्रतिस्थलम् । नैतच्छक्यं यतो वातो वाते भेदत्रयस्मृते ॥ ५ ॥ (४५) यतस्तत्रैव - क्या णं भन्ते ! ईसिंपुरे वाया जाव वायन्ति ? गोयमा ! जया णं वाउकाए आहारियं रियन्ति, तया णं ईसिंपुरेवाया० जाव वायन्ति ॥ १ ॥ कया णं भन्ते । ईसिं० जाव वायन्ति ? गोयमा ! जयाणं वाउकाए उत्तर किरियं क रेति तथा णं ईसिं० जाव वायन्ति ॥ २ ॥ कयाणं भन्ते ! ईसिंपुरे वाया पच्छावाया ? गोयमा ! जया णं वायुकुमारा वायुकुमारीओ वा अप्पणो वा, परस्सा वा, तदुभयस्स वा, अट्ठाए वाउकायं उदीरेंति, तया णं ईसिंपुरे वायां० जाव महावाया वायन्ति ॥३॥ इति 'अहारियं रियंति' त्ति रीतं रीतिः स्वभाव इत्यर्थः । तस्थानतिक्रमेण यथारीतं रीयते गच्छति, यथा स्वाभाविक्या वर्णन किया, उनमें से एक एक भी वर्षाद के निमित्त है. यदि सब अनु कूल हों तो वर्षा अनुकूल होती है ॥ ४ ॥ वायु के भेद से प्रत्येक स्थल का बड़ा विरोध है, ये जानना सुगम नहीं है । इस लिये वायु को जाननेका अभ्यास करना चाहिये। वायु चलने के तीन कारण आगममें कहे हैं ॥ ५ ॥ हे भगवन् ! ईषत्पुरो वायु आदि वायु कब चलते हैं ? हे गौतम ! जब वायुकाय अपना स्वभाव पूर्वक गति करे तब ये वायु चलते हैं ॥ १ ॥ हे भगवन् ! ये वायु कब चलते हैं ? हे गोतम ! जब वायुकाय उत्तर क्रिया पूर्वक वैकिय शरीर बनाकर गति करे तब ये वायु चलते हैं ||२|| हे भगवन् ? ये वायु कब चलते हैं ? हे गौतम ! जब वायुकुमार और वायुकुमारियां अपने या दूसरों के लिये या दोनों के लिये वायुकाय को उदीरे ( गतिकराते ) हैं तब ये वायु चलते हैं ॥ ३ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) मेघमहोदये गत्या गच्छतीत्यर्थः । 'उत्तरकिरिय' ति वायुकायस्य हि मू. लशरीरमौदारिकं, उत्तरं तु वैक्रियम् । अत उत्तरा उत्तरशरीराश्रया क्रिया गति लक्षणा, गत्र गमने तदुत्तरक्रियं तद्यथा-भवतीत्येवं रीयते गच्छति । वाचनान्तरे त्वाद्य कारणं महावातवर्जितानां, द्वितीयं तु महावातवर्जितानां, तृतीयं तु चतुर्णामप्युक्तमिति तद्वृत्तिः । एवं वातविशेषेण वर्षाऽवर्षाविशेषणात् । शुभाशुभादियोगेन वातादब्दे विचित्रता ॥॥ वातस्तु त्रिविधः प्रोक्तो वापकः स्थापकोऽपरः । तृतोयो ज्ञापको वृष्टेः स्थानाङ्गे मध्यसङ्गहात ॥७॥ तुलादण्डस्य नीत्यात्र ग्राह्यावाद्यन्त्यमारुतौ । प्राद्यस्तुत्पादकोऽभ्रादेः परो न विशरारुकृत् ॥८॥ तृतीयो भाविनी वृष्टिं पूर्वमेव निवेदयेत् । तत्कालं वृष्टिकृत्कालान्तरे वाद्योऽपि च द्विधा ॥९॥ __ इस तरह वर्ष में वायुविशेष स वृष्टि या अदृष्टि की विशेषता और शुभाशुभ योगों से वायु की विशेषता ये विचित्रता है ॥ ६ ॥स्थानांग सूत्रमें वायु तीन प्रकार के कहे हैं ... वापक स्थापक और तीसरा वृष्टि कारक ज्ञापक है || ७ !! तुलादण्डनीति के अनुसार यहां आद्य और अन्त्य वायु ग्रहण करना चाहिये,आद्य वायु वर्मा का उत्पादक है। दूसरा वायु विनाश कारक नहीं है ॥ ८ ॥ तीसग होने वाली वृष्टि की प्रथम से बतलाने वाला है और तत्काल वृष्टि करने वाला या कालान्तर में वृष्टि करने वाला है । इसी प्रकार वर्षा को उत्पन्न करने वाला पहला वापक वायु के भी दो भेद हैं ...- प्रथम वर्षाकाल में बादलों को उत्पन्न करके तत्काल वर्षा करता है और दूसरा शीत कालमें बादलों को उत्पन्न करके बहुत काल पीछे वर्षा करता है ॥ ६ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातचक्रं सामान्यतः (४७) वात व सामान्यत:-- पूर्वस्या अथवोदीच्याः पवनः शीघ्रवृष्टये । दक्षिणस्या वृष्टिनाशी पश्चिमाया विलम्बकः ॥१० आग्नेय्या विग्रहं वहे-भयं वृष्टिविबाधनम् । नैर्मृतः पवनो यावत् तावत् कुर्यान्महातपम् ॥११॥ वायव्यवायुः कुरुते वृष्टिं पवनसंयुताम् । ततः पीडा मत्कृणाद्या ईतयो जीववर्षणम् ॥१२॥ ऐशानः पवनो विश्व-हिताय जलवृष्टये। आनन्दं नन्दयेल्लोके वायुचक्रमिदं मतम् ॥१३॥ मद्रोऽपि स्वकृतमेघमालायामाह"वायुधारणमेवेदं शृणु तत्त्वेन सुन्दरि!। सुभिक्षं पूर्ववातेन जायते नात्र संशयः ॥१४॥ आग्नेय्यां खण्डवृष्टिश्च जायते गिरिजात्मजे । पूर्व और उत्तर दिशा के बायु से शीघ्र वर्षा होती है, दक्षिण का वायु वृष्टि विनाशक है, पश्चिम का वायु विलम्ब से वृष्टि करता है ॥ १० ॥ आग्नेयी दिशा का वायु अग्नि का भयकारक और वर्षा का बाधक है, नैर्ऋत दिशा का पवन जबतक चले तबतक महा ताप-अधिक गरमी पड़े॥११॥ वायव्यदिशा का वायु पवन के साथ वृष्टि करता है, खटमल आदि छोटे छोटे जीवों की उत्पत्ति और ईति--- ( शलभ मूसा टिड्डी आदि ) की अधिकता होती है ।। १२ ।। ईशान का वायु से जगत का कल्याण होता है, जल की वृष्टि होती है और लोक में आनन्द होता है । यह वायुचक्र रुद्रदेव ने स्वकृत मेघमाला में कहा है कि- हे सुन्दरि ! वायु का धारण तत्व विचार से श्रवा कर---पूर्व के वायु से निश्चय से सुकाल होता है ॥ १४ ॥ आग्नेय कोण का वायु खण्डवृष्टि करता है, दक्षिण का वायु "Aho Shrutgyanam" Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८) मेघमहोदये दक्षिणे ईतिर्विज्ञेया नैर्ऋत्यां कुलदान् वहे ॥१५॥ वारुणे दिव्यधान्यं च वायव्यां तप्तिसम्भवः । उत्तरायां सुभं ज्ञेय-मीशान्यां सर्वसम्पदः ,, ॥१६॥ हेमन्ते दक्षिणो वायुः शिशिरे नैर्मृतः शुभः । वसन्ते वारुणः श्रेष्ठः फलदायी शरत्सु सः ॥१७॥ शरत्काले तु पूर्वस्याः समीरः फलनाशनः । वसन्ते चोत्तरोवायुः फलपुष्पाणि नाशयेत् ॥१८॥ आग्नेय्यो न कदापीष्ट ऐशानः सर्वदा शुभः । नैर्ऋतो विग्रहं रोग दुर्भिक्षं कुरुते भयम् ॥१६॥ झञ्झावातं विना कश्चिद् यदा प्राच्यादिकोऽनिलः। स्पष्टभावेन नो वाति तदा वृष्टिः स्थिरा भवेत् ॥२०॥ ईति कारक है , नैर्ऋत्य कोण का वायु कुलवृद्धि कारक है ॥ १५ ॥ पश्चिम का वायु दिव्य धान्य उत्पन्न करता है, वायव्य कोण का वायु ताप उत्पन्न करता है, उत्तर दिशा का वायु शुभ जानना और ईशान कोण का वायु सब सम्पत्ति करता है ।। १६ ।। हेमंत ऋतु में दक्षिण दिशा का वायु और शिशिर ऋतु में नैर्ऋत कोण का वायु चले तो शुभ है । वसन्त तथा शरद ऋतु में पश्चिम दिशा का पवन चले तो फलदायक होता है ॥ १७ ॥ शरद ऋतु में पूर्व दिशा का वायु चले तो फल का विनाश करता है । वसंत में उत्तर दिशा का वायु चले तो फल और फूलों का नाश करता है ॥ १८॥ आग्नेय कोण का वायु कभी भी शुभ दायक नहीं होता । ईशान कोण का वायु सर्वदा शुभ रहता है । नैर्ऋत कोण का वायु विग्रह रोग दुर्भिक्ष और भय करता है ॥ १६ ॥ झंझावायु को छोडकर यदि कोई पूर्वादि का वायु स्पष्टतया न चलें तो वर्षा स्थिर होती है ॥ २० ॥ श्रावण में मुख्य करके पूर्व दिशा "Aho Shrutgyanam" Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधिकारः श्रावणे मुख्यतः प्राच्यो नभस्ये चोत्तरोऽनिलः । वृष्टिं दृढतरां कुर्याच्छेषमासेषु वारुणः ॥ २१ ॥ चैत्रमासे वायुविचार:---- (४९) चैत्राऽमित द्वितीयायां सर्वदिग्भ्रामकोऽनिलः । विना मेघं तदा भाद्रपदे वृष्टिस्तु भूयसी || २२ || पूर्वस्या उत्तरस्याश्च वायुश्चैत्रे सितेतरे । तृतीयायां तदा लोके सुभिक्षं प्रचुरं जलम् ||२३|| चतुर्थ्यां वृष्टियुग्वातस्तदा दुर्भिक्षमादिशेत् । चैत्रेऽसितेsपि पञ्चम्यां तादृगेव फलं भवेत् ॥२४॥ चैत्र द्वितीयादिचतुर्दिनेषु, कृष्णेऽथ पक्षे यदि पूर्ववातः । वर्षायुतो नैव शुभः सिते तु, पूर्वोत्तरोवायुरतीवशस्तः ॥ २५॥ चैत्रस्य शुक्लपञ्चम्यां वायुर्दक्षिणपूर्वयोः । का, भाद्रपद में उत्तर दिशा का और बाकी महीने में पश्चिम दिशा का वायु चले तो बहुत अच्छी वर्षा होती है ॥ २१ ॥ चैत मास में कृष्ण पक्ष की द्वितीया के दिन यदि सब दिशा का वायु चले किंतु वर्षा न हो तो भाद्रपद में बहुत वर्षा होती है ॥ २२ ॥ चैत कृष्ण पक्ष में तृतीया के दिन पूर्व और उत्तर का वायु चले तो लोक में सुभिक्ष हो और जल वर्षा अधिक हो ॥ २३ ॥ चतुर्थी के दिन यदि वर्षा युक्त वायु चले तो दुर्भिक्ष होता है। इसी तरह शुक्ल (कृष्ण) पंचभी का भी यही फल जानना ॥ २४ ॥ चैत कृष्ण पक्ष में यदि द्वितीया आदि चार दिन वर्षा युक्त पूर्व दिशा का वायु चले तो शुभ नहीं होता; किंतु शुक्ल पक्ष में पूर्व और उत्तर का वायु चले तो बहुत शुभ होता है ॥ २५ ॥ चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन दक्षिण और पूर्व का वायु चले और साथ वर्षा भी हो तो उस वर्ष भादों में धान्य के त्रिगुणित मूल्य हो याने धान्य बहुत " Aho Shrutgyanam" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) मेघमहोदये वृष्टया सह तदा वर्षे (भाद्रे) धान्ये त्रिगुणमूल्यता ॥२६॥ एवंच-चत्रोऽयं बहुरूपस्तु दक्षिणानिलसंयुतः । सर्वो विद्युत्समा युक्तो वृष्टेगर्भहितावहः ॥२७॥ मूलमारभ्य याम्यान्तं क्रमाच्चैत्रं विलोकयेत् । यावहक्षिणतो वायुस्तावदृष्टिप्रदायकः ॥२८॥ वैशाखमासे वायुविचार:---- शुक्ला कृष्णापि वैशाखेऽष्टमी यदा चतुर्दशी। एषु चेद्दक्षिणोवातस्तदा मेघमहोदयः ॥२९॥ राधे शुक्लतृतीयायां चिढनिश्चीयतेऽनिलः । पूर्वस्या यदि वोदीच्या धनाधनस्तदा घनः ॥३०॥ दक्षिणो नै तो वायुवृष्टेः स्यात् प्रतिघातकः । वारुणाद् वृष्टिरधिका परधान्यस्य रोधनम् ॥३१॥ वैशाखशुक्लतुर्येऽहि सन्ध्यायामुत्तरानिलः । महँगे हो ॥ २६ ॥ चैत मास में अनेक प्रकार के दक्षिण दिशा का पवन चले और बिजली चमके तो वर्षा के गर्भ को हितकारक है ॥२७॥ चैत्र मास में मूल नक्षत्र से भरणी नक्षत्र तक क्रमसे देखें, जब तक दक्षिण दिशा का वायु चले तब तक चौमासे में उतनी वर्षा होती है ।। २८॥ वैशाख मास में शुक्ल या कृष्ण पक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी के दिन दक्षिण दिशा का वायु चले तो मेघ का उदय जानना ॥ २६ ॥ वैशाख शक्ल तृतीया के दिन चिह्नों से वायु का निश्चय करें, यदि पूर्व या उत्तर दिशा का प्रचुर वायु चले तो वर्षा हो ॥ ३० ॥ दक्षिण या नैर्ऋत्य दिशा का वायु चले तो वर्षा की रुकावट हो, पश्चिम का वायु चले तो वर्षा अधिक और धान्य का रोध हो ।। ३१ ।। वैशाख शुक्ल चतुर्थी के दिन संध्या के समय उत्तर दिशा का वायु चले तो सुभिक्ष करता है। पंचमी के दिन पूर्व "Aho Shrutgyanam" Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभिक्षायाथ पञ्चम्यामैन्द्रो धान्यमहर्घकृत् ॥३२॥ उदयास्तंगतो यावत् पूर्वोवायुर्यदा भवेत् । सङ्ग्रह्णीयाच धान्यानि प्रचुराणि सुलब्धये ||३३|| एवं शुक्लदशम्यां चेत्तदापि धान्यसङ्ग्रहः । तथा देशेषु पूर्णायां वायुं सम्यगविचारयेत् ||३४|| प्रातश्चतुर्घदीमध्ये पूर्वो वायुर्यदा भवेत् । सूर्यार्द्रासङ्गमे वाद्यदिने मेघमहोदयः ॥ ३५ ॥ वृष्टिर्द्वितीयेऽपि वायुर्घटिके पूर्ववायुतः । ज्ञेया द्वितीये दिवसे आर्द्रातपनसङ्गमे ॥ ३६ ॥ आर्द्राया वासरा एवं चातुर्घटिक संख्यया । ज्ञेयाः सर्वेऽपि सजला निर्जलास्तु विपर्यये ||३७|| पूर्णिमातः समारभ्य यावज्ज्येष्ठासिताष्टमी । एवमाद्रदिसूयर्क्षनवके वृष्टिरुच्यते ॥३८॥ (५१) दिशा का वायु चले तो धान्य महँगे करता है ॥ ३२ ॥ सूर्य के उदय और अस्त के समय यदि पूर्व दिशा का वायु चले तो धान्य का संग्रह करना चाहिये, जिस से बहुत लाभ हो । ३३ ।। इसी तरह शुक्ल दशमी के दिन वायु चले तो भी धान्य का संग्रह करना ! तथा वैशाख पूर्णिमा के दिन देशों में वायु का अच्छी तरह से विचार करें ॥ ३४ ॥ यदि प्रातः काल चार घड़ी में प्रथम पूर्व का वायु चले तो सूर्य का आर्द्रा नक्षत्र के साथ योग हो तब प्रथम दिन मेव का उदय जानना याने वर्षा हो ॥ ३५ ॥ दूसरी चार घड़ी में पूर्व का वायु चले तो आर्द्रा और सूर्य के योग के दूसरे दिन वर्षा हो || ३६ || इसी प्रकार चार चार घड़ी से आर्द्रा का प्रत्येक दिन जानना चाहिये । इस क्रम से वैशाख पूर्णिमा से लेकर ज्येष्ट कृष्ण अष्टमी तक के नव दिन पूर्व का वायु चले तो सूर्य के आर्द्रा आदि नव नक्षत्रों में वर्षा होती हैं और विपरीत याने पूर्व के वायु से अतिरिक्त "Aho Shrutgyanam" Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) मेघमहोदये सूर्यसौम्यसमायोगे वायुर्वारुणदिग्भवः । यदा शरत्सु विज्ञेयो वायुर्धान्यमहाफलम् ॥३९॥ नवमासान् यदा पूर्वो वायुश्चरति भूतले । स्वातौ मौक्तिकरूप्यानि बहुधान्यादिमङ्गलम् ॥४०॥ ज्येष्ठमासे वायुविचारःज्येष्ठमासे रविकरास्तपन्ति प्रचुरोऽनिलः। लूकासमन्वितो वाति घनगर्भस्तदा शुभः ॥४१॥ ज्येष्ठमासेऽष्टमी कृष्णा तथा कृष्णचतुर्दशी। दक्षिणानिलसंयुक्ता परतो वृष्टिहेतवे ॥४२॥ ज्येष्ठस्य यदि पञ्चम्यां दक्षिणः पवनश्चरेत् । तदा तिलास्तथा तैलं घृतं ऋयं तदाश्विने ॥४३॥ यदुक्तं मेघमालायाम्ज्येष्ठस्य शुक्लपञ्चम्यां गर्जित श्रूयते यदि। वायु चले तो नव नक्षत्रों में वर्षा नहीं होती है ॥ ३७ ॥ ३८॥ सूर्य चंद्रमा का योग के समय पश्चिम दिशा का वायु चले तो शरदऋतु में धान्य अधिक हों ॥ ३६॥ यदि नव महीने बराबर पूर्व का वायु चले तो स्वाति नक्षत्र में सीपी में बहुत मोती हों, धान्य भी बहुत और लोक में मंगल हों । ४० ॥ ज्येष्ठमास में सूर्य के किर या बहुत तप और बहुत गरम वायु चले तो मेध के गर्भ अच्छे होते हैं । ४१ ॥ ज्येष्ट मास में कृण अष्टमी और चतुर्दशी के दिन दक्षिण दिशा का वायु चले तो आगे वर्षा अच्छी होती है ।।४२!ज्येष्ट माम की पंचमः के दिन दक्षिण दिशा का वायु चले तो तिट तेल और वी म्वरीदना आश्विन महीने में लाभ होता है ।। ४३ ॥ मेवमाला में कहा है कि -ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी "Aho Shrutgyanam" Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधिकारः (५३) दक्षिगास्या भवेद्वायुरभ्रच्छन्नं यदा नभः ॥४४॥ धान्यानां तिलतैलानां सङ्ग्रहः क्रियते तदा । द्विगुण स्त्रिगुणी लाभ: क्रमान्मासचतुष्टये ॥४५॥ सिताष्टम्यां ज्येष्ठमासे चतस्रो वायुधारणाः । मृदुवायुः शुभोवातः स्निग्धाभ्रः स्थगिताभ्रकः ॥४६॥ तत्रैव स्वात्याये वृष्टे भवतुष्टये क्रमान्मासाः । श्रावणपूर्वा ज्ञेयाः परिश्रुता धारणास्ताः स्युः ॥४७॥ यदि ता एकरूपाः स्युः सुभिक्षं सुखकारिकाः । सान्तरा न शिवायैतास्तस्कराग्निभयप्रदाः ॥४८॥ ज्येष्ठस्य शुक्लैकादश्यां पूजां कृत्वा सुशोभनाम् । शुभं मण्डलकं कृत्वा पुष्पधूपैर लङ्कृतम् ॥ ४६ ।। उच्चस्थाने प्रतिष्ठाप्य दीर्घदण्डे महाध्वजः । के दिन मेघ गर्जना हो, दक्षिण का वायु चले और आकाश बादलों से आच्छादित हो तो।। ४४ ॥ घान्य तिल तेल इनका संग्रह करना, चार महीने पीछे द्विगुणा त्रिगुणा लाभ होता है ||४५ ॥ ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी के दिन चार प्रकार के वायु माने हैं-----मृदुवायु, शुभवायु, स्निग्धाभ्र और स्थगिताम्रक ।।४६ ॥ इनमें आदि और अंत्य वायु में वृष्टि हो तो संसार को अानंद देने वाली है । ये चार प्रकार के वायु क्रमस चले तो श्रावण आदि चार महीनों में क्रमम वर्षा होती है॥४७॥ यदि ये वाय सब मिले हुरा चले तो मुभिक्ष और मम्वकारक होते हैं , यदि पृथक पृथक चले तो अच्छा नहीं, चौर अग्नि का भय देने वाले होते हैं ॥ ४८ ॥ ज्येष्ठ महीने की शुक्ल एकादशी के दिन अच्छी तरह पूजा करके, धुप दीप आदि से मुशोभित अच्छा मंडल करके ॥ ४६ ॥ एक बड़े नंबे दंड में बडी ध्वजा लगा कर उसको ऊँचे स्थान में रक्खें । इसी प्रकार यत्नपूर्वक "Aho Shrutgyanam" Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) मेघमहोदये एवं कृत्वा प्रयत्नेन शोधयेत् कालनिर्णयम् ॥ ५० ॥ एको वातो यदा वाति चतुर्दिनानानि चोत्तरः । तदा त्रिचतुरो मासान् ध्रुवं वर्षति वारिदः ॥ ५१ ॥ विपरीतं यदा वाति यानि चिह्नानि वा पुनः । तथारूपः प्रावृषेण्यः पयोभृद्वर्षति क्षितौ ॥ ५२ ॥ प्रथमं पश्चिमो वातश्चतुर्दिनानि वाति चेत् । अनावृष्टिं विजानीयाद् दुर्भिक्षं रौरवं तदा ॥ ५३ ॥ उत्तरो हयमार्गे चतस्रो हन्ति वा दिशः । चत्वारो वार्षिका मासा मेघा वर्षन्ति भूतले ॥ ५४ ॥ विपरीतो यदा वातश्चतस्त्रो हन्ति वा दिशः । रविमार्गे परिभ्रष्टो जानीयात्तस्य लक्षणम् ॥ ५५ ॥ शीतकाले तदा वृष्टिर्वर्षाकाले न विद्यते । अनयोर्वैपरीत्ये च वृष्टिं वर्षासु निर्दिशेत् ॥ ५६ ॥ वायव्यां पश्चिमायां च नैर्ऋत्यां वाति च क्रमात् । करके समय का निर्णय करें || ५० ॥ यदि एकही उत्तर दिशा का वायु चार दिन तक चले तो तीन चार महिने मेव अवश्य बरसें ॥ ५१ ॥ जो जो चिह्न हैं उनसे विपरीत वायु चले तो पृथ्वी पर चौमासे में उसी प्रकार वर्षा हो ।। ५२ ॥ पहले चार दिन पश्चिम का वायु चले तो अनावृष्टि दुर्भिक्ष और महा दुःख जानना ॥ ५३ ॥ यदि उत्तर दिशा का वायु चारों ओर चले तो चौमासा के चार महीने पृथ्वी पर नर्षा बरसे || ५४ || इस से यदि विपरीत सब ओर का वायु चले तो उसका लक्षण रविमार्ग में परिभूष्ट जानना ॥ ५५ ॥ शीतकाल में वर्षा हो और वर्षाकाल में वर्षा नहो, और उससे विपरीत हो तो वर्षाकाल में वर्षा हो || ५६ || वायव्य पश्चिम और नैर्ऋत्य दिशा का पवन क्रम से चले तो आषाढ और श्रावण "Aho Shrutgyanam" Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधिकारः (५५) आषाढे श्रावणे क्षिप्रं द्वौ मासौ वृष्टिरुत्तमा ॥५॥ पूर्वस्यां च तथेशान्यामाग्नेय्यां वाति च क्रमात् । भाद्रपादाश्विनौ च्छिद्रादाद्यन्ते वृष्टिरूत्तमा ॥२८॥ अमावास्यां च पूर्णायां ज्येष्ठमासे दिवानिशम् । मेघेराच्छादिते व्योन्नि वातो वहति वारुणः ॥ ५९॥ अनावृष्टिस्तदादेश्या क्वचिदृष्टिस्तु भाग्यतः । मासौ द्वौ श्रावणाषाढौ पूर्गाभाद्रपदाश्विनौ ॥६॥ आषाढमासे वायुविचारः -- आषाढशुक्लपञ्चम्यां पश्चिमो यदि मारुतः । वर्षागर्जितसंयुक्तः शक्रचापेन भूषितः ।। ६१॥ तदा संगृह्यते धान्यं कार्तिके तन्महर्षता । लाभाय जायते नूनं नान्यथा ऋषिभाषितम् ॥ २॥ आषाढशुक्लपक्षस्य द्वितीयायां न वर्षति । ये दो महिने में वर्षा उत्तम हो ॥ ५७ ॥ पूर्व ईशान और आग्नेय दिशा का क्रम में वायु चले तो भाद्रपद और आश्विन मास की आदि अंत में उत्तम वर्षा हो ॥ ५८ ।। यदि ज्येष्ठ महिने की अमावास्या और पर्णिमा के दिनरात आकाश बादलों से आच्छादित रहें और पश्चिम दिशा का वायु चले ! ५६1: तो अनावृष्टि कहना, क्वचित ही भाग्ययोग से वर्षा हो श्रावण आषाढ भाद्रपद और आश्विन ये विना बरसे पूर्ण हो ।। ६० ॥ ____ आषाढ शुक्ल पंचमी के दिन पश्चिम दिशा का वायु चले, मेघ गर्जना के साथ वर्षा हो और इंद्रधनुष का उदय हो ॥ ६१ ॥ तो धान्य का संग्रह करना अच्छा है, कारण कि कार्तिक मास में महँगा हो जाने से लाभ होगा, यह ऋषिभाषित कथन अन्यथा नहीं होता ॥ ६२ ॥ आषाढ शुक्ल द्वितीया के दिन वर्षा न हो और बादल हो तो श्रावण में निश्चय कर "Aho Shrutgyanam" Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये यदि मेघस्तदा वृष्टिः श्रावणे जायते ध्रुवम् ॥६॥ तृतीयायां पूर्ववायुः पूर्वगामी च वारिदः। घना मेघास्तदा भाद्रे वर्षन्ति विपुलं जलम् ।। ६४॥ चतुर्थी दक्षिणी वायुर्मेधः पूर्वे च गच्छति । आश्विने च तदा मासे वृष्टिर्भवति निश्चितम् ॥६५॥ वृष्टे दिनचतुष्केऽस्मिन् वाते पूर्वोत्तरागते । अतिवृष्टिः सुभिक्षं च दुर्भिक्षं च तदन्यथा ॥६६॥ द्वादशीप्रतिपत्पूर्णामावास्यां चेन्महानिलः । वृष्टिोमाभ्रसंछन्नं तदा मेघमहोदयः ॥६७॥ आषाढपूर्णिमायां वायुविचार:---- आषाढयां घटिकां षष्ठया मासद्वादशनिर्णयः । पूर्णायां पञ्चकाः षष्ठि दशेति विभाजनात् ॥६८॥ पश्चनाडी भवेन्मासः षष्ठया वर्षस्य निर्णयः । सर्वरानं यदाभ्राणि वातौ पूर्वोत्तरौ यदि ॥६९॥ के वर्षा होती है ॥ ६३ ॥ तृतीया के दिन पूर्व का तायु चले और पूर्व में ही बादल जाते हो तो भाद्रपद में बहुत वर्षा हो ॥ ६४ ॥ चतुर्थी के दिन दक्षिण का वायु चले और बादल पूर्व में जाते हो तो आश्विन मास में निश्चय कर के वर्षा होती है ॥ ६५ ॥ इस वर्षा के चार दिन पूर्व तथा उत्तर का वायु चले तो बहुत वर्षा और मुभिक्ष हो, अन्यथा दुर्भिक्ष हो।। ६६ ॥ द्वादशी प्रतिपदा पूर्णिमा और अमावास्या के दिन बड़ा पवन चले, वर्षा हो और आकाश बादलों से आच्छादित हो तो मेघ का उदय जानना ॥ ६७ ॥ आषाढ पूर्णिमा की साठ घड़ी पर से बारह महीने का निर्णय करें। पूर्णिमा की साठ घड़ी को बारह से भाग दें तो लब्धि पांच धड़ी आवे॥ ६८॥ इन पांच घड़ी का एक मास, इसी तरह वर्ष का निर्णय करें । सारी रात बादल रहें और पूर्व तथा उत्तर का वायु चले ॥६६॥ तो उस "Aho Shrutgyanam" Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाताधिकारः तस्मिन् वर्षे कणाः पुष्टा भवन्ति भुवि मङ्गलम् । यदि वाताभ्रलेशः स्याद् वातौ पूर्वोत्तरौ नहि ॥७०॥ न वर्षति यदा देवो दुष्टकाल सदादिशेत् । यत्राभ्रे स्वल्पके जाते मध्ये वातेऽल्पवर्षणम् ॥७१॥ यत्र मासविभागे च निर्मलं दृश्यते नभः । तत्र हानिश्च वृष्ठेश्च विज्ञेयं गर्भपातनम् ॥७२॥ यत्राभ्रं पश्ञ्चनाडीषु वातौ पूर्वोत्तरौ यदि । नत्र मासे भवेदृष्टिरित्येवं सर्वनिर्णय ॥७३॥ आषाढ्यां रात्रिकालेऽपि पवनः सर्वदिग्गतः । अरवृष्टैरपि च पूर्णिमा सुखदायिनी ॥ ७४ ॥ आग्रे यामे यदाभ्राणि वातौ पूर्वोत्तरौ यदि । गधे मासे तदा वृष्टिर्वाञ्छितादधिका क्षितौ ॥ ७५ ॥ आषायां च विनष्टायां नूनं भवति निष्कणम् । (५७) वर्ष में धान्य बहुत पुष्ट हों और जगत् में मंगल हो । यदि लेशमात्र भी पूर्व और उत्तर का वायु न चले ॥ ७० ॥ तो मेघ बरसे नहीं जिससे दुष्काल हो । जहां थोडे बादल हो और मध्यम प्रकार से वायु चले तो थोड़ी वर्षा हो ।। ७१ ।। जिस मास विभाग में आकाश निर्मल दीखें, उस मास में वर्षा की हानि और गर्भपात जानना || ७२ || जिस महीने की पांच बड़ी में बादल हो तथा पूर्व और उत्तर का वायु चले तो उस महीने में वर्षा हो । इसी तरह सब का निर्णय करें | ७३ || आषाढ "पूर्णिमाको रात्री के समय सब दिशा का वायु चले और बादल भी हो किंतु वर्षा न हो तो सुखदायक है ॥ ७४ ॥ यदि पूर्णिमा को प्रथम प्रहर में बादल हो तथा पूर्व और उत्तर का वायु चले तो प्रथम मास में पृथ्वी पर इच्छा से भी अधिक वर्षा हो ।। ७५ ।। यदि पूर्णिमा का क्षय हो तो धान्य की प्राप्ति न हो । ग्रहण वृक्षपात आदि के उपद्रवों से पूर्णिमा का "Aho Shrutgyanam" Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधमहोदये ग्रहणं वृक्षपातायैः सत्यं नश्यति पूर्णिमा ॥७६॥ प्रथमा घटिकाः पञ्च आषाढः पञ्च श्रावणः । पश्च भाद्रपदो मासस्तथा पञ्चाश्विनः पुनः ॥७॥ यत्राभ्राकुलनाडीषु वातौ पूर्वोत्तरौ स्फुटम् । तत्र मासे भवेदृष्टिातैरपि शुभैः शुभा ॥८॥ येषु मासेषु ये दग्धा गर्भाः पौषादिसम्भवाः । तन्मासे पश्चनाडीषु रात्रौ चन्द्रोऽतिनिर्मलः ॥७९॥ पौषादिसम्भवे गर्भे ध्रुवमुत्पातसम्भवः । तेनाषाढीदिवारात्रौ द्रष्टव्या वृष्टिहेतवे ॥८॥ यद्याषाढयामहोरात्रमत्रैर्वातः शुभैर्युतम् । तदा गर्भाः शुभा ज्ञेयाः शीतकालेऽपि धीमता ॥८१॥ एकमेव दिनं प्रेक्ष्यं वर्षज्ञानाय धीधनैः । क्षय होता है । ७६ ॥ पूर्णिमा की प्रथम पांच घड़ी आषाढ, दूसरी पांच घड़ी श्रावण, तीसरी पांच घड़ी माद्रपद और चौथी पांच घड़ी आश्विन महीना समझना ॥ ७७ ॥ इन में जो घड़ी में बादल हो तथा पूर्व और उत्ता का वायु स्पष्टतया चले तो उस महीने में वर्षा होती है, शुभ वायु चले तो शुभ जानना ।। ७८ ।। पौष आदि महीनों में उत्पन्न हुए गर्भ जिन महीनों में नष्ट हो, उस महीने की पांच घड़ी में चंद्रमा बहुत निर्मल रहे ॥ ७६ ॥ तो पौषादि मास में उत्पन्न हुए गर्भ में निश्चय कर के उत्पात होता है । इस लिये आषाढपूर्णिमा को वर्षा के लिये दिनरात देखना चाहिये ॥ ८० ॥ यदि आषाढ पूर्णिमा दिनरात बादल और अच्छे वायु से युक्त हो तो विद्वानों को शीत काल में भी वर्षा के गर्भ शुभ जानना ॥ ८१ ॥ यह एक ही दिन वर्षा जानने के लिये बुद्धिमानों को देखना चाहिये । इस दिन आठों ही प्रहर बादल और शुभ वायु हो तो शुभ होता "Aho Shrutgyanam" Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधिकारः (५९) अष्टयाम्यामभ्रशुभ-वातैर्वर्ष भवेच्छुभम् ॥८२॥ आषाढयां निर्मलञ्चन्द्रः परिवेषयुतोऽथवा । तदा जगत्समुद्धतुं शक्रेणापि न शक्यते ॥८३॥ कुहूतः षोडशे चाह्नि लक्षणं चिन्तयेदिदम् । अस्तं गच्छति तिग्मांशौ तस्माद्वर्ष शुभाशुभम् ॥८४॥ आषाढयां पूर्ववाते च सर्वधान्या मही भवेत् । आग्नेयवाते लोकाः स्युरस्थिशेषास्तु रोगतः ॥ ८५ ॥ दक्षिणे पवने राज्ञां महायुद्धं परस्परम् । नैर्ऋते निर्जला भूमिर्धान्यसङ्ग्रहकारणम् ॥८६॥ वारुणे प्रबला वृष्टिर्धान्यनिष्पत्तिहेतवे । वायव्ये मत्कुणास्तीडा मशकाद्यास्तथेतयः ॥ ८७ ॥ उत्तरे पवने लोका गीतमङ्गलपूरिताः । है ॥ ८२ ॥ आषाढ पूर्णिमा को चंद्रमा निर्मल हो अथवा मंडल सहित हो तो जगत् का उद्धार करने के लिये इंद्र भी शक्तिमान् नहीं होता ॥ ८३ ॥ आषाढ पूर्णिमा के दिन सूर्यास्त समय इन लक्षणों का विचार करें, जिस से शुभाशुभ वर्ष जान सकें ॥ ८४ ॥ सूर्यास्त समय पूर्व दिशा का वायु चले तो पृथ्वी सन प्रकार के धान्य वाली हो । आग्नेय कोण का वायु चले वो लोक रोग से अस्थिशेष हो जाय याने रोग अधिक चले ॥ ८५ ॥ दक्षिण का पत्रन चले तो राजाओं का परस्पर बड़ा युद्ध हो । नैर्ऋत्य कोण का वायु चले तो पृथ्वी जल रहित हो, इस लिये धान्य का संग्रह करना उचित है ॥ ८६ ॥ पश्चिम दिशा का वायु चले तो धान्य की प्राप्ति के लिये बहुत वर्षा हों । वायव्य कोण का वायु चले तो खटमल टीडी मच्छर आदि ईति का उपद्रव हों ॥ ८७ ॥ उत्तर दिशा का वायु चले तो लोगों में गीत मंगल अधिक हों और ईशान कोण का वायु चले तो सब " Aho Shrutgyanam" Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) मेषमहोदये धान्यं धनं तथैशाने सुखं धान्यसमर्थता ॥८॥ आषाढे घनशिखरं गर्जति यदि वाति चीत्तरः पवनः । दशमे मासि तदानीं भुवि मेघमहोदयं कुर्यात् ॥८६॥ अभ्रं विनाषाढपूर्णा वातौ पूर्वोत्तरौ यदि। यत्र यामाईके तत्र मासे वृष्टिहठाद्भवेत् ॥१०॥ न चेत्पूर्वोरत्तो वातौ न चाभ्रं नापि वर्षणम् । आषाढ्यां तर्हि विज्ञेयं दुर्भिक्षं लोकदुःखदम् ॥११॥ मार्गशीर्षमासे वायुविचार:मार्गमासे सिताष्ठम्यां पूर्वो वातः सुभिक्षकृत् । अन्यदिक्पवनः कुर्याद् दुर्भिक्षं भावि वत्सरे ॥१२॥ पौषमासे वायुविचार: एकादश्यां पौषकृष्णे दक्षिणः पवनो यदा । विद्युद्धादलसंयुक्तस्तदा दुर्भिक्षकारकः ॥९३ ।। पौषस्य शुक्लपञ्चम्यां तुषारः पवनी यदि । धान्य और सुखप्राप्ति हो तथा धान्य सस्ते हों ॥ ८८ ॥ आषाढ महीने में मेघगर्जना हो और उत्तर दिशा का वायु चले तो दशवें दिन पृथ्वी पर मेध का उदय जानना ॥८६॥ आषाढ पूर्णिमा को जिस यामाई में बादल न हो किंतु पूर्व और उत्तर का वायु चले तो उस महीना में वर्षा कचित् होती है ॥ ६० ॥ यदि पूर्णिमा को बादल न हो और पूर्व उत्तर का वायु भी न हो तो लोक को दुःख दायक ऐस! दुर्भिक्ष होता है ॥११॥ मार्गशिर शुक्ल अष्टमी के दिन पूर्व दिशा का वायु चले तो सुभिक्ष करता है और दूसरी दिशा का वायु चले तो अगला वर्ष में दुर्भिक्ष करता है ॥ ६२ ॥ पौष कृष्ण एकादशी को दक्षिण दिशा का वायु चले और बिजली तथा बादल हो तो दुर्भिक्ष कारक जानना ।। ६३ ॥ पौष शुक्ल पंचमी को "Aho Shrutgyanam" Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाताधिकारः तदा गर्भस्य पिण्डः स्याद्भाविवर्षहितावहः ॥१४॥ पञ्चम्यां व्योमखण्डेऽपियदाभ्रं शीतलोऽनिलः । विद्युन्मेघसमायुक्तस्तदा गर्भोदयो ध्रुवम् ॥६५॥ माघमासे वायुविचार:--- माचे शुक्लप्रतिपदि वायुर्वार्दलसंयुक्तः । तैलादिसर्वसुरभि महर्घ जायते भुवि ।। ६६॥ माघस्य शुक्लपञ्चम्यां वृष्टियुक्तोत्तरानिलः । अनावृष्टिर्भाद्रपदे कुर्याद्धान्यमहर्घता ॥१७॥ शुक्ले माघस्य सप्तम्यां वारुण्यां विद्युदभ्रयुक् । ऐन्द्रो वातोऽथ कौबेरो दिवानिशं सुभिक्षकृत् ॥१८॥ माघस्य नवमी कृष्णा दशम्येकादशी तथा । सवाता विद्युता युक्ताः कथयन्ति जलं बहु ॥९९॥ अमावास्यामहोरात्रं हिमो वातस्तु वृष्टियुक् । पौर्णमास्यां भाद्रपदे कुर्यान्मेघमहोदयम् ॥१०॥ तुषार युक्त वायु चले लो गर्भ का पिंड अगला वर्ष को हित कारक होता है॥ ६४ ॥ पंचमी के दिन आकाश में बादल हो, शीत वायु चले, बिजली चमके और वर्षा हो तो निश्चय से गर्भ का उदय जानना ॥ १५॥ . ___ माघ शुक्ल प्रतिपदा के दिन वायु और बादल हो तो तैल आदि सुगंधित यस्तु पृथ्वी पर महँगी हो ॥ १६ ॥ माघ शुक्ल पंचमी को वर्षा यक्त उत्तर दिशा का वायु चले तो भाद्रपद में वर्षा न हो और धान्य महँगे हों॥१७॥ माघ शुक्ल सप्तमी को पश्चिम दिशा में बिजली चमके और बादल हो तथा पूर्व और उत्तर दिशा का वायु दिन रात चले तो सुभिक्ष कारक होता है ॥ १८॥ माघ कृष्ण नवमी दशमी तथा एकादशी के दिन वायु चले और बिजली चमके तो बहुत वर्षा हो ॥६६॥ अमावास्या को दिनरात वर्षा यक्त शीतल वायु चले तो भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन महा वर्षा होती है ।। १००॥ "Aho Shrutgyanam" Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेषमहोदये फाल्गुनमासे वायुविचार:-- फाल्गुनेऽतिखरो वायुति पत्राणि पातयन् । दक्षिोऽतिमृदुश्चैत्रे मेघगर्भहिताय सः ॥१०॥ हुताशन्या दीप्तिकाले ऐन्द्रः स्यादतिवृष्टये । औदीच्या धान्यनिष्पत्यै दुर्भिक्षं दक्षिणोऽनिलः ॥१०२॥ वारुणो मध्यमं वर्षमुच्चैर्वातो भयङ्करः । चतुर्दिक्षु महराते राज्ञां युद्धं प्रजाक्षयः ॥१०३ ॥ श्रीहीरविजयसूरिकृतमेघमालायां प्रोक्तम्-- रजउच्छवम्मि वाओ उत्तरी वहइ धननिप्फत्ती । पुव्वाई नीरबहुलो पच्छिमवाएण करवरयं ।।१०४॥ दक्खिण वाय दुकालो अहवा वज्जेह वाउ चउदिसो । तह लोय उवद्दवणं जुज्झइ राया खओ लोए ॥१०५॥ __ यदि फाल्गुन मास में बहुत तीक्ष्ण वायु चल कर वृक्षों के पत्र गिगवें और चैत्र मास में दक्षिण दिशा का बहुत मृदु वायु चले तो मेघ के गर्भ को हित कारक है ।। १ ० १ ॥ फाल्गुन पूर्णिमा को होली जलाने के समय पूर्व का वायु चले तो बहुत वर्षा हो । उत्तर का वायु चले तो धान्य की प्राप्ति और दक्षिण का वायु चले तो दुर्भिक्ष हो ॥ १०२ ॥ पश्चिम दिशा का वायु चले तो वर्ष मध्यम रहें, ऊर्ध्व वायु चले तो भय दायक और चारों ही दिशा का महावायु चले तो राजाओं का युद्ध और प्रजा का विनाश हो ॥ १०३ ।। श्रीहीरविजयसूरिकृत मेघमाला में कहा है कि- रजः उत्सव (होली) के दिन उत्तर दिशा का वायु चले तो धान्य प्राप्ति अच्छी हो। पूर्व दिशा का वायु चले तो बहुत वर्षा हो, पश्चिम का वायु चले तो करवरा (कहीं थोडी वर्षा कहीं वर्षा नहीं) करें ॥ १०४ ॥ दक्षिण का वायु चले तो दुश्काल हो, यदि चारों ही दिशा का वायु चले तो लोक में उपद्रव, राजामों का युद्ध और प्रजा का क्षय हो ॥ १०५ ॥ कोई ऐसा भी कहते "Aho Shrutgyanam" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाताधिकार : कचित्तु पूर्ववाते तोडशुका मत्कुणा मूषकादयः । वारुणे तु युगन्धर्या निष्पत्तिहुला भुवि ॥ १०६ ॥ चैत्रमासे वायुविचारः चैत्रस्य शुक्लपक्षे चेचतुर्थी पञ्चमीदिने । वर्षणं प्राकशुभं किञ्चित् क्रमादुत्तरतोऽनिलः ॥ १०७ ॥ बादलाच्छादितं व्योम एतल्लक्षणदर्शने । गोधूमैः श्रावणे मासे त्रिगुणं लाभमादिशेत् ॥ १०८ ॥ इत्येवं ज्ञापको वातः संक्षेपेण समीरितः । ग्रन्थान्तराद्विशेषोऽपि विज्ञेयः प्राज्ञपुङ्गवैः ॥ १०९ ॥ ज्ञापकोऽपि स्थापकः स्याद, वृष्टेत्पादकोऽपि स । कचिज्जघन्यगर्भेण सद्यो वृष्टिविधानतः ॥ ११० ॥ यदुक्तं श्रीभगवत्यङ्गे २शतके ५ उद्देशके - "उदगग भे णं भंते ! उद्गगब्भेत्ति कालओ केयश्विरं होई ? गोयमा ! है कि पूर्व का वायु में टीडी शुक खटमल और चूहें आदि का उपद्रव हो और पश्चिम दिशा का वायु से युगंधरी (जूआर) की प्राप्ति पृथ्वी पर बहुत हो ॥ १०६ ॥ (६३) चैत शुक्ल चतुर्थी और पंचमी के दिन कुच्छ वर्षा हो और क्रम से उत्तर दिशा का वायु चलें ॥ १०७ ॥ तथा आकाश बादलों से आच्छा दित हो, ऐसे लक्षण देख पड़े तो गेहूँ से श्रावण महीने में त्रिगुणा लाभ हो ॥ १०८ ॥ इस प्रकार ज्ञापक वायु का संक्षेप से वर्णन किया, और विशेष जानना हो तो दूसरे ग्रन्थों से विद्वान् लोग जान सकते हैं ॥ १०६ ॥ ज्ञापक वायु वृष्टि का उत्पादक होने पर भी स्थापक वायु हो जाता है, वह कहीं कहीं जघन्य गर्भ से शीघ्र ही वर्षा का कारण हो जाता है ॥ ११ O 11 भगवती सूत्र शतक दूसरा उद्देशा पांचवां में कहा है कि- हे "Aho Shrutgyanam" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) मेघमहादये जहणणेणं एगं समयं उक्कोसेणं छमासा" इति । उदकगर्भः कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः पुद्गलपरिणामः तस्य चावस्थान जघन्यतः समयः समयान्तरमेव प्रवर्षणात्, उत्कृष्टतस्तु षएमासाः, षण्मासानामुपरि वर्षात् । एतेन प्रागुक्ताः सस्नेहवाताः पश्या वनस्पत्यादिहिता वायव इति सविस्तरं व्याख्यातम् । इति कतिपयवातैर्जातगर्भावदातै जलधरजलवर्षा रम्यवर्षाप्तिहेतुः । प्रथित इह जिनानामागमेषु द्वितीयः, कथित उचितवृत्या मेघमालोदयाय।। १११॥ इति श्रीमेघमहोदये वर्षप्रबोधापरनानि महोपाध्याय __ श्रीमेघविजयगणिविरचिते द्वितीयोवाताधिकारः। भगवन् ! उदक गर्भ की स्थिति कितने समय की है ? उत्तर - हे गौतम जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट मे छ: महीने की स्थिति है ।। इसी तरह गर्भ को उत्पन्न करने वाले अच्छे २ कितनैक वायुभों से मेव का पानी वर्षन। अच्छा वर्ष होने के हेतु हैं । जिनेश्वरों के आगमों में प्रसिद्र ऐसा दूसग अधिकार इस ग्रंथ में मेघमाला का उदय के लिये उचित वृत्ति में कहा गया है ॥ १११ ॥ श्रीसौराष्ट्रराष्ट्रान्तरर्गत-पादलिप्तपुरनिवासिना परिडतभगवानदासाख्य जैनेन विरचितया मेधमहोदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकित: द्वितीयो वाताधिकारः। "Aho Shrutgyanam" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ देवाधिकारः । देवः सदाभ्युदयतां रससम्पदेव, श्रीमान्महेन्द्रमहितप्रभुमारुदेवः । पुन्नागराजदितिजैः कृतसन्निधानाद वामेय एव भगवान् विलसन् महोभिः ॥१॥ परिणामोऽम्वुदादीनां प्रयोगाद वा स्वभावतः । द्विविधश्चागमे प्रोक्तः श्रीवीरेणाहता स्वयम् ।। २॥ आद्यो मेघकुमारादेरिवान्यः स्वीयकारणात् । तथापि प्रतियोद्धारस्तत्र देवा विराधिताः ॥३॥ तेन वर्षी विना सर्वेऽप्याराध्यास्त्रिदिवौकसः । विशेषाद् वज्रभृत्पाशी नागा भूताश्च गुह्यकाः ॥४॥ यदुक्तं श्रीभगवत्यङ्गे तृतीयशतके सप्तमोद्देशके जैसे मेघ ग्ससंपत्ति से उदय को प्राप्त होता है, वैसे महेन्द्रों से पूजित श्री आदिनाथप्रभु तथा नरेन्द्र नागेन्द्र और असुरों ने जिनका संनिधान किया हैं ऐसे और महान् तेज से शोभायमान है ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु सर्वदा अभ्युदय को प्राप्त हों ॥१॥ वर्षा आदि का परिणाम (भाव) प्रयोग से या स्वभाव से ये दो प्रकार के हैं, ऐसा श्री महावीर जिनने स्वयं आगम में कहा है ॥२॥ वर्ष का पहला कारण मेघकुमार आदि देवताओं के प्रयोग से होता है और दूसरा स्वाभाविक है । दूसरी स्वाभाविक है तो भी उसको विराधित देव रोकने वाले हैं ॥ ३ ॥ इस लिये यदि वर्षा न हो तो सब देवों का पूजन करना श्रेयः है । विशेष करके वज्र को धारन करने वाले इंद्र, पाश को धारन करने वाले वरुण, नागकुमार भूत और यक्ष आदि देवों का पूजन करना चाहिये ॥ ४ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ महोदये सक्करस गं देविंदरस देवरष्णो वरुणस्स महारष्णो इमे देवा आणावयणनिद्देसे चिट्ठति, तं जहा-वरुणकाइआइ वा, वरुणदेवकाइआइ वा नागकुमारा, नागकुमारीओ, उदहिकुमारा उदहिकुमारीओ, थणिअकुमारा थणिअकुमारीओ, जे यावण्णे तहृपगारा सच्चे ते तब्भत्तिआ, तप्पक्खिआ, तब्भारिया, सक्करस देविंदस्स देवर राणो वरुणस्स महारण्णी आणा - उबवाय वयगा निहेसे चिटुंति. जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेगं जाई इमाई समुप्पज्जंनि, तं जहा अड्वासाइ वा, मंदवासाइ वा, सुबुट्टीइ वा, दुबुडीइ वा, उदब्भेइ चा, उदप्पीलाइ वा, उव्वाहाइ वा, पत्रवाहाड़ वा, गामवाहाइ वा, जावसन्निवेसवाहाइ वा, पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, वसणन्भूया अणारिया जे यावण्णे तहपगारा ण ते सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो, वरुणस्स महारण्णो, (६६) · शक्र देवेन्द्र देवराज वरुण महाराज की आज्ञा में ये देव रहने वाले हैं-- वरुणकायिक वरुणदेवकायिक, नागकुमार नागकुमारियाँ, उदधि कुमार उदधिकुमारियाँ स्तनितकुमार स्तनितकुमारियाँ और दूसरे भी उस प्रकार के देव, ये सब उन वरुणदेवेन्द्र की मक्तिवाले, उन के पक्ष वाले और उन के ताबे में रहने वाले हैं । ये सब देव वरुण की आज्ञा में, उपपात में, कहने में और निर्देश में रहते हैं । जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में मेरु पर्वत की दक्षिण तरफ उत्पन्न होने वाले अतिवृष्टि, मंदष्वृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, उदकोद्वेद ( पहाड आदि में से पानी की उत्पत्ति), उदकोपील (तलाव आदि में पानी का समूह), अपवाह ( पानी का थोडा चलना), पानी का प्रवाह, गाम खिचाय जाना यावत् सन्निवेश का खिंचाना, प्राण क्षय, जनक्षय, धनक्षय, कुलक्षय, व्यसनभूत, अनार्य (पाप रूप ) और इस प्रकार के दूसरे सब भी शक देवेन्द्र देवराज वरुण महाराज से अनजान नहीं "Aho Shrutgyanam" Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाधिकारः (१७) अन्नाया अदिवा असुया अविण्णाया तेमि वा वमणकाइयाणं देवाणं इति । _ नन्वेवमेतेषां देवानां वृष्टिज्ञानित्वमेव न तु तत्कत्तृत्वमिति. किमेषामाराधनेनेति चेद् देवासुरनागानां तु कर्तृत्वं सादादागमे श्रूयते. यदुक्तं तत्रैव षष्ठे शतके पश्चमाद्देशके “अस्थि णं भंते ! किं देवो पकरेड, असुरो पकरेड, जागो पकरेड ? गोयमा! देवो विपकरेइ. असुरो वि पकरेइ, गागो विपकरेइ" इति । एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां मेघप्रमुखनागकुमारकृता वृष्टिः । ज्ञानाङ्गे सौधर्मदेवकृना वृष्टिः । राजप्रश्नीयोगाङ्गे समवसरणरचनार्थ देवकृता वृष्टिरप्युदाहर्त्तव्या । भगवतः श्रीवर्द्धमानस्य तिलस्तम्बो निष्पत्स्यतीति वचःसिद्वार्थ, यथा सन्निहितैव्यन्तरैः कृता वृष्टिः पञ्चमाङ्गेऽपि सूत्रे पठिता। उत्तराध्ययनेऽपि हरिकेशीये-"तहियं गन्धोदयपुष्फवास , हैं, नहीं देखे हुए नहीं हैं, नहीं सुने हुए नहीं हैं, और अविज्ञात नहीं हैं अर्थात् ये सब वरुण काइक देवों से अज्ञात नहीं हैं ॥ . इस तरह इन दवों को तो वृष्टि जानने वाले बतलाये, किंतु वृष्टि करने वाले नहीं बतलाये तो उसकी आराधना करने में क्या ? साक्षात् आगम में कहा है कि देव असुर और नागकुमार ये वृष्टि करने वाले हैं। भगवतीसूत्र का छट्ठा शतक का पांचवां उद्देशा में कहा है कि .... हे भगवन् ! तमस्काय में उदार-बड़ा-मेघ संस्वेद पाते हैं । संमूच्छे हैं ? और वर्षण वर्षे हैं ? हे गौतम ! ईं। ऐसे हैं । हे भगवन् ! क्या उसको देव करते हैं ? असुर करते हैं ? या नागकुमार करते हैं ? हे गौतम ! देव भी करते हैं, असुर भी करते हैं और नागकुमार भी करते हैं। इस तरह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में मेधकुमार अादि नागकुमारदेवों से की हुई वष्टि का वर्णन है । ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र में सौधर्मदेवसे की हुई "Aho Shrutgyanam" Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये दिव्या तहिं वसुहारा ग बुट्ठा। पहयाओ दुन्दुहीओ सुरेहिं, आगासे अहो दाणं च घुट्ट" । अत्र देवाद्युपलक्षणाद् योगलब्धिमहातपः कृतापि वृष्टिः प्रयोगजन्या मन्तव्या, प्रतीयते वासौ श्रीमद्भागवते पञ्चमस्कन्धे तुर्याध्याये- 'यस्य हीन्द्रः स्पर्द्धमानो भगवद्वर्षे न ववर्ष, तदवधार्य भगवान् ऋषभदेवयोगेश्वरः प्रहस्यात्मयोगमायया स्ववर्षमजनाभं नामाभ्यवहापत्' तस्य वर्षे मण्डले इत्यर्थः । एवं च लौकिकलोकोत्तरशास्त्रविरुद्धं देवाः किं कुर्वन्ति ? योगमन्त्रादिप्रभावात् किंस्यात् ? सर्व स्वकर्मकृत्यमित्यादि मूढवत्रो न प्रमाणीकार्यमित्यलं विस्तरेण । वृष्टि का वर्णन है । राजप्रश्नीयसूत्र में समवसरण की रचना के लिये देवों द्वारा की हुई दृष्टि का वर्णन है । एक समय भगवान् श्री महावीरस्वामी विहार कर रहे थे, तब रास्ता में एक तिलका पौधा ( छोड़ ) देख कर गोशाला ने पूछा कि यह उगेगा या नहीं ? तब भगवान् की सेवा में रहा हुवा सिद्धार्थ व्यन्तर बोला कि यह उत्पन्न होगा और इसमें तिल भी उत्त्पन्न होंगे, उसका यह बचन मिथ्या करने के लिये गोशाला ने उस पौधे को उखाड़ डाला, उस समय व्यन्तरों ने वहां जल दृष्टि की, जिस से उसकी जड़ कीचड़ में घुस जाने से तिल उत्पन्न हुआ । इत्यादि वर्णन पञ्चमांगसूत्र में है । उत्तराध्ययनसूत्र के हरिकेशीय अध्ययन में कहा है कि - देवों ने सुगंधी जल पुष्प और वसुधारा की वृष्टि की और आकाश में दुंदुभी का नाद करके अहोदानं ! अहोदानं ! ऐसी उद्घोषणा की। यहां देवादि उपलक्षण से योगके लब्धिके और महान् तपके प्रभाव से भी वृष्टि होती है, इसलिये वृष्टि प्रयोगजन्य मानना प्रतीत होता है ! भागवत के पंचम स्कंध के चौथे अध्ययन में कहा है कि---भगवान् ऋषभदेव से स्पर्द्धा करके इन्द्र ने वर्षान वर्षाईं, तबऋषभदेव भगवान् ―― "Aho Shrutgyanam" Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाधिकारः तनास्तिकमतं त्यक्त्वा प्रतिपद्याऽऽस्तिकागमम् । देवताराधने यत्नः कार्यः सम्यगशाप्यहो ! ॥५॥ रेवतीसूर्यसंयोगे वसन्ते समुदीत्वरे । महोत्सवाजिनस्नानं पुण्यपात्रं भिधीयते ॥६॥ प्रकारैः सप्तदशभिर्वाद्यनिर्घोषपूर्वकैः । गौरीणां गीतनृत्यायै-विधेयं जिनपूजनम् ॥७॥ दशदिक्पालपूजा च तथा नवग्रहार्चनम् । जलयात्रा जनैः कार्या रात्रिजागरणं तथा ॥८॥ यावतोष्णांशुना भोगे पौष्णस्य क्रियते दिवि । तावदिनेषु जैनार्चा स्याद् वृष्टेः पुष्टये भुवि ॥६॥ अवग्रहेऽप्यसौ रीतिः कर्त्तव्या देवतुष्टये। अपने आत्मयोग बल से वर्षाद वर्षा का अपना अजनाभ नाम यथार्थ किया । इस तरह लौकिक लोकात्ता शास्त्र विरुद्ध देव क्या करते हैं ? योगमंत्र आदि के प्रभाव से क्या होता है ? सत्र अपने कर्म से होता है इत्यादि मूढ जनों का बचन प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये। इत्यादि विशेष यिस्तार करने से क्या ? । ह सम्यग्दृष्टि जनो ! उस नास्तिकमत को छोड़कर और आस्तिक मत को स्वीकार कर देवता के अाराधन में यत्न करना चाहिये ॥ ५ ॥ रेवती नक्षत्र पर सूर्य आने से वसन्तऋतु में बड़े महोत्सव के साथ पुण्य पात्र ऐसा जिनस्नान करना चाहिये ॥ ६ ॥ सत्रह भेदी पूजा गाजे वाजे के साथ और सन्नारियों के गीत नृत्यादि से जिनेश्वर का पूजन करना चाहिये ।। ७ । साथ में दश दिक्पालों की और नन ग्रहों की भी पूजा कानी और जलयात्रा तथा त्रिजागरण भी करना चाहिये ॥८॥ जितने दिन आकाश में रेवती नक्षत्र का भोग सूर्य के साथ हो उतने दिन जिनाचन करना ये जगत में वृष्टि की पुष्टि के लिये है ॥६॥ वृष्टि रुक गई हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये नैवेद्यपूजा भूतानां बलिः कार्योऽन्त्यवामरे॥१०॥ जिनेन्द्रे पूजिते सर्वे देवाः स्युर्भुवि पूजिताः । यस्माद् भागवती शक्तिः सर्वदेवेष्ववस्थिता ॥११॥ विवेचनधिया केचिद् वैष्णवः शारोऽथवा । न करोति जिनार्चा चेत् तेन पूज्याः स्वदेवताः ॥१२॥ वैष्णवो जल गय्यायां मूर्ति पूजयते हरेः। शाङ्करो गङ्गया युक्तां हरमूर्ति घटान्विताम् ॥१३॥ यवनोऽपि महीशीतिं पराऽपि स्वस्वदेवताम् । पश्चिमायां जलस्थाने पूजयेद् वृष्टिपुष्टये ॥१४॥ सम्पूज्य भोगं निर्माय जपः सूर्यस्य सन्मुखैः । विधेयश्चातपे स्थित्वा जनैः स्वस्वगुरूदितः ॥१५॥ क्षुद्रैः कृता जीवहिंसा क्षुद्रदेवस्य तुष्टये । भी नैवेद्य पूजा आदि यही रीति देवों को संतुष्ट करने के लिये करना और अन्तिम दिन भूतों को बाकुल देना ॥ १०॥ एक जिनेन्द्रदेव को पूजने से समस्त देव जगत् में पूजित हो जाते हैं, क्यों कि भागवती शक्ति सब देवों में रही हुई है ॥११॥ पक्षपातबुद्धि से कोई विष्णुमत वाले या शिवमत वाले जिन पूजा न करे तो उन्हें अपने २ देवों को पूजना चाहिये ॥ १२ ॥ वैष्णव जलशय्या वाली विष्णु की मूर्ति को पूजे और शिवमत वाले गंगा युक्त पानी के घडा वाली शिवमूर्ति को पूजें ॥१३॥ यवन लोग मसजिद को पूजे, और दूसरे लोग अपने २ देवताओं को पश्चिमदिशा में जल स्थान पर दृष्टि के लिये पूजें ॥१४॥ अच्छी तरह भक्ति से पूजन कर, नैवेद्य चढा कर, सूर्य के संमुख वाम में रह कर अपने २ गुरु से कही हुई विधिपूर्वक जाप जपे ॥१५।। क्षुद्र जन सुद्र देवता की तुष्टि के लिये जीवहिंसा करते हैं उस से कचित् दैवानुकूलता से ही वृष्टि होती है । "Aho Shrutgyanam" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाधिकार तयापि क्रियते वृष्टिः कचिदवानुकूल्यतः ॥१६॥ शिष्टैने साऽनुमन्तव्या पन्था नाद्रियतेऽपि सः । यतः पवित्रा देवेन्द्र प्रमुखा वृष्टिनायकाः ॥१७॥ हिंसया ते न तुष्यन्ति प्रीयन्ते ते हि पूजया । नैवेद्यैर्विविधैधूपै-गन्धैः स्तोत्रैर्जपैस्तथा ॥१८॥ येऽनभिज्ञा जपार्चासु कृषिकर्मादितत्पराः । तैरप्यातपसंस्थानः कार्य त्रैरात्रिकं व्रतम् ॥१९॥ चतुर्विद्युत्कुमारीणां माघाऽसिताद्यवासरे। द्विसाहस्री जपः कार्य-स्तासां सन्तुष्टये बुधैः ॥२०॥ माघशुक्लचतुथ्यो तु नागा उदधयस्तथा । स्तनिता भवनाधीशा आराध्या जपकर्मभिः ॥२१॥ प्रत्येकं तु बिसाहस्त्री गणनं प्रतिवत्सरम् । विधेयं प्रीतये तेषां तद्देवीनां तथैव च ॥ २२॥ १६॥ यह जीवहिंसादि की विधि सज्जनों को माननीय नहीं है कारण यह राक्षसी मार्ग है, जिस से अनादरणीय है। वृष्टि के नायक तो पचित्र देवेन्द्र प्रादि देव ही हैं ॥१७॥ ये हिंसा से संतुष्ट नहीं होते हैं मगर पूजन से अनेक प्रकार के नैवेद्य से, धूप से, सुगंधित द्रव्यों से, स्तुति करने से और उन का ध्यान करने से ही संतुष्ट होते हैं ॥१८॥ जो खेती कार (किसान) आदि लोग ध्यान-पूजन में अनजान हैं, वे सूर्यसंमुख बैठ कर त्रैगत्रिक व्रत (तीन उपवास) करें ॥१६॥ सुज्ञ जन चतुर्विध विद्यत्कुमारियों को संतुष्ट करने के लिये माघ कृष्ण प्रति पदा के दिन दो हजार जाप करें । २०॥ माघ शुक्ल चतुर्थी के दिन नागकुमार, उदधि कुमार, स्तनितकुमार, और भुवनपति देवों की आराधना जप कर्म से करें ॥२१॥ प्रत्येक वर्ष उन प्रत्येक देवों का दो हजार जाप उन को संतुष्ट करने के लिये जपे । इसी तरह उन की देवियों का भी जाप करना ॥२२।। ऊपर मूल में लिखा हुआ "Aho Shrutgyanam" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधमहोदये ॐ ह्रीं नमो मलयू मेघकुमाराणां ॐ ह्रीं श्री नमोक्षज्यू मेघकुमारिकाणां वृष्टिं कुरु कुरु संवौषट् स्वाहाः । ॐ ह्रीं मेघकुमार आगच्छ आगच्छ स्वाहाः । एवं नामानि सर्वेषां जप्योनि वृष्टिहेतवे । जपात् सन्तर्पिताः सर्वे देवा वृष्टिविधायिनः ॥२३॥ ये ग्रामदेवता हिंस्रा नागा भूताश्च गुह्यकाः ।। ये चान्ये भगवत्याद्या-स्तान् नेवाशातयेद् बुधः ॥ २४ ॥ जिनार्चान्ते क्षेत्रदेवी कायोत्सर्गाऽऽविधानतः । सम्यगदृशामपि स्मार्या एवं भुवनदेवता ।। २५ ।। अथ देवाधिकारे देवयंत्रोदारः ----- प्रथमं नवकोष्टकयन्त्रं स्वस्तिकाकारं कृत्वा तत्र मध्यकोष्टके वागवीजं ब्रह्मरूपं '' विन्यस्य परितो 'नमो अरिहंतागां' इति लेख्यम् । ततो दक्षिणकोष्टके, मौ' इति शिवशक्तिबीजं महेश्वररूपं, तदधोऽपि 'अमला' इतिइन्द्राणीनाम लेख्यम्। ततो नैर्मृतकोष्टके 'अच्छरा' इति, पश्चिमकोष्टके 'शूचिमेघा' इति, वायव्ये 'नवमिका' इति, उत्तरकोष्टके 'ती' इति विष्णुबीजं तदधो 'रोहिणी' इति, ऐशानकोष्टके 'शिवा' इति, पूर्वस्यां 'पद्मा' इति, आग्नेयकोष्टके 'अंजू जाप विधि र्वक जपे । उसो तरह सब देवों के नाम का जाप वृष्टि के लिये जपे । उन का ध्यान करने से सब देवता संतुष्ट हो कर वृष्टि के करने वाले होते हैं ॥२३।। बुद्धिमान जन ग्रामदेवता हिंस्र देवता नागदेवता भूत देवता और यक्ष आदि देवों की और भगवती आदि देवियों की आशातना नहीं करें ।।२४।। सम्यग्दृष्टि जनो को भी जिनेश्वर के पूजन के बाद कायोत्सर्ग से रही हुई क्षेत्रदेवो का और भुवन देवी का विधि पूर्वक स्मरण करना चाहिये ।।२५।। "Aho Shrutgyanam" Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - देवाधिकारः । (७३) इति, एता अष्टौ इन्द्राग्रमहिष्यः । ततः स्वस्तिके पूर्वभागे 'नमो सिद्धाणं' दक्षिणस्यां 'नमो आयरियाणं'पश्चिमायां 'नमो उवज्झायाणं' उत्तरस्यां 'नमोलो सव्वसाहूणं' इति पञ्चपदानि लेख्यानि । स्वस्तिकान्तराले अग्निकोणे आवतः' १, नैर्ऋतौ 'व्यावतः'२, वायव्ये 'नन्दावर्त्तः' ३, ईशाने 'महानन्दावर्त्तः' ४, तदुपरि अग्नौ 'चित्रकनकायै नमः' १, नैऋते 'शतहदायै नमः' २, वायव्ये 'सौदामिन्यै नमः' ३, ईशाने 'चित्राथै नमः' ४ इति चतस्त्रो विद्युत्कुमारिका महत्तराः । ततः स्वस्तिकपूर्ववलनकोष्टके 'सोमाय नमः' तदने 'अ आ अं अः' तो द्वितीयवलनकोष्टके 'द्रोण' तदुपरितनकोष्टके 'औं' इति । ततो दक्षिणवलने 'यमाय नमः' तदने 'इ ई उ ऊ' ततो द्वितीयवलनकोष्टके 'आवतः' तदुपरितनकोष्टके 'क्रों' इति । ततः पश्चिमवलने 'वरुणाय नमः' तदने 'ऋ ऋल' ततो द्वितीयवलनके 'पुष्करावतः' तदुपरितनकोष्टके 'हौं' इति । तत उत्तरवलनके 'धनदाय नमः' तदने 'ए ऐ ओ औ' ततो द्वितीयवलनके 'संवत्तः 'इति तदुपरितनकोष्ठके 'क्षौं' इति । ततःप्रादिशि " ॐ ह्रीं नमो भगवओ पासनाहस्स धरणिंदपूइयस्स तस्स भत्तीए ॐ ह्रीं मेघकुमार आगच्छ २स्वाहा" स्वस्तिकाधो “ ॐ ह्रीं नमो वासुदेवाय क्षीरसागरशायिने शेषनागासनाय इन्द्रानुजाय अत्र आगच्छ २ जलवृष्टिं कुरु २स्वाहाः" एवं स्वस्तिकमापूर्य रेखान्तरे "ॐ ह्रींनमो मल्ल्यू मेघकुमाराणां ॐ ह्रीं श्री नमो दम्ल्यूँ मेघकुमारिकाणां महावृष्टिं कुरु २संवौषट् सव्वे गाागकुमारासवेणागकुमारीओ उदहिकुमारा उदहिकुमारीओथणियकुमाराथणियकुमारीओमहा "Aho Shrutgyanam" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) मेघमहोदये बुटिकरा वन्तु" । ततो द्वितीयवलये पूर्वादिचतुर्दिक्षु 'गोथुभ १- शिव २- शंख ३- मनशिल ४- नामानश्चत्वारो नागराजाः स्थाप्याः। चतुर्विदिक्षु 'कर्कोटकः २, कर्दमकः २, कैलासः३, अरु पत्रमाख्यश्च ईशानाग्निरक्षोऽनिलक्रमेण स्थाप्याः। जलयीजमातृका चतुर्दितु देया । तृतीयवलये “ॐ ह्रीं श्री नमो भगवते महेन्द्राय मेघवाहनाय ऐरावतस्वामिने वज्रायुधाय अत्रागच्छ वृष्टिं कुरु २ स्वाहा' इति पूर्वदिशि लिखनीयम् । दक्षिणस्यां "ॐ नमो भगवते श्रीसहस्रकिरणाय वरुणदेवाय मकरवाहनाय गभस्ति अर्यमरूपेण अत्रागच्छ वृष्टि कुरु २ स्वाहा' । पश्चिमायां "ॐ ह्रीं नमो भगवते वरुणदेवाय जलस्वामिने मकरासनाय रोहिणीमदनाचित्राश्यामासहिताय मेघनादाय अत्रागच्छ महाजलवृष्टिं कुरु २ स्वाहा'। उत्तरस्यां" ॐ ह्रीं नमो भगवते चन्द्राय अमृतवर्षिणे सौषधिनाथाय कर्कचारिणे इहागच्छ २ महारस वृष्टि कुरु २ स्वाहा' इति लेख्यम्। चतुर्थवलये याम्यदिशः प्रारभ्य “ॐ ह्रीं नमो धरणिंदस्स कालवाल-कोलवाल-सेलवाल-संखत्रालप्पमुहा सव्वे णागकुमारा णागकुमारीओ इह आगच्छंतु महाजलवुद्धिं कुणंतु" इति पश्चिम दिक् पर्यन्तं लेख्यम् । तत उत्तरदिशः प्रारभ्य “ॐ ह्रीं नमो भूयाणंदस्स कालवाल-कोलवाल-संखवाल-सेलवालप्पमुहा सव्वे णागकुमारा णागकुमारीओ इह आगच्छंतु महाजलवुट्टि कुणंतु" इति पूर्वदिपर्यन्तं लिखनीयम् । पञ्चमवलये दक्षिणदिश: प्रारभ्य “ॐ ह्रीं नमो जलकं तमहिंदस्स जल अलमार जलकान्त जलप्पहाईया उदहिकुमारा उदहिकुमारीयो य इह आगच्छन्तु” इत्यादि प्राग्वत् पश्चिमदिक् "Aho Shrutgyanam" Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाधिकारः पर्यन्तं लिखनीयम् । तत उत्तरदिशः प्रारभ्य “ॐ ह्रीं नमो जलप्पहिंदस्स जल जलतर जलप्पह जलकंताईया उदहिकुमारा उदहिकुमारीओय' इत्यादि प्राग्वत् पूर्वदिकपर्यन्तं लेख्यम् । षष्ठे वलये दक्षिणदिशः प्रारभ्य " ॐ ह्रीं नमो घोसमहिंदस्स आवत्त वियावत्त नंदियावत्त महानंदियावत्तप्पमुहा सन्चे थणियकुमारा थणियकुमारीओय इहागच्छन्तु महामेहबुद्धिं कुणंतु" इति पश्चिमदिकपर्यन्तम् । तथा उत्तरदिशः प्रारभ्य “ॐ ह्रीं नमो महाघोसमहिन्दस्स आवत्त वियावत्त महानंदियावत्त नंदियावत्तप्पमुहा थणियकुमारा थगिणयकुमारीओ य इहागच्छंतु महामेहबुटिं कुणंतु स्वाहा" इति पूर्वदिपर्यन्तं यावल्लिखनीयम् । अत्र चतुर्थपञ्चमषष्ठेषु त्रिषु वलयेषु सत्यवकाशे 'अल्ला सक्का सतेरा सोदामणी इंदा थणविज्जुयाइया णागकुमारीओ उदहिकुमारीओ थणियकुमारीओ वा ' इति यथास्थानं लिखनीयम् । ततः सप्तमवलये पूर्वदिशः समारभ्य “ ॐ ह्रीं मेघंकरा मेघवती सुमेघा मेघमालिनी तोयधारा विचित्रा च वारिषेणा बलाहिका इहागच्छन्तु" । दक्षिणस्यां " ॐ ह्रीं अलीता सोल्का सतहदा सौदामिनी ऐन्द्री घनविद्युत्प्रमुखा विद्युतकुमार्य इहागच्छन्तु" । पश्चिमायां "ॐ ह्रीं अमितरपरिसाए सद्धिं सहस्सा मज्झिमपरिसाए सत्तरं सहस्सा बाहिरपरि साए असीइं सहस्सा नागकुमारा इहागच्छन्तु "। उत्तरस्यां " ॐ ह्रीं सव्वे णागोदहिणियकुमारा सकस्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो आणाए महावुटिंकरा भवन्तु " । एवं सप्तमवलयं यंत्रं कृत्वा दिक्षु दिकारयुक्तं, विदिक्षु लाँकितं, सर्वत्र वज्राकारवेष्टि "Aho Shrutgyanam" Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) मेघमहोदये सम् । ॐ ह्रीं सर्वयक्षेभ्यो नमः १ । ' ॐ ह्रीं सर्वभूतेभ्यो नमः ' २ । 'ॐ ह्रीं पूर्णादिसर्वयक्षदेवीभ्यो नमः '३ । 'ॐ ह्रीं रूपावत्यादिसर्वभूतदेवीभ्यो नमः । ४ । इति पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरदिक्षु न्यासयुक्त कार्यम् । एतयंत्रं स्थाल्यांभूर्ये वा लिखित्वा आकाशे आतषेधार्य , धूपः कार्यः, तदने " चउक्कसायपडिमल्लल्लरणु , दुज्जयमयणघाणमुसुमूरणू । सरसपिअंगुवराणु गयगामिउ , जयउ पासु भुवणत्तयसामिउ ॥१॥ जसु तणुकंतिकडप्पसिणिद्धउ , सोहइ फणिमणिकिरणालिदउ । नं नवजलहरतडिल्लयलंछिउ , सो जिणु पासु पयच्छउ छिउ"॥२॥ ततः" भित्वा पाता. लमूलं चलचलचलिते व्याललीलाकराले, विद्युदण्डप्रचण्ड.. प्रहरणसहितैः सद्भुजैस्तजयन्ती । दैत्येन्द्रं वरदंष्ट्रा कटकटघटिते स्पष्टभीमाहासे , माया जीमूतमाला कुहरितगगने रक्ष मां देवि पद्मे" ॥३॥ इतिवृत्तत्रयं प्रतिमणिकं गुण्यते यावदष्टोत्तरशतं जापः कार्यः , अगरूतक्षेपकपूर्वकः मेघकुमाराध्ययनं स्वाध्याय व्याख्यानयोर्वाचनीयम् । इति श्रीमेघाकर्षणवृद्धयंत्रस्थापना। लघुयन्त्रस्थापना यथा--- षट्कोगा कयन्त्रं कृत्वा तत्र कोणेषु 'अल्ला सका सतेरा सोदामगी इंदा थणविज्जुया एताभ्यो नमः' इति प्रतिकोणं लिखनीयम् । मध्ये तु " ॐ भल्लाभल्ला भिल्लील्लाभमहासमुद्दवरसल्ला आभगज्जइ विज्जइ पूरइ गाभघणा धन्नजलतिणरसडाभ" १ । ॐ क्रों वरुणाय जलपतये नमः' अयं मन्त्री लिखनीयम् । षदकोणोपरि । ॐ ह्रीं मेघकुमार आगच्छ २ स्वाहा' ; षट्कोणस्य चतुर्दिक्षु 'रोहिणीमदनाचित्रा "Aho Shrutgyanam" Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाधिकारः श्यामाभ्यो नमः' इति, तदुपरि मायाबीज प्राकारत्रयवेष्टितम् । प्रान्ते क्रोंकारयुक्तं लेख्यम् । इदं यंत्र कुंकुमाघष्टगन्धेन लिखित्वा आतपे धार्यम् । तदने-" तुह समरणजलवरिससित्त माणवमइमेइणि, अवरावरसुहुमत्थबोहकंदलदलरेहणि । जायइ फलभरभरिय हरिय दुहदाहअणोवम , इय मइमेइणिवारिवाह दिस पास मई मम" ॥१॥ गाथेयम् 'अम्भोनिधौ क्षुभितभीषणनचक-' इत्यादिकं श्रीभक्तामरस्तोत्रकाव्यं वा गणनीयम् । तेनाचाम्लादितपसा सूर्याभिमुखाष्टोत्तरशतजापेन मेघाकर्षणम् । . एवं पुंसां कलामध्ये या मेघाकृष्टिरहता। ऋषभेण समाज्ञायि सा बोध्यागमशास्त्रतः ॥२॥ अथ प्रसंगान्मेघस्थैर्य न पि---- ॐ ह्रीं वायुकुमार आगच्छ २ स्वाहा । स्थापना यथाएतज्जापविधानेन मेघस्तम्भो विधीयते । यन्त्रं तथेष्टिकायुग्मे लिखित्वा न्यस्यते भुवि ॥ २७॥ मेघाकर्षणवर्षणादिकरणी विद्यानवद्याशया, देया मेघमहोदये रतिभृते छात्राय पात्राय सा । इस तरह पुरुषों की कलाओं में जो मेघाकृष्टि कला है वह ऋषभदेव ने बतलाई, ऐसा आगम शास्त्र से जानना ।। २६ ।। इस का जाप करने से या यंत्र को दो ईट पर लिग्बकर भूमि पर स्थापन करने से वृष्टि स्तंभित हो जाती है ॥ २७ १! __ मेघ के आकर्षण तथा बर्षण आदि करने वाली यह विद्या मेघमहोदय में प्रीति र ग्वने वाले योग्य विद्यार्थी को देनी चाहिये। देवों की श्रद्धापूर्वक जपादि शक्ति से उत्पन्न हुआ यही तीसरा हेतु सिद्धिरूप है और शास्त्रविष "Aho Shrutgyanam" Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेषमहोदये देवासक्तजपादिशक्तिजनितो हेतुस्तृतीयोऽप्ययं, सिद्धः शुद्धधियां प्रसिद्धिभवनं शास्त्रे तदायं मुदे ॥२८॥ इति श्री मेघमहोदये वर्षप्रबोधापरनाम्नि महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते देवाधिकारस्तृतीयः॥ यक प्रसिद्धि का भवन (स्थान) रूप यह हेतु शुद्ध बुद्धि वाले पुरुषों के प्रानंद के लिये है।। २८ ॥ इतिश्रीसौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्य जैनेन विरचितया मेघमहोदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितः तृतीयो देवाधिकार: । अथ चतुर्थः संवत्सराधिकारः। संवत्सरः सरसधान्यविधिं विधेयादु, धाराधरेण धरणेभरणेन सद्यः । गन्धछिपेन्द्र इव पुष्करपद्मशाली, श्रीनाभिसम्भवजिनेश्वरसन्निधानात् ॥१॥ द्रव्यतः क्षेत्रतो भावात् त्रिविधं वृष्टिकारणम् । संकलस्याथ कालोऽपि तुर्यो हेतुरुदीयते ॥२॥ मदोन्मत्त हाथी के जैसे कमल के सदृश कान्ति वाले श्रीऋषभदेवजिनेश्वर की कृपा से संवत्सर शीघ्र ही पृथ्वी का पोषण करने वाले बरसात से अच्छे रसवाले धान्य को उत्पन्न करें ॥ १ ॥ द्रव्य क्षेत्र और भाव ये तीन प्रकार वृष्टि के कारण हैं, गणना में काल को भी चोथा कारण कहा है ॥ २ ॥ शालिवाहन शक, विक्रम संवत्सर, कर्क मकरादि अयन का आद्य "Aho Shrutgyanam" Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः (७९) अथ वर्षद्वारागिा--- शाकं वत्सरमायनाद्यदिवसं मासं सपक्षं दिन, पीताब्धि नृपमनिधान्यपरसादीशाः परे पूर्वगाः। अब्दस्यापि च जन्मलग्नमनिलं विद्युद्युताभ्रोदय, ___ गर्भ वारिमुचां तिथिं ग्रहगणं वारं सनक्षत्रकम् ॥३॥ कपूरसर्वतोभद्रचक्रे योगान् जलोदयान् । शकुनांश्च विमृश्यैव ज्ञेयं वर्षशुभाशुभम् ॥४॥ शाकस्त्रिघ्नो युतो द्वाभ्यां चतुर्भागेऽक्शेषितः । समेऽके स्यादल्पवृष्टिः प्रचुरा विषमे पुनः ॥५॥ राशीश्वरोर्षपयुक् त्रिगुणो, लाभः शरात्यस्तिथिभक्तशेषः। लब्धे त्रिगुपये शरयोजितेऽस्य, बाणेन्दुभागे व्यय एव शिष्टः। राशिस्वामी वर्षराजस्य दशावर्षधुवयुक्तः क्रियते, ततस्त्रिगुणीकार्यः, तत्र पञ्चभियुक्तः कार्यस्तस्य पञ्चदशभिर्भागे शेषाङ्कत प्रायः स्यात् । पश्चालब्धाङ्के त्रिगुणीकृते पञ्चभिदिन,मास, पक्ष, दिन, अगस्त्यतारा, वर्ष का राजा और मन्त्री,धान्येश, रसेश, वर्ष का जन्मलग्न, वायु, बीजली के साथ बद्दल का होना, मेघ का गर्भ,तिथि, ग्रहसमूह, वार, नक्षत्र,कर्पूर चक्र, सर्वतोभद्रचक, जल के उदय ( वर्षा ) का योग और शकुन इत्यादिक का विचार करकेही वर्ष का शुभाशुभ जानना ॥३-४॥ शालिवाहन शक को त्रिगुणा करके दो मिलाना, उसमें चार का भाग देना, जो समशेष बचे तो अल्पवृष्टि और विषम शेष बचे तो बहुत वृष्टि हो ॥५॥ राशि के स्वामी और वर्ष के स्वामी के अष्टोत्तरी दशा के ये दोनों ध्रवाङ्क मिलाकर त्रिगुणा करना, इसमें पांच मिलाकर पंद्रह से भाग देना, जो शेष बचे, वह लाभ-आय है और लब्धाङ्क को त्रिगुणा करके पांच मिलाना इसमें पंद्रह से भाग देने से जो शेष बचे वह 'छाय' है यह वर्ष का आयव्यय है ॥ ६॥ कोई बारह राशियों के आय और व्यय का मिलान करते हैं, "Aho Shrutgyanam" Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) मेघमहोदये युक्तस्तस्य पञ्चदशभिर्भागे शेषाङ्कतो व्ययः स्थादित्यर्थः । राशिबादशकस्यायो व्ययाङ्कोऽपि च योज्यते । आयेऽधिके सुभिक्षं स्याद् दुर्भिक्षमधिके व्यये ॥७॥ चतुगुणीकृत्य सलब्धमाय, मासैहृते स्यादिह मासिकायः। एवं हि संयोज्य दिनं विदध्याद आयव्ययः स्यादिति संक्रमादेः।८ विक्रमाङ्कः शकस्याङ्क-युक्तो द्विघ्नो विभाज्य च। सप्तभिस्तत्र यल्लब्धं तस्मात् फलमुदीयते ॥६॥ एके षट्के च दुर्भिक्षं सुभिक्षं भुजवेदयोः । समता रामशरयोःशुन्ये रौरवमादिशेत् ॥१०॥ कचित्संवत्सरं शाकं मीलयेत् त्रिगुणोऽघमः । पञ्चनामयुतः सप्त-विभक्तोऽस्य फलं क्रमात् ॥११॥ सुभिक्षं भुजवेदाभ्यां दुर्भिक्ष तु त्रिपञ्चके। शून्ये षट्के रौरवं स्याद् एकेन समतामता ॥१२॥ आय अधिक हो तो सुकाल और व्यय अधिक होतो दुकाल जानना ॥ ७ ॥ जो वर्ष की आय है उसको और लब्धाङ्क को मिलाकर चार गुणा करना, इसमें बारह से भाग देने से जो शेष रहे वह मर सिक आय है । इस तरह मासिक आय को तीस से भाग देने से दिन की आय हो जाती है। यह संक्रान्ति के दिन से आय व्यय का विचार करना ॥८॥ विक्रमसंवत्सर और शालिवाहन का शकसंवत्सर ये दोनों मिलाकर द्विगुणा करना, इसमें सात का भाग देना, जो शेष बचै उसका फल कहना ॥ ६ ॥ एक या छ बचै तो दुकाल, दो या चार बचै तो सुकाल, तीन या पांच बचै तो समान (मध्यम) और शून्य शेष बचै तो रौरव ( भयंकरदुःख ) हो॥ १० ॥ दूसरा पाठान्तर --संवत्सर और शक को मिलाकर त्रिगुणा करना, उसमें पांच नाम मिलाकर सात से भाग देना, जो शेष बचै उसका फल कहना !! ११ ॥ शेष दो या चार हो तो सुकाल, तीन या पांच हो तो दुष्काल, शून्य या छः होतो रौरव "Aho Shrutgyanam" Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार (८१) पाठान्तरे-संवत्सरसमायुक्ता-स्त्रिगुणाः पञ्चभिर्युताः सप्तभिस्तु हरेद्भागं शेषं वर्षफलं मतम् ॥१३॥ अत्रापि संवत्सरशब्देन शाकसंवत्सर एव ग्रायःस चापाढादिरेव, य आषाढे संवत्सरो लगतिस शाकसंवत्सरो गगयते इत्यर्थः । उदाहरणं यथा-संवत् १६८७ वर्षे आषाढादि शकसंवत्सरः१५५२ ततः पञ्चदशत्रिगुणीकरणे जातं पञ्चचत्वारिंशदु ४५, द्विपञ्चाशतस्त्रिगुणीकरणे जातं षट्पञ्चाशदुत्तरंशतं १५६, तस्मिन् पञ्चचत्वारिंशद् योगेजातं २०१ तत्र पञ्चमीलने २०६ मतभिर्भागे शेषं त्रयम् । ततो 'दुर्भिक्षं तु त्रिपञ्चके' इतिवचनात् सप्ताशीतिके दुष्काल इति । अत्र पाठान्तराणि बहूनि यथा--- शाकं च त्रिगुणं कृत्वा सप्तभिर्भागमाहरेत् । शेषं च द्विगुणीकृत्य पञ्च तत्र नियोजयेत् ॥१४॥ और एक शेष हो तो समान फल हो ॥ १२ ॥ पाठान्तर शकसंवत्सर के ( शताब्दी)का और वर्ष को त्रिगुणा कर इकट्ठा करना, उसमें पांच मिलाकर सात से भाग देना,शेष बचै उसका फल कहना ॥ १३ ॥ यहां भी संवत्सर शब्द से शकसंवत्सर ही जानना | आषाढ मास से जो वर्ष प्रारंभ होता है उसको शकसंवत्सर कहते हैं । उदाहरण ---विक्रम संवत् १६८७ वर्ष में अाषाढादिक शकसंवत् १५५२ है,उसमें सौका ( शताब्दी) १५ को तीन गुणा किया तो ४५ हुआ और वर्ष ५२ को त्रिगुणा किया तो १५६ हुआ ये दोनों को मिलाया तो २०१ हुआ इसमें ५ मिलाया तो २०६ हुआ इसमें ७ से भाग देने से शेष बचे, इसलिये विक्रमसंवत्सर १६८७ में दुष्काल कहना । शक संवत्सर को त्रिगुणा कर के सात से भाग देना, जो शेष रहे, उसको द्विगुणा कर पांच मिला देना ॥ १४ ॥ अन्यत्-संवत्सर को द्विगुणा "Aho Shrutgyanam" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) मेघमहोदये कचित्-- वत्मरं द्विगुणीकृत्य विभिन्यून तुकारयेत् । सप्तभिस्तु हरेद्भागं शेषं मंवत्मरे फलम् ॥१५॥ आदिचतुष्के दुर्भिक्ष सुभिक्षं च द्विपञ्चके । निषट्के मध्यमं कालं शून्ये शून्यं विनिर्दिशेत् ॥ १६ ॥ केचिनु एतत्करणेन उष्णकालिकधान्यपरिज्ञानं बदन्ति । पुनरप्यस्यैव पाठान्तरं यथावत्सरं द्विगुणीकृत्य त्रिभिन्यूने कृते ततः । नवभिर्भाज्यते शेष संवत्मरशुभाशुभम् ॥ १७ ॥ शेषे वित्रिचतुष्के च सुभिक्षं वर्षमुच्यते । षडेकशून्यैर्मध्यस्थं हीनं पश्चाष्टमप्तसु ॥ १८ ॥ कचित्-संवत्मराम्ब्रिगुणाः सप्तभक्तोऽवशेषिते । कृते पञ्चगुणो भागन्त्रिभिस्तेन फलं मतम् ॥ १० ॥ . एकशेषे सुभिदं स्याद् द्विशेषे मध्यमा ममा । शून्ये दुर्भिक्षमादेश्यं वर्षे तत्र शुभाशुभम् ।। २० ॥ कर तीन घटा देना, इसमें मातका भाग देना जो शेष बचे उससे वर्ष फल कहना ॥ १५ ॥ शेष एक या चार हो तो दुष्काल, दो या पांच हो तोसुकाल, तीन या छ हो तो मध्यम समय, और शून्य हो तो शून्यफल कहना ॥१६॥ कितनेक लोग तो इस गति से उज्या ऋतु के धान्य के परिज्ञान को कहते हैं। इस का पाठान्तर --- संवत्सर को द्रिगुणा कर तीन वटा देना, उस में नव से भाग देकर शेष से वर्ष का शुभाशुभ फल कहना ॥ १७ ॥ शेष दो तीन या . चार हो तो सुकाल, छ एक या शून्य हो तो मध्यम, पांच, आट और सात हो तो हीनफल कहना || १८॥ क्वचित् संवत्सर के अंकों को त्रिगुणा कर मात का भाग देना, जो शेष बचे उम को पांच गुणा कर तीन का भाग देना और शेष से फल कहना ।। १६ ।। शेष एक बचै तो मुकाल, दो बचै तो मध्यम और शुन्य बचै तो दःकाल जानना ।। २० ॥ रुद्रदेव ने कहा है कि "Aho Shrutgyanam" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः (८३) रुद्रदेवस्तु - संवत्सरस्य ये अंका अधोलिखिताः क्रमात् । बेदासहिता ये तु मुनिभिर्भागमाहरेत् ॥ २१ ॥ आधे चतुष्के दुर्भिक्षं सुभिक्षं द्विकपञ्चके । त्रिषष्ठे मध्यमः कालः शून्ये शून्यं विनिर्दिशेत् ।। २२ ।। तथा - काली विक्रमभूपतेः प्रथमतस्त्रिस्नाडयते मीलनात, पश्चात्पञ्चयुते तुरङ्गमहते शेषाङ्कमालीचयेत् । द्वाभ्यां वह्निभिरिन्द्रियै रमयुतैः कालांतमत्वं वदेत्, शून्येनामनां चतुःशशधरे स्यान्मध्यमत्वं सदा ॥ २३ ॥ अत्र यदि पञ्चैव योज्यन्ते तदा सप्तवर्षानन्तरमवश्यं शून्यं समायानि, न च नत्र दुष्कालनियम:, तेन पञ्च योगकरणमिति कोऽर्थः ? पञ्च मनुष्यांक्ता अङ्काः क्षेष्या इति इष्ट वचनम् । F संवत्सर के अंक और शताब्दी के अंक ये दोनों नीचे नीचे लिख कर मिला देना, इस में पांच और मिला कर सात का भाग देना, जो शेष बचे उस का फल कहना || २१ | जो शेष एक या चार हो तो दुष्काल, दी या पांच हो तो मुकाल, तीन या छ हो तो मध्यम और शून्य हो तो शून्य फल कहना ॥ २२ ॥ विक्रम संवत्सर की शताब्दी को और वर्ष को त्रिगुणा कर इकट्टा | करना, इस में पांच और मिलाकर सात से भाग देना, जो शेष बचै उसका फल विचारना शेष दो तीन पांच या छ बचे तो उत्तम समय कहना, एक या चार चर्चे तो मध्यम समय कहना और शून्य शेष बचै तौ अधम समय कहना ॥ २३ ॥ यहां यदि पांच मिलातें तो सात वर्ष पर्यंत क्रमशः अवश्य शून्य आती है, इससे यहां दुष्कालका नियम नहीं इसलिये पंच योग का अपांच मनुष्योक्त अंको की मिलाना यही इष्ट है । फिरभी संवत्सर के अंकों को द्विगुणा कर एक मिला देना, इसमें सातसे भाग देकर शेषसे वर्ष म्हा, "Aho Shrutgyanam" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये कचित् पुनः-संवत्सराङ्क द्विगुणीकृत्यैकं मीलयेस्ततः । सप्तभिर्भागदानेन योध्यं वर्षशुभाशुभम् ॥२४॥ यथोदाहरणम्- संवत् १६८७ द्विगुणीकरणे १७४ एकयोगे १७५ सप्तभिर्भागे शून्यं तेन दुर्भिक्षम् । संवत्सरे द्विगुगिगते त्रिभिरन्वितेऽथ, नन्दैविभाजनमनुष्यफलं तु शेषे । युग्मे२ त्रिके३ जलनिधौ४ च सुभिक्षमेके, षड्दै नन्दयो श्च समतापर ५-७-८ तोऽतिदौस्थ्यः॥२५॥ अत्र संवत्सरशब्देन केचिद विक्रमराजमंवत्सरंगणयन्ति तन्न युक्तं,सर्वत्र ज्योतिश्चरैःशाकस्यैव गणनात्, तेन विक्रमकाल इति कचिद् न भ्रमितव्यं, विक्रमकालस्य कालो विनाश इति। अर्थात्-शाकं त्रिनिघ्नं मुनि भाजित च, शेषं द्विनिनं शरसंयुतं च। वर्षा च धान्यं तृणशीततेजो-वायुश्च वृद्धिः क्षयधिग्रहौ च।।२६।। का शुभाशुभ कहना ॥ २४ ।। उदाहरण--- संवत् १६८७ है उसको द्विगुणा किया तो १७४ हुए इसमें एक और मिलाया तो १७५ हुए, उसको ७ से भाग दिया तो शून्य शेष रहा । इसलिए उस वर्ष दुष्काल जानना ।। फिर भी.. संवत्सरको द्विगुणा कर तीन मिला देना, उसमें नवसे भाग देकर शेष का फल कहना ! जो शेष एक दो तीन या चार बचै तो सुकाल, छ या नव बचैतो समान और पांच सात या आठ बचैतो अधम समय जानना ।। २५॥ यहां संवत्सर शब्दसे कोई विक्रम संवत्सर गिनते हैं यह योग्य नहीं है, सर्वत्र ज्योतिषियों को शालिवाहन का शक संवत्सर ही जानना चाहिये । इस लिए कहीं विक्रम काल का भूम नहीं करना चाहिये । शक संवत्सर को त्रिगुगह। कर सातसे भाग देना और शेषको द्विगुणा कर इसमें पांच मिला देना, तो वर्षा धान्य तृण शीत तेजः वायु वृद्धि क्षय और विग्रह होते हैं ॥ २६ ॥ इमका फल ...--- वर्षके विश्वाको त्रिगुणा कर इसमें तीन मिला देना उसको "Aho Shrutgyanam" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सर धिकारः (८५) यस्य फलम् - वर्षाविंशोपकाः सर्वे त्रिगुणास्त्रिभिरूनिताः । सप्तभिस्तद्विभागेन शेषं संवत्सरे फलम् ||२७|| चन्द्रे वेदे च दुर्भिक्षं सुभिक्षं युग्मवाणयोः । त्रिषष्ठे मध्यमः कालः शून्यै रौरवमादिशेत् ॥२८॥ अथ षष्टिसंवत्सरम् संवद्विक्रमराजस्य न्यूनः शरगुगोन्दुभिः । शाकोऽयं शालिवाहस्य भूद्वियुक् षष्टिभिर्भजेत् ॥२६॥ शेषेषु प्रभवादीनां वर्षादौ नाम जायते । प्रवृत्तिः षष्टिवर्षाणां गुरोर्मध्यमभोगतः ||३०|| अत्र स्थूलमतन संवत्सरप्रवृत्तिर्यया वारे वेदा ४ स्तिथौ शैला ७ घटीषु द्वितयं क्षिपेत् । पूर्वसंवत्सराद् भावि-वत्सरागमनिर्णयः ॥३१॥ प्रभवो विभवः शुक्लः प्रमोदोऽथ प्रजापतिः । अङ्गिराः श्रीमुखो भावो युवा धाता तथैव च ॥३२॥ ईश्वरो बहुधान्यश्च प्रमाथी विक्रमो वृषः । सातसे भाग देकर शेषसे वर्षका फल कहना ॥ २७ ॥ शेष एक या चारहो तीन या छ हो तो मध्यम काल २८ ॥ इति शाकः ॥ तो दुष्काल, दो या पांच हो तो सुकाल, और शून्य हो तो रौरव ( भयानक ) हो ॥ विक्रमसंवत्सर में से १३५ घटादेने से शालिवाहन का शक संवत्सर होता है । इसमें बारह मिलाकर साठ का भाग देना ॥ २६ ॥ जो शेष बचै वह प्रभव आदि वर्ष का नाम जानना | बृहस्पति के मध्यम भोग से साठ वर्षों की प्रवृत्ति होती है ॥ ३० ॥ अथवा वार में चार, तिथि में सात और घड़ी में दो मिलाने से भावी वर्ष का निर्णय होता है ॥ ३१ ॥ साठ संवत्सरों के नाम-प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विम, वृष, चित्रभानु, सुभानु "Aho Shrutgyanam" Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ महोदये चित्रभानुः सुभानुश्च नारणः पार्थिवो व्ययः ||३३|| सर्वजित् सर्वधारी च विरोधी विकृतिः खरः । नन्दना विजयश्चैव जयो मन्मथदुर्मुखौ ||३४|| हेमलम्बो विलम्बश्च विकारी शर्वरी प्लवः । शुभकृच्छोभनः क्रोधी विश्वावसुपराभवौ ||३५|| प्लवङ्गः कीलकः सौम्यः साधारणो विरोधकृत् । परिधावी प्रमाथी च नन्दाख्यां राक्षसो नलः ॥३६॥ पिङ्गलः कालयुक्तश्च सिद्धार्थो रौद्रदुमना । (८६) दुन्दुभी रुधिरोद्गारी रक्ताक्षः क्रोधनः क्षयः ॥३७॥ स्वनामसदृशं ज्ञेयं फलमत्र शुभाशुभम् । मावे गुरुर्धनिष्ठांशे प्रथमे प्रभावोदयः ||३८|| यदुक्तं रत्नमालायाम् - तपसि खलु यदासावुद्रमं याति मासि, प्रथमलवगतः सन् वासवे वासवेज्यः । निखिलजनहितार्थ वर्षवृन्दे गरिष्ठः, प्रभव इति स नाम्ना जायतेऽब्दस्तदानीम् ||३९|| 7 तारण, पार्थिव, व्यय, सर्वजित्, सर्वधारी, विरोधी, विकृति, खर, नन्दन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्ब, बिलम्ब विकारी, शर्वरी, प्लव, शुभकृत् शोभन, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्लवंग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत् परिधावी प्रमाथी, नन्द, राक्षस, नल, पिङ्गल, कालयुक्त सिद्धार्थ, रौद्र, दुर्मति, दुन्दुभि, रुधिरोद्द्वारी, रक्ताक्ष, क्रोधन, और क्षय ॥ ३२- ३७ ॥ ये साठ संवत्सरों के नाम हैं उनके नामसदृश शुभाशुभ फल जानना | माघमासमें धनिष्ठा के प्रथम अंश पर बृहस्पति आनसे प्रभव नामका वर्ष प्रारंभ होता है ||३८|| रत्नमाला में भी कहा है कि मात्रमासमें निष्ठा के , "Aho Shrutgyanam" Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार : (८७) सिद्धान्ते तु - कति णं भंते! संवरा पणगता? गोयमा ! पंच मवच्लरा पण्णत्ता नजहा- णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छ रे पमाणसंचच्छरे लक्खणसंवच्छ रे, सर्णिचरसंवच्छरे । णक्खतसंवरे कह विहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुवालसविहे - साबणे भद्दवए आसोए कत्तिए मगसिरे पोसे माहे फरगुणे चिसे वसा जिट्टे आसाढे; जं वा बुहम्फइ महग्गहे दुवालस संवच्चछरेहि पणक्खत्तमंडले समाणे इसेणं णक्खत्त संचच्छरे । जुगसंच्छरे मं कइ विहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते. तंजहा - चंदे चंदे अभिवदिए चंदे अभिवढिएचेव सेत्तं जुगसंवच्छ रे । पमाण संवछरे गं भंते ! कह विहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते. नंजहा णक्खत्ते चंदे उऊ आहचे अभिवडूिढए सेत्तं प्रमाणसंवच्छ रे । लक्खणसंवच्छरे कह विहे पण्णत्ते ? प्रथम अंश पर बृहस्पति का उदय हो तब समस्त मनुष्यों के हित के लिये साठ वर्ष से प्रथम प्रभव नाम का वर्ष प्रारंभ होता है ॥ ३६ ॥ आ हे भगवन् ! संवत्सर कितने हैं ? गौतम ! संवत्सर पांच हैं--नक्षत्र-संवत्सर १ युगसंवत्सर २, प्रमाणसंवत्सर ३, लक्षण संवत्सर ४, और शनैश्वरसंवत्सर ५ । चन्द्रमा को पूर्ण नक्षत्र मण्डल भोगनेमें जितना समय व्यतीत हो उसको नक्षत्रमास कहते हैं, यह बारह हैं— श्रावण, भाद्रपद, श्विन, कार्त्तिक, मार्गशिर, पौष, मात्र, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख ज्येष्ट, और आषाढ, इन बारह मासों का एक नक्षत्रसंवत्सर होता है, उसकी दिन संख्या ३२७६ हैं॥१॥युगंसंवत्सर पांच प्रकारका है-चंद्र, चन्द्र, अभिवर्द्धित, चन्द्र और अभिवर्द्धितसंवत्सर । कृष्ण प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक २६ ३२ इतने दिन ६२ के प्रमाण वाला एक चन्द्रमास होता है, ऐ से बारह मासों का एक चंद्रसंवत्सर होता है, उसकी दिनसंख्या ३५४१२ है । इस तरह ३१९२१ दिन के प्रमाण वाला १२४ एक अभिवर्द्धित मास होता है, ऐसे बारह मासों का एक अभिवर्द्धितसंवत्सर " Aho Shrutgyanam" Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) मेघमहोदये गोयमा ! पचविहे तंजहा -- समगं गाक्खन्त जोगं जोयंति समगं उऊ परिणमन्ति । गाखुण्ह णाइसीओ बहूदओ होइ गाक्खतो ॥१॥ ससिसगलपुण्णमासी जोयंति विसमचारिणक्खता । कडूओ बहूदओआ तमाह संवच्छरं चदं ||२|| विसमं पवालिगो परिणमंति अणऊसु देति पुप्फफलम् । वासं पण सम्म वासह तमाहु सवच्छरं कम्मं ॥ ३॥ पुढविदगाणं तु रसं पुष्पफलाणं च देह आइचो । ऋप्पेण विवासेणं सम्मं निष्कहोता है । इन पांच संवत्सरों के समूह को युग कहते हैं और अभिवर्द्धित संवत्सर में एक अधिक मास होता है || २ || प्रमाणसंवत्सर पांच प्रकार का है -नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्द्धित । नक्षत्र चन्द्र और अभिवर्द्धितसंवत्सर का लक्षण पहले कह दिया है । ऋतु - तीस अहोरात्र का एक ऋतुमास, ऐसे बारह मास का एक ऋतुसंवत्सर होता है, उसकी दिम संख्या ३६० पूरी है । आदित्य- . ३०१ दिन का एक आदित्य (सूर्य) २ मास । ऐसे बारह मास का एक आदित्य ( सूर्य ) संवत्सर होता है उसकी दिन संख्या ३६६ है ॥ ३ ॥ लक्षण संवत्सर-संवत्सर के नक्षत्रादि लक्षण प्रधान को लक्षणसंवत्सर कहते हैं, वह पांच प्रकार का है- जिस जिस तिथि में जो जो नक्षत्र आने को कहा है उन उन तिथियों में वह आजाय, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को कृत्तिका, माघ की पूर्णिमा को मघा चैत्री पूर्णिमा को चित्रा इत्यादि । किन्तु “ जेट्ठो वच्चइ मूलेण सावणो वचइ धणिहिं | अदासु य मग्गसिरो सेसा नक्खत्तनामिया मासा ॥ १ ॥ अर्थ --- ज्येष्ठ पूर्णिमा को मूल, श्रावण पूर्णिमा को धनिष्ठा और मार्गशिर पूर्णिमा को आर्द्रा नक्षत्र होता है और बाकी नक्षत्र के नाम सदृश मास की पूर्णिमा होती है । समकालीन अनुक्रम से ऋतु परिवर्तन हो, कार्तिक पूर्णिमा पीछे हेमंतु ऋतु, पौष पूर्णिमा पीछे शिशिर ऋतु, माघपूर्णिमा पीछे वसन्त ऋतु इत्यादि समानपन से रहें । जिस वर्ष में अधिक उष्णता न हो, 23 1 " Aho Shrutgyanam" Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः ज्झए सस्सं ॥४॥ प्राइञ्चतेयतविया खणलवदिवसा उऊ परिणमंति । पूरेइरेणुथलताइं तमाहु अभिवडिढयं नाम ॥५॥ सणिच्छरसंवच्छरे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठावीसहविहे पण्णत्ते. तंजहा-- अभिई सवण धणिहा सयभिसया दो अ हुंति भवया रेवइ अस्सिणी भरणी कत्तिया तह रोहिणी चेव जाव उत्तरासाढाओ ज वा सणिच्छरे महग्गहे तीसाहिं संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमण्डलं समाणेइ सेत्तं सणिच्छरसंवच्छरे ॥ इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्थानाङ्गे च ॥ एवं गुरोः पञ्चकृत्वः शनेभिगणभ्रमात् । अधिक शीत न हो और दृष्टि अधिक हो उसको नक्षत्रसंवत्सर कहते हैं ? । जिस वर्ष में पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्ण कलायुक्त हो तथा नक्षत्र विषमचारी याने मासकी पूर्णिमा के नाम सदृश न हो और अधिक शीत, अधिक उष्णता अधिक वृष्टि हो उसको चन्द्रसंवत्सर कहते हैं ॥ २॥ जिस वर्ष में वृक्ष में फल फूल नवीन पत्ते विना ऋतु के आजाय, वृष्टि अच्छी तरह न हो उस को कर्मसंवत्सर, ऋतुसंवत्सरे और सावनसंवत्सर कहते हैं ॥३॥ जिस वर्षमें पृथ्वी और पानीका रस मधुर तथा स्निग्ध हो, समयानुकूल वृक्षमें फलफूल आवें, थोडी वृष्टि होनेपर भी धान्य अच्छी तरह उत्पन्न हों इत्यादि लक्षणयुक्त संवत्सर को आदित्यसंवत्सर कहते हैं ॥ ४ ॥ जिस वर्षमें सूर्य के तेजसे क्षण मुहूर्त श्वासोच्छ्वास प्रमाण का दिवस, दोमास का ऋतु ये सब यथास्थित रहें और पवन रेती( रजः) से खड्डा पूर दे, उसको अभिवर्द्धित संवत्सर कहते हैं ५॥ ४ ॥ जितने समयमें शनैश्चर पूर्ण नक्षत्रमण्डल को याने बारह राशियों को तीस वर्षमें भोग करले उसको शनैश्चर संवत्सर कहते हैं, वह श्रवणादि अट्ठाईस नक्षत्र से अट्ठाईस प्रकार का है ॥५॥ ___इस तरह गुरु पांच वार, शनैश्चर दो वार और राहु तृतीयांश सहित तीन (३१) वार भगण (पूर्ण नक्षत्र मंडल) में भ्रमण करे इतने समय में "Aho Shrutgyanam Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) मेघमहोदये वत्सराणां भवेत् षष्टी राहोस्त्रिस्न्यंशयुगभ्रमात्॥४०॥ न संमतं तेन शतं समानां, ज्योतिर्विदांकापि च शास्त्ररीत्या। संवत्सराख्या द्विपविंशकार्थ-ग्रहप्रचारैः फलमत्र चिन्त्यम्॥४१॥ संवत्सरे स्थाद्विषमे प्रायो दुर्भिक्षसम्भवः । राजविग्रहमारीणां सम्भवः समवत्सरे ॥४२॥ वर्षेशाः सर्वतोभद्रे जीवार्किशिखिराहवः । तेषां चारानुसारेण भवेत् सांवत्सरं फलम् ॥४३॥ सांवत्सरफलग्रन्थान् प्राच्यानव्याननेकशः । विलोकयेत् सुधीस्तेन ज्ञेयो मेघमहोदयः ॥४४॥ अत्रं च वचनप्रामाण्याय रामविनोदग्रन्थ एवम्यो निर्गुणो गुगमयं वितनोति विश्वं, तापत्रयं हरति यस्तपनोऽप्यजस्रम् । कालात्मको जगति जीवयते च जन्तून् , ब्रह्माण्डसम्पुटमणिं शुमणि तमीडे ॥४॥ साठ वर्ष पूर्ण होते हैं ॥ ४० ॥ 'पष्टि' ऐसा कहा है इस लिए शास्त्र रीति से किसी भी जगह विद्वानोंका सेकडे (सौ वर्ष) का मत नहीं है । संवत्सर के नाम की द्विपविंशतिका का फलादेश ग्रहों के चालन से जानना ।। ४१ ॥ विषम संवत्सर में प्रायः दुर्भिक्ष का संभव रहता है और सम वर्ष में राज में विग्रह या महामारी आदि रोग का संभव रहता है।॥४२॥ सर्वतोभद्रचक्र में वर्षाधिपति - गुरु शनि राहु और केतु कहे हैं, उनकी गति के अनुसार संवत्सा का फल होता है ॥ ४३ ॥ संवत्सरफल सम्बन्धी प्राचीन और नवीन अनेक ग्रन्थों को देखकर उससे विद्वान लोग मेध महोदय को जानें ॥ ४४ ॥ जो स्वयं गुणरहित होकर भी गुणवाला जगतको रचता है, स्वयं निरंतर तपनवाला होकर भी तीन प्रकारके तापोंका नाश करता है, काल "Aho Shrutgyanam" Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार: श्रीरामदासरूचिदे गणितप्रवन्धे , दैवज्ञरामकृतरामविनोदनान्नि । श्रीसूर्यभक्तिमदकब्बरशाहिशाके , सौरागमानुभजतस्तिथिपत्रमेतत् ॥४६॥ +याताब्दा यमरवर्जिता नगगुणाः शून्याम्बराङ्गो ६००.द्वता , भाज्यं लब्धमिताऽब्दनेत्रदहना३२वयंशाब्दशकेन्दुतः। दिग१०भागाप्तकलायुतं प्रभवतोऽब्दाः षष्टिशेषाः स्मृताः , . शेषांशा रविभिहता दिनमुखं मेषार्कतः प्राग्वेत् ॥४७॥ अत्र दाक्षिणात्याः सौरमानेन संवत्सरप्रवृत्तिमाहुः । उक्तं च 'शाके सार्के हृते खाङ्गैः शेषे स्युः प्रभवादयः' । तेषां च फलानि-- स्वरूप होकर भी जगत्के प्राणियोंको जीवन देता है, और जो ब्रह्माण्ड रूपी संपुटका मणिरूप है, ऐसे श्री सूर्यनारायणको प्रणाम करता हूँ । ४५॥ श्री रामदास को अानन्ददायक गणितप्रबंध याने रामदैवज्ञविरचित रामविनोद नामक गणितग्रंथमें सूर्य नारायणके भक्त अकबर बादशाहके शाकमें यह तिथिपत्र सूर्यसिद्धान्तके अनुसार है ॥ ४६ ॥ - दक्षिणदेश के रहने वाले सौरमान से संवत्सर की प्रवृत्ति मानते हैं । कहा है कि- शक संवत्सर में बारह मिला कर साठ का भाग देना, जो + यह लोक बराबर समझने में नहीं प्रानेसे उसके स्थान पर निम्न लिखित प्रचलित श्लोक लिख देता हूँ.शकेन्द्रकालः पृथगाकतिनः, शशाङ्कनन्दाश्वियुगैः समेतः। शराद्रिवस्विन्दुहृतः सलब्धः, षष्ट्यप्तशेषे प्रभवादयोऽन्दा: ॥१॥ __ इछ शालिवाहन शक को दो जगह लिख कर एक जगह २२ से गुण, इस गुणनफल में ४२९१ जोड़ कर १८७५ का भाग दं, जे लब्धि मिले उसको दूसरे स्थान पर लिखा हुधा शकवर्षमें जोडे, इसमें ६० का भाग दें जो शेष रह वही प्रभव आदि वर्ष जानें। प्रथम जो शेष बचा है उनको १२ से गुणा कर १८७५ से भाग दें तो महीना और इस की शेष, ३० से भाग दे कर १८७५ से भाग दें तो दिन मिल जाता है ।। "Aho Shrutgyanam" Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये निरीतिः सकलो देशः सस्यनिष्पत्तिरुन्नतः । सुस्थिता भूभुजाः सर्वे प्रभवे सुखिनो जनाः ॥ ४८ ॥ दण्डनीतिपरा भूपा यहुसस्यार्घवृष्टयः । विभवाद्वेऽखिला लोकाः सुखिनः स्युर्विवैरिणः ॥ ४९ ॥ शुक्लाब्दे निखिला लोकाः सुखिनः स्वजनैः सह । राजानो युद्धनिरताः परस्परजयैषिणः ॥५०॥ प्रमोदान्दे प्रमोदन्ते राजानो निखिला जनाः । वीतरोगा वीतभया इतिवैरिविनाकृताः ॥५१॥ न चलन्त्यखिला लोकाः स्वस्वमार्गात् कथञ्चन । अब्दे प्रजापतौ नूनं बहुसस्यार्घवृष्टयः ॥५२॥ अन्नाद्यं भुज्यते शश्वज्जनैरतिथिभिः सह । अङ्गिशब्देऽखिला लोका भूपाश्च कलहोत्सुकाः ||५३|| श्रीमुखाब्देऽखिला भात्री बहुसस्यार्घसंयुता । (९२) शेष बचे वह प्रभव आदि वर्ष जानना | उनका फल -- प्रभवसंवत्सर में समस्त देश ईति रहित हो, खेती (धान्य) की उत्पत्ति अच्छी हो, राजा प्रसन्न रहें और प्रजा सुखी हो ॥ ४८ ॥ विभव संवत्सर में राजा दण्डनीति में तत्पर हों, बहुत धान्य हों, वर्षा अच्छी बरसे, सब लोग सुखी और वैर रहित हों ॥ ४६ ॥ शुकसंवत् में स्वजनों के साथ सब लोग सुखी हों, राजा परस्पर जीतने की इच्छा से युद्ध करें || ५० ॥ प्रभोदसंवत् में सब राजा और प्रजा प्रसन्न हों, रोग रहित और भय रहित हों, ईति और शत्रु का नाश हो || ५१ ॥ प्रजापतिवर्ष में मनुष्य अपनी कुलमर्यादा को रेखामात्र भी न त्यागें, खेती और वो अच्छी हो !! ५२ ॥ अंगिरा वर्ष में मनुष्य निरन्तर अतिथियों के साथ अन्न आदि का उपभोग करें, सब लोक और राजा कलह में उत्सुक हों ॥ ५३ ॥ श्रीमुखवर्ष में समस्त भूमि धन धान्य से पूर्ण हो, "Aho Shrutgyanam" Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः अध्वरे निरता विप्रा वीतरोगा विवैरिणः || ५४ ॥ भावाब्दे प्रचुरा रोगा मध्याः सस्याघवृष्टयः । राजानो युद्धनिरता स्तथापि सुखिनो जनाः ॥५५॥ प्रभूतपयसो गावः सुखिनः सर्वजन्तवः । सर्वकामक्रियासक्ता युवाब्दे युवतीजनाः ॥५६॥ धातृवर्षेऽखिलाः क्ष्मेशाः सदा युद्धपरायणाः । सम्पूर्णा धरणी भाति बहुसस्यार्घवृष्टिभिः ॥५७॥ ईश्वराब्देऽखिलान् जन्तून् धात्री धात्रीव सर्वदा । पोषयस्यतुलं चान्नं फलमाषेनुव्रीहिभिः ॥ ५८ ॥ अनीतिरतुला वृष्टि हुधानाख्यवत्सरे । विविधैर्धान्यनिचयैः सम्पूर्णा चाखिला धरा ॥ ५९ ॥ न मुञ्चति पयोवाहः कुत्रचित्कुत्रचिज्जलम् । मध्यमा वृष्टिरर्घश्च नूनमब्दे प्रमाथिनि ॥ ६० ॥ विक्रमाब्दे धराधीशा विक्रमाक्रान्तभूमयः । सर्वत्र सर्वदा मेचा मुञ्जन्ति प्रचुरं जलम् ॥ ६१ ॥ (९३) ब्राह्मण यज्ञकर्म में प्रवृत्त हों रोग और शत्रुता रहित हों ॥ ५४ ॥ भाववर्ष में बहुत रोग हों, धान्य और वर्षा मध्यम हो, राजा युद्ध करें तो भी लोग सुखी हों ।। ५५ ।। युवावर्ष में गौ बहुत दूध दें, सब प्राणी सुखी हों और स्त्रीजन कामक्रिया में आसक्त हों ॥ ५६ ॥ धाता वर्ष में सब राजा युद्ध के लिये तत्पर हो समस्त पृथ्वी वर्षा द्वारा धन धान्यसे : पूर्ण हो || ५७ || ईश्ववर्ष में पृथ्वी सब प्राणियों को माता की समान फल, 'माघ ( उडद), ऊख (इक्षु), चावल (व्रीहि) आदि अनाज से पालन करे || ५८ || बहुधान्यवर्ष में ईति रहित बहुत वर्षा हो, पृथ्वी अनेक प्रकार के अन्न से पूर्ण हो ॥ ५६ ॥ प्रमाथीवर्ष में वर्षा न वरसे, कहीं कहीं मध्यम वर्षा और धान्य पैदा हो ॥ ६० ॥ विक्रमवर्ष में राजा पराक्रम "Aho Shrutgyanam" Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये वृषभाब्देऽखिलाः दमेशा युद्धयन्ते वृषभा इव । मत्ताः प्रसक्ता विप्रेन्द्राः सततं यजतां सुरान् ॥ ६२ ॥ चित्रार्थवृष्टिसस्याद्यैर्विचित्रा निखिला धरा । निराकुलाखिला लोका-चित्रभानोश्च वत्सरे ॥६३॥ सुभानुवत्सरे भूमौ भूमिपानां च विग्रहः । भाति भूर्भूरिसस्याढ्या भुजङ्गमभयङ्करी ॥ ६४ ॥ कथञ्चिन्निखिला लोका-स्तरन्ति प्रतिपत्तनम् । नृपाहवे क्षताद् रोगाद् भैषज्यं तारणेऽब्दके ॥ ६५ ॥ पार्थिवान्दे च राजानः सुखिनः स्युर्भृशं जनाः । बहुभिः फलपुष्पाद्यैर्विविधैश्च पयोधरैः ॥ ६६ ॥ व्ययाब्दे निखिला लोका बहुव्ययपरा भृशम् । वीरमते भतुरग - रथैर्भीतिश्च सर्वदा ॥ ६७ ॥ सर्वजिह्रत्सरे सर्वे जनास्त्रिदशसन्निभाः । राजानो विलयं यान्ति भीमसंग्रामभूमिषु ॥ ६८ ॥ ९४) से भूमिको जीतने वाले हों और सब जगह सर्वदा बहुत वर्षा वरसे ॥ ६१ ॥ वृषभवर्षमें सब राजा मत्त वृषभकी समान युद्ध करें और ब्राह्मण निरन्तर श्रद्धा युक्त होकर देव पूजन करें ॥ ६२ ॥ चित्रभानुवर्ष में अनेक प्रकारकी वृष्टि और धान्यसे समस्त पृथ्वी विचित्रवर्ण वाली हो और सत्र लोग प्रसन्न हों ॥ ६३ ॥ सुभानुवर्ष में पृथ्वी पर राजाओं में विग्रह हों, भूमि बहुत धान्यसे पूर्ण हो तो मी काले नागकी जैसी भयंकर लगे ॥ ६४ ॥ तारण संवत्सर में सब लोक राजाओं के युद्धमें घायल हुए रोगसे मुक्त होकर शहर तरफ जावें ॥ ६५ ॥ पार्थिववर्ष में राजा और प्रजा बहुत फल फूल आदि और वर्षा से बहुत सुखी हों || ६६ ॥ व्ययसंवत्सर में सब लोक बहुत खर्च करें और सर्वदा सुभट मदोन्मत हाथी घोडे और स्थों से पृथ्वी पर भय हो ॥ ६७ ॥ सर्वजित्संवसर में देवों के समान मनुष्य हों, और राजालोग भयंकर संग्राम भूमिमें प्राण " Aho Shrutgyanam" Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः सर्वधार्यब्देके भूपाः प्रजापालनतत्पराः । प्रशान्तवैराः सर्वत्र बहुसस्यार्घवृष्टयः ॥ ६९॥ शीतलादिविकारः स्याद् बालानां तस्करा जनाः । अल्पक्षीरास्तथा गावो विरोधश्व विरोधिनि ॥ ७० ॥ मुष्णन्ति तस्करा लोकान् तोडाः स्युः शलभाः शुकाः । विकारकृद्जलवृष्टि - विकृतेऽब्दे प्रजारुजः ॥ ७१ ॥ स्वल्पा वृष्टिः स्वल्पधान्यं खण्डवृष्टिर्नृपक्षयः । छत्रभङ्गः प्रजापीडा खरेऽब्दे खरता जने ॥ ७२ ॥ सुभिक्षं सुखिनो लोका व्याधिशोक विवर्जिताः । नन्दनं च धनैर्धान्यैर्नन्दने वत्सरे भवेत् ॥ ७३ ॥ युध्यन्ते भूभृतोऽन्योऽन्यं लोकानां च धनक्षयः । दुर्भिक्षं च कचित् स्वस्थं बहुसख्यार्घवृष्टयः ॥ ७४ ॥ जयमङ्गलघोषाद्यै- धरणी भाति सर्वदा । जयाब्दे धरणीनाथाः संग्रामे जयकाङ्क्षिणः ॥ ७५ ॥ (९५) त्यागें || ६८ ॥ सर्वधारी वर्ष में वैररहित होकर राजा प्रजा के पालन में तत्पर हों, बहुत धन धान्य और जलवर्षा हों ॥ ६६ ॥ विरोधीवर्ष में बालकों को शीतलादि का रोग हो, लोक चौरी करें, गौएं थोड़ा दूध दें || ७० || विकृतवर्ष में लोगों को चोर दुःख दें, टीड्डी शलभ शुक आदि विशेष हो, विकार करने वाली जलवर्षा हो और प्रजा को रोग हो ॥ ७१ ॥ खरसंवत्सर में थोडी वर्षा, थोडा ही धान्य, खण्डवृष्टि, राजाका विनाश, भंग, प्रजाको दुःख और मनुष्योंमें क्रूरता हो । ७२ || नन्दनवर्षमें सुभिक्ष, लोक सुखी, व्याधि और शोकसे रहित और धन धान्यसे सुखी हों ॥ ७३॥ विजयसंवत्सर में राजा परस्पर युद्ध करें, लोगोंका धन क्षय हो, दुष्काल पड़े, कहीं शान्तता और धन धान्य हो, वर्षा हो || ७४ || जयसंवत्सर में जय मंगल के शब्दों से पृथ्वी सर्वदा शोभायमान हो, राजा संग्राम में जय की छत्र "Aho Shrutgyanam" Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) मेघमहोदये मन्मथाब्दे जनाः सर्वे तस्करा अतिलोलुपाः । शालीक्षुयवगोधूमै-नयनाभिनवा धरा ॥७६॥ दुर्मुखाब्दे मध्यवृष्टि-रीतिचौराकुला धरा । महावैरा महीनाथा वीरवारणघाटकैः ॥७७॥ हेमलम्बे त्वीतिभीति-मध्यसस्यार्घवृष्टयः । भाति भूर्भूपतिक्षोभः खगविद्युल्लतादिभिः ॥७८॥ विलम्बिवत्सरे भूपाः परस्परविरोधिनः । प्रजापीडा वनर्थत्वं तथापि सुखिनो जनाः ॥७९॥ विकार्यब्देऽखिला लोकाः सरोगा वृष्टिपीडिताः। पूर्वसस्यफलं स्वल्पं बहुलं चापरं फलम् ॥८॥ शर्वरीवत्सरे पूर्णा धरा सस्यार्घवृष्टिभिः । जनाश्च सुखिनः सर्वे राजानः स्युर्विवैरिणः ।। ८१॥ प्लवाब्दे निखिला धात्री वृष्टिभिः प्लवसन्निभा। इच्छा वाले हों ॥७५।। मन्मथवर्षमें सब लोक बहुत लोभी और चोर हों, धान्य, ईख, जव, गेंहू आदिसे नेत्रोंको आनंद देने वाली पृथ्वी हो ॥ ७६ ॥ दुर्मुखवर्ष में मध्यम वर्षा हो, ईति और चोरोंसे पृथ्वी आकुल हो, राजा वीर (सुभट) हाथी घोडों से महावैर करें ॥ ७७ ।। हेमल म्बिवर्षमें ईतिका भय हो, मध्यम वर्षा और थोड़ा धान्य हो, पृथ्वी शोभित हो, और राजा तलवाररूपी लता आदिसे क्षुभित हों || ७८ ॥ विलम्बीवर्षमें राजा परस्पर विरोध करें, प्रजा में पीडा और अनर्थ हो तो भी लोग सुखी हों ||७६ ॥ विकारीवर्ष में समस्त लोग रोग और वर्षासे दुःखी हों, पहले धान्य फल फूल थोड़े हों और पीछे बहुत हों ॥ ८० ॥ शर्वरीवर्ष में पृथ्वी धन धान्य से पूर्ण हो, सब मनुष्य सुखी हों और राजा वैररहित हों ॥८१ ॥ प्लववर्ष में समस्त पृथ्वी वर्षा से प्लव (सुगंधिततृणविशेष) सदृश हो, सम्पूर्ण वर्षमें ईतिभय और रोग रहे || ८२ 11 शुभकवर्ष में पृथ्वी "Aho Shrutgyanam' Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवंत्सराधिकार रोगाकुला त्वीतिभीतिः सम्पूर्ण वत्सरे फलम् ॥ ८२॥ शुभकृद्धत्सरे पृथ्वी राजते विविधोत्सवैः । आतङ्कचौरा भयदा राजानः समरोत्सुकाः ॥८३॥ शोभने वत्सरे धात्री प्रजानां रोगशोकदा । तथापि सुखिनो लोका बहुसस्यार्घवृष्टयः ।।८४॥ क्रोध्यब्दे त्वखिला लोकाः क्रोधलोभपरायणाः । ईतिदोषेण सततं मध्यसस्थार्घवृष्टयः ॥८॥ अब्दे विश्वावसौ शश्वद् घोररोगाकुला धरा । सस्यार्घवृष्टयो मध्या भूपाला नातिभूतयः ॥८६॥ पराभवाब्दे राज्ञां स्यात् समरः सह शत्रुभिः । आमयक्षुद्रसस्यानि प्रभूतान्यल्पवृष्टयः ॥८७॥ प्लवङ्गाब्दे मध्यवृष्टी रोगचौराकुला धरा । अन्योऽन्यं समरे भूपाः शत्रुभिहतभूमयः॥८॥ . कीलकाब्दे त्वीतिभीतिः प्रजाक्षोभो नृपाहवैः । अनेक उत्सवोंसे सुशोभित हो, भयदायक रोग और चोर हो, राजा युद्ध में उत्सुक हों ॥८३॥ शोभनवर्ष में पृथ्वी प्रजा को रोग शोक देने वाली हो तो भी लोक सुखी हो, बहुत धन धान्य और वर्षा हो ॥८४॥ क्रोधीवर्ष में समस्त लोग क्रोध और लोभ परायण हों, ईति दोष से निरन्तर दुःख हो, मध्यम धान्य और वर्षा हो ।।८५॥ विश्वावसुवर्षमें पृथ्वी निरंतर धोररोग से व्याकुल हो, मध्यम खेती और वर्षा हो और राजा सम्पत्ति वाले न हों ।। ८६ ।। पराभववर्ष में राजाओं का शत्रु के साथ युद्ध हों, गेग और क्षुद्र धान्य अधिक हो, वर्षा थोडी हो ॥ ८७ ॥ प्लवङ्गवर्ष में थोडी वर्षा हो, पृथ्वी रोग तथा चोरोंसे व्याकुल हो, राजा शत्रुके साथ युद्धमें प्रवृत्त हो ॥ ८८ ॥ कीलकवर्ष में ईतिका भय, प्रजामें क्षोभ, राजा में युद्ध हो तो भी लोक धन धान्य से बढे और वर्षा अच्छी हो ॥८ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) मेघमहोदये तथापि वर्द्धते लोकः समधान्यार्घवृष्टिभिः ॥८९॥ सौम्याग्दे निखिला लोका बहुसस्यार्घवृष्टिभिः । विवैरिणो धराधीशा विप्राश्चाध्वरतत्पराः ॥१०॥ साधारणाब्दे वृष्टयर्थ भयं साधारणं स्मृतम् । विवैरिणो धराधीशाः प्रजाः स्युः स्वच्छचेतसः ॥११॥ विरोधकृछत्सरे तु परस्परविरोधिनः । सर्वे जना नृपाश्चैव मध्यसस्यार्घवृष्टयः ॥१२॥ भूपाहवो महारोगो मध्यसस्यार्घवृष्टयः । दु:खिनो जन्तवः सर्वे वत्सरे परिधाविनि ॥१३॥ प्रमाथिवत्सरे सत्र मध्यसस्यार्घवृष्टयः । प्रजाः कथश्चिज्जीवन्ति समात्सर्याः क्षितीश्वराः ॥१४॥ आनन्दाब्देऽखिला लोकाः सर्वदानन्दचेतसः। राजानः सुखिनः सर्वे बहुसस्याघकृष्टयः ॥६५॥ स्वस्वकार्ये रताः सर्वे मध्यसस्याघवृष्टयः । राक्षसाब्देऽखिला लोका राक्षसा इव निष्क्रियाः ॥१६॥ सौम्यवर्ष में समस्त लोक बहु धन धान्य से सुखी हों, राजा वैर रहित हों और ब्राह्मण यज्ञकर्म में प्रवृत्त हों । ६० ।। साधारणवर्ष में वर्षा के लिये साधारण भय कहना, राजा वैररहित हों और प्रजा प्रसन्न मनवाली हो ।। ६१ ॥ विरोधीवर्ष में सब राजा और प्रजा परस्पर विरोधी हों और मध्यम वर्षा हो ।। ६२ ।। परिधावीवर्ष में राजाओ में युद्ध, बड़ा रोग, मध्यम वर्षा और धान्य हो, तथा सब प्राणी दुःखी हों ||६३11 प्रमाथीवर्षमें मध्यम वर्षा, प्रजा को दुःख और राजाओं में परस्पर ईर्षा हो ॥ १४ ॥ आनन्दवर्ष में सब लोक प्रसन्न चित रहें, राजा सुखी हों और बहुत धान्य हो, वर्षा अच्छी हो ॥ ६५ ॥ राक्षसवर्ष में सब अपने २ कार्यों में लवलीन हों, मध्यम वर्षा हो और सब लोक राक्षसकी जैसे क्रिया रहित हों "Aho Shrutgyanam Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः नलाब्दे मध्यसस्याचे वृष्टिभिः प्रवरा धरा । नृपसंक्षोभसंजाता भूरितस्करभीतयः ॥६॥ पिङ्गलाब्दे त्वीतिभीति-मध्यसस्याघवृष्टयः । राजानो विक्रमाक्रान्ता भुञ्जन्ते शत्रुमेदिनीम् ॥१८॥ वत्सरे कालयुक्ताख्ये सुखिनः सर्वजन्तवः । सन्तीतयोऽपि सस्यानि प्रचुराणि तथाऽगदाः ॥९९।। सिद्धार्थवत्सरे भूपाः शान्तवैरास्तथा प्रजाः सकला वसुधा भाति बहुसस्थार्घवृष्टिभिः ॥१०॥ रौद्रेऽब्दे नृपसम्भूत-क्षोभक्लेशसमन्विते । सततं त्वखिला लोका मध्यसस्यार्घवृष्टयः ॥१०॥ दुर्मत्यब्देऽखिला लोका भूपा दुर्मतयः सदा । तथापि सुखिनः सर्वे संग्रामाः सन्ति चेदपि ॥१०२॥ सर्वसस्ययुता धात्री पालिता धरणीधरैः । पूर्वदेशविनाशः स्यात् तत्र दुन्दुभिवत्सरे ॥१०॥ ॥६६॥ नलसंवत्सर में मध्यम धान्य हो, वर्षासे पृथ्वी श्रेष्ट हो, राजाओं में क्षोभ पैदा हो और चोरों का बहुत भय हो ॥६७॥ पिङ्गलवर्ष में ईति का भय हो, मध्यम वर्षा बरसे, राजा पराक्रमसे पूर्ण होकर शत्रु की पृथ्वी का भोग करें ॥ ६८ ॥ कालयुक्तवर्ष में सब प्राणी सुखी हों, ईति का उपद्रव हो तो भी धान्य बहुत हों और रोग अधिक हों । हह ॥ सिद्धार्थवर्ष में राजा और प्रजा शान्तवैर हों, सब पृथ्वी बहुत धन धान्य की वृद्धि और वर्घा से शोभायमान हो ॥ १०० ॥ रौद्रवर्ष में सब राजा क्षोभित और क्लेश वाले हों, सब प्राणियोंको भी क्लेश हो, मध्यम धान्य और वर्षा हो ॥ १०१ ॥ दुर्मतिवर्ष में सब लोक और राजा दुष्ट बुद्धि वाले हों तो भी सब सुखी हों और संग्राम भी हो ॥ १०२ ॥ दुन्दुभिसंवत्सर में पृथ्वी धान्य से पूर्ण हो, राजा अच्छी तरह पृथ्वीका पालन करें और "Aho Shrutgyanam" Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) मेघमहोदये रुधिरोद्गारिणि त्वाधिः प्रभूताः स्युस्तथाऽऽमयाः। नृपसंग्रामसम्भूतव्यापदस्त्वखिला जनाः ॥१०४॥ रक्ताक्षवत्सरे भूपा अन्योऽन्यं हन्तुमुद्यताः । ईतिरोगाकुला धात्री स्वल्पसस्याघवृष्टयः ॥१०५॥ क्रोधनाब्दे मध्यवृष्टिः पूर्वसस्यविनाशनम् । सम्पूर्णमपरं सस्य भूपाः क्रोधपराः सदा ॥१०॥ क्षयान्दे सर्वसस्यार्घ-वृष्टयः स्युः क्षयंगताः । तथापि लोका जीवन्ति कथञ्चिद् येन केनचित् ॥१०७॥ एवं प्रायो वत्सराख्यानुसारि, वाच्यं प्राच्यैरुक्तभावं प्रधार्य । तत्राऽप्यने जीवराहर्किकेतु-चारं वारंवारमन्तर्विमृश्य ।।१०८।। ___ अथ रुद्रदेवब्राह्मणेन पार्वतीमुद्दिश्य ईश्वरवाक्येन कृता मेघमाला तस्यां विशेष: प्रथमा विंशतिर्लामी द्वितीया वैष्णवी स्मृता । पूर्वदेश का विनाश हो ॥ १०३ ॥ रुधिरोद्गारीवर्ष में राजा युद्ध करें, सब लोक दुःखी हों और बहुत आधि व्याधि फैलें ॥ १०४ ॥ रक्ताक्षिवर्ष में राजा परस्पर युद्धके लिये तत्पर हों, ईति और रोगसे पृथ्वी व्या - कुल हो, थोड़ी खेती और वर्षा हो ॥ १०५ ॥ क्रोधनवर्ष में मध्यम वर्षा हो, पहले धान्यका विनाश हो परन्तु पीछे सम्पूर्ण धान्य पैदा हों, राजा क्रोध में तत्पर हो ॥ १०६ । क्षयसंवत्सरमें समस्त धान्य और वर्षा का नाश हो, तो भी किसी तरह से लोक प्राण धारण करें ॥ १०७ । इस तरह प्राचीन विद्वानों के कहे हुए फलादेश का विचार कर और वर्ष में बृहस्पति राहु शनि और केतु के चालन का वारंवार हृदय से विचार कर वर्षों के नामसदृश फल कहना ॥ १०८ ॥ ___इति रामविनोदे षष्टिसंवत्सरफलम् । रुद्रदेवब्राह्मण ने अपनी मेघमाला में साठ संवत्सर का फल विशेष रूपसे "Aho Shrutgyanam" Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार: रौद्री तृतीया यधमा स्वरूपानुसरत्फला ॥१॥ बहुतोया महामेघा बहुसस्या च मेदिनी। बहुक्षीरता गावः प्रभवेऽब्दे वरानने ! ॥२॥ प्रभवविभवप्रमोद-प्रजापति-अंगिराः । श्रीमुख-भाष-युवाख्य-धातृनामानो वत्सराः शुभाः ॥३॥ देवैश्च विविधाकार-र्मानुषा वाजिकुञ्जराः । पीड्यन्ते नात्र सन्देहः शुक्ले संवत्सरे प्रिये ! ॥४॥ इतिवचनात् शुक्लोऽशुभः । ईश्वरसंवत्सरे सुभिक्षं सर्वदेशेषु कर्पासस्य महर्घता। घृतं तैलं मधुमचं महर्घ स्यान्महेश्वरि ! ॥५॥ इयान विशेषः बहुधान्यसंवत्सरे सुभिक्षं निरुपद्रवम् । प्रमाथिनि दुर्भिक्ष, राष्ट्रभङ्गः, तस्करपीडा, विग्रहः । विक्रमे शुभं, मर्वधान्यनिष्पत्तिः, लवणं मधु मद्यं च समघ । वृषभनाकहा है-प्रथमा ब्राह्मी, दूसरी वैष्णवी और तीसरी रौद्री। ये तीन साठ संवत्सर की वीशतिका ( वीसी) हैं, वे अपने नामसदृश फलदायक हैं ॥१॥ हे श्रेष्ठमुखवाली प्रभववर्ष में पृथ्वी बहुत जलवाली, बहुत वर्षावाली और बहुत धान्यवाली हो । गौएं बहुत घी दूध देनेवाली हों ।। २ ॥ प्रभव, विभव, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा और धातृ ये नव वर्ष शुभ हैं ॥ ३ ॥ हे प्रिये ! शुक्लवर्ष में विविध आकार वाले देवों से हाथी और वोड़े वाले मनुष्य पीडित होते हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ ४ ॥ हे महेश्वरि ! शुक्लवर्ष में अशुभ । ईश्वरवर्ष में सब देश में सुकाल हो और कपास घी तैल मधु और मद्य महँगे हों ॥ ५ ॥ बहुधान्यवर्ष में सुकाल हो और जगत् उपद्रव रहित हो । प्रमाथी वर्ष में दुष्काल, देशभङ्ग, चोरों से दुःख और विग्रह हो । विक्रमवर्ष में शुभ हो , सब तरह के धान्य पैदा हों, लूण (नमक) मधु और मद्य सस्ते हों । हे सुलोचने ! वृषभवर्ष में कोद्रवा ( कोदों) "Aho Shrutgyanam" Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) मेघमहोदये मसंवत्सरे - "कोद्रवाः शालयो मुद्गाः कंगुलाक्षास्तथैव च । परिधानं सुभिक्षं स्यात् सुवृषे च सुलोचने” ! ॥ १ ॥ चरणका मुद्रमाषाश्च यचान्नं विदलं प्रिये ! | विचित्रा जायते वृष्टि-चित्रभानौ न संशयः ॥ १ ॥ इतिवचनाचित्रभानुसुमान् श्रेष्ठौ, तारणः अशुभः, पार्थिवः शुभः । व्ययसंवत्सरे स्वल्पवृष्टी रोगपीडा धान्यसमता विग्रहः । इति प्रथमा ब्राह्मी विंशतिका || तोयपूर्णा भवेत् क्षोणी बहसस्यसमन्विता । सुभिक्षं सुस्थितं सर्व सर्वजिद्वत्सरे प्रिये ॥ १ ॥ जलैश्च प्रबला भूमि- श्रन्यमौषधपीडनम् । जायते मानुषं कष्टं सर्वधारिणि शोभने ॥२॥ प्रजा च विकृता घोरा पीडिता व्याधितस्करैः । अल्पक्षीरघृता गावा विरोधिवत्सरे प्रिये ! ॥३॥ उपप्लवं जगत्सर्वं तस्करैः शलभैस्तथा । शालि अर्थात् चावल मूंग कंगु लाख आदि पैदा हों और सुकाल हो ॥ १ ॥ हे प्रिये ! चित्रभानुवर्ष में चणा मूंग उडद यत्र आदि धान्य पैदा हों और विचित्र वर्षा हो १ ॥ चित्रभानु और सुभानु ये दोनों वर्ष श्रेष्ठ हैं । तारणवर्ष अशुभ है । पार्थिववर्ष शुभ है । व्ययवर्षमें थोड़ी वर्षा, रोग पीडा, धान्य भाव समान रहे और विग्रह हो ॥ १ ॥ इति प्रथमा ब्राह्मीविंशतिका ॥ हे प्रिये ! सर्वजिदवर्ष में पृथ्वी जलसे और बहुत धान्य से पूर्ण हो, सच यथास्थित सुकाल रहै ॥ १ ॥ हे शोभने ! सर्वधारीवर्ष में जल से पृथ्वी प्रबल हो, धान्य और औषधियों का विनाश हो, मनुष्यों को कष्ट हो ॥ २ ॥ प्रिये ! विरोधीवर्ष में व्याधि और चोरों से प्रजा अत्यन्त दु:खी हो और गौएं थोड़ा घी दूध दें ॥ ३ ॥ हे पार्वति ? विकृतिवर्ष में समस्त जगत् चोर और शलभादि जन्तुओं से उपद्रवित हों और विकारजनक "Aho Shrutgyanam" Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार (१०३) विकृता जलवृष्टिः स्याद् विकृते हिमवत्सुते ! ॥४॥ अल्पोदकाः पयोवाहा वर्षन्ति खण्डमण्डले। निष्पत्तिः स्वल्पधान्यानां खरे संवत्सरे प्रिये ॥५॥ मुभि जायते लोके व्याधिशोकविवर्जितम् । धनधान्येषु सम्पूर्ण नन्दने नन्दति प्रजा ।।६।। क्षत्रियाश्च तथा वैश्याः शूद्रा वा नटनायकाः । पीडयन्ते च वरारोहे ! जये दुर्भिक्षसम्भवः ॥७॥ मानुषाः सर्वदुःखार्ता ज्वररोगसमाकुलाः । दुर्भिक्षं वा कचित्सुस्थं विजये वरवर्णिनि !॥८॥ तुषधान्यक्षयो देवि ! कोद्रवान्नमहर्घता। व्यवहारप्रवृत्त्या तु मन्मथे सुखिनो जनाः ॥६॥ पीड्यन्ते सर्वधान्यानि वर्षणेन यथेप्सितम् । दुर्मुखे चैव दुर्भिक्षं समाख्यातं सुलोचने ! ॥१०॥ तस्कर पार्थिवैर्देवि! अभिभूतमिदं जगत् । सस्यं भवति सामान्यं हेमलम्बे नगाङ्गजे! ॥११॥ जलवर्षा हो ॥ ४ ॥ हे प्रिये ! खरवर्ष में कोई २ जगह ही वर्ष थोड़ी हो और धान्य भी थोड़ा पैदा हो ॥ ५ ॥ नन्दनवर्ष में सुकाल हो , प्रजा व्याधि शोक से रहित हो और धन धान्यसे आनन्दित हो ॥६॥ हे वरानने ! जयवर्ष में दुष्काल का संभव हो, क्षत्रिय वैश्य शूद्र और नट नायक आदि लोक दुःखी हों ॥ ७ ॥ हे पार्वति ! विजयवर्ष में सब लोक ज्वर आदि रोगों से दुःखी हों और दुकाल हो,कचित्ही यथास्थित रहै ॥८॥हे देवि ! मन्मथवर्ष में वास और धान्य का विनाश हो , कोदों आदि धान्य महँगे हों और लोग व्यवहार में प्रवृत्त हों ॥ ६ ॥ हे मुलोचने ! दुर्मुखवर्ष में इच्छित वर्षा न होनेसे सत्र धान्य का विनाश हो इसलिये दुष्काल हो ॥१०॥ हे पार्वतीदेवि ? हेमलंबिवर्ष में चोर और राजाओंमे जगत् पराभूत हो और "Aho Shrutgyanam" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये विषमस्थं जगत्सर्व विविधोपद्रवान्वितम् । मूषकैश्च शुकैर्देवि! विलम्बे पीडयते जनः ॥ १२ ॥ स्वल्पोदका जने मेघा धान्यमौषधपीडनम् । दुर्भिक्षं जायते सस्यं विकारिवत्सरे प्रिये ! ॥१३॥ पृथिव्यां जलस्य शोषो धने धान्ये च पीडनम् । मेघो न वर्षति प्रायः पीडा स्यान्मानुषी भुवि ॥१४॥ कचिच्च धान्यनिष्पत्ति-मण्डलं निरुपद्रवम् । मेघाश्च प्रबला लोके प्लवे संवत्सरे प्रिये ! ||१५|| सुभिक्षं सर्वदेशेषु तृप्ता गौर्ब्राह्मणास्तथा । नन्दति च प्रजा सौख्ये शुभकुद्वत्सरे प्रिये ! ॥ १६ ॥ सुभिक्षं क्षेममारोग्यं विग्रहश्च महद्भयम् । क्रूरैर्वक्रगतैर्देवि ! शोभने वत्सरे प्रिये ! ॥॥१७॥ विषमस्थं जगत्सर्व व्याधिरोगसमाकुलम् । (१०४) धान्य सामान्य हो ॥ ११ ॥ हे देवि ! विलम्बवर्ष में सब जगत् अनेक प्रकार के उपद्रवोंसे अव्यवस्थित हो और चूहा टिड्डी आदि से लोक दुःखी हों ॥ १२ ॥ हे प्रिये ! विकारीवर्ष में दुष्काल हो, वर्षा थोडी हो, धान्य और औषधि का नाश हो, और घास पैदा हो ॥ १३ ॥ शार्वरी वर्ष में पृथ्वी में जल सूख जावे । धन धान्य का विनाश हो, प्रायः मेघ न बरसे और जगत् में मनुष्यकृत दुःख हो ॥ १४ ॥ हे प्रिये ! प्लववर्ष में कचित् धान्य पैदा हो, देश उपद्रव रहित हो और पृथ्वी पर प्रबल वर्षा वरसे ॥ १५ ॥ हे प्रिये ! शुभकृत् वर्ष में समस्त देश में सुकाल हो, गौ ब्राह्मण तृप्त हों और सुख में प्रजा आनन्द करे || १६ || हे देवि! शोभनवर्ष में सुकाल हो, कल्याण हो आरोग्य हो; यदि क्रूर ग्रह वक्रगतिवाले हों तो विग्रह और बड़ा भय हो ॥ १७ ॥ क्रोधिवर्ष में समस्त जगत् आधि व्याधि से व्याकुल हो कर अव्यवस्थ रहे और थोड़ी वर्षा हो ॥ १८ ॥ विश्वावसु वर्ष में सवत्र कल्याण हो, सब धा " Aho Shrutgyanam" Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः अल्पवृष्टिश्च विज्ञेया क्रोधः क्रोधिनि वत्सरे ॥ १८ ॥ : सर्वत्र जायते क्षेमं सर्वसस्यमहर्धता । निष्पत्तिः सर्वसस्यानां वृष्टिश्च प्रबला पुनः ॥ १६ ॥ विश्वासौ सुवृष्टिश्च काष्ठलोहमहर्घता । पार्थिवाश्च माण्डलिका सामन्ता दण्डनायकाः ||२०| पीडिताच प्रजाः सर्वाः क्षुधार्त्ताः स्युः पराभवे । धान्यौषधानि पीडयन्ते ग्रीष्मे वर्षति माधवः ||२१|| । इति द्वितीया वैष्णवीविंशतिका । प्लवङ्गे पीडिता लोकाः सर्वे देशाश्च मण्डलाः । जायन्ते सर्वसस्यानि कुत्रापि निरुपद्रवः ॥ १॥ सौम्यदृष्टिभवेद् राजा कीलके च शुभं भवेत् । सुभिक्ष क्षेममारोग्यं सर्वोपद्रववर्जितम् ||२|| सौम्ये राजा प्रजा सौम्या भुवि सौम्यं प्रवर्त्तते । तोयपूर्णा मही मेचे महावर्षा दिने दिने ॥३॥ (१०५) न्य तेज हों, प्रबल वर्षा बरसे और सब धान्य पैदा हों ॥ १६ ॥ पराभववर्ष अच्छी वर्षा हो, काष्ट और लोहा तेज हो, देशका राजा माण्डलिकरा जा, सामन्त और दण्डनायक आदि दुःखी हों, सब प्रजा क्षुधा से दुःख पावे, धान्य और औषधि का नाश हो और ग्रीष्मऋतु में वर्षा बरसे ॥ २०-२१ ॥ इति द्वितीया वैष्णवी विंशतिका | प्लवङ्गवर्ष में सब देशके और प्रान्तके लोग दुःखी हों कोई जगह उपद्रव रहित भी हो और सब धान्य पैदा हों ॥ १ ॥ कीलकवर्ष में शुभ हो, राजा अच्छी नीतिवाले हों सुकाल हो, लोग कल्याणवाले आरोग्यवाले और उपद्रवरहित हों || २ || सौम्यवर्ष में राजा और प्रजा सुखी हों, पृथ्वी पर सुख फैलें, पृथ्वी वर्षा से पूर्ण हो और प्रत्येक दिन बडी वर्षा हो ॥ ३ ॥ साधारण वर्ष में राजा उपद्रव रहित हो, देश और प्रान्त में जल वर्षा हो और १४ "Aho Shrutgyanam" Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) मेवमहोदये निरुपद्रवा भूपालाः सर्व सस्यं प्रजायते । साधारणे मेघवर्षा देशे स्यात् खण्डमण्डले ॥४॥ परस्परं विरोधः स्या-ज्जनानां भूभुजां तथा । कान्यकुब्जे त्वहिच्छत्रे कृषिनाशो विरोधिनि ॥५॥ अभिभूतं जगत्सर्व क्लेशैश्च विविधैः प्रिये । मारुतो बहुदाहश्च परिधाविनि सुव्रते! ॥॥ निष्पत्तिः सर्वसस्यानां सुभिक्षं जायते तथा । प्रमाशिवर्षे वर्षा स्याद् देशे वा खण्डमण्डले ॥७॥ नश्यन्ति सर्वधान्यानि सर्वसस्यमहर्घता।। घृतं तैलं सममूल्या-दानन्दे नन्दिता प्रजा ॥८॥२०॥ कोद्रवाः शालयो मुगाः पीड्यन्ते ते वरानने !। सौषधीनां धान्यानि राक्षसे निष्ठुरा जनाः ॥६॥ दुर्भिदं जायते देशे धान्यौषधिप्रपीडनम् । नश्यन्ति धनधान्यानि देवि ! ख्यातं नलाभिधे ॥१०॥ गोमहिष्यो विनश्यन्ति ये चान्ये नटनर्तकाः । सब धान्य उत्पन्न हो ॥४॥ विरोधिवर्षमें प्रजाका और राजाका परस्पर वि. रोध हो, कान्यकुब्ज और अहिच्छत्र देशमें खेतीका नाश हो ॥ ५ ॥ हे सुशीले प्रिये! परिधावीवर्षमें सब जगत् अनेक प्रकारके क्लेशोंसे व्याप्त हो, महा वायु चलै और बहुत दाह हो अर्थात् जगहँ जगहँ आग लगे ॥६॥ प्रमाथिवर्ष में सब प्रकारके धान्य पैदा हों, सुकाल हो, देश या प्रांतमें वर्षा हो || ७ ॥ मानन्दवर्ष में सब धान्य विनाश हों और तेज भी हों, घी तेलका भाव समान रहें, प्रजा आनन्दित रहें ॥८॥ हे वरानने! गक्षसवर्षमें कोद्रव चावल मूंग सब प्रकारके औषध और धान्यका विनाश हो, मनुष्य कर स्वभाव के हों ॥ ॥ ६ ॥ हे देवि! नलवर्षमें देश में दुष्काल हो, धन धाम्य और औषधियों का विनाश हो ॥ १० ॥ पिङ्गलवर्ष में गौ भैंस और नाच करने वाले नट "Aho Shrutgyanam" Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः (१०७) माधवो नैव वर्षेच पिङ्गले नात्र संशयः ॥११॥ गोमहिष्यो हिरण्यं च रौप्यं लानं विशेषतः। सर्वस्वमपि विक्रीय कत्तव्यो धान्यसंग्रहः ॥१२॥ तेन संजायते देवि ! दुर्भिक्ष क्रमतो जने। पश्चाद, वर्षति मेघोऽपि सर्वधान्यं प्रजायते ॥१३॥ जायन्ते बहुला रोगाः कालसंवत्सरे प्रिये !। अल्पोदकास्तथा मेघा अल्पसस्या च मेदिनी ॥१४॥ तोयपूर्णो भवेद् मेघो बहुसस्या वसुन्धरा । निष्ठुराः पार्थिवा देवि! रौद्रे रौद्रं प्रवर्तते ॥१५॥ सुभिक्ष समता धान्ये व्यवहारो न वर्तते । जायते मध्यमा वृष्टिदुर्मतौ वत्सरे सति ॥१६॥ सुभिक्षं जायते स्वस्थ-देशाश्च निरुपद्रवाः । प्रजानां सुखितारोग्यं जाते दुन्दुभिवत्सरे ॥१७॥ सर्वस्वमपि विक्रीय कर्तव्यो धान्यसंग्रहः । रुधिरोद्गारिवर्षे च दुर्भिक्ष भविता महत् ॥१८॥ आदिका विनाश हो, वर्षा न बरसे इस में संशय नहीं ॥ ११ ॥ गौ मेंस सोना चांदी और तांबा आदि बेच कर भी धान्य का संग्रह करना चाहिए ॥ १२ ॥ हे देवि! इस से क्रमशः दुष्काल होगा मगर पीछे से वर्षा भी वरसेगी और सब धान्य भी पैदा होगा ॥ १३ ॥ हे प्रिये! कालवर्ष में बहुत प्रकार के रोग फैलें, वर्षा थोडी हो और पृथ्वी पर धान्य भी थोडा हो ॥ १४ ॥ हे देवि! रौद्रवर्ष में जलसे पूर्ण मेघ हो, पृथ्वी बहुत धान्य वाली हो, राजा निष्ठुर हों और घोर उपद्रव हो ॥ १५ ॥ दुर्मतिवर्षमें सुकाल: हो, धान भाव समान रहै, व्यापार ठीक न चलै और मध्यम वर्षा हो ॥ १६ ॥ दुन्दुभीवर्ष में सुकाल हो, देश उपद्रव रहित स्वस्थ हो, प्रजा सुखी और आरोग्यवाली रहै ॥ १७ !! रुधिरोद्गारीवर्षमें बड़ा दुष्काल हो, "Aho Shrutgyanam" Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये धान्यनाशः स्वल्पवर्षा नृपाणां दारुणो रणः । तस्करा बहुला रोगा रुधिरोद्गारिवत्सरे ॥ १९ ॥ रोगान्मृत्युश्च दुर्भिक्षं धान्यौषधप्रपीडनम् । पापबुद्धिरता लोका रक्ताक्षिवत्सरे प्रिये ! ||२०|| ननु रोगाश्च दुर्भिक्षं विविधोपद्रवास्तथा । क्रोधश्च लोके भूपेषु संजाते क्रोधने प्रिये ! ॥ २१ ॥ मेदिनीचलनं देवि ! व्याकुलाश्च चराचराः । देशभङ्गश्च दुर्भिक्षं क्षयाब्दे क्षीयते प्रजा ||२२|| सौराष्ट्रे मध्यदेशे च दक्षिणस्यां च कौङ्कणे । दुर्भिक्षं जायते घोरं क्षये संवत्सरे प्रिये ! ॥ २३॥ इति रौद्रीयमेघमाला शिवकृता । अथ जैनमते दुर्गदेवः स्वकृतपटिसंवत्सरग्रन्थे पुनरेवमाह ॐ नमः परमात्मानं वन्दित्वा श्रीजिनेश्वरम् । (१०८) जो कुछ भी हो वह बेच कर धान्य का संग्रह करना अच्छा है ॥ १८ ॥ धान्य का नाश हो, थोडी वर्षा हो, राजाओं का बड़ा बोर युद्ध हो, बहुत चोर और रोग हो ॥ १६ ॥ हे प्रिये ! रक्ताक्षिवर्ष में रोगसे बहुत प्राणी मरै, दुष्काल हो, धान्य और औषधियों का नाश हो, और लोग पापबुद्धि वाले हो || २० || हे प्रिये ! कोधनवर्ष में निश्चयसे रोग और दुष्काल हो, अनेक प्रकारके उपद्रव हों, लोगों में बहुत क्रोच हो ||२१|| हे देवि ! क्षयसंवत्सर में भूकम्प हो, पृथ्वी चराचर व्याकुल हो, देशभङ्ग हो, दुष्काल हो और प्रजा का नाश हो || २२ || सोरठदेश मध्यदेश और दक्षिण में कोणदेश आदि में बडा दुष्काल हो || २३ || इति रौद्रीयमेवमालायां तृतीया विंशतिका ॥ पश्च परमेष्ठी के वाचक ॐकार को नमस्कार करके, तथा परमात्मा जिनेश्वरदेव के वन्दन करके और केवलज्ञान का आश्रय लेकर दुर्गदेवमुनि "Aho Shrutgyanam" Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः केवलज्ञानमास्थाय दुर्गदेवेन भाष्यते ॥ १॥ पार्थ उवाच - भगवन् दुर्गदेवेश ! देवानामधिप ! प्रभो ! | भगवन् कथ्यतां सत्यं संवत्सरफलाफलम् ॥ २ ॥ दुर्गदेव उवाच - शृणु पार्थ ! यथावृत्तं भविष्यन्ति तथाद्भुतम् । दुर्भिक्षं च सुभिक्षं च राजपीडा भयानि च ॥ ३ ॥ एतद् योऽत्र न जानाति तस्य जन्म निरर्थकम् । तेन सर्व प्रवक्ष्यामि विस्तरेण शुभाशुभम् ॥ ४॥ प्रभवदिभवी शुभौ शुक्लोऽशुभः, प्रमोदप्रजापती शुभौ, अङ्गिरा अशुभः, श्रीमुखभावौ शुभौ युवा विरुद्धः, धाता समः, ईश्वरबहुधान्यौ शुभौ प्रमाथी विरुद्ध, विक्रमवृषभौ शुभौ, चित्रभानुर्विरुद्धः, सुभानुतारणौ शुभौ, पार्थिवो विरुद्धः, व्ययः समः ॥ इति प्रथमा विंशतिका ॥ भणियं दुग्गदेवेण जो जाणइ वियक्खणो । सो सवत्थ वि पुज्जो णिच्छ्रयओ लद्धलच्छ्री य ॥ १ ॥ 3 (१०९) कहते हैं ॥ १ ॥ पार्थ उवाच - हे परमपूज्यवर्य भगवन् दुर्गदेवेश ! संवत्सर का फलाफल सत्यतापूर्वक कहो || २ || दुर्गदेव उवाच - हे पार्थ ! दुष्काल मुकाल राजपीडा भय अभय आदि होंगे उनका यथार्थ अद्भुत वर्णन सुन || ३ | उसको जो नहीं जानता है उसका जन्म व्यर्थ है, इसलिये मैं सब शुभाशुभ को विस्तार पूर्वक कहता हूँ ॥ ४ ॥ प्रभव और विभववर्ष शुभ हैं, शुक्लवर्ष अशुभ है, प्रमोद और प्रजापति वर्ष शुभ हैं अङ्गिरा अशुभ है, श्रीमुख और भाववर्ष शुभ है, युवावर्ष विरुद्व है, धाता समान है, ईश्वर और बहुधान्यवर्ष शुभ हैं, प्रमाथी विरुद्ध है, व्यय समान है, ॥ इति प्रथमा विंशतिका ॥ दुर्गदेव मुनि ने जो कहा है, उसको यदि विचक्षण पुरुष जाने तो वह सर्वत्र माननीय होता है और निश्चय से लक्ष्मी को पाप्त करता है ॥ १ ॥ " Aho Shrutgyanam" Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये सर्वजित्सर्वधारिणौ शुभौ, विरोधिविकृतखरा विरुद्धाः, नन्दनविजयजयमन्मथाः शुभाः, दुर्मुखो विरुद्धः, हेमलम्बिविलम्थौ शुभौ, विकारी विरुद्धः, शर्वरीप्लवशुभकृच्छोभनाख्याः शुभाः, क्रोधनो विरुद्धः, विश्वावसुः शुभः , पराभवो विग्रही ॥ इति द्वितीयविंशतिका ॥ . प्लवकीलको शुभौ, सौम्यः समः , साधारण विरोधिौ शुभौ, परिधावी विरुद्धः, प्रमाथी आनन्दश्च शुभः , रुधिरोद्गारीरक्ताक्षिक्रोधनक्षयाख्या विरुद्धाः ॥ इति तृतीयविंशतिका ॥ तत्र श्लोका अपि-यहुतोयधरा मेघा बहुसस्या च मेदिनी। प्रशान्ताः पार्थिवा लोकाः प्रभवे वत्सरे ध्रुवम् ॥१॥ सुभिक्षं क्षेममारोग्यं सर्वव्याधिविवर्जितम् । दुष्टतुष्टा जनाः सर्वे विभवे च न संशयः ॥२॥ सर्वजित् और सर्वधारीवर्ष शुभ हैं, विरोधी विकृत और खरवर्ष बि रुद्ध हैं, नन्दन विजय जय और मन्मथ शुभ हैं, दुर्मुख विरुद्ध है, हेमलम्बि और विलम्ब शुभ हैं, विकारी विरुद्ध है,शर्वरी प्लव शुभकृत् और शोभन ये शुभ हैं, क्रोधन विरुद्ध है, विश्वावसु शुभ है, पराभव विग्रह कारक है ।। इति दूसरी विंशतिका ॥ प्लवङ्ग और कीलक शुभ हैं, सौम्य समान है, साधारण और विरोधी शुभ हैं, परिधावी विरुद्ध हैं, प्रमाथी और आनन्द शुभ है, रुधिरोद्गारी रक्ताक्षि क्रोधन और क्षय ये वर्ष विरुद्ध हैं ।। इति तीसरी विंशतिका ॥ प्रभववर्ष में वर्षा अधिक बरसे निश्चयसे पृथ्वी पर धान्यविशेष हो, राजा और प्रजा प्रसन्न रहें ।। १ ॥ विभववर्ष में सुकाल हो, कल्याण तथा आरोग्य हो, सब व्याधियों से रहित हों और सब लोग प्रसन्न रहें इसमें संशय नहीं ॥ २ ॥ शुक्लवर्ष में मनुष्य घोड़ा और हाथी इनको अनेक "Aho Shrutgyanam" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्तराधिकारः रोगाश्च विविधाश्चैव नराणां वाजिदन्तिनाम् । पृथ्वीपतिविनाशश्च ध्रुवं शुक्ले प्रजायते ||३|| उत्तमं च जगत्सर्वे धनधान्यसमाकुलम् | नित्योत्सवः प्रजावृद्धिः प्रमोदे नात्र संशयः ॥४॥ नीरोगाश्च निराबाधाः सर्वदुःखविवर्जिताः । बहुक्षीरघृता गावः प्रजासुखं प्रजापतौ ॥५॥ हर्षितं जगत्सर्व नरा निर्धनधान्यकाः । प्रजाविवाहमाङ्गल्य-मङ्गिरायां तु निश्चितम् ||६|| सुभिक्षं कुशलं लोके वर्षाकालेऽतिशोभनम् । वृद्धिश्व सर्वसस्यानां श्रीमुखे सति निर्णयात् ||७|| बहुक्षीरघृता गावो धान्यं च प्रचुरं स्मृतम् । समर्घ्यं च भवेत् सर्व भावे भावेषु सुस्थता ||८|| मह जायते धान्यं घृतं तैलं तथैव च । प्रजानां जायते वृद्धियुवा युवतिनन्दनः ॥६॥ (१११) प्रकार के रोग हों और राजा का विनाश हो || ३ || प्रमोदवर्ष में समस्त जगत् उत्तम धन धान्य से पूर्ण हो, सर्वदा शुभोत्सव हो और प्रजा की वृद्धि हो इसमें संशय नहीं ॥ ४ ॥ प्रजापति वर्ष में सब लोग रोग रहित बाधा रहित और सब प्रकार के दुःख रहित हों, गौएं बहुत घी दूध दें और प्रजा सुखी हो || ५ || अङ्गिरा वर्ष में समस्त जगत् आनन्दित हों, मनुष्य धन धान्य से रहित हों और प्रजामें विवाह मङ्गल वर्ते ॥ ६ ॥ श्रीमुखवर्षमें जगत् में सुकाल और कल्याण हों, वर्षाऋतु में बडी मनोहरता हो और सब प्रकारके धान्यकी वृद्धि हो || ७ || भाववर्ष में गौएं बहुत दुध घी दें, बहुत धान्य पैदा हों और सब वस्तुके भाव सस्ते हों ॥ ८ ॥ युवावर्षमें धान्य तेज हो तथा घी तेल भी तेज हों, प्रजाकी वृद्धि और युवा स्त्री पुरुष प्रसन्न रहें ॥ ६ ॥ धातृसंवत्सर में गेहूँ चावल आदि सब धान्य "Aho Shrutgyanam" Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) मेघमहोदये जायन्ते सर्वसस्यानि गोधूमा व्रीहिरल्पकाः । इक्षुखण्डगुडा रोगा धातृसंवत्सरे क्वचित् ॥१०॥ सुभिक्ष क्षेममारोग्यं कर्पासस्य महर्घता । लवण मधुमद्यं च महर्घमीश्वरे भवेत् ॥११॥ . सुभिक्षं क्षेमता मार्गे प्रशान्ताः पार्थिवा यतः । तस्करोपद्रवो ग्रामे बहुधान्ये न संशयः ॥१२॥ राष्ट्रभङ्गश्च दुर्भिक्षं तस्करग्रहपीडनम् । डामरं विग्रहो मार्गे प्रमाथी जनमन्थनः॥१३॥ जायन्ते सर्वसस्यानि मेदिनी निरूपद्रवा । लवणंमधुमद्याज्यं समधु विक्रमे भवेत्॥१४॥महर्घमितिकचित् कोद्रवाः शालयो मुद्गाः कङ्गुमाषास्तिलादयः सुलभं च भवेत् सवे वृषभे वृषभाः प्रियाः ॥१५॥ चणका मुद्गमाषाद्या-स्तथान्यद्विदलं ध्रुवम् । महर्घ जायते सर्व चित्रभानौ न संशयः ॥१६॥ पैदा हों, इक्षु और गुड थोड़ा हो और कचित् रोगका संभव रहे ॥१०॥ ईश्वरवर्षमें सुकाल हो, माङ्गलिक कार्य और आरोग्य हो, कपास का भाव तेज हो, तथा लूण, मधु और मद्यका भाव भी तेज हो ॥ ११ ॥ बहुधान्यवर्षमें सुकाल हो, मार्गमें कल्याण हो, राजा शान्त रहें, गॉवमें चोरोंका उपद्रव हो इसमें संशय नहीं ॥ १२ ॥ प्रमाथीवर्षमें राष्ट्रभङ्ग और दुष्का ल हो, चोरों का उपद्रव हो, घोर विग्रह हो और मार्गमें लोग कष्ट पार्से ॥ १३ ।। विक्रमवर्षमें सब प्रकार के धान्य उत्पन्न हों, पृथ्वी उपद्रव रहित हो, लूण,मधु, मद्य और धी सस्ते हों ॥ १४ ।। वृषभवर्षमें वृषभ (बैल) प्रिय हो; कोद्रवा, चावल, मूंग, कंगु, उडद और तिल आदि सस्ते हों ॥ १५ ॥ चित्रभानुवर्षमें चणा, मूंग, उडद आदि सब द्विदलधान्य निश्चय से महँगे हों इसमें संशय नहीं ॥ १६ ॥ सुभानुवर्षमें सुकाल हो, बहुतधा-- "Aho Shrutgyanam Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः सुभिक्षं बहुधान्यानि स्वस्था देशा नृपाः प्रजाः । सर्वेऽपि सुखिनो हर्षा-ज्जाते सुभानुवत्सरे ||१७|| अतिवृष्टिः प्रजासौख्यं धान्यौषध्यः प्रपीडिताः । सत्यं भवति सामान्यं धान्यं किञ्चित्तु तारणे ॥१८॥ बहुसस्यानि जायन्ते सौराष्ट्रे गौडमण्डले । लाटदेशे तथा धान्यं पार्थिवे पार्थिवक्षयः ||१९|| दुर्भिक्षं जायते घोरं विविधोपद्रवो जने । अल्पवृष्टिः समाख्याता व्यये संवत्सरोदये ॥ २० ॥ इति प्रथमा विंशतिका । वर्षन्ति सोधमा मेघाः सर्वसस्यं प्रजायते । समर्थ च भवेत् सर्व सर्वजिद्वत्सरे स्मृतम् ||२१|| कोद्रवाः शालयो मुद्राः कङ्गभाषादयो धनाः । सुभिक्ष सर्वदेशेषु सर्वधारिणि वत्सरे ||२२|| ज्वालाग्निप्रवलात्तापाद् धान्यौषध्यः प्रपीडिताः । (११३) न्य हो, देश में शान्ति रहै, राजा और प्रजा सब मुखी तथा प्रसन्न हों ॥ १७ ॥ लारवर्षमें बहुत वर्षा हो, प्रजासुखी धान्य और औषधका नाश तथा धान्य सामान्य हो ॥ १८ ॥ पार्थिववर्ष में सोरठदेश, गोडदेश और लाटदेशमें बहुत धान्य पैदा हों, तथा राजाका विनाश हो ॥ १६ ॥ व्ययसंवत्सर में चोर दुष्काल हो, मनुष्यों में अनेक प्रकारके उपद्रव हों और थोडी वर्षा हो ॥ २० इति प्रथमा विंशतिका ॥ सर्वजित्वमें फलीभूत वर्षा बरसे, सब वान्य पैदा हों और स चीज वस्तु सस्ती हों ॥२१॥ सर्ववारी वर्ष में कोद्रव, चावल, मूंग, कंज, उडद आदि बहुत धान्य पैदा हों और सर्वत्र सुकाल हो ॥ २२॥ बिरोधी निकी ज्वालाका प्रबल तापसे धान्य और औषधियोंका विनाश हो " Aho Shrutgyanam" Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४) मेघमहोदये जायते च नृणां कष्टं विरोधो वा विरोधिनि ||२३|| सर्वत्र जनपीडा स्वाद ज्वराद्धान्यमहर्घता । शिरोर्त्तिश्चक्षुरोगादि- विकृतिर्वैकृते भवेत् ||२४|| उपप्लुतं जगत् सर्वे तस्करैः शलभैः शुकैः । प्रपीडिताः प्रजा भूपाः खरेऽनिखरता भुवि ||२५|| स्वस्थता जायते देशे व्याधिः सर्वोऽपि शाम्यति । धनधान्यवती भूमि- नन्दने नन्दति प्रजा ||२६|| अल्पतोयधरा मेघा वर्षन्ति खण्डमण्डले । नश्यन्ति सर्वसस्यानि विजये विजयो रखे ||२७|| क्षत्रियाश्च तथा वैश्याः शूद्रा ये नटनायकाः । पीडयन्ते तोडसंक्षोभो जये न्यायपरिक्षयः ||२८|| सरोगं जायते विश्वं दाघज्वरादिरोगतः । . पीडयन्ते च जगत् सर्वं मन्मथे मन्मथक्रिया ||२९|| तुपधान्यक्षयादेव सर्वधान्यमता । और मनुष्यों में दुःख तथा विरोध हो || २३ || विकृतिवर्ष में सब जगह मनुष्योंको दुःख ज्वररोगसे हो, धान्य महँगे हों, माथेमें तथा आँख में रोग का विकार हो ॥ २४ ॥ खरवर्षमें समस्त जगत् चोर, शलभ और शुकोंसे उपद्रवित हों, राजा तथा प्रजा दुःखी हो और भूमि रसकस रहित हो || २५ || नन्दनवर्षमें देश प्रसन्न हो, सब प्रकार के रोगों की शान्ति हो, प्रध्वीधन धान्यसे पूर्ण हो और प्रजा ग्रानन्दित रहे ॥ २६ ॥ विजयवर्ष मैं देशमण्डल में वर्षा थोडी बरसे, सब धान्यका विनाश हो और युद्धमें वि जय हो || २७ ॥ जगवर्षमें क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और नट नायक आदिको दुःख हो, टीड्डीका प्रकोप और न्याय नीतिका विनाश हो ॥ २८ ॥ मन्मथवर्ष में जगत् रोग रहित हो, दाह ज्वरादिसे सब जगत् दुःखी हो तथा काम क्रीडा में व्यय रहै ॥ २६ ॥ दुर्मुखवर्षमें वास तथा धान्यका विनाश, "Aho Shrutgyanam" Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार: व्यवहारविनाशश्च दुर्मुखे न सुखं कचित् ॥३०॥ क्षीयन्ते सर्वसस्यानि देशेषु च न सुस्थता । हेमलम्बे प्रजाहानि दुर्भिक्षं राजपीडनम् ॥ ३१ ॥ तस्करैः पार्थिवैदेव: पराभूतमिदं जगत् । अर्थो भवति सामान्यो विलम्बे तु महद्भयम् ||३२|| दुःखितं च जगत् सर्वे बहुधा स्युरुपद्रवाः । विकारिवत्सरे सर्पाः वर्षा वर्षेऽत्र पश्चिमा ॥ ३३ ॥ पर्वते पर्वते वृष्टि-देशेऽपि खण्डमण्डले । व्यापारस्य विनाशश्च दुर्भिक्षं शर्वरीकृतम् ||३४|| सुभिक्षं जायते लोके मेदिनी तुष्यति ध्रुवम् । प्लाव्यन्ते सर्वतो नीरैः पण्डिता अपि मानवाः ||३५|| शोभनानि च धान्यानि सुखं लोके चराचरे । ब्राह्मणा अपि सन्तुष्टाः शुभकुद्वत्सरे सति ॥ ३६ ॥ सुभिक्षं सुखमोत्माह-महीगोब्राह्मणादयः । (222) सब प्रकार के धान्य तेज, व्यवहार (व्यापार) का विनाश और सुख कचित् ही हो ॥ ३० ॥ हेमलम्ब सब धान्य विनाश हो, देश में शान्ति न रहे, प्रजःका विनाश हो, दुष्काल पड़े और राजाको कष्ट हो ॥ ३१ ॥ विलम्बवर्ष में चोर, राजा और देवों यह जगत् पराभूत हो, धान्य सामान्य और बड़ा भय हो || ३२ || विकारीवर्गमं सब जगत् दुःखी हो, अनेक प्रकार के सार्वादि उपदव हों और पश्चिम में वर्षा हो ॥ ३३ ॥ शर्वरीवर्ष में पर्वत पर्वत पर और देश तथा खंड में वर्षा हो, व्यापार ठीक न चले और दुष्काल हो || ३४ ॥ प्लवर्ष जगत् सुकाल हो पृथ्वी सब तरह जल से पुट हो, बुद्धिमान लोग भी प्रसन्न रहे || ३५ || शुभवर्षमें चराचर जगत् में सुख और अच्छे २ धान्य पैदा हों और ब्राह्मण सन्तुष्ट रहें ॥ ३६ ॥ काल, पृथ्वी सुखमयं गौ ब्राह्मण आदि सुखी, देशमें शान्ति "Aho Shrutgyanam" Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) मेघमहोदये देशाः सुस्थाः प्रजाहर्षो वर्षे स्याच्छोभने जने ||३७|| विषमस्थं जगत् सर्वे व्याकुलं दारुणाद् रणात् । देशे ज्ञाता कुटुम्बे च क्रोधी क्रोधपरः परम् ॥ ३८ ॥ सर्वत्र जायते क्षेमं सर्वरसमहर्घता । विश्वासी सस्यवृद्धिः काठलोहमहता ॥ ३६ ॥ पार्थिवे मण्डले मुख्यैः सामन्तैः खण्डमण्डले । पीडिताश्च प्रजाः सर्वा भयभीताः पराभवे ॥४०॥ इति द्वितीया विंशतिका । तुषधान्यक्षयादेव ग्रीष्मे धान्यमहधना । प्लवङ्गे पीडयते भूपैः स्वदेशः परमण्डलम् ॥४१॥ जायन्ते सर्वसस्यानि सुस्थता नास्त्युपद्रवः । सोमनेत्राश्च राजानः कीलके केलिकिञ्चनम् ||४२|| भैरवा सौम्यवृष्टिश्च सुभिक्षं निरुपद्रवम् । सौम्पदृष्टिभवेद् राजा सोम्ये सौम्यं प्रवर्त्तते ॥ ४३ ॥ और प्रजा हर्षित हो ॥ ३७ ॥ क्रोधीवर्ष में सत्र जगत् अव्यवस्थित और घोर युद्धसे व्याकुल हो, देश ज्ञाति और कुटुम्बमें परस्पर क्रोध हो ॥ ३८८ ॥ विश्वावसुवर्षमें सब जगह कल्याण हो, सब रसवाले पदार्थ महँगे हों, धान्यकी वृद्धि और काष्ट तथा लोहेकी तेजी हो ॥ ३६ ॥ पराभव में देश में तथा प्रान्त में मुख्य अधिकारियोंसे सब प्रजा दुःखी और भयभीत हो ॥ ४० ॥ इति दूसरी विंशतिका । वर्ष वास और धान्यका विनाश होने में ग्रीमऋतु में तेज भाव हो, राजाओं से स्वदेश और परदेश दुःखी हो ॥ ४१ ॥ कीलकवर्षमें सब. धान्य पैदा हों, उपद्रव सब शान्त हो, राजा शान्त दृष्टिवाले हों और कुछ कहा करनेवाले हो ॥ ४२ ॥ सौम्यवर्षमें बहुत अच्छी वर्षा हो, उपद्रवरहित मुका हो, राजा शान्त दृष्टिवाले हों और सर्वत्र मुख फैले "Aho Shrutgyanam" Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवाभराधिकारः तोयपूर्णा भुवि मेघा वर्षन्ति च निरन्तरम्। साधारणे लोकहर्षः सर्वसस्यं प्रजायते ॥४४॥ माधवो वर्षति जने देशेषु खण्डशः कचित् । छत्रभङ्गः कान्यकुब्जे विरोधी स्याद् विरोधिनि ॥४५॥ सन्तुष्टं च जगत्सर्व क्षेमाणि विविधान्यपि।। मरुतोऽपि वान्ति सौम्याः परिधाविनि वत्सरे ॥४॥ निष्पत्तिः सर्वसस्थानां सर्वरसमहर्घता। तैलं घृतं समं याति आनन्दे नन्दिताः प्रजाः ॥४७॥ कोद्रवा शालयो मुद्गः पीड्यन्ते धान्यरोगतः। विप्रपीडा राजयुद्धं राक्षसे निष्ठुराः प्रजाः ॥४८॥ दुर्भिक्षं जायते किञ्चिद् धान्यौषधविनाशतः । आश्विने मरण वैरं नले तापोल्ललात् क्षयः ॥४॥ सुभिक्षं देशभोगश्च रसवस्त्रमहर्षता । ॥ ४३ ।। साधारणवर्षमें पृथ्वीपर निरन्तर जलसे पूर्ण वर्षा हो, लोक प्रसन्न रहें और सब धान्य पैदा हो ॥ ४४ ॥ विरोधीवर्षमें विरोध हो, दे. शमें या खण्डमें क्वचित् ही वर्षा हो और कान्यकुब्ज छत्रभंग हो ॥४५॥ परिधावीवर्ष में समस्त जगत् प्रसन्न हो, अनेक प्रकारके कल्याण हो, और मुखदायक वायु चलै ॥ ४६ ॥ आनन्दवर्षमें प्रजा आनन्दित रहे, सज तरहके धान्य पैदा हों, सब रसवाले पदार्थ महँगे हों, तथा तैल और घी का समान भाव रहै ॥ ४७ ॥ राक्षसवर्षमें कोद्रव, चावल, मूंग, आदि धान्यका विनाश हों, ब्राह्मणों को दुःख और राजाओं में युद्ध हो तथा प्रजा निष्टर. (कर) हो ॥ ४८ ॥ नलवर्षमें धान्य और औषधियोंका विनाश होनानेसे कुछ दुकाल हो, आश्विनमें मरण तथा द्वेष हो और तापकी ज्वालासे विनाश हो ॥ ४६॥ पिङ्गलवर्षमें बहुत मङ्गल तथा मुकाल हो, रसवाले पदार्थ और वस्त्र महँगे हों और कभी शोक तथा कभी हुर्ष हो । "Aho Shrutgyanam" Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहादये कचिच्छोकः कचिन्मोदः पिङ्गले मङ्गलं बहु ||२०|| दुर्भिक्षं जायते लोके सर्वरसमहता | भूम्यां मूषकपीडा च कालयुक्ते कलिर्महान् ॥ ५१|| तोयपूर्णाः शुभा मेवा बहुसख्या च मेदिनी निष्ठुराः पार्थिवा देशे सिद्धार्थे वत्सरे सति ॥५२ || उपद्रवो रणात् क्षेत्रे मूषकैः शलभः शुकैः । दुर्भिक्ष स्वल्पकं रौद्रे क्रमाद्रौ प्रवर्त्तते ॥५३॥ सुभिक्ष भवति प्रायो व्यवहारो न वर्तते । दुर्मती मध्यमा वृष्टिः पश्चात् सौम्यं सुखं जने ॥ ५४ ॥ सुभिक्षं स्यान्महोत्साहाद. दुन्दुभिर्नन्दति ध्रुवम् । विप्रागाच गवां वृद्धि - दुन्दुम सर्वतः शुभम् ॥५५॥ अल्पवृष्टिर्भवेद दैवात् कृररूपाश्च मानवाः । संग्राम दारुणो भूपै रुधिरोद्वारिवत्सरे ||१६|| मेदिनी पुष्पिता मेघैः सरमा धान्यसम्भवात् । ( ११८) > ५० ॥ कालवर्ष जगतूने दुष्काल हो सब रसवाले पदार्थ तेज भाव हों, पृथ्वी पर चूहों का उदय हो और बड़ा कलह हो ॥ ५१ ॥ सिद्धार्थन में जल से पूर्ण अच्छी वर्षा हो, पृथ्वी बहुत धान्यवाली हो और देशमें राजा निष्ठुर हो ॥ ५२ ॥ रौद्रवर्षमें देशमें युद्ध से चूसे शलमोंसे और शुकोंसे उपश्र्व हो थोड़ा दुष्काल पड़े बड़ा भयानक हो ॥ ५३ ॥ दुर्मतिवर्ष में प्रायः सुकाल हो, व्यवहार बन्ध रहे, मध्यम वर्षा हो और पीछेसे लोक में मुखशान्ति हो ॥ ५४ ॥ दुन्दुमीवर्ष में सब ओर से शुभ तथा सुकाल हो, बड़े उत्सवसे दुंदुभीका शब्द हो और गो ब्राह्मणोंकी वृद्धि हो ॥ ५५ ॥ रुधिसद्गारिवर्षमें दैवयोगसे थोड़ी वर्षा हो, मनुष्य क्रूर स्वभाव के हों और राजा ओका वोर संग्राम हो ॥ ५६ ॥ रक्ताचिवर्षमें भूकम्प हो, प्रायः लोक रोग से व्याकुल हों और अच्छी वर्षा होनेसे तथा धान्य उत्पन्न होनेसे पृथ्वी "Aho Shrutgyanam" Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः प्रायो रोगातुरा लोका रक्ताक्षे भूमिकम्पनम् ॥५७॥ राजडम्बरदुर्भिक्षं विरोधोपद्रवाकुलम् | क्रोधने विषमं सर्व मरको म्लेच्छराजता ॥५८॥ मेदिनी कम्पते सैन्यात् कम्पन्ते च महीधराः । देशभङ्गाश्च दुर्भिक्षात् क्षयान्दे क्षीयते प्रजा ॥५९॥ इति तृतीया विंशतिका | क्वचिज्जडविलेखनाद् वचसि विभ्रमाद् वा कचिद् भ्रमादपि मतेस्तथा भवति पाठभेदो भुवि । तथाप्यवितथा कथा स्फुरतु वार्षिके निर्णाये, विशेषविदुषां मिथः कथनमेकमुत्पश्यतात् ॥ १ ॥ अथ विस्तरतः षष्टिवर्षाणां स्पष्टता फले । प्राचीनवचनैरेव गद्यरीत्या निगद्यते ॥ २ ॥ श्रीशङ्केश्वरपासाई - दृषभं प्रणमन् स्तुवन् । सांवत्सरफलं वच्मि प्रभवादिसमुद्भवम् ॥ ३ ॥ (११९) रसवाली और प्रफुल्लिन हो ॥ ५७ ॥ कीचनवर्षमें राजाओंका आडम्बर और दुष्काल हो; विरोव आदि उपद्रवोंसे व्याकुल ऐसा मरणतुल्य म्लेच्छ राज्य हो और सब विपरीत हो ॥ ५८ ॥ क्षयसंवत्सर में सैन्यके भारसे पृथ्वी और पर्वत कांपने लगे, दुष्कालसे देशका नाश और प्रजाका विनाश हो || ५६ ॥ इति तीसरी विंशतिका । कभी जडबुद्धिवालेके लिखनेसे, कभी वचनमें भ्रम हो जानेसे और कभी बुद्धिका भ्रम हो जानेसे बहुतसे पाठभेद हो जाते हैं, तो भी वर्ष संबंधी निर्णय में विशेष जाननेवाले विद्वानोंका यथार्थ कथन स्फुरायमान हो और एक ही कथन देखो ॥ १ ॥ अत्र साठ वर्षोंके स्पष्टफलको विस्तार से प्राचीन विद्वानोंके वचनानुसार गद्यरीति से कहा जाता हैं ॥ २ ॥ श्री शश्वरपार्श्वनाथ जिनेश्वरको वन्दन और स्तुति करके प्रभव आदि साठ संवत्सरों के फल "Aho Shrutgyanam" Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोदये प्रभवनाम संवत्सरे ब्रह्मास्वामी, चैत्रो वैशाखश्च मन्दः, समस्त वस्तुसमता इत्यर्थः; ज्येष्ठादयो मासास्त्रयस्तत्र धा न्य महता, गोधूमयुगं वरमुद्रादीनां महर्चता, भाद्रपदोऽपि शुभः आश्विनश्च क्वचिन्मयतापि रोगपीडा महती, सर्वक्रयाणकं महम् ॥ १॥ विभवे विष्णुः स्वामी, रोगव्याप्तिः पृथिव्यां नागपुरीदेव गिरिदुर्ग भङ्गः, तिलङ्गमगधचीनदेशे महघेता, उच्चमुलतानस्थले महाविग्रहः, अन्यत्र समता, चैत्रादिमासास्त्रयो महार्घा आषाढादित्रये मेघवृष्टिः, आश्विने सर्वरसमहघेता, ततो मेघबाहुल्यं, कार्तिकादयो मासाः पञ्च तेषु सर्ववस्तुमहर्षता गोधूमसमता ||२|| शुक्ले रुद्रः स्वामी, छत्रभङ्गो म्लेच्छदेशेषु मन्त्रिणो राज्यं, चैत्रादिमासत्रयं समर्धम्, आषाढादिमासत्रये महामेघः, आश्विने जनरोगा, अन्नघृतं समर्धम्, अको मैं कहता हूँ ॥ ३ ॥ प्रभवनाम संवत्सरका स्वामी ब्रह्मा है, चैत्र वैशाखमें समस्त वस्तुओं का भाव मंडा रहे, ज्येष्ठादि तीनमास धान्यकी महता, गेहुँ मूंग, जुआर आदिक महता, भाद्रपदभी महर्वता और शुभ हो, आश्विनमें कभी २ महता, अधिक रोग पीडा और सब क्रयाणकवस्तुओंका भाव तेज हो ॥ १ ॥ विभववर्षका स्वामी विष्णु है, पृथ्वीपर रोग व्याप्ति, नागपुर देवगिरिमें दुर्गभंग हो, तिलङ्ग मगच और चीन देशमें धान्य महँगे हों, मुलतान ने महावित हो, अन्यत्र भाव समान रहे, चैत्रादि तीन मास महँगा हो, आपादादि तीन मास मेष हो, आश्विन में समस्त रसों का भाव तेज हो, मेच बहुत बरसे, कार्तिक आदि पांच मास सब वस्तुके भाव तेज हो और गेहुँका भाव समान रहै || २ || शुत्र्ष स्वामी रुद्र है, म्लेच्छदेशमें छत्रभंग हो और मन्त्रयोंका राज्य हो, चैत्रादि तो । मास समान भाव रहे, आषाढादि तीन मास बड़ीवर्षा हो, आम्पिनमें मनुष्यों को रोग, अन्न तथा श्री समान और दूसरी (१२०) "Aho Shrutgyanam" · उच्च Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्साधिकारः (१२५) न्यत् सर्वमहाघम्, कार्तिकादिमासचतुष्टये सर्वधान्यं समर्घम्, फाल्गुनमाने विड्वरम्, संवत्र विग्रहः, लोकग्रामपीडा, देशे मुआकुलता, शून्यत्वं ग्रामेषु ॥३॥ प्रमोदे रविः स्वामी, मध्यमें वर्षम् , अल्पवृष्टिः खण्डमण्डले, मेदपाटपीडा, देश उद्धसा, मलेच्छवर्गक्षयः, छत्रमः, पर्वते तटे स्वल्पा वसतिः, तिलङ्ग राजविड्वरम्, चैत्रे वैशाखे च महता, ज्येष्ठेरोगपीडा, भाषादादिभासत्रयेऽल्पमेघः, आश्विनमासे किञ्चिद्वर्षा, धान्यस्य कलशिका त्रयोदशफदिधानाणकैः, कार्तिकादिमास पत्रके महम्, अतिवायुर्वाति, व्यापारिलोकपीडा, खण्ड , पहलादिमहर्घता, कार्तिकादिमासचतुष्टये सर्वरस ला, फाल्गुने मध्यमः ॥४॥ प्रजापतिवत्सरे चन्द्रः साली, बादशापि मासाः शुभाः अल्पमेघवर्षा, आश्विने पाइल्यम्, धान्यस्य कलशिका पचत्रिंशत्फदियाप्रक, कार्तिकादिमासघ्यं मन्दं, पौषादिमासत्रयेसब वस्तु महँगी हो, कार्तिकादि चार मास सत्र धान्य समान, फाल्गुनमास में वित्रह, ग्रामी ग लोकोंको दुःख, देशमें व्याकुलता और गांवों में शून्यता हो॥३॥ प्रमोदवर्षका स्वामी रवि है, वर्ष मध्यम, खण्डदेशमें थोड़ीवर्षा मेदपाट में दुःख, देश उद्वेग, मलेच्छवर्णका क्षय, छत्रभंग , पर्वतके तटमें थोड़ी वसति, तैलङ्गमें राजविग्रह, चैत्र वैशाश्वमें तेजी,ज्येष्टमें रोगपीडा पापादादि तीन मासमें अल्पवर्षा, आश्विनमासमें कुछ वर्षा, तेरह फदियाका कलशी धान्य चिके, कार्तिकादि पांच मास तेजी, बहुत वायु चले, व्यापारी लोगों को दुःख, खण्डवृष्टि, पकूल ( रेशमीवस्त्र आदि ) तेज बि, का--- तिकादि चार मास सब रसवाली वस्तु तेज और फाल्गुनमास में समान भाव रहै ॥ ४ ॥.प्रजापतिवर्षका स्वामी चन्द्र है, बारह महिने श्रेष्ट रहे, थोड़ी वर्षा, माबिन रोगकी अधिकता, पैतीस फदियाका कलशी धान्य बि "Aho Shrutgyanam" Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) मेघमहोदये ऽरिष्टम्, कचिदुपात:, दर्शनिलोकस्य पीडा ॥५॥ अङ्गिरायांमङ्गलः स्वामी,चैत्रो वैशाखश्च मन्दः, ज्येष्ठे वायुः प्रयलः, आषाढे मेघबाहुल्यं, श्रावणादिमासत्रये रोगपीडा, कार्तिके सन्निनिष्यत्तिः,पौषादिमासत्रये करकान मेघवर्षा इत्यर्थः ।।। श्रीमुखे वुधः स्वामी, चैत्रे संवैधान्यं महम्, आषाढ कृष्णपक्षेऽत्यन्तं मेघवर्षा, श्रावणे गोधूमा महर्घाः, घृते धान्ये च द्विगुगो लाभा, वणिग्लोकपीडा, पश्चिमायां रौरव, पूर्वस्यांपरचक्र भयम्, उच्चमुलतानस्थले प्रजापीडा, भा. द्रपदे आश्विने च सर्वधान्यं सुभिक्षम्, कार्तिकादिमासत्रये पञ्चके वा सर्वरसानां सर्वधान्यानां महर्घता ॥७॥ भाववत्सरे गुरुः स्वामी, बहुक्षीरा गावो वर्षा बहुला, विंशोपिकाः पञ्चदश, सर्ववस्तुसमर्घता, उच्चनुलतानायोध्यासुराजड्विम्, लोकपीडा, घृतगुडाहिफेनपूगीमञ्जिष्ठामरिचदन्तवस्तुमहर्घम, कार्तिकादि दो म.स मंदा, पौवादि तीन मास अनिष्ट, कभी उत्पान और सन्यासिओंको पीडा हो ॥५॥ अंगिरावर्षका स्वामी मङ्गल है, चैत्र और वैशाख मंदा रहे, ज्येष्ठ में प्रबल वायु चलै, अाषाढ में वषी अधिक, श्रावणादि लीन मारत में रोगपीडा, कार्तिकमें सब धान्यकी निष्पत्ति और पौषादि तीन मास में मेत्रका अभाव हो !॥ ६ ॥ श्रीमुखवर्षका स्वामी बुध है, चैत्रमें सब धान्यकातेजनात्र हो, आपाढकृष्ण क्षमें बहुत वर्षा, श्रावणमें गेहूँ तेज, बी और धान्यमें द्विगुगालाभ, वणिकों को पीडा, पश्चिममें भयंकर पीडा, पूर्व में प. रचक्र शत्रुका भय, उच्चमुलतान्देशमें प्रजापीडा, भाद्रपद और आश्विनमें सत्र धान्य सस्ते, कार्तिकादि तीन मास में या पांच मासमें सब धान्य और रस तेज हो ॥ ७ ॥ भाववर्षका स्वामी गुरु है, गायें अधिक दूध दें, वर्षा अधिक, पन्द्रह विंशोपका, सब वस्तु समान बिक, उच्चमुलतान और अयोध्या राज विप्लव, लोकपीडा, घी, गुड, अफीम,मुपारी, मंजीट, मित्र और दान्त "Aho Shrutgyanam" Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संश्त्सराधिकारः (१२३) चैत्रे समता, पैशाखे महर्घ सर्वधान्यं द्विगुणो लाभः, आषाहे श्रावणे किश्चिद्वर्षा, भाद्रे वर्षा, आश्विने रोगबाहुल्यं, कातिक उत्तमः, मार्गशीर्षादिमासचतुष्टयं मन्दम, राजविड्वरं महाजनपीडा ॥८॥ युवावत्सरे शुक्रः स्वामी, भूकम्पजलभयं बहुलं, चैत्रदये उत्पातः, ज्येष्ठे रोगः, आषाढे शुक्लपक्षे महान्मेघः, श्रावणे वायुर्वाति, अन्नं महर्वम्, भाद्रपदे दिन १४ महावृष्टिः, व्याकुलता, राजविग्रहः, उत्तराद्वदेशे दुर्भि क्षं रौरवं, पूर्वस्या निष्फला कृषिः, दक्षिणस्यां वैरविरोधो मागे विषमता, पश्चिमायां लोकपीडा पश्चाद् दुर्भिक्षं, सर्वर सेषु समता, कार्तिकादिभासद्रयनुत्तमम्, पौषो माघश्च मध्यमः, फाल्गुनमासे किश्चित् क्लेशः, माघादी मार्गे विग्रहः ॥९॥ धातृवत्सरे शनिः स्वामी, चत्रे वैशाग्वे च सर्वधान्यमहता, ज्येष्ठमासे समता, आषाढेऽल्पमेघः वृततैलयुगन्धरीको समञ्जिष्ठामरिचपूगीमद्घता, श्रावणे संवैधान्यसमर्थना, भावस्तु ये सब तेज भाव हो, चैत्रो समान, वैशास्त्र सब धान्य महँगा होने से दृना लाभ, आपाट श्रावणमें कुछ वर्षा, भाद्रपद अधिक वर्षा,अश्विनमें गेग अधिक, कार्तिकमें उत्तम, मागीयांदि चार मासु मंदा रहे, गजाओंमें युद्ध तथा महाजनोंको पीडा हो ॥ ८॥ युवावर्षका स्वामी शुक्र है, भूकम्प और जलका भय अधिक हो, चैत्र वैशाखमें उत्पात; ज्येष्टमें रोग, आषाढशुक्लपक्षमें महामेघ, श्रावणमें पवन लै, अन्नका भाव तंज, भादो दिन १४ बड़ी वर्मा, न्याकुलता, राजविग्रह, उत्तरार्द्ध देशमें दुष्काल और दुःख, पूर्वमें ग्वती निमल. दक्षिणमें वैर विशे में, मार्गमें विषमता, पश्चिममें लोकपीड़ा पीछे दुष्काल, सा रसके भाव समान, कार्तिकादि दो मास उत्तम, पौष और माव मध्यम फालगुनमें कुछ क्लेश, मायकी आदिम मार्ग में विग्रह हो॥ ॥ धातृवर्षका स्त्रामी शनि है, चैत्र वैशाम्बम सत्र धान्यके भाव तेज, ज्येष्टमें समान, आषाढमें थोडी "Aho Shrutgyanam" Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१२५) मेवमहोदय द्रपदे पुरुषा नपुंसकानि, पश्चिमायां महती मेघवर्षा, सर्वधान्यं समर्थम्, उत्तरदक्षिणयोर्मध्ये महामेघः परं लोकपीडा, आश्विने रसकसधातुमहर्घता धान्यसमता कार्तिकादयो मासाश्चत्वारस्तत्र सर्वदेशे अनं महधम् ॥ १० ॥ ईश्वरे राहुः स्वामी, उत्तरस्या दुर्भिक्ष, पूर्वस्या सुभिक्ष, पश्चिमाया परस्पर विरोधः, चैत्रे वैशाखेनमहर्घता, ज्येष्ठापाढयोरल्पवृष्टिः परं सर्वधान्यमहर्घता, कार्तिके रौरवं दुर्भिक्षं, मञ्जिष्ठामरिच लवंगएलादिपूगी पतवस्तु महर्घता, मागशीर्षादिमासचतुष्टयेऽतिदुर्भिक्षं, धान्यं मह, मनुष्याणां रुण्डमुण्डानि भूमिकायां रुलन्ति ॥११॥ यहुधान्ये केतुः स्वामी, पुरुषा निर्वीर्याः, पश्चिमायां सुभिक्षं परं सौख्यं सवैदेशमध्ये, दक्षिणस्यां विग्रहः परं महाभयं, उत्तरापथे स. बदेशेषु पीडा, पूर्वस्यां दुर्भिक्ष, अन्नसंग्रहः कार्य:, चैवैशावर्षा, घी तेल जुआर कपास मँजीट मिरच और सुपारी मगे हो, श्रावणमें सब धान्य तेज, भाद्रपद्रमें पुरुषों में कायरता, पश्चिममें बडी वर्षा, सब धान्य सस्ते; उत्तर दक्षिण के मध्य महा वार्षा परन्तु लोकपीडा,आश्विनमें रसकस और धातु तेज, धान्य समान; कार्तिकादि चार मास सत्र देशमें मन्न महँग हो ॥१०॥ ईश्वरवर्षका स्वामी राहु है, उत्तरमें दुष्काल, पूर्वमें मुकाल, पश्चि में अन्योऽन्य विरोध, चैत्र और वैश.ग्वमें अन्नभान तेज, ज्येष्ट और आषाढमें थोड़ी वर्षा पीछे सब धान्य तेज, कतिकमें बड़ा दुष्काल, जीठ मीरच लौंग इलायची सुवाग ये वस्तु महँगी हों, मार्गशीर्षादि चार मास में बड़ा दुकाल, धान्य भाय तेज, पृथ्वी पर घोर युद्ध हो जिससे मन्प्यों के रुंड पृथ्वी पर लेटें ॥ ११ ॥ बहुधान्पवर्ष का स्वामी केतु है, पुरुष हीमपराक्रमी हों, पश्चिनमें सुकाल और सब देशमें सुख, दक्षिगमें विग्रह पीछे महाभय, उतरके मार्ग और देशने पीडा, पूर्वमें दुष्काल, अन्न संग्रह करना चाहिये, "Aho Shrutgyanam" Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकाराधिकार सपोरने किचिन्महता, ज्येष्ठमासे चतुर्गुणो लाभः, श्रापणापाढयोम॑धः, अन्नं सर्वत्र महर्घ, षड्गुणो लाभा, भाद्रपदेऽत्यन्तमेघः, सर्वधान्यसमर्घता, आश्विने मेघः कनकधाराभिः, कार्तिकादिमासचतुष्टये समता ॥१२॥ प्रमाथिनि रविः स्वामी, आषाढे श्रावणे चाल्पमेघः, भाद्रपदे पञ्चम्यां किश्चिन्मेघः, चैत्रे गोधूमयुगंधरीमहर्घता, वैशाखे ज्येष्ठे सर्व धान्यमहर्घता परं कृष्णसप्तम्घमावस्ययोमहामेघः, परमतीवारिष्टंकार्तिकादिमासपञ्चसु सर्वरसमहर्घता, मञ्जिष्ठापूगीहिङ्गलकाश्मीरजागरूपमूत्रनालिकेर एतद्वस्तुमहर्षता ।।१३।। विक्रमसंवत्सरे चन्द्रः स्वामी, राजा प्रजा सुखी, अतिमेघः, चैत्रे वैशाखे महर्षम्, अन्ने द्विगुणो लाभः,परं वैशाखे म्लेच्छभयाद नगर उद्वसत्वम्, अरण्ये वासः, वैशाखे दिनदश महान् वायुभूमिकम्पः प्रजापीडा, ज्येष्ठमासे दुचैत्र और वैशाखमें अन्न कुछ तेज, ज्येप्ने चौगुना लाभ, आषाढ श्रावण में वर्षा, अन्न सर्वत्र महँगे व्यापारियों को छतुना लाभ, भाद्रपद में अत्यन्त वर्षा सब धान मंदा, आश्विनमें मेव, कतिकादि चार मास समभाव हो ॥ १२ ॥ प्रमाथीवर्षका स्वामी रवि है, आपाट और श्रावणा में थोड़ी वर्मा, भाद्रपद पञ्चमीको कुछ वर्मा, चैत्रमें गेहूँ जुथार तेज, वैशाख ज्येष्टमें सत्र जगह धान्य तेज, पीछे कृण सहगी और अमावासमाको महामेव परन्तु भागे बहुत अरिष्ट, कात्तिकादि पांच मास सत्र रस महँगे, मैंजीर सुपारी हिंगलु केसर अगर वस्त्र और श्रीफल चे बस्नु तेज हो ॥ १३ ॥ विक्रम वर्षका स्वामी चन्द्र है, राना प्रजा मुखी, अतिवर्षा, चैत्र और वैशाखमें तेजी होनेसे अन्न से द्विगुना लाभ, वैशाखमासमें म्लेच्छोंके भयसे नगरका विनाश, जंगल में रहवास, वैशाग्य में दश दिन महावायु, भूमिकम्प और प्रनामी 1, जो साम। दुकाल, मायादो माहा उपात, श्राप गा. भादों "Aho Shrutgyanam" Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) मेवमहोदये भिक्ष, आषाहे प्रलयः, श्रावणे भाद्रपदे महामेघः, प्रजासुखं, सर्वधान्यंसमधे, सर्ववस्तुसमर्घता, आश्विने रोगः, सर्वरससमता, कार्तिकादिमासपञ्चके सर्वान्नसमता ।१४॥ वृषभे भौमः स्वामी, वर्षा बहुला परं नृपाणां पीडा, छत्रभङ्गः, ज्येष्ठे वै राखेऽन्न लमर्यता; धान्ये त्रिगुणो लाभः,आषाढेऽन्नमहाघ'ता, श्रावणेभाद्रपदे महामेघः, आश्विने सर्वधान्यसमता, घृतमहाघता पश्चिमेऽन्नं महाध देशा उद्वसाः पश्चिमायां किश्चित्सुभिक्षं, आश्विने मेघः सर्ववस्तुसमर्वता, कार्तिके किश्चिद्रिष्टं, मार्गशिरसि दौस्थ्य, पौषादिमासत्रयं महाधं परं मध्यमः समयः ॥१५॥ चित्रभानौ बुधः स्वामी, लोकः सुखी, पूर्वम मेघः, पश्चान्महती वर्षा, सर्वधान्यघृतसमता वैशाखेऽन्नं समभावेन, ज्येष्ठादित्रये महान् मेयः सर्वधान्यसमर्थता भाद्रादिमा सवये रोगार्तिः, कार्तिके मारिभयं, मार्गशिरोळ्येऽरिष्टं,माघ. बड़ी वर्षा, प्रजा मन्त्री, सब धान्य सस्ते, सत्र वस्नुके मात्र समान, असोज में रोग और रस सब सनान, कार्ति दि पांच म.स सब अन्न समान हो ॥ १४ ॥ कृपभवर्ष का स्वामी मंगल है, वर्षा बहुत परन्तु राजाओंको पीडा और छत्रभंग हो, येष्ट वैशाम्बी अन्नभाव समान, व्यापारियों को अन्न से तिगुना लाभ, आपाढा अन्नमाव तंज, श्रावण भादों में बड़ी वर्षा, आधिनमें सत्र धान्य समान, घी तेज, पश्चिम में अन्नभाव तेज, देशका विनाश और कुछ मुभिक्ष, आश्विनमें वर्षा, सब वस्तु सस्ती, कात्तिकमें कुछ दुःख, मार्गशीर्ष में दु:ख, पोषादि तीन मास अन्न भाव तेज पीछे समय मध्यम हो ॥ १५ ॥ चित्रभानुवर्षका रवाली बुध है, लोक मुखी, पहले थोड़ी वर्मा पीछे बहुत वर्षा, सब धान्यके और बीके भाव समान, वैशाखमें अन्नका भाव समान, ज्येष्टादि तीन मास महाव, सत्र धान्य सस्ते, भाद्रपदादि दो महीने रोग, कार्तिक में महामारि का भय, मार्गशीर्षादि दो महीने "Aho Shrutgyanam" Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः (१२७ छये सरोगा प्रजा परं सर्वान्नरससमर्थता, ऋयाणकजातिसर्ववस्तुमहर्षता ॥१६॥ सुभानों गुरुः स्वामी, पूर्वस्या दुर्भिक्षं लोकसुखी चैत्रे महर्षता, वैशाखज्येष्ठयारोगपीडा, आषाढेऽनं महर्ष, श्रावणे मेघोऽन्नसमता, भाद्रे महामेघः, आश्विने रोगपीडा गोधूमसमता युगन्धरीमुद्गादिन प्रति फदियानाणकानि, धातुसववस्तुमर्ध घृतसमता कार्तिकादिमासद्वयं मध्यम राजपीडिता लोकाः, पौषादिमासंत्रये रोगपीडा क्षयंकरः परस्परं विरोधः ॥१७॥ तारणे शुक्रः स्वामी, अतिवायुः परस्परं युद्धं बहुलं. चैत्रः सरोगः , वैशाखे सर्ववस्तु महर्घ, ज्येष्ठे महान् वायुः, आषाढेऽल्पवृष्टिः, श्रावणे सप्तमीतो नवमीतो वा वर्षा, भाद्रपदे एकादश्यामत्यन्तमेघः, आश्विनेऽन्नमहर्षता, एवं सर्वरससंग्रहा कार्य:, कार्तिके महर्षता, मार्गविग्रहो धान्यं महर्धम् . योगिनीपुरे महाभयं राज्ञां विरोधः, म्लेच्छभयं, पौअरिष्ट, माघ फाल्गुन में प्रजा में रोग, सब अन्नस समान और ऋयाणक जातिके सत्र वस्तुके भाव तेज हो ॥ १६ ॥ सुभानुवर्पका स्वामी गुरु है, पूर्वमें दुष्काल, लोक सुखी, चैत्र में महँगाई, वैशाख और ज्येष्टमें रोग पीडा, आपाट में अन्नभाव तेज, श्रावण में वर्षा और अन्नभाव सम, भादोंमें महावर्षा, आश्विन मैं रोगपीडा, गेहूँ का भाव सम, जुआर मूंग आदि प्रति फदियाका एक मण, पातु भाव तेज, घी समान, कार्तिकादि दो मास मध्यम, प्रजा को राज से दुःख, पौषादि तीन मास विनाशकारक रोगपीडा और परस्पर विरोध हो ॥ १७ ॥ तारणावर्षका स्वामी शुक्र है, महा वायु चलै और परस्पर युद्धकी अधिकता हो, चैत्र में गोग, वैशाखमें सब ८स्तु तेज, ज्येष्ट में महान् वायु, आषाढमें थोडी वर्षा, श्रावणकी सप्तमी से या नवमीसे वर्षा, भादोंमें एकादशीको बहुत वर्मा, अ.सोजमें अन्न भाव तेज, सब रस का संग्रह करना कार्तिकमें तेज हो, मार्गशीरमें विग्रह, धा "Aho Shrutgyanam" Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८) । मेघमहोदये पेयुद्धं पश्चिमायां धान्यं महर्घम्. उत्तरापथेमहादुर्भिक्ष फाल्गुनमासो मध्यमः, तस्करपाशिकभयं, अन्नं महम्, विग्रहो राजविरोधाद् महत्पातकम्,पूर्वस्यां दक्षिणस्यां वा वनेवासा, प. श्चिमाया महायुद्धं परंधान्यवस्तु समर्घम्॥१८॥पार्थिवे शनि: स्वामी, उत्पातबहुलः, अन्नसंग्रहः कार्य:, चत्रे वैशाखे महाघेता सर्वतो विग्रहः, ज्येष्ठे रोगपीडा यानृपयुद्धं. भाषावे. ऽल्पमेघः, धान्यं महाघ महावायुः, श्रावणे खण्डवृष्टिः, भाद्र. पदे नैतो वायुः, अन्नमहार्घता, आश्विने वृष्टिः, गोधूमयुगन्धरीमुद्गादि महर्घ परंधातुवस्तुघृतमहर्घता, कार्तिकाविडये रोगपीडा, पौषमाघयोमहार्यता, फाल्गुने समता ॥१९॥ व्य. यवत्सरेराहुः स्वामी, अनावृष्टुिर्भिक्षं रौरवं, क्षेत्रो मध्यमः, वैशाखडये महार्यता देशविग्रहः, आषाढेऽल्पमेघः परं मन्य तेज, योगिनीपुर में बड़ा भय, राजाओं का विरोध, म्लेच्छका भय, पौष में युद्ध, पश्चिममें धान्ध तेज, उत्तरापथ में बड़ा दुष्काल, फाल्गुन मासमे मध्यम, तस्कर तथा पाशबालेसे भय, अन्नभाव तेज, विग्रह राजाओं के विशेधमे बड़ा पात हो, पूर्वके और दक्षिणके लोक बनवासी हों, पश्चिममें बड़ा युद्ध हो परंतु धान्य और वस्तु सस्ती हो ॥ १८ ॥ पार्थिववर्षका स्वामी शनि है, बहुत उत्पात हो, अन्नका संग्रह करना चैत्र वैशाखमें तेज, सम्र ओरसे विग्रह, ज्येष्ट में रोग पीडा अथवा नृपयुद्ध, आषाढ़ में थोडी वर्षा, धान्य महँगा, वायु अधिक, श्रावणमें खण्ड वर्षा, भादोंने नैऋत्यका. पवन, अन्नभाव तेज, आश्विन में वर्षा, गेहूँ जुभार मूग आदि तेज, धातु और बी तेज, कार्तिक मार्गशीरमें रोग पीडा, पौष माघमें तेज और फाल्गुनमें समान भाव रहे ॥ १६ ॥ व्यय वर्षका स्वामी राहु है, अनावृष्टि दुर्भिक्ष भौर दुःख हों, चैत्र मध्यम, वैशाख और ज्येष्टमें भाव तेज, देशमें विग्रह, आषाढमें थोडी वर्षा और तेजी, श्रावणमें दुर्भिक्ष, मध्य देशमें कि "Aho Shrutgyanam" Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ... .: संवत्सराधिकार -हार्घता, श्रावणे दुर्भिक्ष मध्यदेशे विग्रहः, दक्षिणस्यां प्रजापोड़ा, भाद्रपदे खण्डवृष्टिान्नमहर्घिता, आश्विने रोगपीडा, पूर्वस्यां विग्रहः गोधूममहार्घता चतुर्गुणो लाभः सर्वरसमहाघेता मध्यमः समयः, कार्तिके रोगपीडा यछा विग्रहोपशम:, 'मार्गमासेऽन्नमहार्घता नवरं युद्ध किञ्चित्, पौषादिमासद्वैयेऽतिमहार्घता, फाल्गुने समता परं मार्गस्थ वैषम्यमनं महाधम् ॥२०॥ इति उत्तमविंशतिका पूर्णा । . सर्वजिति वत्सरे ब्रह्मा स्वामी, चैत्रादिमासत्रय महर्थम्,'आषान्हेऽल्पमेघः, श्रावणे महामेंघा, सर्वधान्यरसवस्तुसमघता, नवीनमुद्रोदयः, राजविग्रहः, परस्परमन्नमहर्घता. भाद्रपदे दिनपश्च पश्चान्महती वृष्टिः, आश्विने रोगार्तिः सवैधान्यसमर्थता. कार्तिके राजा राज्यं करोति, प्रजासुखमनसमर्घता, मार्गशिरपौषो उत्तमौ सर्वलोकसुखं, माघमासे ग्रह, दक्षिण में प्रजापीडा, भाद्रपद में ग्वगड वर्षा और अन्न तेज, आश्विन में रोगपीडा, पूर्व में विग्रह, गेहूं तेज, व्यापारीयों को चोगुना लाभ , सब रसके भाव तेज, मध्यम समघ, कार्तिक गेग पीडा अथवा विग्रहकी शानदार मार्गशीर में अन्नभाव तेज, कुछ युद्ध का संभव, पोप मात्र में अधिक तेज, फाल्गुनमें समान पग्नु नार्गकी विषमता और अन्न भाव तेज ॥ २० ॥ इति उत्तम विंशतिका । .. ... 'सर्वजित्वर्षका स्वामी ब्रह्मा है, चैत्रादि तीन मास तेज,आषाढमैं थोड़ी वर्षा, श्रावणी महामेव, सर्व धान्य और रसकी वस्तु सस्ती, नवीन मुद्रा ( शिक्का ) चले, परस्पर गज विग्रह, अन्न महँगा, भाद्रपद में पाँच दिन पीछे बड़ी ना आश्विनमें रोग, सब धान्य सस्ता, कासिंकम राजा राज्य करें, प्रजा सुखी, अन्न सस्ता, मार्गशीर्ष और पौष उत्तम, संघ लोकमुंखी, माघमासमें दिन तीन वर्षा हो मँजीठ, मुहरा, मिरच, सोंठ पि १७ "Aho Shrutgyanam" Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये (१३०) मेघो दिनत्रयः, मञ्जिष्ठा मुहरामरिचसुंठीबिप्पली पूगीप्रमुखमहूघेता, फाल्गुने सर्ववस्तुरससमता उत्तमसमयः ॥२१॥ सर्वधारिणि विष्णुः स्वामी, राजा राज्यसुस्थः प्रजासुखमन्नं समर्थम्, मार्गशीर्षः पौषश्च उत्तमः सर्वलोकसुखं षड्दर्शनमहत्वं पूजा, सर्वनगरदेश सुस्थानवासः । चैत्रे सर्वधान्यस मता, उत्तरापथे दुष्कालः, वैशाखज्येष्ठयोमहर्घता, ज्येष्ठे महाभयमरिष्टं, आषाढे मेघः, श्रवणेऽल्पवर्षा, अनं महर्चे, भाद्रपदे दुर्भिक्षं । आश्विने रोगः, अन्नसमता, राज्ञां परस्परं विरोधोऽन्नमहघेता ||२२|| विरोधिनि रुद्रः स्वामी, चैत्रादिमात्र धान्यमहार्घता, आषाढे श्रावणेऽतिवर्षा, भाद्रपदे खण्डवृष्टिः; मासत्रयेऽतिभयं किञ्चिदुत्पातः, राजा सुखी, प्रजा सुखी, कचिदुराजयुद्धं सर्वधान्य महार्घता, आम्बिने सर्वधान्यसमर्धता, कार्तिके मारीरोगबहुलता, मार्गशीर्षादिमासचतुष्टयं गुर्जरे मरुदेशेऽन्नं महार्घम् ॥२३॥ विकृते र - प्पली, सुपारी आदि तेज, फाल्गुनमें सब रस और वस्तु समान तथा उसन समय हो ॥ २१ ॥ सर्ववारीवर्षका स्वामी विष्णु है, राजा प्रजा सुखी, अअ सस्ता, मार्गशीर्ष और पौष उत्तम, सब लोक सुखी, छ दर्शनका महत्व पूजा, नगर का सत्र देशमें वास, चैत्रमें सत्र धान्य समान, उत्तर में दुष्काल, शाख ज्येष्ट में महँगा, ज्येष्ठमें बडा भय, आषाढमें वर्षा, श्रावणमें थोड़ी वर्षा, अन्न तेज, भादोंनें दुष्काल, आश्विनमें रोग, अभाव समान, राजाओं का परस्पर विरोध और अनाज तेज हो ॥ २२ ॥ विरोधी वर्षका स्वामी रुद्र है, चैत्रादि तीन मास धान्य महँगा, आषाढ और श्रावण में प्रतिवर्षा, भादों में खगडवृष्टि, तीन मास अधिक भय, कुच्छ उत्पात, राजा तथा प्रजा सुखी, कहीं राजाओंमें युद्ध, सब धान्य तेज, आश्विन में सब धान्य सस्ता, कार्तिक में महामारीकी अधिकता, मार्गशीर्ष आदि चार मास गुजरात और मारवाड "Aho Shrutgyanam" Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवरतराधिकार विः स्वामी, अकाले वर्षा राजविरोधः,देश उक्सामरुधरायां दुर्भिक्ष, चैत्रादिमासचतुष्टयं महार्घता, कणकलशिकां प्रतिफदियानाणकैरेकशतेन लाभः, श्रावणमासखये मेघवष्टिर्नास्ति रौरवं दुर्भिक्षं, आश्विने उत्पातभूमिकम्पाः, कासिके छत्रभङ्गः, सुवर्णरूप्यताम्रकांस्यसर्वधातुसमर्घता, कणकलशिकारकाः२०फदियानाणकानामेकशतं लभ्यते।२४॥ खरसंवत्सरे चन्द्रः स्वामी, चैत्रादिमासपञ्चके महती वर्षा, सु. भिक्ष प्रजासुखं सर्वलोके गुरूणां महत्वं, पश्चिमायां सुभिक्षं । आश्विनेऽन्नसमता रसमयता, मञ्जिष्ठासुहागावस्तुतो मरुधरायां त्रिगुणो लाभः, म्लेच्छक्षयः परं रोगपीडा सर्वधान्यनिष्पत्तिः प्रजासुखं, कार्तिकादि मासपञ्चकं मध्यम सर्वधातुसमर्थता ॥२५॥ नन्दने भौमः स्वामी, प्रजासुखं सर्वधान्यसमता, चैत्रमध्ये करकाः पतन्ति । वैशाखे धान्यं महधं प्रचण्डवायुः।ज्येमें अन्नभाव तेज ॥ २३ ।। विकृतिवर्षको स्वामी रवि है, अकालमें वर्धा, राजाओंमें विरोध, देशका उजाड़, मरुधरमें दुकाल, चैत्रादि चार मास तेज, धान्य एक सौ फदियाका कलशी, श्रावण भादोंमें मेघ वर्षा न हो और बड़ा दुष्काल हो, आश्विनमें उत्पात भूमिकंप, कार्तिकमें छत्रभंग, सोना चादी ताबा कांशा भादि सब धातु सस्ते हो ॥ २४ ॥ खरेवर्षका स्वामी चन्द्र है, चैत्रादि पांच मासमें बड़ी वर्षा, सुकाल प्रजाको सुख, सब लोगों में गुरु जनों का सन्मान, पश्चिममें सुकाल । आश्विन में अनाज समान, रस महँगा, मजीट सुहागा से मारवाडमें तीगुना लाभ, म्लेच्छका विनाश परंतु रोग पी. डा, सब धान्य की निष्पत्ति, प्रजा को सुख, कार्तिकादि पांच मास मध्यम और सब धातु सस्ती हो ॥ २५ ॥ . नन्दनवर्ष का स्वामी मंगल है, प्रजामें सुख, सब धान्यभाव सम, चैत्रमें "Aho Shrutgyanam" Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये ष्ठेऽपि तथैव मह।आषाढे महामेघः । श्रावणेऽल्पवर्षा, भाद्रपदे महावृष्टिः । आश्विने सुभिक्षं राजा राज्यसुस्थः प्रजा सुखं । कार्तिके सुभिक्षमन्नसमता, मागशीर्षादिमासचतुष्टय महर्घता, मनिष्ठालवङ्गमरिचमहर्घता॥२॥विजयसंवत्सरे बु. धः स्वामी, सर्वदेशेषु महापीडा, राज्ञां परस्परं विरोधः, अन्न महळू तुच्छजल मही लोहितपायिनी विप्रपीडा, गोमहिषाश्च हस्तिपीडा, चैत्रमध्ये गारववर्षा, वैशाखे ज्येष्ठेऽन्नमहर्घता, आषाढे श्रावणेऽल्पमेघः, कणकलशिका प्रतिफदिया ४०, मांद्रपदे वर्षा न वर्षति. कणकलशिका प्रतिफदिया १४; आश्विने वणिगजनपीडा, अन्नं महर्ष; फाल्गुने समता परं विग्रहो धान्ये षड्गुणो लामः ॥२७॥ जयसंवत्सरे गुमः स्वामी! महासुभिक्षं; चैत्रे महार्घता; वैशाखज्येष्ठयोः समर्घना; आषाढे मेघवर्षा अन्न महश्रावणे दिन २४ महामेघः। भाद्रपदे दिन करका (ओलः) गिरें, वैशाग्यमें धान्य महँगा, बड़ा तेज वायु चल, ज्येष्ट में भी वैसे ही महँगा, आपाटमें बड़ी वर्षा, श्रावण में थोड़ी वर्षा, भाद्रपंद में महावर्षा, आश्विन में मुकाल, गन्य में स्वस्थता, प्रजा में मन्च, कात्तिक में मभिक्ष. अनाज मात्र सम, मार्गशीपांदि मान्स ४ महता, मंजिट, लोग, मीरच ये महँग हो ॥ २६ ॥ विजयसंवत्मरका स्वामी बुध है, सब देश में महापीडा, राजाओं का परस्पर विरोध, अनाज महंगा, "जल थोड़ा, पुथ्वी लोहीकी प्यासी. ब्राह्मगा गो भग बाडा हाथी आदिको पीडा, चैत्र में गर्जनाके साथ वी, वैशाग्य तथा ज्येष्टमें अनाजभाव तेज । आपोदृ श्रा'चा में थोडा वर्ग। भाद्रपद में अपान वाप. "फदिया ह का कलशी धान्य, "आश्विन में वणिक्जन को पीडा, अनाज तेज. फाल्गुम में समान, और विग्रह तथा चान्यमें छगुना लाभ हंस ।। २७ ।। जयसंवत्सरका स्वामी 'गुरु है, बड़ा मुकाल, चैत्र में तेज, बैशाख और ज्येष्टमें लस्ता, आपाट में "Aho Shrutgyanam" Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार ७ मेघः। आश्विनेऽन्नं समर्घ कणानां मणं प्रतिद्रामा ३५ ल. भ्यास्वर्णादिधातुसमता । कार्तिकादिमासपञ्चकमुत्तममन्नसमता । अन्यवस्तुनि महायता भवति। परं मौक्तिकादिप्रवालकं च महधैं । मार्गशीर्षे रोगबहुलता वणि पीडाः इन्चमुलतानदेशे रोगपीडा छत्रभङ्गो लोका दु:खिताः॥२८॥मन्मथे शुक्रः स्वामी; राजविरोधः, पूर्वदेशे लोकपीडा पर अतिवृष्टि रोगबाहुल्यं, धान्य संग्रहः चैत्रे वर्षा भूमिकम्पः । वैशाखे समर्थता; ज्येष्ठाषाढयोमहर्षता धान्ये षड्गुणो लाभः । श्रावणेऽल्पमेघः । भाद्रे महामेघावृष्टिर्दिन १४। आश्विने रोगपीडा, अन्नं मह; धान्यं मगं प्रतिद्वाम्मा ६० लभ्यन्ते; सर्व धातुसमर्थता । कार्तिके सुभिक्ष; गुर्जरदेशापेक्षयानसमता । मार्गशीर्षादिमासत्रयेऽन्नं समय लोकसुख राजा सुस्थः स. बंधातुसमर्घः वस्त्रमहर्घना ॥२९॥ दुमुखेशनिः स्वामी; अत्राजल वर्षा और अनाज के भाव तेन; श्रावगा में दिन २४ अधिक वर्षा; भाद्रपदमें दिन : बपा, आश्विनमें अनाज सस्ता, सुवगादि धातुके भाव सम; कार्तिकादि पांच मान्स उत्तन, अनाज समान भाव, दूसरी वस्तु तंज हो, परंतु मोती प्रयाल (मूंगा) अादि तेज हो; मागशीपमें रोग अधिक, वणिक जनको पीडा, उच्च मुलतान देश में रोगपीडा छत्रभंग और लोक दुःखी हो ॥ २८ ॥ मन्नथवर्षका स्वामी शुक्र है, राजाओंमें विरोध पूर्व देशमें लोक पीडा परंतु वा अधिक, गोग अधिक, धान्यका संग्रह करना उचित है, चैत्र वर्षा भूमिकेप. वैशाख में मस्ता, ज्येष्ठ अाघाटमें तेज होने से धान्यसे छ.गुना लाभ, श्रावण में थोड़ी वर्षा, भदोंमें दिनः १४ बड़ी वर्षा, याभिनमें रोग पीडाः अनाज महँगा, सब बातु सस्ती, कात्तिकमें मुभिक्ष, गुर्जर देशकी अपेक्षा अनी न भाव लम, मार्गशीर्षादि तीन मास अनाज सस्ता, लेक मुखी , . स ब धातु सस्ती और स्व तेज हो । २६ ॥ दुर्मस्ट "Aho Shrutgyanam" Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) मेघमहोदये शुभ; अल्पमेघो महतां लोकानां पीडा; सरोगा लोका उतरापथे दुष्कालः; पश्चिमायां महापोडा; पूर्वदेशे सुभिक्षं; नं मह वैरं नकुलसर्पाभ्यां विषं गृह्यते; चैत्रादिमासत्रये समर्थ (४००) ता; आषाढेऽल्पमेघः । श्रावणे प्रचण्डवायुः सर्व धान्यमहघेता, भाद्रपदे कणानां मणं १ प्रतिद्राम्मा ८५ लभ्यन्ते; खण्डवृष्टिः; आश्विने रोगपीडा सर्वे धानवः समर्घाः कार्त्तिकादिमासा ४ रौरवं दुर्भिक्षं गोब्राह्मणपीडा जोजीयादयाः कराः प्रवर्तन्ते माता पुत्र विक्रया पिता पुत्रस्नेहमुक्तः फाल्गुने रोगपीडा; राज्ञां परस्परं विरोधः लोकपीडा ॥३०॥ हेमलम्बे राहुः स्वामी, अतिरौरवं सरोगा लोका भूकम्पादय उत्पाता वणिक्रीडा । चैत्र वैशाखमासयोर्धान्यादिमन्द भावः परचक्रागमः, ज्येष्ठादिमासन ये धान्यं महर्धे चतुर्गुणो लाभः, भाद्रपदे महामेघः, अन्नसमता मञ्जिष्ठामरिचलवंगदन्तमयवस्तुमर्ह्यता. अन्नसमता. कार्त्तिके छत्रभङ्गो लोकपीडा वर्षका स्वामी शनि अशुभ है, थोड़ी वर्षा, बड़े लोगोंको पीडा रोगप्राप्ति, उत्तर में दुष्काल, पश्चिम में महापीडा, पूर्व देशमें सुकाल, अनाज महँगा, द्वेष भाव चैत्रादि तीन मास सस्ता, आषाढ में थोड़ी वर्षा, श्रावण में प्रचण्ड プ वायु, सब धान्य तेज, भाद्रपद में धान्य मण एकका दाम ८५ हो, खण्ड वृष्टि, रोगपीडा, सत्र धातु सस्ती, कार्त्तिकादि चार मास घोर दुर्भिक्ष, गौ ब्रह्मको पीडा, माता पुत्रको बेचें, पिता पुत्रस्नेहसे रहित, फाल्गुन में रोगपीडा, राजाओं का परस्पर विरोध और लोकको पीडा हो ॥ ३० ॥ हेमलम्ब का स्वामी राहु है महादुःख, लोगों में रोग भूकम्पादि उत्पात, व्यापारियोंको पीडा, चैत्र तथा वैशाखमें धान्यादिका भाव मंदा, शत्रुका आगमन, ज्येष्ठादि तीन मासमें धान्य तेज होनेसे चतुर्गुणा लाभ, भाद्रपदमें महावर्षा, अन्नभाव सम, मँजीठ मिरच लोग और दांत की वस्तु ये म " Aho Shrutgyanam" Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार: अन्नकलशिकां प्रतिफदिया १०२, सवर्धीतुसमघः चतुष्पदपोडा। मार्गशीर्षादिमासा४ राजा सुस्थः, लोकाः सुखिनः ॥ ३१ ॥ विलम्बे वत्सरे रविः स्वामी, चैत्रवैशाखयोर्धान्यमहार्घता, भाषा श्रावणे धान्यकलशिकां प्रतिटंका ५ फदिया २५ लभ्यन्ते, आषाढे मेघोऽल्पः । श्रावणे महामेघः सुभिक्षं । भाद्रप दे दिन ११ वर्षा बहुला परं गोधूमाश्चणकाश्च महघी: पश्चि मायां सुभिक्षं राजविग्रहः पूर्वदेशेऽन्नं दुष्प्रापं दक्षिणदेशे राज्ञामन्योऽन्यं विरोधः, आश्विनेऽन्नमहर्घता रोगपीडा सर्व या कचस्तुमहर्घता, कार्त्तिकादिमासपञ्चके धान्यकलशिकां प्रति फदिया १० लभ्यन्ते ||३२|| विकारिवत्सरे चन्द्रः स्वामी, सर्वान्नवस्तुमहता द्विजाः सुखिनः । श्रादिमासत्रये धान्यमहार्घता, आषाढे श्रावणे च महान्मेघः सुभिक्षं, भाद्रपदे स्वल्पमेघः, आश्विने सर्पभय केतृदयः, अन्नकल शिकां १ हँगे हो, अभाव सम, कार्तिक में छत्रभंग लोकपोडा, दश फर्दियाका धान्य एक कलशी बिकें, सबधातु सस्ती, पशुओं में पीडा, मार्गशीर्षादि चार मास राजा शान्त रहे और लोक सुखी हो ३१ विलम्बीवर्षका स्वामी रवि, चैत्र वैशाखमें धान्य तेज, आषाढ श्रावण २५ फंदिया का कलशी धान्य बिके। आषाढमें वर्षा थोडी, श्रावण में महावर्षा और सुकाल, भाद्रपदमें दिन ११ वर्षां अधिक परंतु गेहुँ चणा तेज, पश्चिममें सुकाल राजविग्रह, पूर्वदेशमें अन्न दुष्प्राप्त, दक्षिणदेश में राजाओं मे परस्पर विरोध, आश्विनमें अनाजभाव तेज रोगपीडा, सब कयाणकरस्तु तेज, कार्तिकादि पांच मास में दश फदिया का कलशी धान्य विकें ॥ ३२ ॥ विकारीवर्षका स्वामी चन्द्र, सब प्रकार के धान्य और वस्तु महँगी हो ब्राह्मणको सुख, चैत्रादि तीन मास धान्य तेज, आषाढ श्रावण में महामेत्र और सुकाल, भादों में थोड़ीवर्षा, आदिन सर्पका भय, केतुका उदय, फडिया १ ● का कलशी धान्य बिकें, सब व "Aho Shrutgyanam" (१२५) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-1 (१३६) मेधमहोदये : प्रतिफदिया १० लभ्यन्ते. सर्ववस्तुसमता, कार्तिकादिमासदये धान्यं समघ, पौषे रोगपीडा, लोकः सुखी फाल्गुने धान्यमहर्षता ॥३३॥ शर्वरीवत्सरेभौमः स्वामी, वर्षी अल्पा, प्रजाप्रलयः, राजविरोधः, चैत्रादिमासत्रयेऽन्नसमता, आषाढबये महान् मेघः परं खण्डवृष्टिः, अन्नमहर्घता। भाद्रपदे वर्षी नास्ति, राजपीडा लोकेषु, आश्विने रोगपीडा अन्नं कलशिका एका फदियानाणकैलभ्यते दशभिः पश्चिमायों दुर्भिक्षं पूर्वस्यां सुभिक्षं, कार्तिकादिमासदयेऽन्नं महफँ, पौषादिमासत्रये धान्य समघम् ।।३४॥ प्लवे बुधः स्वामी, वर्षाकाले वर्षाबहुला उत्तमः समयः, चैत्रे धान्यमन्दता, वैशाखे भूमिभयङ्करी, ज्येष्ठेऽन्नसमर्थता, लिलङ्गे पूर्वदेशे पीडा, आषाढ़े महावायुः उत्पाताः, लोकाः सरोगाः श्रावणे महान मेघः दिन १७ वर्षा, भाद्रपदे घनो घनाघनः, धान्यं समध, कणकलशिका एका फदियानाणकैरष्टभिलभ्यते -आश्विने सर्ववस्तु स्तु सस्ती! कार्तिक मार्गशीर्वमें धान्य सस्ता; पौष में रोगपीडा; लोक मुखी; फाल्गुनमें धान्य तेज ॥ ३३ ॥ शर्वरीवर्षका स्वामी भौम; वर्षा थोडी; पंजाका विनाश; गजविरोध; चैत्रादि तीन मास अनाजका भाव सम; प्रापाढ श्रावणी महामेघ पीछेसे ग्खण्डवृष्टि, अनाजभात्र तंज; भाद्रपद में वर्षा न. वर्षे; देशमें राजपीडा; आसोजमें गोगपीडा; फदिया १० का कलशी वान्य बिक, पश्चिममें दुष्काल; पूर्वमें मुकाल; कार्तिक मार्गशीर्ष में अनाज तेज और पौधादि तीन मास में धान्य सम । ३.८ ॥ प्लववर्षका स्वामी बुध; वर्षाकालमें वर्षा अधिक; उत्तम समय; चैत्रमें धान्य मंदा; वैशाख में पृथ्वी भयकारक; ज्येष्टमें अन्नभाव सस्ता; तैलंग तथा पूर्व देशमें पीडा; आषाढमें महावायु उत्पात और लोक में रोग; श्राजण में महामेव दिन-१७ यां; भ! : द्रपदमें बहुत वर्षा; धान्य सस्ता फदिया का एक कलशी धान्य; आ.-. "Aho Shrutgyanam" Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार सर्वधातुसमर्घता, गोधूमानां महार्घता, कार्तिकेऽनं समध, लोकः सुखी, मण्डपाचले विग्रहः, पोषादिमासत्रयेऽतिमभिक्षं राजा राज्यसुस्थः ॥३५॥ शुभकृवत्सरे गुरुः स्वामी, अतिवर्षा, राजाप्रजा सुखी न वर्तते, उत्तरापथे वह्निभयं, चैत्रे वैशाखे समर्घता, धातुसमर्घता, श्रावणे नवमीतिथितो वर्षा, अन्नसमर्थता, भाद्रपदे महामेघः, अन्नकलशिका एका फदियानाकैरष्टभिः, घृतं तैलं समर्घ, कार्तिकादिमासत्रये युगंधरीगोधूमचणकतिलमुद्गचवला इत्याद्यन्नं समर्घ, राज्ञां परस्परं विरोधा, ज्ये. ष्ठादित्रिमासेषु सर्ववस्तु समर्घ, फाल्गुने किञ्चिदुत्पातः , मरुदेशे रोगः परं सुभिक्षम् ॥ ३६॥ शोभने त्विदं फलं शुकः स्वामी, राज्ञां प्रजानांच सुखं, अतिवर्षा, चैत्रादिमासत्रयेधान्यं समर्थ, राजविग्रहः, किञ्चिदुत्पातः, आषाढेऽल्पमेघः, श्रावणेऽतिवर्षा, परं लोकपीडा, भाद्रपदे महान्मेघः, श्चिनमें सब वस्तु सस्ती; गेहुँ तेज; कार्तिकमें अनाज मस्ता; लोक सुखी; मंदपाचलमें विग्रह; पौषादि तीन मास सुभिक्ष; राजा प्रजा सुखी ॥ ३५ ॥ शुभकृद् वर्षका स्वामी गुरु, वर्षा अधिक, राजा तथा प्रजा सुखी नहीं,उत्तरमार्ग में अग्निका भय, चैत्र वैशाख में अन्नभाव सस्ता, धातुभाव सस्ता, श्रावणको नवमी से वर्षा, अन्नभाव सस्ता, भाद्रपद में बड़ी वर्षा, आठ फदिया का कलशी धान्य, घी तेल सस्ता, कार्तिकादि तीन मास में युगंधरी गेहूँचणा तिल मग चवला आदि अन्न सस्ते, राजाओं में परस्पर विरोध, ज्येष्ठादि तीन मास सब वस्तु सस्ती, फाल्गुन में कुछ उत्पात, मरुदेश में रोग परंतु सुभिक्ष हो ॥३६॥ शोभनवर्ष का स्वामी शुक्र, राजा प्रजा को सुख, वर्षा भधिक, चै. त्रादि तीन मास धान्य सस्ता , राजविग्रह, किश्चित् उत्पात, भाषाढमें थोड़ी मर्षा, नाश्रण में वर्षा भभिक परंतु लोकपीला, भादों में महामेब, माबिन में "Aho Shrutgyanam" Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) . मेघमहोदये आश्विने मुंभिक्षं ततोऽपि किश्चिद्विग्रहः ॥ ३७॥ क्रोधिनि वत्सरे शनिः स्वामी, द्वादशमासेषु अन्नं महध, मध्यमः समयः, राज्ञां परस्परं विरोधः, प्रजा पापरता, लोका. निर्द्धनो व्यापारहीनाः, चैत्रे वा वैशाखे करकापातः, रोगो मारिभयं, ज्येष्ठे धान्यं मह, आषाढे समता, अल्पो मेघः, श्रावणे रौरवं, भाद्रपदे खण्डवृष्टिः, अन्नं महर्ष, आश्विने मेघवर्षा, सर्वत्र रसकससमता, अन्नं वस्तु सर्व समध, कार्तिके समता ॥३८॥ विश्वावसुवत्सरे राहुः स्वामी, वर्षासमता परं अन्नमहर्घता, चने राज्ञां विरोधः, धान्यं महर्घ, वैशाखे मण्डपदुर्गे विग्रहः, मरुदेशे दुर्भिक्षं, पश्चिमायां अन्नं महर्घ, ज्येष्ठे विग्रहोऽन्नस्य ४५ फदियानाणकैरेका कलशिका, आषाढेऽल्प. मेघः, श्रावणे भाद्रपदे दुर्भिक्षं ५५ फदियानाणकैरेका कणकलशिका, अन्यत्र देशे सुभिक्षं, आश्विने लोकपीडा, रोग बाहुल्यं, गोमहिषधोटकाजामहर्घता, सुवर्णादिधातुमहसुभिक्ष पीछे कुछ विग्रह हो॥ ३७॥ क्रोधीवर्ष का स्वामी शनि. बारह मास अन्नभाव तेज, मध्यम समय, राजाओं में परस्पर विरोध, प्रजा पाप कार्य में तत्पर, लोक धन रहित तथा व्यापार रहित, चैत्र वैशाखमें करकापात रोग और महामारीका भय, ज्येष्टमें धान्य महँगा । आषाढ में समभाव, थोड़ी वर्षा, श्रावण में दुःख, भादोंमें खण्डवृष्टि अनाजभाव तेज, आश्विनमें जलवर्षा, रसकसका भात्र समान और कार्तिकमें अनाजका भाव समान ॥ ३८ ॥ विश्वावसुवर्ष का स्वामी राहु, समान वर्षा, पीछे अनाज तेज, चैत्रमें राजाओं में बिगेध, धान्य तेज, वैशाखमें मण्डपदुर्गमें विग्रह, मरुदेशमें दुर्भिक्ष, पश्चिममें अनाज भाव तेज; ज्येष्ठमें विग्राह, फदिया ४५ का कलशी धान्य, आषाढमें थोड़ी वर्षा, श्रावण भादपदमें दुष्काल, फदिया ५५ का कणशी धान्य, अन्यत्र देशे सुभिक्ष; आश्विनमें लोकपीडा, रोग अधिक; गौ भैंस घोडा और मकरौं "Aho Shrutgyanam" Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराभिकार: घेता, कार्तिकादिमासत्रये समर्घता, कणकलशिका ११ फदियानाणकैः ।। ३९॥ पराभवसंवत्सरे केतुः स्वामी, बादशमा. सवर्षा, मध्यमवृष्टिः, चैत्रे वैशाखे चान्नं महध, मेघगर्जितवि. धुवायवः, ज्येष्ठे धान्यसंग्रहः, उद्दण्डवायुः, आषाढेऽल्प. मेघः, अन्ने द्विगुणो लाभः, श्रावणे महती वर्षा, अन्नसमता, भाद्रपदे खण्डवृष्टिः परं दुर्भिक्षं, आश्विने किञ्चिद् लोकसुखं परं धान्यरसवस्तु महर्धमेव धातुसमर्घता, कार्तिकादिमासपञ्चके समता, पश्चिमायामन्नसमता, सिन्धुदेशाद् धान्यागमः ।। ४०॥ इति मध्यमविंशतिका पूर्णा ॥ प्लवङ्गानामसंवत्सरे ब्रह्मा स्वामी, चैत्रे वैशाखे महर्घता, ज्येष्ठमध्ये राजपीडा, आषाढेऽल्पमेघः, भूमिकम्पः, हस्तिपीडा, तुरङ्गममद्घता, श्रावणे महामेघो भाद्रपदाष्टमीतो महामेघः, आश्विने रोगचालकः, रसमहर्घता, फाल्गुने कण. का भाव तेज; सोना आदि धातु तेज | कार्तिकादि तीन मास अनाज के भाव सस्ता, ११ फदिया का कलशी धान्य ॥ ३६॥ पराभववर्षका केतु स्वामी, बारह मास में मध्यम वर्षा ! चैत्र वैशाखमें अनाज तेज, मंघकी गर्जना, बिजली कडके, वायु चले । ज्येष्टमें धान्य का संग्रह करना चाहिए । आषाढमें वर्षा थोड़ी अनाज में दूना लाभ । श्रावणमें बड़ी वां, अनाज भाव सम। भाद्रपद में खण्डवृष्टि पीछे से दुर्भिक्ष ! आश्विनमें कुछ मुख पीछे धान्य और रस की बस्तु महँगी, धातु सम । कात्र्तिकादि पांच मास सम, पश्चिम में अनाज भाव सम सिन्धु देश से धान्य का आगमन ॥ ४० ॥ इति मध्यम विंशतिका पूगा ॥ प्लवंगवर्षका स्वामी ब्रह्मा, चैत्र वैशाखमें अन्न तेज, ज्येष्टमें राजपीडा, आषाढमें थोड़ी वर्षा, भूमिकम्प, हाथीको पीडा, घोड़े तेज, श्रावण में महामेघ, भाद्रपद अष्टमीसे महामेघ, आश्विनमें रोग, रस महँगे, फाल्गुन में दश फदियाका कलशी धान्य हो, घोड़ा और भैसको पीडा, लोक पीडा "Aho Shrutgyanam" Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , काशिका एका फदिया १० प्रमाणैः, अभ्यमहिषी पीडा लोकपडा ॥ ४१ ॥ कीलकवत्सरे विष्णुः स्वामी, वर्षा मध्यमा, चैत्रे भान्पं महर्चे, वैशाखे रोग:, मरुदेशे दुर्भिक्षं, पश्चिमायां समता, ज्येष्ठे धान्यसंग्रहः, आषाढे श्रावणेऽल्पमेघः, अन्नं महर्ष, धान्ये द्विगुणो लाभः, भाद्रपदेऽष्टमीतिथेर्मेघः आश्वि ने वर्षा, अन्न मह, राजधानीनगरे उद्ध्वंसं, न रोगा बहुता, गोधूमा महघाः, सर्वधान्यं समर्थ, रसाः समघाः, घृतं एकमणं प्रति फदिया१८ नायाकैः, कार्त्तिकादिमासप्रये समर्चता, माघमासेऽन्नमहघेता रोगपीडा महती, फाल्गुनमये राजा राज्यसुस्थः प्रजा सुखं अन्नसमता||४२|| सौम्यसंवत्सरे रुद्रः स्वामी, अल्पमेघः, गावोऽल्पक्षीराः, वृक्षा अल्पफलाः, चैत्रे महता, वैशाखे उद्दण्डवायुः, ज्येष्ठे विग्रहः, प्रजापीडा, आषाढेऽल्पमेघोऽन्नं महर्चे, श्रावणे महामेघः, धा ॥ ४१ ॥ कीलकवर्षका स्वामी विष्णु, मध्यम वर्षा, चैत्र में धान्य तेज, वैशाखमें रोग, मारवाडमें दुर्भिक्ष, पश्चिममें सस्ते, ज्येष्ठ में धान्य संग्रह करना, आषाढ श्रावण में थोड़ी वर्षा, अनाज भाव तेज, धान्यसे द्विगुना लाभ, भाद्रपद में अष्टमी तिथि से वर्षा, आश्विन में वर्षा, अनाज भाव तेज, राजधानी नगर में विनाश, रोग अधिक न हो, गेहूँ तेज, सबधान्य सस्ते, रस तेज; फर्दिया १८ का एक मग वी, कार्तिकादि तीन मास सस्ता, माघ मास में अनाज तेज, रोग पीडा अधिक, फाल्गुन में राजा स्वस्थ, प्रजाको सुख और अनाज भाव सम हो ॥ ४२ ॥ सौम्यवर्षका स्वामी रुद्र, अल्पवर्षा गाय थोडा दूध दें, वृक्षोंमें फल थोड़े, चैत्र में अनाज भाव तेज, वैशाखमें प्रचंड पवन; ज्येष्ट में विग्रह, प्रजा पीडा, आषाढमें थोडी वर्षा, अनाज तेज, श्रावणनें वर्षा अधिक, धान्यसे दूना लाभ, गेहूँ ५० फदिया } का कलशी बिकें, सब धान्य सम, रस तेज; भाद्रपद में खण्डवृष्टि अनाज "Aho Shrutgyanam" Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार (१४१) न्ये द्विगुणो लाभः, गोधूमानां कलशिका एका फदिया ५० प्रमाणैलभ्यते, सर्वधान्यसमता, रसमहर्घता, भाद्रे खण्डधृष्टिरन्नदुर्भिक्षं, आश्विने राजविरोधो लोकपीडा मार्गविषमता अन्नसंग्रहः, धान्ये द्विगुणो लाभः, सर्वरसधातुसमर्घताः कार्त्तिकादिमासा४ तेषु समता परं राजविड्वरं रोगचालकः, देशा उद्ध्वंसाः, देशान्तरे लोकपीडा, फाल्गुने उदण्डवायुः, पश्चिमायां सुमिक्षं, सिन्धुदेशे राजविरोधः, अ. नसमता ॥४३॥ साधारणे रविः स्वामी, चैत्रे धान्यमन्दा, वैशाखे ज्येष्ठे च उत्पातो, भूमिकम्पो रोगवृद्धी राजविरोधी धान्यमहर्षातादिः, आषाढे वायुसद्दण्डो रौरवं क्वचिदल्पमेघः, श्रावणे महती वर्षा, अन्नसमता, भाद्रपदेऽल्पमेघः, आश्विनेऽल्पधान्यनिष्पत्तिः, कार्त्तिकादिमासद्धयं मध्यममरिष्टं भू. मिकम्पः, अकस्माद राजविग्रहः, अन्नमहर्षता, फाल्गुने चतु. पदः सरोगभावः, भूम्यामल्पफला वृक्षाःसंगृहीतधान्ये त्रि. गुणो लाभ: सर्वधातुमहर्घता सर्वरससंग्रहः परं राजा दुःका दुर्भिक्ष, आश्विनमें राजविरोध, लोकपीडा, मार्गमें विषमता, धान्यका संग्रह से दूना लाभ, सब रस और धातु सस्ती, कार्तिकादि चार मास सम, पीछे राजविप्लव, रोग चाले, देश विनाश, देशान्तर में लोकपीडा, फाल्गुनमें प्रचण्ड वायु, पश्चिममें सुभिक्ष, सिंधुदेश में राजविरोध और अन्नभाव सम || ४३ ॥ साधारणवर्षका स्वामी रवि, चैत्रमें धान्य मंदा, वैशाख ज्येष्टमें उत्पात, भूमिकम्प, रोगवृद्धि, राजाओंमें विरोध, धान्यकी तेजी, आषाढमें प्रचंड पवन, कभी थोड़ी वर्षा, श्रावणमें बड़ी वर्षा अन्नभाव सम, भाद्रपदमें थोड़ी वर्षा, आश्विन में थोड़ी अन्नप्राप्ति, कार्तिक मार्गशीर्ष में मध्यम दुःख, भूमिकम्प, अकस्मात् राजविग्रह, अन्नभाव तेज, फाल्गुनमें पशुओंको रोग, वृक्षोंमें थोड़े फल, संग्रह किया हुआ धान्यमें ती "Aho Shrutgyanam" Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४२) मेयमहोदये खी ॥४४॥ विरोधकृवत्सरे चन्द्रः स्वामी, मण्डपाचलदुर्गे वि. ग्रहः, कुङ्कणदेशे मेदपाटमण्डले मध्यदेशे महारौरवं, परस्परं राजविग्रहः, मार्गाविषमाः, चैत्रादिमासत्रयेऽन्नसमता, श्राषाढेऽल्पमेघः, श्रावणे महावर्षा, अन्नसमर्थता, भाद्रपदे मेघः अन्नसमतासर्वधातुमहर्षता, फाल्गुने देशविरोधः, मार्गवैषम्य, मंजिष्ठासोपारिकापहमूत्रदन्तमयवस्तुतुरङ्गमादिमहर्घता॥४५ परिधाविनि वत्सरे भौमः स्वामी, दुर्भिक्षं, नागपुरे मेदपाटे जालन्धरदेशे च राज्ञां विरोधः, चैत्रादिमासचतुष्टयेऽन्नसमता, तत्र संग्रहः कार्यः, लोके रोगपीडा, मरुदेशे मनुष्येषुमारिभयं, चतुष्पदमहिषीतुरंगहस्तिनां पीडा, श्रावणे भाद्रपदेऽल्पमेघः, खण्डवृष्टिरन्नसमता सर्वरससमघता सर्वे धातवःसम. र्घाः, कार्तिकादिमासपञ्चके धान्यसमता राजविड्वरं सिन्धुदे. शाद धान्यागमः॥४६॥प्रमाथिनि वत्सरे बुधः स्वामी, कुंकणे गुना लाभ, सत्र धातु तेज, सत्र रसका संग्रह करना उचित है, राजा दुःखी ॥ ४४ ॥ विरोधकृत्वर्धका स्वामी चन्द्र, मंडपाचलदुर्गमें विग्रह, कुंकण देशमें मेवपाटदेश में और मध्यदेश में महाघोर परस्पर राजविग्रह, मार्ग विषम, चैत्रादि तीन मास अन्नभाव सम, आषाढमें थोड़ी वर्षा, श्रावय में वर्षा अधिक, अन्न सस्ता, भाद्रपद में मेव, अन्नभात्र सम, सत्र धातु तेज, फाल्गुन में देश में विरोध, मार्ग में विषमता, मँजीठ सोपासे वस्त्र सूत दान्त की वस्तु और घोडा आदि तेज हो ॥ ४५ ॥ परिधावीवर्षका स्वामी मंगल; दुर्भिक्ष, नागपुर मेदपाट और जालंधर देशमें राजाओं में विरोधः चैत्रादि चार मास अनाजका भाव सम; उसमें अनाजका संग्रह करना; लोक रोगपीड़ा; मरुदेशमें महामारीका भय; चतुष्पद भैस घोड़ा और हाथीको पीड़ा । श्रावण भादोंमें थोड़ी वर्षा; खण्डवर्षा; अनाजका भात्र सम; सत्र रस सस्ते; सत्र धातु सस्ती; कार्तिकादि पांच मास धान्य सम: "Aho Shrutgyanam" Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकारः दुर्भिक्षं विग्रहः, चैत्रे धान्यमन्दता, वैशाखज्येष्ठयोधान्यसंग्रहः, आषाढे नवीनमुद्रा परमल्पमेघः, श्रावणस्यार्द्ध मेघवर्षा, अन्नं महर्घ धान्ये त्रिगुणो लाभः, भाद्रपदे महामेघः, अन्नं समर्थ,आश्विनादिमासा: सुभिक्षं सर्वरसकससमर्घता, लोकसुखी, गुरूणां पूजा महिमवृद्धिः,राजा धर्मी।।४७॥ आनन्दे गुरुः स्वामी, वर्षा बहुला सुभिक्षं, चैत्रे वैशाखे चान्नं समः घे, ज्येष्ठाषाढयोमहावृष्टिः परं नवीनमुद्रा जायते, श्रावणे महान् मेघः, भाद्रपदे खण्डवृष्टिः, गोधूमा महर्घाः, आश्चिने समर्घाः रसान्नवस्तुसमता धातुमहघेता, कार्तिकेऽकस्माद् भयं लोकपीडा मार्गशीर्षे लोकानां दक्षिणदिशि गमनम्, पौषे माघे च मेघवर्षा, अन्नं समध, फाल्गुने धान्यं महर्घ ॥४८॥ राक्षसे शुक्रः स्वामी, धान्यसंग्रहः कार्यः, चैत्रे करकाः पत: भाव; राजविप्लव ; सिंधुदेशसे धान्यकी प्राप्ति ॥ ४६ ॥ प्रमाथीवर्षका स्वामी बुध; कुंकणदेशमें दुर्भिक्ष, विग्रह ; चैत्रमें धान्य भाव मंदा; वैशाख ज्येष्ठमें धान्य संग्रह करना; आषाढमें नवीन मुद्रा; थोड़ी वर्षा; आधाश्रावणमें वर्षा; अनाज तेज; धान्यसे तीगुना लाभ; भादों में महामेघ; अनाज सस्ता; आश्विनादि छमास सुभिक्ष; सब रसकस सस्ता; लोकसुखी; गुरु जनोंकी पूजा; महिमाकी वृद्धि और राजा धर्मी हो ॥ ४७ ॥ आनन्दवर्ष स्वामी गुरु, वर्षा अधिक , सुभिक्ष; चैत्र वैशाखमें अनाज तस्ता; ज्येष्ट भाषाढमें बडी वर्षा, नवीनमुद्रा , श्रावणमें महावर्षा; भाद्रपदमें खण्डवृष्टि, गेहूँ तेज, आश्विनमें सस्ता, रस अन्न और वस्तु समभाव, धातु तेज, का. तिदिमें अकस्मात् भय, लोकपीडा; मार्गशीर्षमें लोगोंका दक्षिणदिशामें गमन, पौषमें और माधौ वर्षा, अनाजका भाव सस्ता;फाल्गुनमें धान्य तेज ॥ १८ ॥ राक्षसवर्षका स्वामी शुक्र; धान्य संग्रह करना उचित है, चैत्र में करा ( भोले ) गिरे, वैशाख ज्येष्टमें तेल महँगे, ज्येष्ठ आषाढमें गुड "Aho Shrutgyanam" Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (१४४) मेघमहोदये न्ति, वैशाखे ज्येष्ठे तैलं महर्घ, ज्येष्ठे आषाढे गुडखण्डाद्रच्यं महर्ष, श्रावणेऽल्पमेघः, अन्नमहर्घता, भाद्रपदे महामेघः, अमसमर्घता, आश्विने समता, कार्तिके रोगार्तिः, मागशीर्षा, दिचत्वारोमासाधान्यसमर्घता, राजा सुखी, प्रजाराजमान्या, फाल्गुने समर्धता, वृक्षा नवपल्लवाः,मार्गसुखं सुभिक्षम् ॥४९॥ नलसंवत्सरे शनिः स्वामी, अल्पमेघः परं समर्घता, चैत्रे रो. गपीडा, वार्दलं बहुलं, वायुः प्रबलः, वैशाखेऽरिष्टमन्नसंग्रह कार्य:; ज्येष्ठे राज्ञां परस्परं विग्रहो लोकसुखी, मार्गवैषम्य क्वचिदाषाढ़े श्रावणे चाल्पमेघः,घान्ये त्रिगुणश्चतुगुणो लाम: भाद्रपदे खण्डवृष्टि भिक्षधान्यसंग्रहः आषाढे कार्यः, आश्विने विक्रिया, मागशीर्षादिमासनयेऽन्नसमता,फाल्गुने रोगवा. लकः, तस्करभयः,उत्तरदेशे दुष्कालः, पूर्वस्यांसुभिक्षम्।।५०॥ पिङ्गले राहुः स्वामी, उच्चमुलतान नागपुरमरुदेशे दिल्लीमण्डलेषु मथुरायां पूर्वदेशेषु दुर्भिक्षमन्नं मधे सर्वधातुसमर्घता शक्कर तेज, श्रावणमें थोड़ी वर्षा, अनाजका भाव तेज, भाद्रपदमें महामेव, अनाज सस्ता, आश्विनमें सम, कार्तिकमें रोगपीडा, मार्गशीर्षादि चार मास धान्य सस्ता , राजासुखी , प्रजा राजाका सन्मान करें, फाल्गुनमें सस्ता, वृक्षोंमें नये पत्ते, मार्गमें सुख और मुभिक्ष || ४६ ॥ नलसंवत्सरका स्वामी शनि, थोड़ी वर्षा , अनाजभाव सम , चैत्रमें रोगपीडा , बहुत बादल और प्रबल वायु, वैशाखमें अरिष्ट, अनाज संग्रह करना, ज्येष्ठमें राजाओं में परस्पर विग्रह, लोकसुखी, मार्गमें विषमता, कभी आषाढ श्रावणमें थोड़ीवर्षा धान्यमें तीगुना चोगुना लाभ, भादोमें खण्डवृष्टि दुर्भिक्ष, प्राषाढमें धान्य संग्रह करना और आश्विनमें बेचना,मार्गशीर्षादि तीन मास अनाजका भाव सम, फाल्गुनमें रोग और चोरका भय, उत्तरदेशमें दुष्काल और पूर्वमें मुभिक्ष हो ॥ ५० ॥ पिंगलवर्ष का स्वामी राह, उच्चमुलतान नागपुर. मरुदेश देहलीदेश मधुरा "Aho Shrutgyanam" Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलराधिकार: परं सर्वत्र विग्रहः, नगरे वासः, ग्राममुझसनं रोगपीडा राजा सुस्थः प्रजासुखमन्नसमता गुर्जरदेशे समर्घता, सिन्धुदेशाद् धान्यागमनं, चैत्रे धान्यमहर्षता प्रजापीडा, वैशाखादिमासत्रयेऽन्नमहर्यता प्रजाक्षयोऽश्वपीडा, आषाढे पावणेऽरूपमेघः, धान्ये नतुर्गुणो लाभः, भाद्रे खण्डवृष्टिः, आश्विने समता, कार्तिकादिमासपञ्चके विग्रहपीडा, अन्नमहर्थना चतुष्पदरोगः ॥५१॥ कालवत्सरे केतुः स्वामी, अल्पमेघो देश उसनम्, अल्पव्यापारः राजविग्रहः, चैत्रे वैशाखे चात्यरिष्टमुत्तरापथे देशभंगा, ज्येष्ठे धान्यसंग्रहः, धान्ये षड्गुणो लाभः, आषाढेऽल्पमेघः, लोके दुःखं, मार्गविषमाः, श्रावणे महान् मेघोऽन्नसमता, भाद्रपदे खण्डवृष्टिः, धान्यदुभिमुत्पात:, आश्विने रोगशीतलादिविकारः, धान्य कादिया ७५ नाणकैः कणकलशिका एका लभ्यते, सवरसमहर्चता सर्वधा और पूर्वदेशमें दुर्भिक्ष, अनभार तेज, सब धातु सस्ती, सब जगह विग्रह, नगरमें निवास, गांवका विनाश, रोगपीडा, राजा मुखी, प्रजा सुखी, अनभाव सम, गुजरात देशमें सस्ता, सिंधु देशसे धान्यका आगमन, चैत्रमें धान्य तेज, प्रजापीडा, वैशाग्वादि तीन मास अन्न तेज, प्रजाका क्षय, घोडाको पीडा, आषाढ श्रावणमें थोड़ी वर्मा, धान्यसे चोगुना लाभ, भाद्रपद में खगडवृष्टि आश्विन में सम, कार्ति। ।दि पांच मारल विग्रह और पीडा, अम्न तेज, पशुओंमें गेग ॥ ५.१ ॥ कालचर्पका स्वामी केतु, घोडी वर्षा, देशका. उजाड़, थोड़ा व्यापार, राजविग्रह, क्षेत्र वैशाखमै अधिक दुःख, उत्तरमें देइ.भग, ज्येष्ठमें धान्यका संग्रह करनेसे छगुना लाभ, आपादमें थोड़ी वर्षा, लोगों में दुःख, मार्ग विषम, श्रावण में महामेध, अन्नभाव सम भादोंमें खण्डवृष्टि, धान्यकी दुर्भिक्षता, उत्पात, आश्विन में रोग शीतला मादिका विकार, अन्न ५५ फदियाका एक कलशी बिफें, सब रस तेज, "Aho Shrutgyanam" Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) मेवमहोदय तुसमर्थता,कार्तिकादिमासपञ्चकंयावत् परं राजविड्वरं,अश्वचतुष्पदपीडा वृक्षाः सफलाः ॥५२॥ सिद्धार्थ रविः स्वामी, सुभिक्षं सर्वदेशे वसतिबहुला अन्नविक्रयः, चैत्रे वैशाखे लो. कपीडा, ज्येष्ठाषाढयोरुद्दण्डवायुः, श्रावणे दिनत्रये महावर्षी सर्वान्नमहर्षता, भाद्रपदे खण्डवृष्टिः, आश्विनेऽन्नसमता, कातिके धान्यनिष्पत्तिबहुला अन्नसमर्घता, मार्गादिमासचतुष्टयमन्नं सारं सर्वत्र ग्राहकता उत्पातः क्वचिद् राजविरोधो लोकसुखमश्वमूल्यमहर्घता॥५३॥रौद्रे चन्द्रः स्वामी, पृथिवी-रोगबहुला, चतुष्पदनाशः, छत्रभङ्गोऽल्पमेघश्चैत्रादिमासत्रये महर्वता, आषाढे पावणेऽल्पमेघः, खण्डवृष्टिः, भाद्रपदे महान् मेघोऽन्नसमर्थता, अन्यद्वस्तुमञ्जिष्ठा सौपारिकालविंगसमर्थता लोकसुखी, चतुष्पदसमर्घता हस्तिपीडा ॥ ५४॥ दुर्मती भोमः स्वामी, चैत्रे वैशाखे च धान्यं समधे, सब धातु सस्ती, कार्तिकादि पांच मास तक राजविद्रोह, घोडा आदि पशुओंमें पीडा, वृक्षों में फल ॥ ५२ ॥ सिद्धार्थवर्षका स्वामी रवि, सुभिक्ष, लब देशमें बहुत वसति, अन्नकी विक्री, चैत्र वैशाख में लोकपीडा, ज्ये. ४ आषाढ उद्दण्ड (प्रबल) वायु, श्रावण में तीन दिन महावर्षा, सब अ. न तेज, भादोंमें खण्डवृष्टि, आश्विन में अन्नभाव सम, कार्तिकमें धान्य प्राप्ति, अनाज सस्ता, मार्गशीर्षादि चार मास सब स्थानमें अनाजकी प्राप्ति, कहीं राजविरोध, लोक सुखी और घोडेका भाव तेज हो ॥ ५३ ॥ रौद्रवर्षका स्वामी चन्द्र, पृथ्वीने रोग अधिक, पशुका विनःश, छत्रभंग, थोड़ी वर्षा, चैत्रादि तीन मास तेजी, आषाढ श्रावणमें थोड़ी वर्षा, खण्ड घृष्टि, भादोंने अधिक वर्षा, अनाज भाव सस्ता, दूसरी वस्तु मँजीठ सोपारी लेग आदि सस्ता, लोक सुखी, पशु सस्ते, और हाथियोंको पीडा ५४|| दुर्भतिवर्षका मामी भौम, चैत्र वैशाखमें धान्य सस्ते, ज्येष्ठौ भनाज भाव "Aho Shrutgyanam" Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार ज्येष्ठेऽनसमता, आषाहे उद्दण्डवायुः, श्रावणेऽल्पमेघोऽन्नसमर्घता, भाद्रपदे मेघानां महादयः, गोधूमाः समघाः कणकलशिका एका फदिया ३५ प्रमाणेन लभ्यते, सर्वधातवः समर्घताः, आश्विने सर्वरससमर्थता धान्यसमता, कात्ति कादिमासयं यावत् सर्ववस्तुसमता राजस्वस्थः ग्रामे ग्रामे नवीना वसतिः सर्वलोकसुखी, अश्वमहर्यता चतुष्पदमहघेता, पौषादिमासनये समता परं धातुसमर्थता ॥ ५५ ॥ दुन्दुभीवत्सरे बुधः स्वामी, वर्षा बहुला, अन्नसमर्घतारसकसवस्तुसमता, चैत्रादिमासत्रयेऽन्नसमर्घता, आषाढे द्वि. गुणो लाभोऽल्पमेघः, श्रावणे दिन ११ महावृष्टिः, भाद्रपदे मेघा दिन ९ अन्नं समर्थे, देशा नवीना वसन्ति, आश्विनेऽन्नं सर्व, रोगा बहुला मंजिष्ठामरिचानां समर्घता, सर्वरससर्वधातुसमर्घता, कार्तिके धान्यं समर्थ मेदपाटे लोकपीडा अन्नदुर्भिक्षं, पश्चिमाघां शुभं, मार्गशीर्षे समर्घता राज्ञां प. सम, आषाढने प्रचंड पवन, श्रावणमें थोड़ी वर्षा; अनाज सरता; भाद्रपदमें जलवर्षा; गेहूँ सस्ता; ३५ फदियाका कलशी धान्य; सब धातु सस्ती; आश्विन में सब रस सस्ते; धान्यभाव सम; कार्तिक मार्गशीर्ष तक सब वस्तुको सम्भाव; राजा स्वस्थ, गांव गांव में नवीन वसति अर्थात् नये नये गांव वसे; सब लोक सुखी; घोडे का भाव तेज; पशु का भाव तेज; पौषादि तीन मास समान परंतु धातु सस्ती ॥ ५५ ॥ दुन्दुभीवर्षका स्वामी बुध , वर्श अधिक , अनाजका भाव सस्ता, रसकस वस्तुका समान भाव , चैत्रादि तीन मास अनाज सस्ता , आषाढमें दूगुना लाभ, थोड़ी वर्षा, श्रावणमें दिन ग्यारह महावर्षा, भाद्रपद में दिन नव वर्षा अनाज सस्ता, नवीन गांव बसे, आश्विनमें अनाज सस्ता, रोग अधिक, "मँजीठ मिरच सस्ता, सब रस वस्तु धातु सस्ती, कार्तिकमें धान्य सस्ता, "Aho Shrutgyanam" Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवमहोदय रस्पर विरोधः, पौषादिमासत्रये समता अश्वमहता में. जिष्ठा महर्घा ॥५६॥ रुधिरोद्गारिणि वत्सरे गुरुः स्वामी, रा. ज्ञामन्योऽन्यं विरोधः, लोका देशान्तरे यान्ति दुर्भिक्ष विज. पोडा जीजीयादिकरः प्रवर्तते, म्लेच्छराज्ये परदेशाधान्यमायाति, आषाढे शुक्लपक्षे महामेघः, श्रावणे दिन १५ म. हावर्षा, चैत्रादिमासत्रये समर्थना धातवः समर्घाः, उत्तरापथे उच्चनुलतानतिलंगगौडभोटादिदेशेषु दुर्भिक्ष पश्चिमायां सुभिक्षं सिन्धुदेशे धान्यनिष्पत्तिः, भाद्रपदे खण्डवृष्टिः, धा. न्ये त्रिगुणो लाभः, आश्विने समता रोगचालकः, कार्तिकादिमामपञ्चकेऽन्नं समर्घ, मेदपाटे लोकपीडा ॥५७॥ रक्ताले शुक्रः स्वामी, अन्नं समर्घ, मेदपाटे पर्वते वासः, चैत्रादिमास. त्रये महर्घता अन्नत्य, मर्वे धातवः समर्धाः, फाल्गुनेऽन्नसंग्रहः, ज्येष्ठेऽन्नमहर्षता शुक्लपक्षे महामेचः । आषाढे महती मेदपाटदेशमें लोकपीडा , अनाजकी दुर्भिक्षता, पश्चिममें शुभ , मार्गशीर्षमें सस्ता, राजाओंका परस्पर विरोध, पौषादि तीन मास सम, घोडे तेज और मँजीठ तेज ।। ५६ ॥ रुधिरोद्गारीवर्षका स्वामी गुरु, राजाओं का परस्पर विरोध, लोग देशांतर गमन करें, दुःकाल ब्राह्मणोंको पीडा, म्लेच्छदेशमें जीजीया आदि कर ( महनुल ) की प्रवृत्ति, परदेशा धान्यको आगमन, आपाद शुक्ल पक्ष में बड़ी वर्षा, श्रावण में दिन पन्द्रह वर्षा अधिक, चैत्रादि तीन मास सस्ते, धातु सस्ती , उत्तरमें उच्चमुलतान तैलंग गौड भोट आदि देशोंमें दुर्भिक्ष, पथि में मुभित, सिंधुदेशने धान्य नियत्ति, भाद्रपदमें खंड वर्षा, धान्यमें तीतुना लाभ, आश्विनमें सन , रोगप्राप्ति , कार्तिकादि पांच मालमें अनाज सस्ता , मेदबाटदेश में लोकपीडा ॥ ५७ !! रक्ताक्षवर्षका स्वामी शुक्र, अनाज सस्ता, मेदपाटदेशमें पर्वत पर वास, चैत्रादि तीन मास में अनाजकी तेजी, सब धातु सस्ती, फाल्गुनमें अनाज संग्रह करना, ज्येष्ट "Aho Shrutgyanam" Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सराधिकार जलवृष्टिः सौराष्ट्र ग्रामप्रवाहः, अन्नं समर्घ, आवणेऽल्पमेघः, किश्चिदविग्रहः, भाद्रपदेऽल्पवर्षा रोगपीडा, आश्विनेऽने स. मर्घ रसकसवस्तु समर्घ, कार्तिकादिमासपश्चके धान्यं मह विवाहादिकं नास्ति, अश्वपीडा पश्चिमायां सुभिक्षम् ॥५८॥ क्रोधने शनिः स्वामी, रोगा बहुलाः, मन्दवृष्टिः प्रजापीडा, उत्तरापथे दुर्भिक्ष लोका निर्धनाः, चैत्रे वैशाखेऽल्पमेघोऽन्नसमर्घता, ज्येष्ठे मन्दनारोगपीडा, अन्नसमता, आषाढे श्रावणेऽल्पवर्षा, धान्ये द्विगुणताभः, भाद्रपदे मेघोऽलसमर्घ, प्रा. श्चिने रोगपीडा, कार्तिके विग्रहः धान्यं समर्थ, मार्गशीर्षे धान्य समता अकस्माद् उत्पातः, पौषे समता वणिकपीडा अन्नवस्तु च महर्घम् ॥५६॥ क्षयसंवत्सरे राहुः स्वामी, चैने करकापातः, वैशाखे उत्पातः, भूमिकम्पः, ज्येष्ठापाढयो रोगचालक; नवीनमुद्रा उदयोऽल्पमेघोऽनं समघ, भाद्रपदे ख. में अनाजकी तेजी, शुक्ल पक्षमें महावर्षा, आपादमें बड़ी जलवर्षा, सोरठदेशमें गांवोंका प्रवाहा (पानी खिंचाई जाना) अनाज सस्ता, श्रावगमें थोड़ी वर्मा, कुछ वित्रा , भाद्रपद थोड़ी बर्षा , रोगपीडा , आश्विन अनाज सस्ता, रसकस वस्तु सस्ती, कार्तिकादि पांच मास धान्य तेज, वीवाहादिका अभाव, घोडे को पीडा, पश्चिाने मुभिः ॥ ५८ ॥ क्रोधनवर्षका स्वामी शनि रोग अधिक, मंद वृषि, प्रजाको पीड़ा, उत्त में दुर्भिक्ष, लोक धन रहित , चैत्र वैशाखमें थोडी वर्षा, अनाज सस्ता, ज्येष्ठ मंदा , रोगपीडा, अन्न भाव सम, आषाढमें और श्रावणमें थोड़ी वर्षा, धान्य दूना लाभ,भाद्रपद में वर्षा, अनाज सस्ता, ग्रा.श्चन में रोग पीडा, कार्तिकमें विग्रह, धान्य सस्ता मार्गशीर्ष में धान्य सम, कस्माद् उत्पात, पौषमै सस्ता, व्यापारियोंको पीटा अनाज रस्तु तेन ॥ ५६ ॥ क्षयसंवत्सरका स्वामी राहु , चैत्रमें अोलेका गिरना, वैशाखमें उत्पात, भूमिकंप, ज्येष्ट आपादमें रोग, नवीन मुद्रा,थोड़ी "Aho Shrutgyanam" Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) मैचमहोदये ण्डवृष्टिः, चतुष्पदहानिः फदिया ५५ नायकल शिका एका, आश्विने रोग: परमन्नसमना सर्वधातुसमता मध्यमसमयः राजविरोधः पश्चिमायां सुभिक्षमन्नं समर्थ सिन्धुदेशात् स्थलदेशाद् वा अन्नागमः पूर्वस्यां विड्वरमन्नसमता ॥ ६० ॥ इत्यत्रमा विंशतिका पूर्णा || इति संक्षेपतः षष्टिसंवत्सरफलानि ॥ अथ गुरुचारः । इयं वाच्या प्राच्यादधिगमगलाद् वत्सरफला, तृतीयायां राधे जिनवरगवि शुक्लसमये । यदा स्यादास्यादेवि भवति काचिद् विघटना, तदा ज्ञेयं ज्ञेयं खल लिखित वाचालचरितम् ॥ १ ॥ आयप्रभो भगवतस्त्रिजगत्समीक्षा, " दीक्षा बभूव मधुमाससिताष्टमाहे । जानं तपस्तदनुवार्षिक मार्षिकेन्द्र " वर्षा, अनाज सस्ता भादो खंडवर्षा, पशुओं की हानि, ५५. फदिया का कलशी धान्य, अश्विन में रोग, परंतु अनाज सस्ता, सब धातु समान, मध्यम समय, राजाओं ने विरोव, पश्चिममें सुकाल, अन्नभाव सस्ता, सिंधुदेश अथवा स्थलदेशसे अन्नका आगमन, पूर्वमें उपद्रव और अन्नभाव सम हो ॥ ६० ॥ इत्यधमाविंशतिका पूर्गा | इति संक्षेपतः षष्टिसंवत्सर फलानि । वैशाख शुक तृतीया के दिन यह संवत्सर संबंधी फलादेश प्राचीन शास्त्र के वलसे कहना चाहिये; यदि इस सत्यरूप जिनवरों के वचनों में कोई विना मालुम पड़े तो समझना चाहिये कि यह खल पुरुषों से लिखा हुआ वाचाल चरित्र है ॥ १ ॥ चैत्र शुक्ल अष्टमीके दिन आदिनाथ भगवाकी तीन जगत् के स्वरूपको देखनेवाली दीक्षा हुई, तभीसे वार्षिक तप " Aho Shrutgyanam" Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ गुरुवारफलम् श्रीमारुदेवविहित प्रथमं पृथिव्याम् ॥२॥ तत्पारणादायककारणाप्ते-रभावतः साधिकवत्सरान्ते । राधे तृतीयादिवसे यलक्षे, बभूव भूवल्लभवन्दनीया ॥ ३॥ तबत्सरस्यापि शुभाशुभाद्यं, फलंच तस्मिन् दिवसे विचार्यम् दानं च कार्य पुरुषैः सभाय:, सत्कार्य साधौ तदुपासके वा ।४। संवत्सराख्या विपविंशिकार्थ-ग्रहप्रचाराद्यधिगम्य सम्यक् । यदीक्ष्यतेऽसौ सफला तदोक्तिर्भवेद्विसंवादिकथाऽन्यथाऽस्याः प्राचां तु वाचां विभवानुदीक्ष्य, चलाचलत्वं च बलाबलत्वम्। सर्वग्रहाणां बहुसंग्रहेण, विचार्य चार्य प्रवदेत् फलानि ॥६॥ व्यक्तोऽतिभक्तः स्वगुरौ च देवे, सक्तः स्वधर्मे हृदये दयालुः। यःशास्त्ररीत्या फलमन्दजन्यं, तेस मेघाद्विजयश्रियायः॥ वर्षाधिनाथा गुरुशोरिकेतुः स्वर्भाणवस्तेषु गुरुप्रचारात् । संवत्सरा द्वादश सम्भवन्ति,प्राच्याथ तेषामभिधाविधानः।८। प्रारंभ हुआ, जगत्में यह प्रथमवार ही श्री ऋषभदेवन किया ॥ २ ॥ उस व्रतका पारणाके लाभकी प्राप्तिका अभावसे एक वर्षसे कुछ अधिक वैशाख शुक्ल तीजको हुआ, इसलिये यह तीज जगत्को प्रिय और वंदनीय है ॥ ३ ॥ इस दिन वर्षके शुभाशुभ फलका विचार करना चाहिये और स्त्री तथा पुरुष साधुओंको या उनके उपासकोंको सत्कार पूर्वक दान दें। ४ ॥ यदि संवत्सरकी विंशतिकाका अर्थ ग्रहप्रचार आदिका अच्छी तरह विवार कर कहा जाय तो उसका वचन सफल होता है, अन्यथा विसंवाद (भसत्य) होता है ॥ ५ ॥ प्राचीन वचनोंका प्रभावको स्वीकार कर और सब प्रहोंका चलाचल बलाबलका अच्छी तरह विचार कर फल कहना चाहिये ॥ ६ ॥ जो अपने गुरु और देव पर बहुत भक्तिवाला, अपने धर्ममें श्रद्धावान् और हृदयमें दयावान् हो वह शास्त्ररीतिसे वर्षफल कहे तो मेघसे विजय लक्ष्मी को प्राप्त करता है ॥७॥ वर्षका स्वामी गुरु, शनि, केतु, "Aho Shrutgyanam" Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मेघमहीदये अय गुरुकृत्संवत्सरनामक नकथनं रानवितोदे . अयातः सम्प्रवक्ष्यामि गुरुचारमनुत्तमम् । . अनेन गुरुचारेण प्रभवाद्यब्दसम्भवः ॥९॥ स्यादुर्जादिमासेबु बलिभादिछयं छयम् । उपान्त्यपञ्चमान्त्येषु नक्षत्राणां त्रयं त्रयम् ॥१०॥ यस्मिन्नभ्युदितो जीव स्तन्नक्षत्रात्यवत्सरः। . . कचिद् गुरोरस्तभेऽपि सूर्यसिद्धान्तसंमते ॥११॥ प्रवासान्ते गृहक्षण सहितोऽभ्युदयेद् गुरुः। . तस्मात् कालावृक्षों गुरोरब्दः प्रवर्तते ॥१२॥ श्रय गुरुवर्षविचार:स्यात् पीडा कार्तिके वर्षे वहि गावोपजीविनाम् । शस्त्राग्निक्षुभयं वृद्धिः पुष्पकौसुम्भजीविनाम्॥१३॥ सौम्यवर्षे त्यल्पवृष्टिः सस्थहानिस्नेकधा । . और सूर्यादि हैं उनमेंम बृहस्पतिका चालनसे बारह संवत्सर होते हैं ॥८॥ अब यहांसे वृहस्पतिका उत्तम चार (चलन)को कहता हूँ क्योंकि इस गुरुचारसे प्रभव आदि संवत्सर होते हैं ||६i) गुरुके कात्तिमादि महीनों में कृत्तिका आदि दो २ और पांचवां तथा अंत्यके दो ये तीन महीनों में तीन २ नक्षत्र हैं ॥१०} जिस नक्षत्र पर बृहस्पतिका उदय हो उतको नक्षत्रसंवस्सर कहते है। कहीं सूर्यसिद्धान्तके मतसे बृहस्पति जिस नक्षत्र पर अस्त हो उसको नक्षत्रसंवत्सर कहते है ।। १११ प्रवासके अन्त्यमें जिस राशि के “साथ बृहस्पति का उज्य हो उस कालसे बृहस्पति का वर्ष होता है ।।१२।। ... बृहस्पतिक कार्तिक वर्षमें अग्नि और गौएं से आजीविका करनेवाले को पीडा, शत्र और अग्नि आदिका भय तथा कौसुंभ (केनुडा) के फूलों के आजीवियोंकी वृद्धि हो ॥ १३ ॥ मार्गशीर्षवर्ष में थोड़ी वर्षा, अनेक प्रकारसे खेतीकी हानि, राजा लोग एक दूसरेको मारनेकी इच्छासे युद्ध में "Aho Shrutgyanam" Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुचारप.हम राजानो युद्धनिरताश्चान्योऽन्यं वधकांक्षिणः ॥१४॥ पौषेऽब्दे सुखिनः सर्वे गुरुपूजारता जनाः । क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं वृष्टिः कार्षकसम्मता ॥१५॥ माघः सम्पस्करोऽब्दः स्यात्.सर्वभूतहितोदयः । सम्यक् घर्षति पर्जन्यः सुभिक्षं च प्रजायते ॥१६॥ फाल्गुनान्दे चौरभीतिः स्त्रीणां दुर्भगता भृशम् । कचिद् वृष्टिः कचित्सस्य कचिद् भीरीतयः कथित् ॥१७॥ चैत्राब्दे भूभुजः स्वस्थाः स्त्रीषु चाल्पप्रजा भवेत्। .. अल्पवृष्टिः सस्यसम्पत् प्रजानां व्याधितो भयम् ॥१८॥ वैशाखेऽन्ने तु राजानो धर्ममार्गरताः क्षितौ । क्षेमं मुभिक्षमारोग्यं द्विजावाध्वरतत्पराः ॥१९॥ : ज्येष्ठाऽब्दे धर्ममार्गरथाः पीयन्ते सक्रियापराः। .. न च वर्षेत्तदा देवो भवेत् सस्यविनाशनम् ॥२०॥ 'आषाढादे तु राजानः सर्वदा कलंहोत्सुकाः । तत्पर हों ॥ १४ ॥ पौषवर्ष सब सुखी, मनुष्य गुरुजनोंकी पूजा करें, 'शेम सुभिक्ष तथा प्रारोग्य हों और किसानों के अनुकूल वर्घा हो ॥१५॥ माधवर्ष सब सम्पत्ति दायक है, इसमें अच्छी वर्षा और सुझाल होता है ॥ १६ ॥ फाल्गुनवर्षमै चोरोंका भय, स्त्रियोंकी दुर्भाग्यता, कहीं वर्षा, कहीं खेली, कहीं भय और कहीं इंतिका उपद्रव होता हैं ॥ १७ ॥ क्षेत्रवर्धमें राजा शान्त हो, स्त्री थोड़ी संतानवाली हों, थोड़ी वर्षा, धान्यकी प्राप्ति और प्रजाको रोगसे भय हो ॥ १८ ॥ वैशाखवपमें राजाओं पृथ्वीवर धर्म पूज्य करें, शेन सुभिक्ष और आरोग्य हों, तथा ब्राह्मण यज्ञकर्म में तत्पर हो ॥ १६ ॥ ज्येष्ठवर्षमें धर्ममार्ग और सक्रिया करनेवाले दुःखी हों, वर्षा नहीं होनेसे धान्यका विनाश हो ॥ २० ॥ आषाढवमें राजा सर्वदा लड़ाई करनेमें उद्यत हो, कहीं ईति, कहीं भय, कहीं वृद्धि और कहीं उल हो ॥ -.- ... . . . .. .... . "Aho Shrutgyanam" Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये कचिदीतिः क्वचिद् भीतिः कचिद् धृद्धिर्जलं. कचित् ॥२१॥ श्रावणान्दे धरा भाति त्रिदशस्पर्द्धिमानदैः । धरा पुष्पफलैर्युक्ता परिपूगावरादिभिः ॥२२॥ अब्दे भाद्रपदे वृष्टिः क्षेमारोग्य कचित् काचित । सर्वसस्यसमृद्धिः स्याद नाशमेत्यपरं फलम् ॥२३॥ अब्दे त्वाश्वयुजेऽत्यर्थ सुखिनः सर्वजन्तवः ।. . मध्यम पूर्वसस्यं स्थात् परं पूर्ण विपच्यते ॥२४॥ पाठान्तरं जीर्णग्रन्थेषु । मेषराशिस्थगुरुफलम्-. मेषराशौ यदा जीवाश्चैत्रसंवत्सरस्तदा । । प्रबुद्धनामा जलदो वर्षा च सर्वतोमुखी ॥२५॥ सुभितं विग्रहो राज्ञां समर्थ वस्त्रकर्पटम् । हेमरूप्यं तथा तानं कर्पासंच प्रवालकम् ॥२६॥ मञ्जिष्ठानारिकेलं च पट्टसूत्रे समर्थता। काश्यं लोहं तथैवेक्षु-पूगादीनां च संग्रहः ॥२७॥ अश्वपोडा महारोगो द्विजानां कष्टसम्भवः । : २१॥ श्रावण वर्ष पृथ्वी देवों की स्पा करनेवाले मनुष्यों ले सुशोभित हो, तथा फल फूल और यज्ञोंते पूर्ण हों ॥ २२ ॥ भाद्रपदधर्षमें वर्षा हो, कहाँ कहीं क्षे। और आरोग्य हों, सब धान्यकी वृद्धि हो परंतु फलकी हानि हो ॥२३॥ आश्विनवर्षमें सब प्राणी बहुत सुखी हों, प्रथम मध्यम खेती हो और पीछे से पूर्ण खेती हो ।। २४ ॥ - मेषराशि में जब बृहस पति हो तब चैत्रसंवत्सर कहा जाता है। उसमें प्रबुदनानका मेव सब ओरसे वर्षा करता है ॥ २५ ॥ सुभिक्ष, राजाओंमें विरोष बत्र कर्पट सोना चांदी तांबा कयास और मूंगे ये सस्ते हों ॥ २६॥ . मँजी 3 श्रीफल और रेशमीवस्त्र सस्ते, कांसा. लोहा ईक्षु और सुपारी प्रा.. दिका संग्रह करना ॥ २७ ॥ घोड़ोंको पोडा, रोग अधिक; बाझगोंको कष्ट "Aho Shrutgyanam" Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र फलमि पश्चाद् भाद्रपदे पुनः ॥ २८ ॥ गोधूमशा लिमाषान: माज्यस्याग्रे रुमर्धता । दक्षिणस्यामुत्तरस्यां खण्डवृष्टिः प्रजायते ॥ २९ ॥ दक्षिणोत्तरयोदेशे छत्रभङ्गोऽपि कुत्रचित् । दुर्भिक्षमपि परामाला आश्विने फाल्गुने तथा ||३०|| पश्चात् सुभिक्षं द्वौ मासौ नाना मेघो जलेन्द्रकः । कार्त्तिके मार्गशीर्षे च कर्पासान्नमहता ॥ ३१ ॥ मेदपाटे राजपीडा देशभङ्गोऽल्पवर्षणम् । लोकाः सरोगा दुर्भिक्ष पौषे रसमहर्घता ||३२|| वाणिज्ये संशयो लाभे वैशाखे गुर्जरे रणः । छत्रभङ्गस्तथाषाढे श्रावणे वा भयं पथि ॥३३॥ नवीनो जायते राजा क्वचिन्मेघोऽपि कार्त्तिके । धान्यानि संग्रहे लाभ - स्त्रिगुणो मासि मे ||३४|| अब्दमध्ये यदा जीवः क्रमाद् राशित्रयं स्पृशेत् । (१५५) यह तीन मास के फल है; पीछे भाद्रपद में ॥ २८ ॥ गेहुँ चावल उर्द और घी सस्ते हों, दक्षिण तथा उत्तर में रण्डवृष्टि हो ॥ २६ ॥ दक्षिण तथा उत्तरदेशमें कहीं छत्रभंग और अश्विनले फाल्गुन तक छ महिने दुर्भिक्ष रहे ॥ ३० ॥ पीछे दो मास सुभिक्ष तथा जलेन्द्र नामका मेव बरसे। कातिक और मार्गशीर्ष मास में कपास तथा अनाजकी तेजी हो ॥ ३१ ॥ मेदपा में राज्यपीडा; देशभंग तथा थोड़ी वर्षा हो; लोकमें रोग और दुर्भिक्ष हो । पौष में रस तेज ॥ ३२ ॥ व्यापारियोंको लाभमें संदेह, वैशाख में गुजरात देश युद्ध, आषाढ या श्रावण में छत्रभंग और मार्ग में भय हो ॥ ३३ ॥ नवीन राजा हो; वहीं कार्तिकमें भी वर्षा हो; धान्यका संग्रह करे तो पांच वें मास में तीगुना लाभ हो ॥ ३४ ॥ एक वर्षमें यदि गुरु क्रम से तीन राशि को स्पर्श करे तो पृथ्वी करोडों मुमटो से रंङमुगड हो । ३५ ॥ जलचर "Aho Shrutgyanam" Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((५६) तदा सुभटकोटीभिः प्रेतपूर्णा वसुन्धरा ॥३५॥ उदग्वीथी चरन् जीवः सुभिक्षक्षेमकारकः । मध्यमे मध्यमं चाथे मेत्रमन्येऽपि खेचराः ||३६|| एष एव किल मेयविशेषः, शेषमत्र गुरुगम्यमशेषमः । शेषमत्र गुरुवार विचार-संग्रहे भजतु जातु न कश्चित् |३७| पराशिस्थ गुरुनम् - वृपराशौ यदो जीवो वैशाखो वत्सरस्तदा । नन्दशालो भवेन्मेवः सर्वधान्यसमर्धता ॥ ३८॥ वैशाखे आश्विने मासे स्त्रीणां रोगाश्च दन्तिनाम् । अश्वानां च महापीडा गृहे वैरं परस्परम् ॥ ३६ ॥ उत्तरस्थामनावृष्टि-दुर्भिक्ष मण्डले कचित् । पूर्वस्यां च महासौख्यं राजबुद्विविपर्ययः ||४०|| घृतं तैलं च मञ्जिष्ठा मौक्तिकं च मत्रालकम् । लबगं रक्तवस्त्रं च नारिकेलं समर्थकम् ॥४१॥ मेघमहोदय राशि पर गुरु हो तत्र सुभिक्ष और क्षेत्र ( कल्याण ) हो मध्यम में मध्यम फल कहना इसतरह सब ग्रहों को जानना || ३६ || इस तरह मेषराशिका फल कहा; और विशेष गुरुगमसे जानना । दूसरा कोई पुरुष गुरुवार के विचारसंग्रह में कभी शंका नहीं लावें ॥ ३७ ॥ इति मेरा शिवगुरु का फल | जब वृषराशितें गुरु हो तब वैशाखार्ष कहा जाता है । इसमें नन्दशल नामका मेव बरसे और सब धान्य सस्ते हो ॥ ३८ ॥वैशाख और आश्विने स्त्री तथा हाथियों को रोग, घोड़को महापीडा और घरों में परस्पर द्वेश हो ॥ ३६ ॥ उत्तर में अनावृष्टि और देश में कहीं दुर्भिक्ष हो, पूर्व में बड़ा मुख और राजकी बुद्धि विपर्यास हो ॥ ४० ॥ घी तेल मँजिठ मोती मूंग लूण लालपत्र और श्रीफल ये सस्ते हों ॥ ४१ ॥ श्रावण में गेहूँ चावल चगा मूंग उई और तिल ये महँगे हो, तथा ज्येश्में वर्षाका अधिक' " Aho Shrutgyanam" Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारडम् गोधूमशालिच एका मुद्रा माषास्तथा तिलाः । महर्घाः श्रावणे ज्येष्ठे मेघानां च महाजलम् ॥४२॥ श्रृंगालके मालवे व उत्पानो राजविग्रहः । देशभंगाद् भयं शून्यं घृतधान्यमर्घता ॥ ४३ ॥ मेदपाटे ग्रीष्मऋतौ समर्धे धान्यमीरितम् । मरौ धान्यं घृतं तैलं महङ्घे धातवोऽन्यथा ॥ ४४ ॥ सिन्धुदेशे नागपुरे श्रीविक्रमपुरे स्थले । धान्यं मह समर्च मेदपाटे तदा भवेत् ॥४५॥ मासवयं संग्रहः स्याद् धान्यानां च ततः शुभम् । दुर्भिक्षं मासदशके मार्गरोधः प्रजाक्षयः ॥४६॥ आषाढ श्रावये वर्षा न वर्षा भाद्रपादके । अश्वरोगश्चतुष्पाद - नाशस्तीडागमः कचित् ॥४७॥ मुनिवृषभैर्वृषभगते गुरौ फलं सकलमेवमादिष्टम् । जिनवृषभध्यानबलादनला सर्वत्र सरसा स्यात् ॥४८|| (१५७) पानी बरसे ॥ ४२ ॥ शृंगाल और मालवा देशमें उत्पात और राजविग्रह हो, देशभंगसे भय, शून्यता तथा घी और धान्य की तेजी हो ॥ ४३ ॥ मेदपाटमें श्रीमऋतु सब धान्य सस्ते हों, मारवाड में धान्य वी तेल तेज हो और धातु सस्ती हों ॥ ४४ ॥ सिन्धुदेश नागपुर विक्रमपुर (उज्जयनी) इन स्थानों में धान्य भाव तेज और मेदपाटमें धान्य भाव सस्ते हो ॥४५॥ धान्यका दो मास संग्रह करनेसे अच्छा लाभ होगा, दश मास दुर्भिक्ष रहेगा, मार्गरोव (मार्गका बंत्र) और प्रजाका विनाश हो || ४६ || आषाढ श्रावण में वर्षा हो, भाद्रपद में वर्षा न हो, घोडेको रोग, पशुओं का विनाश और कहीं टीड्डीका आगमन हो || ४७ || इस प्रकार श्रेठ मुनियों ने वृषभ राशि पर गया हुआ बृहस्पतिका फल कहा है। जिनेश्वरदेवका ध्यानके प्रभाव से पृथ्वी सब जगह रसवाली हो ॥ ४८ ॥ इति वृष राशिस्थगुरु का फल ॥ "Aho Shrutgyanam" M Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८). मेवमहोदय: লিনাহিংখল मिथुने समते जीवे ज्येष्ठाख्यवत्सरो भवेत् । यालानां दोषमश्वाना खण्डवृष्टिस्तदा वदेत् ॥४९॥ कर्कोटकस्तदा मेघो अण्डूपदो मतान्तरे। तस्करैः पीज्यते लोकः पापोपहतमान:॥५०॥ पश्चिमायां सिन्धुदेशे वायव्ये चोत्तरादिशि । चित्रा विचित्रा जायन्ते रोगाः पीडोत्तरापथे ॥५१॥ श्वेतवस्त्रं तथा कांस्यं कर्पूरं चन्दनादिकम् । मनिष्ठं नारिकेलं च पूगी स्वर्ण च रूप्यकम् ॥५२॥ मासानां पञ्चकं यावत् समर्घ चैत्रतो भवेत् । पश्चान्मह पूर्वोक्त-धान्यानां च समर्थता ॥५॥ पूर्वाग्निगाम्यनैऋत्या-मीशाने च सुभिक्षता। श्रावणे तु महत्कष्टं महिषीणां च हस्तिनाम् ॥५४॥ राजा स्वस्थः प्रजाघृद्धिः सुभिक्षं मङ्गलं भुवि । समर्थ तैलखण्डादिशर्कराधातवोऽपि च ॥५५॥ जब मिथुनराशिका बृहस्पति हो तब ज्येष्ठसंवत्सर कहा जाता है, इसमें बालकोंको और घोडेको रोग और खण्ड वर्षा हो ॥४६॥ व.कोटक नामका या गंडूपद नामका वर्षाद बरसे और लोक पापी मनवाले चोरोंसे पीडित हो ॥ ५० ॥. पश्चिममें सिन्धुदेशमें वायव्य और उत्तर दिशाके देशमें चित्र विचित्र रोग और उत्तर प्रदेश पीडा हो ॥ ५१ ॥ श्वेत. वास्त्र कशी कपूर चन्दन मॅजिठ श्रीफल सुपारी सोना और चांदी आदि ५२. ॥ चैत्रसे पांच महीने तक सस्ते हो. पीछे. पूर्वोक्त धान्यकी तेजी या समानता रहे ॥ ५३ ॥ पूर्व आय दक्षिग. नैर्ऋत्य और ईशानमें सुभिक्ष हो. श्रावण में भैंस और हाथिगेको वड़ा कष्ट हो ॥ ५४ ॥ राजा, स्वस्थ, प्रजामें वृद्धि और पृथ्वी पर सुभिक्ष तथा मंगल हो, तेल, खांड.. "Aho Shrutgyanam" Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् : श्रृंगालदेशे चोत्पाताः क्रयाणकेषु मन्दता । महावर्षा घृतं धान्यं समर्धे च गुडस्तथा ॥ ५६ ॥ शुंठीमरिचपिप्पल्यो मञ्जिष्ठा जातिकोशलः । महर्धमेतद्वस्तु स्यात् फाल्गुने धान्यसङ्ग्रहः ॥ ५७ ॥ कर्पास लवणं गुडतिलगोधूम युगन्धरीचणकमुद्गान् । संगृह्य विक्रयक्रितस्त्रिगुणो लाभस्त्रिमासान्ते ॥ ५८ ॥ गुरुरपि मिथुनानिलीनसारस्यमवश्यतः करोति जने । व्यभिचारं चारचर्चाबलात् कचिद् देशभङ्गभयम् ॥ ५९॥ कर्कराशिस्थ गुरु फलम् - कर्के गुरुस्तदाषाढी वत्सरस्तव जायते । पूर्वदक्षिणयोर्मेघो मध्यमः कम्बलाभिधः ॥ ६०॥ मह सर्वधान्यानां कार्त्तिके फाल्गुने तथा । पश्चिमायां सिन्धुदेशे वायव्ये चोत्तरादिशि ।। ६१ ।। (१५९) सक्कर और धातु भी सस्ते हों ॥ ५५ ॥ शृंगालदशमें उत्पात और क रियाणा में मंदता हो, महावर्षा हो, वी धान्य और गुड सस्ते हो ॥५६॥ सोठ मिरच पीपल मंजीठ जायफल कोशल (कंकोल ) ये वस्तु महँगी हों, फाल्गुन में धान्यका संग्रह करना उचित है ॥ ५७ ॥ कपास लूंग गुड तिल गेहूँ जुमार चणा और मूंग आदि खरीद कर संग्रह करना तीन मास के पीछे बेचनेसे तीगुना लाभ हो ॥ ५८ ॥ लोकमें मिथुन राशिका गुरु भी व्यभिचार करता है. और कभी उसका चार प्रभाव से देशभंगका भय होता है ॥ ५६ ॥ इति मिथुन राशिस्यगुरुका फलं ॥ जब कर्क राशि बृहस्पति हो तंत्र आषढसंवत्सर कहा जाता है. इस में पूर्व और दक्षिणका कम्बल नामका मध्यम मेघ बरसे ॥ ६० ॥ का तिक और फाल्गुन में सब धान्यकी तेजी हो, पश्चिम में विदेश में वायव्य में और उत्तर दिशा में ॥ ६१ ॥ पशुओं का विनाश हो, मृगों को दुःख, "Aho Shrutgyanam" A " Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदयः क्षयश्चतुष्पदानां स्याद् दुर्भिक्षं मृगसैन्यकन् । हेमरूप्यं तथा तानं परत्रं प्रवालक.म् ।। ६२॥ मौक्तिकं द्रव्यमन्नादि लोकोत्त्या लोकष्क्रियः । मञ्जिष्ठाश्वेतवस्त्राणां समर्घ सुभटक्षयः ॥१३॥ गोधूमशालितैलाज्यं लवणं शर्करा पुनः । माषा महर्धा जायन्ते पापकर्मरतो जनः ॥६४॥ कार्तिकद्वितये धान्य-पृततैलमहर्घता। पष्टसूत्रं च वस्त्राणि जातीफललवङ्गकम् ॥६५॥ मरिचं शीतकालेऽथ संग्राह्याणि वणिगजनैः । धेशाखज्येष्ठयोर्लाभो द्विगुणस्तस्य विक्रयात् ॥६६॥ वर्षाकाले महावर्षा सर्वधान्यसमर्थता । सुनिक्षं तिलकर्पास-चणकानां गुडस्य च ॥६॥ गोधूममाषतधरी-युगन्धरीमुद्गकोद्रवादीनाम् । आषाढे संग्रहतो लाभः पुनरुष्णगो द्विगुणः ॥१८॥ सिंहराशिस्थगुरुफलम् - - दुर्भिक्षता. सोना चांदी वस्त्र सूत मूंगा ।। ६२ । मोती द्रव्य और अन्न मादि चतुगई की बातोंसे विकें. मँजीठ और श्वेतवस्त्र सस्ते हों. और सु. भटोंका नाश हो ॥ ६३ ॥ गेहूँ चायल तेल घी लू ग सकर और उर्द ये महंगे हों और मनुष्य पापकर्मों में लीन हो ॥ ६४ ॥ कार्तिक मार्गशीर्ष में घान्य घी तेलकी तेजी, रेशम यत्र जायफल लोंग ॥ ६५ ॥ मिरच ये व्यापारीयों को शीतकाल में संग्रह करना उचित हैं, उसको शाख ज्येष्ठ में बेवनेसे दूना लाभ होगा ॥ ६६ ॥ वर्षाऋतुमें बड़ी वर्षा हो, सब धान्य सस्ते हों. सुभिक्ष हो. तिल कपास चणा गुड गेहूँ उर्द तुंबरी जुमार मुंग और कोमा मादि पापाढमें संग्रह करनेसे श्रीमऋतुमें दूना लाभ होगा ॥ १७ ॥ १८॥ इति कर्कगशिल्यगुरुका फल ॥ . .. "Aho Shrutgyanam" Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम सिंहे जीवे श्रावणाख्यवत्सरे वासुकिनः । ... बहुक्षीरभृता गावो जलपूर्णा च मेदिनी ॥६९।। देवब्राह्मणपूजा स्थान्नराणां मान्यता सताम् । रोगा विवादश्वान्योऽन्यं चतुष्पदमहर्घता ॥७॥ म्लेच्छदेशे महायुद्धं छत्रभङ्गश्च विड्वरम् । . उसः क्रियते, लोकाः पश्चिमोत्तरवायुषु ॥७॥ गोधूमतिलमाषाज्य-शालीनां च महर्घता। सुवर्णरूप्यताम्रादेः प्रवालानां समर्षता ॥७२॥ सभिक्षं सर्पदंशश्च मेघोऽप्याषाढभाद्रयोः। .... श्रावणे वृष्ठिरल्पैव सुकालः कार्तिके स्मृतः ॥७३॥ सोपारीटोपरा डोडा-मजीठसुंठिखारिका । पकुलं जातिफलं कपूरं सुमहर्घकम् ॥७४॥ उष्णकाले गुडः खण्डा हिंगुमीश्री च शर्करा । महर्घमेतद् वस्तु स्याद् धान्यस्यातिसमर्थता ॥७॥ , जब सिंहका बृहस्पति हो तब श्रावणसंवत्सर कहा जाता है । इसमें वासुकी नामका मेघ वर्षता है, गौ बहुत दूध वाली हों, और पृथ्वी जलसे पूर्ण हो ॥ ६६ ॥ देवब्राह्मगोंकी पूजा और सत्पुरुषोंका सत्कार हो, रोग परस्पर कलह और पशुओंकी तेजी हो ॥ ७० ॥ म्लेच्छदेशमें महायुद्ध छत्रभंग और विप्लव हो, पश्चिमोत्तरवायु चलने से लोगोंका विनाश हो ॥ ७१ ॥ गेहूँ तिल उर्द घी और चावल ये महँगे हों तथा सोना रूपा तांबा मूंगा आदि सस्ते हों ॥ ७२ ॥ सुभिक्ष हो, सर्पदंशका भय, आ.षाढ़ और भाद्रपदमें वर्षा, श्रावण में थोड़ी वर्षा, कार्तिकमें सुकाल ॥ ७३.॥ सुपारी खोपरा मक्का मजीठ सोंठ खारिक रेशमीवस्त्र जायफल और कपूर मादि सस्ते हों ॥ ७४ ॥ ग्रीष्मऋतुमें गुड खांड हींग मीश्री सक्कर ये वस्तु तेज हों, और धान्य सस्ता हो ।। ७५ ॥ ज्येष्टमें आठ स्कन्दोंसे एक "Aho Shrutgyanam" Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ransise ज्येष्ठेऽष्टस्कन्दकैर्धान्यं लभ्यते मणमानतः । स्कन्दकैः पञ्चविंशत्या घृतं तैलं तु विंशतेः ॥७६॥ स्कन्दकैर्दशभिर्लभ्या गोधूमा मणसंमिताः । धान्यकर्पासतैलादि - रससंग्रहणं शुभम् ॥७७|| फाल्गुनेऽत्र ततो ज्येष्ठाद् लाभो द्विगुणतः परम् । गुरौ सूर्यगृहप्राप्ते सर्वत्र धार्मिकोदयः ॥ ७८ ॥ कन्याराशिस्थगुरुफलम् - (१६२) • कन्याभोगे गुरोर्जाते मेघनामतमस्तमः । भाद्रसंवत्सरस्तत्र सप्तमासाश्च रौरवम् ॥७९॥ सतः परं सुभिक्षं स्यात् कार्त्तिकान्माधवावधि | प्राज्यसंग्रहणाद् लाभो द्विगुणो भाद्रमासजः ॥ ८० ॥ चतुष्पदानां पीडापि गोधूमाः शालिशर्कराः । तैलं माषा महर्घाणि गुडादीक्षुरसस्तथा ॥८१॥ शूद्राणामन्त्यजानां च कष्टं सौराष्ट्रमण्डले । मा धान्य मिले, वी पच्चीस स्कन्दोंसे और तेल वीस स्कन्दों से मिले ॥ ७६ ॥ दश स्कंद्रोंसे एक मय गेहूँ मिले, धान्य कपास और तेल आदि रस का फाल्गुन में संग्रह करना अच्छा है ||७७|| इससे जेटतक द्विगुना लाभ हो, सिंह राशिपर बृहस्पति आने से सब जगह धार्मिक कार्य हो ॥७८॥ इति सिंहराशिस्थगुरुका फल ॥ जय कन्याराशिका बृहस्पति हो तब भाद्रपदसंवत्सर कहा जाता है इसमें समस्त नामका मेघ बरसता है और सात मासं दुःख होता है ॥७६॥ इसके पीछे कार्तिकले वैशाख तक सुभिक्ष हो, इस समय भाद्रपद में संग्रह किया हुआ घी से दूना लाभ हो ॥ ८० ॥ पशुओंको पीडा, गेहूँ चावल सकर तेल उर्द गन्ने (ई ) गुड आदि महँगे हों ॥ ८१ ॥ शूद्र और अन्त्यजों को सोरठदेशमें कष्ट हो, दक्षिण में खराडवृष्टि और म्लेच्छदेशमें उत्पात हो "Aho Shrutgyanam" Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् खगष्टिदक्षिणस्या-मुत्पातो म्लेच्छमण्डले ॥ ८२॥ मेदपाटे श्रृंगाले च परचक्रभयं रणः। .. . सर्पदंशो वह्निभयं मेघोऽल्पश्च रसेऽल्पता ॥ ८३ ॥ मरदेशे छत्रभङ्ग-चैत्रे वा माधवे भवेत् । गोधूमा घृततैलानि महर्घाणि समादिशेत् ॥८४॥ वस्त्रकम्पलधातूनां रखादेव समर्थता । धान्यसंग्रह आषाढ़े भाद्रे लाभश्चतुर्गुणः ॥८५॥ तुलाराशिस्थगुरुफलम्-. गुरोस्तुलायां मेघाख्यः तक्षको वत्सरोऽश्विनः। तदातिवृष्टिर्मनिष्ठा नालिकेरसमर्थताः ॥८६॥ अन्योऽन्यं राजयुद्धानि समर्घ स्वाज्यतैलयोः । मार्गशीर्षे तथा पौषे छये धान्यस्य सङ्ग्रहः ॥८७॥ लाभः स्यात् पञ्चमे मासे मार्गात प्रारभ्य चैत्रतः । बत्रभङ्गस्ततो राज-विग्रहः क्वापि मण्डले ॥८८ ॥ ॥ ८२ ॥ मेदपाट और शृंगालदेशमें शत्रुका भय और युद्ध हो, सर्पदंशका भय, अग्निका भय, थोड़ी वर्षा और रस थोड़ा हो ।। ८३ ॥ चैत्र वै. शाखमें मरुदेशमें छत्रभंग हो, गेहूँ घी और तेल आदि तेज हो ॥८४॥ वस्त्र कम्बल धातु और रत्न आदि सस्ते हों, आषाढमें धान्यका संग्रह करने से भाद्रपदमें चौगुना लाभ हो ।। ८५ ॥ इति कन्याराशि स्थगुरुका फल ।। जब तुलाराशिका बृहस्पति हो तब आश्विनसंवत्सर कहा जाता है, इसमें तक्षक नामका मेघ बरसता है, वर्षा अधिक और मजीठ तथा नारियलका भाव सस्ता हो ।। ८६ ॥ राजाओंमें परस्पर युद्ध, धी और तेल सस्ता, मार्गशीर्ष स्था पौघमें धान्यका संग्रह करना अच्छा है ।। ८७ ॥ इसका मार्गशीर्षसे लेकर चैत्र तक पांचवें मासमें लाभ होताहै, छत्रभंग और कहीं देशमें राजविग्रह हो ॥८८ ॥ मरुदेशमें उत्पात तथा मार्गमें चोरोंका भय "Aho Shrutgyanam" Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४)" मेघमहोदये उत्पातो मरुदेशे स्यान्मार्गे चौरभयं तथा। कोटजेसलमेर्वादौ परचक्रागमो मतः ॥ ८९ ।। स्कन्दकैर्दशभिश्चैक-मणधान्यं च लभ्यते । कार्तिके मार्गशीर्षे वा मेघस्त्वाषाढके महान् ।। १० ।। प्रयोदशस्कन्दकैस्तु खण्डामणमवाप्यते । पञ्चाशत्स्कन्दकैर्मिश्री-शर्करामणविक्रयः ॥ ९१ ।। रसक्रयाणकादीनां संग्रहेण चतुर्गुणः । लाभश्चतुर्थभासे स्याद् धातूनां च समर्थता ॥ ९२ ॥ वृश्चिकराशिस्थगुरुफलम्-- वृश्चिकस्थे गुरौ सोम-मेघः कार्तिकमासतः । संवत्सरः खण्डवृष्टि-र्धान्यमल्पं भयं महत् ॥१४॥ गृहे परस्परं वैर-मष्टौ मासा न संशयः । भाद्राश्विनकार्तिकाख्या-स्त्रयो मासा महर्घताः ॥१४॥ ततः सुभिक्षं जायेत मन्दवृष्टिश्च मण्डले । हो कोट जेसलमेर आदिमें शत्रुओंका आगमन हों ।। ८६॥ दश स्कंदोसे एक मण धान्य चिकें। कार्तिक और मार्गशीर्षमें अथवा माघ और आषाढमें ॥ १० ॥ तेरह स्कंदोंसे मण खांड बिके और पन्द्रह स्कन्दोंसे एक मण मीश्री और सक्कर विकें | ६१ ॥ रस और ऋयाणा आदिका संग्रह करने वालेको चौथे मासमें चौगुना लाभ हो और धातु सस्ती हो ॥ ६२ । इति तुलाराशिस्थगुरुका फल ॥ ___जब वृश्चिकराशिका बृहस्पति हो तब कार्तिकसंवत्सर कहा जाता है, इसमें सोम नामका मेघ बरसे, खण्डवर्षा धान्य थोडा और भय अधिक हो ॥ ६३ ॥ घरों में परस्पर द्वेष आठ मास तक हो इसमें संशय नहीं , भाद्रपद आश्विन और कार्तिक ये तीन मास तेजी रहे ।। ६४ ॥ पीछे सुभिक्ष हो देशमें थोड़ी वर्षा, पश्चिमप्रान्तमें जीवकी वर्षा और वायत्र्य प्रा "Aho Shrutgyanam" Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम (१३५) पश्चिमायां जीवसृष्टि-दुर्भिक्षं वायुमण्डले ॥१५॥ हेमरूप्यकांश्यताम्र-तिलाज्यश्रीफलादिषु। महर्षे गुडकर्पास-लवणश्वेतवनकम् ॥९६।। . . . . महिषी वृषभा घश्वाः समर्घा मध्यमण्डले । ....... तीडानां म्लेच्छलोकानां महोत्पातश्च सम्भवेत् ॥६॥ शृंगालदेशे कटकं रोगोऽश्वमहिषीषु च।। एतानि च महर्घाणि हिंगुखारिकटोपस ॥८॥ देशभङ्गोऽप्यल्पवृष्टिः स्त्रीणामपि च दुःखिता। मरौ तथा नागपुरे देशे क्लेशाकुलाः प्रजाः ॥१९॥ गोधूमचणकतुवरी युगंधरीमाषमुद्गकंगुतिलाः। ..... संग्राधास्ते मासान् पञ्च परं विक्रयाद् द्विगुणो लाभः ॥१०० धनराशिस्थगुरुफलम् धने गुरौ हेममाली-मेघः संवत्सरस्तथा । । । न्तमें दुर्मिक्ष हो ॥ ६५ । सोना चांदी कांसी तांबा तिल घी नारियल गुड कपास लूण और श्वेतवस्त्र ये तेज हो ॥ १६ ॥ भैस बैल घोड़ा ये मध्यदेश में सस्ते हों, टीड्डी और म्लेच्छलोकोंका बड़ा उत्पात हो. ॥ १७ ॥ श्रृंगालदेशमें कटक ( सैना ) का आगमन, घोड़ाओं को और भैंसोंको रोग हो, हिंग खारिक टोपरा ये तेज भाव हों ।। ६८ ॥ देशका भंग, थोड़ी वर्षा, स्त्रियोंकों दुःख, मारवाड तथा नागपुरदेशमें प्रजा क्लेश से व्याकुल हो ।। ६६ ॥ गेहूँ चणा तुवरी जुार उर्द मूंग कंगु तिल इनका संग्रह करना उनको पांच मास पीछे बेचनेसे दूगुना लाभ होंगे ।। १०० ।। ।।इति वृश्चिकराशिस्थगुरु का फल ... .... १. जब धनराशिका बृहस्पति हो तब मार्गशीर्षवर्ष कहा जाता है. इसमें हेममाली नामका मेघ बरसता है, दिव्यवर्षा और घर घर में स्त्रियोंको पीड़ा हो.॥ १०१ ॥ पूर्वकालमै धान्य गेहूँ चावल और सकर अविक हो, क- . "Aho Shrutgyanam" Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदय, मार्गशीर्षे दिष्यवृष्टिः स्त्रीणां पीडा गृहे गृहे ॥१०१ पूर्वकाले भवेद धान्यं गोधूमशालिशर्कराः । कर्पासश्च प्रवालानि कांश्यलोहं धृतं त्रपुः ॥१०२॥ हेमरूप्यं मह_णि तिलास्तैलं गुडस्तथा । . . . . पूगीफलं श्वेतवस्त्रं समर्घ च कचिद् भवेत् ॥१०॥ भार्गशीर्षात् पुनयेष्ठं यावद् घृतमहार्यता। " महिषीवाजिननां मञ्जिष्ठाया महर्घता ॥१०४॥ . देशभङ्गश्च दुर्भिक्षं कचिन्मरकसम्भवः । .... सजाते शीतकालेऽथ ग्रीष्मे म्लेच्छजनक्षयः ॥१०॥ श्रावणे धान्यकलशी त्रिंशता स्कन्दकैर्भवेत् । .. पश्चाशत् स्कन्दकैराज्यमणं भाद्रेऽम्बुदो महान् ॥१०॥ आश्विने रोगिता सर्प-दंशो धान्यमणं पुनः । दशभिः स्कन्दराज्य-मणं तापभिरेव च ॥१०७॥ खण्डा लभ्या शेरमिता एकेन स्कन्दकेन च।। गुडे सितोपलायां च महर्घत्वं कचिद् भवेत् ॥१०८॥ पास मूंगे कांसी लोहा घी तांबा ॥ १०२ ॥ सोना चांदी तिल तेल और गुड ये तेज हो; तथा मुपारी और श्वेतवस्त्र ये कभी थोड़े सस्ते हों ॥ १०३ ॥ मार्गशीर्षसे ज्येष्ठ तक घी तेज हो. और भैस घोडागौ तथा मैंजीठं भी तेज हो ॥ १०४ ॥ देशभंग और दुष्काल हो, कभी शीतकालमें महामारीका संभव हो, ग्रीष्मकालमें म्लेच्छोंका क्षय हों ॥ १०५ ॥ श्रावणमें तीस स्कंदोंमे कलशी धान्य बिके, पचास स्कन्दोंसे मण मर धी बिके, भाद्रपद में बड़ी वर्षा हो ॥ १०६ ॥ प्राश्विनमें रोग अधिक, सर्प दंशका भय, दश स्कन्दोंसे मण भर धान्य और इतना ही घी बिके ॥ १०७ ॥ एक स्कंदसे शेर भर खांड विके, गुड सक्कर कहीं महंगे हो । १०८॥ कुलथी भादि अनाज लालवस्त्र गेहूँ और जब ये तेज हो और "Aho Shrutgyanam" Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् (१६७) कुलस्थकामसूरानं रक्तवस्त्रं महर्घकम् । तथैव गोधूमयवाछत्रभङ्गश्च गौर्जरे ॥१०९॥ मार्गशीर्षे तथा पौषे मञ्जिष्ठाहिंगुमौक्तिकम् । जाती पूगीफलं चैव प्रवालानां महर्घता. ॥११॥ ... पतुष्पदादिकास-संग्रहो रसमाषकान् । . . . . तल्लाभः सप्तमे मासे प्रोक्तो व्यक्तैश्चतुर्गुणः ॥११९॥ मकरराशिस्थगुरुफलम् --- . . . गुरौ मकरगे मेघो जलेन्द्रः पौषक्त्सरः। चतुष्पदक्षयो भूम्यां दुर्भिक्षं निर्जलो जनः ॥११२॥ मार्गशीर्षाद् धान्यवस्तु-संग्रहः क्रियते तदा। विग्रहश्च महाघोरो राज्ञां बुद्धिविपर्ययः ॥११॥ उसरापश्चिमे देशे खण्डवृष्टिः कदापि च । पूर्वस्या दक्षिणे चैव दुर्भिक्षं राजविग्रहः ॥११४॥ पापबुद्धिरतालोका हाहाभूता च मेदिनी। मुजरातमें छत्रभंग हो ॥ १०६ ॥ मागशीर्ष तथा पौषमें मँजीठ हिंग मोती जायफल सुपारी और मूंगे तेज हो ॥ ११० ॥ पशु कपास रस: उर्द पादिका संग्रह करनेसे सातवें मासमें चोगुना लाभ हो ॥ १११ ॥ इति धनराशिस्थगुरुका फल ॥ .. जब मकरराशिका बृहस्पति हो तब पौष संवत्सर कहा जाता, है इस में जलेन्द्र नामका मेव बरसता है , पृथ्वीपर पशुओका विनाश , दुर्मिक्ष और देश निर्जल हो ॥ ११२ !! मार्गशीर्षसे धान्य वस्तुका संग्रह करना श्रेयः है, बडा घोर विग्रह हो, और राजाओंकी बुद्धि विपरीत हो॥ १.१३॥ उत्तर पश्चिमके देशमें कभी खण्डवर्षा हो, पूर्व दक्षिणके देशमें दुर्भिक्ष और राजधिग्रह हो ॥ ११॥ लोग पाप बुद्धिवाले हों पृथ्वीपर हाहाकार से, जल-तेल घी दूध अन्न और लालवस्त्र महँगे हों ।। ११५ ॥ उत्तम "Aho Shrutgyanam" Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) मेघमहोदये जलतैलाज्यदुग्धान-रक्तवस्त्रमहर्घता ।।११५॥ उत्तमा मध्यमाः सर्वे सर्वभक्षणतत्पराः । क्षत्रियाणां छत्रभङ्गो म्लेच्छानां च ततः क्षयः ॥११॥ चैत्राश्विनाषाढमासा-स्त्रयो महर्घहेतवः । .. ... पश्चाद् धान्यसुभिक्षं स्यात् प्रजां पीडन्ति तस्कराः ॥११॥ हेमरूप्यताम्रलोह-कर्पूरं चन्दनादिकम् । .. महर्ध नर्मदातीरे महीतीरे शुभं भवेत् ॥११८॥ माघे मालपदे देश-भंगो वर्षा न भूयसी । ...... व्याधयो यहुला रूप्य-धातूनां च महर्घता ॥११९॥ मेदपाटे च कटकं मार्गशीर्षेऽपि पौषके । ........ महाजनानां पीडापि छनमङ्गो महाभयम् ॥ १२० ॥ देशग्रामपुरादीनां लुण्टनं युद्धसम्भवा. शालयो यवगोधूमा महर्घाः स्युस्तथा रसाः ॥१२१॥ खण्डाधान्यगुडानां मञ्जिष्ठायाः सितोपलादीनाम् । और मध्यम सब लोग सर्व प्रकारके भक्षणमें तत्पर हों, क्षत्रियों का क्षत्रभंग और म्लेच्छोंका विनाश हो ॥ ११६ ॥ चैत्र आश्विन और भाषाढ ये तीन महीने अन्नभाव तेज, पीछे सुभिक्ष, प्रजा को चोर अधिक दुःख दें ॥ ११७ ॥ सोना चांदी तांबा लोहा कपूर चन्दन आदि नर्मदानदीके तट पर महँगे हों और महीनदीके तट पर संस्ते हों ॥ ११८ ॥ माघ मासमें मालपद ( मालवा ) में देशभंग, वर्षा अधिक न हों, व्याधि अधिक और चांदी आदि धातु तेज हो ॥ ११६ ।। मेदपाट में कटक ( सैना) चाले मार्गशीर्ष और पौष इन दो मास महाजन को पीडा, छत्रभंग और महाभय हो ।। १२० ॥ देश गाँव पूरमें लूट और युद्ध हो । चावल जव गेहूँ तथा रस ये तेज हों ।। १२१ ॥ खांड धान्य गुड मंजीठ और सक्कर ये पांच फाल्गुन और चैत्रमें तेज हो ।। १२२ ॥ धी तेल रेशमीवस्त्र कंबलवस्त्र और "Aho Shrutgyanam Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुचारफलम् सर्वत्र महर्घत्वं चैत्रेऽपि च पञ्च फाल्गुने मासे ॥१२२॥ घृततैलपट्टसूत्र-कम्बलवस्त्राणि चेक्षुरसवस्तु । आषाढे तु महर्य मेधेऽल्पेऽपि च सुभिक्षं स्यात् ॥१२॥ दशभिः स्कन्दकैर्धान्य-मणं षोडशभितम् । तैः पञ्चदशभिस्तैल-माश्विने कार्तिके स्मृतम् ॥१२४॥ अष्टभिः स्कन्दकैलेभ्या गोधूमामणिमानयम् । तैः सप्तदशभिस्तैलं चतुर्भिः शेषधान्यकम्॥१२५॥ कुम्भरा शिस्थगुरुफलम्--- कुम्भे गुरौ वज्रदण्डो मेघो माघादिवत्सरः । सुभिक्षं जायते तत्र ऋषिदेवद्विजार्चनम् ॥१२॥ काश्यं च पित्तलं लोहं मञ्जिष्ठा त्रपुकाञ्चनम् । एषां मासत्रयं यावत् समर्घत्वं प्रजायते ॥१२६॥ मौक्तिकं च प्रवालानि मनिष्ठापकूलकम् । पूगी रूप्यं नारिकेलं श्वेतवस्त्रं महघेकम् ॥१२७॥ माघफाल्गुनचैन्नेषु रोगामासत्रये मताः। गुड आदि ये आषाढ़ मासमें तेज हो, थोड़ी वर्षा होने पर भी सुभिक्ष हो ॥ १२३ ॥ आश्विन और कार्तिक मासमें दश स्कंदोंसे एक मणभर धान्य, सोलह स्कंदोंसे मणभर घी और पन्द्रह स्कंदोंसे मणभर तेल बिके ॥१२४।। आठ स्कंदोसे मणभर गेहूँ,सत्रह स्कंदोंसे मणभर तेल और चार स्कंदोंसे मणभर सब धान्य बिके ।। १२५ ।। इति मकरराशिस्थगुरुका फल ॥ जब कुंभराशिका बृहस्पति हो तब माघसंवत्सर कहा जाता है। इसमें वज्रदयड नामका मेंच वर्षता हैं, सुभिक्ष और देव मुनियों का पूजन हो ॥१२५॥ कांसी पित्तल लोहा मँजीठ त्रपु (सीसा) और सोना ये तीन मास तक सस्ता हो ॥ १२६ ।। मोती मूंगे मँजीठ रेशम सुपारी चांदी श्रीफल और श्वेतवस्त्र ये तेज भाव हो ।। १२७ ॥ माघ फाल्गुन और चैत्र ये तीन महीने रोग हो, २२ "Aho Shrutgyanam" Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) मेघमहोदये मह लवणं लोके मरौ धान्यं महर्घकम् ॥ १२८ ॥ चैत्र वैशाखयो : सिन्धु-देशे कटकचालकः । वस्त्रकस्थल हिंगनां महर्घत्वं प्रजायते ॥ १२६ ॥ कार्त्तिके वाश्विने रोगा- छत्रभङ्गो महद्भयम् । रसकर्पास्त्राणां सर्वत्र स्यान्महता ॥ १३० ॥ आषाढे मणगोधूमाञ्चतुर्भिः स्कन्दकैर्मताः । अष्टादशभिराज्यं च तैलं तैर्मनुसंमितैः ॥ १३१ ॥ श्रावणे वा भाद्रपदे धान्यं संगृह्यते तदा । पौधे स्याद् द्विगुणो लाभो युगन्धर्याश्च विक्रयात ॥१३२॥ मीनराशिस्थगुरुफलम् - मीने गुरौ फाल्गुने स्याद् वत्सरः संभवो घनः । खण्डवृष्टिर्महर्षाणि सर्वधान्यानि भूतले ॥ १३३ ॥ वायुरोगस्य पीडा च देशान्तरे ब्रजेज्जनः । मासानां पञ्चकं यावद् भयं राजविरोधतः ॥ १३४ ॥ लूण (नमक) तेज तथा मारवाड में धान्य भाव तेज हो ॥ १२८ ॥ चैत्र वैशाखमें सिन्धु देशमें कटक चाले, वस्त्र कंवल हिंग ये तेज हो ॥ १२६॥ कार्तिक आश्विनमें रोग तथा छत्रभंग आदिका बड़ा भय हो, रस कपास और वस्त्र तेज हो || १३ || आषाढमें चार स्कंदोंसे मण भरे गेहूँ, अठारह स्कंदोसे मणभर थी और चौदह स्कंदोंसे तेल बिकें ॥ १३१ ॥ श्रावण भादों में धान्यका संग्रह करे तो पौध में उसको और जुआारको बेचनेसे दूना लाभ हो ॥ १३२ ॥ इति कुंभराशिस्थगुरुका फल || ० जब मीनराशिका बृहस्पति हो तब फाल्गुनसंवत्सर कहा जाता है । इसमें संभव नाम का मेघ बरसता है. पृथ्वी पर खंडवृष्टि और सब धान्य तेज हो ॥ १३३ ॥ वायुरोग की पीडा और लोग देशान्तर में जावें, पांच मास तक राजविरोध होनेसे भय हो ॥ १३४ ॥ पीछे सुख और सुभिक्ष "Aho Shrutgyanam" Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् पश्चात् सुखं सुभिक्षं च शालिगोधूमशर्कराः । तिलतैलगुडानां च महर्वत्वं समीरितम् ॥१३॥ मञ्जिष्ठानारिकेलाणां श्वेतवस्त्रं च दन्तकाः। . कपूरलवणाज्यानां महर्घत्वं प्रजायते ॥१३६॥ पौषे क्लेशसमुत्पत्ति स्तथा फाल्गुनचैत्रयोः । मरुदेशे महापीडा दुर्भिक्षं तत्र जायते ॥१३७॥ चतुष्पदानां मरणं वैशाखज्येष्ठयोर्भवेत् । आषाढे श्रावणे धान्यं घृततैलमहर्घता ॥१३८॥ श्रावणस्योत्तरे पक्षे महावर्षा प्रजायते । घृतं समर्घ भाद्रपदे शुभावाश्चिनकार्सिको ॥१३॥ समर्धास्तिलकर्षासा-छत्रभङ्गस्ततोऽर्बुदे । मार्गशीर्षे तथा पौषे उत्पातो मरुमण्डले ॥१४०॥ ग्रीष्मे कटकसंग्राम-श्चतुष्पदमहर्घता। स्थानागपुरे दुर्भिक्षं वर्षाकाले सुभिक्षता ॥१४॥ इति कतिपय शास्त्रावीक्षणाद् गौरवेण, हो, चावल गेहूँ सक्कर तिल तेल गुड आदि महँगे हों ॥ १३५ ॥मँजीठ नारियल श्वेतवस्त्र दांत कपूर नमक बी ये महँगे हों ॥ १३६ ॥ पौष फाल्गुन और चैत्रमें क्लेश हो, मारवाडमें महापीडा और दुर्भिक्ष हो ॥१३७॥ वैशाख ज्येष्ठमें पशुओंका मरण हो, आषाढ श्रावण में धान्य बी तेल महँगे हों ॥ १३८ ।। श्रावण का उत्तरपक्ष (शुक्लपक्ष) में वर्षा अधिक हो, भादों में घी सस्ता, आश्विन कार्तिक ये दोनों मास शुभ ॥ १३६ ॥ तिल कपास सस्ते हों अर्बुद देशमें छत्रभंग हो, मार्गशीर्ष तथा पौषमें मरुदेशमें उत्पात हो ॥ १४० ॥ ग्रीष्मऋतुमें संग्राम हो. पशुओंकी तेजी, नागपुर में दुष्काल और वर्षाऋतु में सुभिक्ष हो ॥ १४१ ॥ इस तरह कइएक शास्त्रों को गौरवसे अन्वेषण करके गुरुचार का विचार स्पष्ट बोधके लिये संग्रह "Aho Shrutgyanam" Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) मेघमहोदये गुरुचरितविचारः स्फारयोधाय दृब्धः । इह मतिरतिशायिन्येव युक्ता प्रयुक्तादविकलफललामो वाक्यतोऽयं यतः स्यात् ॥१४२॥ इति नक्षत्रसंवत्सरलाभाय गुरुचारविचारः। . अथ गुरुवक्रविचारः । .. रौद्रीयमेघमालायां पुनर्विशेषः । मेषराशिस्थ्गुरुवंक्रफलम्--- अर्घकाण्डं प्रवक्ष्यामि येन धान्ये शुभाशुभम् । . वर्षाधिपसमायोगो यदा तिष्ठेद् बृहस्पतिः ॥१४३॥ मेषराशिगतो जीवो यदा स्यान्मीनसङ्गतः । तदाषाढश्रावणयोर्गामहिष्यः खरोष्ट्रकाः ॥१४४॥ एते महघेतां यान्ति मासद्धये न संशयः । पश्चाद् भाद्रपदे मासे आश्विने हे महेश्वरि ! ॥१४॥ चन्दनं कुसुमं वापि ये चान्येऽपि सुगन्धयः ।। तैलपण्यानि सर्वाणि मासद्धयं महघेता ॥१४६॥ किया, यह अतिशायिनी बुद्धिरूप कहे हुए वाक्यों से समस्तफलका लाभ होता है ॥१४२॥ इति मीनराशिस्थगुरुका फल । जिससे धान्यका लाभालाभ जाना जाता है ऐसे अर्घकाण्डको मैं कहता हूँ। जब बृहस्पति वर्षश हो या उसका योग हो तब शुभाशुभ फलका विशेष विचार करना ॥ १४३ ।। जब मेषराशिका बृहस्पति वक्री होकर मीनराशि पर हो जाय, तब आपाढ श्रावण में गौ भैस गधे और ऊंट ।। १४४ ॥ ये निःसंदेह दो मास महँगे हों. पीछे हे पार्वति! भाद्रपद और आश्विनमें ॥ १४५ ॥ चन्दन फूल तथा दूसरा जो सुगन्धित द्रव्य और तेलवाली बेचने की वस्तु ये सब दो मास तेज रहें ॥ १४६ ।। इति मेषसंशिस्थगुरुवक्री फल ||- ... "Aho Shrutgyanam" Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुचारफलम् वृषराशिस्थगुरुवक्रफलम्---- वृषराशिगते जीवे वक्री स्यान्मासपञ्चके । वृषभादिचतुष्पादे तुलाभाण्डे महर्षता ॥१४॥ संग्रहः सर्वधान्यानां मासाष्टके महर्घता। श्रीः श्रावणे भाद्रपदे आश्विने कार्तिके तथा ॥१४८॥ तत्परं सर्वधान्यानां चतुष्पदान् विशेषतः । विक्रयाद् द्विगुणो लाभस्त्रिगुणस्तु चतुष्पदे ॥१४९॥ मिथुनराशिस्थगुरुवक्रफलम् --..... मिथुनस्थः सुरगुरु-र्विकारं कुरुते यदा । अष्टमासी भवेत् क्रूरा चतुष्पदमहर्षता ॥१५०॥ मार्गशीर्षादयो मासाः सुभिक्षं वसनं भुवि। . लोकः सर्वो भवेत् स्वस्थो दुर्भिक्षं क्वचिदादिशेत् ॥१५१।। कर्कराशिस्थगुरुवक्रफलम् --- कर्कराशिगतो जीवो यदा वक्री भवेत् तदा । ........ दुर्भिक्षं जायते घोरं राजानो युद्धतत्पराः ॥१५२॥ यदि वृषराशिका बृहस्पति पांच मासमें वक्री हो जाय तो वृषभादि पशु और तुला (मानद्रव्य वर्तन) तेज हो !!१४७॥ सब धान्योंका संग्रह करना आठवें मास तेजी रहें । श्रावण भाद्रपद आश्विन और कार्तिक इन चारों मासके ॥ १४८ ।। उपरान्त सब धान्य और विशेष कर पशुओंको बे. चनेसे दूना और तीगुना लाभ हो॥१४६॥ इति वृषराशि स्थगुरु वक्रफल ॥ यदि मिथुनराशिका बृहस्पति वक्री हो जाय तो पशुओंका भाव तेज हो ॥१५०॥ मार्गशीर्षादि महीनोंमें भूमी पर सुभिक्ष हो, सब लोक सुखी और कभी कहीं दुर्भिक्ष हो । १५१ ॥ इति मिथुनराशिस्थगुरुवक्रफल ॥ * जब कर्कराशिका बृहस्पति वक्री हो तब घोर दुर्भिक्ष हो. राजा लोग युद्ध करने के लिये तत्पर हों ॥ १५२ ॥ राष्ट्रभंग तथा वैर आदिका उ "Aho Shrutgyanam" Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) मेघमहोदये राष्ट्रभङ्ग विजानीयाद् वैरोपद्रवसंकुलम् । रसादिसर्वसंयोगो घृततैलादिभाण्डकम् ॥१५॥ कर्पासादीनि वस्तूनि लाभं दथुने संशयः । मार्गादिमासाः सप्तव सर्वधान्यमहर्घता ॥१५४॥ सिंहराशिस्थगुरुवक्रफलम्सिंहराशिगतो जीवो विकारं कुरुते यदा । सुभिक्षं क्षेममारोग्यं सर्वलोकाः प्रहर्षिताः ॥१५॥ सर्वधान्यानि संगृह्य तुलाभाण्डानि यानि च । गतेषु नव मासेषु पश्चाद् विक्रयमादिशेत् ॥१५६॥ कन्याराशिस्थगुरुवक्रफलम्----- कन्याराशिगतो जीवो विकारं कुरुते यदा । अलाभं चैव लाभं च पुण्यकर्मवशात् पुनः ॥१५॥ तुलाराशिस्थगुरुवफलम् --- तुलाराशिगतो जीवो विकारं कुरुते यदा । पद्रव हो, रसादि सब वस्तु- घी तेल कपास आदि से निसंदेह लाभ हो और मार्गशीर्षादि सात मास सत्र धान्य भाव तेज रहैं ॥ १५३-४ ॥ इति कर्कराशिस्थगुरुकक फल ॥ जब सिंहराशिका बृहस्पति वक्री हो तब मुभिक्ष क्षेम आरोग्य और सब लोक प्रसन्न हो ॥ १५५ ॥ सब धान्योका और तुलाभांड का संग्रह करना, उसको नव महीने पीछे बेचनेसे लाभ होगा। १५६ ॥ इति सिंहराशिस्थगुरुवक फल ॥ ... कन्याराशिका बृहस्पति जब वक्री हो तब अपने पुण्यकर्मानुसार लाभालाभ होता है ।। १५७ ।। इति कन्याराशिस्थगुरु वक फल ।। ... जब तुलराशिका बृहस्पति वक्री हो तत्र तुलावर्तन सुगंधि वस्तु कपास और नमक ये सस्ते हों तथा मार्गशीर्ष बीतने बाद दश मास के उप "Aho Shrutgyanam" Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् तुलाभाण्डसुगन्धीनि कसलवणानि च ॥१५८ ।। समर्घाणि भवन्त्येव मार्गशीर्षव्यतिक्रमे । दशमासात्यये लाभो द्विगुणस्तत्र सम्भवेत् ॥१५९॥ वृश्चिकराशिस्थगुरुफलम् ---- वृश्चिकं यदि सम्प्राप्य वकं याति बृहस्पतिः । अन्नस्य संग्रहस्तत्र धान्यादेस्तु विशेषतः ॥१६॥ कर्पासस्य घृतादेर्वा मार्गशीर्षे च विक्रये। . द्विगुणो जायते लाभ-स्तदा संग्रहकारिणः ॥१६१॥ धनराशिस्थगुरुवक्रफलम् --- धनराशिगतो जीवः करोति वक्रतां यदा । अचिरेणैव कालेन सर्वधान्यसमर्थता ॥१६॥ गोधूमचणकादीनि धान्यानि च क्रयाणकम् । समर्धाण्यन्यवस्तूनि गुडश्च लवणादिकम् ॥१६३॥ चैत्रादिसंग्रहस्तेषां मार्गशीर्षादिविक्रयः । सर्वाणि लाभ लभते मासैकादशकात्यये ॥१६४। रान्त दूना लाभ हो ॥ १५८-६॥ इति तुलाराशिस्थगुरु वक्र फल । जब वृश्चिकराशिका बृहस्पति वक्री हो तब अन्नका और विशेष कर धान्यका संग्रह करना, उसको तथा कपास और घी को मार्गशीर्घमें बेचने से दूना लाभ हो ॥ १६०-१ ॥ इति वृश्चिकराशिस्थगुरु वक्र फल । ___जब धनराशिका बृहस्पति वक्री हो तब थोड़े ही दिनोंमें सब धान्य सस्ते हों ॥ १६२ ॥ गेहूँ चणा आदि धान्य और करियांना, गुड लवण आदि दूसरी वस्तुओंका भाव सस्ता हो ।। १६३ ॥ चैत्रके आदिमें उसका संग्रह करना और मार्गशीर्षके आदिमें उसको बेचना, ग्याहरह मास जाने बाद सब वस्तु लाभदायक होगी ॥१६४॥ इति धनराशिस्थगुरुवक्र फल। . जब मकरराशिका बृहस्पति वक्री हो तब आरोग्य हो और धान्य "Aho Shrutgyanam" Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) मेघमहोदये मकरराशिस्थगुरुवक्रफलम्मकरस्थो यदा जीवः करोति वक्रगामिता। आरोग्यं कुरुते धान्यं समर्घ नात्र संशयः ॥१६५॥ तुलाभाण्डानि धान्यानि सर्वाणि परिरक्षयेत् । षण्मासान्ते च सम्प्राप्ते विक्रये लाभमामुयात् ॥१६॥ कुंभराशिस्थगुरुवक्रफलम्---- कुम्भराशिगतो जीवः करोति यदि वक्रताम् । 'आरोग्यं सर्वस्वस्थत्वं राज्ञां श्रीर्जयसम्भवः ॥१६७॥ सर्वधान्येषु निष्पत्तिः सर्वधान्यस्य विक्रयः। घृतं तैलं तुलाभाण्डं मासाष्टके च संग्रहः ॥१६८॥ पश्चाद् विक्रयतो लाभः सुभिक्षं निर्भया जनाः । । पूजा गोब्रिजदेवानां बुद्विायेऽतिनिर्मला ॥१६६॥ मीनराशिस्थगुरुवक्रफलम्.. मीनराशिगतो जीवो वक्रतामुपयाति चेत् । सस्ते हो इसमें संशय नीं ॥ १६५॥ तुलाभाण्ड और संब धान्य का संग्रह करना, छ महीने के बाद उसको बेचने से लाभ होगा ॥ १६६ ॥ इति मकरराशिस्थगुरुवक्र फल ॥ ____ जब कुंभराशिका बृहस्पति वक्री हो तब मारोग्य स्वस्थता और राजाओंको जय प्राप्त हो ॥ १६७ ॥ सब धान्यकी प्राप्ति, सब धान्य का व्यापार, घी तेल तुलावर्तन आदि आठवें महीने संग्रह करना ॥ १६८ ।। पीछे बेचनेसे लाभ होगा. सुभिक्ष और लोग निर्भय हो, गौ ब्राह्मग देवों की पूजा और न्यायमें बुद्धि अधिक निर्मल हो ॥ १६६ ॥ इति कुंभराशि स्थगुरु वक्र फल ॥ . जब मीनराशिका बृहस्पति वक्री हो तब लोकमें धनका विनाश तथा चोरोंसे रानाभी क्रोधित हो ॥ १७० ॥ प्रजाको निराधारपन और ग्रह "Aho Shrutgyanam" Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) गुरुचारफलम् धनक्षयस्तदा लोके चौराद् राजापि रोषितः ॥१७०।। निराधारा प्रजापीडा ग्रहभूतादिदोषतः । तुलाभाण्डं गुडः खण्डा अर्घ ददति वाञ्छितम् ॥१७१॥ लवणं घृततैलादि-सर्वधान्यमहर्घता । कर्पासस्थार्घसम्प्राप्तिाभस्तेषां चतुर्गुणः ॥१७२॥ वके शक्रेणा पूज्ये जगति गतिरियं वास्तवी प्रास्तवीर्या, तत्वं मत्वा तदैतद् वदतजनहितं धीधनाः सावधानाः। मूलं लोकेऽनुकूलं सुकृतविकृतयः सूर्यमुख्या ग्रहाः स्युः, तेऽपिप्रायोऽनुसारं दधति ननु गुरोःसत्फलेवाऽफलेऽपि।१७३। अथ गुरुनक्षत्रभोगविचार: अथ नक्षत्रभोगेन गुरोर्याक्फलं भवेत् । तदुच्यते वर्षबोधे निर्णयाय महीस्पृशाम् ॥१७४॥ कृत्तिकारोहिणीऋक्षे यदा तिष्ठेद् बृहस्पतिः । मध्यमात्र भवेद् वृष्टिः सस्यं भवति मध्यमम् ॥१७॥ भूतं आदिके दोषोंसे दुःख हो, तुलाभांड गुड खांड ये इच्छित लाभ दें ॥१७१ ॥ नमक धी तेल और सब धान्य तेज हों, कपाससे चौगुना लाभ हो ॥१७२॥ जगत् में बृहस्पति बक्री होने पर वास्तविक प्रबल गति होती है । हे सावधान बुद्धिमानों. इस तत्वोंको मान कर मनुष्यों का हितको कहो । लोक में शुभाशुभको बतलानेवाले अनुकूल मूलरूप सूर्यादि ग्रह हैं वे बृहस्पतिका सफल पा निष्फल में भी ग्रहानुसार फल दायक हैं ।।१७३।। इति मीनराशि स्थगुरु व फल । बृहस्पतिका नक्षत्रके संयोगसे जैसा फल हो वैसा वर्षाका निर्णय करनेके लिये वर्षबोध प्रथमें कहा जाता है ॥१७४॥ जिस समय बृहस्पति कृतिका तथारोहिणी नक्षत्र पर हो उस समय मध्यम वर्षा हो और मध्यम धान्य पैदा हो ॥ १७५ ॥ मृगशीर्ष और आर्द्रा नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) मेघमहोदये मृगशीर्षे तथाायां यदि तिष्ठेद् बृहस्पतिः । सुभिक्षं लभते सौख्यं वृष्टिजातं सदा जने ॥१७६।। आदित्यपुष्याश्लेषासु गुरुभोगे प्रसङ्गिनी । अनावृष्टिर्भयं घोरं दुर्भिक्ष सर्वमण्डले ॥१७॥ मघायां पूर्वाफाल्गुन्यां यदा तिष्ठेद् बृहस्पतिः । . सुमित क्षेममारोग्यं देशयोग्य बहूदकम् ॥१७८॥ उत्तराफाल्गुनीहस्ते गुरौ वर्षा सुखं जने । चित्रायां च तथा स्वातौ विचित्रा धान्यसम्पदः ॥१७६॥ विशाखायां च राधायां सस्यं भवति मध्यमम् । .. मध्यमे च भवेद् वर्षा वर्षा सापि च मध्यमा ॥१८०॥ गुरोज्येष्ठामूलचारे मासद्धये न वर्षणम् । परतः खण्डवृष्टिः स्यान् नृपाणां दारुणो रणः ॥१८॥ जीवे पूर्वोत्तराषाढा-युक्त लोकसुखं मतम् । त्रिमासान् वर्षति घनो मासमेकं न वर्षति ॥१८॥ सुभिक्ष सुख और अच्छी वर्षा हो ॥१७६॥ पुनर्वसु पुथ्य और आश्लेषा नक्षत्र पर बृहस्पति हो तब अनावृष्टि घोरभय और सब देशमें दुष्काल हो ॥१७७।। मवा और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र पर बृहस्पति हो तब सुभिक्ष क्षेम आरोग्य और देशके अनुकूल वर्षा हो ॥ १७८ ॥ उत्तराफाल्गुनी और हस्त नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो वर्षा अच्छी तथा मनुष्यों को सुख हो, चित्रा और स्वाति नक्षत्र पर बृहस्पति हो तब विचित्र धान्यकी प्राप्ति हो ॥१७६॥ विशाखा और अनुराधा नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो मध्यम धान्यकी प्राप्ति और चोमासे के मध्य में मध्यम ही वर्षा हो ॥ १८० ॥ ज्येष्टा और मूल नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो दो मास वर्षा न हो, पीछेसे खण्डवृष्टि हो और राजाओंका घोर युद्र हो ॥ १८१ ॥ पूर्वाषाढा और उत्तानपाढा नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो लोक सुखी, तीन महीना वर्षा और "Aho Shrutgyanam" Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुचारफलम् (१७९) श्रवणे वा धनिष्ठायां वारुणे गुरुलङ्गमे । . सुभिक्षं क्षेममारोग्यं बहुसस्या च मेदिनी ॥१८३॥ पूर्वोत्तराभाद्रपद-योरनावृष्टिभयादिकम् । पोष्णाश्विनी भरणीषु सुभिक्ष धान्यसम्पदा ॥१८४॥ मृगादिपश्चकं चित्रा वायमेवाष्टकं तथा । नक्षत्रेष्वशुभं जीवे शेषेषु शुभमादिशेत् ॥१८॥ अथ गुरोश्चतुष्वानि । अर्घकाण्डे पुनस्त्रैलोक्यदीपकग्रन्थेसौम्यादौ पञ्चके स्यात् सुरगुरुरभितो दोस्थ्यदौर्गत्यकर्ता, पौत्र्यादी वा चतुष्के भवति समुदितः सौस्थ्यसद्भिक्षदाता । चित्रायेवाष्टधिष्ण्येऽप्यकणमतिभयं सन्ततं संविधत्ते, कर्णादौ धिष्ण्यपति जगति वितनुते सौख्यसम्पत्तिसौस्थ्यम् ।। सारसंग्रहे पुन:दशकं पञ्चकं चैव चतुष्काष्टकमेव च । एक मास वर्षा न हो ॥ १८२ ॥ श्रवण धनिष्टा और शतभिषा नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो सुभिक्ष क्षेम आरोग्य हो और पृथ्वी बहुत धान्यवाली हो ॥ १८३ ।। पूर्वाभाद्रपदा या उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो अनावृष्टि और भय हो । रेवती अश्विनी और भरणी नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो मुभिक्ष और धान्य सम्पदा अधिक हो ॥१८॥ मृगशीर्ष अादि लेकर पांच और चित्रादि आठ नक्षत्र इनमें बृहस्पति हो तो अशुभ और बाकीके. नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो शुभ होता है ॥ १८५ ॥ ... मृगशीर्षादि पांच नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो दु:ख और दुर्भिक्षकारक है, मघादि चार नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो मुख और सुभिक्ष कारक है. चित्रादि आठ नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो धान्य प्राप्ति न हो, भय अधिक तथा दुःख हो. और बाकी के श्रवणादि नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो जगत्में मुख संपत्ति दायक होता है ॥ १८६ ॥ श्रवणादि नक्षत्र से क्रमसे दश "Aho Shrutgyanam" Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) क्षेत्र महोदये यदाश्रितो देवगुरुः श्रवणादिक्रमादिदम् ||१८७॥ सुभिक्षं दशके ज्ञेयं पञ्चके रौरवं तथा । चतुष्के च सुभिक्षं स्यादष्टके युद्धरौरवम् ॥ १८८ ॥ स्वातिमुख्याष्टके जीवे त्वश्विन्यादिनिकेऽपि च । शनिराहुकुजैश्चैवं प्रत्येकं सहितो भवेत् ॥ १८६॥ सञ्चरते यदा काले सुभिक्षं जायते तदा । मृगादिदशके जीवे धनिष्टापञ्चकेऽथवा ॥ १६०॥ भौमादिसहितो गच्छेद् दुर्भिक्षं तत्र जाते । एकराशिगते चैव एक तु महद्भयन् ॥ १६९॥ मीनेऽपि कन्याधनुषोर्यदा याति बृहस्पतिः । त्रिभागशेषां पृथिवीं कुरुते नात्र संशयः ॥ १९२॥ अतिचारगते जीवे वक्रीभूते शनैश्चरे । हाहाभूतं जगत्सर्व रुण्डमाला महीतले ॥ १९३॥ पांच चार और अठ नक्षत्र पर बृहस्पति हो उसका फल - श्रवणादि दश नक्षत्र पर बृहस्पति हो तो सुभिक्ष, मृगशीर्वाद पांच नक्षत्र पर हो तो दुःख, मत्रादि चार नक्षत्र पर हो तो सुभिक्ष और चित्रादि आठ नक्ष पर हो तो युद्ध और दुःख कारक है ॥ १८७ ॥ १८८ ॥ T स्वातिको आदि लेकर आठ नक्षत्र और अश्विनी आदितीन नक्षत्र पर यदि शनि राहु या मंगल हो तथा इन प्रत्येक ग्रह के साथ वृहस्पति हो ॥ १८६॥ और इनके सहित गमन करे तो सुभिक्ष होता है । मृगशीर्वाद देश या धनिष्ठादि पांच नक्षत्र पर ॥ १६० ॥ मंगल के साथ बृहस्पति हो तो दुर्भिक्ष हो | यदि एकही राशि और एकही नक्षत्र हो तो महाभय हो ॥ १६९ ॥ मीन कन्या और धनु राशि पर बृहस्पति हो तो समस्त पृथ्वी को तृतीयांश करदे इसमें संशय नहीं ॥ १६२ ॥ बृहस्पति शीघ्र गतिवाले हो और शनि वक्रगामी हो तो समस्तं जगत् हाहाभूत हो और पृथ्वी पर रुडमुगड "Aho Shrutgyanam" Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् ( १८१) एकस्मिन्नपि वर्ष चे-ज्जीवो राशित्रयं स्पृशेत् । तदा भवति दुर्भिक्षं व्रतपूर्णा वसुन्धरा ॥११४॥ गुरौ महति नक्षत्रे राशिस्वामिनि सहले । मासास्त्रयोदश तदा समर्घ धान्यमुच्यते ॥१९॥ बालबोधे तु सप्तविंशतिनक्षत्रभोगे गुरुफलमेवम्-.. "अश्विन्यां गुरौ सुवृष्टिः सुभिक्षं शीतपीडा॥१॥भर ण्यां दुर्भिक्ष विफल वर्ष राजभयम्॥२॥ कृत्तिकायां न वर्षा विप्रपीडा।।३॥ रोहिण्यांन वृष्टिश्चतुष्पदविनाशः॥४॥मृगशीर्षे जने रोगो धान्यमहर्षता ॥५॥ आायां प्रचुरं जलं कासतिलविनाशः॥६॥ पुनर्वसौ आरोग्य सुभिक्षं सुवृष्टिः सर्वधान्यनिष्पत्तिः ॥७॥ पुष्ये लोके नेत्ररोगोवस्त्रमहर्घता रोगा बलीपर्दामहर्घाः॥८॥ आश्लेषायांसुभिक्ष॥९॥मघाय न वर्षा , तृणजातं धान्यमपि दुर्लभ, श्रावणद्वये न जलवर्षा चतुष्पदमहर्घम् ॥ १०॥ पूर्वाफाल्गुन्यां श्रावणे भाद्रपदे हो ॥ १६३ ॥ यदि बृहस्पति एक ही वर्षमें तीन राशिको स्पर्श करे तो दुर्भिक्ष हो और पृथ्वी वलसे पूर्ण हो । १६४॥ यदि बहस्पति बहत्संज्ञक नक्षत्र पर हो तथा राशि का स्वामी और बलवान् हो तो तेरह मास धान्य सस्ता हो ॥ १६५ ॥ .:अश्विनीमें बहस्पति आनेसे वा अच्छी, मुंभिक्ष और शीत पीडा हो । भरणी में दुर्भिक्ष, वर्ष फलरहित और राजभय हो । कृत्तिका वर्षा न बरसे तथा ब्राह्मणको दुःख । रोहिणीमें वर्षा नहीं और पशुओं का विनाश । मृगशीर्ष मनुष्योंको रोग और धान्य भाव तेज । आमें बहुत वर्षा, कपास तिजका नाश ! पुनर्वसमें आरोग्य सुभिक्ष वर्षा अच्छी और सब धान्य पैदा हो । पुष्यमें लोगोंको नेत्र रोग, वस्त्रकी तेजी, रोग प्राप्ती और बैल म.गे हों ! आश्लेषामें सुभिक्ष । मघामें वर्षा नहीं , घास धान्य भी हुर्लभ, "Aho Shrutgyanam" Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) मेघ महोदये वा न वर्षा ||११|| उत्तराफाल्गुन्यां गावो बहुक्षीरा आरोग्यं सर्वधान्यनिष्पत्तिः ॥ १२ ॥ हस्ते सुभिक्षं ||१३|| चित्रायां तिलकर्पासचकमहर्घता ॥ १४ ॥ स्वातौ सर्वत्र धान्यनिव्यत्तिः ।। १५ ।। विशाखायां सर्वधान्यसमर्घता लोकेऽग्निपीडा ॥१६॥ अनुराधायां सुभिक्षं लोकोत्सवः ॥ १७॥ ज्येष्ठायां न वृष्टिजनपीडा ॥ १८॥ मूले सुभिक्षमारोग्यम् ॥ १९ ॥ पूर्वाषाढायां चणकगोधूमतिलविनाशः ॥ २० ॥ उत्तराषाढायां न वर्षा गुडघृतलवण महता ॥ २१ ॥ श्रवणे गवां तथा वृद्धानां पीडा ||२२|| धनिष्ठायां रोगबहुला अल्पवृष्टिः प्रजाविरोधः ||२३|| शतभिषा भिजिद वर्षा महती || २४|| पूर्वभाद्रपदायामलसीतिलमाषादिविनाशोऽतिशीलम् ||२५|| उत्तराभाद्रपदायां घनो न वर्षति, उत्तमलोक पीडा । २६ । रेवत्यांन वर्षा धान्यशेषः " |२७| श्रावण भाद्रों में वर्षा न हो और पशु महँगे हों । पूर्वाफाल्गुनी में श्रावण भादो वर्षो न हो । उत्तराफाल्गुनी में गौ बहुत दूध दें, आरोग्य और सब धान्यकी प्राप्ति हो । हस्तमें सुभिक्ष | चित्रामें तिल कपास और चणा ये तेज भाव हो । स्वातिमें सब जगह धान्यकी प्राप्ति । विशाखा में सब धान्य सस्ते और लोक में अमिका उपद्रव हो । अनुराधा में सुभिक्ष और लोक में उच्छा हो । ज्येष्ठामें वर्षा न बरसे और मनुष्योंको दुःख हो । मूलमें सुभिक्ष और आरोग्य हो पूर्वाषाढा चणा गेहूँ तिलका विनाश हो । उत्तराघाटामै वर्षा थोड़ी, गुड घी और नमक ये महँगे हो | श्रवण में गौएं को और वृद्ध जनको पीडा । धनिष्ठा में रोग अधिक, वर्षा नहीं और प्रजामें विरोध । शतभिषा और अभिजित् में वर्षा अधिक | पूर्वाभाद्रपद में अलसी तिल उर्द आदिका विनाश और अधिक ठंडी । उत्तराभाद्रपद में वर्षा न बरसे और उत्ता लोगोंको पीडा । रेवतीमें बृहस्पति हो तो वर्षा न हो और धान्यकी प्राती न हो | इति ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुचारफलम् (१८३) अथ गुरूदयद्रादशराशिफलम् ---- मेषे गुरोदयतस्त्वतिवृष्टिरेव, दुर्भिक्षमुत्तममृतिवृषभे सुभिक्षम् । पाषाणशालिमणिरत्नमहर्घभावः, स्वावस्थया मिथुनके गणिकासु पीडा ॥१॥ स्यात् कर्कटे जनमृतिजलवृष्टिरल्पा, . सिंहे तथैव नवरं बहुधान्यलाभः । कन्यास्थितस्य च गुरोरुदये शिशूनां, पीडा तथैव गणिकासु च वृद्धलोके ॥२॥ काश्मीरचन्दनफलादिमहर्घता स्या ल्लाभो महान् व्यवहृतौ च तुलावलम्बे । दुर्भिक्षतालिनि धनुष्यपि चाल्पवर्षा, .. लोके रुजो मकरके बहुधान्यवृष्टिः ॥३॥ कुम्भे गुरोरुयतः सकलेऽपि देशे, वृष्टिपनेऽपि च घनेऽतिमहर्घमन्नम् । मेषराशि में गुरु का उदय हो तो अतिवृष्टि दुर्भिक्ष और उत्तमजनका मरण हो । वृषराशिमें उदय हो तो सुभिक्ष हो तथा पाषाण चावल मणि और रत्न का भाव तेज हो । मिथुनराशिमें उदय हो तो अपनी अवस्थासे वेश्याओंमें पीडा हो ॥ १ ॥ कर्कराशि में उदय हो तो मनुष्योंका मरण और थोड़ी वर्षा हो । सिंहराशि में उदय हो तो धान्य का बहुत लाभ हों। कन्याराशिमें उदय हो तो बालकों को वेश्या को तथा वृद्धों को पीड़ा हो । २. ॥ तुलाराशिमें उदय हो तो काश्मीर चंदन फल आदि का भाव तेज हो, तथा व्यवहार में बड़ा लाभ हो । वृश्चिकमे उदय हो तो दुर्भिक्ष हो । धनुराशिमें उदय हो तो थोड़ी वर्षा । मकराशिमें उदय हो तो लोकमें रोग धान्य अधिक और वर्षा श्रेष्ठ हो ॥३॥ कुंभराशिम उदय हो तो समस्त दे "Aho Shrutgyanam" Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) मेघमहोदये मीनेऽल्पवृष्टिरवनीश्वरयुद्धयोगः , पीडा जनस्य मकरानरकानुरूपा ॥४॥ इति ॥ अथगुरूदयमासफलम्- --- जीवोऽभ्युदेति यदि कार्तिकमासि वहि. लोके न वृष्टिरपि रोगनिपीडनं च । मार्गेऽपि धान्यविगमं सुखमेव पौषे, . नीरोगता सकलधान्यसमुद्भवश्च ॥५॥ माघे तथैव परतो भुवि खण्डवृष्टि चैत्रे विचित्रजलवृष्टिरतोऽपि राधे । सर्व सुखं जलनिरोधनमेव शुक्रेड__ प्याषाढके नृपरणोऽन्नमहर्घता च ॥६॥ आरोग्यं श्रावणे वर्षा बहुला सुखिनो जनाः । भाद्रे चौरा धान्यनाश आश्विनः सुखदः स्मृतः इति । शमें वृष्टि अधिक और अन्न भाव तेज हो । मीनराशिमें बृहस्पति का उदय हो तो थोड़ी वर्षा, राजाओं में युद्ध का योग और मनुष्यों को मगर से नरकके समान पीडा हो ॥ ४ ॥ इति । कार्तिक मासमें बृहस्पति का उदय हो तो जगत्में गरमी पडे, वर्षा न हो और रोगपीडा हो । मार्गशीर्ष में उदय हो तो धान्य का विनाश हो । पौघमें उदय हो तो सुख नीरोगता और सब धान्य पैदा हो ॥ ५॥ माव और फाल्गुनमें उदय हो तो पृथ्वीपर खंण्डवर्षा हो । चैत्रमें उदय हो तो विचित्र जलवृष्टि हो । वैशाखमें उदय हो तो सब प्रकारके सुख । ज्येष्टमें उदय हो तो जलका निरोध । आषाढ में उदय हो तो राजाओंमें युद्ध और अन्नभाव तेज हो ॥६॥ श्रावणमें उदय हो तो आरोग्य, वर्षा अधिक और सब लोग सुखी हों । भादोंमें उदय हो तो चोर का उपद्रव और धान्यका नाश हो । पाश्विनमें उदय हो तो सुखदायक हो ॥ ७ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् ― ra द्वादशराशिषु गुरोरस्तफलम् - यस्तमेत्य जगतो गुरुरल्पवृष्टि, दुर्भिक्षमेव कुरुते वृषभे गुडस्य । तैलं घृतं च लवर्ण प्रभवेन्महर्धम्, मृत्युर्जनेऽल्पजलदो मिथुनेऽस्तमाप्तौ ॥ ८ ॥ कर्केऽस्ततो नृपभयं कुशलं सुभिक्ष, सिंहे नृनाथरणलोकधनादिनाशः । कन्यास्ततः सकलधान्यसमघेता स्यात्, क्षेमं सुभिक्षमतुलं जनरोगनाशः ॥ ९ ॥ पीडा द्विजेषु बहुधान्यसमर्धता च, जाते तुलास्तमयने नयनेषु रोगः । राज्ञां भयान्यलिनि तस्करलुण्टनानि, माषास्तिलाच बहवो धनुषास्तमाप्तौ ॥ १० ॥ कुम्भे गुरोरस्तमायात् प्रजायाः, पीडापरं गर्भवती च जाया । 3 (१८५) यदि मेषराशिमें बृहस्पति अस्त हो तो थोड़ी वर्षा और दुर्भिक्ष हो । वृषराशिमें अस्त हो तो गुड तेल घी और लवण ये तेज हो । मिथुनराशि : में अस्त हो तो मनुष्यों में मरण और थोड़ी वर्षा हो ॥ ८५॥ कर्कराशिमें अस्त हो तो राजभव, कुशल और सुभिक्ष हों । सिंहराशिमें अस्त हो तो राजाओं में युद्ध तथा लोगों के धनका नाश हो । कन्याराशिमें अस्त हो तो सब धान्य सस्ते हों, क्षेम, सुभिक्ष अधिक और मनुष्यों के रोगका नाश हो ॥ ६ ॥ तुलाराशिमें अस्त होतो ब्राह्मणोंको पीडा और धान्य बहुत सस्ते हो । वृविकराशिमें अस्त हो तो नेत्रों में रोग और राजाओं का भय हो, धनराशि में व्यस्त हो तो चोरों लूट करें और उर्द तिल अधिक हो ॥ १० ॥ कु'भराशिमें अस्त हो तो प्रजा को तथा गर्भवती स्त्रीको पीडा । मीनराशिमें अ I "Aho Shrutgyanam" Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) मीने सुभिक्षं कुशलं समर्प धान्यं धनस्यात्पतयापि वृष्टया ॥११॥ मागसिरे गुरु प्रथमे उगि तेणे पक्खि । ईति पडे उण्हालीइ जो राखे तो रक्खि ॥ १२ ॥ कलह वसेण सुंदरि कत्तियमासम्मि किष्णपक्खमि । गरुडिडिथियो गुरु प्रथमे जाणिज्जइ छत्तभंगो वि ।। १३॥ मार्गशीर्षे गुरोरस्तं भृगुपुत्रस्य चोदयः । तदा जगत्स्थितिः सर्वा विपरीता प्रजायते ॥ १४॥ इति ॥ अथ मेघविचार: मेघा इह द्वादशधा प्रबुद्धा - दयः किलोक्ता गुरुचारशास्त्रे । नागाः पुनस्ते ह्यभिधानरागा दुदाहृता रामविनोदनानि ॥ १॥ तथा च तद्ग्रन्थे द्वादशधा नागा:गताब्दा द्वियुताः सूर्य- भक्तास्तत्र विशेषतः । सुबुद्धो नन्दिसारी च कर्कोटकः पृथुश्रवा ॥२॥ स्त हो तो सुभिक्ष तथा कुशल हो और थोड़ी वर्षा होने पर भी धान्य सस्ते हो ॥ ११ ॥ मार्गशीर्ष में गुरुका अस्त हो और उसी ही पक्षमें उदय हो तो ग्रिष्मऋतु में ईति का उपद्रव हो ॥ १२ ॥ कार्त्तिक कृष्णपक्ष में गुरु का अस्त हौ और अगस्ति का उदय हो तो छत्रभंग हो ॥ १३ ॥ मार्गशीर्ष में गुरु का अस्त हो और भृगुसुत (अगस्ति) का उदय हो तो सब जगत् की स्थिति विपरीत हो ॥ १४ ॥ इति ॥ गुरुवार के शास्त्र में प्रबुद्धादि बारह प्रकारके मेघ कहे हैं और रामविनोद नामके शास्त्र में भी मेघका अधिकार कहा है ॥ १ ॥ रामविनोद अंथ में गतवर्ष में दो मिला कर बारहसे भाग देना, जो शेष बचे वह "Aho Shrutgyanam" Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुचारफलम् . वासुकिस्तक्षकश्चैव कम्बलाश्चतुरावुभौ । हेममाली जलेन्द्रश्च वज्रदंष्ट्रो वृषस्तथा ॥३॥ सुबुद्धो बुद्धिकती च कष्टवृष्टिः शुभावहः । नन्दिसारी महावृष्टिनेन्दन्ति च महाजनाः ॥४॥ कर्कोटके जलं नास्ति मरणं च महीपतेः । पृथुश्रवा जलं स्वल्पं सस्यहानिः प्रजायते ॥५॥ वासुकिः सस्यकर्ता च बहुवृष्टिकरः शुभः । . तक्षके मध्यमा वृष्टि-विग्रहो मरणं ध्रुवम् ॥६॥ कम्बले मध्यमा वृष्टिः सस्यं भवति शोभनम् । जायतेऽश्वतरे स्वल्पं जलं सस्यं विनश्यति ॥७॥ हेममाली महावृष्टि-र्जलेद्रः प्लावयेन्महीम् ।। वनदंष्ट्रे त्वनावृष्टि-वृषे स्यादीतितो भयम् ॥८॥ इति ॥ गताब्दा नवभिस्तष्टाः शेषं हरा विशोधयेत् । ततश्चावतसंवत-पुष्करद्रोणकालकाः ॥९॥ क्रमसे मेधका नाम जानना । सुबुद्धि, नंदिसारी, कर्कोटक, पथुश्रवा ॥२॥ वासुकी, तक्षक, कंबल, अश्वतुर, हेममाली, जलेन्द्र, वज्रदंष्ट्र और वृष ये बारह मेधके नाम हैं ॥ ३ ॥ सुबुद्ध बुद्धिका कारक है, कष्टसे वर्षा और शुभकारक है । नंदिसारीमें महावर्षा, और महाजन प्रसन्न हों ॥ ४ ॥ कर्कोटकमें जल न बरसे और राजाका मरण हो । पृथुश्रवामें थोडी वर्षा और धान्यका विनाश हो ॥ ५ ॥ वासुकि धान्य प्राप्ति, वर्षा अधिक और शुभ हो । तक्षकमें मध्यम वर्षा, विग्रह और मरण हो ॥ ६ ॥ कम्बलमें मध्यम वर्षा और धान्य अच्छे हों । अश्वतुरमें थोड़ी वर्षा और धान्यका विनाश हो.॥ ७ ॥ हेममा लिमें बड़ी वर्षा हो । जलेन्द्र मेघ पृथ्वीको जलसे तृप्त करे । बज्रदंष्टमें अनावष्टि हो और वषमेघमें ईतिका भय हो ॥८॥ इति ॥ ' गत वर्षको नवसे भाग देना, जो शेष बचे वह क्रमसे मेघका नाम "Aho Shrutgyanam" Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) नीलश्च वरुणो वायुस्तमोमेघः सनातनः । आवर्त भन्दतोयं स्यात् संवर्त्ते वायुपीडनम् ॥१०॥ पुष्करे बहुलं तोयं द्रोणे वृष्टिः सुखं भवेत् । अल्पवृष्टिः कालमेवे नोलः क्षिप्रं प्रवर्षति ॥ ११ ॥ वारुणे स्वर्णवाकारो वायुर्वर्षाविनाशकः । तमोमेवे न वृष्टिः स्यान्मेघानां फलमीदृशम् ||१२|| मतान्तरेपुन:--- त्रिभिर्गतान्दाः सहिताश्चतुर्भिः, शेषं भवेदम्बुपतिः क्रमेण । यावर्त्तसंवर्त्तकपुष्कराच, महोदये द्रोणश्चतुर्थो मुनिभिः प्रदिष्टः ॥ १३ ॥ आवतेच्छिन्नवृष्टिः स्यात् संवत् जलपूर्णता । पुष्करेमन्दवृष्टिस्तु द्रोणो वर्षति सर्वदा || १४ || सारसंग्रहे तु — योजयित्वा त्रयं शाके चतुर्भिर्भाज्यते ततः । जानना-- आवर्त, संवर्त्त, पुष्कर, द्रोण, कालक ॥ ६ ॥ नील, वरुण, वायु और तमः, ये नव प्राचीन मेव हैं। आवर्तमें मंदवर्षा, संवर्त में वायुपीडा, पुष्कर में बहुत जल, द्रोण में वर्षा और सुख, कालमेघ में थोड़ी वर्षा, नीलमेघ शीघ्र ही बरसता है, वारुणमेघ में समुद्र के सदृश वर्षा हो । वायुमेव वर्षाका नाश करता है और तमामेवमें वृष्टि न हो। ये मेवों का फल कहा ॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥ गत वर्ष में तीन मिलाकर चार से भाग देना जो शेष बच्चे वह क्रम मेघों के नाम जानना -- आवर्त, संवत्ते, पुष्कर और द्रोण ये चार मेव मुनियोंने कहे हैं ॥ १३ ॥ आवत खंडवी हो, संवत्तमें जल पूर्ण हो, पुष्कर में मंत्र वृष्टि हो और द्रोण सर्वदा वर्षता है ॥ १४ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुचारफलम् (१८९) मेघा आवत्तसवत्तं-पुष्कर द्रोणकाः क्रमात् ॥१५॥ अल्पवृष्टिः खण्डवृष्टि-महावृष्टिश्च वायवः । एषां चतुर्णी क्रमतः फलमेवं सतां मतम् ॥१६॥ पुनः-मेघश्चतुर्विधा प्रोक्ता द्रोणाख्यः प्रथमो मतः । आवतः पुष्करावर्त्त-स्तुर्यः संवर्तकाभिधः ॥१७॥ बहुवृष्टिः खण्डवृष्टि-मध्यवृष्टिश्च वायवः ।। एषां चतुर्णा क्रमतः फलानि चतुरा जगुः ॥१८॥ सिद्धान्तेऽपि स्थानाङ्गे--:: . चत्तारि मेहा पण्णत्ता तंजहा-पुक्खलसंवदृते पज्जुन्ने जीमूते जिम्हे । पुक्खलसंवट्टएणं महामेहेणं एगेणं वासेणं दसवाससहस्साई भावेद । पज्जुन्नेणं महामेहेणं एमेणं वासेणं दसवाससयाई भावेइजीमृतेगां महामेहेणं एगेणं दसवासाई भावेइ । जिम्हेण महामेहे यहूहिं वासेहिं एग वासं भावेइ शक संवत्सरमें तीन मिलाकर चार का देना, शेष बचे वह क्रमसे मेघके नाम--आवर्त संवर्त पुष्कर और द्रोण हैं ॥१५॥ इन चारों का अनु. क्रपसे अल्पवर्षा, खण्डवर्घा, महावर्षा और वायु का चलन, ऐसा फल महपियोंने कहा है ॥१६!! पुनः-मेव चार प्रकार के हैं --द्रोण, आवर्त्त, पुकर और चौथा संवर्तक नाम का है ॥ १७ ।। इन चारों का अनुक्रसे वर्षा बहुत, खंडवर्षा, मध्यवर्षा और वायु का चलन, इस प्रकार के फल विद्वानों ने कहा है ॥१८॥ - स्थानांगसूत्र में चार प्रकारके मेत्र कहे हैं -- पुष्करसंवर्तक १, प्रद्युम्न २, जीभूत ३, और जिम्ह ४ । पुष्करसंवर्तक नामका महामेध एक वार बरसे तो दश हजार वर्ष तक पृथ्वी को रसकाली करता है । प्रद्युम्न नामका महामेव एक बार बरसे तो एक हजार वर्ष तक पथ्वीको रसवाली करता है जीमूत नामका महामेव एकबार वरसे तो दश वर्ष तक पृथ्वी को रसवाली करता "Aho Shrutgyanam" Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये (१९०) वाण भावेइ | रुद्रदेवब्राह्मणकृते मेघमालायां पुनः मेघास्तु कीदृशा देव ! कथं वर्षन्ति ते भुवि । कति संख्या भवेत् तेषां येन मे प्रत्ययो भवेत् ॥ १ ॥ ईश्वर उवाच - शृणु देवि ! यथा तथ्यं वर्णरूपं तु यादृशम् । मन्दरोपरि मेघास्ते राजानो दश कीर्त्तिताः ||२|| --- कैलाशे दश विज्ञेयाः प्राकारे कोटजे देश । उत्तरे दश राजानः श्रृंगवेरे तथा दश ||३|| पर्यन्ते दशराजानो दशैव हिमवन्नगे । गन्धमादन शैले च राजानो दश वारिदाः ||४|| अशीतिमेघा विख्याताः कथितास्तव पार्वति । । अन्यत् किं पृच्छसि पुनर्लोकानां हितकारिणि ! ||५|| अशीतिमेघमध्ये तु स राजा पट्टबन्धतः । गुरुणा राशिसंयोगाद् यः पुरस्क्रियते जनः ||६|| है और जिम्ह नामका महामेघ बहुत वार बरसे तत्र एक वर्ष तक पृथ्वीको रसवाली करे या न भी करे । हे देव! मेव कैसे हैं? पृथ्वी पर वे कैसे वर्षते हैं ? उनकी कितनी संख्या है? इनका वर्णन आपके कहनेसे मुझको विश्वास हो ॥ १ ॥ इश्वर बोले- हे पार्वति में इनका वरण और रूप जैसा है वैसा यथार्थ कहता हूँ- मंदर (मेरु) पर्वत पर मेघके दश राजाओं निवास करते हैं ॥ २ ॥ कैलास पर दश, प्राकर कोटज पर दश, उत्तर में दश और श्रृंगवेरपुर में दश मेघाधिपति हैं ॥ ३ ॥ पर्यन्तमें दश, हिमवनपर्वतनें दश और गंधमादन पर्वत पर दश मेत्राधिपति हैं ॥ ४ ॥ हे पार्वति ! सब अस्सी मेघ प्रख्यात हैं ये तेरे लिये कहा । हे लोगोंके हित करनेवाली ! और दूसरा क्या पूछती है ? || ५ || ये अस्सी मेत्रके मध्य में वह पबंध राजा है जो बृहस्पति के "Aho Shrutgyanam" Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम् दिग्भागे च विदिग्भागे प्रत्येकं दश नीरदाः । उन्नमय्य प्लावयन्ति मर्त्यलोके जलैर्महीम् ॥७॥ कमलेऽष्टदले वृष्टयै प्रतिष्ठाप्य पयोधरान् । धूपदीपेश्व कुसुमै- नैवेद्यैः परिपूजयेत् ॥८॥ सिंहको विजयश्चैव कम्बलोऽथ जयद्रथः । धूम्रः सुस्वामिभद्रौ च मातङ्गो वरुणस्तथा ॥ ६ ॥ त्रिलोचनपतिश्चैव मेघाः प्राच्याममी दश । आनन्दः कालदंष्ट्रश्च शूकरो घृषभुक् तथा ॥ १० ॥ मृगो नीलो भवः कुम्भो निकुम्भो महिषस्तथा । दश मेघा दक्षिणस्यां प्रायोऽमी वृष्टिकारिणः ॥ ११ ॥ कुञ्जरः कालमेघश्च यामुनः कालकान्तकौ । दुन्दुभिर्मेखलः सिन्धुर्मकर छत्रकस्तथा ॥ १२ ॥ पश्चिमायाममी मेघा दश वर्षाविधायिनः । मेघनादोऽथ नृपति-स्त्रिलोचनसुधाकरौ ॥१३॥ दण्डिनश्च सितालश्च त्रैकालिकजलस्तथा । (१९१) साथ राशिसंयोग से आगे किया जाता है ॥ ६ ॥ प्रत्येक दिशा और विदिशा में दश दश मेवाधिपति हैं. वे मर्त्यलोकमें उदय होकर जलसे पृथ्वी को तृप्त कर देते हैं ॥ ७ ॥ वर्षाके निमित्त मेधाधिपतिको अष्टदल कमल के बीच स्थापन कर धूप दीप फूल और नैवेद्यसे पूजा करे ॥ ८ ॥ सिंह विजय कंबल जयद्रथ धूम्र सुस्वामी भद्र मातंग वरुण ॥ ६ ॥ और त्रिलोचनपति ये दश मेव पूर्व दिशामें रहते हैं, आनन्द कालदंष्ट्र शूकर वृषभुक् ॥ १० ॥ मृग नील भव कुंभ निकुंभ और महिप ये दश मेत्र दक्षिण दिशा में रहकर वर्षा करते हैं ॥ ११ ॥ कुंजर कालमे यामुन कालक अन्तक दुंदुभि मेखल सिंधु मकर और छत्रक ये दश मेघ पश्चिममें रहकर वर्षाकरते हैं । मेघनाद त्रिलोचन सुधाकर ॥ १३ ॥ दंडी सिताल त्रैकालिक "Aho Shrutgyanam" Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधमहोदये वृषभोऽपि च गन्धर्वो विधूमासिकथः परः ॥१४|| गहरो दशमेघाः स्यु-रुत्तरस्यां प्रवर्षिणः। . दिङ्मेघानां ब्राह्मणाद्या जातयः क्रमतो मताः ॥१५॥ चत्वारिंशदविदिगजाता मेघा अन्येऽपि कीर्तिता। नामानि तेषां योध्यानि ग्रन्थान्तरनिरीक्षणात् ॥१६॥ ॐकारो नाम्नि मूर्तिश्च मयूरः कन्दिकस्तथा । बिन्दुकान्तिश्च करणो हेमकान्तिश्च पर्वतः ॥१७॥ गैरिकश्चाहया मेघाः स्वर्गलोके व्यवस्थिताः । दिव्यमेघाश्च सप्तैते सर्वाङ्गसुखदायिनः ॥१८॥ दशमेघाः श्वेतवर्णा दशैव लोहितास्तथा । दश पीता स्वर्णवर्णा दश धूम्राः प्रकीर्तिताः ॥१९॥ . अथ मन्त्रं प्रवक्ष्यामि येन मन्त्रेण आहिताः । आगच्छन्ति धरां देवाकुर्वन्त्येकार्णवां महीम् ॥२०॥ ॐ हीं मेघदूत्यै नमः आगच्छ २ स्वाहा । ॐ मेघदूती कमलोद्भवाय नमः आगच्छ २.स्वाहा । ॐ ह्रीं महानीलरा. जाय हिमवन्निवासिने आगच्छ २ स्वाहा । ॐ ह्रीं नन्दिकेश्वराय जल. वृषभ गन्धर्व विधूमासिकथ ॥१४॥ और गह्वर ये दश मेध उत्तर में रहकर वर्षा करते हैं । इन दिशाओंके मेधकी ब्राह्मण यादि क्रमसे जाति जानना ॥१५॥ विदिशा के भी चालिस मेघ हैं उनके नाम दूसरे ग्रन्थोंसे समझलेना ॥ १६ ॥ ॐकार युक्त मूत्ति मयूरकंदिक बिन्दुकान्ति करया हेमकान्ति पर्वत ॥ १७ ॥ और गैरिक ये मेव स्वर्गमें रहते हैं, ये सात मेव दिव्य होनेसे सर्वांग सुख देते हैं |॥ १८ ॥ दश मेव श्वेतवर्णवाले, दश लालवर्णवाले, दश पीलेबर्णवाले और दश धूम्रवर्णवाले हैं ॥ १६ ॥ ... अब वह मंत्र कहता हूँ जिनके प्रभाव से मेव आकर पृथ्वी को जलसे पूर्ण करें ॥२०॥ उपर लिखे हुए मंत्रों का दश हजार जाप करें और धोले " । "Aho Shrutgyanam" Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवारफलम.. (.१९३) जठरनिवासिने मेघराजाय आगच्छ २ स्वाहा । ॐ ह्रींकुवेररांजाय शृंगवेरनिवासिने आगच्छ २ स्वाहा। जापोऽस्य दशसाहस्रो दशांशो होम एव च । पुष्पैश्च धवलै रक्तैः करवीरसमुद्भवः ॥२१॥ ततः पुष्पैः सुगन्ध्याढयै-चयेन्मेघसप्तकम् । .. नद्यां चैध वने गत्वा मेघानावाहयेद् बुधः ॥२२॥ : शिवालये तडागे वा पुनर्मेघान् विसर्जयेत् । दिव्यमेघाश्च सप्तैते कुलपर्वतवासिनः ॥२३॥ सर्वेष्वमीषु मेवेषु राजानो द्वादश स्मृताः ।.. प्रबुद्धा नन्दशालाद्या गुरुणैव प्रयोजिताः॥२४॥ . . एवं गुरोचारवसेन नागा, अधिष्ठितास्तर्यदि चोदवाहा। कुर्वन्ति वर्षी प्रतिवर्षमन्त्र, संवत्सराख्या परिवर्तनेन ॥२५॥ इति श्रीमेघमहोदये वर्षप्रयोधापरनाम्नि महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते संवत्सराधिकारश्चतुर्थः । ................ था लाल कनेर के फूलों के साथ दशांश हवन करें ॥२१॥ फिर सुगंन्धित पुष्पों से सात मेघों का पूजन करें । नदी या वनमें जाकर विद्वान् लोग मेघों का माहवान करें ॥ २२॥ फिर शिवालय या तलाव पर जाकर मेघों को विसर्जन करें । ये सात दिव्य मेघ कुलपर्वत के निवासी हैं ॥२३॥ इन सब प्रकार के मेवों में बारह राजा हैं, वे प्रबुद्ध नन्दशाल आदि नामवाले हैं ॥२४॥ इस तरह बृहस्पति के चलनवशसे मेधाधिपति है वह संवत्सर का परिवर्तन से प्रतिवर्ष वर्षा करता हैं ॥ २५॥ .. इति श्रीसौराष्ट्रराम्यान्तर्गत-पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्य जैनेन विरचितया मेघमहोदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकिता - श्चतुर्थः संवत्सराधिकारः । "Aho Shrutgyanam" Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) अथ पञ्चमः संवत्सरशरीरम् -- अथ शनिचारविचार: मेघमहोदये रोहिण्यानलभं च वत्सरतनुर्नाभिस्त्वषाढाद्वयं, साहृत् पितृदेवतं च कुसुमं शुद्धैः शुभं तैः फलम् । देहे क्रूर निपीडितेऽन्यनिलजं नाभ्यां भयं क्षुत्कृतं, पुष्पे मूलफलक्षयोऽथ हृदये सस्यस्य नाशो ध्रुवम् ॥ १ ॥ अथ शनिरपि वर्षस्याधिपः प्रागुपात, स्तदिहचरितमस्याभ्यस्य वाच्यो विमर्शः । जलद विषय एवं धीमता येन वर्षे, शुभमशुभमथाग्रे भावि बुद्धयाविबोधः ॥२॥ - शनैश्चरवत्सरनिरूपणाधिकारः । मेषस्थे भानुपुत्रे त्रिभुवनविदिते याति धान्यं विनाशं तृले तैल्लङ्गबङ्गे हयखुरदलितं विग्रहस्तोत्र एव । रोहिणी और कृत्तिका नक्षत्र वर्षका शरीर है, पूर्वाषाढा और उत्तराबाद वर्षकी नाभी है, आश्लेषा नक्षत्र वर्षका हृदय और मघा नक्षत्र वर्षका " कुसुम है । ये सब यदि शुद्ध हो तो शुभ फलदायक हैं। संवत्सर (- बृहस्पतिवर्ष ) का शरीरनक्षत्र यदि पापग्रह से पीडित हो तो अभि और वायुका भय हो । नाभिनक्षत्र पीडित हो तो क्षुवाका भय हो । पुष्प (कुमुम) नक्षत्र पीडित हो तो मूल तथा फलका विनाश हो और हृदयनक्षत्र करग्रहसे पीडित हो तो निश्चयसे धान्यका विनाश हो ॥१॥ शनैश्वरवर्षका अधिपतिको प्रथम ग्रहण करना, पीछे उसका चरित्रका अभ्यास और विचार करके बुद्धिमानसे मेघका विषय कहना चाहिये और भावि शुभाशुभ वर्षको बुद्धिसे विचारना चाहिये ॥ २ ॥ मेष राशिमें शनैश्चर हो तो धान्यका विनाश, तूल तैलंग और बंगदेश में घोड़े के खुर से पृथ्वी चूर्ण हो ऐसा घोर विग्रह हो, पाताल में " Aho Shrutgyanam" Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारचारफलम् पाताले नागलोके दिशि विदिशि गता भीतभीता नरेन्द्राः। सर्वे लोका विलीनाः प्रथमगत्तधना याचमाना ब्रजन्तिः ।। वैरासस्वाज्जनानां धनमुखहरणं सर्वदेशे महर्षे, दुःखं वैराग्ययोगः सकलजनमनस्यानाशः पशूनाम् । धान्यस्यैवार्द्धनाशो रसकसरहितं सर्वशून्यं जनाना. . मित्येते सर्वदेशाः परिजनधिकलाःसूर्यपुत्रे वृषस्थे॥४॥ प्राज्यं कार्पासलोहा लवणतिलगुडाः सर्वदेशे महर्घा, .. मनिष्ठा हेमसारे वृषभहयगजं सर्वधान्यं समर्घम् । : सप्त द्वीपे समुद्रे सुखिजनसहिते सर्वसौख्यं नरेन्द्राः, सर्वतों यान्ति मेघाः सकलमुनिमतं मैथुने सूर्यपुत्रे॥५॥ रोगा नित्यं ग्रसन्ति प्रयुरपरिभवो वित्तनाशस्तथैव, कार्ये हानिर्विरुद्धः सकलभयजनो देशचिन्ताविषादः । आरावोऽम्चूपपातष्टलटलपृथिवी सर्वलोकाद् विनाशः, नागलोक में दिशा और विदिशामें राजाओं भयभीत हों और सब लोक दुःखी हो, तथा पहले इकट्ठा किया हुआ धनसे रहित होकर जहां तहां याचना करते फिरें ॥ ३ ॥ वृषराशिमें शनैश्चर हो तो मनुष्य परस्पर वैर से दुःखी, धन और सुखका विनाश, सब देशमें अन्नकी तेजी, सब मनुष्य के मनमें दुःख वैराग्य, पशुका नाश, धान्यका अर्द्ध विनाश, रस. कस से हीन और सब शून्यता हो, इस तरह समस्त देशके लोग व्याकुल रहें । ४. ॥ मिथुनराशिमें शनैश्चर हो तो घी कपास लोहा नमक तिल गुड ये वस्तु सब देशमें महँगे हों, मँजीठ सुवर्ण वृषभ घोडा हाथी और सब धान्य सस्ते हों, सातों ही द्वीप समुद्र तकके रहनेवाले लोग सुखी, राजाओं सन्न सुखी, सर्व ऋतुमें मेघ बरसे यह समस्त फल मुनियोंने कहा हैं ॥५॥ कर्कराशिमें शनैश्चर हो तो रोग अधिक, बहुत तिरस्कार, धनका अधिक नाश, कार्यमें हानि, मनुष्यों में विरोध और भय, देशमें चिन्ता और विधाद, "Aho Shrutgyanam" Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) मेघमहोदये सर्वस्मिन् राजयुद्धं पशुधनहरणं कर्कटे सूर्यपुत्रे ॥ ६ ॥ पृथ्व्यां नश्यच्चतुष्पाद्द्वजय वृषभ - युद्धदुर्भिक्षरोगैः, पीडयन्ते सर्वदेशा उदधिपुरपथे दुर्गदेशेषु भङ्गः । म्लेच्छान्तो धान्यभावो धनसुखमवनी शेन्द्रचन्द्रप्रतापः, सर्वे ते यान्ति कालं भ्रमति युगमिदं सिंहगे सूर्यपुत्रे | ७| काश्मीर याति नाश हयखुरदलितं विग्रहं तत्र कुर्याद्, रत्नस्थं धातुरूप्यं गजहयवृषभं छागलं माहिषं च । मञ्जिष्ठा कुंकुमाद्यं रसकससहितं याति सर्वं समर्थ, कन्यायां सूर्यपुत्रे सकलजनसुखं संग्रहः सर्वधान्यम् ॥८॥ धान्यं यात्यूर्ध्वमात्रं गरगरलधराः क्लेशपूर्णाश्च देशा:, पृथिव्याकरूपमाता सकलमुनिवरे देहपीडापि नित्यम् | सर्वे ते यान्ति नाशं नरपुरनगरा-पम्बुदोऽप्यल्प एव चक्रावर्त्ती जनानां सुखधनरहितः सूर्यपुत्रे तुलायाम् ॥ ६ ॥ 3 शब्द युक्त जलका गिरना, पृथ्वी उससे टल ठल हो, लोकका विनाश, राजाओंमें युद्ध, पशु और धनका हरण हो ॥ ६ ॥ सिंहराशिमें शनि हो तो पृथ्वी में पशुओंका नाश हो, सब देश हाथी घोडा वृषभ आदि पशुओं से युद्ध तथा दुर्भिक्ष और रोगोंसे दुःखी हों, समुद्र तटके देशोंका म्लेच्छों से भंग हो, धान्य भाव अच्छा, राजाओं धनसे सुखी तथा इंद्र चंद्र के जैसे प्रतापवाले हों वे सब दुःखी होकर इस युगकालमें भ्रमण करें ||७|| कन्याराशिका शनि हो तो काश्मीर देशका नाश, व डेके खुरसे पृथ्वी चूर्णी हो ऐसा विग्रह हो, र धातु चांदी हाथी घोडा वृषभ बेकरी भैंस मँजीठ कुंकुन आदि सत्र एस कलवाले हों और सस्ते हों, मनुष्यों को मुख और धान्यका संग्रह करना चाहिये ॥ ८ ॥ तुला राशिका शनि हो तो धान्य मात्र ऊँचाही बडे, पृथ्वी रोगसे व्याकुल, देश सब क्रेशसे व्याप्त, पृथ्वी कम्पायमान, समस्त मुनि लोगों को भी सर्वदा देहपीडा हो, मनुष्य पुर नगर में "Aho Shrutgyanam" Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মান (१९७) भूमीशाः क्रोधपूर्णा विषधरमुदिताः पक्षिणां सन्निपातः, • सप्त बीपप्रकम्पान्नरपतिमरणं यान्ति मेघा विनाशम् । बैंकल्पाद् याच्यमानाः सकलजनरिपुः सर्वकार्य निहन्ति, . सर्वे ते यान्ति नाशं सकलगुणविधेवृश्चिके सूर्यपुत्रे ।१०॥ सप्त द्वीपाः समुद्राः सकलमुनिवनं वायुपूर्णा धरित्री, विप्रा वेदाङ्गालीना जगति जनसुखं सर्वतो याति सस्यम्। घान्यं चारु प्रभूतं रसकसबहुलं याति धान्यं प्रसारं , सर्वेषां वा जनानां प्रहसति वदनं सूर्यपुत्रे धनस्थे॥११॥ रूप्यं तानं सुवर्ण हयगजवृषभं सूत्रकर्पास मूल्यम् , • सर्वस्मिन् धान्यमानं भवति भुवितले सर्वनाशश्च सस्ये। पृथ्वीशाः क्रोधपूर्णा भवति पथिभयं सर्वरोगाद् विनाशश्चिन्तावस्था नृपाणां भवति सति बले सूर्यपुत्रे मृगस्थे।१२। लक्ष्मी प्राकारसौख्यं धनकणसहितं देशसौख्यं नृपाणां, सब नाश हो, मेघ थोडा बरसे, मनुष्य सुख और धन रहित हों ॥ ६ ॥ वृश्चिकरराशिका शनि हो तो राजाओं क्रोध करें, सर्प प्रसन्न हो, पक्षियोंका युद्ध, सप्त दीप पृथ्वी में भूचलन हों, राजाका मरण, मेघोंका नाश, वचनों में विकल्पता, समस्त लोगमें शत्रुता, सब कार्यका विनाश, तथा समस्त गुणोंका नाश हो ॥ १० ॥ धनराशिका शनि हो तो सात द्वीप, समुद्र, और सब मुनिजनों का वन आदि समस्त पृथ्वी वायुसे पूर्ण हो, ब्राह्मण वेदाध्ययनमें लीन हो, जगतमें मनुष्यों को सुख हो, अनेक प्रकारके तृणकी उत्पत्ति तथा बहुत अच्छा धान्य हो, रसकस अधिक, श्रेष्ठ धान्य हो, सब मनुश्य प्रसन्न वदन हो ॥११॥ मकर राशिका शनि होतो चांदी सोना तांबा हाथी घोडा वृषभ सूत कपास इन सबके भाव तेज हो. धान्य थोडा ही हो, पृथ्वी पर धान्यं का सर्वस्व नाश, राजाओं क्रोवसे पूर्ण हो, मार्ग में भय, रोगसे प्रजाका नाश, और राजाओंको चिन्ता अधिक हो ॥ १२ ॥ कुंभ.. "Aho Shrutgyanam" Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८) मेघमहोदये धार्माधौं विधत्ते सुखनिरतजनो मेंघपूर्णा धरित्री। माङ्गल्यं सर्वलोके प्रभवति पहुशः सस्यनिष्पत्तिहर्षा, भूमीरम्या विवाहै जनमुखसमयः कुम्भगे सूर्यपुत्रे ॥१३॥ पृथ्वी व्याकम्पमाना प्रचलति पवनः कम्पत्ते नागलोकः , सप्तद्रीपेषु सिन्धौ गिरिवरगहने सर्पवृक्षादिहानिः । नाशः पृथ्वीपतीनां जनपदविलयो यान्ति मेघाः प्रणाशं, __ वाराखामेवमुक्तं चतुरजनमुदे मीनगे सूर्यपुत्रे ॥१४॥ गार्गीयसंहितायामपि आप्लवन्ते समुद्राः प्रचलितगगनं कम्पते नागलोक . .: श्चन्द्रार्की रश्मिहीनौ ग्रहगणसहितौ वाति वातः प्रचण्डः। प्रभ्रंशः पार्थिवानां जनपदमरणं यान्ति मेघाःप्रणाशं, - चक्रावतः समस्तं भ्रमति जगदिदं मीनगे चार्कपुत्रे॥१५॥ __इति संक्षेपतः शनिचारः राशिम शनि हो तो लक्ष्मीकी प्राप्ति, देशमें सुख, धन धान्यसे पूर्ण राजाओं धर्माधर्मको जाननेवाले हों. मनुष्यों सुखमें लीन हो पृथ्वी जलसे पूर्ण हो, सब लोगमें मंगल, धान्यकी प्राप्ति, पृथ्वी रमणीक और विवाहादि मंगलों से पूर्ण हो ॥ १३ ॥ मीनराशिका शनि हो तो पृथ्वी कम्पायमान हो, वायु चले; नागलोक कम्पायमान हो, सात द्वीप समुद्र और पर्वतोंमें वृक्षादिकों की हानि हो, राजाओंका नाश, देश का प्रलय और मेघ का विनाश हो; इस प्रकार चतुर मनुष्यों की प्रसन्नता के लिये वाराही संहितामें कहा है ॥१४॥ समुद्र सुष्क हो जाय, आकाश चलायमान हो, नागलोक कंपायमान हो, चंद सूर्य आदि सब ग्रह तेज हीन हों, प्रचंड पवन चले, राजाओंका नाश, मनुष्योंका मरण, वर्षाका विनाश, चक्रावर्तकी तरह यह जगत भ्रमण करे इस प्रकारसे मीनराशि गत शनिका फल गर्गसंहिता में भी कहा है ॥१५॥ "Aho Shrutgyanam" Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनैश्चरचारफलम् सद्यो योधाय गद्येन विस्तरेण निगद्यते । . शनैः शनैः शनेचार-फलं शास्त्रविमर्शतः ॥१॥ : मेषराशौ यदा सौरिस्तदा पश्चिमायां राजविग्रहः, वस्तुमहर्घला, नृपतेर्भयः, गुर्जरगौडसौराष्ट्रेषु धान्यमहर्घता द्विगुणोऽनव्यापारे लाभः, छत्रभंगो राश्यर्द्धभोगात्परत उत्पातबहुला मही, तथा महीनदीपाचे पीडा राज्ञामुपद्रवा:,मेघा यहवः, सप्त धान्यानि युगन्धर्यादीनि संगृह्यन्ते, मासचतुष्टयानन्तरं विक्रये द्विगुणलाभः, गुजरदेशेऽहिफेनगुडशर्कराखण्डगोधूमथार्जरचवलाविक्रये लाभः, सुवर्णरूप्यलाभा, प्रथम शनैश्चरः सप्तमासराशिभोगतः पश्चादुत्पातचालकः, भूकपगर्जितं क्वचित्, फाल्गुने उपद्रवस्तदा वस्तुमहर्घता, व्यापारे जयः, मालवदेशे घृतशर्करातैलटोपरारायण इत्येतानि महर्घाणि कटकचालकोऽष्टौ मासान् । ...इत्येतद् गौतमस्वामि-भाषितं राशिमण्डलम् । . . . ... अनेक शास्त्रोंसे विचार कर शनैश्वर का फलको शीघ्र ही जाननेके लिए गद्यरीतिसे विस्तार पूर्वक कहा जाता है ॥ १॥ मेषराशि का शनि हो तो पश्चिममें राजविग्रह, वस्तु महँगी, राजाका भय, गुजरात गोड और सोरठ देश में धान्यभाव तेज, धान्य का व्यापारमें दूना लाभ, राशिके १५ अंश भोगने के पीछे छत्रभंग, पृथ्वी में बहुत उत्पात, महीनदी के तटपर दुःखपीडा, राजाभोका उपद्रव, वर्षा अधिक, जुमार आदि सात धान्यका संग्रह करना उचित है चार मास पीछे बेचनेसे दूना लाभ हो, गुजरात देशमें अफीम गुड सकर खांड गेहूँ बाजरा चौला आदि बेचनेसे लाभ, सोना रूपासे लाभ, पहले शनैश्चर. सातमास तक राशि भोगने बाद उत्पात चाले, कहीं भूकंप गर्जना हो, फाल्गुमें उपद्रव हो तो वस्तु तेज, व्यापारमें जय, मालवादेशमें घी स. कर. तेल टोपरा रायसा (खीरी) ये तेज भाव, पाठमास कटक (सैना) चाले। "Aho Shrutgyanam" Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये शनैश्वरप्रचारेण ज्ञातव्यं वर्षहेतवे ॥ १ ॥ वृषे यदा शनिस्तदा विग्रहो दक्षिणदिशि परचक्र भयम्, वराडदेशेऽस्वस्थता, पश्चिमापतिर्दक्षिणस्यां याति देशा उदसा अन्नं महर्ष, गोधूमचणकलवणव्यापारे लाभः सुवर्णरूप्यपित्तलकांश्यलोहव्यापारे लाभो मासषट्कं यावत्, भाषाढादिमासत्रये लाभः, आशोरदेशे युद्धं म्लेच्छहिन्दुकयोः क्षयः, हिन्दुराजस्य जयः भाद्रपदे अहिफेनाल्लाभः, देवगढदेशे विग्रहः, दुर्गभङ्गः शनैश्चरस्य राशिभोगे एकवर्षानन्तरं वस्तुमहर्घता तन्मध्येऽजमकस्तस्य माघमासे विक्रये लाभ: । ' इत्येद् गौतमस्वामि, इत्यादि पूर्ववत् ॥ २ ॥ " मिथुने शनिस्तदा पश्चिमायां दुर्भिक्षं, राजविग्रहः, मालवदेशे विरोधः, राशिभोगान्मासपञ्चकतः पञ्चादुज्जयिन्यामुस्पातः दुर्गभंग: मासद्वयात् परं दुर्भिक्षं मासैकयावत ततो वत्सरे शुभं धान्यनिष्पत्तिः पूर्वदेशे उत्पात, गुडे इस तरह राशिमण्डल गौतमस्वामी ने कहा, वह शनैश्चर चालनसे वर्षा के लिये जानना चाहिये ॥ १ ॥ (२००) 5 3 > जब वृषराशिका शनि हों तब विग्रह हो, दक्षिण दिशा में शत्रुका भय, बराडदेश में अशान्ति, पश्चिमका पति दक्षिण चले जाय, देशका उजाड अन्नभाव तेज, गेहूँ चणा नमक के व्यापार में लाभ, सोना चांदी पित्तल कांसी लोहाका व्यापार में छमास तक लाभ, आषाढादि तीनमास लाभ, आशोरदेशमें युद्ध, म्लेच्छ और हिन्दूका विनाश, हिन्दूराजका विजय, भादोंमें अफीम से लाभ, देवगढदेश में विप्रह, दुर्गभंग, शनि का राशिभोग में एकवर्ष होनेबाद वस्तु महँगी, उसमें अजवायन को मात्रमासमें बेचने से लाभ हो ॥ २ ॥ जब मिथुन राशिका शनि हो तब पश्चिममें दुर्भिक्ष, राजाओंका विग्रह, मालवा देश में विरोध, राशिभोगसे पांचमास जानेबाद उज्जयिनी में उत्पात, "Aho Shrutgyanam" Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनैश्चरचारफलम् समता लविंगकेसर एलापार दहिंगुपानडी रेशमकधीरशुंठि एतानि महार्घाण, क्षत्रियाणां मालवदेशे खण्डे जयः, दुर्गरोधः, उच्चवस्तुविक्रयः । ' इत्येतद् गोतमस्वामि ' इत्यादिपूर्ववत् ॥ ३॥ कर्क राशौ शनिस्तदा मेदपाटदेशे मालवसीमान्तं उद्ध्वंसता, छत्रभंगो महीपतेः, राजयुद्धं सघल, मालपदे मुगलकटकं, तापीनदीतीरं यावद् विग्रहः परं कुशलं, दक्षिणदिशि लोकनाशः, ग्रामभंगः, श्रावणे धान्यं महर्चे, भाद्रपदे जलोपद्रवः, मेघा बहवः, आश्विने वर्षा, अहिफेन महर्चता , मासइये पुनः समर्धता, वस्तु महङ्घे घोटकमहिषमहघेता व्यापारे लाभः । ' इत्येद् गौतमस्वामि ' इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४ ॥ सिंहराशौ शनिस्तदाऽन्नं सर्वत्र निष्पद्यते, जलवृष्टि बहुलता, मालबदेशे व्यापारे लाभः, राशिभोगानन्तरं मासदेशगमनं पातिसाहि चलाचलत्वं परमन्नं समये शाकबन्धतुल्याः " (१०१) दुर्गभंग, दो मासके पीछे एक मास तक दुर्भिक्ष, एक वर्षके पीछे धान्य प्राप्ति अच्छी हो, पूर्वदेशमें उत्पात, गुडभाव सम, लौंग केसर ईलाईची पारा हिंगलु पानडी रेशम कधीर और सोंठ ये सब तेज, क्षत्रियोंका मालवा देश में जय, दुर्गरोध, उच्च वस्तुका व्यापार ॥ ३ ॥ जब कर्कराशिका शनि हो तब मेदपाटदेश में मालवा के सीमा तक देश . का विनाश, राजका छत्रभंग, वोर राजयुद्ध, मालपददेशमें मोगलोंके सेनाका उपद्रव, तापीनदीके तट तक विग्रह और आगे कुशल हो, दक्षिण दिशा में लोकका नाश, गाँवका भंग, श्रावण में धान्यभाव तेज, भादोंमें जलका उपद्र, वर्षा अधिक, आसोजमें वर्षा, अफीम तेज, दो मास पीछे सस्ता, घोडा भैंस महँगे, व्यापार में लाभ हो ॥ ४ ॥ जब सिंहराशि का शनि हो तब सब जगह अन्न पैदा हो, जलवर्षा विशेष, मालवादेश में व्यापार में लाभ, राशिभोगका एक मास के पीछे देशमें २६ "Aho Shrutgyanam" Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) संग्रामाः प्रतिग्रामं गुडगोधूमचणकतंदुलशालिमसुरान्नघृता दिवस्तुव्यापारे लाभः पूर्वं सुभिक्षं परं मारिभयं सर्वदेशेषु पीडा व्याकुलता, अशुभं संवत्सरफलं मरिचशुंठिप्रमुख क्रयाणकालाभः ताम्रपित्तलमहता घृततैलादिर समहर्घता, कुंकणदेशे तृणमहिषीसमर्धता मालवमध्ये उपद्रवः परं राज्य: सुखं कटकविग्रहः पूर्वदेशे वस्त्रलाभः सर्ववस्तु समर्धम् । "इत्येतद् गौतमस्वामि' इत्यादि ॥ ५ ॥ कन्यायां यदा शनिस्तदा दुर्भिक्षं चतुर्दिशासु पिता पुत्रं विक्रीणाति, अन्ननाशः, जलवर्षा नास्ति, मरुदेशे शिवपुर्वी द्राविडदेशे राजपीडा छत्रभंगः, शेषाः सर्वे देशाः शुभाः, अर्बुदे सुभिक्षं, शीरोहीमध्येऽन्नलाभः, सर्वधान्यसंग्रहे द्विगुणो लाभः, मानवकं यावद् धान्यं रक्षणीयं पञ्चाद्विक्रयः, धातुवस्तुसमर्थ, उत्तमवस्तु महर्चे, अन्नभयं महावृष्टिः, त्रीणि क्रयाणकानि स . मेघमहोदये गमन, पातशाहीपन चलविचल हो परंतु अनाज सस्ता हो, शाक बंधके सदृश संग्राम हो, प्रत्येक गाँव में गुड गेहूँ चणा चावलं मसुर अनाज घी आदि वस्तु का व्यापार में लाभ हो, पहले सुभिक्ष पीछे महामारीका भय, सब देशमें पीडा व्याकुलता हो, संवत्सर का फल अशुभ, मिरच सोंठ आदि क्रय्याणकसे लाभ, तांबा पित्तल तेज, घी तेल आदि तेज, कोंकण देशमें तृण भैंस सस्ते, मालवामध्ये उपद्रव परन्तु राजसुख, सैना में विग्रह, पूर्वदेश में aa लाभ, सब वस्तु सस्ती ॥ ५ ॥ जब कन्या राशिका शनि हो तब दुर्भिक्ष, चारों दिशामें पिता पुत्र को बेचें, अन्न का नाश, जल वर्षा न हो, मारवाड शिवपुरी और द्राविडदेशमें राजपीडा छत्रभंग हो, बाकी सब देश सुखी रहें, आबु सुभिक्ष, शीरोहि मध्ये अन्नका लाभ, सब धान्यका संग्रह से दूना लाभ, नवमास तक धान्य संग्रह करना पीछे बेचना, धातु वस्तु सस्ता, उत्तम वस्तु तेज, मालवा देश "Aho Shrutgyanam" Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनैश्चर वारफल्म् मर्याणि । 'इत्येतद् गौतमस्वामि' इत्यादि ॥६॥ तुलाराशौ यदा सौरिः सुभिक्षं स्थाचराचरे। प्रजानां सुखसौभाग्यं धनं धान्यं च सम्पदः ॥१॥ बंगालदेशे विग्रहस्तत्रैन प्रजापीडा, रोगबहुलता, कार्तिके महाजननये कष्टं बहुलं, बंगाले उत्पातः, छत्रभङ्गः, अ. राशिभोगात् परमुत्पात:, दक्षिणदिशि उपद्रवः, गोधूमचकचोखा (चावल) मारूंगी कांगुणी उडिद एते महर्घाः, ज्येष्ठमासाद् विक्रये द्विगुणो लामा,अन्ये सर्वे देशाः सुभिक्षवन्तः सुस्थाः। 'इत्येद् गौतमस्वामि' इत्यादि ॥७॥..... वृश्चिके यदा शनिस्तदा हस्तिनागपुरे तद्देशे वैराटदेशे च विग्रहः, मालपदमेदपाटवागडगुर्जरसौराष्ट्र उत्तरार्द्धदेशेषु कटकचालकः, अन्नाल्लाभः, गोधूमकार्पासमसूरान्नतिलकापडादिव्यापारे लाभः, मासनवकात् परमुपद्रवः राजराणाम्लेमें परस्पर विरोध, राजभय, पृथ्वी में किञ्चिद् उत्पातादि अशुभ हो, गुड भाव सम, धान्यभाव तेज, अन्न का भय, महावी,तीन वारगिक वस्तु सस्ती ॥६॥ जब तुलाराशिका शनि हो तब जगत्में सुभिक्ष, प्रजाको सुख सौभाग्य और धन धान्यादि संपदा हो, बगाल में विग्रह प्रजापीडा, रोग अधिक , कार्तिक में ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य को कष्ट , उत्पात , छत्रभंग, राश्य भोगसे पीछे उत्पात, दक्षिण दिशामें उपद्रव, गेहूँ चना, चावल मारंगी कांगुल और ऊर्द ये तेजभाव हों, ज्येष्ठ मासमें बेचनेसे दुना लाभ, अन्य सब देश मुभिक्षवाले और शान्त हो ॥ ७ ॥ - जब वृश्चिकराशिका शनि हो तब हस्तिनापुर और विराट देश में विप्रह, मालवा मेदपाट वागड़ गुजरात सोरठ और उत्तरार्द्ध देशमें सैना का उपद्रव, अनाजसे लाभ, गेहूँ कपास मसूर अन्न तिल और कपडा आदिका व्यापार में लाभ, नव मास पीछे उपद्रव, राजा राणा और म्लेच्छोंका परस्पर "Aho Shrutgyanam" Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) मेघमहोदये च्छानां परस्परं युद्धं, पातिसाहिगृहे क्लेशः, मालवदेशे तोडा आयान्ति, सर्ववस्तुमूल्यवृद्धिः, अहिफेनाल्लाभः, ज्येष्ठमासि वृद्धिः, अजमोदमेथी प्रमुख विक्रयः, रोगचालकः, वर्षा बहुला। 'इत्येतद् गौतमस्वामि'इत्यादि ॥८॥ - धने शनिस्तदा सर्वत्र महर्घता लोकदुर्घलः पिता पुत्रं विक्रीणाति, अन्ननाशः, पृथिव्यां निर्जलता, लोका व्याकुलाः, राशिभोगाद् मासषटकानन्तरं फलं धान्यसंग्रहः, अहिफेनाल्लाभः, तैलतिलदाणा गोधूमचणकचोखा खण्डालुंगडोडाअसालिग्रोअजमोद मेथी घृतं एतानि वस्तूनि महर्घाणि । श्रावणादिमासचतुष्टये मारीपीडा राजसुखं उत्तरापथे कटकचालकः । इत्येतद् गौतमस्वामि' इत्यादि ॥९॥ .. मकरे शनिस्तदाऽऽनन्दः सर्वत्र सुभिक्षं राजा निर्भय प्रारोग्यं समाधान तथा कपूरपारदजातिफललुंगटोपराहिंगुजीरकसोयाबिरहालीघृतलवणमहर्घता मूल्यवृद्धिराषाढादियुद्ध, पातशाही घर में कलह, मालवादेशमें टीड्डीका उपदन, संब वस्तु के मूल्यकी वृद्धि, अफीमसे लाभ, ज्येष्ठमें वृद्धि, अजवायिन मेथी आदि का व्यापारसे लाभ रोग फैले, वर्षा अधिक हो ॥८॥ जब धनराशिका शनि हो तब सब जगह तेज भाव, लोक दुर्बल, पिता पुत्रको बेचे, अन्नका नाश, पृथ्वी जलरहित, लोक व्याकुल, राशि भोग से छमास पीछे धान्यका संग्रहसे लाभ, अफीमसे लाभ, तेल तिल गेहूँ चण चावल खांड लोंग डोडा असालिया अजवाइन मेथी घी ये सब वस्तु तेज हो, श्रावणादि चार मास महामारीकी पीडा, राजसुख, उत्तरापथमें सैनाका उपद्रव ॥ ६॥ मकरराशिका शनि हो तब सब जगह आनंद और सुभिक्ष हो, राजा भयरहित , रोगरहित , कपूर पारा जायफल लोंग टोपरा हिंग जिरा सोआ "Aho Shrutgyanam" Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनिश्वरवारफलम् (२०५) मांससप्तकं यावद, अहिफेन महर्चता, चोरभयं देशान्तरे महाजनपीडा, प्रथमं वर्षा भवति ततो मासमेकं न वृष्टिः महर्घता पश्चात् सुभिक्षं, लवणे मूल्यवृद्धिर्दिनानि पञ्चदश यावत्, चित्रकूटदुर्गे कटके युद्धं च मनुष्यपीडा धनहानिः शाखा प्रमाणेन, मालपददेशे रोगपीडा, प्रथमं वर्ष भयङ्करं पश्चात् शु भं देशभङ्गो राशिभोगान्ते । 'इत्येतद् गौतमस्वामि' इत्यादि । १० कुंभे शनिस्तदा दक्षिणकुङ्कादेशे महाविग्रहः, राजक्षथ, प्रजाभयं धनप्रलयः, राशिभोगान्माससतकं यावत् सर्वधान्यमहार्घता, आषाढादिमासपञ्चकं यावद 'गोधूममंडईचिगामसूर युगन्धरी चोखा उड़द वटलातुवरी कांगणी चडलाबाजरो' एतानि महर्घाणि, दुष्कालः, माघवृष्टिप्रवला ततो धान्यविनाश छत्र भंगः, फाल्गुन चैत्रतो वस्तुधान्यसंग्रहः, अनम्रा जना नमन्ति अमार्गणा मार्गयन्ति, धान्यद्विगुणलाभः । ' इत्येतद् गौतमस्वामि' इत्यादि ॥ ११॥ सोप घी नमक ये महँगे हो इनकी मूल्य में वृद्धि आपादादि सात मास तक, अफीम तेज, परदेशमें चोर भय, महाजनको पीडा, पहले वर्षा हो पीछे एक मास वर्षा न हो, पहले महँगा पीछे मुभिक्ष, नमक में मूल्य वृद्धि पन्द्रह दिन तक चित्रदुर्ग में युद्ध, मनुष्यको पीडा, धनकी हानि, मालवा में रोगपीडा, पहला वर्ष भयंकर पीछे शुभ और राशिभोग के अन्तमें देशका नाश ॥ १० ॥ जब कुंभ राशिका शनि हो तत्र दक्षिण कुंकणदेशमें बडा विग्रह, राजा का क्षय, प्रजाको भय, धनका नाश, राशिभोगसे सातमास तक सब धान्य तेज, आषाढादि पांच मास तक गेहूँ चणा मसूर जुवार चावल उर्द, बटाना, तुअरी, कांगणी चौला बाजरी आदि तेजभाव, दुष्काल, मात्र में प्रबल वर्षा जिससे धान्यका विनाश, छत्रभंग, फाल्गुन चैत्रसे वस्तुका और धान्य का "Aho Shrutgyanam" Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) मेघमहोदये .. मीने शनिस्तदा दुर्भिक्षं लोके दुर्बलता, माता पुत्रं वि. क्रीणाति, मालपदे महर्घता, उत्पात: 'कांगणी गेहुं चणा ज्वार माषगुडलवणवस्त्रनालिकेरटोपरा सुंटिकपूरजातिफल' एषां मासपञ्चकात् परतो विकयो द्विगुणलाभः, धान्याल्लामा, दक्षिणस्यां धान्यं महर्घ मालपदे राजविरोधः, प्रजा वसति, वाषरवस्तुमहर्घता धातुवस्तुसुवर्णरूप्यतामंत्रपुलोहं महर्घसर्ववस्तुवाणिज्ये लाभः । इत्येतद् गौतमस्वामि'भाषितं राशिमण्डलम् । शनैश्चरप्रचारेण ज्ञातव्यं वर्षहेतवे ॥१२॥ ... शनैः शनैश्चारफलं विचिन्त्यं, राशीशमैत्रीगृहचिन्तनाचः । शुभस्य वेधोऽर्द्धफलं शनेः स्यात्, क्रूरस्यवेधे कथितातिरिक्तम्।१ देशांश्च वस्तूनि शनिस्वमित्र-राशीनि किञ्चित् परिपीडयेत। राशे रिपूणां बहुधा विनाश्य, ददाति दुःखानि रहस्यमेतत् ।२ अथ शनिनक्षत्रभोगफलम्------ संग्रह करना, अभिमानी लोग नम्र हो, धान्यसे दूना लाभ ॥ ११ ॥ जब मीनराशिका शनि हो तब दुर्भिक्ष, लोकमें दुर्दल ता, माता पुत्रको बेचे, मालवामें महँगाई, उत्गत, कांगणी गेहूँ चणा जुआर उर्द गुड नमक वस्त्र श्रीफल टोपरा सोंठ कपूर जायफल इनको पांच मास पीछे बेचनेसे दूना लाभ हो, धान्यसे लाभ, दक्षिगमें धान्य भाव तेज, मालवामें विरोध, प्रजा का वास, वस्तु तेज, धातु वस्तु सोना रूपा तांबा रांगा लोहा तेज, सब वस्तु का व्यापारमें लाभ ॥१२॥ राशिका स्वामी और ग्रह मैत्रि आदिका विचार कर शनैश्चरका चालन फल विचारना चाहिये. शुभ ग्रहका वेध हो तो शनिका अई फल और कार प्रहका वेत्र हो तो अनिष्ट फल है ॥ १ ॥ शनि अपनी या मित्र ग्रहकी राशिका हो तो देश और वस्तुको किंचित् पीडा करे. यदि शत्रु राशिका हो तो बहुत विनाश और बहुत दुःख दें. यह शनिका फल है ॥२॥ "Aho Shrutgyanam" Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হামম্বাঙ্গেল (२०७) पूर्वाभाद्रपदा पौष्ण्यं मघा मूलं पुनर्वसु ।। पुष्यं शनिर्यदा भुक्ते प्रयुंक्तेऽकारणं रणम् ॥१॥ छत्रभङ्गं देशभङ्ग-मुर्गी कुर्वीत चाकुलाम् । चतुष्पदा रोगयोगं शनिव्येसनिनो जनात् ॥२॥ उत्तरात्रितयं पैञ्यं रोहिणी रेवती तथा । शनिः श्रयति यद्यत्र भूमिकष्टं भवेत्तदा ॥३॥ मूल मघा ने रोहिणी रेवइ, हस्त पुनर्वसु जो शनि सेवह। चउपद मरे दुपद् संतावइ,सघली पृथवी चक्रचढावह ॥४॥ लोके पुनः- माहमासि वक्रे शनि, तो भडुली मुणि वत्त । पश्चिम घरसे आघ हुइ, एगह मुसल तत्तः ॥५॥ श्रावणे कृष्ण पक्षे च शनिवक्री यदा भवेत् । उत्पातस्तु तदा ज्ञेयो मासमध्ये न संशयः ॥६॥ श्रवणानिलहस्तााभरणीभाग्योपगः सुतोऽकस्य । प्रचुरसलिलोपगडां करोति धानी यदि स्निग्धः ॥७॥ पूर्वाभादपदा रेवती मघा मूल पुनर्वसु और पुष्य इन नक्षत्र पर शनि हो तो विना कारण युद्ध हो।॥ १ ॥ छत्रभंग और देशभंग हो, पृथ्वी भाकुल व्याकुल हो; पशुओंको और व्यसनी मनुष्योंको रोग हो ॥ २ ॥ तीनों उत्तरा मघा रोहिणी और रेवती इन नक्षत्र पर शनि हो तो भूमि पर कष्ट हो ॥ ३ ॥ मूल मघा रोहिणी रेवती हस्त और पुनर्वसु इन नक्षत्र पर शनि हो तो पशु में अधिक मरण हो, मनुष्योंको कष्ट हो, और समस्त पृथ्वी उपद्रव वाली हो ॥ ४ ॥ यदि माघ मासमें शनि वक्री हो तो पश्चिम में मेघका उदय होकर मुसलधार वर्षा हो ॥ ५॥ श्रावण कृष्ण पक्षमें यदि शनि वक्री हो तो एक मास के भीतर उत्पात हो इस में संशय नहीं ॥ ६ ॥ श्रवण स्वाति हस्त आर्द्रा और भरणी इन नक्षत्र पर शनि हो तो बहुत जलसे पूर्ण पृथ्वी होती है ॥ ७ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। (२०८) मेघ महोदये अथ शनिभोगाद्दिनफलं या सप्तयमजिह्वाशनिभं दिनभे योज्यं तदङ्कं सप्तभिर्भजेत् । अन्नं वातं तथा युद्धं दुर्भिक्षं छत्रपातनम् ||८|| शून्यता रौरवं प्रोक्तं फलं ज्ञेयं विचक्षणैः । एता सप्ताप्यग्निजिह्वा यमजिहा प्रकीर्त्तिता ॥ ६ ॥ पाठान्तरे - सूर्य भादिनभं यावत् सप्त भागे जलं कलिः । रोमोsनिर्वायुः पशु-पोडा दुर्भिक्षकृच्छनिः ॥ १० ॥ अथ शनेरुदयविचार : मेषे शनेरुदयने जलवृष्टिरुचैः, सौख्यं जने वृषभगे तृणकाष्ठकष्टम् । अश्वेषु रोगकरणं च महर्घमिक्षु - जन्यं गुडादि मिथुनेऽतिसुभिक्षमेव ॥ ११ ॥ वृष्टिर्न कर्कगृहगे सरसां च शोषः, सर्वत्र मारिभयमाशु जनेऽतिपीडा । तिड्डागमः क्वचन सिंहगते शिशूनां " शनिनक्षत्रको दिननक्षत्र में जोड़ कर सातसे भाग देना, शेष बचे इनका क्रमसे फल कहना - अन्नप्राप्ति, वायु अधिक, युद्ध, दुल्काल, छत्रभंग, शून्यता और दुःख ऐसा फल विद्वानोंने कहा है । इस सातोंको अग्निजिह्वा या मजिह्वा कहते है ॥॥॥ पाठान्तर से - सूर्यनक्षत्र से दिननक्षत्रतक गिनकर सात से भाग देना, शेष बच्चे उसका फल कहना - वर्षा, कलह, रोग, अभि, वायु, पशुपीड़ा और दुर्भिक्ष कारक हो ॥ १० ॥ मेष राशिमें शनिका उदय हो तो जलवर्षा और मनुष्यों में सुख हो । वृष राशिमें शनिका उदय हो तो तृण काष्टका कष्ट, घोडाओं में रोग और इक्षु (गन्ना) से उत्पन्न होनेवाली गुड आदि वस्तु महँगी हो । मिथुन राशि में शनिका उदय हो तो अधिक सुभिक्ष हो ॥ ११ ॥ कर्कराशिमें शनि " Aho Shrutgyanam" Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) शनैश्चरचारफलम् .. नाशः प्रकाशनमधार्मिकशासनस्य ॥१२॥ कन्याशनेरुदयतः किल धान्यनाशः , . पृथ्वीशसन्धिरतुलस्तुलया न वर्षा । गोधूमवर्जितमही तदसौ फलं स्या: दस्वस्थता धनुषि मानुषजातिरोगम् ॥१३॥ स्त्रीणा शिशोश्च विपदोऽखिल धान्यनाशः , - सौरेदंगेऽभ्युदयने नृपयुद्धबुद्धिः । नाशश्चतुष्पदकुले कलशेऽथ मीने, .. दीने जने ननु शनेरुदयान्न धान्यम् ॥१४॥ अथ शनेरस्तविचार:---- मेषेऽस्तं गमने शनेर्भुवि जने धान्यं महर्घ वृषे, सर्वत्रापि गवादिपीडनमहो पण्यांगना मैथुळे । दुःखार्ता पथि कर्कटे रिपुभयं कार्पासधान्यादिषु, का उदय हो तो वर्षाका अभाव , रसों में शुष्कता, सब जगह महामारी का भय, मनुष्यों में अतिपीडा और कहीं टीडीका आगमन हो। सिंहराशिमै शनि का उदय हो तो बालकोंका नाश और राजाका अधर्मशासन प्रगट हो॥१२॥ कन्याराशिमें शनिका उदय हो तो धान्यका नाश और पृथ्वीमें संधि हो! तुला और वृश्चिकराशिमें शनिका उदय हो तो वर्षा न वरसे, गेहूँ आदिसे रहित पृथ्वी हो । धनराशि में शनि का उदय हो तो अस्वस्थता, मनुष्य जातिमें रोग ॥ १३ ॥ स्त्री और बालकको दुःख, समस्त धान्य का नाश हो । मकर राशिमें शनिका उदय हो तो राजाओं में युद्ध करने की बुद्धि हो और पशुओंका नाश हो । कुंभ और मीनराशिमें शनिका उदय हो तो मनुध्योंमें दीनता और धान्य न हो ॥ १४ ॥ ..... मेषराशिमें शनि का अस्त हो तो पृथ्वीमें धान्यभाव तेज हो । वृषराशिमें शनिका अस्त हो तो सर्वत्र गौ आदि को पीडा ! मिथुनराशिमें वेश्या "Aho Shrutgyanam" Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) मेघमहोदगे दौर्लभ्यं जलदेष्ववर्षणविधिः सिंहे तुरङ्गव्यथा ॥१५॥ धातनां च महर्घतान्नविगमः कन्यास्थितावनतो, ... लोकेऽन्येऽपि तुलारलेन सततं निष्पत्तिरानन्दतः । स्वल्पं धान्यमलो जने नृपभयं पीडापि तीडादिजा, चापे लोकसुखं मृगेऽपि पवनेऽनावृष्टिनारीमृतिः॥१६॥ कुंभ शीतभयं चतुष्पदपरिग्लानिश्च हानिर्गवां, . मीने हीनतया घनस्य न जलं कापीह वापीस्थले। सन्तापी नृपतिः स्वधर्मविमुखः पापी जनः पीडया, मन्दमन्दसमन्दभूपतिरणो मन्देऽस्तमप्याधिते ॥१७॥ कन्याय मिथुने मोने वृषे धनुषिश स्थितः। .: शनिः करोति बुर्भिक्षं राज्ञां युद्धं परस्परम् ॥१८॥ आग्नेयेऽपि च वायव्ये बारणे बा महेन्द्रके। बक्री शनिमेण्डले स्यात् फलं देशेषु तादृशम् ॥१९॥ यी दुख हो । कार्वाशिमें दानुका भय, काम धान्यादि दुर्लभ, जाइलों से जल रमे । मिहाशिम घोडो को दुःख हो ॥ १५॥ धातुभाव तेज और साना पाच । कन्यारशिमें शनिका अस्त हो तो दूसरे लोक में भी वि. काय होतुला राशि सर्वदा आनंद हो, धान्य थोडा हो । वृश्चिकराशि कानुध्यान राजाका भय, टीडी आदि की पीडा । धनराशिमें शनि अस्त हो सो लोकम सुख हा ! मकरयाशिमें पवन अधिक, अनावष्टि और स्त्रियोंकी मृत्यु अधिक हो ॥१६॥ कुंभराशिने शीतका भय, पशुओंमें ग्लानि, और गौयांकी हानि हो । मीनराशिमें शनिका अस्त हो तो वर्ष की हानि होनेसे काई बाबडी में भी पानी न मिले, राजा अपने धर्मरो विमुख तथा दुःख इनेवाले हों, मनुष्य पीड़ा से प.पी हो और गाजाओंमें युद्ध हो ॥ १७ ॥ कन्या मिथुन मीन वृष और धनु इन राशि पर शनि हो तव दुष्काल माया गाजाओं में परस्पर युद्ध हो ||१८|| आग्नेय वायव्य वारुण और महेन्द्र "Aho Shrutgyanam" Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মালদােকে (२११) अब शनिनक्षत्रफलज्ञानाय कूर्मापरनामकं पद्मचक्रं प्रागुक्तं तरय विवरणम् - प्राकाशोपरि वायुघनोदधिस्तदुपरि प्रतिष्ठानः । तस्मिनुदधौ पृथिवी प्रतिष्ठिताधिष्ठिता जीवैः ॥१॥ कठिनतया वृनतयाऽष्टदिग विभागेन पभिनी। पृथिवी उदधेर्मध्यभवत्वादु भूचक्रं पद्मिनीचक्रम् ॥२॥ जलधिशयत्वात् कूर्मोऽप्यसौ निवेद्या परैर्दिजन्मायैः । सर्वसहापि वज्रादि-काण्डयोगेन कठिनतरा ॥३॥ इवादीनामप्रयोगा-दुपमापि च रूपकम् । भ्रममूलमल कार-स्तेषां जज्ञे धियानध्यतः ॥४॥ ऐन्द्रीबुद्धिः पयोवाहे रामादौ भुवनेशधीः । दुष्टे जने दैत्यमति-रूपचारेऽपि तास्विकी ॥५॥ इन चार मण्डलों शनि वक्री हो तो इनके नामसदृश देशमें फल होता है ॥१६॥ आकाशमें सर्वत्र तनबात औ धनवात रहा हुआ है, उसके ऊपर घनोदधि नामका वायुमिश्रित जल है और उसके उपर पृथठी हुई है यही जीवोंका आधार है ॥ १ ॥ वह पृथिवी क.ठी और गोल है, उसका आकार आठ दिशाओंकी अपेक्षासे पाठ पाखडीवाले कालके सदृश होता है । कमल उदधि (समुद्र) में होता है और पृथिवी भी घनो धि (वायु मिश्रित सवन जल)में है इसलिये भूचक्रको पदिनीचक कहा जाता है ॥२॥ किसीके मतसे पमिनीचक्रको कूर्मचक्र भी कहते है, क्योंकि कुर्म (कछवा) भी वज्रदंडके जैसे कठिन, सत्र सहन करनेवाला और जलधिशायी (जलाशयमें रहनेवाला) है ॥ ३ ॥ 'इव' अ.दि श दों का प्रयोग नहीं क ने से उपमा और रूपक भी. भ्रममूलक है. और बुद्धिका विपर्ययसे अलंकाररूप . हो जाते हैं ॥ ४ ॥ जैसे मेघमें इंद्रकी कल्पना, राम आदिमें जगदीश्वर की कल्पना, दुष्ट पुरुषों में दैत्यकी कल्पना और उपचार में भी तात्त्विक कल्पना करना ॥ ५ ॥ तथा अर्हन्तोंकी प्रतिमा कछवा बनाना या उसके उपर "Aho Shrutgyanam" Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) मेघमहोदये। पिम्वस्थानेऽहतां तेन कूर्मनामापि लिख्यते। नागेन्द्रः शेषनामापि तस्यैवोच्चैः प्रतिष्ठितः ॥६॥ महाशिरा महीपालः प्रागभूच्छूकराननः।... अन्यायात् पृथिवीखण्डं प्लाव्यमानं महाधिना ॥७॥ ररक्ष रक्षसां नाशात् कृत्वा वाराहविद्यया । ताग्रूपं दंष्ट्रयैवो-द्धरणेन भुवस्तदा ॥८॥ ततो मिथ्यादृशामेषा निर्निमेषा व्यजृम्भता । मनीषा यबराहेण दंष्ट्राग्रेण धृता मही ॥९॥ यदुक्तं रुद्रदेवेन स्वतमेघमालायाम्-----.. कूर्मचक्र प्रवक्ष्यामि यदुक्तं कौशलागमे । . येन विज्ञानमात्रेण ज्ञायते देशनिर्णयः ॥१०॥ प्रयस्त्रिंशत्कोटिदेवाः कूमैकदेशवासिनः । सुमेरुः पृथिवीमध्ये श्रूयते न च दृश्यते ॥११॥ . तादृशाः पर्वताश्चाष्टौ सागरा द्वीपदिग्गजाः । सर्वेते विधृता भूम्या सा धृता येन सोऽत्र कः ॥१२॥ शेषनाग का स्थापन करना ॥ ६ ॥ पहले शूकर के मुखवाला महाशिर नामक नृपति हुआ था, उसने अन्यायसे समुद्रसे बहती हुई पृथिवी का रक्षण किया ॥ ७ ॥ तथा वाराही विद्यासे वाराह सद्दशरूप करके तथा राक्षसोंका नाश करके दांतसे पृथिवीका उद्धार किया ॥८॥ इसलिए अन्य दर्शनीयोंका ज्ञान मिथ्या है कि वाराहने दांतके अग्रभाग पर पृथिवीको धारण किया ॥ ६ ॥ जैसा आगममें कहा है वैसा कुर्मचक्रको मैं कहता हूँ, जिसके जानने से देशका शुभाशुभ फल मालुम पड़ता है ॥ १० ॥ तेतीस कोटि देवता कूर्मके एक देशमें रहे हुए हैं. पृथिवीके मध्य भागमें मेरु पर्वत है, ऐसा सुना जाता है मगर देखने में नहीं आता ॥ ११ ॥ ऐसे मेरु पर्वत आठ "Aho Shrutgyanam" Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আনন্মাঙ্গেল (२१३) दंष्ट्रायां सा वराहेण विधृतास्ति वसुन्धराः । मुस्ताखननतो यस्यां शोभते मृत्तिका यथा ॥१३॥ ईदृशोऽपि महाकायो वाराह शेषमस्तके । तस्य चूडामणेरूज़ संस्थितो मशकोपमः ॥१४॥ एवंविधः स शेषोऽपि कुण्डलीभूय संस्थितः। कूर्मपृष्ठैकभागेन सूत्रे तन्तुरिवायभौ ॥१५॥ वपुः स्कन्धः शिरः पुच्छ मुखांघ्रिप्रभृतीनि च । माने मानेन कूर्मस्य कथयन्ति च तद्विदः ॥१६॥ क्रोशः शतसहस्त्राणि योजनानि वपुः स्थितम् । तर्द्धन भवेत् पुच्छं पुच्छार्द्धन तु कुक्षिके ॥१७॥ ग्रीवा चायुतकोटिस्था मस्तकं सप्तकोटिभिः। नेत्रयोरन्तरं तस्य कोटिरेका प्रमाणतः ॥१८॥ मुखं कोटिद्वयं तस्य द्विगुणेन तु पादयोः । हैं वैसे सागर (समुद्र) और द्वीप भी आठ आठ हैं. वे सब पृथिवी पर हैं, ॥१२॥ ऐसी पृथिवी को वराहावतारने दांतके अग्रभाग पर ऐसे धारण किया है, जैसे वराह मुस्ता (नागरमोथा) खोदनेसे दांत पर मिट्टी शोभती है॥१३॥ इतना बड़ा शरीरवाला वराह शेषनागके मस्तक पर मशक ( मच्छर ) के सदृश रहा हुआ है ॥ १४ ॥ इस प्रकार वह शेष नाग भी वर्तुलाकार (गोल) होकर रहा है, जिससे कि कुर्मक पीटके एक भागमें ऐसा शोभता है जैसे सूतमें रहा हुअा तंतु शोभा पाता है ! १५॥ उसका माप, कूर्म का शरीर स्कंध मस्तक पुच्छ मुख और चरण आदिके मानसे ज्योतिर्विदोंने इस प्रकार कहा हैं -- ॥१६॥ उसका एक लाख योजनका शरीर है, शरीर से आधा पुच्छ है, पुच्छ से प्राधा पेट है ॥ १७॥ दश हजार करोड योजन . लंबी. ग्रीवा (गला) है, सात करोड़ योजनका मस्तक है, दोनों नेत्रों का . अंतर एक करोड़ योजनका है ॥ १८ ॥ दो करोड़ योजनका मुख है, : "Aho Shrutgyanam" Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) मेघमहोदये अङ्गुलीनां नखाग्रे तु योजनाऽयुतसंख्यया ॥ १९ ॥ एवं कूर्मप्रमाणं च कथितं नादियामले | तस्योपरि स्थिता चेयं सप्तद्वीपा वसुन्धरा ||२०|| कूर्माकारं लिखेचक्रं सर्वावयवसंयुतम् । पूर्वभागे मुखं तस्य पुच्छं पश्चिममण्डले ॥२१॥ पूर्वापरं लिखेद्वेषं वेधं वा दक्षिणोत्तरम् । ईशानरक्षसांवैधं वेधमा नेयमारुतम् ॥२२॥ नाभिशीर्षचतुष्पाद पुच्छकुक्षिषु संस्थिते । तारात्रयाङ्के ह्येतस्मिन् सौरिं यत्नेन चिन्तयेत् ||२३|| कृत्तिका रोहिणी सौम्यं कूर्मनाभिगतं त्रयम् । पृथिव्यां मिथिला चम्पा कौशाम्बो कौशिकी तथा ||२४|| अहिच्छत्रं गया विन्ध्या अन्तर्वेदिश्व मेखला । कान्यकुब्जं प्रयागश्च मध्यदेशोऽयमुच्यते ॥ २५ ॥ चार करोड़ योजनका पाद (पैर) है, दश हजार योजनके अंगुलियोंके नख है ॥ १६ ॥ इस तरह कूर्मका प्रमाण आदियामल शास्त्र में कहा है, उस के ऊपर सप्त दीवाली पृथिवी रही हुई है ॥ २० ॥ सब अवयवों वाले कूर्मके आकार सदृश चक्र बनाना चहिर, उसका पूर्वमें मुख तथा पश्चिम में पुच्छ की कल्पना करनी चाहिये ॥ २१ ॥ पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, ईशान और नैर्ऋत्य, आप और वायव्य इन दिशाओं में अन्योऽन्य बेध होता है ॥२२॥ नाभि, मस्तक, चार पैर, पुच्छ और दोनों कूखों में कृत्तिकादि तीन तीन नक्षत्र लिखकर शनैश्वरका विचार करना चाहिए ॥ २३ ॥ कूर्मकी नाभि (मध्य) भाग में कृत्तिका रोहिणी और मृगशिर ये तीन नक्षत्र लिखना चाहिए और पृथ्वीके मध्यभाग में मिथिला, चंपा, कौशांबी, कौशिकी प्रदेश ॥ २४ ॥ तथा अहिछत्र, गया, विन्ध्याचल, अंतर्वेदी (प्रयागसे हरिद्वार तक गंगा यमुना का मध्य प्रदेश), मेखला (नर्मदा प्रदेश), का "Aho Shrutgyanam" Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनैश्चरचारफलम् रौद्रं पुनर्वसुः पुष्यं कूर्मशिरसि संस्थितम् । रामाद्विर्हस्तिषन्धश्च पञ्चतालच कामरुः || २६॥ बरेलीसर यूर्गङ्गा पूर्वदेशोऽयमुच्यते । आश्लेषा च मघा पूर्वा आग्नेयपाद्गोचरे ||२७|| अङ्गवङ्गकलिङ्गाख्या पञ्चकूदं च कौशलाः । डाहलाच जलेन्द्रश्च हुगलीवल्लभेश्वरम् ||२८|| उड्डीशारयस्तिलङ्ग - श्राग्निदेशोऽयमुच्यते । उत्तरा हस्तश्चित्रा च त्रयं दक्षिणकुक्षिगम् ||२९|| दर्दुरं च महीध्वं च वनं सिंहलमण्डलम् । तापी भीमरथी लंका त्रिकूटो मलयाचलः ॥३०॥ स्वातिर्विशाखा मैत्रं च पादैर्ऋतिगोचरे । नाशिक्वं बगलाणं च धूतमालववस्तथा ॥ ३.१ ॥ बुद्धोतक प्रकाशं च भृगु च कुंकणम् । (२१५) स्वकुब्ज (ग) देश है, इन सबको मध्यदेश कहते हैं ||२५|| पुनर्वसु और पुण्य ये तीन नक्षत्र कूर्मके मस्तक पर लिखना चाहिए | रामादि, हस्तिक, पंचताल, कारु ॥ २६ ॥ बरेली, सरयूनी और गंगा ये देश हैं । साफाल्गुनी ये तीन नक्षत्र कूर्मके अपार पर लिखना चाहिए ॥ २७ ॥ और अंग, बंग, कलिंग, पंचकूट, कौशल, बाह (त्रिपुर नामका देश), जलेन्द्र, हुगली, वल्लभेश्वर ॥२८॥ उडीसा, और तैलेन ये अदिशाके देश हैं । उत्तराफाल्गुनी हस्त और चित्रा ये तीन नक्षन कर्मकी दक्षिण कुक्षि (गले) में लिखना ॥ २६ ॥ दर्दुर, महीध्यवन, सिंहलदेश, नापी, मीमाथी, लंका, त्रिकूट, मलयाचल, ये दक्षिणदेश हैं ॥ ३० ॥ स्वाति विशाखा और अनुरावा येतील नक्षत्र नैर्ऋत्यपैर पर लिखना | नाशिक, बगलाण, धारमालव ॥ ३१ ॥ बुल्ली, तता, प्रकाश, भृगुकच्छ (भरूच), कुंकण, विद्यापुर और मोढेर ये दश "Aho Shrutgyanam" Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) मेघमहोदये विद्यापुंस्त्वमोढेरदेशा नश्यन्ति तादृशाः॥३२॥ ज्येष्ठा मूलं पूर्वाषाढा पुच्छमूले च संस्थिताः । पर्वता अवुदं कच्छ-मवन्तीपूर्वमालकः ॥३३॥ पारसीयबरौदीपौ सौराष्ट्र सैन्धवं तथा। जलस्थानानि नश्यन्ति स्त्रीराज्यं पुच्छपीडने ॥३४॥ उत्तरादित्रिनक्षत्रं पादे वायव्यगोचरे। गुर्जरत्रामहीदेशो मरुदेशो विनश्यति ॥३५॥ जालन्धरस्तथाऽऽभीरो दिल्लीदेशोदधिस्थलम् । मेरुशृङ्गं विनश्यन्ति ये चान्ये कोणसंस्थिताः ॥३६॥ वारुणादित्रिनक्षत्र-मुत्तराकुक्षिसंस्थितम् । नेपालकीरकाश्मीर-गर्जनीखुरासाणकम् ॥३॥ मथुरा म्लेच्छदेशश्च खरकेदारमण्डले । हिमालयश्च नश्यन्ति देशा ये चोत्तराश्रिताः ॥३८॥ रेवती चाश्चिनीयाम्यं पादे ईशानगोचरे । नैऋत्य दिशाके देश हैं ॥ ३२ ॥ ज्येष्ठा मूल और पूर्वाषाढा ये तीन नक्षत्र कूर्मके पुच्छ पर लिखना. अर्बुद, कच्छ, अवन्ती, पूर्वमालवदेश ॥ ३३ ॥ .. पारसी (इरान देश) बर्बरद्वीप, सौराष्ट्र, सिंध, जलस्थान और स्त्रीराज्य ये : पंश्चिम देश हैं, पुच्छ पीडनसे उनका नाश होता हैं ॥ ३४ ॥ उत्तराषाढा श्रवणं और धनिष्टा ये तीन नक्षत्र वायत्र्य पैर पर लिखना । गुजरात, - महीदेश, मरुदेश, जालंधर, भीर, देहली, उदधिस्थल और मेरुश्रंग ये वा यम्य कोणके देश हैं उनका विनाश हों ॥३६॥ शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा और : उत्तराभाद्रपदा ये तीन नक्षत्र कूर्मकी उत्तर कुक्षि (बगल)में लिखना । नेपाल कीर, काश्मीर, गर्जनी, खुरासाण ॥३७॥ मथुरा, म्लेच्छदेश, खर, केदारनाथ, हिमा. लय ये उत्तर प्रदेश हैं उनका नाश हों ॥३८॥ रेवती अश्विनी और भरणी • ये तीन नक्षत्र कूर्मके ईशान पैर पर लिखना । गंगाद्वारा, कुरुक्षेत्र, श्रीकंठ, "Aho Shrutgyanam" Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নালে गंगाद्वारं कुरुक्षेत्र श्रीकण्ठं हस्तिनापुरम् ॥३६॥ अश्वचक्रेकपादश्च गजकर्णस्तथैव च । एते देशा विनश्यन्ति परेऽपीशानसंस्थिताः ॥४०॥ यत्र देशे स्थितः सौरि-स्तत्र दुर्मिक्षविग्रहः । परदेशस्थितिः कुर्याद् विग्रहं पृथिवीभुजाम् ॥४१॥ मरपतिजयचर्याग्रन्थे पुन:..प्रश्वीकूर्मः समाख्यातः कृत्तिकादियमान्तकः । देशादिस्वस्थमृदादि वीक्ष्य कूर्मचतुष्टयम् ॥४२॥ पूर्ववचक्रमालिख्य देशनामःपूर्वकम् । देशकूर्मे भवेत्तत्र यत्र सौरिः क्षयस्ततः ॥४३॥ नगरे नागरं धिष्ण्यं कृत्वादी विलिखेत् ततः। क्षेत्र क्षेत्रभान्यादौ कुर्यात् कूर्म यथास्थितम् ॥४४॥ कूर्माख्यया चक्रमवक्रबुद्धया, . हस्तिनापुर ॥३६॥ अश्वचक्र, एकपाद, गजकर्ण ये ईशान कोण के देश हैं उनका विनाश हो ॥४०॥ जिस नक्षत्र पर शनि हो उस नक्षत्र की दिशाके देश का विनाश हों, या उसमें दुर्भिक्ष पड़े, विग्रह हो, परदेश स्थिति हो, और राजाओंमें परस्पर विग्रह हो ॥ ४१ ॥ .... कृत्तिकासे भरणी नक्षत्र तक के नक्षत्रों का पृथ्वीकूर्मचक्र कहा, उसमें अपने अपने देश आदिके नक्षत्रका विचार कर शुभाशुभ फल कहना । कूर्मचक विद्वानोंने चार प्रकारके माने हैं-देश नगर क्षेत्र और गृह ॥४२॥ये चार प्रकारके कूर्मचक्रमें पूर्ववत् देशके नाम और नक्षत्र पूर्वक याने कूर्म के नक्षत्र और देश मादि. मध्यके हो तो मध्यमें और दिशा विदिशाके हो तो दिशा मौर विदिशामें लिखना चाहिए । इसमें जिस पर शनिका वेध हो या स्थित हो उसका विनाश होता हैं॥४३॥ कूर्मचक्र में नगर संबंधी नक्षत्र नगरमें और देश सं. बांनी नक्षत्र देशमें यथास्थित लिखना चाहिये ॥४४॥ विद्वान जन कूर्मनामके चक "Aho Shrutgyanam" Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मैत्रमहोदय, शनैश्चरैकादं विदुषोऽधिगम्य । शुभाशुभं देशगतं मनीषी, ... जानाति पद्माकृतिनामतः स्यात् ॥४५॥ ॥ इति कूर्मचक्रविवरणम् ॥ ... अथ राहुविचारः। राहुमाहुरिह वार्षिकमीशं, पूर्वजा हि.सुषयः प्रिययोधाः ।... तेन तस्य भुवि चारविचारं, महे परिषिमृश्य विकारम् ॥१॥ मीनमेषगते राहो सुभिक्षं राजविड्वरम् । तुलाकुम्भे महावृष्टि-महर्घ मकरे वृषे ॥२॥ धनुवृश्चिकयो राही प्रजायेत प्रजाक्षयः । ... ईतयोऽनीतयो राज्ञां घोरचोरभयं पथि ॥३॥ दुर्भिक्षं सिंहगे राहो कर्कटे नृपतिक्षयः ।... देशभङ्गछत्रपातो यत्र दृष्टिः शनेर्जने ॥४॥ को सरलत्रुद्धिसे समझ कर, शनैश्चरसे देशमें होनेवाले शुभाशुभ फलादेश को जानते हैं । यह कूर्मचक्र पद्म (कमल) के सदृश आकारवाला है, इसलिये उसको पद्मिनीचक भी कहते है ॥४५॥ . _ अच्छे बोधवाले बुद्धिमान लोग, इस राडको वार्षिक (वर्षसंबंधी ). स्थामी कहते हैं, इसलिये इसके विकारका विचार कर जगत्में उसके चार (गति) के विचारका वर्णन करते हैं- ॥१॥ मीन या मेष राशि पर राहु हो तो मुकाल तथा राजाओंमें विग्रह हो । तुला या कुंभराशि पर हो तो. वर्षा अविक, मकर या वृषराशि पर हो तो धान्यादि महँगा हो ॥ २ ॥ धनु या वृश्चिकराशि पर राहु हो तो प्रजाका नाश करें, ईतिका उपद्रव हो, राजा कुटिल नीतिवाले हों और रास्तेमें चोरोंका बड़ा भय हो ॥३॥ सिंह राशि पर राहु हो तो दुष्काल, और कर्क पर राष्ट्र हो तो राजाका विनाश हो.. जहां शनिकी दृष्टि हो वहां देशका भंग तथा छत्रभंग होता है। मंगल. "Aho Shrutgyanam" Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहुवारफलम् भौमग्रहे सति राहो राजविरोधप्रजाभवनदाहौ । बालगणे कृतकाल: शशिसुतभवनस्थिते तमसि ॥५॥ गुरुभवने विजपीटा रोगा पहुलाः परस्परं चैरम् । शुक्रगृहे विपुलं जलं समर्पताने सुभिक्षं च ॥ ६ ॥ शनिभवमे युद्धभयं सरोगता वस्तुनो महर्घत्वम् । शनिवच्छेषं बाच्यं प्रायस्तमसः प्रकृतिसाम्यात् ||७|| पुनर्विशेषः - यस्मिन् संवत्सरे राहु-मीनराशौ प्रजायते । तस्मिन् मासे भयं विद्यात् प्राघूर्णिकसमागमः ||८|| एवं ज्ञात्वा कर्त्तव्यो यषान्नस्यातिसंग्रहः । संग्रहः सर्वधान्यानां लाभो द्वित्रिचतुर्गुणः ||९|| वर्षमेकं तु दुर्भिक्षं रौरवं परिकीर्त्तितम् । प्राप्ते त्रयोदशे मासे सुभिक्षमतुलं भवेत् ॥ १०॥ (२१९) के घरमें राहु जानेसे राजाओं में विरोध, प्रजा तथा घर में अनिका उपद्रव, बुध घर में राहु हो तो बालकोंको कष्ट हो ॥ ५ ॥ गुरुके वरमें राहु हो तो ब्राह्मणों को कष्ट, रोग अधिक और परस्पर द्वेष हो । शुक्र के घर में राहु हो तो वर्षा अधिक, अन्नभाव सस्ता और सुकाल हो ॥ ६ ॥ शकेि घर में राहु हो तो युद्धका भय रहे, रोग हो और वस्तुका भाव तेज हो । विशेष इसका फलादेश शानिकी तरह समझना, क्यों कि राहुकी और शनि की प्रकृति समान है ॥ ७ ॥ जिस वर्षमें राहु मीनराशि का हो उस महीने में भय हो, किसी अतिविका आगमन हो ॥ ८ ॥ ऐसा जान कर यत्र आदि सब धान्योका संग्रह करना चाहिये, इससे बना तीगुना या चौगुना लाभ हो । ह ॥ एक वर्ष तक बड़ा दुष्काल तथा दुःख रहे, और तेरहवें मास में खूब सुकाल हो । १० || जब कुंभराशि पर राहु हो और यदि उसके संग मंगल सी हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोत्रवे (२२०) कुंभ राशौ यदा राहु-र्देवाद् भौमोऽपि सङ्गतः । तदालोक्य विधातव्यः शणसूत्रादिसङ्गः ॥११॥ भाण्डानि च समस्तानि कांश्यादीनि विशेषतः । संगृह्यन्ते मासषट्कं विक्रेतव्यानि सप्तमे ॥ १२॥ -- लाभश्चतुर्गुणो ज्ञेयो भौमराहुद्वयस्थितौ । नान्यथेति च वक्तव्यं यावद्भक्तिस्थिताविमौ ॥ १३ ॥ सैंहिकेयो यदा याति राशि मकरनामकम् । तदा संवीक्ष्य कर्त्तव्यः पट्टसूत्रस्य सङ्ग्रहः ॥१४॥ धृत्वा मासत्रयं यावत् पट्टसूत्रं विषं तथा । प्राप्ते चतुर्थके मासे लाभः स्यात् त्रिकपञ्चकः ॥१५॥ सैंहिकेयो यदा याति धनराशौ क्रमात् ततः । महिष्यादेस्तदा कार्यः सङ्गहो वसुधातले ॥ १६॥ हयानां च गजानां च गन्धादीनां विशेषतः । लाभश्चतुर्गुणः प्रोक्तो मासे द्वितीयपञ्चमे ॥ १७॥ वृश्चिकस्यो यदा राहु-दैवाद् भौमज्ञसङ्गमः । तदा ज्ञात्वा च कर्त्तव्यः सग्रहो घृतवाससाम् ॥ १८ ॥ शण और सूत्र आदि का संग्रह करना चाहिए ।। ११ ।। सम्पूर्ण कांसा आदि के बर्तन विशेष करके छः महीने तक संग्रह कर सातवें मास में बेचें ॥१२॥ इन राहु और मंगल की स्थितिमें चौगुना लाभ हो, इसमें कुछ अन्यथा नहीं है ॥ १३ ॥ जब मकरराशि पर राहु आवे तत्र रेशमी वस्त्र तथा सूत का संग्रह करना उचित है || १४ || यह वस्त्र सूत तथा विष तीन मास संमह कर चौथे मास में बेचनेसे तीगुना पांचगुना लाभ होता है ॥ १५ ॥ जब धनराशि पर राहु अवे तत्र भैंस घोड़े हाथी और सुगंधी द्रव्य का संग्रह करने से दूसरे और पांचवें मासमें चौगुना लाभ हो ॥ १६ ॥ १७॥ जब वृश्चिक राशिका राहु हो और देवयोगसे मंगल तथा बुध उसके "Aho Shrutgyanam" Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) पञ्चमासान् व्यतिक्रम्य षष्ठे कार्योऽस्य विक्रयः । लाभश्व द्विगुणो ज्ञेयो निश्चितं शास्त्रभाषितम् ॥ १९ ॥ तुलाराशि यदा राहुः संस्थितः संक्रमे रवेः । तदा भवति दुर्भिक्षं पितुः पुत्रस्य विक्रयः ॥ २० ॥ बार्षिकं सन्हं कुर्याद् व्रीहीणां च विशेषतः । नायकानां तथा लोके लाभः कम्बलकांश्यतः ॥ २१॥ कन्यागतो यदा राहुः सम्भवेन्मासपञ्चके । तदा विज्ञाय संग्राह्यं धातकीपिप्पलीद्वयम् ||२२|| मासमेकं च संग्राह्य धातकीपुष्पविक्रयः । मासद्वयान्ते पिपल्या लाभो भवति वाञ्छितः ॥ २३॥ सिंहराशौ क्रमाद् वको यदा राहुः प्रवर्त्तते । अवश्यं सङ्ग्रहः कार्य-स्तदा चोष्येषु वस्तुषु ||२४|| आदौ धान्यकमादाय शुंठीमरिचपिप्पली । साथ हों तो कपड़े का और घी का संग्रह करना चाहिये ॥ १८८ ॥ पांच मास के बाद छठे मास में बेचनेसे दूना लाभ निश्चयसे हो ऐसा शास्त्र में कहा है ॥ १६ ॥ जत्र तुलाराशि का राहु सूर्य की संक्रान्ति के दिन हो तो महा दुष्काल पड़े, यहां तक कि पिता पुत्र को और पुत्र पिता को भी बेच डाले ॥ २० ॥ ऐसे समय में विशेष कर चावलों का संग्रह करना उचित है, उससे तथा कंचल ( ऊनी वस्त्र ) और कांसे से लोक में द्रव्यका लाभ हो ॥ २१ ॥ यदि कन्याराशि का राहु हो तो धातकी तथा पीपल ये दोनों पांच महीने तक संग्रह करना उचित है || २२ || धातकी पुष्प को एक मास संग्रह कर पीछे बेचे और पीपल को दो मास पीछे बेचे तो इच्छित ( मन चाहा ) -लाभ होता है | २३ || यदि सिंहराशि में राहु वक्री हो तो चोग्य वस्तु ( चूसने योग वस्तु) का संग्रह करना उचित है ॥ २४ ॥ प्रथम धनिया -सौठ मिच पीपल जीरा लवण, कोलानोन, सेंधानमक और खैर इनका इस "Aho Shrutgyanam" Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) मेघमहोदये जीरकं लवणं सौवर्चलसैन्धवखादिरम् ||२५|| धृत्वा संवत्सरं यावत् षण्मासान्तेऽस्य विक्रयः । लाभश्चतुर्गुणस्तस्य यदि सौम्येन वेध्यते ॥ २६॥ कर्कटे तु यदा राहु-स्तिष्ठत्येव महाबलः । अवश्यं तस्कराः सर्वे लोकपीडां प्रकुर्वते ||२७|| अल्पतेव भवेद् व्रीहेः समर्धे स्वर्णरूप्यकम् । कांस्यं ताम्रं च संग्राह्यं परमासे लाभदायकम् ||२८|| मिथुने च यदा राहुः स्वोच्चस्थानवशात्तदा । घृतधान्यं समर्धे स्यान्माणिक्यानां समर्धता ॥ २६ ॥ सैंहिकेयों यदा याति भौमग्रहनिरीक्षितः । धृषराशौ क्रमेणैव निधानं लभते जनः ||३०|| संग्रह सर्व धान्यानां घृतं तैलं विशेषतः । कुंकुमं गन्धद्रव्यं च कार्पासश्च गुडस्तथा ॥ ३१ ॥ मासषट्कं च छ्रुत्वैवं विक्रेयं सप्तमे पुनः । ज्ञेयश्चतुर्गुणो लाभः सत्यमेव हि नान्यथा ॥ ३२॥ वर्ष में संग्रह करके पीछे छः महीने बाद बेचे, यदि शुभग्रह ( चंद्र, बुध, गुरु, और शुक्र ) से राहु का वेध हो तो चौगुना लाभ हो ॥ २५॥२६॥ जब कर्क राशि में राहु सबल होतो अवश्य चोर लोकों प्रजाको पीडा करें ॥ २७॥ व्रीहिं (चावल) थोडे हो, सोना रूपा कांसी और तांबा ये सस्ते हों, इनका संग्रह करने से छ: मासमें लाभ हो ॥ २८ ॥ जब मिथुन राशिमें राहु उब स्थानमें होनेसे घी धान्य और माणिक मोती मूँगा आदि सस्ते हों ॥ २६ || यदि वृष राशिका राहु भौमकी दृष्टियुक्त हो तो लोग धन को प्राप्त करें ॥ ३० ॥ सब धान्यका संग्रह करना, विशेष करके वी तैल कुंकुम सुगंधीद्रव्य कपास और गुड - इनका संग्रह छह महीनेतक करके सातवें महीने में बेचने से चौगुना लाभ निश्चयसे होता है उसमें संदेह नहीं ॥ ३२ ॥ और " Aho Shrutgyanam" Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहुचारफलाम् (२२३) कांस्यं च लाक्षा. मनिष्ठा शुंठीमरिचहिंगवः ।, एषां संग्रहणं कार्य षण्मासायधिनिश्चितम् ॥३३॥ मेषराशौ यदा राहुः संस्थितश्चन्द्रसूर्ययोः। देवाद् ग्रहणसंयोगे दुर्भिक्षं भवति ध्रुवम् ॥३४॥ इतिराहुः। द्वादशराशिषु ग्रहणेन राहुफलम् ... उपरागो यदा मेषे पीड्चत्तेऽयं तदा जनः । काम्बोजांधि किराताश्च पाञ्चालाभ्य तैलबकाः ॥ ३५ ॥ वृषे च ग्रहणे गोपाः पशवः पथिका जनाः । महान्तो मनुजा ये च तेषां पीडा गरीयसी ।। ३६ ॥ सूर्यचन्द्रमसोमा॑सो मिथुने च वराङ्गाना। पीडन्यन्ते पाल्हिका वत्सा (लोका) यमुनातटवासिनः ॥३७॥ कर्कटे ग्रहणे पीडा गर्दभानां च जायते । प्राभीरधर्षराणां च पीडा च महती मता ॥ ३८॥ सिंहे च ग्रहणे पीडा सर्वेषां वनवासिनाम् । नृपाणां नृपतुल्यानां मनुजानां धनक्षयः ॥ ३६ ।। कांसी लाख मँजीठ सोंठ मिर्च और हिंगु (हींग) इनका भी छः महीने तक मवश्य संग्रह करना चाहिए ॥ ३३॥ जब मेषराशिमें राहु हो, तब देवयोगसे सूर्य या चन्द का ग्रहण भी हो तो निश्चयसे दुश्काल हो ॥३४॥ .. मेषराशिके ग्रहण में मनुव्योंको पीडा, तथा कंबोज, अंध्र, किरात, पांचाल और तैलंगदेशमें पीड़ा हो ॥ ३५ ॥ वृषराशिक. ग्रहण में गोप (गौ पालक), पशु, मुसाफिर लोग और बड़े लोगोंको पीडा हो ॥३६॥ मिथुनराशिमें सूर्य चन्द्रमाका ग्रहण हो तो वेश्या, बाल्हिक देशके और यमुना नदीके. तट पर वसनेवाले लोगोंको पीड़ा हो ॥ ३७॥ कर्कराशि में ग्रहण हो तो गर्दभों (गदहों) को तथा आभीर और बर्बरोंको बड़ी पीड़ा हो ॥ ३८ ॥ सिंहराशिके ग्रहण में सब बनवासी दुःखी हों. राजा और "Aho Shrutgyanam" Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) मेषमहोदचे कन्यायां ग्रहणे पीडा त्रिपुटाशालिजातिषु । कवीनां लेखकानां च गायकानां धनक्षयः ॥ ४० ॥ तुलायामुपरागे च दशार्णवंककाहवः । मरयश्चापरान्तश्च पीड्यन्ते येऽतिसाधवः ॥४१॥ वृश्चिके ग्रहणे दुःखं सर्वजातेः प्रजायते। यदुम्बरस्य मन्द्रस्य चौलयोधेयकस्य वा ॥ ४२ ॥ यदोपरागश्चापे स्यात् तदामान्त्याश्च वाजिनः । ... विदेहमल्लपाञ्चालाः पीडन्यन्ते भिषजो विशः ।। ४३ ॥ मकरे ग्रहणे पीडा नीचानां मन्त्रवादीनाम् । स्थविराणां नटानां च चित्रकूटस्य संक्षयः ॥ ४४ ॥ कुम्भोपरागे पीड्यन्ते गिरिजाः पश्चिमा जनाः । - तस्करा हिरदाभीरा वैश्याश्च वैदिकादयः ॥ ४५ ॥ मीनोपरागे पीड्यन्ते जलद्रव्याणि सागराः। . धनवानोंका धन नाश हो ॥ ३६ || कन्याराशि के ग्रहण में त्रिपुट और शालिजालके लोगोंको पीडा हो तथा कवि लेखक और गानेवालोंके धन का नाश हो ॥ ४० ॥ तुलाराशिके ग्रहण में दशार्ग बंक काहव मरुभूमि और अपरान्त इन देशों के लोगोंको तथा साधु जनोंको पीड़ा हो ॥४१॥ वृश्चिकराशिके ग्रहण में सब जातिवालोंको पीडा हो. यदुंबर मंद्र चौल मौर. औधेय जाति के लोग दुःखी हों ॥ ४२ ॥ धनराशिके प्रहण में मंत्रिवर्ग को तथा घोड़े को विदेह मल्ल पांचाल देशवासी वैद्य और वैश्योंको पीड़ा हो ॥४३॥ मकरराशिक ग्रहणमें नीच मंत्रवादियोंको पीड़ा हो. स्थविर (वृद्ध) और नट दुःखी हों, चित्रकूटका नाश हो ॥ ४४ ॥ कुंभराशिके ग्रहण में पधिनदेशके पर्वतवासी लोग दुःखी हों, चोर द्विरद भाभीर वैश्य और वैद्य आदि दुःखी हों ॥ ४५ ॥ मीनराशिके ग्रहणमें सागरके अलद्रव्य में पीड़ा हो तथा जलसे भाजीविका करनेवाले मल्लाह आदि लोग और भाट तथा "Aho Shrutgyanam" Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहुचारफलम (२२५) जलोपजीविनी लोका महाद्या ये च पण्डिताः ॥ ४६ ॥ इति सशिग्रहणेन राहुफलम् अथनक्षत्रपीडाफलम् नक्षत्रे स्थितश्चन्द्र-स्तत्र चेद ग्रहणं भवेत् । पीडितं तद् बुधा: प्राहु-स्तत्फलं प्रोच्यतेऽधुना ॥ ४७ ॥ अश्विन्यां पीडितायां स्थान- मुद्गादीनां महर्घता । भरण्यां श्वेतवस्त्रेभ्यो लाभं मासत्रये भवेत् ॥४८॥ कृत्तिकायां हेमरूप्य प्रवालमगिमौक्तिकम् । सङ्ग्रहीतं लाभदायि मासे व नवमे स्मृतम् ॥४६॥ रोहिण्यां कार्पास सङ्ग्रहो लाभदायकः । दशमासान्तरे प्रोक्तः सोमवेधो न चेदिह ॥५०॥ मृगशीर्षेऽपि मञ्जिष्ठा लाक्षा क्षारः कुसुम्भकम् । मह दशमासान्ते लाभद च यथोचितम् ॥ ५१ ॥ घृतं महर्घमार्द्रायां लाभदं मासपञ्चके । तैलालाभ: पुनर्वस्वोर्मासः पञ्चकतः परम् ॥५२॥ पंडित आदि पीडित हो ॥ ४६ ॥ जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा स्थित हो उसमें यदि ग्रहण हो तो विद्वान लोग उस नक्षत्र को पीडित मानते हैं उसका फलादेश को अब कहता हूँ ॥ ४७ ॥ अश्विनी में ग्रहण हो तो मूंग आदि का भाव तेज हो । भरणीमें ग्रहण हो तो सफेद वस्त्रोंसे तीन मासमें लाभ हो ॥ ४८ ॥ कृतिका में हो तो सोना चाँदी प्रवाल (मूंगा) मणि और मोती इनका संग्रह करनेसे नव वें महीने लाभ हो ॥ ४६ ॥ रोहिणी में हो तो सूत कंपास का संग्रह करनेसे देश महीने पीछे लाभ हो, यदि चन्द्रमा वेधित न हो तो ही लाभ होता है। ॥ ५० ॥ मृगशीर्ष में हो तो मँजीठ लाख क्षार और कुसुंत्र आदिका संग्रह करनेसे दश महीने पीछे उचित लाभ हो ।। ५१ । आदर्श में हो तो घी "Aho Shrutgyanam" Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) मेघमहोदये पुष्ये मासैस्त्रिभिाभो भवेद् गोधूमसङ्कहे। आश्लेषायां तु मुद्रेभ्यः प्राप्तिः स्यान्मासपश्चके ॥५३॥ मघाचतुष्टये चोला चणकाः खलु तुष्टये। चित्रायां च युगन्धर्या मासो लाभस्यात्यये ॥५४॥ त्रिपश्चनवभिर्मासैः स्वातौ लाभस्तथा तया । विशाखायां कुलित्थेभ्यः षण्मासे लाभसम्भवः ॥५॥ राधायां कोद्रवाल्लाभो मासैनैवभिराप्यते । ज्येष्टायां गुडखण्डादेः पञ्चमासे धनोदयः ॥५६॥ तन्दुले यस्तथा मूले पूषायां श्वेतवस्त्रतः । उषायां श्रीफलात् पूग्याः सर्वत्र मासपश्चकम् ॥५॥ श्रवणे तुवरीलामो धनिष्ठायां तु माषतः । चणकेभ्योऽपि वारुण्यां तेभ्यः पूभानि पीडने ॥१८॥ लाभस्त्रिमासे निर्दिष्ट-मुभाभ्यां लवणादितः ।. महँगा हो, पांचवें महीने में लाभ हो । पुनर्वसुमें पांच मास पीछे तेल से लाभ हो ॥५२।। पुष्यमें गेहूँ के संग्रहसे तीन महीने में लाभ हो। आश्लेषामें पांचवें महीनेमें मूंगसे लाभ ॥५३॥मवा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफालानी और हस्त इन चार नक्षत्रों में ग्रहण हो तो चोला और चणा आदिसे लाभ हो । चित्रामें ज्वार से दोनास पीछे लाभ हो ॥५४॥ उससे स्वातिनक्षत्रमें तीसरे पांचवें या नव महीने में लाभ हो । विशाखामें कुलथीसे छढे महीनेमें लाभ हो ॥ ५५ ॥ अनुराधा कोद्रव (कोदों) से नौ महीनेमें लाभ हो। ज्येष्ठामें गुड खांड आदिसे पांचवें महीने लाभ हो ॥ ५६ ।। मूलमें चावलोंसे, पूर्वाषाढामें श्वेत (सफेद) वस्त्रोंसे, उत्तराषाढामें श्रीफल और सोपारी से पांचवे महीने लाभ हो ॥५७॥ श्रवणमें तुवर (अरहर) से, धनिष्ठामें उडद से, शतभिषा और पूर्वाभाद्रदमें चनोंसे लाभ हो ॥५८|| उत्तराभाद्रपदमें लवणसे तीसरे म. हीने लाभ हो । रेवती नक्षत्रमें ग्रहण हो तो मूंग और उड़दसे छट्टे महीनेमें "Aho Shrutgyanam" Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केतुचारफलम् मासषट्का द् भवेल्लाभो रेवत्यां मुद्गमाषतः ॥५९॥ प्रागुक्तोत्पातयोगेऽपि नक्षत्रफलमीदृशम् । ज्ञास्वैष सङ्ग्रही यः स्याद् वश्यास्तस्याशु सम्पदः ||३०|| अथ केतुविचारः । रविमण्डलवदेवामौ प्रविष्टाः केतवः सदा । वहन्ते तेजसा पूर्णा दृश्यन्ते ते कदाचनः ॥ ६१ ॥ रविरस्ताचले प्राप्तौ पश्चिमायां निरीक्ष्यते । यदा वह्निशिखाकार-स्तदा तृदयो वदेत् ॥ ६२ ॥ प्रातस्तद्दर्शने लोके शिखालतारकोदयः । स पुच्छस्तारकः सोऽयमित्येवोक्तिः प्रवर्त्तते ॥ ६३ ॥ जातिर्मासवशादेषामुत्पातान्त निरूपिता । फलं यत् प्रतिनक्षत्रं विचित्रं तदधोच्यते ॥ ६४ ॥ अश्विन्यामुदितः केतु- हन्यादश्मकपालकम् । (२२७) लाभ हो ॥ ५६ ॥ इस तरह पहले उत्पात प्रकरण में नक्षत्रों के फल कहे हैं ये सब जानकर कोई संग्रह करे तो लक्ष्मी उसके वशीभूत ( प्राप्त ) होती है ॥ ६ ⚫ || केतु हमेशा रविमण्डलकी तरह अग्रिमें रहते हैं, अर्थात केतु अनि के समान चमकदार हैं और तेज करके पूर्ण हैं, कभी कभी दिखाई पडते हैं ॥ ६१ ॥ सूर्य जब अस्ताचलको प्राप्त हो तब पश्चिम दिशामें देखना, यदि अमिकी शिखाके सदृश आकार मालूम हो तो केतु का उदय कहना चाहिए ॥ ६२ ॥ उस शिवावाले नाराके उसका लोक में प्रातः समय दर्शन हो तो उसे पुच्छडिया तारा कहते हैं ऐसी प्रथा चल रही है ॥ ६३ ॥ महीने के कारण उसकी जाति उत्पातके अन्त निरूपण की गई, अब उसके प्रत्येक नक्षत्र के विचित्र विचित्र फलको कहते हैं ॥ ६४॥ "Aho Shrutgyanam" Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) मेघमहोदये भरण्यां च किरातेशं कृत्तिकायां कलिङ्गम् ||६५|| रोहिण्यां शूरसेनेशं मृगे चोशीनराधिपम् । आर्द्रायां जालणाधीश- मइमकेशं पुनर्वसौं ॥ ६६ ॥ पुष्ये च मगधाधीशं सार्वे केरलका (काशिका) धिपम् । मघायामङ्गनाथं च पूफायां पाण्ड्यनायकम् ॥६७॥ उज्जयिन्यां नृपं हन्या-दुत्तराफाल्गुनीं गतः । दण्डकाधिपतिं हस्ते चित्रायां कुरूभूपतिम् ॥ ६८ ॥ स्वात्यां काश्मीरकम्बोज - भूपतीनां विनाशकः । इक्ष्वाकुकुर लेशानां विशाखायां च घातकः ॥ ६९ ॥ मैत्रे पौण्डमहीनाथं सार्वभौमं तथैन्द्रभे । अन्धमद्रकनाथं च मूलस्थो हन्ति निश्चितम् ॥ ७० ॥ पूर्वाषाढा काशिराज-मुत्तरा हन्ति कैक्रवम् । > अश्विनी में केतुका उदय हो तो अश्मक देशके राजाको कष्ट हो स्था उसका विनाश हो ) भरणी में किरातदेश के और कृत्तिका में कलिंग देशके राजाको कष्ट हो ॥ ६५ ॥ रोहिणीमें सूरसेन देशके राजाको मृगशिर में उशीनर देशके राजाको, आर्द्रामि जालण देशके राजाको, पुनर्वसु अश्मक देशके राजाको कष्ट हो ॥ ६६ ॥ पुष्यमें भगवदेश के अधिपति को, आक्षेत्रामें केरलयाधिपतिको, मवामं अंगनाथको पूर्वाफाल्गुनी में पाय देश के राजाको कष्ट हो ॥ ६७ ॥ उत्तराफाल्गुनीमें उज्जयिनीके राजाको, हस्त में दण्डक देश के पतिको, चित्रामें कुरुदेशके राजाको कष्ट हो ॥६८॥ स्वातिमें उदय हो तो काश्मीर और काम्बोज देशके राजाओंको, विशाखा में इक्ष्वाकु और कुरलदेशके राजाओं कष्ट हो || ६ ||| अनुराधा पौड्रदेश के राजाको ज्येष्टा में सार्वभौम (चक्रवर्ती) को कष्ट हो मूल में अंध्र तथा भद्रदेशके राजाओंको कष्ट हो ॥ ७० ॥ पूर्वाषाढा काशीदेश के राजाको, उत्तराषाढा में देश राजाको, अभिजित में शिविपवेदीशके राजाको श्रवणामें - ६ " Aho Shrutgyanam" Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केतुचारफलम पौधे शिपिपवेदीशं श्रवणे कैकयेश्वरम् ॥७१॥ वासवे पश्चजन्येशं वारुणे सिंहलेश्वरम् । पूर्वभायामगन्नाथं नैमिषेशमुभागतौ ॥७२॥ रेवत्यामुदितः केतुः किराताधिपघातकः । धूम्राकारः सपुच्छश्च केतुर्विश्वस्य पीडकः ॥७३॥ करत्रयीवैष्णवरोहिणीषु, मृगे तथादित्ययुगाश्विनीषु । कुर्याच्छिशूनां नृपतेश्च चूडामन्दोलितास्ते शिखिनो भवन्ति ।। वाराहसंहितायाम्शतमेकाधिकमेके सहस्रमपरे वदन्ति केतृनाम् । बहुरूपमेकमेव प्राह मुनि रदः केतुम् ॥७॥ केतुग्रहणविचार...... आदित्यनासकाले च दुर्भिक्षं प्रायसः पुनः। - ! कयदेशके राजाको कष्ट हो ॥७१॥ धनिया में पांचालदेशके अधिपति को, शतभिषामें सिंहलदेशके राजाको, पूर्वाभाद्रपद में अंगदेशके राजाको, उत्तराभाद्रपद में नैमिषदेशके अधिपतिको कष्ट हो ॥ ४२ ॥ रेवतीमें केतु का उदय हो तो किरातदेशके राजाको कष्ट हो । यदि केतु धूम्राकार और बड़ी पुच्छवाला हो तो वह जगत्को दुःख देता है ॥७३॥ . . - हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, रोहिणी, मृगशीर्ष पुनर्वसु, पुष्य, प्रा लेषा, मघा और अश्विनी इन नक्षत्रों में बालकोंका तथा राजाओंका चूडा कर्म करना चाहिए, चूडाकर्मसे संस्कार किये हुए वे लोग शिखावाले होते .................. - वाराहसंहिता में कहा है कि- कोई पंडित कहते हैं कि केतु की संख्या एकसौ एक हैं, कोई कहते है कि एक हजार हैं। नारदमुनि कहते है कि केतु एकही है मगर यह एकही बहुरूपी है ॥ ७५ : " केतुका सूर्य के साथ ग्रहण हो तो दुकान हो और उस के तिथि "Aho Shrutgyanam" Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) मेघमहोदये तत्तिथिधिष्ण्यवाच्यानि महर्षाणि भवन्ति हि॥७६।। आषाढयोईयोर्मध्ये यदा पर्वत्रयं भोत् । क्षितौ भवेन्महायुद्धं नृएमृत्युं समादिशेत् ॥७॥ यत्र राशौ भवे पर्व, तस्थ वाच्यं क्रयाणकम् । प्रत्यर्घ लभते मूल्यं पीड्यमानं च राहुणा ॥७॥ लोकेऽपि-सीसे गुरुने पूछीओ हीइ इस्यो विचार । मागसिर ससिगहण हुई प्रजा करेसी भार ७६।। कत्तियमासे रविगहण जइ हुइ धरणिसुएण। अंगणगणना विना मरे सुभटनी सेण ॥८॥ एवं वर्षाधिपपरिणते-वत्सरः श्रीगुरोः स्याद्, नक्षत्राख्यः सकलजगति वर्षयोधस्य बीजम् । मन्दस्यापि प्रकटमहिमा वत्सरः स्वीयनान्ना, मत्वा तत्वादु यमिदमितो भाविवर्ष विचार्यम्॥८॥ नक्षत्र के नाम सदृश वस्तुओं का भाव तेज हो ॥ ७६ ॥ श्रापाढादि दो मासमें यदि तीन पर्व (ग्रहण) हो तो पृथ्वामें दड़ा युद्ध हो और राजाओं का विनाश हो ॥ ७७ ॥ जिस राशि पर ग्रहण हो उस राशिवाली वेचनेकी वस्तु बहुत महँगी हों किंतु राहुमे वेधित हो तो उससे इत्र्य प्राप्ति हो ॥७८|| शिज्यने गुरुको ग्रहणका विचार पूछा है - मार्गशीर्ष चन्द्रमा का ग्रहण हो तो प्रजाके पर भा' (कष्ट) रहे॥७६॥ यदि कार्तिक मासमें सूर्य ग्रहण हो और मंगल साथ हो तो गृहकुटुंब बिना मुभद (योद्धा) की सेनाका विनाश हो ॥ ८० ॥ इस प्रकार वर्षाधिपकी परिणतिस नक्षत्रनामका बृहस्पतिका संवत्सर है यह समस्त जगत् में वर्षबोध का बीजरूप है और अपने नाम सदृश प्रगट प्रभाववाला शनिका वर्ष है, ये दोनों तत्वोंसे मानकर भाविवर्ष का विचार करना चाहिये ।। ८१ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयममासपक्षदिननिरूपणम् इति श्रीमेघमहोदयसाधने वर्षयोधग्रन्थे तपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते शनैश्चरबत्सरनिरूपणनामा. पञ्चमोऽधिकारः। अथ अयनमासपक्षदिननिरूपणनामषष्ठोऽधिकारः । अयनम्---- यदि कार्कसंक्रातौ कुजार्कशनिसोमजाः । अल्पनीरं रणं घोरं स्यात् तदा नीचबुद्धिदः ॥१॥ मेघाधिकारे विज्ञेयं प्रथमं दक्षिणायनम् । . ऋतवः प्राडाद्याश्च मासा हि श्रावणादयः ॥२॥ वारेष्वर्कार्किभौमानां संक्रान्तिम॒गकर्कयोः । यदा तदा महर्घ स्या-दीतियुद्धादिकं तदा ॥३॥ कर्का सप्तरव्यादि-वारेषु दश विंशतिः। अष्टाश्चि धृतिौ च शून्यं विश्वास्त्रयोऽथवा ॥४॥ सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत-पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्यजैनेन विरचितया मेवमहोदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकित: शनैश्चरवत्सरनिरूपणनामा पञ्चमोऽधिकारः ! यदि कर्कसंक्रांति के दिन मंगल रवि शनि या बुधवार हो तो थोड़ी वर्षा, घोरयुद्ध तथा नीचबुद्धि दायक हो ।। १॥ मेघका अधिकार में प्रथम दक्षिणायन वर्षादि ऋतु तथा श्रावण आदि मास जानना ॥२॥ यदि मकर और कर्क संकांति के दिन रवि शनि या मंगलवार हो तो धान्य तेज हो, ईति का उपद्रव तथा युद्ध हो ॥ ३॥ विश्वा साधन-कर्कसंक्रान्ति के दिन रविवार हो तो दश विश्वा, सोमवार होतो वीस विश्वा, मंगल हो तो पाठ विश्वा, बुध हो तो बारह विश्वा, गुरु और शुक्रवार हो तो अठारह, शनिवार हो तो - शून्य विश्वा, किन्तु देश विशेषता से अथवा अन्य शुभग्रह का योगसे तीन विश्वा माना हैं ॥ ४॥ कहीं ऐसा भी कहा है-गुरुवार को सोलह और शुक्र "Aho Shrutgyanam" Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... मेरमहोदये . ....... अत्रायमर्थ:- कर्कसंक्रान्ती रविवारे दश-विंशोपका वर्ष, चन्द्रे विंशतिः, मलेऽष्टौं, बुधे द्वादश, द्रौ-गुरुशुक्रवारी त. योरष्टादश, शनी शून्यम, या देशविशेषेऽन्यस्मिन् शुभ. योगे वानयो विंशोपकाः। ................. कचित्-गुरौ षोडश शुक्रे स्यु-रष्टादशविंशोपकाः । दीपोत्सवे वारवशात् केचिदाहुर्दिशोपकान् ॥५॥ दिशो नखाश्च विश्वाख्या सप्त रुद्रो नवाम्बरम् । वर्षविंशोपकानेवं जानीयात् कर्कसंक्रमे ॥६॥ अन्यत्र-कार्तिके शुक्लपक्षे च पञ्चम्यां बारवीक्षणात् । वर्ष वर्षा च धान्यार्थ त्रीण्येतानि विचारयेत् ॥७॥ रवौ चन्द्रे कुजे सौम्ये गुरौ शुक्रे शनैश्चरे। .. दिगविंशतीभावनुप-कलाष्टादश विश्वकाः ॥८॥ लौकिकास्तु-मङ्गल आठ वुधे वलि वारह , सोम शुक्र गुरु करे अठारह। काकडि सङ्कमि रवि शनि बेठो, वार को अठारह विश्वा हैं । कोई दीवाली के दिन जो वार हो उससे विश्वा गिनते हैं ॥ ५॥ कर्कसंकान्ति के दिन रविवारादि का अनुक्रमसे दश वीस तेरह सात ग्यारह नब और शून्य विश्वा हैं ॥ ६ ॥ अन्यत्र कहा है कि--- कात्तिक शुक्ल पंचमी के वारसे भी विश्वा गिनना । वर्ष वर्षा और धान्य के लिये कर्कसंक्रान्ति, दीवाली और कार्तिक शुक्ल पंचमी इन तीनों ही दिनों का विचार करना चाहिये ॥ ७॥ उन दिनों में रविवार हो तो दश, सोमवार हो तो वीस, मंगलवार हो तो आट, वुधवार हो तो सात, गुरुवार हो तो सोलह, शुकवार हो तो सोलह और शनिवार हो तो अठारह विश्वा कहे हैं ॥5॥ लौकिक भाषा में-कर्कसंक्रांति के दिन मंगलवार हो तो पाठ, बुध. बार हो तो बारह, सोम शुक्र तथा गुरुवार को अठारह, शनि तथा रविवार "Aho Shrutgyanam" Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपतदिननिरूपणम् (२३३.). निश्चय सुंदरि! समो विणठो ॥९॥ शनि आइश्चइ मंगलइ जो ककडसंकंति । तीडा मूसा कातरा निहुं मांहे एक हुवंति ॥१०॥ मेषकर्कमकरेऽर्कसंक्रमे, क्रूरवारसहिते जलं नहि । धान्यमल्पतरमेव वत्सरे, विग्रहो विपुलरोगतस्कराः॥११॥ श्रय मासा:--- चैत्रे च श्रावणे मासे पञ्चजीवो यदा भवेत् । दुर्भिक्षं रौरवं घोरं छत्रभङ्गं विनिर्दिशेत् ॥१२॥ द्वादश्यां यदि वा कृष्णे शनिवारी यदा भवेत् । ततश्चतुर्दशे मासे पश्चार्कवारसम्भवः ॥१३॥ . पश्चार्कवासरे रोगाः पञ्चभौमे भयं महत् । दुर्भिक्षं पश्चमन्देषु शेषा वारा, शुभप्रदाः ॥१४॥ .. यदुक्तम्-एकमासे रवेाराः पञ्च न स्युः शुभावहाः । अमावास्यार्कवारेण महर्घत्वविधायिनी ॥१५॥ हो तो निश्चयसे शून्यता हो ॥६॥ यदि कर्कसंक्रांति शनि रवि और मंगल वार को हो तो टीडी चुहा या कातरा इन तीनमें से एक का उपद्रव हो । १०.॥ जो मेष कर्क तथा मकर संक्रांति क्रूरवारको हो तो जल न बरसे, धान्य थोड़ा, विग्रह रोग और चोरीका बहुत उपद्रव हो ॥ ११ ॥ .. . .. चैत्र और श्रावणमासमें जो पांच बृहस्पति हो तो दुर्भिक्ष महा घोर दुःख तथा छत्रभंग हो।॥ १२॥ यदि कृष्ण द्वादशी को शनिवार हो तो उससे चौदहवें महीने में पांच रविवार आते हैं ॥ १३ ॥ जिस मासमें पांच रविवार हो तो रोग, पांच मंगलवार हो तो भय अधिक, पांच शनिवार हो तो दुर्भिक्षता और इनसे अतिरिक्त दूसरा वार पांच हो तो शुभदायक होता है ॥१४॥ एकमासमें पांच रविवार शुभ फलदायक नहीं है। अमावास्या रविवारको हो सो अन्न महगा हो ॥ १५॥ चैत्र और श्रावणमास में पांच रविवार हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) मेघमहोदये चैत्रे च श्रावणे मासे भवेद् यथर्कपश्चकम् । दुर्भिक्षं तत्र जानीयात् छत्रनाशो न संशयः ॥ १६ ॥ मङ्गले म्रियते राजा प्रजावृद्धिस्तु भार्गवे । बुधे रसक्षयो भूम्यां दुर्भिक्षं तु शनैश्वरे ॥ १७॥ लोकेऽपि - पांच शनिश्चर पांच रवि, पांचे मङ्गल होय । चकि चहोडे मेदिनी, जीवे विरलो कोय ॥ १८ ॥ मासाद्य दिवसे सोम-सुतवारो यदा भवेत् । धान्यं मह श्रीन् मासान् भाविवर्षेऽपि दुःखकृत् ॥ १६ ॥ यतः - बुधश्चेत् प्रथमं वारः सर्वमासाद्यवासरे । ततः परं त्रिभिर्मासै मह राजविड्वरः ||२०|| पञ्चायोगे वैशाखे वृष्टिर्गर्भविनाशिनी । पञ्चभौमे भयं वहे षृष्टिरोधाय कुत्रचित् ॥२१॥ प्रतिपत् सर्वमासेषु बुधे दुर्भिक्षकारिणी | दुर्भिक्ष तथा छत्रभंग जानना इसमें संशय नहीं ॥ १६ ॥ पांच मंगल हो तो राजा का मरा हो, पांच शुक्र हो तो प्रजाकी वृद्धि हो, पांच बुध हो तो पृथ्वीमें रस का क्षय हो, पांच शनैश्वर हो तो दुष्काल हो ॥ १७॥ लोकभाषा में भी कहा है कि-पांच शनैश्वर, पांच रवि और पांच मंगल हों तो भयंकर युद्ध हो ||१८|| जिस महीने का पहला दिन बुधवारसे प्रारंभ हो तो सीन महीना धान्य महँगा रहें और अगला वर्ष भी दुःख कारक हो ।। १६ ।। महीने का प्रारंभ में प्रथम बुधवार हो तो उस मास से तीन मास तक धान्य महँगा रहें और राजमें उपद्रव हों || २० || वैशाख मास में पांच रविवार हो तो वर्षा और गर्भका विनाश हों, पांच मंगल हो तो अमिका भय तथा कहीं वर्षा का भी रोध ( रूकावट ) हों ॥ २१ ॥ बुधवार की पडवा सब: महीनों में दुर्भिक्ष करने वाली है, और विशेष कर यदि ज्येष्ठ मास में हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवनमासपक्षविननिरूपणम् (२३५) ज्येष्ठमासे विशेषेण वर्षभाय जायते ॥२२॥ चित्रास्वातिविशाखासु यस्मिन् मासे न वर्षणम् । तन्मासे निर्जला मेघा इति गर्गमुनेवचः ॥२३॥ ग्रहाणां यन्मासे ननु भवति षण्णां निवसति स्तदा गोलो योगः प्रलयपदमिन्द्रोऽपि लभते । सुपाणां नाशः स्याज्ज्वलति वसुधा शुष्यति नदी, भवेल्लोको रंकः परिहरति पुत्रं च जननी ॥२४॥ मार्गादिपनमासेषु शुक्लपक्षे तिथिक्षये । दौस्थ्यं वा छत्रभङ्गोऽपि जायते राजविड्वरः ॥२॥ मार्गादिपञ्चमासेषु तिथिवृद्धिर्निरन्तरम् । कृष्णपक्षे तदाऽसौस्थ्यं प्रजामारिः प्रवर्तते ॥२६॥ मासे मासे अमावास्याप्रमाणं प्रविलोक्यते। तिथिवृद्धौ कणवृद्धिः ऋक्षवृद्धौ कणक्षयः ॥२७॥ वर्षा का नाश करे ।। २२॥ जिस महीने में चित्रा स्वाति और विशाखामें वर्षा न हो उस महीने . में मेघ निर्जल रहें ऐसा गर्गमुनिका वचन है ॥ २३ ॥ जिस महीने में छह ग्रह एक राशि पर हों तो वह गोल योग कहा जाता है, इसमें इंद्र भी प्रलयपद को प्राप्त होता है, राजाओं का विनाश हों, पृथ्वी गरमी में प्रज्वलित हो, नदी सूख जाय और लोक ऐसे निर्धन हो जाा कि मा पुत्रको भी त्याग कर दें ॥ २४ ॥ मार्गशीर्षादि गांग गहीने के शुक्ल पक्ष में तिथि का क्षय हो तो अस्वस्थता छत्रभंग और राजविग्रह हों ॥५॥ मार्गशीर्षादि पांच महीनेके कृष्णपक्षमें तिथिको वृद्धि हो तो अस्वस्थता तथा प्रजामें महामारी हो ॥ २६ ॥ प्रत्येक मासकी अमावास्याका प्रमाण देखें. यदि उसमें तिथिकी वृद्धि हो तो धान्यको वृद्धि और नक्षत्रकी वृद्धि हो तो : धान्य का क्षय हो ॥ २७ ॥ महीनेके नक्षत्र से पूर्णिमा न्यून, समान या "Aho Shrutgyanam" Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) · मेघमहोदये मासीत् पूर्णिमा हीना समाना यदि धाधिका । समर्घ च समाधं च महर्ष कुरुते क्रमात् ॥२८॥ पूर्णिमायाममावास्यां संलग्रस्तारकाक्षयः । महर्षे तत्र पूर्वार्धाद् मासमध्येऽपि जायते ॥२८॥ अमावास्यां यदा चन्द्र उदयास्तं करोति चेत् । महक्षे तदा मासे भवेनुन समर्घता ॥३०॥ कर्कसंक्रमणे मन्दो मकरार्के बृहस्पतिः । तुलार्के मङ्गलो वर्षे तत्र दुर्भिक्षसम्भवः ॥३१॥ भाषाटे कार्तिके मासे फाल्गुनेऽपि च देवतः । जायन्ते पञ्चभौमाश्चेत् पञ्चमासास्तदाऽशुभाः ॥३२॥ अर्द्ध विदेशगमनेऽप्यई शोगितदूषितम् ।। साई म्रियते दुर्भिक्षात् सार्द्धमट्टै च तिष्ठति ॥३३॥ नक्षत्रान्तरगे सूर्य षष्ठश्च चन्द्रमास्थितः । मासमध्ये महर्घत्वं तदा धान्येऽस्ति निर्णयात् ॥३४॥ अधिक हो तो मनुक्रम से सस्ता समान तथा महर्षता हो ॥२८॥ पूर्णिमा और अमावास्या में बराबर तारापात हो तो धान्य का भाव पहले से एक महिने तक महँगा हों ॥ २६ ॥ यदि चन्द्रमा अमावास्या के दिन उदय और अस्त बृहद्नक्षत्रमें हो तो उस मास में निश्चयसे अन्न सस्ता हो॥३०॥ यदि कर्कसंक्रांतिके दिन शनि, मकरसंक्रांतिके दिन बृहस्पति और तुलासंक्रांतिके दिन मंगल हो तो उस वर्षमें दुर्भिक्ष हो ॥ ३१ ॥ आषाढ, कार्तिक और फाल्गुन मासमें यदि दैवयोगसे पांच मंगल आ जाय तो पांच मास अशुभ हो ॥ ३२ ॥ चार भागमेसे अर्द्धभाग का नाश तो विदेश गमनसे, अर्द्ध भागका नाश रुधिर विकारसे और देढ भाग का नाश दुर्भिक्षसे हो जाता है। इस प्रकार ढाई भागका नाश हो कर देढ भाग शेष रह जाता है । २३ || यदि सूर्यनक्षत्र के दिन चन्द्रमा छटा हो तो एक महीना. धान्यभाव, "Aho Shrutgyanam" Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंयनमासपक्षदिननिरूपणम् रक्तमुत्पलवोमं यद्याकाशं तु कातिके । तदा शुभं भाविवर्ष सन्ध्यायां तन्न शोभनम् ॥३५॥ यतः कत्तियमासह गयणलौ जइ रतुप्पलवन्न । तो जाणिजे भडुली जलहर वरसै पुन्न ॥३६॥ हीरमेघमालायां विशेषोऽपिकातीमासे देखिये, रविरत्तडो वियाल । तोजाणिजे पंडिया, वरसह आलोमाल ॥३७॥ तुषारपननं मार्गे पौषे हिमसमुद्भवः ।। माघमासेऽतिशीतं च फाल्गुने दुर्दिनं शुभम् ॥३८॥ 'फाल्गुने कालवातोऽपि चैत्रे किश्चित्पयोहितम् । वैशाखः पञ्चरूपः स्या-ज्ज्येष्ठो धर्मान्वितः शुभः ॥३९॥ मासाष्टकनिमेत्तेना-मुना मासचतुष्टयम् । भाषाढाचं शुभं ज्ञेयं यतो मेघमहोदयः ॥४०॥ तेज हो ॥३४॥ यदि कात्तिकमासमें आकाश कोंपल (नवीन कोमल पत्ती) के सदृश रक्त वर्ण हो तो आगमिवर्ष शुभ होता है मगर वह संध्या समय हो तो अच्छा नहीं ॥ ३५ ॥ कहा है कि-- कार्तिक मास में आकाश यदि कोपल सदृश रक्तवर्ण वाला हो तो हे भडलि! वरसाद पूर्ण वरसे ॥३६॥ हीरमेघमालामें भी कहा है कि--- कात्तिक मासमें सूर्य रक्त वर्णवाला दिग्वाई दे तो हे पंडित. वर्ष बहुत उत्तम जानना ।। ३७ || मार्गशीर्ष में तुषार (ओस) को गिरना, पौषमें हिम (बर्फ) का गिरना, माघमास में अत्यन्त शीत और फाल्गुनमें दुर्दिन होना शुभ है ॥३८ फाल्गुन में तीन पवन, चैत्रमें कुछ बादल, वैशाम्बमें पंचरूप (वायु, वादल, वर्षा, । ज और वीज) और ज्येष्ठ में गमी अधिक ये चिह्न हों तो शुम जानना ॥ ३६ ॥ इन आठ मासमें कहे हुए शुभ निमित्त हो तो आपाढादि चार मास शुभ जानना, इनमें वर्षा अच्छी हो ॥ ४० ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) मेवमहोदये चैत्रे मेघमहारम्भो वर्षस्तम्भविनाशकः । मृलाइ भरणीपर्यन्तं खं निरभ्रं सुभिक्षाकृत् ॥४१॥ चैत्रे वृष्टिकरो मेघोऽयथा मेघाः सुनिर्मलाः । वैशाखे पश्चवर्णाः स्यु-स्तदा निष्पत्तिरुत्तमा ॥४२॥ अत्रेदं विचार्यते-ननु चैत्रे निर्मलता शुभासाभ्रतावाताचा किश्चित् पयोहितमिति वचनम् । स्थानांगवृत्तौ पः बनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे गर्भाः शुभाः सपरिवेषा' इत्यागमाच। उक्तं च लोकेक्षेत्रमास जो वीज विलोवे, धूरि वैशाखे केस धोवे। जेठमास जो जाई तपंतो, कुण राखेजलहर बरसंतो॥४३॥ न बादलं विना विशुद् न द्वितीयं नैर्मल्यस्य बहुधा बचनात् । यत: चैत्रमास जइ हुई निरमलो, चारमास वरसे गलगलओ। जिहां २ वादल तिहां २विणास, मानवधाननीमेल्है पास ४४॥ चैत्रमासमें अधिक वर्षा हो तो गर्भका विनाश हो । मूल से भरणी पर्यन्त आकाश बादल रहित निर्मल दीखे तो सुभिक्ष कारक होता है ।।४१॥ चैत्रमासमें दृष्टिकारक बादल हो या अच्छे निर्मल बादल हो और वैशाखमें पंच वर्णवाले बादल हो तो उत्तम जानना ॥ ४२ ॥ चैत्रमास निर्मल हो तथा बादल सहित हो, वायु चले और कुछ वर्षा हो तो शुभ समय होता है । स्थानांगसूत्रकी वृत्तिमें पवन बादल और वर्षावाला तथा परिमंडलवाला गर्भ चैत्रमासमें शुभमाना है । लौकिक भाषामें कहा है कि-चैत्रमास में बिजली चमके, वैशाखमें किंशुकपुष्प की धूलिधो जाय याने वरसाद के द्वारा किंशुकपुष्पका रंगसे धूलि रंगवाली हो जाय और ज्येष्ठमास बहुत तपे तो बहुत अच्छी वर्षा हो ॥४३॥ चैत्रमास में बादल तथा बिजली न हो और आकाश निर्मल हो, इत्यादि बहत प्रकारके मत भेद हैं । जैसा कि- चैत्र . "Aho Shrutgyanam" Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपक्षविननिरूपयाम् (२३९) चैत्रे खडहडि नहुकरे, मलयपवन नदु होय । तो जाणे तुं महुली, गम्भविणास न कोय ॥४५॥ ___अत्रोच्यते-स्याबाद एवं प्रमाणं, विद्युतोऽभ्राणि वाम दोषाय; जलप्रवाहे तु दोष एवमहावृष्टिरूपात् । चैत्रे हि मी. ने सूर्ये सति विद्युदभ्रं वा उक्तमेव, यतस्त्रैलोक्यदीपकेमीनसंक्रान्ति काले च पौष्णभोग्यदिने भवेत् । यत्र विद्युच्छुभो वात-स्ततो गर्भो ध्रुवं भवेत् ॥४६॥ जलच्छटानां गर्भरूपादेव न दोषः । अथ यदि मेषे सू. यः कदापि तत्राभ्रमप्युक्तं प्राक् । तदेवश्रीहीरसूरयोऽप्याटु:चित्तस्य पीय तझ्या बउथि तह पञ्चमीम अम्भाई। पुब्बोत्तस्वायाओ महासभिक्खं बियाणाहि ॥४७॥ ___ स्थानांगे घनवृष्टिरुक्ता सा तु बिन्दुमात्रैव चैत्रे किशित् मास यदि निर्मल हो तो चार मास बहुत अच्छी वर्षा हो । जहां २ बादल हों वहां २ वर्षाकी हानि और मनुष्य धान्यकी प्राशा छोड दें ॥ ४४ ॥ चैत्रमें जलप्रवाह न चले और मलयाचल का पवन न चले, तो गर्भ का नाश न हों; ऐसा भडलीका वाक्य है ॥४५॥ यहां स्याद्वाद ही प्रमाण माना है- चैत्र में बिजली या वादल हों तो दोष नहीं, किंतु अधिक वर्षा हो कर जलप्रवाह चले तो दोष है । चैत्र मास में मीन के सूर्य होने पर बिजली और बादलका होना श्रेयः माना जाता है । जैसे त्रैलोक्यदीपकमें कहा है कि-- मीन संक्रान्तिमें रेवतीनक्षत्र के भोग्य दिनों में जहां बिजली भौर वायु हो वहां निश्चयसे गर्भ होता है ॥ ४६ ॥ गर्भ के कारण यदि जलके छींटा गिरे तो दोष नहीं । मेषके सूर्य में किसी समय बादल होना पहले कहा उस को श्री हीरविजयसूरि भी कहते है-- चैत्र मास की दूज, तीज, चौथ और पंचमी के दिन बादल हों और पूर्व या उत्तर दिशा का पवम चले तो बड़ा सुकाल जानना ॥ ४७ ।। स्थानांगसूत्र में जो वर्षा होना "Aho Shrutgyanam" Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) मेघमहोदय पयोहितमित्युक्ते । यदुक्तम् घनावृष्टौ यदा माघ-श्चैत्रो निर्मलतां गतः । यसुधान्या तदा भूमि-बूंष्टिश्चैव मनोरमा ॥४८॥ पुनरपिचित्तस्स कसिण पञ्चमी नहु वरसइ दुद्दिणं पुणो । फुणइ गहिऊण उच्चभूमि ता वावह सयल धन्नाणि ॥४६॥ 'चैत्रे च गौरिसंक्रान्तौ' इत्यादिनाने घृष्टिवक्ष्यते । तथापिचैत्रमासे च देवेशि! शुक्ले च पञ्चमीदिने । सप्तम्यां च त्रयोदश्यां यदा मेघः प्रवर्षति ॥५०॥ . . तारकापतनं चान्द-गर्जनं विद्युता सह । वर्षाकालस्तदासन्नो नात्र कार्यविचारणा ॥५॥ ततश्चैत्रे यथायोग्यं साभ्रता वा निरभ्रता । शुभाय चोभयं लोके विपरीतं न सौख्पदम् ॥५२॥ तत एव वृष्टिनिषेधे दिननियमः पंचमिरोहिणी सत्तमिअद्दा, नवमिपुप्फ नइ पुनमचित्ता। लिखा है वह बिन्दुमात्र होना श्रेयस्कर कहा है । यति मात्र मासमें अधिक वर्षा हो और चैत्रमास निर्मल हो तो भूमि पर अच्छी वर्षा हो और धान्य बहुत हों ॥ ४८॥ फिर भी कहा है कि- चैत्रकी कृष्ण पंचमीके दिन वर्षा न हो मगर दुर्दिन हो तो अच्छी भूमि देखकर सब प्रकारके धान्य बोना चाहिये॥ ४६॥ हे पार्वति. चैत्र मासकी शुक्ल पंचमी सप्तमी और त्रयोदशीके दिन वर्षा हो ॥ ५० ॥ तारा गिरे और विजलीके साथ मेघ गर्जना हो तब वर्षा काल समीप आया जानना इसमें संदेह नहीं ॥५१॥ चैत्र मासमें यथायोग्य वादल का होना या बादलका न होना ये दोनों लोक में शुभं माने हैं और उससे विपरीत हो तो सुखकारी नहीं होता ॥५२॥ इसलिये ही वर्षात निषेधके नियम दिन बतलाते हैं- चैत्रमासमें पंचमीके दिन "Aho Shrutgyanam" Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपक्षदिननिरूपणम् (२४१) चैत्रमास वरसंता दिट्ठा, मौ सीयालू गब्भ विट्ठा ॥५३॥ आषाढं रोहिणी हन्ति रौद्रं च श्रावणं हरेत् । पुष्यो भाद्रपदं हन्या-चिन्नाप्याश्विनषृष्टहृत् ॥५४॥ साम्रता तृक्ता-~ चैत्रस्य शुक्लपञ्चम्यां रोहिण्यां यदि दृश्यते । साभ्रं नभस्तदाऽऽदेश्या गर्भस्य परिपूर्णता ॥ ५५ ॥ वैशाखे गर्जितं भूमिः सजला पचनो घनः । उष्णो ज्येष्ठो विशिष्ठः स्यात् किमन्यैर्गर्भचेष्टितैः ॥५६॥ खं पञ्चवर्ण वैशाखे विद्युत्पाते खटत्कृतिः । तदातिवर्षा नभसि धान्यनिष्पत्तिरुत्तमा ॥ ५७ ॥ प्रथाधिकमासः -- शाके वाणकराङ्क विरहिते नन्देन्दुभिर्भाजिते, शेषाग्नौ च मधुश्च माधवः शिवे ज्येष्ठस्तु खे चाष्टके । रोहिणी, सप्तमी के दिन र्द्रा, नवमीक दिन पुष्प और पुर्णिमाके दिन चित्रा वर्षता हुआ देख पड़े याने उस दिन वर्षाद हो तो गर्भका विनाश हो ॥५३॥ रोहिणी युक्त पंचमी के दिन वर्षा हो तो आषाढ मास में वर्षा न हो, इसी तरह आर्द्रा श्रावणमास में, पुष्प भाद्रपदमासमें और चित्रा आश्विन मास में वर्षाका नाश कारक है ||५४|| चैत्रशुक्ल पंचमी के दिन रोहिणी हो और उसी दिन आकाश बादल सहित देखने में आवे तो गर्भकी पूर्णता जाननी ॥ ५५ ॥ वैशाख में मेघ गर्जना हो, भूमि जलवाली हो, वर्षा हो, पवन चले और ज्येष्ठ मासमें अधिक गरमी पड़े तो श्रेष्ठ है ॥ ५६ ॥ वैशाख मास में आकाश पंच वर्णवाला हो, बिजली गिरे, तो बहुत वर्षा हो और धान्यकी उत्पत्ति उता हो ॥ ५७ ॥ वर्तमान शकसंवत् के अंकों में से ६२५ वटा दो, जो शेष बचे उसमें १६ का भाग दो, जो तीन शेष रहे तो चैत्रमास अधिक जानना, ग्यारह शेष ३६ "Aho Shrutgyanam" Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (RUR) मेयमहोदवे प्राषाढो नृपती मम शरके भाद्रश्च विश्वाशके, नेत्रे चाश्विनकोऽधिमास उदितो शेषेऽन्य स्थासहि१८ मात्रिंशत् संमितैर्मासैर्दिनैः षोडशभिस्तथा । चतुर्नाडीसमेतैश्च पतत्येकोऽधिमासकः ॥५६॥ यस्मिन् मासे सिते पक्षे पञ्चम्यामेव भास्करः। संक्रामत्यधिको मासः स स्थादागामि वत्सरे ॥१०॥ असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटः स्यादु, : हिसंक्रान्तिमास: क्षयाख्यः कदाचित् । क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात, तदा वर्षमध्येऽधिमासव्यं च ॥३॥ यथासंवत् १७३८ वर्षे पौषमासक्षयः, आश्विनचैत्री कृ. द्धौ । न चैवं बाशिन् मासेभ्योऽगिपि मलमाससम्भवाः । यदा एकस्मिन् वर्षे अमावास्यान्तमासहये संक्रान्तिरहितत्वं स्यात्, तदा तयोरेक एवमलमासो यो द्वात्रिंशन् मासेभ्य उप. रहे तो वैशाख, शून्य या आठ शेष रहे तो ज्येष्ठमास, सोलह बचे तो आषाढ, पांच बचे तो श्रावण, तेरह बचे तो भाद्रपद और दो शेष रहे तो प्राश्विन अधिक मास जानना। किंतु इन से अन्य शेष रहे तो कोई मास अधिक नहीं होता ॥ ५८ ॥ ३२ मास, १६ दिन और ४ घडी बीतने पर अधिक मासका संभव होता है ॥ ५६ ॥ जिस महीनेकी शुक्ल पक्षकी पञ्चमीके दिवस सूर्यसंक्राति हो वही महीना भागेके वर्षमें अधिक मास होगा ॥६० ॥जिस महीने में सूर्यसंक्रान्ति न हो वह अधिक मास कहा जाता है । और जिसमें दो संक्रांति हो वह क्षय मास कहलाता है। प्रायः क्षयमास कार्तिकादि तीन महीनों में ही होता है और जब कभी क्षय मास होता है तो उस वर्षमें अधिकमास दो होते हैं। परन्तु यहां चान्द्रमांससे गणना करना चाहिये। अर्थात् अमावास्यासे ममावास्या पर्यन्ता १० "Aho Shrutgyanam" Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमा सपत्र दिननिरूपणम् (२४३) रि जायते । अपर: संक्रान्तिरहितोऽपि न मलमासः, चाकालाधिक्यात कालाधिकस्यैव मलमासत्वात् पूर्वादधिमासादारभ्य वात्रिंशन्मासादवम् यः पूर्वोऽसंक्रान्तिमासः स शु. द्धोऽन्यस्तु मलमासः । तस्य फलम् - दुर्भिक्षं श्रावणे युग्मे पृथ्वीनाशः प्रजाक्षयः । भाद्रपश्तिये धान्य- निष्पत्तिः स्याद् यथेहितम् ॥६२॥ आश्विनद्वितये भूम्यां सैन्यचीररुजां भयम् । सुभिक्षं केचनाप्या दुर्भिक्षं दक्षिणादिशि ॥ ६३ ॥ सुभिक्षं कार्त्तिकयुग्मे क्वचिद् दुःखं रणन्नृणाम् । मार्गशीर्षयुगे देशे जायते परम सुखम् ॥ ६४ ॥ पौषयुग्मे सुभिक्षं च मङ्गलं नृपतेर्जयः । राजदण्डपरो लोको लोके मतिविपर्ययः ॥ ६५ ॥ माघद्वये भुवि क्षेमं राज्यानां च भयं तथा । सुभिक्षं फाल्गुनयुगे क्षत्रियानां शिवं भवेत् ॥६६॥ चैत्रद्वये शुभं धान्ये वैश्यानामुदयो महान् । श्रावण दो हो तो दुष्काल, पृथ्वीका नाश और प्रजाका क्षय हो । दो भाद्रपद हो तो इच्छित धान्यकी प्राप्ति हों ॥ ६२ ॥ दो आश्विन हो तो सैन्य, चोर और रोगका भय हो । कोई कहते है कि सुभिक्ष हो परंतु दक्षिण दिशा में दुर्भिक्ष हो || ६३ दो कार्त्तिक हो तो सुभिक्ष हो और युद्धसे मनुष्यों को दुःख हो । दो मार्गशीर्ष हो तो परम सुख हो ॥ ६४ ॥ पौष मास दो हो तो सुभिक्ष, मंगल और राजाओंका जय हों । तथा लोक में राजदंड हो और मति विपरीत हो ॥ ६५ ॥ माघ मास दो हो तो पृथ्वी - पर मंगल हो और राजाओंका भय हो । दो फाल्गुन हो तो सुभिक्ष हो और क्षत्रियों को कुशल हो ॥ ६६ ॥ चैत्र मास दो हो तो शुभ है, धान्य प्राप्ति हो भौर वैश्योका अच्छा उदय हो । दो वैशाख हो तो धान्य की "Aho Shrutgyanam" Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये वैशाखयुग्मे धान्यानां निष्पत्तिरशुभंकचित् ॥६॥ ज्येष्ठमये नृपध्वंसो धान्यनिष्पत्तिरुक्तमा। . . . "अयाषांढे यथाकिश्चित् खण्डवृष्टिः कचित् पुनः ॥६॥ मासबादशके वृद्धेरेवं फलमुदीरितम् । चैत्रादि सप्तके वृद्धि-रित्येतत् प्रायिकं मतम् ॥६९॥ कचिद् द्विकार्तिके दुःखं हिमावेऽप्यशुभंमतम् । . बिफाल्गुने चह्निभय-मशुभ माधवछये ॥७॥ उदये कृष्णतृतीया ततश्चतुर्थीह संक्रमो यत्र। तस्मादधिको मासश्चतुर्दशेमासि सम्भवति॥७॥ तिथिक्षयवृद्धिफलम्--- . एकत्र पक्षे वितिथिप्रपाते, महर्घमन्नं जनमध्यवरम् । . तस्पक्षनाशे मरणं नृपाणां,मासक्षये म्लेच्छवती वसुन्धरा ॥७२॥ त्रयोदशदिनैः पक्षो भवेद् वर्षाष्टकान्तरे। ... निष्पत्ति हो और कचित् अशुभ हो ॥ ६७ ॥ ज्येष्ठ मास दो हो तो राजाका विनाश और धान्य की प्राप्ति उत्तम हो । दो आषाढ हो तो कुछ व्यथा और कहीं खंडवृष्टि हो ॥६८॥ इसी तरह अधिक बारह मासका फल कहा, परंतु चैत्रादि सात मास अधिक होते हैं ऐसा बहुत लोगोंका मत है ॥ ६६ ॥ क्वचित्- दो कार्तिक हो तो दुःख, दो माघ मास हो. तो अशुभ, दो. फाल्गुन हो तो अग्निका भय और दो वैशाख हो तो अशुभ ऐसा भी किसीका मत है ।। ७० ॥ जिस दिन उ.यमें कृष्ण तृतीया हो औः पीछे चतुर्थी हो उस दिन यदि संक्रान्ति हो तो उस से चौदहवें भास अधिक पामकी संभावना ोती है ।।७१॥ इति अधिक मासफल। ___ यदि एक ही पक्ष में दो तिथिका क्ष हो तो अनाज महँगे हो और लोकमें वैर भाव हों ! पक्षता क्षय हो तो राजा का मग्ण -हो और महीना का क्षय होतो पृथ्वी पर म्लेच्छों का उपद्रव हों ॥ ७२ ।। आठ वर्ष के "Aho Shrutgyanam" Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासंपनदिननिरूपणम् तदा नगरभङ्गः स्या-च्छन्नभङ्गो महर्षता ॥७॥ .. मतान्तरे-अनेकयुगसाहरू गद् देवयोगात् प्रजायते। प्रयोदशदिनैः पक्ष-स्तदा संहरते जगत् ।।७४॥.. यवन्धकारपक्षस्थ त्रुटिर्मासचतुष्टये।........ निरन्तरं तदा भूम्यां सुभिक्षं विपुलं जलम् ॥७॥ सम्पते वरिसकाले पढमे पक्खे वि जइ पडेइ । . . . तिही तह देसभङ्ग-रोरवं हवइ बहुलोगसंहारो ॥७॥ पञ्चमी श्रावणे हीना सप्तमी भाद्रपादके। . . . . . . आश्विने नवमी नेष्टा पौर्णिमासी च कार्तिके ॥७॥ भाद्रपदे पौषयुगे सितपक्षे पतति या निथिस्तस्याः। विगुणदिनपमरणं यदि वा दुर्भिक्षमतिरौद्रम् ।।७८॥ ..: यस्मिन् मासे शुक्लपक्षे तृतीया वा चतुर्थिका । पतेत्तदा मुद्गघृतमहर्घत्वं भवेद भुवे ॥७९॥ अन्तर में तेरह दिनका पक्ष होता है इसमें नगर का भंग, छत्रभंग और धान्यकी महर्घता हों !! ७३ ॥ मतान्तरसे-- अनेक हजारों युग बीत जाने पर दैवयोगस तेरह दिनका पक्ष होता. है, इसमें जगत् का नाश होता है ॥ ७४ ।। यदि चौमासेके चार मास में कृणपक्षका क्षय हो तो भूमि पर सर्वदा बहुत वर्षा हो और सुभिक्ष हो । ७५ ।। यदि वर्षा कालमें प्रथम पक्ष याने शुक्लपक्षमें तिथिका क्षय हो तो देशका नाश, घोर उपद्रव और मनुष्योंका संहार हो ॥ ७६ ॥ श्रवण में पंचमी, भादोंमें सप्तमी, आश्विनने नवमी और कार्तिक पूर्णिमाका क्षय हो तो अनिष्ट है ॥ ७ ॥भाद्रपद, पौष और माघ मासमें शुक्लपक्षकी तिथिका क्षय हो तो उससे दूगुने दिनों में राजा का मरण अथवा महा घोर दुर्भिक्ष हो ॥ ७८ ॥ जिस महीने में शुक्ल पक्षकी तृतीया या चतुर्थीका क्षय हो तो उस महीनमें पृथ्वी पर मूंग और घी महँगे हों ॥७६।। भाद्रपद पौष और माघ मासमें उपरोक्त तिथिका "Aho Shrutgyanam" Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवमहोदय भाद्र पौषे तथा माने विशेषेख मस्यता । यन्माले दशमीच्छेद-स्तदा पुनमहर्घता com श्वेतपक्ष प्रतिपदा पसामी वाचतुर्दशी। वर्द्धिता चेत् सुभिक्षाय छिन्ना दुर्भिक्षकारिका॥4॥ चतुर्दशीत आषाढी हीना वर्षे यदा भवेत् । भावाश्रयेण तमाच्यं महर्घ च समे समः ॥८२॥ आषाढी स्वधिका तस्या समर्थ तु तदा मतम् । संवत्सरस्य वतिन्याः शन्यमाने तु निष्कणम् ॥१३॥ चैत्राद् भाद्रपदं याव-चक्लपक्षे यदा त्रुटिः। तदा क्वचिवोपपत्ति-रल्पधान्योदयः क्वचित् ॥८४॥ मार्दा ज्येष्ठे नष्टचन्द्र प्रथमायां पुनर्वसुः।। द्वितीया पुष्यसंयुक्ता जलं धान्यं तृणं न च ॥८॥ कृष्णपक्षे श्रावणस्यैकादश्यां रोहिणी च भम् । बाबद घटीप्रमाणं स्याद् धान्ये तावद् विशोपकाः ॥८६॥ मादित्याद वारगगानात् प्रतिपत्प्रमुखा तिथिः । क्षय हो तो विशेष करके अन्नादिककी तेजी हो । जिस मासमें दशमी का क्षय हो तो घी महँगा हो ॥८०॥ शुक्लपक्षमें प्रतिपदा, पंचमी या चतुर्दशी बढे तो सुभिक्ष और घटे तो दुर्भिक्ष करें ॥ ८१॥ जिस वर्षमें यदि चतुर्दशीसे भाषाढ पूर्णिमा हीन हो तो अन्न महँगा हो और सम हो तो समान भाव रहे ॥८२ ।। यदि अधिक हो तो अन्न सस्ते हों और क्षय हो तो धान्य प्राप्ति न हो ॥८३॥ यदि चैत्रमाससे भाद्रपद तक शुक्लपक्ष में तिथि का क्षय हो तो कचित् ही थोड़ी धान्य प्राप्ति हो ॥८४ ॥ ज्येष्ठ मासकी अमावस के दिन आ , पड़वा के दिन पुनर्वसु और द्वितीयाके दिन पुष्य नक्षत्र हो तो तृण, धान्य और जलका प्रभाव हो ॥८५ ।। भावण मासकी कृष्ण एकादशीके दिन रोहिणी नक्षत्र जितनी घडी हो, उतने ही प्रमाण धान्य का विशोपका (विश्वा) जानना ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपसदिननिरूपणम् भान्विन्यादि च नक्षत्रं संमोल्य द्विगुणीकृतम् ॥७॥.. त्रिभिर्भागैयं शेषं तदा सुभिक्षमादिशेत् ।। शन्ये भवति दुर्भिक्ष-मेकशेषे शुभाशुभम् ॥८८॥ प्राषाढमासे प्रथमे च पक्षे, दृष्टे निरभ्रे रविमण्डले च। नैवाशनि व भवेष वर्षा, मासयंवर्षति वासबस्तु॥८९॥ षष्ठी यदर्कवारेण यन्मासे यत्र पक्षके । अन्नं चुनं महर्घ स्याद् न्यूने न्यून तिथौ ततः ॥१०॥ आश्विने च सिते पक्षे दशम्यादिदिनत्रये। गर्जितं विद्युतं कुर्यात् तगोधूमविनाशकम् ॥११॥ ज्येष्ठे मूलं पूर्णिमायां शुभं वर्ष हिताय तत् । मध्य प्रतिपयोगे द्वितीयायां तु दुःखकृत् ॥ ९२॥ बदुक्तम्-ज्येछे मुलं खितीयायां सर्वधीजविनाशकृत् । अवृष्टया चातिवृष्टया वा इत्येवं मुनिरजीवीत् ॥९३॥ रविवारसे वार प्रतिपदा आदि गत तिथि और अश्विनी आदि गत नक्षत्र, इनको जोड़कर दूना करो ॥ ८७ ॥ पीछे इसमें तीन का भाग दो, यदि दो शेष बचे तो सुभिक्ष, शून्य शेष बचे तो दुर्भिक्ष, और एक शेष बचे तो शुभाशुभ (समान) जानना ॥ ८८ ॥ आषाढ मासके शुक्लपक्ष में रवि माडल यदि बादल रहित हो तथा गाज वीज या वर्षा न हो तो आगे दो महीने तक वर्षा हो ॥८६॥ जिस महीने में जिस पक्षमें षष्ठी यदि रविवार युक्त हो तो घी और भन्न महँगे हों, तिथि थोड़ी हो तो थोड़ा और भधिक हो ती अधिक तेज हो ॥६०॥ माश्विन मासके शुक्लपक्ष में दशमी आदि तीन दिन गर्जना और बिजली हो तो गेहूँ का नाश हो ॥६॥ ज्येष्ठ मासकी पूर्णिमाके दिन मूल नक्षत्र हो तो वर्ष भर शुभ करे, प्रतिपदा के दिन हो तो मध्यम और द्वितीया के दिन हो तो दुःखकारक होता है ॥१२॥ कहा है कि- ज्येष्ठ मासकी दूज के दिन मूलनक्षत्र हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) मेघमहोदये अत्रेदं विचार्य मामः शुक्लादिः कृष्णादिर्वा, यदि शुक्लादिस्तदा. "यदि भवति कदाचित् कार्तिके नष्टचन्द्रे, . शनिकुजरविवारे ज्येष्ठमासेऽपि दर्शे । द्विगुणगुणवितर्काद् रत्नतुल्यं च धान्यम्, बुधगुरुभृगुचन्द्रे मृत्तिकातुल्यमन्नम् ॥१४॥ ग्रन्थान्तरेयदि भवति कदाचित् कार्तिके नष्टचन्द्रे, _शनिकुजरविवारे स्वातिनक्षत्रयोगः । इहभवति तथायु-धमाञ्च योगस्तृतीयः, ... . क्षयविलयविपत्तिः छत्रभङ्ग त्रिपक्षे ॥९॥ .. लोकेऽपि-काती वदि अमावसी, रवि शनि.मङ्गल होय। स्वाति आयषमान् जो मिने, दरभिख छत्रभंग जोया श्रावणे प्रथमे पक्षे यद्यश्विन्यां जलं भवेत् । सब प्रकारके बीजोंका नाश करे, वर्षा न हो या अतिप्रष्ट हा. एसा मुनियों ने कहा है ॥ ६३ ॥ यहां शुकादि या कृष्णादि मास का विचार करना, यदि शुक.दि हो तो-- ३.ति, मासकी अमावस के दिन शनि मंगल या रविवार हो ऐस ज्येष्ठ मासकी अमास के दिवस भी शन्यादि हों तो रनके तुल्य धान्य बिके अर्थात् बहुत महँगे हों । यदि बुध, गुरु, शुक्र और · चन्द्र वार हो तो मृत्तिा तुल्य अर्थात् अत्यन्त साता धान्य बिके ॥६४॥ अन्य ग्रन्थ में- यदि यातितकी अमावस शनि, मंगल या रविवार को हो तथा स्वाति नक्षत्र और आयु मान् योग भी हो तो क्षय, प्रलय, विपत्ति हो और तीन पक्षम छत्रभ हो ॥६५॥ लोक भाषामें भी कहा है किकार्तिक कृष्ण अमावास्या रवि, श ने यः मंगलवार को हो तथा साथ में स्वातिनक्षत्र और आयुष्मान् जोग भी हो तो दुर्भिक्ष तथा छत्रभंग हो ॥६६॥ श्रावणके प्रथम पक्षमें यदि अश्विनी नक्षत्रके दिन जल वरसे तो दुर्भिक्षकारी "Aho Shrutgyanam" Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपक्षदिननिरूपणम् (२५९) तदातीव सुभिक्षं स्यादपयोगेषु च सत्स्वपि ॥७॥ शुक्लस्य प्रथमत्वेऽश्विन्या असम्भव एव । 'आषाढ धुरि अष्टमी' इत्यग्रे वक्ष्यमाणमपि न मिलति । कृष्णाष्टम्या लक्षणे "धुरि' इति शब्दवाच्यस्यादरभावात्। अन्यदपि प्रा. षाढकृष्णपक्षस्य तिथिवाराभ्रादिसर्व चतुर्मासमध्ये वीक्षणीयं स्यात् । ज्येष्ठामावासोचिहं चाषाढपूर्णिमायाः प्राक् षोडशदिने च । एतेन ज्योतिःशास्त्रोक्तं मासश्चैत्रः सितादिति । कथितं तत्प्रमाणं स्यान्मेघमालाविदां पुनः ॥१८॥ यद्यपि लोकेधुरि अजुयालो पक्खडो, पिछै अंधारो होइ । इणपरि जोइसगणि सदा, मकरिस सांसो कोइ ॥१९॥ तथा मेघमालायामपि-- पौषस्य कृष्णसप्तम्यां यद्यभ्रेर्वेष्टितं नमः । दुष्ट योगों के होने पर भी अत्यन्त सुभिक्ष होता है ॥ ६७ ॥ यहां पहला शुक्लपक्ष में अश्विनी नक्षत्र का असंभव होता है। प्राषाढ कृयण अष्टमी का फल जो आगे कहेंगे वह भी नहीं मिलता। कृणाष्टमी लक्षण में धुरि शब्द है वह शब्द वाचक है । दूसरी जगह भी भाषाढ कृपक्ष से चतुर्मास माना जाता है | तिथि वार और बादल मादि सब चातुर्मास में देखना चाहिये । ज्येण अमावस आषाढ पूर्णिमा के पहले सोलह दिन पर माना है । यही ज्योतिश्शास्त्रों में मास की गणना चैत्र शुक्लपक्ष से माना है और यही प्रमाणा मेघमाला के जानकार भी कहते हैं ॥३८॥ लोकभाषा में भी कहा है कि पहला शुक्लपक्ष और पीछे कृष्णपक्ष होता है, इसमें ज्योतिषियोंको शंका नहीं करना चाहिये ॥६॥ मेघमालामें भी कहा है कि पौष मास की कृष्ण सप्तमी के दिन आकाश "Aho Shrutgyanam" Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) मेघमहोदये अष्टमासवशाद् युक्तो दिव्यगर्भः प्रजायते ॥१०॥ श्रावणे शुक्लपक्षे स्थात् स्वातीऋक्षेण सप्तमी । तत्र वर्षति पर्जन्यः सत्यमेतद् वरानने! ॥१०॥ .. अत्र शुक्लादिमासपक्ष एव गर्भपाकस्तत्फलं चोक्तम्, त. था कृष्पक्षादिमासमतेऽपि । अष्टमासवशादिति कथनादेव तन्मतं दृढीकृतं पौषकृष्णपक्षादित्वेन श्रावणशुक्लेऽष्टमासी भावात् । अत एव चैत्रस्यान्ते कृष्णपक्षमाश्रित्य चैत्रोऽयंब. हुरूप इत्युक्ति-ज्योतिर्मतेन, तदा कृष्णपक्षादिमतेन वैशा. खात्, तत्र पञ्चरूपताया युक्तत्वात् , तेनैव कार्तिकामावास्यां बीरनिर्वाणात् । सिद्धान्ते कृष्णपक्षादिर्मासः । पूर्गो मासो यस्यां सा पौर्णमासीति सत्योक्तिः । अत्रापि सम्मतियथा पौषे मूला भरण्यन्तं चन्द्रचारेण साभ्रखे ।। बादलों से घेरे हुए हो तो पाठ मासका सुंदर गर्भ होता है ॥ १० ॥ हे श्रेष्ठ मुखवाली! श्रावण मासका शुक्ल पक्षमें सप्तमी के दिन स्वाति नक्षत्र हो तो अवश्य वर्षा होती है ॥ १०१ ॥ . . . . यहां जैसे शुक्लादि मास और पक्ष में गर्भ पाक का फल कहा वैसे क्रमादि मासमें भी यही मत (अभिप्राय) समझना । आठ मास ऐसा कहा है. जिससे पौष कृष्ण पक्षसे श्रावण शुक्ल पक्ष तक आठ मास हो जानेसे यही मत निश्चय किया। इसलिये चैत्रनास के अंत में कृष्ण पक्ष आश्री 'चैत्रोऽयं बहु रूप' ऐसी युक्ति ज्योतिष मतसे है, क्योंकि ज्योतिष सिद्धान्तों में शुक्लादि मास माना है और कृष्ण पक्षादिके मतसे वैशाख माससे वर्षा के गर्भ पंच रूप (वायु, गर्जना, विद्युत आदि) समझना । कार्तिक अमावास्याके दिन श्रीमहावीर जि सवरका निर्वाण होनेसे सिद्धान्तमें कृष्णादिमास की प्रवृत्ति है. जिस समय महीना पूर्ण हो उसको पूर्णमासी कहते है यह सत्य उक्ति है । पौष मास में मूलसे भरपी तक चन्द्रनक्षत्रों में आकाश "Aho Shrutgyanam" Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमालपत्तदिननिरूपणम् आर्द्रादौ च विशाखान्तं रविचारेण वर्षति ॥ १०२ ॥ न चैवं शुक्लपक्षाद्यैः पौपेऽपि मूलसङ्गतिः । तया गर्भोदयो ज्ञेय इति वाच्यं वचस्विना ॥ १०३ ॥ | मूलादि गर्भहेतुः स्याद् नक्षत्रं धन्वगे रवौ । सम्बन्धाद् धनुषः पौषे कृष्णादौ चापगो रविः ॥ १०४ ॥ उक्तं मेघमालायाम् SASTRAL धन्वराशौ स्थिते सूर्ये मूलाधा गर्भधारणाः । गर्भोदयाद् ध्रुवं वृष्टिः पञ्चोनद्विशनिदिनैः ॥ १०५ ॥ दिनसंख्यानुसाराच्च वर्षत्यत्र न संशयः । मूलाद् वर्षति चार्द्राभं पूषायाश्च पुनर्वसुः ॥ १०६ ॥ 'उषाया गर्भतः पुष्यं श्रवणात् सर्पदैवतम् । धनिष्ठाया घावृष्टि-वरुणात् पूर्वफाल्गुनी ॥ १०७॥ (२५१) बादलोंसे घेरा हुआ हो याने बादल सहित हो तो आदर्शसे विशाखा तक सूर्यनक्षत्रों में वर्षा हो ॥१०२॥ यहां शुक्ल या कृष्ण पक्षका विचार नहीं करना, पौष मास में जबसे मूल नक्षत्र पर सूर्य हो तब से गर्भकी वृद्धि, समझना ऐसे विद्वान् लोग कहते हैं ॥ १०३ ॥ धनुराशि पर सूर्य आने से मूलादि नक्षत्र गर्भ हेतु होते हैं । पौष मासमें धनुराशि का संबंध से कृष्णादिमें.. धनु: संक्रान्ति आती है ॥ १०४ धनुराशि पर सूर्य आनेसे मूल आदि नक्षत्र गर्भको धारण करनेवाल होते हैं ! गर्भका उदय होनेसे १६५ दिनोंमें निश्चयसे वर्षा होती है । । ५ दिन संख्या तुषार (हीम) गिरने लगे वहां से गिनना, उपरोक्त दिन प अवश्य वर्ष होती है इसमें संशय नहीं । मूल नक्षत्रका गर्भसे आर्द्रा नक्षत्र मैं वर्षा है, ऐसे पूर्वाषाढाका गर्भसे पुनर्वसु ॥ १०६ ॥ उत्तराषाढा की गई ये नक्ष में, श्रवणका गर्भसे आश्लेषा में, धनिष्शका गर्भ से मेधा, शत अश्विनी अपूर्वाफाल्गुनी में वर्षा होती है ॥ १०७॥ पूर्वाभाद्रपदका "Aho Shrutgyanam" Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५२) heaster पूर्व भद्रपदागर्भाद् वृष्टिरार्यमदेवते । उभायां हस्तवर्षा स्याद् रेवत्यां त्वाष्ट्रवर्षणम् ॥ १०८ ॥ आश्विन्यां स्वातिवर्षा स्याद् भरण्यां तु द्विदैवतम् । पूर्णगर्भे भवेद् वृष्टिः सर्वलोकाः सुखावहाः ॥ १०९ ॥ एवं च गर्भपूर्णत्वं कृष्णपक्षक्रमाद् भवेत् । पौषादिज्येष्ठमासान्ता षण्मास्य शुचेः पुनः ॥११०॥ अत्रोदाहरणं - संवत् १७३७ वर्षे पौषकृष्णचतुर्थ्यां ध नुष्यर्क: ५४, ततः संवत् १७३८ वर्षे कृष्णपक्षादिके आषाढे अमावास्यां रौद्रे रविः १४ । इति गर्भसम्पूर्णता । वृष्टौ चार्द्राया एव मुख्यत्वं तथा चोक्तं प्राक 'मेषसंकान्तिकालात्तु' इत्यादि । लोकेऽप्याह मिगसर वाय न वाइया अद्द न वूठा मेह ! तो जाणेवो भडली, वरसह आयो वेह ॥ १११ ॥ ग्रन्थान्तरेऽपि W मेष राशिगते सूर्ये अश्विनीचन्द्रसंयुता । यदा प्रवर्षति देवि ! मूलगर्भो विनश्यति ॥ ११२ ॥ भरण्याः सर्पदेवान्तं क्रमेण वर्ष प्रिये ! | गर्भसे उत्तराफाल्गुनि, उत्तराभाद्रपदाका गर्मसे हस्तमें, रेवती का गर्भ से चित्रामें वर्षा होती है ॥ १०८ ॥ अश्विनीका गर्भसे स्वातिमें और भरणी का गर्भते विशाखा में गर्भकी पूर्णता से वर्षा होती है, और सब लोग सुखी होते हैं ॥१०६ ॥ इसी तरह कृष्ण पक्षादिका क्रमसे पौषसे ज्येष्ठ तक छ महीने और आधा आषाढ मास में गर्भकी पूर्णता होती है ॥ ११० ॥ मार्गशिरमासमें वायु न चले और आर्द्रा में वर्षा न हो तो वर्ष अच्छा न हो ॥ १११ ॥ मेघराशि पर सूर्य हो तत्र चंद्रमा का अश्विनी वर्षा हो तो मूलनक्षत्रके गर्भका विनाश होता है ॥ ११२ ॥ "Aho Shrutgyanam" यदि णी नक्षत्रों में आ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपक्षदिननिरूपणम् (२५३) पूर्वाषाढादिपोष्णान्तं गर्भश्चैवं विनश्यति ॥११॥ पञ्चमे पञ्चमे स्थाने गर्भः पतति चाव्ययात् । आप्रवर्षणं देवि ! गर्जने वा कथञ्चन ॥११४॥ सर्वे गर्भाश्च विज्ञेया तत्रैव वृष्टिकारकाः । आर्द्रादिपञ्चके दृष्टे छिद्रं वर्षति माधवः ॥११५॥ न चैवं गर्भनियमः स्यान्मासाष्टकनिमित्तन चतुष्टयम. भीष्टदमिति मेघमालावचनात्, निमित्तरूपगर्भसंख्यायां न्यूनाधिकत्वस्यापि दर्शनातु । यहाहुः श्रीहीरविजयसूरयः स्वमेघमालायाम् कत्तिय बारसि गम्भा छाया, आसाढ धुरि बरसे भाया । मिगसिर पञ्चमि मेघाडंबर, तोवरसे सघलो संवच्छर ।११६। इतिकृतं प्रसङ्गेन प्रकृतमनुस्त्रियतेपूर्वात्रयं रोहिणी च हस्तश्च प्रतिपदिने । पक्षादौ वारुणं नेष्टं सर्वधान्यमहर्घकृत् ॥११॥ आग्नेयं पौष्णयुगलं मूलश्चेत् प्रतिपदिने । नक्षत्रसे आश्लेषा तक नक्षत्रों में किसी भी दिन वर्षा हो तो क्रमसे पूर्वाषाढा से रेवती नक्षत्र तक के गर्भका विनाश होता है ॥ ११३ ।। पांचवें २ मास में स्विरगर्भ का पात हो जाता है ! कभी आदी में वर्षा हो या गर्जना हो तो गर्भपात होता है ॥ ११ ॥ जहां गर्भ हो वहां सच वृष्टि करनेवाले जानना । आदि पांच नक्षत्रों में वर्षा बासती है ।।११५ ॥ कात्तिकमासकी द्वादशी के दिन गर्भ आच्छादित हो तो आपाट में निश्चयसे वा हो और मार्गशीर्ष पंचमी के दिन भी वर्षाका आडंबर हो तो सम्पूर्ण वर्ष में वर्षा हो ।। ११६॥ पक्षक आदिमें प्रतिपदा के दिन यदि तीनों पूर्वा, रोहिणी, हस्त और, शतभिषा पत्र हो तो सब प्रकार के धान्य तेज हों ।। ११७ ॥ कृत्तिका, रेवती, ...... पौर मूल ये नक्षत्र हों तो समान भाव रहे और बाकी के "Aho Shrutgyanam" Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४) मेघमहोदये तदा धान्ये समाधत्वं शेषऋक्षे समर्पता ॥ ११८ ॥ अथ दिनविचार: -- पावन्ने दुभिक्खं तेवन्ने होइ मज्झिमं कार्ल । चउबन्ने समभावं पश्चावन्ने य सुभिक्खं ॥ ११६ ॥ द्विपदु युते वर्षे दिवसानां शतत्रये । सुभिक्षं केचिदप्याहुः परं देशेषु विग्रहः ||१२०|| बाणेषुत्रिदिनैः कालो मध्यमोऽद्रिशर त्रिभिः । वर्ष खपत्रिभिः श्रेष्ठं सुभिक्षं तत्र निश्चितम् ॥ १२१ ॥ अथ रोहिणीवृष्टौ दिनमानवर्षणस्यरविणा मुज्यमानायां रोहिण्यां मेघवर्षणे । द्वासप्तति दिनान्यब्द-वृष्टिर्नाथदिने सदा ॥ १२२ ॥ द्वितीयदिवसे वृष्टा-वष्टपञ्चाशता दिनैः । दृष्टिरोधस्तृतीयेऽह्नि चत्वारिंशन्नवोत्तराः ॥ १२३॥ नक्षत्र हो तो सस्ते हों ॥ ११८ ॥ यदि ३५२ दिनका वर्ष हो तो दुर्भिक्ष, ३५३ दिनका वर्ष हो तो मध्यम, ३५४ दिनका समान और ३५५ दिनका हो तो सुकाल जानना ॥ ११६ ॥ कोई ऐसा भी कहते हैं- ३५२ दिनका वर्ष हो तो सुकाल हो, परंतु देश में विग्रह हो ॥ १२० ॥ ३५५ दिनका वर्ष हो तो काल, ३५७ दिनका मध्यम और ३६० दिनका वर्ष श्रेष्ठ तथा निश्चय से सुभिक्ष कारक होता है ॥ १२१ ॥ 'वर्षा' जब सूर्य रोहिणी नक्षत्र का भोग कर रहे हो अर्थात् जितने समय रोहिणी नक्षत्र पर सूर्य रहे, इतने समयमें कभी वर्षा हो तो उसका फल कहते है- यदि प्रथम दिन वर्षा हो तो उसके पीछे ७२ दिन तक न बरसे बादमें बरसे ॥ १२२ ॥ दूसरे दिन वर्षा हो तो ५८ दिन तक वर्षा न बरसे । तीसरे दिन वर्षा हो तो ४६ दिन तक वर्षा न बरसे ॥ १२३ ॥ चौथे दिन वर्षा हो तो ४२ दिन वर्षा न हो । पांचवें दिन वर्षा, "Aho Shrutgyanam" Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपक्षदिननिरूपणम् द्विचत्वारिंशत् तूर्येहि वृष्टौ वृष्टिन जायते । पञ्चमे त्रिंशदेवात्र नवाहमाहिता मता ॥१२४॥ चतुर्विंशदिनानां हि षष्ठेऽहि नहि वर्षणम् । एकत्रिंशत् सप्तमेऽहि नवमे चाष्टविंशतिः ॥१२॥ दशमेऽहि चतुर्विश-त्येकादशदिनेऽम्बुदे । दिनानामेकविंशत्या षोडशद्वादशेऽहनि ॥१२६॥ त्रयोदशदिने पृष्टौ दिनद्वादशके पुनः । वृष्टिरोधः पयोदस्य ततो मेघमहोदयः ॥१२७॥ मतान्तरेपहिले चरण यहोत्तर दीह, थीजे यासहि न टले लीह । तीजे बावन्न चोथ ययाल,रोहिणी खंच करे तिणकाल १२८ अथ वृष्टिसर्वाग्रदिनसंख्या----- पञ्चाशदिवसा वृष्टिर्षिदीपोत्सवे रवौ। हो तो ३६ दिन वर्षा न हो ॥ १२४ ।। छठे दिन वर्षा हो तो ३४ दिन वर्षा न हो । सातवें दिन वर्षा हो तो ३१ दिन वर्षा न हो । नववें दिन वर्षा हो तो २८ दिन वर्षा न हो ॥ १२५।। दशवें दिन वर्षा होतो २४ दिन वर्षा न हो । ग्यारहवें दिन वर्षा हो तो २१ दिन बाद वर्षा हो । बारहवें दिन वर्षा हो तो १६ दिन बाद वर्षा हो ॥ १२६ ॥ तेरहवें दिन वर्षा हो तो १२ दिन तक वर्षा न हो, बाद में वर्षा हो ॥१२७॥ प्रकारान्तरसे-रोहिणीके प्रथम चरण पर सूर्य रहने पर वर्षा हो तो ७२ दिन नहीं बरसे वाद वर्षा बरसे । दूसरे चरणमें वर्षा हो तो ६२ दिन बाद वर्षा हो । तीसरे चरण में वर्षा हो तो ५२ दिन और चौथे चरणमें वर्षा हो तो ४२ दिन तक वर्षा न हो बाद वर्षा बरसे ॥ १२८॥ यदि दीपमालिका (दीवाली) के दिन रविवार हो तो उस वर्ष ५० दिन वर्षा हो । सोमवार हो तो १०० दिन, मंगलवार हो तो ४० दिन "Aho Shrutgyanam" Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५६) मेघमहोदये सोमे दिनशतं वृष्टिश्चत्वारिंशच्च मङ्गले ॥१२६।। बुधे षष्टिदिनैवृष्टि-रशीति दिवसा गुरौ। शुक्रे दिनानां नवतिः शनौ विंशतिरेव च ॥१३॥ तिथिवारमध्ये रोहिणीदिनफलम्पक्षान्तः प्रतिपहिने भवति चेद ब्राह्मोतदा चिन्तितः, कालस्तत्परतः सुभिक्षमशनं स्तोकं तृतीयादिने । धान्य भूरितरं तुरीयदिवसे किश्चिन्न किश्चित् पुनः, पञ्चम्यां गगनेऽतिवादलघन-च्छायाथ षष्ठीदिने ॥१३॥ सप्तम्यां जलशोष उत्तरदिशि स्यादन्ननाशोऽष्टमी तिथ्यां कष्टमतीव वाणिजकुले भूम्यां नवम्यां भवेत् । सौभिक्ष्यं दशमीदिने जनभयं धान्यं महर्य तथै- .. कादश्यां वणिजां भयं परिभवः स्याद् द्वादशीसङ्गमे।१३२॥ वृष्टिः स्वल्परसा त्रयोदशदिने वर्षा पुनर्भूयसी, नूनं भूततिथौ जलं नभसि न स्यात् पूर्णिमादर्शयोः । वर्षा हो ॥१२६॥ बुधवार हो तो ६० दिन, गुरुवार हो तो ८० दिन, शुक्रवार हो तो ६० दिन और शनिवार हो तो २० दिन वर्षा बरसे ॥१३०॥ पक्षके अन्तमें एकमके दिन रोहिणी नक्षत्र पर सूर्य आवे तो दुकाल, दूजके दिन रोहिणी हो तो मुभिक्ष, तीजके दिन हो तो थोड़ी अन्न प्राप्ति, चोथके दिन हो तो अधिक अन्न प्राप्ति, पंचमी के दिन हो तो कुछ भी अन्न न हो या थोडासा हो, छठके दिन हो तो आकाश मेघाडंबरसे आच्छादित रहे ॥१३१ ॥ सप्तमीके दिन रोहिणी हो तो उत्तर दिशा में जल सूख जाय, अष्टमीके दिन हो तो अन्नका नाश हो, नवमी के दिन रोहिणी हो तो भूमि पर वणिक कुलको अधिक कष्ट पड़े । दशमीके दिन हो तो मुकाल, एकादशीके दिन हो तो धान्य महँगे और मनुष्यों को भय हो, द्वादशीके दिन हो तो वैश्योंको भय और परिभव हो, तेरस के दिन हो तो थोडा रसवाली "Aho Shrutgyanam" Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयनमासपक्षदिननिरूपणम् बुर्भिक्षं च सुभिक्षमग्निदहनं रोगाः शिशूनां मृतिवृष्टिः काल इति क्रमात् प्रथमतो वृष्टे घनेऽर्कादिषु ।१३३। ज्येष्ठमासे तथाषाढे गाढे वृष्टे घनाघने । फलमेतदुपाख्यायि मेघोदयनिवेदिभिः ॥१३४॥ . प्रथमवृष्टिदिनफलम् --- चैत्रस्य कृष्णपञ्चम्या आरभ्य दिवसा नव । खे नैर्मल्यं तदार्दादि-नवके विपुलं जलम् ॥१३॥ अत्र पक्षे विनिर्णेयः स्वदेशव्यवहारतः। मरौ फाल्गुनपूर्णायाः परश्चैत्रः सितेतरः ॥१३६।। गूर्जरत्रादिषु पुनः स्वपूर्णायाः परोऽसितः । सर्वमासफलं चैवं यथायोग्यं विचार्यते ॥१३७॥ सितपक्षादिके चैत्रे मीने सूर्यसमागमे । वर्षा हो, चौदशके दिन हो तो बहुत वर्षा, पूर्णिमा और अमावस के दिन रोहिणी हो तो आकाशमें जल प्राप्ति न हो । सूर्यादि वारों में रोहिणी पर सूर्य आवे तो क्रमसे दुष्काल, मुकाल, अग्निदाह, रोग, बालकों की मृत्यु, वर्षा और दुष्काल ये फल हों ॥१३३॥ ज्येष्ठ तथा आषाढमें रोहिणी नक्षत्र पर जिस दिन सूर्य आवे उस दिन यदि घनघोर वृष्टि हो जाय तो पूर्वोक्त समग्र फल मेघमहोदयको जाननेवालेने कहा है ॥ १३४ ॥ चैत्रमासमें कृष्ण पंचमीसे नव दिन तक अकाश निर्गल हो तो आा भादि नय नक्षत्रों में वर्षा अच्छी हो ॥१३५॥ यहां अपने अपने देशके व्यवहार से पक्षका निर्णय करना- मारवाड आदि देशों में फाल्गुन पूर्णिमा के पीछे चैत्र कृष्णपक्ष मानते हैं ॥ १३६ ॥ और गुजरात आदि देशों में अपने मास की पूर्णिमा के पीछे कृष्णपक्ष माना जाता है, इसी तरह यथायोग्य व्यवहारके अनुकूल समस्त मासका फल विचारना ॥१३७॥ चैत्र शुक्लपक्ष में मीनराशि पर सूर्य आने से मूल आदि नव नक्षत्र निर्मल हो तो वर्ष "Aho Shrutgyanam" Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५८) मेघमहोदये मूलादिनवनक्षत्र-नैर्मल्ये वत्सरः शुभः ॥१३८॥ 'मेषसंक्रान्तिकालात्तु' इत्यादि । लोके पुनर्विशेषः चैत्र अजुमाली चउथथी, मेस थका नव दीह । जल आभुविज्जु लवे, तो कुडंबी मम बीह ॥१३९॥ वैशाखमासे प्रतिपदिनाच्चे-न्मेघोदयः सप्तदिनानि यावत् । अभ्रेषु ग| घनविशुदादि, तदा सुभिक्षंमुनयो वदन्ति।१४० माघमासस्य सप्तम्यां पञ्चम्यां फाल्गुनस्य च । चैत्रस्यापि तृतीयायां वैशाखे प्रथमेऽहनि ॥१४॥ मेघस्य गर्जितं श्रुत्वा जलदेस्य तु दर्शने। . चतुरो वार्षिकान् मासान् जलवृष्टिं तदा वदेत्॥१४२॥ हीरसूरयस्त्वाहुःकत्तियमासह बारसइ, मगसिर दसमी भाल । पोसहमासि पंचमी, सत्तमी माह निहाल ॥१४३॥ जइ वरसे विज्जु लवे, अह उन्नमण करेय । मासा च्यारे पावसह, धाराधरवरिसेय ॥१४४॥ अच्छा होता है ॥ १३८ ॥ चैत्र मासकी शुक्ल चतुर्थीके बाद मेष संक्रान्ति से नव दिन वर्षा हो या बिजली चमके तो हे कृषिकार ! तुम डर नहीं ॥ १३॥ ॥ वैशाख मासमें प्रतिपदासे सात दिन तक मेघ का उदय हो, गर्जना हो, वर्षा और बिजली आदि हो तो सुभिक्ष होता है ऐसा मनियों ने कहा है ॥ १४० |मावमासकी सप्तमी, फाल्गुनकी पंचमी, चैत्र की तृतीया और वैशाखका प्रथम दिन ॥१४१॥ इनमें मेघकी गर्जना हो और उनका दर्शन भी हो तो चौमासेके चार मासमें वर्षा अच्छी होती है॥१४२॥ श्रीही विजयसूरिने भी कहा है कि- कार्तिक मासकी बारस, मार्गशीर्षकी दशमी, पौष मासकी पंचमी और माघ मासकी सप्तमी ॥१४३॥ इन दिनों में यदि वर्षा हो, बिजली चमके तो चौमासेमें धाराबंध वर्षा हो ॥१४४॥ "Aho Shrutgyanam" Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकपलम् (२५९) एवं शाकसमायनादिसमयं ज्योतिर्विदां वामयाद्, नित्याभ्यासवशाद विमृश्य सुदं प्राज्यप्रभाभासुरः । श्रीमन्मेघमहोदयं सविजयं जानाति नातिश्रमाद , भूपानामनुरञ्जनात् स लभते सिद्धिं सदा सम्पदाम् ॥१४५।। इति श्रीमेघमहोदयसाधने वर्षयोधे तपागच्छीय-महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचितेऽयनमासपक्षनिरू पणनामा षष्ठोऽधिकारः। अथ वर्षराजादिकथने सप्तमोऽधिकारः। अथ अगस्तिद्वारम्-- अथ यदि समुदेति चेतिमानं दधानः, सकलकलशजन्मा सिन्धुपानप्रधानः । भगवति भगदैवे भे स्थिते पद्मिनीशे, निशि दिशि दिशि लक्ष्म्यै स्यादयं सप्तमेऽहि ॥१॥ इस प्रकार शकसंवत्सर अयन अदि समयको ज्योतिर्विदों के शास्त्रों से और हमेशाके अभ्यासक्शसे प्रभावशाली ज्योतिषी अच्छी तरह विचार कर के सफलीभूत ऐसा मेघमहोदय को थोड़ा परिश्रम से जानता है, और वह राजाओंको खुश करके हमेशा सिद्धि और संपदाको प्राप्त करता है ॥ १४५ ॥ सौराष्ट्राष्ट्रान्तर्गत-पादलिप्तपूरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्यजैनेन विरचितया मेघम्होदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितोऽयन मासपक्षनिरूपणनामा षष्ठोऽधिकारः । जब सूर्य पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र पर आवे तब उससे सातवें दिन रात्रि में प्रकाशको धारण करनेवाला और समुद्रको पीजाने में प्रधान ऐसा अगस्ति अषिका उदय हो तो चारोही दिशामें लक्ष्मीके लिये शुभ होता है ॥१॥ "Aho Shrutgyanam" Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) मेघमहोदये यादेति दिने प्रातः पीतान्धिर्मुनिपुङ्गवः । दुर्भिक्षं रौरवं घोरं राष्ट्रभक्षं तदादिशेत् ॥२॥ रवौ च पूर्वफाल्गुन्यां प्रासे चेदष्टमेऽहनि । अगस्तेरुदयो लोके न शुभाय कचिन्मते ॥३॥ कृत्तिकायां रवी जाते सप्तमे वोष्टमेऽहनि । ऋषेरस्तंगतिः ओष्ठा दिवसे यदि जायते ॥४॥ रात्रावुदयनं श्रेष्ठं नेष्टश्वास्तङ्गमो मुनेः । दिवसेऽस्तङ्गमः श्रेष्ठो नेष्टश्चाभ्युदयस्तदा ॥५॥ लोकेऽपिसिंहा हुँती भडुली, दिन इकवीसे जोय । अगस्ति महाऋषि उगीया, घन बहु वरसे लोय॥६॥ हीरसूरयोऽप्याहुः दुभिक्खं वीस दिणे इगवीसे होइ मज्झिमं समयं । यदि अगस्त्यका उदय प्रातःकाल में हो तो दुर्भिक्ष, घोर उपद्रव और राज्य भंग हो ॥२॥ सूर्य जन पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र पर आवे तब उस से आठवें दिन अगस्त्यका उदय हो तो लोकमें शुभ नहीं होता ऐसा किसीका मत है ॥३॥ सूर्य जब कृत्तिका नक्षत्र पर आवे तब उससे सातवें या आठवें दिन अगस्त्यका अस्त यदि दिन में हो तो श्रेष्ठ होता है ॥४॥ अगस्त्यका उदय रात्रि में श्रेष्ठ माना जाता है और अस्त अशुभ माना है। दिन में अस्त होना श्रेष्ठ और उदय होना श्रेष्ठ नहीं ॥५॥ लोक भाषामें बोलते है कि- सिंह राशि पर सूर्य आवे तबसे इकाईस दिनों में अगस्त्यका उदय होता है तब भूमि पर वर्षा बहुत होती है li६॥ श्रीहिरविजयसूरि ने भी कहा है कि- सिंहराशि पर सूर्य आवे तबसे वीस दिन पर भगस्त्य का उदय हो तो दुर्भिक्ष हो, इक्कईस दिन पर उदय हो तो मध्यम समय हो और बाईस दिन पर उदय हो तो सुकाल हो ॥७॥ जिस महीने में बुबसे "Aho Shrutgyanam Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অথবালাক্ষিক (२६९) यावीसे य सुभिक्ख सिंहामओ महारिसी उदए ॥७॥ दसे दिहाडे बुध थकी, ऋषि उगे जिणमास । धार न खंडे बरसतो, परजा पूगे पास ॥८॥ ग्रन्थान्तरे तु-जो वीसे तो वाणिओ, इकवीसे तो विम। यावीसे जो उगमे, मालीघरे जनम ॥९॥ वणिग्मुनिः खण्डवृष्टयै दुर्भिक्षाय द्विजो मुनिः । मालाजीवी सुभिक्षाय सिंहे सूर्यात् परं फलम् ॥१०॥ यश्चैत्र शुक्लप्रतिपद्दिनस्य, भुंक्त कलां च प्रथमां स वारः । वर्षस्य राजाखलु मेषसूर्य, दिनस्य वारःस हि तन्त्र मंत्री ।११॥ मिथुनार्केहि यो वारः स स्यात् सर्वरसाधिपः । सस्याधिपः कर्करचौ दिनवारो हि धान्यकृत् ॥१२॥ मतान्तरे पुन: "ज्येष्ठाः प्रथमो मन्त्री तचतुर्थः कणाधिपः । दश दिन अगस्त्यका उदय हो तो धाराबंध वरसाद वरसे और प्रजा की पाशा पूर्ण करे ॥८॥ ग्रन्थान्तरसे- सिंह संक्रान्तिसे यदि वीस दिन पर अगस्त्य उदय हो तो वैश्य, इक्कईस दिन पर उदय हो तो ब्राह्मण और बाईस दिन पर उदय हो तो माली, इनके घर क्रमसे अगस्त्य का जन्म समझना ॥६॥ यदि वैश्य मुनि हो तो खंडवृष्टि करता है, ब्राह्मग मुनि हो तो दुर्भिक्ष करता है और मालिके घर जन्म हो तोसुभिक्षकारक होता है ऐसा अगस्त्य का फल सिंहराशिपर सूर्य जाने से जानना चाहिये॥१०॥ जो चैत्रमासके शुक्लपक्ष प्रतिपदाकी प्रथम कला में जो चार हो वह वर्षका राजा होता है और मेषसंक्रान्तिके दिन जो वार हो वह मंत्री होता है ॥११॥ मिथुनसंक्रान्तिके दिन जो वार हो वह सब रस का अधिपति होता है। कर्कसंक्रान्तिके दिन जो वार हो वह धान्यका अधिपति होता है ॥१२॥ मतान्तरसे-- ज्येष्ठा के पर सूर्य आवे उस दिन जो वार हो वह - "Aho Shrutgyanam" Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६२) मेघमहोदय फाल्गुनान्ते च यो वारः सोऽब्दपः परिकीर्तितः ॥१॥ भाषाहे रोहिणी सूर्ये दिनवारो जलाधिपः। आर्किदिनवारो यः स मेघानामधीश्वरः ॥१४॥ दिनवारो वृषे सूर्य कोवाल: प्रकीर्तितः। - . एते वर्षस्य पूर्वार्द्ध प्रोक्ता वार्षिकधान्यदाः ॥१५॥ कचित्तु-चैत्रमासादिवारो यः स धनाधिपतिर्मतः । चैत्रे मेषार्कवेलायां लग्ने वर्षे प्रजायते ॥१६॥ खरतगच्छीय-मेघजीनामोपाध्यायास्तु चैत्र अमावसिवार नृप, मन्त्री मेषरविवार । मिथुनरवौ सो रसधणी, कर्क सत्याधिपवार ॥१७॥ आषाढे रोहिणऋषे, जलाधिपति जो वार । मंत्री और उस से चौथा जो वार हो वह धान्य का अधिपति होता है। फाल्गुन मासके अंतमें जो वार हो वह वर्षका राजा कहा जाता है ।।१३।। आषाढ मास में जब रोहिणी नक्षत्र पर सूर्य आवे उस दिन जो बार हो वह जलका अधिपति है और आर्कि के दिन जो वार हो वह मेव (वर्षा) का अधिपति है॥१४॥ वृषसंक्रान्ति के दिन जो वार हो वह कोटवाल होता है। ये सब वार्षिक धान्यको वर्षका पूर्वार्द्ध में देनेवाले कहें ॥१५॥ किसी का ऐसा मत है कि- चैत्र मासकी आदिमें जो वार हो वह धनका अधिपति माना है और चैत्र मास में मेष संक्रान्तिके समय लग्नेशको वर्षका अधिपति माना है ॥ १६ ॥ खरतरगच्छीय श्री मेघजी नामके उपाध्याय कहते है कि- चैत्र मास की अमावसके दिन जो वार हो वह राजा, मेष संक्रान्ति के दिन जो वार हो वह मंत्री, मिथुन संक्रान्तिके दिन जो वार हो वह रस का अधिपति, कर्कसंक्रान्तिके दिन जो वार हो वह धान्यका अधिपति हैं ॥१७॥ आषाढमें रोहिणी नक्षत्र पर सूर्य आवे उस दिन जो वार हो वह जल का भधिपति है और कार्तिक मासमें मूल नक्षत्र पर सूर्य मावे उस दिन "Aho Shrutgyanam" Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजाविकफलम् काति माहि मूलदिन, कोटवाल जो चार ॥ १८॥ एते वर्षराजादयः पूर्वधान्यनिष्पत्तये । विजयदशम्यां वारो यः स राजाग्रभागपः । मकरार्केऽस्य मन्त्री स चैत्रमासाद्यपो धनी ॥ १६ ॥ तुलार्के दिनवारो यः स हि सर्वरसाधिपः । धनुष्यर्केऽहि वारस्तु स सस्याधिपतिर्मतः ॥२०॥ कार्त्तिके मूलनक्षत्रे वारः स कोट्टपालकः । एते राजादयश्रांण-कालिकं धान्यमादधुः ॥२१॥ अत्रापि मतान्तरे धनमन्त्री कुम्भ सस्यपति, फागुण अंतिवार । निश्चयराजा परखीइ, एहि जोस विचार ||२२|| केबलकीर्त्ति दिगम्बरकृतमेघमालायां पुनरेवआगच्छति यथा भूपे गेहे गेहे महोत्सवः । जो वार हो वह कोटवाल होता है ॥ धान्य निष्पत्तिके लिये पहले कहें ॥ (२६३) १८ ॥ ये सब वर्ष के राजा आदि बिजयदशमी के दिन जो वार हो वह राजा, मकरसं कान्तिके दिन जो वार हो वह मंत्री और चैत्रकी प्रतिपदा के दिन जो वार हो वह धन का अधि पति है ॥ १६ ॥ तुलासंक्रान्तिके दिन जो वार हो वह सब रसका अधिपति और धनुसंक्रान्तिके दिन जो वार हो वह धान्यका अधिपति है ॥ २० ॥ कार्तिक में मूलनक्षत्र के दिन जो वार हो वह कोटवाल है । ये सब राजा मादि धान्य को देनेवाले हैं ॥ २१ ॥ मतान्तर से - धनुसंक्रान्ति के दिन जो वार हो वह मंत्री, कुंभसंक्रान्ति के दिन जो वार हो वह धान्याधिपति और फाल्गुनमास का अंतिम दिन जो वार हो वह निश्चय करके वर्षका राजा है, यही ज्योतिषियों का विचार है ॥ २२ ॥ केवलकीत्ति-दिगंबराचार्यने अपनी मेवमाला में कहा है कि- जैसे नवीन राजा आते है तब घर घरमें बड़ा "Aho Shrutgyanam" Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) hestra तथा वर्षाधिपे लोके दीसदीपोत्सवः स्मृतः ॥२३॥ श्रीहीर विजयस रिकृतमेघमालायां तु— कार्त्तिके शुक्ल द्वितीया-दिने यो बार ईक्षितः । ज्ञेयः स वर्षपः स्वामी तत्फलं वदयते यदः ||२४|| 'एतत्तु वृष्टिगर्भकालिकत्वाद् वृष्टिनाथपरम्' अत्रैव वितर्कयान्द्रवर्षस्य प्रतिपदादिक्षणे प्रवेशात् तत्रत्य एव वारो वर्षेशस्तेन प्रतिपत्तिथिः, प्रतिपत्तिथिः प्रथमां कलां भुंक्ते स बारो वर्षापतिरिति । तथा फाल्गुनान्ते कुहुः राजेति मतइयेन कोऽपि भेदः । एतत्तु प्राचुर्येण गुर्जरदेशे प्रवर्त्तते । दाक्षिण्यात्या औदयिक प्रतिषासरमेव राजानमाहुः । पठन्ति चचैत्रस्य शुक्लप्रतिपत्तिथौ यो, वारः स उक्तो नृपतिस्तद्ब्दे । मेषप्रवेशः किल भास्करस्य, यस्मिन् दिने स्यात् स तु तस्य मंत्री २५ कर्कप्रवेशे दिनपः स उक्तः, प्राक्सस्यनाथो मुनिभिः पुराणैः । उत्सव होता है वैसे वर्ष का राजा लोक में बड़ा प्रकाशमान - दीपोत्सव माना है ॥ २३ ॥ श्री हीरविजयसूरिकृत मेघमाला में कहा है कि- कार्त्तिक शुक्ल द्वितीयाके दिन जो वार हो वह वर्षका स्वामी जानना उसका फल आगे कहेंगे ॥ २४ ॥ मेवाधिपति वर्षा का गर्भकालिक होनेसे उसका विचार करना - चान्द्र वर्षका चैत्रशुक्र प्रतिपदा का प्रथम क्षण में जो वार हो वह वार वर्षका अधिपति होता है, इसलिये प्रतिपदादि तिथि हैं । प्रतिपद् तिथिकी प्रथम कला में जो वार हो वह वर्षका स्वामी होता है । तथा फाल्गुनमास की अमावस के दिन जो वार हो वह वर्ष का राजा है ऐसा भी किसी का मत होने से दो मत माने हैं । यह बहुत करके गुजरातदेशमें माना है । दक्षिणदेश के लोग तो उदयकालिक प्रतिपदा के वार को ही राजा मानते हैं । कहा है कि-चैत्रशुक्ल पडवा के दिन जो वार हो वह वर्षका राजा है । मेषसंक्रांति के दिन जो वार हो वह मंत्री होता है | २५ || कर्कसंक्रान्ति के दिन जो "Aho Shrutgyanam" Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (६६५) आर्द्राप्रवेशे दिननाथ उक्तो, मेघाधिपःप्राक्तनविप्रनुख्यैः।२६॥ तुलाप्रवेशेऽहनि यस्यवारो, रसाधिपोऽयं नियत:प्रदिष्टः । चापप्रवेशे दिवसाधिनाथो, धान्याधिनाथ: कथितोमुनीन्द्रैः।२१ केचित्तु-चैत्रस्य शुक्लप्रतिपत्तिथ्यादौ स्युर्चपादयः । चैत्रादिवत्सरमते फलन्तीत्येवमुचिरे ॥२८॥ विजयदशम्यां वार इत्यादिमतं स्वतन्त्रमतिफलदम् । स्यात् कार्तिकादिवत्सरमतेऽन्दगर्भोद्भवात् तत्र ॥२९॥ फाल्गुनान्तकथनात् फाल्गुनामावस्यां चैत्रशुक्लप्रतिपत् संयोगस्य प्रायसो बाहुल्याद दर्शदिने यो वारः स अब्दपः । उत्तरार्द्ध तु "विजयदशम्यां यो वारः स राजा, तुलार्कवारो मन्त्री,वृश्चिकार्कवारो हि कोहपालः, धनुष्य योवारश्च रसाधिपः, मकरे सस्याधिपः, ज्येष्ठार्कवारो जलाधिपः, कार्तिके वार हो वह प्राचीन मुनियोंने धान्याधिपति कहा है । आर्द्रा नक्षत्रमें जब सूर्य प्रवेश करे उस दिन जो वार हो वह मेधाधिपति प्राचीन विद्वानोंने कहा है ॥ २६ ॥ तुलासंक्रन्तिके दिन जो वार हो वह रसका अधिपति माना है। धनुसंक्रांतिके दिन जो वार हो वह मुनियोंने धान्याधिपति कहा है ॥२७॥ कोई ऐसा करते है कि-चैत्र शुद्ध पडाके अ.दिमें जो बार हो वह राजा है वह चैत्रादि वर्ष के मत से फलदायक होता है |॥२८॥ विजयदशमीके वार का जो मत है वह स्वतंत्र मति से फलदायक है यह कार्तिकादि वर्षके मत से जानना ।। २६ ॥ फागुमासकी अमावस्या के दिन चैत्रशुक्ल प्रतिपदाका संयोग बहुत करके होता है, इसलिये 'फाल्गुनान्त' ऐसा कथन किया गया है। उत्तराईमें तो “विजयदशनी के दिन जो वार हो वह राजा, तुलार्कके दिन जो वार हो वह मंत्री, वृश्चिकसंक्रान्ति के दिन जो वार हो वह कोटवाल , धनुसंक्रान्ति के दिन जो वार हो वह रसका अधिपति, मकरसंक्रान्तिके दिन जो वार हो वह धान्याधिपति, ज्येष्ठार्क के दिन जो वार हो वह जलाधि "Aho Shrutgyanam" Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) मेuमहोदये मूलनक्षत्र दिनवारो मेघाधिप" इति मतं सम्यक् प्रतिमाति । परेषां मताभिप्रायः प्रायो ज्योतिर्विदां गम्यः । वस्तुतस्तु यदपमन्त्रिमस्याधिपानां त्रयाणामेवोपयोगः । तत्फलं स्वेवं गिरधरानन्दे --- यत्र वर्षे नृपो मन्त्री धान्यपञ्चैक एव हि । हर्षे युद्धदुर्भिक्षं प्रजामार्यादि जायते ॥ ३०॥ ग्रन्थान्तरे-स्वयं राजा स्वयं मन्त्री स्वयं सहयाधिपो यदा । सदा तोयं न पश्यामि वर्जयित्वा महोदधिम् ॥३१॥ वर्षाधिपतिफलम् – सूर्ये नृपे स्वल्पजलाः पयोदाः, धान्यं तथाल्पं फलमल्पवृक्षाः । अल्यप्रयोगेषु जनेषु पोडा, चौरानिशङ्का च भयं नृपाणाम् |३२| सोमे नृपे शोभनमङ्गलानि, प्रभूतवारिप्रचुरं च धान्यम् । पति, कार्तिक मूल नक्षत्र के दिन जो वार हो वह मेघाधिपति” ऐसा कहा . है वह मत यथार्थ प्रतिभास होता है और दूसरों के मतोंका अभिप्राय बहुत करके ज्योतिषियों को जानने योग्य है । वास्तवमें तो वर्ष का स्वामी, मंत्री और धान्याधिपति इन तीनोंका हो विशेष उपयोग पड़ता है । इनका फल गिरधरानन्द में इस तरह कहा है-जिस वर्ष में राजा, मंत्री और धान्याधिपति ये तीनों एकही हो तो उस वर्ष में दुष्काल पड़े और प्रजा में महामारी आदि हों ॥ ३० ॥ ग्रथान्तर में भी कहा है कि जिस वर्षमें राजा, मंत्री और धान्याधिपति ये एकही ग्रह होतो समुद्र को छोड़कर कहीं भी जल देखने में नहीं आवे अर्थात् वर्षा न हो ॥ ३१ ॥ जिस वर्ष में सूर्य राजा हो तो बादल थोड़ा जल बरसावे, धान्य थोड़े, वृक्षों में थोड़े फल हों, मनुष्यों में किंचित् पीड़ा, चोर और अग्नि की शंका रहे और राजाओं का भय हो || ३२ || चन्द्रमा राजा हो तो अच्छे २ मांगलिक कार्य हों, वर्षा अधिक हो, धान्य बहुत हों, मनुष्यों की व्याधि " Aho Shrutgyanam" Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (२६७) प्रशाम्यति व्याधितरो नराणां सुखं प्रजानामुदयो नृपाणां । ३३ भौमे नृपे वह्निमयं जने स्था-चौराकुलत्वं नृपविग्रहश्च । दुःस्थाः प्रजा व्याधिवियोगपीडा, क्षिप्रं जलं वर्षति भूमिखण्डे ॥ बुधस्य राज्ये सजलं महीतलं गृहे गृहे तूर्य विवाहमङ्गलम् ! सौख्यं सुभिक्षं धनधान्यसङ्कुलं, वसुन्धरायां नृपनन्दगोकुलम् ॥ गुरौ नृपे वर्षति सर्वभूतले, पयोधराः कामदुघाश्च धेनवः । सर्वत्र लोका बहुदानतत्पराः, पराभवो नैव सदैव नन्दनम् ॥३६॥ शुक्रस्य राज्ये बहुधान्यसम्पदो, वृक्षाः फलाढ्या बहुगोप्रसृतयः । प्रभूततोयं मधुराभ्रपाचनं, प्रसन्नदैन्यं सजलं भुवस्तलम् |३७| | शनौ घनो वर्षति खण्डशः क्षितौ, जनास्तु रोगा उदिताः प्रभञ्जनाः करा नृपाणां विषमाञ्च तस्करा, भ्रमन्ति लोका बहुधा क्षुधातुराः ॥ वर्षमन्त्रिफलम् - शान्त हो प्रजाको सुख और राजाका उदय हो ||३३|| मंगल राजा हो तो अमिका भय, मनुष्यों में चोरोंकी आकुलता, राजाओं में विग्रह, प्रजा व्याधि और वियोग की पीडा से दुःखी हो और पृथ्वी पर शीघ्र ही जलवर्षा हो ॥ ३४ ॥ बुध राजा हो तो भूमितल जलमय हो याने वर्षां अच्छी हो, घर घरमें विवाह मंगलके बाजे बजे, मुख सुभिक्ष और धन धान्यसे भूमि पूर्ण हो सभी राजा और गौ आनंदित हो || ३५ ॥ बृहस्पति राजा हो तो समस्त पृथ्वी पर वर्षा हो, गौ इच्छानुसार दूध दें, सब जगह लोगदान देने में तत्पर हो, पराभव न होकर सदा आनंद रहे || ३६ || शुक्र राजा हो तो धान्य बहुत हो, वृक्ष फलोस पूर्ण हो, गौ बहुत दूध दे, वर्षा अधिक हो, 1 -मीठे अम बहुत हो, प्रसन्नता रहे और भूमितल पर वर्षा अच्छी हो || ३७ || शनि राजा हो तो पृथ्वी पर खंडवृष्टि हो, मनुष्य रोगोंसे: पीडित हो, महान वायु चले, राजाओंके कर (टेक्स) असह्य हो, चोरोंका ate और लोक मासे व्याकुल होकर भ्रमण करते फिरें ॥३८॥ " Aho Shrutgyanam" Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) मेघमहोदये रवावमात्ये भुकिरोगपीडा, देशेषु सर्वत्र चरन्ति तीडाः।रसेषुधान्येषु महर्घतास्या-च्छलानिलोकेसुरा विनाश्याः॥ सुधाकरे भूः सचिवेऽन्नपूर्ण-फलैरसाट्यास्तरवश्व गावः । पुत्रप्रसूति हुला वधूनां, जनेषु वाणी जयिनीमधूनाम् ॥४०॥ निदानतः स्याद्गुरुदेवनिन्दा, भूमावतीसारगदस्य भूमा। धूमाकुलाभूजननेत्ररोगाः, कुजे भवेन्मन्त्रिणि युद्धयोगः।४१॥ राज्ञां सुदृष्टिबहुलान्नवृष्टिासच्छात्रवृद्धिर्धनिनां समृद्धिः। पत्यावतिलेहरतिर्युवत्या,बुधे पुनर्मन्त्रिणि रागसिद्धिः ॥४२॥ मन्त्रित्वमाप्तेसुरमन्त्रिणि स्यात्, प्रजासुसौख्यं धनधान्यवृद्धिः। विवाह मांगल्यकला जनानां, नानारसमयमहोदयःस्यात्। ४३। जाते कवौत्रिणि गोषुदुग्धं, बहुक्षितौ धान्यसमर्घताच । वृक्षाः फलान्या जनतासु रोगो,भिषकप्रयोगाकचीदीतिभीतिः॥ जिस वर्षों मंत्री सूर्य हो तो पृथ्वीमें रोगपीडा, सर्वत्र देशों टिड्डीका उपद्रव, रस और धान्य महँगे हों, मनुष्योंमें कपटता और देवों का प्रभाव नाश हो ॥३६॥ चंद्रमा मंत्री हो तो पृथ्वी धान्यसे और वृक्ष फलोंसे पूर्ण हों, गौ अधिक प्रसव करें और वधूओंकी वाणी मनुष्योंमें प्रिय हो ॥४०॥ मंगल मंत्री हो तो भूमि पर गुरु और देव की निंदा, अतीसार रोग का उपद्रव, धूम से पृथ्वी आकुल, मनुष्यों को नेत्ररोग की पीडा. और युद्ध का योग हो ॥४१॥ बुध मंत्री हो तो राजा प्रसन्न दृष्टिधाले हो, धान्या और वर्षा अधिक, अच्छे २ शास्त्र और धनी लोगों की समृद्धिकी वृद्धि हों, स्त्री पति से प्रेम करनेवाली हो ॥ ४२ ॥ बृहस्पति मंत्री हो तो प्रजामें सुख, धन धान्यकी वृद्धि, मनुष्यों का विवाह आदि मंगल हो, और अनेक प्रकार के रसोंसे मेघका उदय हो याने अच्छी वर्षा हो ॥४३॥ शुक्र मंत्री हो तो गौ अधिक दूध दें, पृथ्वीमें धान्य सस्ते हों, वृक्षों में फलोंकी अधिकता, मनुष्यों में रोग, वैद्यका प्रयोग चले और कहीं ईतिका भय हे॥४४॥ शनि मंत्री . "Aho Shrutgyanam" Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (२६)मान्यं जनानां व्यवहारनाशः, क्रूरा नृपास्तस्करवहिदुःखम् । गवांविनाशोऽतिमहर्घधान्यं, शनैश्चरे मंत्रिणि राज्ययुद्धम् ॥ सस्याधिपतिफलम्क्वचित् पचन्ति सस्यानि क्वचिन्नश्यन्ति भूतले । व्याधिदुःखं महायुद्धं धान्यानामधिपे रवौ ॥४६।। समर्घ जायते धान्यं सर्वत्र जलवर्षणम् । सर्वधान्यानि जायन्ते यत्र सस्याधिपः शशी ॥४७॥ ईतिभूतं जगत्सर्व व्याधिरोगपीडितम् । महर्घाणि च धान्यानि सस्यानामधिपे कुजे ॥४८॥ सजला वसुगा सर्वा भयनाशः सुखी जनः। चणकादीनि धान्यानि धान्यानामधिपे बुधे ॥४६॥ आनन्दः सर्वलोकानां सुवृष्टिस्तु प्रजायते । निष्पत्तिबहुधान्यानां यत्र सस्याधिपो गुरुः ॥५०॥ हो तो मनुष्यों के व्यवहारका नाश, राजाओं क्रू स्वभाववाले हों, चोर मौर अग्निका दुःख, गौ जाति का विनाश, धान्य मगे हो और राजाओं में युद्ध हो ॥ ४५ ॥ जिस वषमें धान्याधिपति रवि हो तो भूमि पर कहीं धान्य पर्के, कहीं विनाश हों, व्याधि दुःख और महायुद्ध हों ॥ ४६॥ चंद्रमा सस्याधिपति हो तो धान्य सा हों, सब जगह जलवर्षा हो और सब प्रकार के धान्य उत्पन्न हो ॥४७॥ मंगल सस्याधि ति हो तो सब जगत् ईति का उपद्रव से और व्याधि-रोगसे पीडित हो, तथा भान्य मँहगे हों ॥४८॥ बुध धान्याधिपति हो तो समस्त पृथ्वी जलवाली याने वर्षा अच्छी हो, भयका नाश और मनुष्य सुखी हों, चर्ने आदि धान्य अधिक हों ॥ ४६ ।। बृहस्पति धान्याधिपति हो तो सब लोगों में आनंद हो, वर्षा अच्छी हो और धान्य प्राप्ति अधिक हो ॥५०॥ शुक्र धान्याधिपति हो तो समस्त जगत् रोग "Aho Shrutgyanam" Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेबमहोदये रोगैर्मुक्तं जगत्सर्व भयमुक्ता भवेन्मही । पच्यन्ते सर्वधान्यानि यत्र सस्याधिपः कविः ॥५२॥ अग्निचौराकला पृथ्वी महा व्याधिप्रपीडिता। मृत्युरोगमयं युद्धं वर्षे सस्याधिपे शनौ ॥५२॥ गिरधरानन्दे पुनः सस्याधिरफलम् --~-- वर्षेश्वरश्च भूपो वा सस्येशो वा दिनेश्वरः। तस्मिनन्दे नृपाः क्रूराः खल्पसस्याल्पवृष्टयः ॥५३॥ अब्दपो वा चम्पो वा सस्यपो वा क्षपाकरः। तस्मिन् करोति क्षमा पूर्णी धान्यार्थवृष्टिभिः ॥५४॥ प्रदेश्वरचमूपो वा सस्येशो वा धरासुतः। प्रवृष्टिवाहिचौरेभ्यो भयमुत्पादयत्ययम् ॥५५॥ अन्दाधिपश्चमूपो वा सस्येशो वा शशाङ्कजः । न करोति कलिं कष्ट-मवृष्टिमतिमारुतम् ॥५६॥ चम्पो वाथ सस्येशो वर्षे शो वा गिरांपतिः। रहित हो और पृथ्वी भय रहित हो, तथा सब प्रकार के धान्य उत्पन्न हो . ॥५१॥ शनि सस्याधिपति हो तो अग्नि और चोरोंसे पृथ्वी आकुल हो, महाव्याधि से पीडित हो. मृत्यु और रोगका भय, तथा युद्ध हो ॥५२॥ जिस वर्ष में वर्षपति मंत्री कौर धान्यति सूर्य हो, उस वर्ष में राजा , र स्वभाववाले हों, थोड़ा धान्य और थोड़ी वर्षा हो ॥५३॥ वर्षपति, मंत्री और धान्याधिपति चंद्रमा हो तो उस वर्ष में पृथ्वी धन धान्य और वर्षा से परिपूर्ण हो॥५४॥ वर्षपति मंत्री और धान्याधिपति मंगल होतो. वर्षाका अभाव, अग्नि और चौरोंसे भय उत्पन्न हों ॥ ५५ ॥ वर्षपति मंत्री और धान्याधिपति बुध हो तो कलह कष्ट न हो, बर्षाका अभाव और पवन अधिक चले ॥५६॥ वर्षपति मंत्री और धान्यपति बृहस्पति हो तो भूमि में अधिक या और वर्षा हो ॥५७॥ वर्षपति मंत्री और धान्यपति शुक "Aho Shrutgyanam" Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम करोत्यतुलितां भूमिं बहुयज्ञार्थवृष्टिभिः || ५७ ज वर्षेशोऽप्यथ सस्येश अमूपो बाथ भार्गवः । महीं करोति सम्पूर्णा बहुधान्यफलादिभिः ॥५८॥ अब्देश्वरश्वमूपो वा सहयेशो वार्कनन्दनः । तस्मिन् वर्षे तु चौराग्नि-धान्यभूपभयप्रदः ॥ ५६ ॥ यदान्देशग्धमूनाथः सस्यपानां बलाबलम् । तत्कालग्रहचारच सम्यग् ज्ञात्वा फलं वदेत् ||३०|| इति वर्षेशमंत्रिघान्यपतीनां फलानि । अथ राजादिविचारो गार्गीयसंहितायाम्चैत्रशुक्लाद्य दिवसे यो वारः सोऽब्दपः स्मृतः । शुभं वाप्यशुभं सर्व तस्मादेव फलं स्मृतम् ॥ ६१ ॥ उदये प्रतिपद्येवं मुहर्त्तद्वयमस्ति चेत् । तस्मिन् दिने तु यो वारः स तु संवत्सराधिपः ||३२|| चैत्रमेषादिचापार्दा तुलाकर्कटकेषु च । नृपो मंत्री धान्यमेघ - रससस्याधितः क्रमात् ॥६३॥ (२७१) हो तो सम्पूर्ण पृथ्वी बहुत धन धान्यसे पूर्ण हो ॥ ५८ ॥ वर्षपति मंत्री और धान्यपति शनि हो तो उस वर्ष में चोर अग्नि धान्य और राजा ये मयदायक हों ॥ ५६ ॥ इसी तरह वर्षपति मंत्री और धान्याविपति इनके बलाबलका तथा तात्कालिक ग्रहचार का अच्छि तरह जानकर फल कहना || ६० ॥ इति वर्षपतिमंत्रिधान्यपतीनां फलानि ॥ चैत्र शुक्र के आद्य दिनमें जो वार हो वह वर्षपति है, उससे शुभाशुभ समस्त फल जानना || ६ १ || सूर्योदय के समय दो मुहूर्त भी प्रतिपदा हो और उस समय जो जो वार हो वह वर्ष का अधिपति है ॥ ६२ ॥ चैत्र शुक्लाद्य दिन, मेषसंक्रान्ति, धनुसंक्रान्ति, आर्द्रार्क तुलासंक्रान्ति और कर्क संक्रान्ति इन दिनोंमें जो बार हो वे क्रमसे राजा, मंत्री, धान्येश, मेघाधि "Aho Shrutgyanam" Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) मेघमहोदये जगन्मोहने तु चैत्रादिमेषादिकुलीरतौली, मृगादिवाराधिपतिः क्रमेण । राजा च मंत्री ह्यथसस्यनाथो, रसाधिपो नीरसनायकश्च ॥४॥ आर्द्रादिनाथो जलनायकश्च, धान्याधिपश्चापदिनादिवारः। गौर्जरमते- यो फाल्गुनान्ते कुहुभुक् स वारो, राजा भवेद् गौर्जरसंमतोऽयम् ॥६५॥ कश्यपः-- चैत्रशुक्लादिदिवसे स किंस्तुध्नेऽथ बालवे । अर्कोदये तु यो वारः सोऽन्दपः परिकीर्तितः ॥६६॥ अथैषां फलानि रामविनोदे, तत्र वर्षराजफलम्---- मेघाः स्वल्पोदका धान्यं स्वल्पं स्वल्पफला द्रुमाः । चौराग्निभूपतिभयं भास्करे भूपतौ सति ॥६७॥ चान्द्रेऽब्दे निखिला गावः प्रभूतपयसोद्धराः। भाति सस्थार्थपानीयं द्युचरस्पर्द्धिमानवैः ॥६॥ पति, रसाधिपति और धान्याधिपति हैं ॥६३॥ जगन्मोहन ग्रन्थमें कहा है कि- चैत्र शुक के अाद्य दिन, मेषसंक्रान्ति, ककसंक्रान्ति, तुलासंक्रान्ति, और मकरसंक्रान्ति इन दिनों में जो वार हो वे कसे गजा, मंत्री, धान्याधिपति, रसाधिपति और नीरसाधिपति हैं ॥६४॥ आर्किके दिन जो वार हो वह जलाधिपति है, धनुसंक्र.न्तिके दिन जो वार हो वह धान्याधिपति है । गौर्जरमत से तो जो फाल्गुन के अन्त अमावस के दिन जो वार हो वह राजा होता है ॥६५॥ कश्यपऋषि कहते है कि- चैत्र शुक्ल के आदि दिन किंस्तुघ्न या बालव करणमें सूर्योदय के समय जो वार हो वह वर्ष का राजा है ।। ६६ ।। . . जिस वर्ष में वर्षपति सूर्य हो उस वर्ष में वर्षा थोड़ी, धान्य थोड़ें, वृक्षोंमें फल थोड़ें, और चोर अग्नि तथा राजाका भय हो ॥६७॥ चंद्रमा हो तो समस्त गौ बहुत दूध देनेवाली हों, धन धान्य और जल वर्षा बहुत "Aho Shrutgyanam" Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (२७३) अनितस्कररोगाः स्युनुपे विग्रहदायकाः । हतसस्यजला भौमे वर्षेशे भूः सुदुःखिता ॥६९॥ प्रभूतवायुः सौम्येऽब्दे मध्याः सस्थार्थवृष्टयः । नृपसंक्षोभसम्भूता भूरिलेशभुजा प्रजाः ॥७॥ गुरौ संवत्सरे भूपाः शतधाध्बरशालिनः । सम्पूर्णवृष्टिसस्यार्था नीरोगाः सुखिनो जमाः ॥७९॥ यवगोधूमशालीच-फलपुष्पार्थवृष्टिभिः । सम्पूर्णा निखिला धात्री भृगुपुत्रस्य वत्सरे ॥७२॥ सौराब्दे मध्यमा वृष्टि-रीतिभतिभयं रुजः। सङ्कामो घोरधात्रीशः पलक्षुण्णाखिला धरा ॥७३॥ मन्त्री फलं तत्र वशिष्ठ:------ दिनकृति मन्त्रिणि सततं विचित्रवर्षाणि सर्वसस्पानि । क्षितिपतिकोपो विपुलो विपिनारामाश्च सीदन्ति ॥७॥ अच्छी हो, मनुध्य देवों की स्पा करें ॥६८॥ मंगल हो तो भनि चोर और रोग अधिक हों, राजाओं में विग्रह, पृथ्वी धान्य और जल से रहित हो और दुःखी हो ॥६६॥ बुध वर्षपति हो तो वायु अधिक चले, धन धान्य और वृष्टि मध्यम हो, राजाभोंका क्षोभसे उत्पन्न हुमा बहुत केशको भोगनेवाली प्रजा हों ||७०॥ गुरु वर्षपति हो तो राजा सैंकड़ों यज्ञ करने वाले हों, सम्पूर्ण पृथ्वी धन धान्य और वृष्टिसे पूर्ण हो और मनुष्य रोगरहित सुखी हों ॥७१॥ शुक्र हो तो सम्पूर्ण पृथ्वी जव, गेहूँ, चावल, फल, पुष्य और वर्षा आदिसे पूर्ण हो ॥७२॥ शनि वर्षपति हो तो मध्यम वर्षा, ईतिका भय, रोग का भय और राजाओं का घोर संग्राम हो, समस्त पृथ्वी सैन्यसे दुभित हो ॥७३॥ .. जिस वर्षमें सूर्य मंत्री हो उस वर्षमें निरंतर विचित्र वर्ष हो, सब प्र. कारके धान्यका विनाश, राजाओं अधिक कोपवाले हों, नाग बगीचें और "Aho Shrutgyanam" Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये (२७५) तुहिनकरे सचिवे भूर्नानाविधसस्यदृष्टिसम्पूर्णा । द्विजसज्जन पशुवृद्धिः काननफलपुष्पजन्तूनाम् ॥७५॥ दहनप्रहरण सञ्चरमरुदामयभीतिरीतिरतुला स्यात् । क्षितितनये सति मन्त्रिणि शोषं समुपैति निम्नभवसस्यम् ।७६ । मन्त्रिणि शशांकतनये प्रभूतवायुर्निरन्तरं वाति । मध्यमफलदा - धरणी विभाति सुरसद शलोकैच ॥७७॥ सचिवे वाचामी धननिचयं च सत्यसम्पूर्णम् । जगदेखिलं जलपूर्ण प्रभूतराज्योत्सवैा युतम् ॥७८॥ उच्चरति ध्वनिरनिशं विप्राणामध्वरे जगत्यखिले । अनिमिषहृदयानन्दं कुर्वच सचिवे सुरारिगुरौ ॥७६॥ मन्दफला निखिलधरा न वापि मुखन्ति वारि वारिधराः । दिनकरतनये सचिवे प्रभया रहितं जगत्सर्वम् ॥८०॥ धान्येशफलम् ---- सूर्ये धान्यपतौ वैर-मनावृष्टिर्भयं तथा । जंगल आदिका नाश हो ॥ ७४ ॥ चंद्रमा हो तो अनेक प्रकार के - धान्य हो वृष्टि पूर्ण हो, ब्राह्मण, सज्जन, पशु, फल पुष्प और प्राणियों की वृद्धि हो ॥ ७५ ॥ मंगल हो तो अभिसे आघात, वायु का संचार अधिक, रोगका भय और ईतिका अधिक उपद्रव हो, तथा उत्पन्न होनेवाले धान्य सूख जाय ॥ ७६ ॥ बुध हो तो निरंतर बहुत वायु चले, पृथ्वी मध्यम फलदायक हो, देवताके सदृश लोक शोभा पावें ॥ ७७ ॥ बृहस्पति हो तो धन प्राप्ति च. धिक, समस्त धान्य उत्पन्न हों, समस्त पृथ्वी जलपूर्ण हो और राज्यों में उत्सव हो ॥ ७८ ॥ शुक्र मंत्री हो सो समस्त पृथ्वी में ब्राह्मणों की वाणी देवों के हृदयको मानन्द करनेवाला यज्ञ के विषे निरंतर हो ॥ ७६ ॥ शनि मंत्री हो तो समस्त पृथ्वी मंद फलदायक हो, मेघ वर्षा करे या न भी करे, - समस्त जगत कान्ति होनहो ॥ ८० ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वषेराजादिकफलम (२७५) अधर्मनिरता लोका राजानः कृरशासनाः ॥८॥ चन्द्र धान्येश्वरे धान्य सुलभं जायतेऽखिलम् । बिजगोकुलवृद्धि राजानो मुदितास्तथा ॥८॥ भौमे धान्येश्वरे धान्यं प्रियं स्याचौरतो भयम् । वैरिवहध बाहुल्यं प्रजाहानिः प्रजायते ॥८॥ धान्येश्वरे चन्द्रसुते राजानः प्रीतिमाश्रिताः । कचित् क्वचिदष्टिः स्यात् सस्यं निष्पद्यते कचित् ॥८४॥ धान्येशे देवपूज्ये स्यादानायस्य प्रवर्तनम् । वृष्टिः स्यान्महती धान्यं प्रचुरं सुलभं तथा ॥८॥ शुके धान्याधिपे लोका मुदिताः स्युः परस्परम् । पशुसस्याभिवृद्धिः स्याद् धर्मोत्सवषिवर्द्धनम् ॥८६॥ मन्दे धान्येश्वरे धान्यं प्रियं स्यात् क्षितिपालकाः । परस्परं विरुध्यन्ते दस्युभीतिरवर्षणम् ॥८॥ जिस वर्ष में सूर्य धान्याधिपति हो उस वर्ष में अनावृष्टि तथा भय . उत्पन्न हो, लोक पापकार्य में तत्पर हों और राजा कू शासनवाले हों ॥ ८१ ॥ चन्द्रमा धान्याधिपति हो तो सब प्रकारके धान्य उत्पन्न हों ब्राह्मण स्था गौकी वृद्धि हो और राजा मानन्दित हों ||८२॥ मंगल धान्यपति हो तो धान्य प्रिय याने महँगा हो, चोर शत्रु और अग्निसे भय, प्रजाकी हानि अधिक हों ॥८३॥ बुध धान्येश्वर हो तो राजाओं अन्योऽन्य प्रीति करें,. कहीं कहीं वर्षा न हो और क्वचित् धान्य उत्पन्न हो ॥ ८४ ॥ बृहस्पति धान्येश हो तो प्राचिन रीतिके अनुसार कार्य हो, महान् वर्षा तथा धान्य बहुत सस्ते हों ॥८॥ शुक्र धान्येश हो तो सब लोग अन्योऽन्य आनन्दित हों, पशु और धान्यकी वृद्धि और धर्मोत्सव अच्छे हों ॥८६ ॥ शनैश्चर धान्येश हो तो धान्य प्रिय अर्थात् महँगा, राजाओं अन्योऽन्य विरोध करें, चोरोंका भय हो और वर्षा न हो ॥८७|| "Aho Shrutgyanam" Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोदये (201) मेघाविपति फलम् - मेघाधिपती सूर्ये स्वल्पं मेघा जलं विमुञ्चन्ति । राजक्षोभस्तस्कर भीतिः स्यादर्घबाहुल्यम् ॥८८॥ चन्द्रे मेघाधिपतौ सस्यद्विजसौख्यवृद्धिरतुला स्थात् । सम्पूर्णजला पृथिवी विज्जनसम्प्रवृद्धिश्च ॥८९॥ भौमे जलदस्वामिनि वह्निभयं दस्युभीर्भुजङ्गभयम् । दुर्भिक्षावृष्टिकृतैरुपद्रवैः पीड्यन्ते त्रिजगत् ॥ ६०॥ सौम्ये मेघस्वामिनि वृष्टिर्बहुलाज्जनानन्दः । लिपिलेख्यकाव्यगणितज्ञातिसुखं सस्यसम्पदपि ॥ ९१ ॥ गुरुरब्दाधिपतिश्चेत् सुदृष्टिसस्याभिवृद्धयः । दोमं याज्ञिकं जनसम्पत्तिः साम्राज्यं धर्मसंसिद्धिः ॥६२॥ शुक्रो मेघाधिपतिः कामिजनानां सुखावहो भवति । गावः प्रभूतदुग्धा वसुधा बहु सस्यसम्पूर्णा ॥ ६३॥ शनौ मेघाधिनाथे स्याद् वात्यामण्डलसम्भ्रमः । जिस वर्ष में सूर्य मेवाधिपति हो उस वर्ष में वर्षा न हों, राजाओं क्षुमित हों, चोरोंका भय और अर्थ की बहुलता हो ॥८८॥ चंद्रमा मेघात्रिपति हो तो धान्य द्विज और सुखकी बहुत वृद्धि हो, सम्पूर्ण पृथ्वी जल से चार्दित हो और विद्वान लोगोंकी वृद्धि हो ॥६॥ मंगल हो तो अनि का भय, चोरोंका भय, समका भय, दुर्भिक्ष, और अनावृष्टि आदि उपद्रवों से तीनों ही जगत् पीड़ित हों ॥ ६० ॥ बुध हो तो अधिक वर्षासे लोग आनंदित हो, लिपि, लेखक, काव्य, गणित आदि कार्य करनेवाली ज्ञाति को सुख हो और धान्य संपदा प्राप्त हो ॥ ६१ ॥ गुरु मेवाधिपति हो तो अच्छी वर्षा हो, धान्यकी वृद्धि हों, कुशल, याज्ञिक, जनसम्पत्ति, साम्राज्य और धर्म की सिद्धि इनकी वृद्धि हो ॥ ६२ ॥ शुक्र मेघपति हो तो काभि लोगोको -सुख हो, गौ अधिक दूध दें, पृथ्वी बहुत प्रकारके धान्यसे पूर्ण हो "Aho Shrutgyanam" Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिक्रफलम् (२७७) क्वचिद् घृष्टि क्वचित् क्षेमं सस्यनाशः प्रजायते ॥४॥ रसेशफलम् चन्दमकुंकुमगुग्गुल-तिलतैलैरण्डतैलमुख्यानि । प्रचुराणि रसान्यतुलं रसनाथे भास्करे सततं ॥६५॥ रसानीत्यत्र लिङ्गव्यत्यय आर्ष:---- इक्षुविकारं त्वखिलं क्षीरविकारं च सर्वतैलानि। गन्धयुतानिच सर्वा-ण्यतिसुलभानि च रसाधिपे चन्द्रे।९६। भुवि रसनिचयचन्दन-कुसुमविशेषाश्च चन्दनाचं च । दुर्लभमवनीसूनौ रसाधिपे मधुरवस्तृनि ॥१७॥ शशितनये रसनाथे विषाग्नी झूठी च हिंगुलशूनानि । घृततेलाचं निखिलं दुर्लभमिक्षूद्भवं सर्वम् ।।९८॥ रसनाथे दिविजगुरौ चन्दनकपूरकन्दमूलानि । सुलभानि रसान्यतुलान्यतुलं सीदन्ति कुंकुमाद्यानि ॥९॥ सुगन्धवस्तूनि सिते रसेशे, निर्गन्धवस्तूनि रसादिकानि । ॥६॥ शनि मेघाधिपति हो तो अधिक वायु चले, कचित् वर्षा, कचित कल्याण और धान्धका नाश हो ॥ ६४ ॥ जिस वर्षमें रसाधिपति सूर्य हो उस वर्षमें चंदन, कुंकुम, गूगल, तिल, तैल, रेडी का तेल अादिकी बहुत वृद्धि हो १६५।। चंद्रमा रसाधिपति हो तो इक्षुरस और दूध इन से बनी हुई सब चीज, सब प्रकार के तैल और सुगंधी वस्तु ये सब सस्ते हों ॥६६॥ मंगल रसाधिपति हो तो सब प्रकार के रस, चंदन कुसुम और मधुर वस्तु ये सब दुर्लभ हों ।। ६७ ॥ बुध रसाधिपति हो तो विष चित्रक सोंठ हिंग,लशून घी तैल और इतुरस से बनी हुई सब वस्तु दुर्लभ हों ।।६८॥ बृहस्पति रसाधिपति हो तो चंदन कपूर कंदमूल और सब प्रकारके रस सस्ते हों, तथा कुंकुम आदिका नाश हो|EET शुक रसाधिपति हो तो सुगंधित वस्तु, तथा गंधरहित वस्तु, दूध आदि सब "Aho Shrutgyanam" Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८) मेघमहोदये क्षीराणि सर्वाणि चकन्दमूल-फलानि पुष्पाणि बहनि तानि॥ रसेश्वरे सूर्यसुते धरियां, दुःखेन लभ्यानि रसायनानि। सुगन्धवस्तूनि घृतेक्षुकन्द-मूलानि चान्यात सुलभं भुषि स्यात्।१ सस्याधिपतिफलम्--- सस्यं चाग्रजधान्यं तदधीशेऽऽल्पसर्वसस्यानि । अतिविपुलं स्वीतिभयं कुलत्थचणकादिसम्पूर्णम् ॥१०॥ सस्यपती तुहिनकरे रमणीयजनाश्रया स्मृताधरणी। फलपुष्पसस्यवारिभिरमिता ह्यधिराजसौख्यसुता ॥१०॥ सीदन्ति सस्यनिचया भुवि भौमे सस्यपे किलोमभयात् । अपराखिलधान्यभयं क्वचित् क्वचिद् भवति सस्यभयम् ॥४॥ अनिलहतं सस्थमिदं कचिद् भवेन्मध्यवृष्टिसम्पन्नम्। शशितनये सस्यपतौ त्वपरं धान्यं प्रभूतफलम् ॥१०॥ सस्यपतौ दिविजगुरौ बहुविधसस्यार्थवृष्टिसम्पूर्णा । प्रकारके रस, कंदमूल, फल और पुष्प ये सब बहुत उत्पन्न हो ॥१०॥ शनैश्चर रसाधिपति हो तो पृथ्वी में रसायन, सुंगधित वस्तु, घी, गुड, कंदमूल आदि ये सब कष्टसे प्राप्त हों और सब सुलभ हों ।। १०१ ॥ जिस वर्षमें सस्याधिपति सूर्य हो उस वर्षमें सब प्रकार के धान्य थोड़े हों, ईतिका भय अधिक हो और कुलथी चणा आदि पूर्ण उत्पन्न हों ॥१०॥ चंद्रमा धान्याधिपति हो तो मनुष्यों को आश्रय करने लायक मनोहर पृथ्वी हो, फल पुष्प धान्य और जलसे पूर्ण ऐसी राजाओंको सुख देनेवाली पृथ्वी हो॥१०३।। मंगल धान्येश हो तो पृथ्वी पर धान्य के समूह नाश करें, उष्णता का भयसे समस्त प्रकार के धान्य का भय रहे और क्वचित् सस्य भय हो ॥ १०४ ॥ बुध धान्यपति हो तो मध्यम वर्षा से उत्पन्न हुए धान्य वायुसे क्वचित् विनाश हो और दूसरे धान्य तथा फल अधिक हो ॥१०५॥ बृहस्पति धान्येश हो तो बहुत प्रकार के धान्य और वर्षा पूर्ण हो, टंकन तथा "Aho Shrutgyanam" Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिवफलम् (२७६) दरणमागधदेशे मध्यमसस्यार्घवृष्टिः स्यात् ॥१०६॥ दैत्येज्ये सस्यपतो यहुविधफलपुष्पसस्यसम्पूर्णम् । अमरविडम्बितजनतासम्पूर्ण भाति भूमितलम् ॥१.०७॥ मध्यमसस्यं क्षितितल-मीनतनये सस्थपे न राजभयम् । कोद्रबकुलत्थचणकै-र्मुिद्रश्च विपुलतरम् ॥१०९।।: नीरसाधिपतिफलम् ----- नीरसाधिपती सूर्ये ताम्रचन्दनयोरपि । ..... रनमाणिक्यमुक्तादे-रर्थवृद्धिः प्रजायते ॥१०९॥ शुक्लवर्णादिवस्तूनां मुक्तारजतवाससाम् । . . . प्रजायते पर्थवृद्धिः शशांके नीरसाधिपे ॥११०॥ नीरसेशो यदा भौमः प्रवालरक्तवाससाम् । . . . रक्तचन्दनताम्राणा-मर्घवृद्धिर्दिने दिने ॥११॥ चित्रवस्त्रादिकं चैव शङ्खचन्दनपूर्वकम् । . अर्घवृद्धिः प्रजायेत नीरसेशो बुधो यदि ॥११२।। हरिद्रापीतवस्तूनि पीतवस्त्रादिकं च यत् । मगधदेश में धान्य और वर्षा मध्यम हो ॥१०६ ॥ शुक्र धान्येश हो तो बहुत प्रकार के फल पुष्प तथा धान्य से पूर्ण शोभायमान भूमितल हो ॥ १०७ ॥ शनैश्वर धान्याधिपति हो तो भूमितल में मध्यम धान्य हो, राज भय न हो, कोद्रव, कुलथी, चणा, उर्द और मूंग ये अधिक हों ॥१०८॥ जिस वर्षमें नीरसाधिपति सूर्य हो उस वर्षमें तांबा, चंदन, रज, माशिवय, मोती आदि की मूल्यवृद्धि हो ॥१०६ ॥ चन्द्रमा नीरसाधिपति हो तो सफेदवर्ण की वस्तु, मोती चांदी और वस्त्र इनकी मूल्यवृद्धि हो । ११० ॥ मंगल नीरसेश हो तो मूंगा, लालवस्त्र, रक्तचंदन और तांबा इन की दिन दिन वृद्धि हो ॥१११॥ बुध नीरसपति हो तो चित्र विचित्र वस्त्र तथा शंख और चंदन-आदि की वृद्धि हो. ॥११.२॥ बृहस्पति नीरसाधिपति "Aho Shrutgyanam" Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८०) मेघमहोदये. नीरसेशो यदा जीवः सर्वेषां प्रीतिरुत्तमा ॥११३॥ . कर्परागरुगन्धानां हेममौक्तिकवाससाम् । अर्घवृद्धिः प्रजायेत मन्दे नीरसनायके ॥११४॥ अथ मेघादिप्रसंगाद् भाद्रीप्रवेशे तिथ्यादिफलं जगन्मोहने प्रतिपद्यपि चार्टायां प्रवेशः शुभदो रवेः। द्वितीयायां सस्यवृद्धि-स्तृतीयायामोतिकारणम् ॥११५॥ चतुर्थ्यामशुभः प्रोक्तः पञ्चम्यामुत्तमोत्तमः। ... षष्ठयां धनसमृद्धिः स्यात् सप्तम्यां क्षेममुत्तमम् ॥११६॥ अष्टम्यामल्पवृद्धिः स्या-नवम्यामीतिबाधनम् । दशम्यां शुभदः प्रोक्त एकादश्यां सुभिक्षकृत् ॥११७॥ द्वादश्यामन्नसम्पत्यै त्रयोदश्यां जलप्रदः। भूते त्वर्थविनाशाय पूर्णा पूर्णफलप्रदा ॥११८॥ .. अमायां राज्यनाशाय पक्षयोरुभयोरपि। हो तो हल्दी आदि सब पीत वस्तु और पीतवस्त्र की वृद्धि हो, सबके उपर उत्तम प्रीति हो । शुकका फल भी इसी तरह समझना ॥११३॥ शनि रसाधिपति हो तो कपूर अगर अ.दि सुगंधित वस्तुओं की तथा सुवर्ण मोती और वस्त्र इनकी मूल्यवृद्धि हो ॥ ११४॥ - सूर्य प्रार्द्रा नक्षत्र पर यदि प्रतिपदाको प्रवेश करे तो शुभ दायक है, द्वितीयाको धान्य वृद्धि, तृतीयाको ईतिका भय ॥ ११५॥ चतुर्थीको अशुभ, पंचमी को उत्तम, षष्ठी को धनसमृद्धि, सप्तमी को कुशल ॥११६॥ अष्टमी को वर्षा थोड़ी, नवमी को ईतिका उपद्रव, दशमी को शुभदायक, एकादशी को शुभिक्ष कारक ॥११७॥ द्वादशीको धान्यसंपत्ति, त्रयोदशीको जलदायक, चतुर्दशीको अर्थनाशकारक, पूर्णिमाको पूर्णफलदायक हो ॥११८। और अ. . मावस के दिन मार्दा नक्षत्र पर सूर्य मावे तो राज्यका नाश हो, स्वपक्षीय भौर पर (शत्रु) पक्षीय ये दोनों पक्षके राज्यका विनाश हो और अपनी पक्ष "Aho Shrutgyanam" Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (२८) राज्ञां स्वपक्षदेशीया रिष्यः परपक्षगाः ॥११॥ वारफलम्-- रोद्रे रवर्भानुवारे प्रवेशः पशुनाशनः ।.. सोमे सुभिक्षदः प्रोक्तो भौमे निधनमामुयात् ॥१२०॥ बुधे क्षेमं सुभिक्षं च गुरौ चार्थसमृद्धये। ... शुक्रे शानिलकरः प्रोक्तो मन्दे मन्दफलं भवेत्॥११॥ नक्षत्रयोगफलम्----- . . प्रविष्टे रौद्रनक्षत्रे त्यश्चिन्यां तुःशुभं भवेत् । भरण्यामशुभं प्रोक्तं कृत्तिकायामवर्षणम् ॥१२२॥ धातृखये सुमितं च रौद्र रौद्रकृद् भवेत् । षुष्ये जलप्लुता लोका अदितिश्चाभिवृद्धये ॥१२३॥ सा भेदारुणं दुःखं सर्वसौख्यक्निाशनम्। मघायां स्वल्पवृष्टिः स्याद् भाग्ये कीर्तिकरं भवेत् ॥१२४॥ के भी शत्रु के पक्षमें मिल जावें ॥ ११६ ॥ सूर्यका आर्द्रा नक्षत्र में रविवारके दिन प्रवेश हो तो पशुओंका नाश करें, सोमवार के दिन सुभिक्ष और मंगल के दिन मरण करे ॥ १२० ॥ बुधवार के दिन क्षेम और सुभिक्ष करे, गुरुवार के दिन अर्थसिद्धि हो,शुक्र के दिन शान्तिदायक और शनिवार के दिन प्रवेश हो तो मंदफल दायक है ।। १२१ ॥ सूर्य आ नक्षत्र में अश्विनीनक्षत्र के दिन प्रवेश हो तो शुभ, भरणी नक्षत्रके दिन अशुभ, कृत्तिकाके दिन वर्षा का नाश हो । १२२।। रोहिणी और मृगशिरके दिन सुभिक्षकारक, आद्रांक दिन भयानक, पुनर्वसुके दिन वृद्धिकारक, पुष्यके दिन प्रवेश हो तो देश जल से प्लवित हो याने अच्छी वर्षा हो ॥१२३॥ आश्लेषा के दिन भयंकर दुःख और समस्त सुखों का विनाश, मघाके दिन थोड़ी वर्षाकारक और पूर्वाफाल्गुनीके दिन कीतिकारक "Aho Shrutgyanam" Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) मेघमहोदये उत्तरात्रितये वृद्धिः करे सर्वसुखावहम् । मित्रायां चित्रधान्यानि सदा शुभफलं भवेत् ॥१२५॥ स्वाती सस्याभिवृद्धिः स्याद् विशाखारोगनाशनम् ।। मैत्रे सर्वमहीपालाः सन्तुष्टाः सर्वजन्तवः ॥१२६॥ ऐन्द्रे सर्वभयं कुर्यादु मूले सर्वभयावहः । जलः चासियुद्धं स्याद् विश्वभे श्रवणे शुभम् ॥१२॥ वासवः तु धरणी सम्पूर्णफलदायिनि । . शतभे जलसम्भूर्णा पूर्वाभारे तु शोभनम् ॥१२८॥ नृपध्वंस: पौष्णभृक्षे विष्कम्भपञ्चकं शुभम् । सुकर्मा ध्रुववृद्धी च हर्षणः सिद्धिसाधकौ ॥१२९॥ शिवसिद्धौ शुभः शुक्ल ऐन्द्र एते शुभावहाः । शेषास्तु मध्यमाः सर्वे स्वमानानुगताः फले ॥१३०॥ श्रा प्रवेशे वेला लग्नम्----- है ॥१२४। तीनों उत्तरा के दिन वृद्धिकारक और मनुष्योंको सुखकर हो, : चित्रामें चित्रविचित्र धान्य हों तथा सर्वदा शुभफलदायक हो ॥१२५।। स्वाति के दिन धान्यकी व द्धि, विशाखाके दिन रोग नाशक, अनुराधाके दिन प्रवेश हो तो समस्त राजाओं तथा समस्त प्राणी संतुष्ट हो ॥१२६। ज्येष्ठा के दिन सब प्रकारके भयदायक, मूलके दिन सब भयदायक, पूर्वाषाढा के दिन बहुत युद्ध हो, श्रवणके दिन शुभ ।। १२७ धनिष्ठाके दिन पृथ्वी सम्पूर्ण फलदायक हो, शतभिषाके दिन जलसे पूर्ण और पूर्वाभाद्रपदाके दिन प्रवेश हो तो शुभ हो ॥ १२८ । और सूर्यका आई नक्षत्रमें रेवतीनक्षत्र के दिन प्रवेश हो तो राजाका विनाश हो ॥ योगफल- विष्कंभ आदि पांच योगके दिन प्रवेश हो तो शुभ है, सुकर्मा, ध्रुघ, दृद्धि, हर्षण, सिद्धि, साधक, शिव, 'सिद्धि, शुभ, शुक्ल और ऐन्द्र ये सब शुभकारक हैं और बाकीके योग अपने नाम सदृश मध्यम फल देनेवाले हैं ॥१२६॥ १३० ।। "Aho Shrutgyanam" Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजाकिफलम् (२८३) पूर्वालकाले जगतो विपत्ति-र्माध्याहिके त्वल्पफला च पृथ्वी ।। अस्तंगतााबासस्यसम्पत् ,क्षेमंसुभिक्षं स्थिरमर्द्धरात्रौ॥१३१ आर्द्राप्रवेशेयदि भास्करस्य, चन्द्रस्त्रिकोणे यदि केन्द्रगोवा जलाश्रयेसौम्यनिरीक्षितेच, सम्पूर्णसस्या वसुधालदास्यात्।। दिवाळ सस्यनाशाय राघौ सस्यविद्धये। . अस्तगेऽर्केऽर्द्धरात्रे या समर्घ बहकृष्टयः ॥१३॥ अथ वर्षेशमंत्रिप्रसङ्गाद् वर्षजन्मलग्नं विचार्यते ---- चैत्रमासे पुनः प्राप्ते लोकानां हितहेतवे । मेषसंक्रान्तिवेलायां लग्नं शोध्यं शुभाशुभम् ॥१३४॥ यदा शुभग्रहैदष्टं लग्नं स्यात् तु तदा शुभम् ।। धनधान्यादिसम्पूर्ण सर्व वर्षे शुभावहम् ॥१३॥ भावा द्वादश ते मासाः सौम्याः ऋराः ग्रहाः पुनः। तेषु मासेषु दिशि च फलं ज्ञेयं शुभाशुभम् ॥१३६॥ सूर्य प्रार्द्रा नक्षत्र पर पूर्वाह्नमें प्रवेश हो तो जगत् को दुःख कारक, मध्याह्नमें प्रवेश हो तो पृथ्वी थोड़ा फलदायक हो, दिनास्त के समय प्रवेश हो तो धान्य संपत्ति बहुत हो और अर्द्धरात्रिमें प्रवेश हो तो क्षेन और मुभिक्ष हो ॥ १३१॥ जब सूर्यका आर्द्रा नक्षत्र पर प्रवेश हो उस समय चन्द्रमा त्रिकोण या केन्द्रमें हो, तथा जलचर राशि में हो और शुभग्रह देखते हो तो सम्पूर्ण पृथ्वी धान्यसे पूर्ण हो ॥१३२॥ दिनमें श्राद्रा का प्रवेश हो तो धान्यका विनाश, गत्रिमें प्रवेश हो तो धान्यकी वृद्धि, और अस्त समय अथवा आधीरातमें प्रवेश हो तो अन्न सस्ते हों और वर्षा अच्छी हो ॥१३३ ॥ लोगोंके हित के लिये चैत्रमास में मेषसंक्रान्ति के समय लग्नका शुभाशुभ विचार करें ॥१३४॥ यदि लग्नमें शुभग्रह की दृष्टि हो तो शुभ और धनधान्य से पूर्ण समस्त वर्ष सुखकारी हों ।।१३५॥ बारह भाव है वे बारह मास है, जिसमें सौम्य या क्रूर ग्रह हों उस मास में और उनकी दिशा में शुभा "Aho Shrutgyanam" Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये मेमनवेशलोच गदि स्याद् वर्षजन्मनि । सहस्थो यदा पापो धान्यजातं विनाशयेत् ॥१३७॥ चने व्यये व सौम्यश्चेत् केन्द्रे वा मेषसंक्रमे । स्वः शुभमुहद्दष्टः सुभिक्षं व्यत्ययोऽन्यथा ॥१३८॥ मतान्तरे पुनरेवम्-- गणकै क्षेत्रमासस्य शुक्लपक्षस्य मूलतः। प्रतिपल्लमवेलायां लग्नं शोध्यं शुभाशुभम् ॥१३॥ मेषलग्ने तु पूर्वस्यां दुर्भिक्षं राजविग्रहः । दक्षिणत्यां सुभिक्षं स्याद् बहुधान्यरसा च भूः ॥१४०॥ धान्यानां विक्रये लाभः पूर्णमेघमहोदयः । घृततैलादिवस्तूनां पण्यानां च महर्घता ॥१४॥ उत्तरस्यां सुभिक्षं स्याद् राज्ञामुछेगकारणम् । मध्यदेशे महावृष्टि-निष्पत्तिर्धान्यसन्ततः ॥१४२।। पृष्टेऽपि पश्चिमे कालः पूर्वस्यां राजविग्रहः । शुभ फल का विचार करना ॥१३६॥ मेष प्रवेश लग्नमें यदि वर्ष प्रवेश हो और सप्तम स्थानमें पाप ग्रह हो तो धान्यका नाश हो ॥ १३७|| अथवा मेषसंकान्ति के प्रवेशमें धन स्थान, व्यय स्थान और केन्द्र इनमें शुभग्रह हों, तथा अपने नक्षत्र पर शुभग्रह की या मित्रत्रह की दृष्टि हो तो मुभिक्ष होता है अन्यथा दुर्भिक्ष हो । १३८॥ ज्योतिषियोंको चैत्र मासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके दिन प्रारंभमें वर्ष लग्नका शुभाशुभ विचार करना चाहिये ॥१३६॥ मेष. लग्न में वर्ष प्रवेश हो तो पूर्व दिशामें दुर्भिक्ष और राज्य विग्रह । दक्षिण में सुभिक्ष, पृथ्वी धान्य और रससे पूर्ण हो ॥१४॥ धान्यको बेचने में लाभ, पूर्ण मेघ बरसे, बी, तेल आदि वस्तुओंकी महता हो ॥१४१॥ उत्तर में मुभिक्ष, राजाओं मे उग, मध्यदेशमें महावर्षा और धान्यकी प्राप्ति हो ॥१४२॥ वृषलग्नमें "Aho Shrutgyanam" Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकपालम् उदग्धान्यार्द्धनिष्पति-दक्षिणस्यां विकालता ॥१४॥ मिथुने बहुलं युद्धं पूर्वस्यां धान्यविक्रयः । उदग्दक्षिणयोर्मेघा बहवो धान्यसङ्ग्रहः ॥१४४॥ पश्चिमायां स्वल्पमेघा-श्छन्नभंगश्च विग्रहः ॥ मध्यदेशेऽर्द्धनिष्पत्ति-श्चतुष्पदसरोगता ॥१४॥ कर्के सुखानि पूर्वस्या-मुत्तरस्यां तु विग्रहः । स्यान्मासनवकं यावद् दुर्भिक्षं पश्चिमे दिशि ।।१४६।। धान्ये मासाष्टकं याव-चतुष्पदे च विक्रयः । दक्षिणस्यां मध्यदेशे सुख पीडा चतुष्पदे ॥१४॥ सिंहलग्ने दक्षिणस्यां दंष्ट्राभयमुदीर्यते । धान्ये समर्घता मास-षट्कं यावद् घनो महान् ॥१४८॥ पश्चिमायां धातुवस्तु-फलादीनां महर्घता। उत्तरस्यां महावृष्टिः सुखं राज्ये प्रजासु च ॥१४९॥ पूर्वयामर्द्धनिष्पत्तिः श्रेयोग्रे मासपञ्चकात् । वर्ष प्रवेश हो तो पश्चिममें दुष्काल । पूर्वमें राजविग्रह । उत्तरमें धान्यकी प्राप्ति मध्यम और दक्षिणमें विशेष काल हो ॥१४३॥ मिथुन लग्रमें वर्ष प्रवेश हो तो युद्ध विशेष हो, पूर्वमें धान्यका विक्रय करना, उत्तर और दक्षिण में वर्षा बहुत हो धान्यका संग्रह करना उचित है ॥१४४॥ पश्चिममें वर्षा थोड़ी, छत्रभंग और विग्रह हो, मत्र्यदेशमें अर्द्ध प्राप्ति और पशुओं में रोग हो ॥ १४५ ॥ कर्क लग्नमें वर्ष प्रवेश हो तो पूर्व में सुख, उत्तर में विग्रह हो, पश्चिा में नव मास दुकाल रहे ।।१४६॥ आठ मास पर्यन्त धान्य और पशुओं को बेचें, दक्षिणमें मध्यदेश में सुख और पशुओंको पीडा हो ॥१७॥ सिंह लग्नमें वर्ष प्रवेश हो तो दक्षिणमें दाढवाले जन्तुओं का भय, धान्य छ मास तक सस्ते रहे और वर्षा अधिक हो॥१४८॥ पश्चिममें धातु वस्तु और फलादिक मगे हों । उत्तरमें महावर्षा, राजा और प्रजाको सुख हो ॥१४॥ "Aho Shrutgyanam" Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोदये मध्यदेशे राजयुद्धं मासपञ्चकमुद्रसः ॥ १५०॥ कन्यायां सुखिता प्राच्यां घृते महर्घता मता । मञ्जिष्ठादिसमर्घत्वं यावन्मासश्रयं भवेत् ॥ १५१ ॥ मारिर्दक्षिणदेशे स्यात् तथा वहेरुपद्रवः । लोकदुःखं पश्चिमायां विग्रहोऽनमता ॥ १५२ ॥ चतुष्पदसुखं प्राच्या मुदीच्यां राजविग्रहः । मध्यदेशे प्रजाभङ्गः समत्वं घृते पुनः ॥ १५३ ॥ तुलालग्ने मध्यदेशे भङ्गश्च विग्रहः । धान्यस्य विक्रयः प्राच्यां छत्रभङ्गमुपद्रवः || १५४ || दुर्भिक्षं बहुलो वायुः स्वल्पमेघप्रघर्षणम् । पश्चिमायां महायुद्धं दंष्ट्रा भयं महर्घता ॥ १५५ ॥ दक्षिणस्यां सुखं लोके दुर्भिक्षं चोत्तरापथे । मासद्वयं पश्चिमायां किञ्चिदुत्पातसम्भवः ॥ १५६ ॥ वृश्चिके पश्चिमे देशे दुर्भिक्षं नवमासिकम् । (२८६) पूर्व अर्थ याने मध्यम प्राप्ति, आगे पांच महीनेके बाद श्रेष्ठ हो, मध्यदेश में पांच महीने राजाओं में युद्ध और देश उजाड हो ॥ १५० ॥ कन्या लग्न में वर्ष प्रवेश हो तो पूर्व में मनुष्य सुखी, घी महँगा और तीन मास तक मँजीठ आदि सस्ते रहें ॥ १५१ ॥ दक्षिण देशमें मारीका रोग तथा अभिका उपद्रव हो और लोक दुःखी हो । पश्चिम में विग्रह हो और धान्य महँगा हों. ॥ १५२ ॥ पूर्वमें पशुओं को सुख, उत्तर में राजविप्रह, मध्यदेशमें प्रजा का नाश, और घी सस्ते हो ॥ १५३॥ तुला लग्नमें वर्ष प्रवेश हो तो मध्यदेश में छत्रभंग और विग्रह हो । पूर्व देशमें धान्य का विक्रय करना, छत्रभंग का उप हो ॥ १५४॥ दुर्भिक्ष हो, बहुत वायु चले और थोड़ी वर्षा हो । पश्चिम बड़ा युद्ध, सर्प आदि दाढवाले जतुओं का भय और अन्नका भाव तेज हो || १५५ || दक्षिणमें लोक सुखी हो, उत्तर में दुर्भिक्ष हो और पश्चिम "Aho Shrutgyanam" Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (२८७) उदीच्याम निष्पत्तिः समर्षा धातवस्तदा ॥१५७॥ पूर्वस्यां विग्रहो राज्ञां दुःखं मासत्रयं जने । पश्चात् सुखं धान्यनाशो मध्यदेशे प्रजायते ॥१५८॥ दक्षिणस्थां देशभङ्गो भाविवर्षे प्रजायते। धातूनां विक्रयः कार्यः परतो मासपश्चकात् ॥१५॥ धनुर्लग्ने तूत्तरस्यां पूर्वस्यां च सुखं नृणाम् । सुभिक्षं प्रथला वृष्टि-मध्यदेशे सरोगता ॥१६॥ पश्चियायां घृतं धान्यं समर्घ मासपञ्चकात् । .. दक्षिणस्यां सुखं लोके किञ्चित्पीडा चतुष्पदे ॥१६॥ मकरे च महोत्पात उत्तरस्यां नृपक्षयः। । वर्षमेकं सुनिष्पतिः पश्चिमायां महासुखम् ॥१६॥ मध्यदेशेऽर्द्धनिष्पत्तिः किश्चिद् धान्यमहता। अकाले मेघवृष्टिः स्या-ल्लाभो धान्यस्य विक्रयात् !॥१६३॥ में दो महीने कुछ उत्पातका संभव रहें ॥१५६॥ वर्ष प्रवेशमें वृश्चिक लग्न हो तो पधिम देशमें नवमास तक दुर्भिक्ष रहे । उत्तर में अनकी अर्द्धप्राप्ति, भौर धातु सस्ती हो ॥१५७॥ पूर्वदेश के राजाओं में विग्रह, तीन महीने मनुष्योंको दुःख, पीछे मुख और मध्यदेश में धान्य नाश हो ॥१५८॥ दक्षिणमें आगामी वर्षमें देशभंग हो, पांच महीने बाद धातुओं का विक्रय करना ॥१५६॥ धनु लग्नमें वर्ष का प्रवेश हो तो उत्तर और पूर्व देश के मनुष्योंको सुख, सुकाल और प्रबल वर्षा हो । तथा मध्यदेश में रोग हों ॥१६०॥ पश्चिममें पांच महीने बाद घी धान्य सस्ते हों, दक्षीग में लोगों को सुख और पशुओंको कुछ पीडा हो ॥१६१॥ मकर लग्नमें वर्ष प्रवेश हो तो उत्तर में बड़ा उत्पात, नृपक्षय, पश्चिम में एक वर्ष धान्य अच्छे उत्पन्न हो और बड़ा सुख हो ॥१६२॥ मध्यदेश में अर्द्ध प्राप्ति होने से बान्य कुछ महँगे हों, अकालमें मेघ वर्षा हो और धान्यको बेचनेसे लाभ "Aho Shrutgyanam" Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८) मेघमहोदये कुम्भे सुखानि पूर्वस्या मुदगुदुर्भिक्ष सम्भवः । हाहाकार: पश्चिमायां भवेद् धान्यमहर्घता ॥ १६४ ॥ दक्षिणस्यां विग्रहः स्याद् मध्यदेशे महासुखम् । मीनल दक्षिणस्यां सुखी लोकोऽन्नसङ्ग्रहः ॥ १६५॥ मध्यदेशे धान्यनाश-छत्रभङ्गः कचिद् भवेत् । एवं द्वादशधा लग्नं ज्ञेयं वत्सरजन्मनि ॥ १६६ ॥ इतिजन्मलग्नफलम् अथाभ्रद्वारम् - प्रागुक्तमनिलद्वारं यथास्थानं विचार्यते । यावांश्च पवनस्तावान् घनस्तेन सुखी जनः ॥ १६७ ॥ चैत्रमासफलम् - चैत्र कृष्ण द्वितीयायां निरभ्रं चेन्नभो भवेत् । तदा भाद्रपदे मासे ज्ञेयो मेघमहोदयः ॥ १६८ ॥ चैत्र कृष्ण तृतीयायां वादलं प्रबलं यदा । जलं पतति चेत्तत्र तदा वृष्टिस्तु कार्त्तिके ॥ १६६ ॥ हो ॥१६३॥ कुंभमें वर्ष प्रवेश हो तो पूर्वमें सुख, उत्तर में दुर्भिक्षका संभत्र, पश्चिम में हाहाकार तथा धान्य महँगे हो ॥ १६४ ॥ दक्षिण में विग्रह और मध्यदेश में महा सुख हो । मीन लग्नमें वर्ष प्रवेश हो तो दक्षिण में लोक सुखी हो, धान्यका संग्रह करना उचित है ॥ १६५ ॥ मध्यदेशमें धान्यका नाश और कचित् छत्रभंग हो । इसी तरह बारह प्रकारके लग्न वर्ष प्रवेश के समय जानना चाहिये ॥ १६६ ॥ इति वर्षजन्मलग्नफलम् ॥ वायुका द्वार ( प्रकरण ) पहले कहा है वहा से उसको विचार लेना, जितना वायु हो उतनी वर्षा हो, उससे लोग सुखी हो ॥ १६७ ॥ चैत्रमासका फल- चैत्र कृष्ण द्वितीया के दिन यदि आकाश बादल रहित हो तो भाद्रमासमें मेघका उदय जानना ॥ १६८ ॥ चैत्रकृष्ण तृतीयाके दिन बादल "Aho Shrutgyanam" Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्घरानादिकफलम् चतुर्थी चैत्रकृष्णस्य वर्षा दुर्भिक्षकारिणी। पश्वम्यामसिते'चैत्रे न दृष्टं दुर्दिनं शुभम् ॥१७०॥ मतान्तरे पुन:चैत्र कृष्ण द्वितीयादि-पञ्चके जलवर्षणम् । अग्रेजलदरोधाय कथितं पूर्वसरिभिः ॥१७१॥ यंदुक्तं श्रीहीरसूरिपादैःचित्तस्स किसणि पक्खे धीया तीया चउथि पंचमीया। घरसेड पुचवाओ दूरे मेहुम्भवो तासु ॥१७२।। लौकिकमपिचैत्रह छट्टि भडली, नवि वद्दल नवि पाय ! तो नीपजे अन्न सवि, किसी म करजे धाय ॥१७॥ कृष्णपञ्चम्याः परं नैमेल्यं नव-दिनानि यावत् प्रागुक्तम् ।। चत्रस्य कृष्णपञ्चम्यां हस्तनक्षत्रसङ्गमै । न विद्युद्गर्जिताभ्राणि तदा स्याद वस्सरः शुभः ॥१७४॥ प्रबल हो और वर्षा भी हो तो कार्तिकमासमें वर्षा हो ॥ १६६ ।। चैत्रकृष्ण चतुर्थीके दिन वर्षा हो तो दुर्भिक्ष कारक हैं और पंचमीके दिन दुर्दिन अर्थात् वादलोंसे आकाश घिरा हुआ देखने में न मावे तो शुभ होता है ॥ १७०॥ चैत्रकृष्ण द्वितीया आदि पांच दिन में जलवर्षा हो तो भागे वर्षा का रोध (रूकावट) हो ऐसा प्राचीन आचार्योंने कहा है ॥ १७१ ॥ श्रीही बिजयसूरिने कहा है कि-चैत्र कृष्ण पक्षकी दूज; तीज, चौथ और पंचमी के दिन 'वर्षा हो तथा पूर्वका वायु चले तो मेघ का उदय विलंब से हो ॥१७२।। लौकिकमें भी कहते है कि-चैत्र कृष्ण षष्ठी को बादल और वायु न हो तो समस्त धान्य उत्पन्न हों इसमें संशय नहीं ॥१७३॥ चैषकृष्ण पंचमी से नव दिन निर्मलता हो ऐसा पहले कहा है । चैत्रकृष्ण पंचमी के दिन हस्त नमात्र हो, तथा बिजली गर्जना या बादल न हो तो पर्ष शुभ होता है । "Aho Shrutgyanam" Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये त्रयोदशी च नवमी पञ्चमी कृष्ण चैत्रगा एतासु विशुद्धर्जा सम्भवी दृष्टिहानिकृत् ॥१७५॥ चैत्रस्य कृष्णण सप्तम्या मच्छन्नं यदा नभः । रक्तवस्तुसमर्घत्वं भवत्येव न संशयः ॥ १७६ ॥ यदुक्तं - अहवा पंचमी नवमी तैरस दिवसम्मि जड़ हवइ गज्जो । ता चत्तारिय मासा होइ न वुद्धि न संदेहो ॥ १७७॥ चैत्रस्य शुक्ला पतिपद द्वितीया वा तृतीयका । चतुर्थी वृष्टियुक्ता चे चातुर्मास्यस्तदा घनः ॥ १७८ ॥ मतान्तरे पुनः चैत्राद्यप्रतिपन्मेघ - गर्जितं वर्षणं तथा । श्रावण भाद्रमासे च तदा वृष्टिर्न जायते ॥ १७९ ॥ लोकोऽप्यत्र साक्षी गाज बीज आभा नवि होय, अजुआली चैत्रइ धुरि जोय । पूनिमचित्रा हुई प्रतिघणु, दाम द्रोण हुई बमणुं ॥ १८० ॥ (२९०) १७४ ॥ चैत्र कृष्ण पक्ष की पंचमी नवमी और त्रयोदशी के दिन बिजली गर्जना या बादल हो तो वर्षाकी हानि होती है ॥ १७५ ॥ चैत्रकृष्ण सप्तमी के दिन आकाश बादलोंसे आच्छादित होतो लाल वस्तु सस्ती हो इसमें संदेह नहीं || ७६ ॥ कहा है कि- चैत्र कृष्ण पक्षकी पंचमी नवमी और त्रयोदश दिन मेव गर्जना हो तो चार मास वर्षा न हो इसमें संदेह नहीं || १७७ ॥ चैत्र शुक्ल पक्षकी प्रतिपद, दूज, तीज और चौथ के दिन वर्षा हो तो चौमासा के चारमास वर्षा बरसे ॥ १७८ ॥ मतान्तर से कहा है किचैत्र शुक्ल पक्षको प्रतिपदा के दिन मेघगर्जना तथा वर्षा हो तो श्रावण और भादों में वर्षा न हो ॥ १७६ ॥ लौकिक में भी कहा है कि- चैत्र शुक्र प्रतिपदाके दिन मेव गर्जना बिजली या बादल न हो और पूनमके दिन चित्रा नक्षत्र हो तो दामने दूना दोरा धान्य मिले अर्थात् सस्ते हो ॥ १८०॥ चैत्र "Aho Shrutgyanam" Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् पञ्चमी सप्तमी शुक्ला चैत्रे तथा त्रयोदशी। एतासु वादलं श्रेष्ठं तत्र वर्षा तु दु:खकृत् ॥१८॥ चैत्रे शुके यदार्दादिस्वात्यन्तेषु साम्रता। जलप्रवाहवृष्टि! तदा संवत्सरः शुभः ॥१८२॥ एकादश्यां रवौ बारे चैत्रे शुक्लेऽपि दुर्दिनम् । तदा युगन्धरी ग्राह्या लाभो मासचतुष्टये ॥१८३॥ चैत्रमासे तिथिः कृष्ण चतुर्दशी तथाष्टमी । तत्राभ्रमुत्तरो वायुः शुभाय जगतो मवेत् ॥१८॥ चैत्रस्य शुक्लपक्षे तु त्रयोदश्यां रजोऽनिलः । अथवा धूमीपातो मेघस्तत्र न वर्षति ॥१८॥ चैत्रे दशम्यां शनिना मघायोगे यदाम्बुदः । घर्षेत्तदा सर्ववर्षे धान्यस्या? न जायते।१८।इति चैत्रः ॥ . वैशाखमासफलम्-- वैशाख कृष्णप्रतिप-धुगच्छव भास्करः। शुक्ल पंचमी सप्तमी और त्रयोदशी के दिन बादल, हो तो अच्छा (श्रेष्ठ) है परंतु वर्षा हो, तो दुःखकारक हो ॥१८१॥ यदि चैत्र शुक्लपक्ष आ आदि नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक में बादल सहित हो किंतु जलप्रवाह रूप वर्षा न हो तो वर्ष शुभ होता है. ॥१८२॥ चैत्र शुक्ल एकादशी रविवारको दुर्दिन रहे तो युगंधरी (जुवार) का संग्रह करना इससे चार मास में लाभ होता है ॥१६३॥ चैत्र मासके कृष्णपक्षमें चतुर्दशी तथा अष्टमीके दिन बादल हो और, उत्तरका वायु चले तो जगतको शुभके लिये होता है ॥१८४॥ चैत्र शुक्ल त्रयोदशीके दिन रजःयुत वायु चले या धूमरीपात हो तो मेध न नरसे ॥१८५ चैत्र शुक्ल दशमी शनिवार मचानक्षत्र सहित हो और उस दिन वर्धा भी बरसे तो समस्त वर्ष में. धान्यकी मूल्य प्राप्ति न हो ॥ १८६ ॥ वैशाख कृष्ण प्रतिपदाके दिन आकाश में प्रातः काल सूर्य मेध से आ "Aho Shrutgyanam" Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९२) मेयमहोदय मेघराच्छापते ब्योनि संवत्सरहिताय सः ॥१८॥ शुक्ले कृष्णे च वैशाखे चतुर्दश्यष्टमीदिने । गर्जाविद्युत्पयोवर्षा वर्षानन्दविधायिकाः ॥१८८॥ मतान्तरे श्रीहोरगुरवः-- : जइ वैसाख चारइ तिथिसारी, पाठमि चउदसिसुकलअंधारी। गाज विजाभु नवि दिसइ, चार मास बरसइ निसदिसह ।। वैशाखकृष्णैकादश्यां वादलं प्रथलं भवेत् । तदा धान्यानि विक्रीय कर्त्तव्यं कृषि कमणि ॥१०॥ वैशाखशुक्लपतिपद्वितीया-दिनये वादलकं शुभाय। पदा तृतीयादिवसेऽपिचानं वृष्टिविशिष्टा परमङ्गरोगः।१९१॥ वैशाखशुक्लदशमी-छये न वादलं शुभम् । राधेऽश्विनी दिने घृष्टया रक्तवस्तुमहर्घता ॥१६२॥ वैशाखसितपञ्चम्यां मेघवादलसम्भवे । च्छादित उदय हो तो संवत्सर अच्छा होता है ॥१८७॥ वैशाख के शुक्ल या कृष्णपक्षकी चतुर्दशी या अष्टमीकै दिन गर्जना हो चि ली चमके और जलवर्षा हो तो वर्ष मानंददायक होता है ॥१८८॥ श्री हीरसूरिने भी कहा है कि- यदि वैशाखके शुक्ल या कृष्णपक्षकी आठम और चौदश इन तिथियों में गर्जना हो, बिजली चमके और आकाश बादलोंसे भाच्छादित रहे तो चार मास हमेशा वर्षा बरसे ॥ १८६ ॥ वैशाख कृष्ण एकादशी के दिन बादल प्रबल हो तो धान्य को बेचकर खेती करना चाहिये ॥ १६० ॥ वैशाख शुक्र की प्रतिपदा और द्वितीया, ये दोनों दिन बादल हो तो शुभ होता है । यदि तृतीया के दिन बादल हो तो वर्षा पच्छी हो किंतु पीछे रोग हो ॥१६१॥ वैशाख शुक्लकी दशमी और एकादशी ये दो दिन बादल न हो तो अच्छा हो । वैशाख में अश्विनीनक्षत्र के दिन वर्षा हो तो लाल वस्तु महँगी हो ॥१६२॥ वैशाख शुरु पंचमी के दिन वर्षा या वादल हो "Aho Shrutgyanam" Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अषराजाविवफलम (६९३) सङ्गहः सर्वधान्यानां लाभो भाद्रपदे भवेत् ॥१९३॥ राधे शुक्ल प्रतिपदि सप्तम्यादिदिनत्रये ।। वार्दलानां समुदये शोधं वृष्टिं विनिर्दिशेत् ॥१९४॥ एकादशीत्रये शुक्ले दुर्मिक्षं वृष्टिर्वादलात् । राधे च पूर्णिमावृष्टि-आंद्रे धान्यमहर्घकृत् ॥१९५॥ पञ्चम्यामथ सप्तम्यां नक्ष्म्येकादशीदिने । त्रयोदश्यां च वैशाखे वृष्टौ लोके शुभं भवेत् ॥१६६॥इति॥ ज्येष्ठमासफलम् - अष्टम्यां च चतुर्दश्यां ज्येष्ठे शुक्ले तथाऽसिते। कृष्णे दशम्यां वृष्टिः स्याद् भाद्रमासेऽतिवृष्टये ॥१९॥ ज्येष्ठस्य दशमोरात्रो यदि चन्द्रो न दृश्यते । जलरोधाय तर्षे निछत्रापि मही भवेत् ॥१९८॥ ज्येष्ठस्य कृष्णैकादश्यां द्वादश्यां वाऽगर्जितम् । तो सत्र धान्य का संग्रह करना भाद्रपद मासमें लाभदायक है ॥ १६३ ॥ वैशाख शुक्ल प्रतिपदा और सप्तमी आदि तीन दिनों में वादलों का उदय हो तो शीघ्र वर्षा होती है ॥१६४॥ शुक्लपक्ष की एकादशी आदि तीन दिनों में दृष्टि या वादल हो तो दुर्भिक्षकारक है और पूर्णिमा के दिन वर्षा हो तो भाद्रपद मासमें धान्य महँगे हों ॥१६॥ वैशाख मासकी पंचमी, सप्तमी, नवमी. एकादशी और त्रयोदशी इन दिनोंमें वर्षा हो तो लोकमें शुभदायक है ॥१६६॥ इति वैशाखमासफलम् । ___ज्येष्ठ मासकी शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी तथा कृष्णपक्षको दशमी इन दिनोंमें वर्षा हो तो भाद्रमासमें वर्षा अधिक हो ॥१६७॥ ज्येष्ठ मासकी दशमीको रात्री में चंद्रमा न दीखे तो उस वर्ष में वर्षाका रोष हो और छत्रहीन पृथ्वी हो ॥ १६८॥ ज्येष्ठ कृष्णपक्ष की कादशी और द्वादशीके दिन मेघ गर्जना हो, बिटी चारे और हो "Aho Shrutgyanam' Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९४) मेषमहोदये. विद्युत्पयोदवृष्टिश्चेद् वत्सरः स्यात् तदा शुभः ॥१६६॥. ज्येष्ठाषाढसमुद्भूते रोहणीदिवसे नमः ।। साधं वृष्टिविनाशाय समेघं वृष्टिवर्द्धनम् ।।२००॥ ज्येष्ठे मूलदिने वृष्टि-ज्येष्ठान्ते दिवसड़ये । दुर्भिक्षं कुरुते श्रेष्ठा विद्युत्पांशुयुतानिलः ॥२०१॥ ज्येष्ठमासे तथाषाढे यत्र यत्राहवर्षणम् । श्रावणे भाद्रमासे वा तहिने वृष्टिनिर्णयः ॥२०२॥ ज्येष्ठे श्रुतिद्वये विद्यु-गर्जितं वा सुभिक्षदम् । निरभ्रा रोहिणी चेन्दु-युक्ता वृष्टिविनाशिनी ॥२०३॥ ज्येष्ठे शुक्ल द्वितीयायां गर्भपाताय गर्जितम् । शुक्ले तृतीयायोगे वृष्टुिंर्भिक्षदर्शिनी ॥२०४॥ ज्येष्ठ शुक्ले द्वितीयादा-वाऽऽर्द्रादिका विलोक्यते । स्वात्यन्ता दशनक्षत्री तदृष्टिगर्भपातिनी ॥२०॥ तो वर्ष श्रेष्ठ होता है ॥१६६॥ ज्येष्ठ और आषाढमें रोहिणी नक्षत्रके दिन आकाश बादल सहित हो तो वृष्टिका नाशकारक है, मगर वर्षाहो तो वृष्टि का वृद्धिकारक है ॥२०॥ ज्येष्ठमें मूलनक्षत्रके दिन और अन्तके दो दिन बर्षा हो तो दुर्भिक्ष होता है और केवल बिजली चमके धूलियुक्त वायु चले तो श्रेष्ठ है ॥२०१॥ ज्येष्ठ और आषाढ मासमें जिस दिन वर्षा हो उसी दिन श्रावण और भाद्रमासमें वर्षा हो ॥२०२॥ ज्येष्ठमें श्रवण और धनिष्ठा के दिन बिजली चमके, मेघ गर्जना हो तो सुभिक्षदायक है । और चंद्रमा युक्तरोहिणी नक्षत्र बादलरहित हो तो वर्षाका नाशकारक होता है स२१३॥ ज्येष्ठ शुक्र द्वितीया को गर्जना हो तो वर्षाका गर्भपात होला है. शुरु तृतीया आर्दा युक्त हो और उसी दिन वर्षा हो, तो दुर्भिक्ष कारक है. ॥ २.० ४. ॥ ज्येष्ट्र.शुक्ल द्वितीया पानक्षत्रसे स्वाति नक्षश्च तक दश नक्षत्रों में से किसी नक्षत्र युक्त हो और उस दिन वर्षा हों तो वर्षाका गर्भपास होला है ॥२.०५॥ "Aho Shrutgyanam" Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वषेराजादिकंफलत (२१५) यदि ज्येष्ठस्य पञ्चम्यां वृषार्क वृष्टिरुद्भवेत् । पूर्वाषाढादिने वा स्यान्मूले वृष्टिन दोषकृत् ॥२०॥ ज्येष्ठस्य पूर्णिमायां तु मूलं प्रस्रवते यदि । दिनषष्टिं व्यतिक्रम्ये ज्ञेयो मेंघमहादयः ॥२०॥ पादानां संख्यया वृष्टि-वृष्टिगंधं विनिर्दिशेत् । यदा श्रुनिधनिष्ठाहे न भवेजलवर्षणम् ॥२०८।। ज्येष्ठानुज्ज्वलपक्षे तु नक्षत्रे श्रवणादिके । अवर्षणे न वर्षा स्याद् वृष्टौ तु विपुल जलम् ॥२०६॥ चित्रास्वातिविशाखासु वादलानि तदा शुभम् । नाषावृष्टि मल्ये श्रावणे तासु वर्षणम् ॥२१०॥ इति आपाढासंफलम् ... ज्येष्ठे व्यतीते प्रथमा प्रतिपद् घनगर्जितैः। विद्युता वर्षणेनापि द्विमात्यां मेयथाधिका ॥२१॥ यदि ज्येष्ठ मासमें पंचनीके दिन, वृषसंक्रांति के दिन, पूर्वाषाढा और मूल नक्षत्रके दिन वर्षा हो तो दोपकारक नहीं होती ॥२०६॥ जोछ मास की पूर्णिमा के दिन मूलनक्षत्रमें वर्षा हो तो साठ दिनके बाद वर्षा हो।॥२०॥ यदि श्रवणके प्रथम चरणमें वर्षा हो तो आषाढने, द्वितीय चरण में श्रावणम, तृतीय चरण में भाद्रपदमें और चतुर्थ चरण में वृष्टि हो तो आश्विन मासमें वर्षा का अवरोध होता है । इसी प्रकार घनिष्ठा के चरणों में भी जानना चाहिये ॥२०८॥ ज्येष्ठ कृष्णपक्ष में श्रवणादि नक्षत्रों में वर्षा न हो तो आगे वर्षा न बरसे और वर्षा हो तो आगे बहुत वर्षा हो ॥२०६॥ चित्रा स्वाति और विशाखा नक्षत्रके दिन बादल हो तो शुभ, आषाढ में वर्ग न हो और निर्मल हो तो श्रावणमें वर्षा हो ॥२१०॥ इति ज्येष्ठमासफेलम् । ज्येष्ठ मास की समाप्ति में पहला प्रतिपदा के दिन मेव गर्जना हो, बिजली चमके और वर्षा हो तो दो मास तक वर्षा न बरसे ॥ २११ ॥ .. . ४ . ..: "Aho Shrutgyanam" Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९६) मेघमहोदये कृष्णाषाढचतुर्थी चे-दुद्यन्नाच्छादितोः रधिः । सार्द्धत्रिमास्याः प्रान्ते स्यात् तदा मेघमहोदयः ॥२१२|| प्राषाढकृष्णतुर्याया-मस्ते भास्करमण्डले । न वर्षति यदा मेघ-स्तदा कष्टतरं जलम् ।।२१३॥ आषाढ कृष्णपक्षस्या-ष्टम्यां चन्द्रोदयक्षणे । मेधैराच्छादितं व्योम नीरपूर्णा तदा मही ॥२१४॥ यदा लोकः-आसाढाधुरी आठमी, नवमीनी रत्ति जोय। चांदो वादल छाइओ, तो अन्न सुहँगो होय ॥२१५।। अन्यत्रापि-आसामा धुरेि आठमी,चांदो वादल काय। चार मास वरसालुपा, पाके भांडे राय ॥२१६॥ भाषा नवमी कृष्णा वियुदम्भोदशेखरे । सदा धान्यानि विक्रीय कर्षणे हर्षिती भव ॥२१॥ आषाढकृष्णपक्षे च धनिष्ठा अषणं तथा। यदि आषाढ कृष्ण चतुर्थी के दिन सूर्य उदय काल में वादलों से आच्छा दित हो तो साढ़े तीन मास के अंतमें मेघ का उदय हो ||२१२॥ आषाढ कृष्ण चतुर्थी के दिन सूर्यास्त समयमें यदि वर्षा न हो तो मेघ कठिनता से बरसे ॥२१३॥ भाषाढ कृष्ण अष्टमी के दिन चन्द्रोदय के समय आकाश बादलों से आच्छादित हो तो पृथ्वी जलसे पूर्ण हो ॥२१४। लोकिकभाषामें भी कहा है कि-आषाढ कृष्ण अष्टमी और नवमी की रात्रिमें चन्द्रमा बादलोंसे ढका हुआ हो तो अनाज सस्ते हो ॥ २१५ ।। दूसरे जगह भी कहा है कि-आषाढ कृष्ण अष्मी की रात्रिमें चंद्रमा बादलोंसे ढका हुआ हो तो चार मास वर्षा अच्छी हो और धान्य बहुत उत्पन्न हों ॥ २१६॥ भाषाढ कृष्ण नवमी के दिन बिजलीयुक्त बादल हो तो धान्य को बेचकर कृषिकर्म करने में हर्षित होना चाहिये ॥२१७॥ आषाढ कृष्ण पक्षमें धनिष्टा और श्यल नक्षय के दिन गर्जना या बिजली न हो तो देशभंग हो "Aho Shrutgyanam" Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् गर्जाविद्युद्धिहीनं स्याद् देशभंगस्तदादिशेत् ॥२१८।। आषाढमासे रोहिण्यां विद्युवर्षा शुभाय सा। स्वातियोगेऽपि चाषाढे. तथैव फलमिष्यते ॥२१९॥ आषाढशुक्ल प्रतिपत्-त्रये वर्षा यदा भवेत् । एको द्वादश च द्रोणाः षोडशापि क्रमाज्जलम् ।।२२०॥ यदुक्तम्-आसाढी पडिवा दिने, जइ घन गरजत वीज । एक द्रोण पाणी पडे, बार द्रोण वली बीज ॥२२॥ द्रोण सोल पाणी पडे, त्रीज तणे दिन जोय । चउथे कण मुहंगो करे, जो धन बरसा होय ॥२२२॥ आषाढे शुक्लपञ्चम्या-दिके तिथि चतुष्टये।। यावन्त्यभ्राणि वर्षासु तावन्मेघमहोदयः ॥२२३॥ शुक्लाषाढनवम्यां च दशम्यां वर्षणं शुभम् । दुर्भिक्षं जायते नूनं वाते वृष्टिं विना कृते. ॥२२४॥ आषाढस्याप्यमावस्यां नवम्यां शुक्लकृष्णयोः । ॥ २१८॥ आपादमासमें रोहिणी नक्षत्रके दिन बिजली या वर्षा हो तो लोक के हितकारी है । यहि फल आषाढमें स्वाति योग होने पर होता है ॥२१॥ आपाढ शुक्ल प्रतिपदा आदि तीन तिथियों में यदि वर्षा हो तो क्रमसे एक, बारह तथा सोलह द्रोण जल बरसे ।। २२० ।। कहा है कि- शुक्ल पडिवा के दिन यदि मेव, गर्जना, बिजली हो तो एक द्रोण; इसी तरह दूज के दिन हो तो बारह द्रोण, और तीज के दिन हो तो सोलह द्रोण पानी बरसे। यदि चोथ के दिन वर्या हो तो धान्य महँगे हो।।२२१-२२२॥ आषाढ शुरू पंचमी आदि चार तिथियों में जितने बादल हों उतने ही वर्षा ऋतुमें मेघका उदय जानना ।। २२३ !! आषाढ शुक्ल नवमी और दशमी को वर्षा होना शुभ है और केवल वायु ही चले और वर्षा न हो तो दुर्भिक्ष होता है ॥२२४॥ भाषांद की अमावास्या और शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन सूर्य "Aho Shrutgyanam" Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) मेघमहोदये उदये तु सहस्त्रांशु-निर्मलो यदि दृश्यते ॥२२५॥ मध्याहे वृष्टिरूपं स्थात् सूर्यस्यास्तङ्गमे तथा । अग्रे तोयं न पश्येत बर्जयित्वा महानदीम् ॥२२६॥ लोकेतु-प्रासाही अमावसी, जइ नवि बरसे मेह। तो किम बूजे मारुत्रा, वरसत नावे छह ॥२२७॥ चतुथ्यों तु सितापाढे विद्युद्वर्षाश्च गर्जितम् । तदा जलं समुद्र स्यात् पुस्तके बा अदृश्यते ॥२२८॥ आषाख्यां प्रथमे यामे यादले न सुभिक्षता । मासमेकं जलं धान्यं स्तोकं लोके महाभयम् ॥२२॥ धान्यस्वल्पं बहुजलं वादेले प्रहरदये। तुल्यं धान्यतृणं याम-चतुष्टये सवार्दलैः ॥२३०॥ यामषटुके ग्रीष्मधान्यं न किञ्चिदपिजायते॥इत्यााामासः। श्रावणमासफलम् - श्रावणस्यादिमे पक्षेऽश्चिन्यां वादलकृष्टयः । निर्मल उदय हो याने सूर्योदयके समय आकाश स्वच्छ हो ॥ २२५।। और मध्याह्नमें तथा सूर्यास्तमें वृष्टिरूप याने वर्षा कारक बादल हो तो नदी को छोड़कर दूसरे स्थान में जल देखने में नहीं आवे || २२६ ॥ लोकमें भी कहा है कि-आषाढ की अमावास्या के दिन यदि वर्षा न हो तो अविच्छिन्न वर्षा हो ॥ २२७ ॥ आषाढ शुक्ल चतुर्थी के दिन बिजली, गर्जना और वर्षा हो तो जल समुद्रमें या पुस्तकमें ही दीखे जाय ॥२२८॥ आषाढ पूर्णिमा के प्रथम प्रहरमें बादल हो तो सुभिक्ष नहीं होता, केवल एक महीना जल बरसे, धान्य थोड़े हो और लोकमें बड़ा भय हो ॥२२६॥ दो प्रहर बादल होतो वर्षा अधिक हो और धान्य थोड़े हो । चार प्रहर बादल हो तो धान्य तृण तुल्य हो याने सस्ते हो । छः प्रहर बादल हो तो ग्रीष्मऋतुके धान्य कुछ भी न हो ।। २३० ।। इति आधाहमासफलम् ।। "Aho Shrutgyanam" Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष राजादिकफसम् (२९९) सर्वान् दोषान् निहन्त्येव सुभिक्षं भुवि जायते || २३१|| श्रावये बहुला विद्युद्द्धर्जितं च पुनर्धने । वृष्टिस्तदा मनोऽभीष्टा कुरुते वत्सरं शुभम् ॥ २३२॥ आषणे कृष्णपक्षे चे चतुर्थ्यामरुणोदये । वादलं वृष्टिरनिशं सर्वत्र सुखवृष्टिकृत् ॥ २३३॥ श्रावणे कृष्णपञ्चम्यां निर्मलं गगनं शुभम् । तदाष्टादशयामान्त - घनस्तोयं व्यपोहति ॥ २३४ || चतुर्दश्यां च कृष्णायां वार्दलानि भवन्ति न । तदा दानवदुःखानि न भवन्ति महीतले ॥ २३५ ॥ अमावास्यां श्रावणस्य यदि वृष्टी घनाघनः । चराचरं तदा विश्वं सुखभागू न चलाचलम् ॥२३६॥ चित्रास्थातिविशाखासु श्रावणे न जलं यदा । तदा कुलपादिकं कृत्वा नदीतीरे गृहं कुरु ||२३७|| नभः प्रथमपञ्चम्यां यदि वृष्टः पयोधरः समय बादल श्रावण मास के प्रथम पक्ष (कृष्णपक्ष) में अश्विनीनक्षत्र के दिन मेघ बरसे तो सब दोष दूर होकर सुभिक्ष होता है ॥२३१॥ श्रावण में बहुत बिजली चमके, गर्जना हो और वर्षा हो तो मनोवांछित वर्षा हो और संवत्सर शुभ हो ॥ २३२ ॥ श्रावण कृष्ण चतुर्थीको सूर्योदय के तथा वर्षा हो तो सर्वत्र निरन्तर सुखदायक वर्षा हो ॥ २३३ ॥ श्रावण कृष्ण पंचमी दिन आकाश निर्मल हो तो श्रेष्ठ है, इससे अठारह प्रहर के बाद मेघ वर्षा हो ॥ २३४ ॥ श्रावण कृष्ण चतुर्दशी के दिन वादल न हो तो दानवोंसे दुःख पृथ्वी पर न हों ||२३५ || श्रावणकी अमावस के दिन वर्षा हो तो चराचर विश्व सुखी नहीं होता || २३६ ॥ श्रावण में चित्रा स्वाति और विशाखा नक्षत्र के दिन वर्षा न हो तो कूप आदि खोदकर नदीके किनारे घर बनाना उचित है ॥ २३७ ॥ श्रावणके प्रथम पक्षकी पंचमीको वर्षा हो "Aho Shrutgyanam" Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये (३००) तदा भूवतुरो मासान् भवेज्जलसमाकुला ॥ २३८ ॥ श्रावण पहिली पंचमी, जो वरसे सखि मेह | चार मास नीर्झर झरे, एम भणे सहदेव || २३९॥ मतान्तरे पुनः श्रावण अथवा भद्दवइ, पंचमी जइ वरसेय । ईति उपद्रव चालवो, अणचित होसी तेय ॥ २४०॥ (कृष्णपंचमी विषयं वा ) श्रावण शुक्ल सप्तम्या-मस्तं याते दिवाकरे । न वर्षति यदा मेघो जलाशां मुञ्च सर्वथा ॥ २४१ ॥ अष्टम्यां श्रावण शुक्ले प्रातर्वार्दलडम्बरम् | रविराच्छादितस्तेन पृथिव्यैकार्णवा भवेत् ॥ २४२॥ | मेघैराच्छादितश्चन्द्रः पूर्णायां समुदीयते । तदा स्वस्थं जगत् सर्व राज्यसौख्यं घनो महान् ॥ २४३ || श्रावणे कृष्णपक्षे वा पूर्वाभाद्रपदासु च । चतुर्थ्यां मेघवृष्टिचेत् तदा मेघमहोदयः ॥ २४४॥ तो चार मास पृथ्वी जलसे पूर्ण रहे ॥ २३८ ॥ सहदेव दैवज्ञने भी कहा है कि- श्रावणकी प्रथम पंचमीको वर्षा हो तो चार मास वर्षा हो ॥ २३६ ॥ मतान्तरसे - श्रावण अथवा भाद्रपद की कृष्ण पंचमी के दिन वर्षा हो तो कस्मात् ईतिका उपद्रव हो ॥ २४० ॥ श्रावण शुक्र सप्तमीको सूर्यास्त के समय वर्षा न हो तो जलकी आशा सर्वथा छोड़ देना उचित है ॥२४९॥ श्रावण शुक्ल अष्टमीके दिन प्रातः काल में बादलों का आडंबर हो, सूर्य आच्छादित रहे तो पृथ्वी पर अधिक वर्षा हो ॥ २४२ ॥ श्रावण पूर्णिमा के दिन चंद्रमा बादलों से आच्छादित उदय हो तो समस्त जगत् सुखी, राज्य संबंधी सुख और महावर्षा हो ॥ २४३ ॥ श्राकृष्ण चतुर्थी के दिन पूर्वाभाद्रपद - नक्षत्र में वर्षा हो तो मेत्रका उदय जानना ॥२४४ ॥ श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, "Aho Shrutgyanam" Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजादिकफलम् शुक्ला चतुर्दशी पूर्णा चतुर्थी पञ्चमी तथा । सप्तमी चेच्छ्रावणस्य वृष्टियुक्ता शुभं तदा ॥ २४५ ॥ कर्कटो यदि भिद्येत सिंहो गच्छत्यभिन्नकः । तदा धान्यस्य निष्पत्ति-जयते पृथिवीतले || २४६ || यदुक्तम-मुह भिन्ना पंचायणह, कक्कह भिन्नि पुट्टि । तो जाणिज्जइ भडुली, मासम्भन्तर बुद्धि ॥ २४७॥ श्रावण शुक्ल सप्तम्यां स्वातियोगे जलं यदा । प्रजानन्दः सुखं राज्ये बहु भोगान्विता मही ॥ २४८ ॥ एकादश्यां नभः कृष्णे यदि वर्षा मनागपि । तदा वर्ष शुभं भावि जायते नात्र संशयः ॥ २४६ ॥ नभश्चतुर्दशी राका चतुर्थी पञ्चमी तथा । सप्तमी वृष्टियुक्ता चेद् वर्षे शुभं न चान्यथा ॥ २५० ॥ भाद्रमासफलम् भाद्रमासे द्वितीयायां यदि चन्द्रो न दृश्यते । (३०१) पूर्णिमा, चतुर्थी, पंचमी और सप्तमी इन दिनों में वर्षा हो तो वर्ष शुभदायक होता है || २४५ || यदि कर्कसंक्रांति के दिन वर्षा हो और सिहसंक्रांति के दिन वर्णन हो तो पृथ्वी पर धान्य बहुत उत्पन्न हो ॥ २४६ ॥ कहा है कि- सिंह संक्रांतिकी आदि में और कर्कसंक्रांति के अंत में वर्षा होती है मडली! एक मासके भीतर वर्षा हो ॥ २४७॥ श्रावण शुक्र सप्तमीको स्वाति योग में जल बरसे तो प्रजाको आनन्द, राज्य में सुख और अनेक भोगों से युक्त पृथ्वी हो ॥ २४८ ॥ श्रावण कृष्ण एकादशी को यदि थोड़ी भी वर्षा हो तो अगला वर्ष शुभ हो इसमे संशय नहीं ॥ २४६ ॥ श्रावण मास की चौदश, पूर्णिमा, चतुर्थी, पंचमी तथा सप्तमी के दिन वर्षा हो तो वर्ष अच्छा हो अन्यथा नहीं ॥ २५० ॥ इति श्रावणमासफलम् ॥ भाद्रमास में द्वितीया के दिन यदि चंद्रमा न दीखे तो सम्पूर्ण प्रकार से वर्षा "Aho Shrutgyanam" Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२) मेत्रमहोदयेतदा सम्पूर्णवर्षा स्या-दन्ननिष्पत्तिरुत्तमा ॥२५१॥ . भाद्रे च शुक्लपञ्चम्यां जलं दत्ते न चेद् घनः । दैवकोपात् तदा ज्ञेयो सज्जनोऽपि च दुर्जनः ॥२५२॥ यद्यगस्तेरुदयने वर्षा हर्षाय जायते । सर्वधान्यस्य निष्पत्ति-न चेद् भिक्षापि दुर्लभा ॥२३॥ सप्तम्यां भाद्रमासस्य न वर्षा न च गर्जितम् ।। विद्युछिद्योतने नैव देवः कालस्य नाशकः ॥२५४॥ नवम्यां भाद्रमासस्य वृष्टि कालमादिशेत् । एकादश्यां तु तस्यैव घनो धान्यसमर्घदः ॥२०॥ भाद्रपदे दशम्यां चेन्निर्मलं गगनं यदा । मुद्रा माषाश्च चवला निष्पद्यन्ते घना जने ॥२५॥ सिंहेऽर्कदिवसे वृष्टि-न शुभाय नृणां स्मृता। दैवाज्जाते घने पश्चाद-वृष्टिर्दिनद्वयान्तरे ॥२५॥ तदा तद्दषणं नास्ति मासमेकं प्रवर्षति । अच्छी हो और धान्यकी प्राप्ति उत्तम हो । २५१॥ भाद्रशुक्ल पंचमी को यदि बादल न बरसे तो दैवकोपसे जानिये कि सजन भी दुर्जन हो जाय ॥ २५२ ।। यदि अगस्तिके उदय होने में वर्षा हो तो अच्छी है, सब प्रकार के धान्य की प्राप्ति हो, यदि वर्षा नहो तो भिक्षा भी न मिले||२५३॥ भाद्रमासकी सप्तमी के दिन वर्षा न हो, गर्जना न हो और विजली भी न चमके तो दैव कालका विद्यातक जानना ॥ २५४ ॥ भाद्रभास की नवमी के दिन वर्षा बरसे तो दुष्काल हो और एकादशी के दिन वर्षा हो तो धान्य सस्ते हों ॥२५॥ यदि भाद्रमासकी दशमी के दिन आकाश निर्मल हो तो मूंग, उड़द, चौला अधिक उत्पन्न हों और वर्षा अच्छी हो ॥ २५६ ॥ सिंहसंक्रान्ति के दिन वर्षा हो तो मनुष्यों के लिये अशुभ होता है और उसके पीछे दो दिन बाद वर्षा हो तो ॥२५७॥ उसका दोष नहीं रहता, जिससे एकमास वर्षा होती "Aho Shrutgyanam" Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (३०३) भाने चतुर्दशीवृष्टिजने रोगाय जायते ॥२५८॥ इति । आश्विनमासफलम्--- आश्विनस्य चतुर्यो चेद् वादलान्यरुणोदये । तदा क्षेमाय लोकानां वृष्टिः सजायते शुभा ॥२५॥ आश्विनस्यासिते पक्षे दशम्यां यदि बादलम् । विधुवर्षाथवा माष-तिलानामर्घवृद्धये ॥२६॥ सप्तम्याऽऽश्वयुजिमासे सितेऽष्टमी जलान्विता । सुभिक्षं तत्र चादेश्यं राजानः शान्तविग्रहाः॥२६॥ इति । कार्तिकमासफलम्--- एकादश्यां कार्तिकस्य यदि मेघः समीक्ष्यते । प्राषाढे च तदा वृष्टि-र्जायते नात्र संशयः ॥२६२॥ द्वितीयायां तृतीयायां कार्त्तिके वृष्टिलक्षणम् । भाविवर्षे यहुजलं न चेत् तस्मिन्न वर्षणम् ॥२६॥ द्वादश्यां कार्तिके रात्रौ मार्गस्य दशमीदिने । है । भाद्रमासकी चतुर्दशी को वर्षा हो तो मनुष्यों को रोग करती है ॥२५८॥ इति भाद्रनासफलम् ।। आश्विनमासकी चतुर्थी के दिन यदि सूर्योदयके समय बादल हो तो मनुष्यों के कल्याण के लिये श्रेष्ठ वर्षा हो ॥ २५६ ॥ आश्विन कृष्णा दशमी के दिन यदि बादल बिजली या वर्षा हो तो उड़द और तिल महँगे हो। २६०॥ आश्विन शुक्ल सप्तमी और अष्टमी जल युक्त होतो सुभिक्ष और राजामों में संग्राम आदिकी शान्ति रहे ।। २६१ ॥ इति आश्विनमासफलम् ॥ कार्तिकमासकी एकादशी के दिन बादल दीखे तो आबाढमास में वर्षा हो इसमें संदेह नहीं ॥२६२॥ कार्तिक की द्वितीया और तृतीया के दिन वर्षाका लक्षण हो तो अगले वर्षमें अधिक वर्षा हो अन्यथा वर्षा न हो। २६३॥ कार्तिक द्वादशी को रात्रिके समय, मार्गशिर दशमीको दिनमें, पौष "Aho Shrutgyanam" Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०४) मेघमहोदय पञ्चम्यां पौषमासस्य सप्तम्यां माघमासके ॥२६४॥ धाराधरो यदा वृष्टिं कुरुते वासुगर्जितम् । तदा च श्रावणे मासे सलिलं नैव दृश्यते ॥२६॥ कार्तिके च द्वितीयायां तृतीयानवमीदिने । एकादश्यां त्रयोदश्या-मभ्राद् वृष्टिर्घनो महान् ।।२६६। कार्तिके यदि संक्रान्तेः पर्यन्ते दिवसद्धये । महावृष्टिस्तदा वर्षे शुभा भाविनि वत्सरे ॥२६७॥ इति । मार्गशोपनासफलम् ..मार्गशीर्षप्रतिपदि न विद्युन्नैव गर्जितम् । न वृष्टिश्चेत् तदा गर्भ कुशलं कुशलोदितम् ॥२६८॥ चतुर्थामथ पञ्चम्यां मागशीर्षस्थ वादलम् । तदा भाविनि वर्ष स्याद् वर्षापूर्ण महीतलम् ॥२६९॥ मार्गशीर्षस्थ सप्तम्यां नैर्मल्यं चेदिवानिशम् । धान्यं महंघ वैशाखे साभ्रतायां मर्पता ॥२७०॥ म.सकी पंचमी को और माघमासकी सप्तमीको ॥ २६४ ॥ यदि वर्मा या गर्जना हो तो श्रावणमास में जल कुछ भी नहीं बरसे ॥ २६५ ॥ कार्तिक मासकी द्वितीया, तृतीया, नवमी, एकादशी और त्रयोदशी के दिन वर्षा हो तो अधिक वर्षा हो ॥ २६६ ॥ यदि कार्तिकमास में संकान्तिसे दो दिन पर्यन्त वर्षा हो तो उस वर्ष में वर्षा अधिक हो और अगला वर्ष शुभ हो ॥२६७॥ इति कार्तिकमालफलम् ॥ ___मार्गशीर्थ की प्रतिपदा के दिन बिजली न चमके, गर्जना और वर्षा भी न हो तो मेघके गर्भ कुशल रहे और सब कुशल हो॥२६८मार्गशीर्ष की चतुर्थी और पंचमी के दिन बादल होतो अगला वर्ष में पृथ्वी वर्षासे पूर्ण हो॥२६६।मार्गशीर्ष सप्तमी को दिन और रात्रि निर्मल रहे तो वैशाख में धान्य महँगे हो और बादल सहित हो तो धान्य महँगे हो ॥२७०॥ मार्गशीर्ष "Aho Shrutgyanam Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (३०५) मार्गस्य शुक्लद्वादश्या-ममायामय वर्षणम् । तदा वर्षे शुभं भावि भावनीयं सुभावनैः ॥२७१॥ इति । पौषमासफलम्--- कृष्णाष्टम्यां पौषमासे यदा वृष्टिर्न जायते । तदााऽर्कसमायोगे एकीकुर्याज्जलैः स्थलम् ॥२७२॥ पौषे कृष्णदशम्यां चेद् रात्रौ वर्षति वारिदः । तदा भाद्रपदे मासे वृष्टिर्भवति भूयसी ॥२७३।। पौषे विद्युच्चमत्कारो गर्जिताभ्रादिसम्भवः । जानीयानिश्चितं तेन जगत्यां मेघदोहदः ॥२७४॥ विद्युच्चमत्कृतिवर्षा पौषे वादलसम्भवात् । मेघस्यवर्द्धते गर्भो जगदानन्ददायकः ॥२७५॥ वृष्टे मेघे पौषषष्ठयां भाद्रे कृष्णे घनोदयः। पौषशुक्ले मेघवृष्टौ श्रावणे स्यादवर्षणम् ॥२७६॥ सप्तम्यादित्रये पौषे शुक्ले विद्युच्च गर्जितम् । की शुक्ल द्वादशी को या अमावसको वर्षा हो तो अगला वर्ष शुभ हो ॥ २७१ ॥ इति मार्गशीर्षमासफलम् ॥ पौष कृष्ण अष्टमीके दिन यदि वर्षा न हो तो सूर्यका आके संयोग में जल स्थल एकही हो जाय याने आर्किमें अच्छी वर्षा हो ॥ २७२ ॥ पौष कृष्णदशमीको रात्रिमें वर्षा हो तो भाद्रमास में बहुत वर्षा हो ॥२७३॥ पौष मासमें बिजली चमके, गर्जना और वादल आदि हो तो पृथ्वीमें मेघ का गर्भ रहा जानना ॥ २७४|| पौष में बिजली चम्के, वर्षा तथा बादल हो तो जगत को आनंद देनेवाला मेघ का गर्भ वृद्धि को प्राप्त होता है ।। २७५।। पौष मासकी षष्ठीके दिन वर्षा हो तो भाद्रमास के कृष्णपक्ष में वर्षा हो । पौष शुक्लमें वर्षा हो तो श्रावणमें वर्षा न हो ॥ २७६ ॥ पौष शुक्ल सप्तमी आदि तीन दिन बिजली और गर्जना हो तो सुख संपदा देने ३६ "Aho Shrutgyanam" Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) namrita तदा मेघस्य गर्भः स्यादयल: सुखसम्पदे ||२७७|| एकादश्यां तथा पयां पूर्णायां दर्शकेऽथवा । न वृष्टिः स्यात् तदाषाढे घनः प्रोक्तो घनाघनः ॥२७८॥ पौषशुक्लचतुर्दश्यां विद्युद्दर्शनमुत्तमम् । कृष्णपक्षे तथाषाढे भवेन्मेघमहोदयः ॥ २७९ ॥ विद्युन्मेघो धनुर्मत्स्यो यथेकमपि नो भवेत् । न ऋक्षं वर्षति तदा चिह्नकाले तु वर्षति ॥ २८० ॥ अनेन ज्ञायते सर्व वर्षणं वाप्यवर्षणम् । एतद्वै परमं गुह्यं गर्भाधानस्य लक्षणम् ॥ २८९ ॥ विद्युत्संयोगजं चिह्नं न देयं यस्य कस्यचित् । गुरुभक्तस्य बोधाय तथापि किश्चिदुच्यते ॥ २८२ ॥ नभःप्रदीपं प्रच्छाद्य गर्जेदैरावतः न्वितः । विद्युत्कुमारीसंयोगाद् देवेन्द्रो गर्भकारकः ॥ २८३ ॥ उत्तरस्यां यदा विद्युत्-स्वर्णवर्णा प्रदीप्यते । वाला मेघका गर्भ स्थिर हो ॥ २७७॥ एकादशी, षष्ठी, पूर्णिमा और अमावास्या के दिन वर्षा न हो तो आषाढ मासमें मेघ बरसे ॥ २७८ ॥ पौष शुरु चतुदशीको बिजली चमके तो अच्छा है, ऐसा हो तो आषाढ कृष्णपक्ष में की प्राप्ति हो ॥२७६॥ त्रिजली, बादल, धनुष्, मत्स्य यदि एक भी चिह्न देखने में न आवे तो आर्द्रादि नक्षत्रों में वर्षा न हो और ये विह हो तो वर्षा हो ॥ २८० ॥। इन चिह्नों से वर्षा होना या नहीं होना ये सब जाने जाते हैं। यहीं मेचका गर्भाधानके लक्षण जो बिजलीसे उत्पन्न हुए हैं वे अत्यन्त गुप्त हैं ये जैसे तैसेको देने योग्य नहीं तो भी गुरुकी भक्तिवाले शिष्योंके बोध के लिये कुछ कहते हैं ॥२८१ ॥ २८२ ॥ आकाशमें बादल सूर्यको छिपाकर गर्जना करे बिजली चमके तो मेघका उदय ( गर्भकारक ) जानना ॥ २८३ ॥ उत्तर दिशामें सुवर्ण रंग की बिजली चमके तो वह बिजली जलदायक हैं, " Aho Shrutgyanam" Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् (३०७) सा शिमलदा ज्ञेया शीघ्र मेघमहोदयः ॥ २८४॥ ऐक्ट्री च जलदा विशुदाग्नेयी जलनाशिनी। याम्या चाल्पजला प्रोक्ता वातं करोति वायवी ॥२८॥ प्रभूतजलदा शेया वामनी सस्यसम्पदे । नैतिनिर्जला प्रोक्ता कौबेरी क्षिप्रवर्षिणी ॥२८॥ ऐशानी लोकशुभदा विशुनेदा इति स्मृताः। यत्र देशे सुभिक्षं स्वाद विद्युत्तत्रैव गच्छति ॥२८॥ दिक्षु भूता स्थितिणुप्ता मेघानां मार्गदर्शिनी । विद्युद्धीना न गर्जन्ति न वर्षन्ति जलं विना ॥२८८॥ मालियालम निर्धातश्चात्युष्यामनुरुणता । अस्वाब मिरनं च षडेते वृष्टिलक्षणाः ॥२८९॥ चतु:कोदिसाहमाणि चतुर्लक्षोत्तराणि च । मेघमालामहाशानं तन्मध्यादेतद्धृतम् ॥२९॥ शीघ्र ही मेघका उदय जानना ॥ २८४ ॥ पूर्व दिशामें बिजली चमके तो जलदायक है। आनेय दिशामें चमके तो जलका नाशकारक है । दक्षिण में चमके तो थोड़ा जल बरसे । वायव्य दिशा में चमके तो वायु चले ॥ २८५॥ पश्चिम दिशामें बिजली चमके तो बहुत वर्षा हो और धान्य संत्ति अच्छी हो। नैर्ऋत्य दिशामें चमके तो जलवर्षा न हो । उत्तर दिशा में चमके तो शीत्र ही जल बरसे ॥२८६॥ ईशान दिशामें बिजली चमके लो मनुष्य को सुखदायक है , ये बिनजी के लक्षण कहें । जिस देश में मुभिक्ष हो वहां ही बिजली जाती है ॥२८७॥ यह दिशाओं में स्थित रह का मेघों को मार्ग दिखाती है। बिजली के विना गर्जना नहीं होती और जलके विना वर्मा नहीं होगी ॥२८॥ वायु का अधिक चलना या नहीं चलना, अधिक उष्माता या ठंडी, अधिक बादल या बादल रहित, ये छः टिके लक्षण हैं ॥२८६॥ चार क्रोड़ हजार और चार लाख अधिक जो "Aho Shrutgyanam" Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये " अश्वप्लुतं माधवगर्जितं च स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यतां च । अवर्षणं चाप्यतिवर्षणं च देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ॥ पौषमासे श्वेतपक्षे ऋक्षं शतभिषग् यदा । वाताभ्रविद्युत्पञ्चम्यां गर्भश्चैवं प्रजायते ॥ २९२ ॥ स चाषा कृष्णपक्षे चतुथ्यों वर्षति ध्रुवम् । द्रोणसंज्ञस्तत्र मेघः सप्तरात्रं प्रवर्षति ॥ २६३|| सप्तम्यादित्रये पौधे शुक्ले पौष्णादिभत्रयम् । विद्युत्तुषारवानाभ्र हिमैर्गर्भसमुद्भवः ॥२९४॥ एकादशी पौषशुक्ले सहिमा विद्युता युता । सजला रोहिणीयोगाच्छुभाऽऽदेश्या विचक्षणैः ॥२६५॥ मतान्तरे तु एकादश्यामहोरात्रं कृत्तिका भोगसम्भवे । पौ शुक्ले साभ्रतायां रक्तवस्तुमहर्घता ॥ २६६ ॥ पौषे मूलाक्षके दशैं विद्युदभ्रातिगर्जितम् । (३०८) मेघमाला नामका सहा शास्त्र है उसमेंसे यह उद्धृत किया है ॥ २६० ॥ घोडे का कूदना, मेघका गर्जना, स्त्रियों के चरित्र, भवितव्यता (होनहार ), वर्षा का होना या न होना ये देव भी नहीं जान सकता तो मनुष्य क्या है ! ॥ २६१ ॥ पौष शुक्लपक्षमें शतभिषा नक्षत्र पंचमी के दिन हो और उस दिन वायु, बादल, बिजली हो तो वर्षाका गर्भ होता है || २६२ ॥ वह गर्भ आषाढ कृष्णपक्ष की चतुर्थीके दिन अवश्य बरसता है । उस समय द्रोण नामका मेव सात दिन तक बरसता है ॥ २६३ ॥ पौष शुक्ल सप्तमी आदि तीन दिन और रेवती आदि तीन नक्षत्र इनमें बिजली, तुषार, वायु, बादल और हिम हो तो वर्षा के गर्भकी उत्पत्ति जानना || २६४ ॥ पौष शुक्ल एकादशी हिम और विजली सहित हो, रोहिणीका योग हो और कुछ वर्षा भी हो तो विद्वानोंने शुभ कहा है || २६५॥ पौष शुक्ल एकादशी को दिन रात कृत्तिका नक्षत्र हो और बादल भी हो तो लाल वस्तु महँगी हो ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिक्रफलम् (३०९) वर्षायां चतुरो मासान् दत्ते मेघमहोदयम् ॥२९॥ पौर्णमासी द्वितीया च विद्युता वा हिमान्विता । वर्षा निष्पत्तिरादेश्या मेघेश्छन्नैस्तथाम्बरे ॥२६॥ आषाढस्य स्वमावास्यां प्रबलं जलमादिशेत् । निष्पत्तिः सर्वसस्यानां प्रजानां च निरुपद्रवाः ॥२६६॥ गावः पयोण्यः सर्वत्र सर्वाप्यामोदिता प्रजा । प्रथमे श्रावणस्यापि पक्षे द्रोणं समादिशेत् ॥३०॥ नागदेवो द्वितीयायां किञ्चित् सर्पभयं भवेत् । अमावास्यामर्कवारे भौमे वा मेघवर्षणात् ॥३०१॥ पूर्णमास्यां यदा पौषे चन्द्रमा नैव दृश्यते । उत्तरस्यां दक्षिणस्यां यदा विद्युत्प्रदर्शनम् ॥३०२।। अभ्रच्छन्नं नभो वापि महावृष्टिं तदादिशेत् । अमावास्यां श्रावणस्य नूनं भाविनि वत्सरे ॥३०॥ २६६।। पौषकी अमावसको मूल नक्षत्र हो और उस दिन बिजली, बादल और अधिक गर्जना हो तो वर्षाके चारों मास मेधका उदय जानना ॥२६७॥ पौषकी पूर्णिमा और द्वितीयाके दिन बिजली चमके, हिम पड़े, तथा प्राकाश बादलों से आच्छादित रहे तो वर्षा अच्छी होती है ॥२६८॥ यह चिह्न हो तो आषाढ अमावास्याको प्रबल जलवर्षा हो, सब प्रकारके धान्य की प्राप्ति और प्रजा उपद्रव रहित हो ॥२६६।। सब जगह गौ दूध देने. वाली हों तथा समस्त प्रजा आनंदित हो । श्रावणके प्रथमपक्ष में द्रोणनामक मेघ बरसे ॥३०॥ द्वितीयाके दिन आश्लेषा हो तो कुछ सर्पका भय हो। अमावास्या को रविवार या मंगलवार हो और उस दिन मेघ बरसे तो ॥ ३०१॥ तथा पौषकी पूर्णिमा के दिन बादलों से चन्द्रमा न दीखे, उत्तर दक्षिण में बिजली चमके ॥३०२॥ और आकाश बादलोंसे आच्छादित रहे तो आगामी वर्ष में श्रावणकी अमावास्याको निश्चयसे महावर्षा हो ॥३०॥ "Aho Shrutgyanam" Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१०) मेधमहोदये पौषस्य कृष्णसप्तम्यां* स्वातियोगे जलं यदा । सुभिक्ष क्षेममारोग्यं जायते नात्र संशयः ॥३०४॥ अभ्रच्छन्ने जलं स्वल्पं जलपाले महाजलम् । त्रयोदशीत्रये कृष्णे पोषे विचुच गर्भदा ॥३०५॥ ऐन्द्री विद्युदमावस्यां दर्शनं वा हिमस्य चेत् । अभ्रच्छन्नं नमो वापि सुमित जायले तदा ॥३०॥ माघमासफलम्--- न मावे पतितं शीतं ज्येष्ठे मूलं न रक्षितम् । नार्द्रायां पतितं तोयं तदा दुर्भिक्षमादिशेत् ॥३०७।। सप्तम्यादित्रये माये शुक्ले वार्दलयोगतः । धनधान्यसमृद्धिः स्याद् विवाहाद्युत्सवा जाने ॥३०॥ पौष कृष्णसप्तमीके दिन स्वाति नक्षत्रका योग हो और उस दिन जल बरसे तो सुभिक्ष, क्षेम और आरोग्य हो इसमें संदेह नहीं ॥३०४॥ उस दिन बादल आच्छादित रहे तो थोड़ा जल और जल बरसे तो महावर्षा हो । पौष कृष्ण त्रयोदशी आदि तीन दिन बिजली चमके तो गर्भदायक जानना ॥३०५॥ पौषकी अमावसको पूर्वदिशा में बिजली चमके, हिम गिरे और आकाश बादलोंसे आच्छादित रहे तो सुभिक्ष होता है ॥ ३०६ ॥ इति पौषमासफलम् ॥ भावमासमें शीत न पड़े, ज्येष्टमास में मूल गर्भकी रक्षा न हो यामे ज्येष्ठमासमें गरमी नहीं पडे परंतु वर्ष होकर ठंडक रहे, और आनक्षत्रके दिन वर्षा न हो तो दुर्भिक्ष होता है ॥२०७॥ माघ शुक्ल सप्तमी आदि बीन दिन बादल हो तो धन धान्यकी वृद्धि और प्रजा में विवाह आदि उत्सव . *टी--अत्र प्राचां वाचा लिखितमिदं न चेत्स्वातेरसम्भवःपौष कृष्णकादश्यामिति पाठः, यद्वा पौषकृणसप्तमीदिने जलाच्छुभं तथा पौधे स्वातिनक्षत्रदिनेऽपि जलाच्छुभमित्यर्थः । एवं चनात्र तिथिनक्षत्रयोगः किन्तु तिथिमध्ये उदये नक्षत्रदिने चलक्ष गयोगः। "Aho Shrutgyanam" Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजादिकफलम् चन्द्रर्मल्ये राज्ञां राज्यपरिक्षयः । अनाच्छादितसूर्यस्यो दयस्त्रा साथ देहिनाम् ॥ ३०९ ॥ -आत्या सत्तमि निरमली, अहमि वादल होय । सो आधा कह करी, आवण पायस होय ||३१०|| माघनवम्यां शुक्ले परिवेषः शशिनि दृश्यतेऽवश्यम् । भाषा वर्षापास्तदान्तरायो भवेदग्रे ॥३१९॥ मावे दशम्यां हि शुभाय वर्षा, तस्यां यदि चेदवर्षा । हर्षाय वर्षातिशयो न कश्चिद्, वर्षागमे मेघमहोदयेन ॥ १२ ॥ माघमासे चतुर्दश्यां प्रहरे यत्र वार्डलम् । वर्षाकाले तत्र मासे न वर्षति पयोधरः ॥ ३१३|| श्रीहीरसरिक्रममेघमालायाम माहमासे जो हिमपडे, वरसे विज्जु लवेइ । तो जाणिजे डोहला, पुरे पुन करेइ ॥ ३.१४॥ (३११) ॥३०८ ॥ अष्मी के दिन चन्द्रमा निर्मल हो तो राजाओं में विग्रह हो । और सूर्य बादलोंसे आच्छादित उदय हो तो मनुष्यों को मयके लिये हो ३०६ ॥ अथवा सप्तमी निर्मल हो और अष्टमीको बादल हो तो आषाढमें 'वर्षान बरसे और श्रावण में वर्षा हो ॥ ३ ० ॥ माघ शुक्ल नवमीको चंद्रमा का परिवेष मंडल अवश्य हो तो आगे आषाढ मासमें वर्षाका रोध ( रूकावट) हो ॥ ३११ ॥ माघकी दशमीको वर्षा हो और नवमीको वर्षा न हो तो शुभ प्रसन्नता के लिये हो और वर्षाऋतुमें मेघका महा उदय हो इसमें कुछ अतिशयोक्ति नहीं है ॥ ३१२ ॥ माघमासकी चतुर्दशी के दिन जिस प्रहर में जिस दिशा में बादल हो तो वर्षाकालके उस मासमें मेघ नहीं बरसे ॥ ३१३ ॥ श्रीहरिकृत मेघमाला में कहा है कि - माघमास में हिम पडे, वर्षा हो, बिजली चमके तो गर्मका पूर्ण उदय जानना ॥ ३१४ || माघमालकी कृष्णा " Aho Shrutgyanam" Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) मेधमहोदये माहे बहुली * सप्तमी फग्गुण पंचमी य चित्त बीयाए । वहसाह पढम पडिवय हवइ मेहाओ सुभिक्खं ॥३१५॥ नवमी दसमी इगारसी माहे किसणम्मि जइहवइ विज्जू । भहवय सुद्ध नवमी दसमी एगारसी य पउरजलं ॥३१॥ महासुभिक्षमादेश्यं राजानो निरुपद्रवाः । सप्तमी निर्मला नेष्ठा श्रेष्ठा वृष्टिबलान्ननु ॥३१७॥ केवलकीर्तिदिगम्बरोऽप्याहमाघस्य शुक्लसप्तम्यां यदाभ्रं जायतेऽभितः । तदा वृष्टिघना लोके भविष्यति न संशयः ॥३१८॥ स्वातियोग:---- मावे च कृष्णसप्तम्यां स्वातियोगेऽभ्रगर्जितम् । हिमपाते चण्डवाते सर्वधान्यैः प्रजासुखम् ॥३१६॥ तथैव फाल्गुने चैत्रे वैशाखे स्वाति योगजम् । सप्तमी, फाल्गुन मासकी पंचमी, चैत्र मास की दूज और वैशाख मास की प्रथम प्रतिपदा इनमें वर्षा हो तो मुभिक्षकारक है || ३१५ || माघ कृष्ण नवमी, दशमी और एकादशीको बिजली चमके तो भाद्रमासकी शुक्लपक्षकी नवमी, दशमी और एकादशीको बहुत वर्षा हो ॥ ३१६ ।। तथा अत्यन्त सुकाल और राजाओं उपद्रव रहित हों | सप्तमी निर्मल हो तो अच्छा नहीं, बरसे तो श्रेठ है ॥३१७॥ केवलकीर्तिदिगम्बर कहते हैं कि- माघ शुक्ल सप्तमीको यदि आकाशमें चारों तरफ बादल हो तो पृथ्वी पर बहुत वर्षा हो इसमें संदेह नहीं ॥३१८ माघ कृष्ण सप्तमीको स्वाति योगमें बादल हो, गर्जना हो, हिम गिरे, प्रचंड पवन चले तो सब प्रकारके धान्य प्राप्त हों और प्रजा सुखी हो ।। ३१६ ॥ इसी प्रकार फाल्गुन, चैत्र और * टी-अत्र वृष्टिरक्ता सप्तम्यां माघमासे इत्यादिनाघराहेणोक्तत्वात् तदेव स्वातिसम्भवापि । "Aho Shrutgyanam" Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजाविकफलम विद्युभ्रादिकं श्रेष्ठ माषादेऽपि सुभिक्षकृत् ॥ ३२० ॥ वराहः प्राह (३१३) यद्रोहिणी योगफलं तदेव, स्वातावषाढासहिते च चन्द्रे | आषाढ शुक्ले निखिलं विचिन्त्यं, योऽस्मिन् विशेषस्तमहं प्रवक्ष्ये स्वातौ निशांशे प्रथमेऽभिवृष्टे, सस्यानि सर्वाण्युपयान्ति वृद्धिम् भागे द्वितीये तिलमुद्गमाषा, ग्रैष्मं तृतीयेऽस्ति न शारदानि ॥ पृष्टेऽहमागे प्रथमे सुदृष्टि-स्तद्वितीये तु सकीटसर्पाः । दृष्टिस्तु मध्याsपर भागवृष्टे - निंछिद्रवृष्टिनिशं प्रवृष्टे | २३ | समुत्तरेण तारा चित्रायाः कीर्त्यते पांवत्सः । तस्यासने चन्द्रे स्वातेर्योगः शुभो भवति ॥ ३२४ ॥ इति । वैशाख में स्वातियोग में बिजली और बाइल आदि हो तो आपादमें अधिक सुभिक्षकारक है ॥ ३२० ॥ वराहमिहिराचार्य कहते हैं कि- जैसे चंद्रमा के साथ रोहिणीयोग का फल है उसी तरह आपाट नक्षत्र (पूर्वा-उत्तराषाढा) और स्वातिनक्षत्र के साथ चंद्रमा योगका फल भी वैसा ही है | आषाढके समस्त शुक्लपक्ष में इसका अच्छी तरह विचार करें, इसमें जो विशेष है उसको कहता हूं ॥ ३२९ ॥ स्वाति नक्षत्र के दिन रात्रि के प्रथम अंशमें वर्षा हो तो सब प्रकारके धान्य की वृद्धि हो । दूसरे अंश (भाग) में वर्षा हो तो तिल, मूंग और उड़द की वृद्धि हो । तीसरे अंश में वर्षा हो तो ग्रीष्मऋतु के धान्य ' यव-गेहूँ आदि' हों, परंतु शरदऋतु के धान्य जुमार, बांजरी आदि उत्पन्न नहीं ॥ ३२२ ॥ दिनके प्रथम भाग में वर्षा हो तो आगे अच्छी वर्षा हो । दूसरे भाग में वर्षा हो तो आगे वर्षा अच्छी हो परंतु कीड़े और सर्प आदि अधिक हों। तीसरे भाग में वर्षा हो तो आगे मध्यम वर्षा हो और दिनरात वर्षा हो तो आगे उपद्रव रहित अच्छी वर्षा हो ॥ ३२३॥ चित्रा नक्षत्र समसूत्र ठीक उत्तर में तारा दीख पडता है उसको 'अपवित्स' कहते -उसके समीप चंद्रमा के साथ स्वातिका योग हो तो शुभ होता हैं ॥ ३२४॥ ૪૦ "Aho Shrutgyanam" Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) मेघमहोदय माह काली अट्ठमी, चंदो मेहच्छस । तो मैं बोल्यो भडुली, वरसे काल संपन्न ॥३२५॥ माधे कृष्णनवम्यां च मृलक्षदिनेऽथवा। विद्युन्मेघो धनुर्योगे चार्नमसि संकृते ॥३२६॥ एतस्माद् गर्भतो वृष्टि-र्भाविवर्षेऽभिजायते । भाषाढे वा भाद्रपदे नवमीदिवसे शुभा ॥३२७॥ माघमासे व सप्तम्यां कृष्ण त्रयोदशीइये। पूर्वस्यामुमते मेवे वार्दलैः संकुलेऽपि खे ॥३२८॥ बहूदककरा दृष्टि-राषाढे सप्तरात्रिकी । अमावस्यामभ्रयोगाद् भाद्रेऽब्दे पूर्णिमादिने ॥३२१॥ माघे शुलपतिपदि परं वार्दलैस्तैलगन्धा ख्यानामधं परिदिनभवे धान्यकृन्दं महर्घम् । सामुद्रं श्रीफलमहिलता-पत्रमुख्यं महर्घ, माघकृष्ण अष्टमी को चन्द्रमा बादलोंसे आच्छादित हो तो अच्छा समय हो॥३२॥ माघकृष्ण नवमी को तथा मूलनक्षत्र के दिन और धनुसंक्रांति के दिन आकाश बादलोंसे आच्छादित रहे तथा बिजली चमके और वर्षा होतो ॥ ३२६ ॥ इस गर्भसे अगला वर्षमें आषाढ और भाद्रमासकी नवमी के दिन मच्छी वर्षा अवश्य हो ॥३२७॥ माघकृष्ण सप्तमी और त्रयोदशी आदि दो दिन पूर्वदिशामें मेघका उदय हो और बादलों से आकाश भाच्छादित रहे तो ॥३२८॥ आषाढ मास में सात दिन तक बहुत जलदा. यफ वर्षा हो । अमावास्याको मेघका उदय हो तो भाद्रमासकी पूर्णिमाके दिन वर्षा हो ॥ ३२६ ॥ माघशुक्ल प्रतिपदा और दूज को बादल हो तो सैल, सुगंधीवस्तु और धान्य तेजभाव हो । यदि तृतीया को वर्षा न हो परन्तु भाकाश मेघके बादलों से विरा रहे तो लवण, श्रीफल और नागरवेल के "Aho Shrutgyanam" Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षराजादिकफलम् वर्षाहीनाभ्रनिकरवृता दृश्यते चेत्तृतीया ॥३३०॥ न वृष्टिर्न गर्जारचो बार्दलेषु, xचतुर्यो च गोधूमका दुर्लभाः स्युः । यदा पंचमी.वृष्टिहीनापि साभ्रा, तदा भाद्रमासे महा वृष्टियोगः ॥३३१॥ कार्यासस्य महर्घता भुवि भवेत् षष्ठी यदा निर्मला, सप्तम्यामपि चन्द्रनिर्मलतया राज्ञां महान् विग्रहः । अष्टम्यां यदि भास्करस्समुदितः प्रातःपरं निर्मलो, रौद्रे वृष्टिनिरोधकृनभसिचप्रायोऽल्पवर्षाकरः।३३२॥इति। फाल्गुनमासफलम्---- सप्तम्यादिनये कृष्णे फाल्गुने घनगर्जितम् ।. संग्रामाय प्रतिग्रामं धान्यानां च समर्थता ॥३३॥ फाल्गुने मासि वर्षा चे-जायतेऽष्टमिकादिने । पान महँगे हों ॥३३० ॥ चतुर्थीके दिन वर्षा या गर्जना न हो तो गेहूं दु. र्लभ हो । यदि पंचमीको वर्षा न हो और बादल हो तो भाद्रमासमें अधिक वर्षा हो ॥३३१॥ यदि षष्टी निर्मल हो तो पृथ्वी पर कपास महँगे हो । सप्तमी को चंद्रमा निर्मल हो तो राजाओं में बड़ा विग्रह हो: अष्टमी को प्राप्तः. कालमें सूर्योदय निर्मल हो तो पार्टी में वर्षाका निरोध कारक है अर्थात् थोडी वर्षा करें ॥३३२॥ इति माघमासफलम् ॥ फाल्गुनकृष्ण सप्तमी आदि तीन दिन मेघ गर्जना हो तो गांव गांवमें कलह हो और धान्य सस्ते हों ।। ३३३॥ फाल्गुन मास की अष्टमीके दिन वर्षा टि-कचित्तृतीयाचतुर्योः फले विपर्ययः, यतः* माह ज तीज उजली, वादल गाज सुणेइ । गेहूं जव संचो करे, मुहधा होसी बेड ॥१॥ xमाहे वोथ सुनिमेली, वादल मेह न होय । पान अने नालेरडा, मुंहया हुंता जोय ॥२॥ "Aho Shrutgyanam" Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये तदा सुभिक्षमादेश्यं देशे क्षेमं सुखं बहु ॥३३४॥ सप्तम्यादिनये साभ्रे गर्ने कुशलनिश्चयः । अमावास्यां भाद्रपदे जलं सुलभमन्दतः ॥३३॥ फाल्गुने शुक्लप्तप्सम्यां पौर्णिमास्यां तथा दिने । निर्वातं गगनं मेघा विजला विद्युदन्विताः ॥३३६॥ भविष्यवत्सरे तत्र सुभिक्षं क्षेममादिशेत् । भाद्रेऽसौ कृष्णसप्तम्यां दशैं गर्भफलं जलम् ।।३३७।। नव्यास्तु-समये चेद् हुताशन्या ज्वलनस्यास्ति वादलम्। गोधूमकुंकुमापातान्महर्घ धान्यमादिशेत् ॥३३८॥ दशम्येकादशीशुक्ले फाल्गुनेऽभ्रादिगर्भयुक्। . तदा चतुर्थपञ्चम्पा-माश्विने वृष्टिदायिनी॥३३॥इति। पीताब्धेरुदयास्तसङ्गमफला-दारभ्य लभ्यंधिया, . मासद्वादशकस्य वार्दलबलं यावन्मया वाङ्मयात् । हो तो मुभिक्ष, देशमें कल्याण और सुख अधिक हो ॥ ३३४ ॥ सप्तमी मादि तीन दिन बादल रहे तो मेचके गर्भ में कुशलता जानना ऐसा होनेसे भाद्रमासकी अमावास्याको वर्षा हो ॥ ३३५ ।। फाल्गुन शुक सप्तमी और पूर्णिमा के दिन वायु रहित आकाश हो, विजला चमके और वर्षा रहित बा. दल हो तो ॥ ३३६ ।। अगले वर्ष मुभिक्ष और कल्याण हो, यही गर्भ भाद्रकृष्ण सप्तमी और अमावसको जल बरसावे ।। ३३७॥ यदि होली ज. लने के समय बादल हो तो गेहूं, कुंकुम और धान्य महँगे हो । ३३८॥ फाल्गुन शुक्ल दशमी, एकादशी के दिन बादल हो तो गर्भ के निमित्त है यह आश्विनकी चतुर्थी पंचमी के दिन वर्षा को करनेवाला है ।।३३६॥ इति फाल्गुनमासफलम् ॥ अगस्तिका उदय और अस्तका फलादेश से प्रारंभकर नारह महीनोंके बादलोंका उदय तक का फल शास्त्रसे और बुद्धिसे मानकर, वायु और वर्षा "Aho Shrutgyanam" Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्मलक्षणम् मत्वासारसमागमोदयविदा-मभ्याससेवाकृता प्यादिष्टं ननु वर्षयोधनधनं हर्षाय वर्षार्थिनाम् ॥३४०॥ इति श्री मेघमहोदयसाधने वर्षप्रयोधग्रन्थे तपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचितेगस्तिवर्षराजादिज.. न्मलमाभ्रवियुदादिकथने सप्तमोऽधिकारः। अथ गर्भकथननामाष्टमोऽधिकारः। मेघगर्भलक्षणम् अथ वायुजलादीनां संघातः स्त्यानपुद्गलः । गृहस्स गर्भशब्देन वाच्योऽस्योत्पत्तिरुच्यते ॥१॥ कार्तिके प्रतिपन्मुख्या-स्तिथयः कृष्णजाः कलाः । अमावसी षोडशीयं ऋतोः षोडशरात्रयः ॥२॥ गर्भादिः कार्तिकस्तेन रक्तवर्णनभोधरः। कृतिकार्के गर्भपाकाद् वृष्टिः कल्याणकृत्तदा ॥३॥ का समागम के उदय को जाननेवालों से अभ्यास करके तथा उनकी सेवा करके वर्षाके अर्थिजनों के हर्षके लिये यह वर्षबोधरूप धनको मैंने कहा ॥३४०॥ सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत-पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्यजैनेन विचितया मेघमहोदये बालायबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितोऽग स्तिवर्षराजादिनिरूपणनामा सप्तमोऽधिकार:। ___ वायु और बादल आदिके इकठे हुए पुद्गलोंके समूहरूप जो गूढ मेघ है उसको गर्भ कहते है। उसकी उत्पत्ति कहते हैं ॥१॥ कार्तिक कृष्णपक्षको प्रतिपदासे जो कला संज्ञक तिथि हैं वे ऋतु की सोलह रात्रिय हैं, जिनमें अमावस की रात्रि सोलहवीं है । अर्थात् पूर्णिमा से अमावस पर्यंत सोलह रात्रि कला संज्ञक हैं घे पुष्पवती मानी हैं ॥२॥ कार्तिकमें गर्भादि के कारससे आकाश लाल वर्णवाला होता है । वह गर्भ कृमिकाके सूर्य, "Aho Shrutgyanam" Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१८) मेधमहोदये माघादिगर्भः सिद्धान्ते मार्गादिार्तिके मते । कार्तिकान्माघपर्यन्तं लौकिकः कचिदुच्यते ॥४॥ यत:-गरम कहिजे माह लगि, फागुण परायो गन्म। जार गम्भ स्त्री जिसो, होइ सकरमण सम्म ॥५॥ शुक्लायां कार्तिके मासे द्वादश्यां प्रोज्ज्वला निशा। सकला निर्मला चेत् स्यात् तदा पुष्पोदयो दिवः ॥६॥ यावत् स्यात् कार्तिकीपूर्णा-दिनावधिसुनिर्मलम् । दिनानि त्रीणि चत्वारि ऋतुस्नातं तदा नभः ॥७॥ कार्तिके पुष्पनिष्पत्तौ मार्गे स्नानं ततो मतम् । पौषे तुषारवातोर्मि-नित्यं माघो घनान्वितः ॥८॥ लोके तु-काती मासह थारसी, आभा गयण करेय । वीज खिवे घरसे सही, तो चार मास परसेय ॥९॥ अन्यत्रापिपरिपक्क होता है तब कल्याणकारक वर्षा होती है ॥ ३ ॥ सिद्धान्त मेंमात्र मास में, वार्तिककारकके मतसे मार्गशीर्षादि माससे और लौकिक मतसे कार्तिकसे मावमास पर्यन्त गर्भकी उत्पत्ति मानी है ॥४॥ कार्तिक से माघ तक गर्भ पवित्र माना है और फाल्गुनमें जार गर्भ माना है, यह नाम सदश फलदायक है ॥५॥ यदि कार्तिक शुक्ल बारसकी रात्रि समस्त बादल रहित निर्मल हो तो मेघ के गर्भ का पुप्पोदय जानना ॥ ६ ॥ कार्तिक शुक्ल द्वादशीसे पूर्णिमा तक तीन या चार दिन आकाश निर्मल रहे तो ऋतुमती कहना ॥७॥ कार्तिक में रजःकी उत्पत्ति, मार्गशीर्ष में स्नान, पौष में तुषार और वायु हो तथा माघमास बादल सहित हो तो वर्षाके गर्भको पूर्ण प्राप्ति समझना ॥८॥ लोक भाषा में भी कहा है कि- कार्तिक शुक्ल बारस को प्राकाशमें बादल हों, बिजली चमके और वर्षा हो तो चार मास पूर्ण वर्षा हो Hell कार्तिक शुक्ल वारसके दिन मेघ देखने में आवे तो मार्गशीर्षार्क में "Aho Shrutgyanam" Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्भलक्षणम् काती पारसी मेहा दीसे, निश्चय बरसे मिगसिरसीसइ । पांचमी मेहा चमके दामणि, तोवरसे सघलोई श्रावणि।१०॥ वराहस्तु प्राह-- केचिदन्ति कार्तिक शुक्लान्तमतीत्य गर्भदिवसाः स्युः। न तु तन्मतं यहूनां गर्गादीनां मतं वक्ष्ये ॥११॥ मार्गशिरसितपक्षे प्रतिपत्प्रभृतिक्षपाकरे षाढाम । पूर्वा वा समुपगते गर्भाणां लक्षणं ज्ञेयम् ॥१२॥ यनक्षत्रमुपगते गर्भश्चन्द्र भवेत् स चन्द्रवशात् । पश्चनवते दिनशते तत्रैव प्रसवमायाति ॥१३॥ मेघमालायां तुवारस्तुर्यस्तृतीयं भं तिथि: सा याऽस्तिगर्भिणी। गर्भपातं विना मेघ-स्तत्तत्काले प्रजायते ॥१४॥ दशप्रकाराः प्रागुक्ता गर्भाः शीत सम्भवाः । निश्चय से वर्षा हो और पंचमी के दिन मेघ हो या बिजली चम्के तो पूर्ण श्रावणमासमें वर्षा हो ॥१०॥ कोई कहते हैं कि कार्तिक शुक्लपक्षको लांघ कर गर्भके दिन होते हैं, परंतु ऐसा बहुतोंका मत नहीं है इसलिये बहुतसे गर्गादि ऋषियोंका मत कहता हूँ ॥ ११ ॥ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में प्रतिपदा प्रादि जिस दिन चंद्रमा पूर्वाषाढा नक्षत्र पर होता है, उसी दिन से गर्भ का लक्षण जानना चाहिये ॥१२॥ जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उस दिन जो मेघ का गर्भ उत्पन्न होता है वह चन्द्रमा के वश से माना जाता है। यह चन्द्रमाके वशसे उत्पन्न हुआ गर्भ १६५ दिनमें प्रसवता (वर्षा करता) है ॥१३॥ जिस तिथि को चौथा वार और तीसरा नक्षत्र हो उस तिथिको वर्षा के गर्भ उत्पन्न होते हैं, वह स्थिर हो कर उस २ कालमें वर्षा होती है। १४ ॥ शीतऋतुमें उत्पन्न होनेवाले दश प्रकारके गर्भ पहले कहे हैं, वे * टी-मृगशीर्षशब्दन मृगशीर्षमर्कभोगनक्षत्रं तत्समये वृष्टिरित्ययः । "Aho Shrutgyanam" Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२७) मेघमहोदय गलन्ति नो चैत्रशुक्ले तदा वर्षा यथास्थिताः ॥१५॥ आयुक्तम्-चैत्रस्यादौ दिवसदशकं कल्पयित्वा क्रमेण , स्वात्यन्ता प्रभृतिमुनिभिष्टिहेतोर्विलोक्यम् । यावत्संख्ये भवति दिवसे दुर्दिनं वाऽथ दृष्टि स्तावत्संख्यं भवति नियतं वार्षिकं दग्धमृक्षम् ॥१६॥ करकाधूनिकापातो रजोवृष्टिः सधूनिका। त्रिभिरेतैमहोत्पातैः सद्यो गो विनश्यति ॥१७॥ कार्तिकाद् राधपर्यन्तं गर्भाः स्युः सप्तमासजाः । उत्पतेः सार्द्धषण्मासै-विना पातं प्रकृतिदाः ॥१८॥ यदाहुः-गर्भिते कार्तिके मासे मासाश्चत्वार ईरिताः कृष्टयाकुलाः मुभिक्षं च सस्यसम्पतिरुत्तमा ॥१६॥ कृष्णपीतहरिच्छ्वेत-वर्णा मेघास्तदा स्मृताः । सिन्दरताम्रवर्णास्तु क्वचिदृष्टिविधायिनः ॥२०॥ अत एव लोकेऽपि-कातीमासह धुरिकरवि, वैसाखह पज्जत। यदि चैत्र शुक्लपक्षमें गले (बरसे) नहीं और यथास्थित रहे तो वर्षा होती है ॥ १५॥ चैत्र शुक्लपक्ष के दश दिन आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र तक क्रम में कृष्टिके लिये अवलोकन करना चाहिये, इनमें यदि जिस दिन दुर्दिन या वर्षा हो उतनी संख्यावाला वर्षाका नक्षत्र दग्ध होता है ॥ १६ ॥ ओला तथा धूनिका का गिरना और धूमिका के साथ रजः की वर्षा होना ये तीन महा उत्पात हैं, इनसे गर्भका शीघ्रही नाश होता है ॥ १७॥ कात्तिकसे वैशाख तक ये साप्त मास गर्भ रहते हैं । वे उत्पत्ति से सादे छभास बाद प्रसूति दायक होते हैं ॥१८॥ कार्तिक मासमें उत्पन्न हुए गर्भ चार मास वर्षा से परिपूर्ण होता है और सुभिक्ष तथा धान्य की प्राप्ति उत्तम करता है ॥ १६॥ धाम, पीला, हरा और श्वेत ये वर्णवाले मेव वर्षादायक हैं और सिंदूर तथा ताम्रवर्णवाले मेव क्वचित ही वर्षादायक हैं ॥२०॥ लोक में भी कात्तिक "Aho Shrutgyanam" Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्भलक्षणम् (1231 रोहिणी पूरि नविगले, तो पूरओगभंत॥२१॥ रोहिण्याः शशिनो भोगः कार्तिके वा तदुत्तरे । मासे गोदयायैतद वर्षगे कृत्तिकालयम् ॥२२॥ सूत्रं पुत्कर्षतो गर्भः पाण्मासिको निवेदितः। अधिकस्याविवक्षातस्तत्र सूर्यायुरादिवत* ॥२३॥ याहुल्यनयतो यहा सूत्रं प्रायिकमिष्यताम् । पजादिपाठवत स्व नवमास्यादिवजिने ॥२४॥ : मार्गशीर्षादिपले तु कार्तिके दुष्पसम्भवात् । कता भेदविवक्षान्यै-गर्भाष्टमे व्रतादिवत् ॥२५॥ मादिस वैशाख तक रोहिणी नक्षत्रमें वर्षा न हो तो गर्भ की पूर्ण प्राप्ति जानना ॥ २१॥ कार्तिक और मार्गशीर्षमें चन्द्रमा का रोहिणी नक्षत्रके साथ भोग गर्भका उदय के लिये होता है, वह कृत्तिका आदि दो नक्षत्रों में बरसता है ॥२२॥ प्रायः सूत्रोंमें पागमासिक गर्भ कहा है क्योंकि अधिक की विवक्षा न होनेसे, जैसे सूर्य आदि कां आयुष्य ॥ २३ ॥ अथवा बाहुल्यताके नयसे सूत्रको प्रायिक संज्ञा माना है, जैसे उत्तम स्वप्नोंमें प्रथम गज (हाथी) और जिनेश्वरों की गर्भ नवमासादि स्थिति ॥ २४ ॥ तथा मार्गशीर्षका मादि (कृष्ण) पक्षनें गर्भके पुष्धकालका संभव है उसको कार्तिक मानकर पुष्य या संभव बतलाया, ऐसी अन्य आचार्योने भेदविवक्षा की, जैसे गर्भ से मष्ट वर्षमें यज्ञोपवीत आदि व्रत इत्यादि ॥ २५॥ . .. टी-श्रीभगवत्या लोकपालाधिकारे चन्द्रसूर्ययोरायुः पश्योपनमात्रमुचलक्षसहस्रं वायुरधिकं तस्यापि विक्षणात् । ऋषभे वार्षिकर पोऽधिकं तन्न विवक्षितम् । द्वासततिसमायुरियाज्यधिकं । यथों लोके पत्रः पञ्चशमिसस्तुशिता, मास दशभिर्वर्षमधिकं न विषयते । गयवसह इतिगाथा सर्वत्र परं सर्वाहतां पूर्वगजदर्शनं नास्ति तया. पि माइत्यापाठः । गर्भेऽपि "नवग्रह मासाग बहुपंडिपुत्राण अदमागरायाण" इति पाठः सर्वत्र परसाईतां गर्भस्थितिथानास्ति। "Aho Shrutgyanam" Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) मेघमहोदये यदाह वराहःसितपक्षभवाः कृष्णे कृष्णाः शुक्ले चुसम्भवा रात्रौ । नक्तं प्रभवाश्चाहनि सन्ध्याजाताश्च सन्ध्यायाम् ||२६|| मार्गसिताद्या गर्भा ज्येष्ठाऽसितपक्ष के प्रसुवतेऽब्दम् । तत् कृष्णपक्षजाता आषाढसिते प्रवर्षन्ति ॥ २७॥ पौषसितोत्था गर्भा आषाढस्यासिते व मेघकराः । पौषस्थ कृष्णपक्षाद् विनिर्द्दिशेच्छ्रावणस्य सिते ||२८|| मार्गसितायाः कतिचित् पतन्ति करकानिलादिकोत्पातैः । मार्गासितजा गर्भा मन्दफलाः पौषशुक्लजाताश्च ॥ २६ ॥ माघसितोत्था गर्भा श्रावणकृष्णे प्रसूतिमायान्ति । माघस्य कृष्णपक्षेण विनिर्दिशेद् भाद्रपद शुक्लम् ॥३०॥ फाल्गुन शुक्ल समुत्था भाद्रपदस्यासिते विनिर्देश्याः । तस्यैव कृष्णपक्षोद्भवाः पुनञ्चाश्वयुजि शुक्ले ॥३१॥ का. शुक्लपक्ष में पैदा हुआ गर्भ कृष्णपक्ष में और कृष्णपक्षमें पैदा हुआ गर्भ शुपक्ष, दिनका गर्भ रात्रि में और रात्रिका गर्भ दिनमें, तथा सन्धाकाल गर्भ संध्यासमय में प्रसवता है ॥ २६ ॥ मार्गशीर्ष शुक्रनक्षमें उत्पन्न हुआ। गर्भ ज्येष्णपक्ष में प्रसवता हैं और मागशीर्ष कृष्णपक्ष में पैदा हुआ गर्भ भाषाढ शुक्राक्ष प्रसवता है याने बरसता है ॥ २७ ॥ पौषशुक्र पैदा हुआ गर्भ आषाढकृष्ण रक्ष और पौषकृष्णपक्षका गर्भ श्रावण शुक्लपक्षमें बरसता है ॥ २८ ॥ मार्गशिरशुक्लपक्ष में पैदा हुआ गर्भ कभी ओला और वायु आदि का उत्पासों से गिर जाता है। मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष में और पौषशुक्रपक्ष में उत्पन्न हुआ गर्भ सन्दफलदायक है || २६ ॥ मावशुक्रक्षमें उत्पन्न हुआ गर्भ श्राव कृष्णपक्ष में और माघकृष्णपक्षका गर्भ भाद्रपदका शुक्लपक्ष में प्रसवता है ॥ ३० ॥ फाल्गुन शुक्लपक्षमें उत्पन्न हुआ गर्भ भाद्रपदका कृष्णपक्षमें और फाल्गुन कृष्णपक्षका गर्भ आश्विन शुक्लपक्ष में बरसता है ।। ३१ ।। चैत्रशु "Aho Shrutgyanam" Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्मला चैत्रसितपक्षजाताः कृष्णेऽश्वयुजस्तु धारिदा गर्भाः। क्षेत्रासितसम्भूताः कार्तिकशुक्लेऽभिवर्षन्ति ॥३२॥ तस्मान्मतेऽपि वाराहे पुष्पं स्यात् कार्तिकासिते। अनुक्ते परिशेषेण निर्णयोऽत्र बहुश्रुतात् ॥३३॥ मार्गकृष्णजादिगर्भा यथा--- मागशीर्षकृष्णपक्ष मघायां गर्भसम्भवे । यता कृष्ण चतुर्दश्यां सविद्युन्मेघदर्शने ॥३४॥ आषाढ शुक्लपक्षेतच्चतुझं वर्षति ध्रुवम् । मार्गकृष्णे चतुर्थ्यादि-त्रयेऽश्लेषात्रयीकमात् ॥३५॥ गर्भितेष्वेषु ऋक्षेषु मार्गकृष्णे फलं भवेत् । भाषाहे पूर्वफाल्गुन्यां त्रिरात्रं पृष्टिसम्भवात् ॥३६॥ उत्तरा हस्तश्चित्रा च सप्तम्यादित्रये यदा। मार्गशीर्षे गर्मिता चेद् अर्वातैश्च विद्युता ॥३७॥ क्लपक्षमें पैदा हुआ गर्भ आश्विनकृष्णपक्षमें और चैत्रकृष्णपक्षका गर्भ का. तिकशुक्लपक्षमें बरसता है ॥ ३२॥ ऐसा वराहमिहराचार्यका मत है इसलिये कार्तिक कृष्णपक्षमें मेघ के पुष्प (रजः ) की प्राप्ति समझना चाहिये और जो बाकी नहीं कहे हैं उनका निर्णय बहुत से आगमों द्वारा यहां कर. लेना चाहिये १३३ ॥ मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष में मधानक्षत्र के दिन गर्भ उत्पन्न हो या कृष्ण चतुर्दशी को बिजली सहित बादल हो तो ॥ ३४ ॥ आषाढ शुक्लपक्ष में चतुर्थीके दिन अवश्य वर्षा होती है । मार्गशिर कृष्णपक्षकी चतुर्थी आदि मीन तिथि और आश्लेषा आदि तीन नक्षत्र इन में गर्भकी उत्पत्ति हो तो आषाढमासमें पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रके दिन तीन रात्रि वर्षा हो॥३५-३६ मार्गशीर कृष्णपक्षमें उत्तराफाल्गुनी हस्त और चित्रानक्षत्र तथा सप्तमी आदि तीन तिथि इनमें गर्भ उत्पन्न हो और बिजलीके साथ बादल तथा वायु होतो॥३७॥भाषाढ "Aho Shrutgyanam" Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहापये भाषा श्वेतपक्षे तु अष्टम्या स्वातिभे तथा । त्रिरात्रं मेघवृष्टया स्याजलैरेकार्णवा मही ॥८॥ दशम्यादित्रये मार्गे कृष्णे चामावसीतियो। चित्रास्वातिविशाखामु समाते गर्भलक्षणे ॥३९॥ प्राषाढ शुक्लपक्षान्त-स्तिथौ तस्यां घनोदयः । तस्मिन्नेव च नक्षत्रे जायते नात्र संशयः ॥४०॥ पौषमासे कृष्णपक्षे ऋक्षं शतभिषम् यदा। इत्यादिश्लोक दशकं प्रागुक्तामह भाव्यते ॥४१॥ सप्तम्यादित्रये पौषे कृष्णे गर्भस्य लक्षणात् । श्रावणे शुक्लसप्तम्यां स्वातौ स्याद् वृष्टये ध्रुवम् ॥४२॥ प्रयोदशीत्रये कृष्णे विद्युन्मेधैश्च गर्भिते । श्रावणे पूर्णिमायां स्याद् वृष्टिः सर्वत्र मण्डले ॥४३॥ माधे कृष्गनवम्यां चेदित्युक्तं प्राक। 'फाल्गुने शुक्लसप्तम्यां कृत्तिकाऋक्षसङ्गमे । शुक्ररक्षमें अष्टमीको तथा स्वाति नक्षत्रको तीन रात्रि मेघवृष्टि हो, पृथ्वी जल से एकाकार हो ॥३८॥ मार्गशिर कृष्ण पक्ष की दशमी भादि तीन तिथि और अमावास्या इन तिथियोंमें तथा चित्रा स्वाति और विशाखा इन नक्षत्रों में गर्भ उत्पन्न हो तो ॥३६॥ आषाढ शुक्लपक्षके अन्तकी उन्हीं तिथिों में और उन्हीं नक्षत्रों में वर्षा हो इसमें संदेह नहीं ॥४०॥ पौष मासका कृष्णपक्षमें यदि शतभिषग्नक्षत्रके दिन वायु बादल हो इत्यादि दश श्लोक पहले कहे हैं वहां से यहां विचार लेना ॥४१॥ पौष कृविपक्षकी सप्तमी आदि तीन तिथिों में गर्भका लक्षण होने से श्रावण शुक्ल सप्तमीको स्वातिनक्षत्रके दिन निश्चय से वर्षा होती है ॥४२॥ पौष कृष्ण त्रयोदशी भादि तीन तिथियों में बिजली और बादल सहित गर्म हो तो श्रावण मासकी पूर्णिमाके दिन सर्वत्र देशमें वर्षा हो ॥४३॥ "Aho Shrutgyanam" Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगभलक्षणम् गर्भादमाघमी भाद्र द्रोण मेघप्रवासिनी ॥४॥ अष्टम्यांदिचतुष्के तु चतुर्यादित्रये धनः । भवेद भाद्रपदे मासे जगतः सुखसाधनम् ॥४॥ पञ्चमी ससमी चैत्रे नवम्येकादशी सिता। त्रयोदशी पूर्णिमा च दिनेष्वेतेषु वर्षकात् ॥४६॥ करकापातनाद्विदर्शनाद गर्जितादपि । वर्षाकाले जलघर छिद्र देव प्रवर्षति ।।४७॥ पछा वायुरिव त्रेधा ज्ञापकः स्थापकः पुनः । उत्पादकश्च गर्भोऽत्र सार्द्धषापमासिकोऽन्तिमः ॥४८i कार्तिकवादशीगर्भो ज्ञापकः शुचिवर्षणे। मार्गशुक्लस्य पश्चम्याः श्रावणादिचतुष्टये ॥४९।। पौषकृष्णाष्टमीगर्भो ससम्यां नभमः सिते । पौषकृष्णदशम्यां हि गर्भो भाद्रासितस्य वा ॥५०॥ फाल्गुन शुक्ल स.ती कृतिका युक्त हो उस दिनवा गर्भसे भाद्रपद की अमावसको एक द्रोग जलवर्षा हो ॥४४ ॥ फल्गु में अष्टमी प्रादि चार दिन गर्भ हो तो भाद्रपद में चतुर्थी आदि तीन दिन जगतको सुखकारक वर्षा हो ॥४५॥ - चैत्र शुक्ल पंचमी सप्तमी नवमी एकादशी त्रयोदशी और पूर्णिमा इन दिनोंमें वर्षा हो, ओला गिरे, बिजली चमके और गर्जना हो तो वर्षाकाल में छिद्रसे ही वर्षा हो ॥ ४६॥४७॥ जैसे वायु तीन प्रकार के हैं ऐसे गर्भ भी ज्ञापक, स्थापक और उत्पादक ये तीन प्रकार के हैं, इनमें अन्तिम साढ़े छपासका गर्भ उत्तम माना है ॥४८॥ कार्तिक शुक्ल द्वादशीका गर्भ आषाढ में वर्षता है । मार्गशीर्ष शुरू पंचमी का गर्भ श्रावण आदि चार मास बरसता है ॥ ४६॥ पौषकृष्ण प्र. एमी का गर्भ श्रावण शुक्ल सप्तमी को बरसता है। पौषकृष्ण दशमी का "Aho Shrutgyanam" Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषस्य शुक्लषष्ठीजो गर्भा भाद्रपदाऽसिते । माचे पवलसतम्या पाश्विनाशुक्लशुक्लयोः ॥११॥ लोकेऽपि-प्रासाडे सिहरा करे, बजे उत्तर पाय । तर जाणे काती थकी, दसमे मास विहाय ॥१२॥ पोस अंपारि आठमि, विणुजल प्राभा छांह। सावण सुदि साममि, जलघर दीधी बांह ॥५३॥ पोसह छहे हुइ घणसारो, तो बरसे भदव अंधारो। माहीसप्तमी सत्तेजोइ,इणगुण निरतो घरसे आसोह॥५४॥ पोसदशमी जो मेह संभारे, तो वरसे भदव अंधारे । माही सातमी गम्भी दीसे, आसू वरसे दीह यत्तीसे ॥५॥ छट्टि इगारसि पूनिम पूरी, पोसअमावसि होइ अनीरी। इम जपेसवि पढिया पंडिय, वरसे मेह असाढ अखंडिय॥५६॥ पोसअंधारी सातमे, जइ घण नवि वरसेड। गर्भ भाद्रकृष्ण में बरसता है ॥ ५० ॥ पौषशुक्ल षष्टी का गर्भ भाद्रपदकप्रणपक्षमें बरसता है । माघशुक्ल सप्तमीका गर्भ पालोज कृष्ण और शुक्ल ये दोनों पक्षमें बरसता है।॥ ५१ ॥ . आषाढमें गर्जना हो और उत्तरदिशाका यायु चले तो भाद्रपद में वर्षा. हो ॥५२॥ पौष कृष्णअष्टमीको आकाश बादलों से आच्छादित हो किंतु वर्षा न हो तो श्रावण शुक्ल सप्तमीको वर्षा हो ॥५३॥ पौष मासकी षष्ठीके दिन वर्षाका गर्भ हो तो भाद्रपदका कृष्णपक्षमें वर्षा हो । माघ शुक्लसप्तमी को वर्षाके गर्भ हो तो आसोजमासमें निरंतर वर्षा हो ॥५४॥ पौष दशमी को मेघाडंबर हो तो भाद्रपदके कृष्णपक्ष में वर्षा हो । माघ मासकी सप्तमी को वर्षाके गर्भ हो तो पासोज महीनेके बत्तीम दिन वर्षा हो ॥५५॥ पौष मासकी षष्टी एकादशी पूर्णिमा और अमावास्याके दिन गर्मकी परिपूर्णता हो सो आषाढमासमें अविच्छिन मेघ बरसे ऐसे सब पंडित कहते हैं ॥५६॥ पौष "Aho Shrutgyanam" Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्भम तो आदा मांहे आदरे, जलथल एक करेइ ॥५७॥ ततः स्युर्ज्ञापके गर्भे मासा षद् सप्त चाष्ट* वा । स्थापको ज्येष्ठमूलादि-पूर्वाषाढाम्बुदोदयः ॥५८॥ यतः -गली रोहिणी गली पडिवा, गलिया जेहा मल । पूर्वाषाढ धडकिओ, नीपना सातु नूर ॥ ५९ ॥ उत्पादकस्तु द्विविधस्तात्कालिकः स लक्षणः । सार्द्धषाण्मासिकस्त्वन्यः प्रथमः समयोद्भवः ॥ ६० ॥ शित्रिपञ्चादिदिवसमा साधन्तजलप्रदाः । से मध्यमाः परिज्ञेया- स्तात्कालिकाः पुनस्त्वमी ॥ ६१ ॥ मेघचक्रं रौद्रीय मेघमालायाम् (*२७) पूर्वास्यां यदि सन्ध्यायां मेघैराच्छादिनं नभः । कृष्ण सप्तमीको यदि वर्षा न हो तो आर्द्रा नक्षत्र में वर्षाका प्रारंभ हो याने जल स्थल एकाकार हो ॥ ५७ ॥ ज्ञापकगर्भ छ सात या आठ मास के बाद बरसता है । स्थापक गर्भ ज्येष्ठ मूल और पूर्वाषाढा नक्षत्र में उदय होता है ॥५८॥ इसलिये कहा है कि- प्रतिपदा तिथि, रोहिणी, ज्येष्ठ और मूलनक्षत्र इनमें वर्षा हो और पूर्वाषाढा में गर्जना हो तो सातों नूर उत्पन्न हों ॥ ५६ ॥ उत्पादक गर्भ दो प्रकारके हैं- एक 'तात्कालिक' शीघ्र ही बरसनेवाला और दूसरा समय पर बरसनेवाला साढ़े छनासिक ॥ ६० ॥ गर्भ होने बाद जो दो तीन पांच . आादि दिनों में या मासके भीतर ही बरसनेवाला हो यह मध्यम तात्कालिक गर्म जानना ॥ ६१ ॥ पूर्व दिशामें यदि सन्ध्या समय आकाश बादलों से आच्छादित हो * टी- अत्राष्टौ मासाः पौषदशमीत्यादावपि तथैव, मावशुद्धसप्तभ्यां गर्भोऽप्याश्विनेऽष्टमासजः, आश्विनकृष्णे सार्द्राष्टमासजः । पौष पूर्णि मागर्भ प्राषाढशुले बारामासिकः कृष्णे तु सार्द्धषागमासिकः कृष्णादिमवैः शुक्लादिमते तु आषाढशुले सार्द्धपारामासिकः, कृष्णपचे खातमाखिकः । " Aho Shrutgyanam" Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८) .. मेघमहोदये पर्वताकृतिभिः कश्चित् कश्चित्कुञ्जरमृतिभिः ॥६२॥ नानाकृतिधरैरन - मानङ्गवलेघनैः । पञ्चरात्रात् सप्तरात्रात् सद्यां दृष्टिनिंगद्यते ॥ ६३ ॥ उत्तरस्यां च सन्ध्यायां गिरिमालेव विस्तृतः । मेघस्तृतीयदिवसे वृष्ट्या तुष्टेकरी नृणाम् ॥ ६४|| पश्चिमायां तु सन्ध्यायां घनाः स्युः पर्वता इव । श्यामाऽस्तंगते भानौ सद्यो वर्षाभिलक्षणम् ॥ ६५ ॥ दक्षिणस्यां यदा मेघः स कोटीनारसम्भवः । त्रिपञ्चसप्तरात्रान्तः किञ्चिद् वृष्टिविधायकः ॥ ६६ ॥ आग्नेय्यां बहुतापाय मेवाः स्वल्यजलप्रदाः । नैर्ऋत्यामीतिरुन्ताप-रोगवर्षाकराः स्मृताः ॥६७॥ वातवृष्टिकराः सद्यो वायव्यामुन्नता घनः । ऐशान्यामशनिश्यक्ता मेवाः सुखकरा जलात् ॥ ६८ ॥ और यही बादलों की आकृति पर्वत या हाथी समान देखने में आवे ॥ ६२ ॥ और अनेक प्रकार व हानियोंके सदृश बदल दीखे तो पांच या सात रात्रि बाद वर्षा हो ॥ ६३ ॥ उत्त दिज्ञाने संध्या के समय पर्वतपंक्तिकी समान विस्तृत बादल हो तो तीन दिनों मनुकों को संतुष्ट करनेवाली अच्छी वर्षा हो ॥ ६४ ॥ पश्चिम दिशानें सन्ध्या के समय पर्वतकी समान वाइल हों और सूतिके समय बाल शान रंगवाले हो तो शीघ्र ही वर्षा होती है । ६५ ।। दक्षि दिशा में संध्या के समय जया या मुकुटकी समान बादल हो तो तीन पांच या सताकि बाद कुछ वर्षा हो ॥ ६६ ॥ आग्नेय कोण में बाइल हो तो गरी अधिक पड़े और वर्षा थोड़ी हो । नैॠत्य कोण में बादल हो तो ईतिका उपद्रव हो और रोगकारक वर्षा हो ॥६७॥ वायव्य कोण में उन्नत बदल हो तो शीघ्र ही वायु और वर्षा करते है । ईशान कोण में बादल को बिजली चमके सो सुखकारक जल वर्षा हो ॥६॥ "Aho Shrutgyanam" Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्भलक्षणम् (३२९) अथ तात्कालिकगर्भलक्षणम्--- चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी ह्यमावास्या च सप्तमी । आषाढकृष्ण तिथयः सद्यो मेघाय लक्षणे ॥६६॥ भ्रेषु पञ्चवर्णाः स्युः पश्चिमाभिमुखी गतिः । पूर्ववातः पुनर्मेघा वर्षालक्षणमीदृशम् ||५०॥ प्राषाढ पूर्णाविगमाद् यावदायाति पञ्चमी । तावद्दिनेषु मध्याह्ने सन्ध्यायां मेघलक्षणे ॥७१॥ सप्तमी दशमी चैकादशी श्रावणकृष्गगा । मेघचिन्हेन सन्ध्यायां त्रिरात्राद् वृष्टिकारिणी ॥७२॥ अमावास्यां श्रावणस्य चित्रादिनेऽथवा सिते । सद्य उत्पद्यते गर्भ स्तद्दिने दुर्दिनादिता ॥७३॥ पूर्वस्यां वादलं धूम्रं सूर्याऽस्ते पीतकृष्णता । उत्तरस्यां मेघमाला प्रभाते विमला दिशः ॥७४॥ आषाढ कृभ्णपक्ष की चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, अमावस और सप्तमी ये तिथि शीघ्र ही मेघ बरसाती है ॥ ६६ ॥ आकाशमें पंच वर्णवाले बादल पश्चिमाभिमुख जा रहे हों और पूर्वदिशाका वायु चलता हो तो यह वर्षाका लक्षण समझना चाहिये ॥ ७० ॥ आषाढ पूर्णिमाके बाद पंचमी तक इन दिनोंनें मध्याह्न समय और संध्या समय मेघके लक्षण हो तो शीघ्र ही वर्षा होती है ॥ ७१ ॥ श्रावण कृष्णपक्ष की सप्तमी दशमी और एकादशीको संध्या समय में के लक्षण हो तो तीन रातमें वर्षा हो ॥ ७२ ॥ श्रावणकी अमावस को या शुक्रपक्ष में चित्रानक्षत्र के दिन दुर्दिन हो तो शीघ्र ही गर्भ उत्पन्न होता है ॥ ७३ ॥ पूर्वदिशा में धूम्रवर्णवाले बादल सूर्यास्त के समय पीले या १८ म वर्णवाले हो जाय, उत्तर दिशा में मेव हो, प्रात काल में दिशा स्वच्छ रहे और मध्याह्न समय अधिक गरमी हो तो ये मेघ के लक्षण जानना; यदि ऐसे लक्षण हो तो उसी दिन बांधीरात में प्रजा को संतुष्टकारक मच्छी કર "Aho Shrutgyanam" Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) मेघमहोदये मध्यकाले जनेत्ताप ईदृशे मेघलक्षणे । अर्द्धरात्रे गते वृष्टिः प्रजातोषाय जायते ॥७॥ भाद्रशुक्ल चतुर्थेऽह्नि पञ्चमे सप्तमेऽष्टमे । पूर्णिमायां च गर्भण सद्यो मेघमहोदयः ॥७६॥ पञ्चभिः सप्तभिर्वा स्या-द्दिनैरेकार्णवा मही । चतुर्थ्यामपि पञ्चम्या-माश्विने शीघ्रगर्भदा ॥७७॥ दक्षिणः प्रथलो वातः सकृदेव प्रजायते । धारुणश्चैव नक्षत्रैः शीघ्रं वर्षति माधवः ॥७८॥ धूम्रिताः स्युर्दिशः सर्वाः पूर्ववाते वहत्यपि । चतुर्याम्यन्तरे मेघः सरांसि परिपूरयेत् ॥७६।। वराहस्त्वाह-उदयशिखरिसंस्थो दुर्निरीक्षोऽतिदीप्त्या, द्रुतकनकनिकाशः स्निग्धवैडूर्यकान्तिः । तदहनि कुरुतेऽम्भ-स्तोयकाले विवश्वान्, प्रतिपदि यदि वोच्चैः खं गतोऽतीव तीव्रः ॥८॥ वर्षा होती है ||७४-७५!! भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, पचमी, सप्तमी, अष्टमी और पूर्णिमा इन दिनोंमें गर्भ हो तो शीबही वर्षा होती है ॥७६॥ पांचवे या सातवें दिनमें ही पृथ्वी जलसे पूर्ण हो जाय । आश्विन मासकी चतुर्थी और पंचमीको भी शीघ्रही वर्षाकारक गर्भ होते हैं ॥७७|| शतभिषानक्षत्र के दिन दक्षिण दिशाका प्रबल वायु एकवार भी चले तो शीघ्रही वर्षा होती है ॥७॥ सब दिशाएँ धूम्र वर्णवाली हों और पूर्वदिशाका वायु चले तो चौथे प्रहर जलकी वर्षा सरोवरको परिपूर्ण करें ॥७६।। वर्षाऋतु में जिस दिन उदयाचल पर रहा हुआ सूर्य अपनी कान्ति से प्रचंड तेजस्वी हो, पिघले हुए सुवर्णकी समान या स्निग्ध वैडूर्यमणिकी समान चिकनी कान्ति वाले हो तो उस दिन जलवर्षा हो । यदि आकाश में ऊंचे स्थान परे जा. कर तीक्ष्ण किरणोंसे तपे तो उसी समय वर्षा हो ॥८॥ "Aho Shrutgyanam" Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्भलक्षणम् (३३१) गर्भविनाशलक्षणम् -- गर्भोपघातलिङ्गान्युल्काशनिपांशुपातदिग्दाहाः । क्षितिकम्पखपुर की लककेतु ग्रहयुद्ध निर्घाताः ॥ ८१ ॥ रुधिरादिवृष्टिकृत परिवेन्द्रधनूंषि दर्शनं राहोः । इत्युत्पातैरेतैस्त्रिविधैश्चान्यैर्हतो गर्भः ॥८२॥ स्वर्तुः प्रभाषजनितैः सामान्यैर्यैश्च लक्षणैर्वृद्धिः गर्भाणां विपरीतैस्तैरेव विपर्ययो भवति ॥८३॥ भाद्रपदाद्वयविश्वाम्बुदेव पैतामहेष्वथर्क्षेषु । सर्वेष्वृतुषु विवृद्धो गर्भो बहुतोयदो भवति ॥ ८४ ॥ शतभिषगाश्लेषार्द्रास्वातिमघासंयुतः शुभो गर्भः । पांसु बहून् दिवसान् हन्त्युत्पातैर्हेतैस्त्रिविधैः ॥ ८५ ॥ मार्गशिरादिष्वष्टौ षट्षोडश विंशतिश्चतुर्युक्ताः । अब गर्भ विनाश कारक लक्षण कहते है- गर्भके समय उल्कापात, वज्राघात, धूलिकी वर्षा, दिग्दाह, भूमिकम्प, गन्धर्व नगर, कोलक, केतु, ग्रहयुद्ध, निर्वातशब्द, रुधिर आदिकी वर्षा होनेसे विकारपन, परिघ, इन्द्रधनुष और राहु का दर्शन इन सब उत्पातों से और दूसरे तीन प्रकार के उत्पातों से गर्भका विनाश हो जाता है ॥१-८२॥ अपने ऋतुके स्वभाव में उत्पन्न हुए गर्भ साधारण लक्षण द्वारा बढते हैं और यही लक्षण विपरीत होनेसे गर्भकी हानि होती है ||३|| पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा और रोहिणी इन नक्षत्रों में उत्पन्न हुए गर्भ सब ऋतु में वृद्धि पाते हैं और बहुत जलदायक होते हैं ॥ ८४ ॥ शतभिषा, आश्लेषा, आर्द्रा, स्वाति और मघा इन नक्षत्रों में उत्पन्न हुए गर्भ शुभ होते हैं और बहुत दिन तक पोषण करते हैं परंतु तीन उत्पातों से हने हुए हो तो नष्ट हो जाते हैं ॥८४॥ मार्गशिर में शतभिषा आदि पांच नक्षत्रों में उत्पन्न हुए गर्भ साढ़े छः मास बाद आठ दिन तक बरसते हैं । इसी तरह पौष के उत्पन्न " Aho Shrutgyanam" Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३२) मेघमहोदये निंशतिरथदिवसायमेकतमर्वेण पश्चभ्यः ॥८॥ क्रूरग्रहसंयुक्ते करकाशनिवर्षदायिनो गर्भा:। शशिनि रवौ चापि शुभैर्युनक्षिते भूरि वृष्टिकराः ॥८॥ गर्भसमयेऽतिवृष्टिगर्भाभावाय मित्रखेटकृता । द्रोणाष्टांशाभ्यधिके पृष्ठेगर्भश्च्युतो भवति ॥८॥ गर्भः पुष्टः प्रसवे ग्रहोरघातादिभिर्यदिन पृष्टः । प्रात्मीयगर्भसमये करकामिश्रं ददात्यम्भः ॥८६|| काठिन्यं याति यथा चिरकालधृतं पयः पयस्विन्याः । कालातीतं तद्वत्सलिलं काठिन्यमुपयाति ॥१०॥ पञ्चििमत्तैः शतयोजनं तदर्हार्द्धमेकनो हन्यात् । वर्षति पश्च समन्ताद रूपेणकेन यो गर्भः ॥६॥ हुए गर्भ छः दिन, माघके सोलह दिन, फाल्गुन के चौबीस, चैत्रके वीस दिन और वैशाखके तीन दिन बराबर वर्षा होती है ॥८६॥ यदि गर्भ का नक्षत्र का ग्रह युक्त हो तो समस्त गर्भ से ओले और विजली गिरे तथा वर्षाके साथ मच्छली बरसे । यदि चन्द्रमा या सूर्य शुभग्रह से युक्त हो या शुभग्रह से देखे जाते हो तो बहुतही वर्षा करते हैं ॥७॥ यदि गर्भ के समय विना कारण वहुतसी वर्षा हो तो गर्भका अभाव होता है । द्रोणका अष्टमांशसे अधिक वर्षा हो तो गर्भपात होता है ॥८॥ जो पुष्टगर्भ प्रसत्र के समय ग्रहों के उपचात आदिसे न बरसे तो दूसरे गर्भ ग्रहण के समय पोलेका मिला हुआ जल बरसाता है ॥८६॥ जिस प्रकार गायों का दूध बहुत काल तक रहनेसे कठिन हो जाता है, इसी तरह जल भी वर्षने के समय न बरसे तो कठिन ओले बन जाते हैं ॥६०॥ जो गर्भ पवन जल बिजली गर्जना और वादल' इन पांच प्रकारके निमित्तसे पुष्ट होता है वह सौ योजन तक बरसता है। चार निमित्तसे पचास, तीन निमित्तसे पचीस, दो निमितसे साढ़े बारह और एक निमितसे पांच योजन तक बरसता है । "Aho Shrutgyanam" Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघनर्मलक्षणम् : द्रोणः पञ्चनिमिते गर्भे श्रीण्याढकानि पवनेन । षविद्युना नवात्रैः स्तनितेन द्वादश प्रसवे - ॥९२॥ सत्सन्ध्यासंलग्नो वर्षति गर्भस्तु योजनंः स्वेकम् |सर्जित त्रिगुतिं सार्द्धाष्टयोजनी भवेद् विद्युत ॥६३॥ प्रतिसूर्यकेण वर्षत्येकादश योजनानि गर्भस्तुः । सत्परिवेशो द्वादश. समीरणेनापि पञ्चदरा ||१४|| पवनाभ्रवृष्टिविद्युद्गर्जितशीतोष्णरश्मिपरिवेषाः । जलमत्स्येन सहोता दशधा गर्भप्रसवहेतुः ॥९५॥ पबनसलिलविद्युद्गर्जिताम्रान्वितो यः स भवति बहुतोयः पंचरूपाभ्युपेतः । विसृजति यदि तोयं गर्भकाले च भूरि, प्रसवसमय मित्या शीकराम्भः करोति ॥ ६६ ॥ छ , अर्थात् एक २ निनित्तस अभावस सौ याजनक द्धर्द्ध की हानि होकर वर्षा होती है ॥ ६१ ॥ पांच निमित्तत्राले गर्भ एक द्रोण (२०० पल) जल बरसाता है । प्रसवके समय पवन हो तो तीन आडक (१५० - पल) जल बरसाता है। बिजलीके निमितवाले गर्भ छः ग्राहक जल बरसता है । मेघ संयुक्त गर्भ हो त तो नव आक और गर्जना युक्त गर्भ हो तो बारह चाटक जल बरसाता है ॥ ६२ ॥ संध्या युक्त गर्भ एक योजन तक बरसता है । गर्जना युक्त गर्भ तीन योजन तक, बिजली युक्त गर्भ साढे आठ योजन तक बरसता है ॥ ६३ ॥ उल्कापात युक्त गर्भ ग्यारह योजन तक, परिमंडल युक्त बारह योजन और वायु युक्त पंदरह योजन तक बरसता है ॥ ६४ ॥ पवन बादल, वर्षा, बिजली, गर्जना, शीत, उष्ण, किरण, परिवेष और जलमत्स्य, ये दश प्रकार गर्भ प्रसवके कारण हैं ॥६५॥ जो गर्भ पवन, जल, बिजली, गर्जना और बादल इन पांच निमित्तरूपसे युक्त हो तो वह गर्भ बहुत जलदायक होता है । यदि गर्भकाल में बहुत जल बरसे तो प्रसव समय "Aho Shrutgyanam" Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये (१३४) अथ सद्यो वृष्टिलक्षणम् बादले रात्रिवासश्चेत् खद्योतेषु निशि युतिः । जलेषु चोष्णता सद्यो मेघवर्षाभिलक्षणम् ॥६७॥ रात्रौ तारा फलत्कारः प्रातश्चात्यरुणो रात्रिः । अवृष्टौ शक्रचापश्च सद्यो वृष्टिस्तदा भवेत् ॥६८॥ वदन्ति भुजगा वृक्षे सूर्येन्दोः परिधिस्तथा । उर्ध्वा चेद् गंडरी शेते लोहे कीहः पुनः पुनः ॥६६॥ आम्लं च तकं तत्कालं मत्स्येन्द्रधनुरुद्गमः । धूम्रिता निविडा शैला-धर्मादिषु तथार्द्रता ॥ १०० ॥ प्रभाते पश्चिमायां चे-दिन्द्रचापः प्रदृश्यते । वारुणैश्चैव नक्षत्रैः शीघ्रं वर्षति माधवः ॥१०१॥ गोमये उत्कराः कीटाः परितापोऽतिदारुणाः । चातकानां रवो वृष्टिं सद्यः स सूचयेज्जने ॥१०२॥ को लांघकर जल कण वर्षा करता है ॥ ६६ ॥ बादलों में अंधकार हो, रात्रि में खद्योत (उडनेवाले चमकदार जंतु ) की प्रकाश अधिक हो और पानिमें उष्णता हो तो शीघ्रही मेघवर्षाका लक्षण जानना ॥ ६७ ॥ रात्रि में तारा गिरे, प्रातः काल सूर्य लालवर्ण वाला हो, और आकाश में विना वर्त्रा इन्द्रधनुष दीखे तो शीघ्र ही वर्षा होती है ॥ ६८ ॥ वृक्ष पर सर्प चढ़े, सूर्य और चंद्रमा को परिधि ( परिमंडल ) हो, उच्चस्थान पर गड्डरी सोवे, लोहे पर वारंवार कीट लगजाय ॥ ६६ ॥ छाशमें खट्टापन शीघ्रही आजाय, जलमत्स्य तथा इन्द्र धनुष का उदय हो, पर्वत धूम वाले होकर घने ( इकट्ठे ) दीखे, चमडा आदिमें गीलापन हो जाय ॥ १ ०० || प्रातः काल पश्चिमदिशा में इन्द्र धनुष दीखे और शतभिषा नक्षत्र हो तो शीघ्रही वर्षा होती है ॥ १०१ ॥ गोबर में अतिदारुण बहुत प्रकार के कीडे हों तथा चातक पक्षी शब्द करे तो शीघ्रही वर्षा होती है । "Aho Shrutgyanam" Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्भलक्षणम् (३३५) सूर्योदये श्रावणमासि गजेंद्रमन्ति नीरोपरि वापि मत्स्याः । घनस्तदाष्टादश ग्राममध्ये, करोति भूमिं सलिलेन पूर्णाम् ॥३॥ वराहः - शुककपोतबिलोचनसन्निभो, मधुनिभव यदा हिमदीधितिः । प्रतिशशी व यदा दिवि राजते, पतति वारि तदा न विराद्दियः ॥ १०४ ॥ स्तनितं निशि विद्युतो दिवा, रुधिरनिमा यदि दण्डवत् स्थिता । पवनः पुरतश्च शीतलो यदि, सलिलस्य तदागमो भवेत् ॥ १०५ ॥ बल्लीवाला गगनोन्मुखाः स्नानं च पक्षिणाम् । जलान्तः पांशुराशौ वा गवामूर्ध्व खवीक्षणम् ॥ १०६ ॥ मार्जारभूमिखननं गोनेत्रात् पयसः श्रवः । नीलिका कज्जलाभं खं शिशुसेतुक्रियाध्वनि ॥ १०७ ॥ पिपीलिकाण्डको सर्प उन्मुखा: कुर्कुरा गृहे । १०२ ॥ श्रावणमास में सूर्योदय के समय मेव गर्जना हो, और पानी के पर मछली घूमे तो अठारह पहरके भीतर वर्षा होकर जलसे पृथ्वीको पूर्ण करें ॥ १०३ ॥ जिस समय चन्द्रमाका रंग तोते, तथा कबूतरकी आंख समान लालवर्णवाले या मध की समान रंगवाले हो अथवा आकाश में चन्द्रनाका दूसरा प्रतिबिम्ब दिखलाई देतत्र आकाशसे शीघ्रही वर्षा होती है ॥ १०४ ॥ रात्रि में मेव गर्जना हो, दिनमें लालवर्णवाली बिजली दंडके समान सीधी दीखे और पवन आगेसे शीतल हो तो उस समय जलका आगमन होता हैं ॥ १०५ ॥ लताओं के नवीन पत्ते आकाश की ओर उच्चें उठ जाय, पक्षिगण जल या धूलिसे स्नान कर, गौ ऊँचे सुख करके आकाश को देखे ॥१०६ ॥ बिल्ली भूमिको खने, गौके आंखसे जल गिरे, नीलिका कज्जल के सदृश मा "Aho Shrutgyanam" Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३६) मेघमहोदये रटन्ति वहि दिशि वा शिवा शब्दोऽपि दृष्टिकृत् ॥ १०८ ॥ यदा भाद्रपदे मासे प्रतिपदशमी तथा । सप्तमी पूर्णिमा चैव नवमी च यथाक्रमम् ॥ १०६ ॥ मेघा यदा न दृश्यन्ते पश्चिमां दिशिमाश्रिता । तावद्वर्षन्ति सततं बहुनीराः पयोधराः ॥११०॥ सन्ध्याकाले च ये मेघाः पर्वताकारसन्निभाः । - यादित्यास्तंगते तर्हि चाहोरात्रं प्रवर्षति ॥ १११ ॥ सूर्यास्तगमने व्योम श्रावणे रक्तिमान्विताम् । * काश दीखे, रास्तामें बालक धूल आदिक बुल याने बांध बंधि ॥ १०७॥ पिपीलिका(चींटी)अण्डाको छोड़े, घरमें कुत्ते ऊंचे सुख करें देखें, श्रृंगाल दिन या रात्रिमें शब्द करे, इत्यादि इन निमित्तों से शीघ्ररी वर्षा होना समझना चाहिये ॥ १०८ ॥ यदि भाद्रपदमास में प्रतिपदा दशमी सप्तमी पूरियमा और नवमी इन तिथियों में अनुक्रमसे पश्चिम दिशामें रहे हुए बादल न दीखें सो नीरंतर मेघ बहुत जल बरसावे ॥ १०६ ११० ॥ सूर्यस्ति में सन्ध्याकाल' के समय पर्वत के आकार सदृश बादल दीखे तो दिनरात वर्षा हो ॥ १११ ॥ श्रावणमासमें सूर्यास्त के समय आकाश लालवर्ण वाला दीखे तबतक वर्षा ब * माणिक्यसूरिकृत शाकुनसारोद्धार में भी कहा है किनीरतीयें तटस्थचे व कम्पयते शुनिः । तत्र देशे घनां मेघ वृष्टिं वदति भाविनीम् ॥ १ ॥ चन्द्रार्कौ प्रेक्ष्य वर्षातु रोत्यूर्ध्ववदनों यदि । सप्तरात्रा वारिपुरं पतित्र्यति वदन्यदः ॥ २ ॥ प्रसार्य वक्त्रमाकाशे जृम्भां कुर्वन् निरीक्षते । जलपाती भवत्याशु प्रचुरो ध्यानया ॥ ३ ॥ जलाश्रय तीर्थ के तट पर रहा हुआ कुत्ता मंगको कंपावे तो उस देशमें भी मेघवर्षा का सूचन करता है ॥ १ ॥ वर्षा कालम कुत्ता चन्द्र सूर्य को देखकर ऊँचा मुखकर रोने लगे तो सात रात्रि के बाद बहुत वर्षा होगी ऐसी सूचना करता है ॥ २॥ तथा मुखको माकाशमें पसार कर उबासी करता हुआ देखे तो इस चेासे शीघ्रही बहुत जलवर्षा हो । ३॥ " Aho Shrutgyanam" Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेषगर्भलक्षणम् लावर्षति माम्भोद-स्तनपायी नवा जनः॥११२॥ बराह-सन्ध्याकाले स्निग्धा दण्डहिन्मत्स्यपरिधिपरिवेषाः। सरपतिवापरावर्तरषिकिरणामासुकृष्टिकराः ॥११३॥ . पिच्छिमाविषमविश्वस्तविकृताः कुटिलापसव्यपरिकृत्ताः। तहस्तविकलकलषाः सविग्रहा वृष्टिदाः किरणाः ॥११४॥ अधीतिमा प्रसत्रा ऋजवो दीर्घाः प्रदक्षिणावर्ताः। किरणा:शिवाय जगतो वितमस्के नभसि भानुमतः॥११५।। शुमला करादिकृतों दिवादिमध्यान्तगामिनः । विस्थामव्युच्छिमाजवो दृष्टिकरास्ते स्वमोघाख्या।११६ महालमिदं गुयं न वाच्यं यस्य कस्यचित् । सम्यकपरीक्ष्य दातव्यं नोपहासो यथा भवेत् ॥११७॥ से नहीं, जिससे मनुष्योंको छाश पीने को न मिले ।। ११२॥ सन्ध्याकालमें सूर्यके किरण स्निग्ध हों, परिव, मिजली, मत्स्य, परिधि तथा परिबेघ याले हो और इन्द्र धनुषसे घिरे हुए हो तो शीघ्रही वर्षा करनेवाले होते हैं । ११३ ॥ खंड विषम, विध्यस्त, विकारयुक्त, कुदिल, अपसव्यमार्गसे विसी दुई, तनु, हस्व, विकल भौर शरीरधारियों की जैसी भाकृति वाली सूर्यकी किरखें हो तो कृष्टिकारक होती हैं ॥ ११ ॥ प्रकाशवाली, प्रसन्न, ऋजु, दीकिार और प्रदक्षिणा के सदृश फिरणे स्वच्छ पाकःशमें दृष्टि में भाये तो जगत् का कल्याण के लिये हो ।। ११५॥ उदय, मध्याह और सायंकालके साव्य सफेद, स्निग्ध, प्रखंड और सरलाकार किरणें देखने में भावे वे - मोष नाम से कही जाती हैं और वे वर्षा करनेवाली होती हैं ॥११६ ॥ यह गुप्त रखने लायक धके गर्भका ज्ञान जिस किसीके आगे नहीं काना चाहिये, सिल्पकी अच्छी तरह परीक्षा करके देवे जिससे उपहास ११. मदेव ब्रामणमे अपनी घराला में कहा है कि यदि स्वयं "Aho Shrutgyanam" Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३८) मेधमहोदये "क्षुद्रपारखण्डधूर्तेषु तथारिक्तापहासिके । ज्ञानं न कथ्यतामेति यदि शम्भुः स्वयं वदेत् ॥१८॥ कथमपि सविशेषं गर्भसन्दर्भ एषः , प्रथित इह जिनेन्द्रोन्निवयोधानुरोधात् । अधिजलधिजलात् + स्यान्मेघमाला विशाला, सफलमपि किमस्या सारमात्तुं हिं शक्यम् ॥९१६।। इतिश्रीमेघमहोदये वर्षप्रयोवे तपागच्छीयमहोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते गर्भकथनोऽष्टमोऽधिकारः ॥ शंभुभी आज्ञा दे तो भी क्षुद्र पाबंड इतः तथा व्यर्थ उपहास करनेवाले ऐसे मनुष्योंको यह ज्ञान नहीं कहें ॥ ११८॥ श्री मिनेन्द्रभगवानका परमज्ञानकी सहायतासे किसी भी प्रकार मेव.गर्भका विस्तारपूर्वक संग्रह किया । महासमुद्र के जलसे भी अधिक विशाल ऐसी · मेत्रमाला' है यह समन तो क्या इसके सारको भी कहने को...समर्थ है ? ॥ ११६ ॥ सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत-पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासा व्यजैनेन विचितया मेघमहोदये वालाबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितो गर्भकथननामाष्टमोऽधिकारः । aree SH EXANA xटी-समुदेसारस्याहार्दलोत्पत्तिबहुला तेनैवसमुद्राजलभरणमिति कविरुटेरपि । मरुदेशादो वैरस्यात् क्षारोत्पत्तिरिव तेन लुकावासोऽपि । "Aho Shrutgyanam" Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ लिथिफलकथननामा नव मोऽधिकारः। अथ तिथिकथयै व्याख्यायते यत्सराणां, शुभमशुभमशेष भावि भावं विभाव्यः । कथितमपि कथभिन्मासपक्षप्रसङ्गा दविकलफललाभायावशिष्टं विशिष्टम् ॥१॥ वर्षस्तम्भचतुष्टयमचैत्रे सितप्रतिपदि रेवत्यां बहुलं जलम् । वैशाखशुद्धप्रतिपद्भरण्यां तृणसम्भवः ॥२॥ ज्येष्ठशुक्लपतिपदि मृगे वातः शुभो भवेत् । आषाढशुद्धप्रतिपदादित्ये धान्यसम्भवः ॥३॥ चैत्र शुक्ल तिपदि रवौं वायुर्विशेषतः। झल्पा वर्षों फलं तुच्छ-मल्पं धान्यं प्रजायते ॥४॥ चन्द्रे यहुजलं धान्यं नृणानां च बहूदयः। आगामी भावोंका विचार कर संवत्सरोंका समस्त शुभाशुभको तिथि कथनरूपसे व्याख्यान करते हैं। मार्स और पक्षकै प्रसंग द्वारा कुछ कहा है किंतु बाकि समस्त फलंका लामके लिये विशेष कहा जाता है ॥१॥ - चैत्र शुक्र प्रतिपदा के दिन रेवतीनक्षेत्र हो तो बहुत जलवर्षा हो । वैशाख शुक्र :प्रतिनदा को भरणीनक्षत्र हो तो तृण की उत्पत्ति हो ॥ २॥. ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदशं को मृगशिग्नक्षेत्र हो तो अच्छा वायु चले । आषाढ. शुक्ल प्रतिपदाको रविवार हो तो धान्यकी उत्पत्ति हो ॥३॥ चैत्र शुक्र प्रतिपदाको रविवार हो तो वायु विशेष चले, वर्षा थोड़ी, फल थोड़ें और धान्यं थोड़े हो ॥ ४ ॥ सोमबार हो तो बर्षा तथा धान्य अधिक हो और मनुष्योंका बहुत उदय हो । मंगलबार हो तो सात प्रकार "Aho Shrutgyanam" Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) मेवमहोप ईतयः सप्तधा भौमे तीडोन्टरपराभवः ॥५॥ बुधे च मध्यम वर्षे सुभिक्ष तुगुरौ भृगौ। शनी धान्यरसाण जलशोषः प्रजातयः ॥३॥ चैत्र शुक्लवितीयायां पार्जरः प्रतिपदिने। युगन्धरी.तृतीयायां तिला यान्ति महर्षता IGH चतुर्योचवला एवं पाण्याम्मतिौरवम् । सम्प्राप्तायां च रोहिण्यां फलमेत बुधोदितम् । दैवाद् रविः कुजो मन्दो वारस्तत्राधिकं फलम् । शुभवारे च गुर्वादौ शुभेयोगे फलाल्पता ॥९॥ श्रीहीरमृरयस्तुचित्तसियपडिययाए सुकससीमुरगुरु मजहबारो। तो धणधनसमग्छ होइ संघच्छरं जाव ॥१०॥ थीयदिणे रविवारे रेवई णकखस्स होइ संजुसी। तो घणयसमग्छ होइ चउमासियं जाय ॥११॥ की ईति-टीड्डी चूहें भादिका उपद्रव हो ||५|| बुधवार हो सो मध्यम का हो । गुरुवार या शुक्रवार हो सो मुभिक्ष हो । शनिवार हो सो धान्य रसे तृण और जलका अभाव हो तथा प्रजा दुःखी हो ॥ ६ ॥ यदि बैक द्वितीया को रोहिणीनक्षत्र हो तो बाजरी, प्रतिपदाको होतो जूभार, तृतीया को हो तो तिल और चतुर्थीको हो तो चवला ये महँगे हों तथा पंचमीके दिन हो तो बड़ा रौप्य हो ऐसा फल विद्वानोंने कहा है। परंतु दैवयोगसे उस दिन रवि या मंगल या शनिवार आ जाय तो अधिक मद्युभ फल कहा हैं । और गुस्वार आदि शुभवार या शुभ योग भाजाय सो उक्त फल की अल्पता होती हैं ॥७से ६॥ श्रीही सूरिजी ने कहा है कि- चैत्र शुल पडवाके दिन शुक सोम या बृहस्पात वार हो तो सम्पूर्ण संवत्सा में धन धान्य सस्ते हों ॥१०॥ चैत्र शुक्ल द्वितीयाके दिन रविवार रेवतीनक्षत्रके "Aho Shrutgyanam" Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् ..(३४१) महतया सणिवारो नक्षतं रोहणी यमिति योगे। दुपट्टसयलबरिसं अप्पाबुट्टी तया हवा ॥१२॥ शत्रशुक्लप्रतिपदिघर्षराजफलकथनादेव फलं सुलभम्। कप शुक्लससम्मा-मार्दाभोगे यथोचितः। घिमास्यां धान्यसंक्षेपः श्रावणाज्जलदोदयः॥१॥ औने दशम्यां शनिना युक्ता वारेण चेन्मघा । सदा धान्यं समर्घस्याजाते मेघमहोदये ॥१४॥ चैत्रे शुभे यथायोग्यं स्तकासबार्जराः। युगन्धरी व संग्राही ज्येष्ठाषाहादिलाभदः ॥१५॥ विशोधकानयनविचार:बेत्रादिप्रथमा यावत् तनक्षत्रैरलंकृता । सात्पिण्डे रविनिर्भक्ते ये लब्धास्ते विंशोपकाः ॥१६॥ अंध विशेषोऽपि- प्राषाढसितपक्षस्य छितीयापुष्यसंयुता। पावन्मात्रं भवेत् पुष्यं तावन्मात्रा विंशोपकाः ॥१७॥ . सहित हो सो चार मास तक धन धान्य सस्ते हों ॥११॥ चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन शनिवार रोहिणीनक्षत्र के सहित हो तो समस्त वर्ष दुःखदायी हो और थोड़ी वर्षा हो ॥१२॥ चैत्र शुक्ल सप्तमी भादनिक्षत्र से युक्त हो तो तीन मास धान्य थोड़े और श्रावण में मेघ वर्षा हो ॥ १३ ॥ चैत्र शुक्ल दशमी शनिवार के दिन मधानक्षत्र हो तो मेघका उदय होने पर धान्य सस्ते हों ॥१४॥ चैत्र शुक्र परमें यथायोग्य रूई, कपास, बाजरी और जूआर इनका संग्रह करने से ज्येष्ठ और प्राषाढ आदि मासमें लाभदायक है ॥१५॥ मैत्रशुक्ल प्रतिपदा जितनी बड़ी हो उसमें उस दिनके नक्षत्र जोड़कर बासे, भाग दो जो लब्धि मिले वह विंशोपका समझना ॥१६॥ पाषाढ शुद्वितीया के दिन पुष्य नक्षत्र जितनी बड़ी हो उतना विंशोपका जानना "Aho Shrutgyanam' Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४२) मेधमहादये पुनरपि श्रीहीरमरिकृतमेघमालायाम् कृष्णपक्षे श्रावणस्यै-कादश्यां रोहिणी च भम। यावद्धटीप्रमाणं स्या-द्वान्ये तावदिशोपकाः।१८॥ इत्युक्ल प्राक। तत्र लोकेऽप्याह-श्रावणकिसन एकादशी, जेतीरोहिणी होय। तेती अधगिणे पायली, होसी निश्चय सोय ॥१६॥ ग्रन्थान्तरे तु-फग्गुण पहिली पडिवया, जेती सयभिस होय तित्तिय पायली परठविण, होसी पडिय लोय ॥२०॥ क्वचित्तु-दीवा वीती पंचमी, जेती घडियां होय । तीने भागे दीजई, सेस भाव सो होय ॥२१॥ अस्यार्थ:-कार्तिकशुक्लपञ्चमी घटिकाप्रमाणाः शेरपादाः पल्लिकायाः पादा वा फदीयानाणकस्य पूर्वस्यां प्रतिशकस्य भवन्ति । केचित् पुनर्बदन्ति- घटिकाप्रमाणात तुर्योशे रूप्यकस्य मणा देशान्तरे फदीयानाणकस्य घटिकाप्रमाणतु.॥ १७॥ श्रावगा कृष्ण एकादशीके दिन रोहिणी नक्षत्र जितनी बडी हो उतना धान्यका विंशोपका जानना ॥ १८ ॥ श्रावण कृष्ण एकादशी को रोहिणी. नक्षत्र जितनी बड़ी हो उससे आधा धास्यझा विंशोपका जानना ॥१६॥ फाल्गुनशुक्र प्रतिपदाके दिन जितनी बड़ी शतभिषानक्षत्र हो उतनी पायली (ढाई शे धान्यका माप विशेष) धान्य बिकें ॥२०॥ कात्तिक शुक्ल पंचमी जितनी घड़ी हो उसको तीनसे भागदेना, जो शेष बचे बह भाव समझना ॥ २१ ॥ कार्तिक शुका पंचमी जितनी बड़ी हो उतना शे'पाद (पाव ) अन्न प्रति फदिया का बिके । अथवा पलिका (ढाई शेर धान्य मापनका, पात्र) का चतुर्थाश प्रमाण अन्न बिकें. दूसरोंका मत है कि - पंचमीकी घड़ियों में ४ से भाग देनमे जो लब्धि मिले उलने मगा धान्य प्रतिम पया को विके। देशान्तरों में उसी. लब्धि तुल्य अन्न प्रति फदियाका शै' या पलिको बिके ऐसे कहते हैं । किानेही आचायों का यह भी गत है कि-पंचगी की पड़ियों "Aho Shrutgyanam" Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३४३) योशप्रमिताः शेराः पल्लिका वा भवन्ति । यहा पश्चम्या घटिकास्त्रिभिर्भाज्या यल्लब्धं तदेकीनं तावत्यः पलिकाः स्फन्दकस्य लभ्या इति । क्वचिनु-कार्तिके शुक्ल पञ्चम्यां देश विशाष्टभास्कराः । नृपा कलीच रख्यादेर्वारा ज्ञेया हि पल्लिकाः ।।२।। दैवयोगाच्छनिवार स्तदा दुर्भिक्षमादिशेत् । . . महामुद्रिकृया लभ्याएक्रया+धान्यपल्लिका ॥२३॥ मतान्तरे-लभ्यानि धान्यमानानि महामुद्रिकयैकया। * रवी साईवयं सोमे पश्चमानं द्वयं कुजे ॥२४॥ बुधे त्रीणि च चत्वारि गुरौ सार्दानि तान्यथ । शुक्रे शनी च दुर्भिक्षं पञ्चम्यां कार्तिकोज्ज्वले ॥२५॥ विक्रमाद वत्सरस्याङ्क त्रिगुणे पंच मीलिते। के तृतीयांशमें एक टा देने से जो शेष बचे उसके तुल्य पलिका अन्न प्रतिफदियाया विके । कार्तिक शुक्र पंचमी के दिन रविवार आदि जो वार हो उस वार के अनुसार दश, बीश, आठ, बारह, सोलह और सोलह पल्लिका धान्य जानना ॥ २२ ॥ यदि दैवयोगमे शनिवार हो तो दुर्भिक्ष जानना, एक महामुद्रिकांसे एक पल्लिका तुल्य धान्य मिले ॥ २३ ॥ प्रकारान्तरे से कात्तिक शुक्ल पंचमी के दिन रविवधर हो तो एक महामुद्रिकासे ढाई पल्लिका तुल्य धान मिले । सोमबार हो तो पांच, मंगलवार हो तो दो ॥ २४ ॥ बुध हो तो तीन, गुरुवार हो. तो साढ़े चार पलिका महामुद्रिकासे मिले । यदि शुक्र श्री अनिबार हो तो दुर्भिक्ष जानना ॥२५॥ :: विक्रम संवत्सग्के अंकको तीन गुणा करके पांच मिलाना, पीछे सात +टी-क्वचित्तिोऽपि च चतस्रो वा इति बहुवचनात् प्राप्य.। . *लोपि-रवि मंगल चारि मण, सोम पंच वुध तीन । जीव कलि दोइ मण, शनि दुर्भिक्ष समीन ॥ जपुरकीप्रतिमें विशेष है "Aho Shrutgyanam" Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेत्रमहोदये सतमागे शेषधान्य-मणाः स्युरेकरूप्यके ॥२६॥ दशम्या रवियुक्ताया घटिका गणयेत् मुभी। षष्टिभक्ते भवेच्छेषं धान्यार्घमणधारणाः ॥२॥ पुन:- ज्येष्ठाषाहमासयुग्मे यावत्योऽष्टमिका रवी। तावन्मगा रूप्यकस्य केचिदेवं बदन्स्यपि ॥२८॥ यवा-यावत्यः शनिना युक्ता दशम्यो रविण्याचवा । भवन्ति तावन्मानानि स्कन्दकेन क्वचिजने ॥१९॥ अथवा- अमावस्यः सोमवत्यो यावत्यस्तिधिपत्र। पञ्चम्यः सोमबत्यो वा रूप्यात्तावन्मणाशनम् ॥३० ग्रन्थान्तरे- चैत्र अमावसि जे घडी, बरते टीप्पण माय। तेसा सेर पीरोजीया, काती धान्य बिकाय ॥३१॥ मतान्तरेण नव्याः प्राहुः - धान्यविंशोएकामध्ये क्षुधाविंशोपका मीलने विहिते। वर्षाविंशोपकविना कृते धान्यमणजा रूप्यात् ॥३२॥ से भागदेना जो शेष बचे उतने मण धान्य एक रूपियाका समकमा IRANE रविवार युक्त दशमी की जितनी बड़ी हो उसमें साठ से भाग देना सो क्षेत्र बचे बह मण धान्यका मूल्य समझना ॥ २७॥ ज्येष्ठ और मावाद से दोनों मासकी अष्टमी रविवार के दिन जितनी घड़ी हो उसना मब मास्वविये का बिके ऐसे केई बोलते हैं ॥२८॥ यदि शनि या मविवार के दिन दशग्री जितनी घड़ी हो उतने माणा धान्य एक स्कंइसे मिले ॥२६॥ पंजों जितनी सोमवती अमावस हों या जितनी सोमवती पंचमी हो उतना मदत धान्य बिके ॥३०॥ चैत्रमासकी अमावस जितनी घड़ी पंचांगमें हो उसना पीरोजियां शेरों से कात्तिकमे धान्य बिर्फे ॥ ३१॥ धान्य के विशोषका में सुधाके विंशोपका मिलाकर इसमेंसे वर्षा के विशापका घटा देना जो शेष बचे उतना मम धान्य बिके ।। १२ ।। . ... "Aho Shrutgyanam" Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् तुधाविंशोपकानयनं त्वेवं रामविनोदे- . . शाकस्त्रिगुण्यो नगभाजितश्च, शेष द्विनिघ्नं शरसंयुतं च । लब्धेन शाकं च पुनः प्रकल्ल्य, पूर्वोक्तवत् स्युः खलु विश्वकाख्यः ॥३३॥ वर्षाथ धान्यं तृणशीततेजो वायुश्च वृद्धिः क्षयविग्रहौ च । क्षुधादिकानां करणान्तरेण, विश्वाशयोधेन फलप्रदास्ते ॥३४॥ तत्करणं त्वेवम्शाकं च वेदगुणितं सप्तभिर्भागमाहरेत् । शेष द्विघ्नं त्रिभिर्युक्तं प्रोक्तं विश्वांशसंज्ञकम्॥३५॥ क्षुधा तृषा तथा निद्रा आलस्यमुद्यमस्तथा । शान्तिः क्रोधस्तथा दम्भो.लोभो मैथुनमेव च ॥३६॥ ___इष्ट शाक (शक संवत्सर) को ३ से गुणा करके ७ से भाग दो, जो शेष रहे उसको द्विगुणित करके ५ जोड़ दो तो वर्षा के विश्वा हो जाते हैं । पीछे सातका भाग देनेसे जो लब्धि आई है उसिको शाक कल्पना कर के पूर्ववत् विधि से धान्यके विश्वा साधन करें । इसी प्रकार पुनः २ लब्धियोंको शाक कल्पना करके तृण, शीत, तेज, वायु, वृद्धि, क्षय. मौर विग्रह के विश्वा साधन करें । तथा तुधा आदि के विश्वा प्रकारांतर से साधन करें । यह विश्वाओंका बोध फलदायक है ॥३३-३४॥ शकसंवत्सरको चारसे गुणा कर सात से भाग देना, जो शेष बचे उसको दोसे गुणा कर इसमें तीन जोड़ देना तो तेरह भावोंके विश्वा हो जाते हैं ॥३५॥ क्षुबा, तृषा, निद्रा, आलस्य, उद्यम, शान्ति, क्रोध, दम्भ, लोभ, मैथुन ॥३६॥ रसनिपत्ति, फलनिष्पत्ति, और उत्साह ये लोगों "Aho Shrutgyanam" Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये ततस्तु रसनिष्पत्तिः फलनिष्पत्तिरेव च । उत्साहः सर्वलोकाना-मेवं भावास्त्रयोदशः ॥३७॥ अन्यदपि प्रासंगिकं यथा-- शाकाब्दं वसुभिर्निनं नवभिर्भागमाहरेत् । शेषं तु द्विगुणीकृत्य रूपमत्राभियोजयेत् ॥३८॥ उग्रता पापपुण्ये चं व्याधिश्च व्याधिनाशनम् । आचारश्चाप्यनाचारो मरणं जन्मदेहिनाम् ॥३९॥ देशोपद्रवसुस्थत्वे चौराकुलभयं तथा । चौरोपशमनं चाग्नि-भयं चाग्निशमः पुनः॥४०॥ शकः पञ्चभिः सप्तभिगोभिरीश श्चतुहितः सप्तभक्तावशिष्टम् । विनिघ्नं त्रिभियुक्तमुद्भिज्जरायब ण्डजस्वेदजानां भवेयुर्विशोपाः ॥४।। शाकोऽङ्गटनोहच्छेषं द्विघ्नं व्याढयमवाप्सतः। के तेरह भाव हैं ॥३७॥ शक संवत्सर को आठ गुना कर नव से भाग देना, जो शेष बचे उसको दोसे गुणाकर इसमें एक मिला देना तो ॥ ३८ ॥ उग्रता, पुण्य, पाप, व्याधि, व्याधिनाशक, आचार, अनाचार, प्राणियोंका मरण ॥३६॥ तथा जन्म, देश में उपद्रव तथा शान्ति, चोरभय, चोरोंकी शान्ति, अग्निभय और अग्नि की शान्ति, इनके विंशोपका हो जाते हैं ।। ४० ॥ शक संवत्सरको पांच, सात, नव और ग्यारह इनसे गुणाकर सातसे भाग देना, जो शेष बचे उस को दोसे गुणाकर इस में तीन जोड़ देना तो उद्भिज, जरायु, अंडज और स्वेदज इनके विंशोपका हो जाते हैं ॥ ११ ॥ शकसंवत्सरको छसे गुणाकर नवसे भाग देना, जो शेष बचे उसको दोसे गुणाकर इसमें तीन जोड़ देना. इस अंकको सात जगह रखना तो शलभा, "Aho Shrutgyanam" Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् सप्तस्थाप्यस्तदकाच शलभा मूषकाः शुकाः ॥४२।। हेमतानं स्वचक्रं च परचक्रमितीतयः । अतिवृष्टिरनावृष्टिः क्वचिदाद्यमिदं वयम् ॥४३॥ मेघजीकृतग्रन्थेतिथि नक्षत्र अरु जोगथी, घटिका करि एकत्र । बीसे भागे जे रहे, विश्वा ते गणि मित्र! ॥४४॥ अथ चैत्रमास :-~प्रकृतम्- चैत्रे चेदष्टमीमध्ये बुधोऽथवा भवेत् कुजः। विरूपं वर्षे जानीहि नदीतीरे गृहं कुरु ॥४५॥ चैत्रस्य शुक्लपञ्चम्यां रोहिण्यां यदि दृश्यते । सानं नभस्तदादेश्या गर्भस्य परिपूर्णता ॥४६॥ द्वितीये दिवसे प्राप्ते चैत्रे वायुश्च सर्वतः । न च मेघाः प्रदृश्यन्ते अनावृष्टिन संशयः ॥४७॥ पौर्णमास्यां यदा स्वाति-विद्युन्मेघसमन्वितः । निर्दोषमपि पूर्वर्वे गर्भो गलितमादिशेत् ॥४८॥ मूषक, शुक ॥ ४२ ॥ सोना, तांबा, स्वचक्र, परचक्र, ईति, अतिवृष्टि और अनावृष्टि इन के विंशोपका हो जाते हैं ॥४३॥ मेवजीकृत ग्रन्थ में कहा है कि -- तिथि नक्षत्र और योग इनकी घड़ी इकट्ठी कर वीससे भाग. देना जो शेष बचे वे हे मित्र! विश्वा गिनना ॥४४॥ चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन बुधवार या मंगलवार हो तो वर्षा न हो इसलिये नदीके किनारे ही घर करना पड़े ॥४५॥ चैत्र शुक्ल पंचमी को रोहिणीनक्षत्र हो और उसी दिन आकाश बादलों से आच्छादित हो तो गर्भकी पूर्णता जाननी ॥४६॥ चैत्र शुक्ल द्वितीयाको चारों दिशा के वायु चले और बादल न हो तो अनावृष्टि जानना ॥ ४७ ।। चैत्र पूर्णमासीके दिन यदि स्वातिनक्षत्र हो और बादलों के साथ बिजली भी चमके तो "Aho Shrutgyanam" Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iameter (३४८) अथ वैशाखमास: वैशाख कृष्णप्रतिपत्तिथेने समेsधिके । नक्षत्रे ऽल्पजलं भूम्यां सुखं बहुजलं क्रमात् ॥४६॥ यदाहलो के चैत्र गयो वैसाख ज प्रासइ, प्रथमतिथि गणीनइ विमासह | तिथि वधे तो धान्ध विणासह, नक्षत्र वधे तो मेह अगासह १५० | वैशाख कृष्णपक्षस्य पञ्चम्यां जायते रविः । आगामि वर्षसंक्रान्तौ तहिने वृष्टिबाधकः ॥५१॥ वैशाखशुक्लपञ्चम्यां शनिनार्द्राप्रसङ्गतः । सर्व वस्तु समस्याद् भाद्रे मेघमहोदयः ॥ ५२ ॥ वैशाखमासे सितपञ्चमी सा, सूर्यादिवारेश्चिनुते फलानि । मन्दा च वृष्टिस्त्वतिवृष्टियुद्धं, यातं सुभिक्षं कलहान्ननाशनम् वैशाखे यदि सप्तम्यां धनिष्ठा वा श्रुतिर्भवेत् । श्यामवस्तुमह स्यात् समर्धे धवलं तदा ॥ ५४ ॥ प्रथम नक्षत्र में निर्दोष हो तो भी गर्भपात हो जाता है ॥४८॥ वैशाख कृष्ण प्रतिपदा के दिन जो नक्षत्र हो वह प्रतिपदासे हीन हो तो भूमि पर थोड़ा जल वरसे, समान हो तो सुख और अधिक हो तो बहुत जल बरसे ॥ ४६ ॥ लोक में भी कहते हैं कि- चैत्र बीतने बाद वैशाख मास की प्रथमतिथि प्रतिपदा बढ़े तो धान्य का विनाश और नक्षत्र बढ़े तो मेव आकाश में रहे ॥ ५० ॥ वैशाख कृष्ण पंचमी के दिन रविवार हो तो आगामी वर्ष संक्रान्तिके दिन वर्षा न हो ॥ ५१ ॥ वैशाख शुक्ल पंचमी शनिवार के दिन आर्द्रा नक्षत्र हो तो सब वस्तु सस्ती हों और भाद्रपद में मेवका उदय हो ॥ ५२ ॥ वैशाख शुक्ल पंचमी रविवार आदि के दिन हो तो उसका कसे मंददृष्टि, अतिवृष्टि, युद्ध, वायु, सुभिक्ष, कलह और अन्ननाश ये फल जानना || ५३ ॥ यदि वैशाख सप्तमी को धनिष्टा या श्रवण नक्षत्र हो "Aho Shrutgyanam" Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् + अक्षयाख्यतृतीयायां सुभिक्षायैव रोहिणी। कृत्तिका मध्यमं वर्षे दुर्भिक्षं मृगशीर्षतः ॥५५॥ वैशाखे पश्चभौमाश्चेद् भयं सर्वत्र जायते। क्वचिन्न मेघवर्षा स्याद् धान्यं महर्घमादिशेत् ॥५६॥ वैशाखे धवलाष्टम्यां शनिवारो भवेद् यदि । जलशोषं प्रजानाशं छत्रभङ्गस्तदादिशेत ॥५॥ रोहिणी चोत्तरास्तिस्रो मघा वा रेवती भवेत् । नवम्यां मंगले राधे तदा कष्टं महद् भुवि ॥५८॥ वैशाखस्य चतुर्दश्यां वारौ चेद्गरुभार्गवो । तदा निष्पद्यते धान्यं विपुलं पृथिवीतले ॥५६॥ अमावास्यां च वैशाखे रेवत्यां च सुभिक्षता । रोहिणी लोकतुःखाय मध्यमा चाश्विनी स्मृता ॥६॥ भरण्यां व्याधितो लोकः कृत्तिकायां जलेऽल्पता । तो काली वस्तु महँगी और सफेद वस्तु सस्ती हो ॥ ५४ ॥ भक्षपन्तीफा के दिन रोहिणी नक्षत्र हो तो सुभिक्ष, कृत्तिकानक्षत्र हो तो मध्यम वर्ष , और मृगशीर्ष नक्षत्र हो तो दुष्काल जानना ॥५५॥ वैशाख में यदि पांच मंगल हो तो सर्वत्र भय हो, मेघ वर्षा न हो और धान्य महँगे हो ॥५६॥ वैशाख शुक्ल अष्टमी को शनिवार हो तो जलका सूखना, प्रजाका नाश और छत्रभंग कहना ॥ ५७ ॥ वैशाख मासकी नवमी मंगलवार को रोहिणी, तीनों उत्तरा, मघा या रेवती नक्षत्र हो तो भूमिपर बड़ा कष्ट हो ॥ ५८॥ वैशाख चतुर्दशीके दिन गुरुवार या शुक्रवार हो तो पृथ्वी पर बहुत धान्य उत्पन्न हो ॥५६॥ वैशाख की अमावस को रेवती नक्षत्र हो तो सुभिक्ष, रोहिणी हो तो लोगों को दुःख, अश्विनी हो तो मध्यम हो ॥६० ॥ भरणी हो तो + टीजी पाखा रोहिणी नहि, पोस अमावस नहि मूल। जाश्रावण राखी नहि, तो माणस मलसीधूल ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) मेघमहोदये घौरा लुण्ठन्ति मार्गेषु राज्ञां युद्धं परस्परम् ॥६॥ तृतीयायामक्षयायां रोहिगी गुरुणा सह । सर्वधान्यस्य निष्पत्ति वि महालकर्म च ॥१२॥ अथ ज्येष्ठमास:--- ज्येष्ठस्य प्रथमे पक्षे या तिथिः प्रथमा भवेत् । प्रागता केन वारेण तामन्वेषय. यत्नतः ॥६॥ * भानुना पवनो वाति कुजो व्याधिकरो मतः। सोमपुत्रेण दुर्भिक्षं खण्डवृष्टिः प्रजायते ॥६४॥ गुरुभार्गवसोमाना-मेकोऽपि यदि जायते । वर्षावधि तदा पृथ्वी धनधान्यसमाकुला ॥६॥ अथवा दैवयोगेन शनिवारो भवेद् यदि। जलशोषं प्रजानाशं छत्रभङ्ग विनिर्दिशेत् ॥६॥ ज्येष्ठशुक्लतृतीयायां द्वितीयायां प्रजायते । नक्षत्रमार्दा तदृष्टौ महा दुर्भिक्षकारणम् ॥७॥ रोगसे लोक दुःख, कृत्तिका हो तो जल वर्षा थोड़ी, मार्गमें चोर लूटे और राजाओं में परस्पर युद्ध हो ॥६१॥ अक्षय तृतीया के दिन गुरुवार और रोहिणी नक्षत्र हो तो पृथ्वी पर सब प्रकार के धान्य की प्राप्ति हो और मंगल हो ॥६ ॥ - ज्येष्ठमासके प्रथम पक्ष में जो तिथि प्रथम हो वह कौनसे वार की है उसका विचार करना ॥६३ ॥ यदि रविवार की हो तो पवन अधिक चलें, मंगलवार की हो तो व्याधि करे, बुधवार की हो तो दुर्भिक्ष और खंडवर्षा हो ।। ६४ ॥ गुरु शुक्र या सोमवार की हो तो एक वर्ष तक पृथ्वी धन धान्यसे पूर्ण हो ॥६५॥ यदि दैवयोगसे शनिवार की हो तोजलका शोष, प्रजाका नाश, और छत्रभंग हो ॥६६ ॥ येष्ठशुक्ल द्वितीया और तृतीया आर्द्रा नक्षत्र से * टी- भानुना कृषिनाशः स्यादित्यपि पाठः । "Aho Shrutgyanam" Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् * ज्येष्ठकृष्णप्रतिपदि शनिवारः प्रवर्तते । जलशोषः प्रजादुःखं छत्रभङ्गोऽपि सम्भवेत् ॥१८॥ ज्येष्ठकृष्णे दशम्यां च रेवती सुखकारिणी। एकादश्यां खण्डवृष्टि- दश्यां सानुकष्टदा ॥६९॥ शुक्ले ज्येष्ठदशम्यां चे-च्छनिवारः प्रजायते । वृष्टिरोधो गवां नाशो महाशोकाकुला प्रजा ॥७॥ लोकेऽप्याह-जेठी पूनिम मूल रिख, जो थोडो ही दीसंति । साख दहो दिसि नीपजे, तदा नीर पलयंति ॥७१॥ अथाषाढमासःयावती भुक्तिराषाढे शुक्लायां प्रतिपद्दिने । पुनर्वस्वोश्चतुर्मास्यां वृष्टिः स्यात् तावतीस्फुटम् ॥७२॥ कालीरोहिणीविचार: आषाढे दशमी कृष्णा सुभिक्षाय च रोहिणी । युक्त हो तो बड़ा दुर्भिक्ष होता है ॥६७॥ ज्येष्ठकृष्ण प्रतिपदा को शमिवार हो तो जलका शोष, प्रजाको दुःख, और छत्रभंग का भी संभव हो ॥६८॥ ज्येष्ठकृष्ण दशमी को रेवती नक्षत्र हो तो सुख कारक, एकादशी को हो तो खंडवृष्टि और द्वादशी को हो तो कष्टदायक है ॥६६॥ ज्येष्ट शुक्ल दशमीको शनिवार हो तो वर्षाका निरोव, गौओं का नाश और प्रजो बड़ा शोकसे व्याकुल हो ॥७०॥ लोक में भी कहा है कि ज्येष्ठपूर्णिमाके दिन थोड़ासा भी मूल नक्षत्र हो तो दशों ही दिशामें धान्यप्राप्ति हो और जल वर्षा अच्छी हो ॥ ७१॥ __आषाढ शुक्ल प्रतिपदाके दिन पुनर्वसु नक्षत्र जितना हो उतनी चातुर्मास में वर्षा हो ॥ ७२ ।। आषाढ कृष्णदशमी के दिन रोहिणीनक्षत्र हो तो *टी-ज्येष्ठस्य प्रथमपक्षकथनात् शुक्लपक्षभ्रमनिवारणाय ज्येष्ठकएणपतिपदीत्युक्तम्।ज्येठ मास अमावसे, जो शनिवारी होयादेव नवरसे घण मरे, विरलो जीवे कोय ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५२) मेघमहोदय एकादशी मध्यकालं दुर्भिक्षं द्वादशी भवेत् ॥ ७३ ॥ त्रयोदश्यां रोहिणी चे उत्तमः पवनस्तदा । चतुर्दश्यां राजयुद्धं प्रजा शोकाकुला तदा ॥७४ || अत्र लौकिकमपि दुर्बोधं यथा + रोहिणी चंद दिवायरह, एका घडी लहेइ | समउ समारे भडुली, जोइस कालु करेइ ||७२ || इति । आषाढमासे सित पञ्चमी दिने, ख्यादिवारः क्रमशः फलानि । वृष्टिः सुष्वृष्टितिवृष्टिरूर्ध्व, वातः प्रघातः प्रलयः प्रणाशः ॥७६॥ आषाढशुक्ल नवमी सानुराधा शनौ यदा । क्वचिधान्यार्द्धनिष्पत्तिः क्वचिदर्भिक्षकारिका || ७७ || च्याषाढे प्रथमे पक्षे प्रथमादितिथित्रये । श्रवणं वा धनिष्ठा स्यात् तदान्नसङ्ग्रहः शुभः ॥७८॥ सुभिक्ष, एकादशीको हो तो मध्यम समय, द्वादशीको हो तो दुर्भिक्ष हो || ७३ ॥ त्रयोदशीके दिन रोहिणी हो तो उत्तम पवन चलें, चतुर्दशी के दिन हो तो राजयुद्ध और प्रजा शोक से आकुल हों ॥ ७४ ॥ रोहिणी और चंद्रमाका योगकी एक भी घड़ी रविवार को हो या रोहिणी और सूर्य का योगकी एक भी घड़ी सोमवार को हो तो हे भड्डली ! समयको अच्छा करे ॥ ७५ ॥ भाषाढ शुक्रपञ्चमी के दिन रविवार आदि वार हो तो उस का अनुक्रमसे वर्षा, अच्छी वर्षा, अतिवर्षा, उर्ध्ववायु, प्रवात, प्रलय और विनाश ये फल होते हैं ॥ ७६ ॥ आषाढ शुक्लनत्रमी शनिवारको अनुराधानक्षत्र होतो कहीं धान्यकी थोड़ी प्राप्ति और कहीं दुर्भिक्ष हों || ७७ || आषाढके प्रथमपक्ष में प्रतिपदा आदि तीन तिथियों में श्रवण या घनीष्ठानक्षत्र आ जाय तो धान्य संग्रह करना शुभ है ||७८ || आषाढ कृष्ण षष्ठीको शनिवार हो तो गेहूँ ग्रहण +टी-रोहिण्यां चन्द्रे प्राप्ते दिवाकरे रविवारे घटिका एकाप्याषाढे श्रेष्ठा इत्यर्थो यद्वा रोहिण्यां सूर्ये प्राप्ते चन्द्रवारे एका घटिका इति दुर्गममिदम् । " Aho Shrutgyanam" Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३५३) प्राषाढषष्ठीदिवसे कृष्णपक्षे शनिर्यदा। तदा गोधूमका प्राथा द्विगुणा यस्तु कार्तिके ॥७॥ आषाढे शनिरेवत्यामष्टम्यां सङ्गमो यदा । तदा घृष्टिनिरोधेन कष्टमुत्कृष्टमादिशेत् ॥८॥ देवसूखी इगारसइ, जे वारि हुइ भीड । सनि मूसो रवि कातरो, मंगल भणीइ तीड ॥८॥ कचित्-"धान्यं महर्घ दुर्भिक्षं च'' सोमे शुके सुरगुरुइ, जो पोढे, सुरराय । अन्न बटुल तो नीपजे, पृथिवी नीर न माय ॥२॥ सनि आइचह मंगले, जो सूचइ सुरराय । तीहे मुंसे कत्तरे, संतापिजे भाय ॥८॥ प्राषाढे कर्कसंक्रान्तौ शनिवारो यदा भवेत् । तदा दुर्भिक्षमादेश्यं धान्यस्यापि महर्घता ॥८४॥ चतुर्दश्यां तथाषाढे सोमवारप्रवर्तनात् ।। न धान्यं न तृणं लोके किं गवादेः प्रयोजनम् ॥८॥ करनेसे कार्तिकमें दूने मूल्यसे बिकें ॥७६॥ आषाढमें अष्टमी शनिवारको रेवतीनक्षत्र हो तो वर्षा न हो और बड़ा कष्ट हो ॥८० ॥ आषाढ शुक्ल एकादशीको शनिवार हो तो मूंसेका, रविवार हो तो कातराका और मंगलवार हो तो टीड्डी का उपद्रव हो। कोई कहते है कि धान्य महँगे हों और दुर्भिक्ष हो ॥८१॥ सोम शुक्र या बृहस्पति वारके दिन देव पोदे याने इन वारों को शुक्ल एकादशी हो तो अन बहुत उत्पन्न हो और पृथ्वी जल से तृप्त हो ॥८२॥ यदि शनि रवि या मंगलबारको देव पोढ़े तो टीड्डी, मूसे और कातरा इनका उपद्रव हो ॥८३॥ आषाढ मासमें कर्कसंक्रान्तिके दिन शनिवार हो तो दुर्भिक्ष हो और धान्य महँगे हो ॥ ८४ ॥ आषाढ में अतुर्दशी के दिन सोमवार को तो लोकमें धान्य और तृण उत्पन्न न हो, "Aho Shrutgyanam" Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५४) मेघमहोदये आषाढे प्रथमे पक्षे द्वितीयानवमी तिथौ । गुर्विन्दुशुकवाराः स्युः श्रेष्ठा नेष्टो बुधः शनिः ॥ ८६ ॥ यतः - प्राषाढा धुरि बोजडी, नवमी निरखी जोय । सोमे शुक्रे सुरगुरु का जल बुंधारव होय ॥८७॥ रवि ततो बुध सीमलो, मंगल वृष्टि न होय । दैवयोगे शनि हुइ तो, निश्चय रौरव होय ॥८८॥ आषाढशुक्लैकादश्यां शन्यादित्यकुजैः समम् । सम्पूर्णस्तिविभोगचेत् तदा दुर्भिक्षमादिशेत् ॥ ८६ ॥ आषाढपूर्णिमा विचारः- 'नमिऊ तिलोयरत्रिं जगवल्लह-जलहरं महावीरं' इत्यादि चतुर्मासकुलके--- आषाढपुनिमाए पुष्वासाढा हविज्ज दिनराई । ता बसारि वि मासा खेमसुभिक्षं सुवास च ॥ ६०॥ ग्रह हे हिमाय पुण्णिममृलेणं जाइ पढम बे पुहरा । जिससे गौ आदिका क्या प्रयोजन है ॥ ८५ ॥ आषाढके प्रथम पक्षमें दूज और नवमी तिथिको गुरु, सोम या शुक्रवार हो तो श्रेष्ठ, बुध या शनिवार हो तो अशुभ है ॥ ८६ ॥ भाषाढके प्रथमपक्षकी दूज और नवमी सोम, . शुक्र या गुरुवारको हो तो जलवर्षा अच्छी हो ॥८७॥ रविवारको हो तो ताप अधिक पड़े, बुधवार हो तो ठंडी अधिक, मंगलवार हो तो वर्षा न हो और दैवयोगसे शनिवार हो तो निश्चयसे दुष्काल हो ॥८॥ भाषाढ . शुक्ल एकादशीको शनि रवि या मंगल हो तो वर्ष समान हो, यदि इन वार्गे को पूर्ण तिथि भोग हो तो दुर्भिक्ष हो ॥5॥ चतुर्मास कुलकमें कहा है कि- आषाढ पूर्णिमाको दिनरात पूर्वाषाढा नक्षत्र हो तो चारोंही मास क्षेम, सुभिक्ष और मंगलिक हों ॥ ६० ॥ पूनम को पहले दो प्रहर मूल नक्षत्र हो और बाद पूर्वाषाढा नक्षत्र हो तो पहले " Aho Shrutgyanam" Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३५४) ता दुन्न वि मासाओ दुभिक्खं उवरि सुभिक्खं ॥११॥ अह उपरि बे पुहरा पुवासाना हविज नक्खतं । ता होइ दुण्णि मासा खेमसुभिक्खं वियाणाहि ॥२॥ अहव पविसिऊण मूलं भुंजह बत्तारि पुहर जइ कहवि। ता थत्तारि विमासा दुभिक्खं होइ रसहाणि ॥६॥ अहवा उत्तरसादा भुंजह बत्तारि पुहरमवियारं । ता जाणह दुकालं मासा उत्तरह चत्तारि ॥४॥ अह भुंजह बे पुहरा पुवाउड्डम्मि उत्तरासादा। ता उवरिं बे मासा होह सुभिक्खायो रसहाणि ॥६५॥ अह भुंजह बे पुहरा मुलं पुव्वं हविज नक्खतं । उरि पुठवासादा दुक्खं पच्छा सुहं होइ ॥६६॥ एवमर्घकाण्डेऽप्युक्तम्आषात्यां पूर्वाषाढाभं वर्ष यावच्छभं करम् । आवर्ष धान्यनिष्पत्तिः प्रजासौख्यमविग्रहात् ॥१७॥ मूलोत्तरे चाईधिष्ण्ये फलमध्यविधायिके । दो मास दुर्भिक्ष रहें बाद सुभिक्ष हो ॥६॥ अथवा पूर्वाषाढा नक्षत्र उपर के दो प्रहर हो तो दो मास सुभिक्ष और मंगलिक हो ॥१२॥ यदि चारों ही प्रहर मूलनक्षत्र हो तो चारों ही मास दुर्भिक्ष हो और रसकी हानि हो ॥६३॥ अथवा पीछेके चारों ही प्रहर उत्तराषाढानक्षत्र हो तो पीछले चार मास दुष्काल जानना ॥ ६४ ।। यदि दो प्रहर पूर्वाषाढा हो और बाद में उत्तराषाढा नक्षत्र हो तो पहले दो मास सुभिक्ष हो और रसकी हानि हो ॥६५॥ यदि पहले दो प्रहर मूलनक्षत्र हो और बाद में पूर्वाषाढा नक्षत्र हो तो पहले दुःख और पीछे सुख हो ॥ १६ ॥ आषाढ पूर्णिमा के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र पूर्ण हो तो एक वर्ष तक शुभ हो, धन्य की निष्पति और प्रजा शान्ति पूर्वक सुखी हो ॥६७ ॥ प्राधा मूलनक्षत्र और माधा पूर्वा "Aho Shrutgyanam" Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५६) मेघमहोदये आवर्षमध्यम धान्य देशे सर्वत्र कथ्यते ॥९॥ अनं विना यदा रम्यौ वातौ पूर्वोत्तरौ यदा । यत्र यामाचके तत्र मासे वृष्टिहठाद् भवेत् ॥६६॥ आषाढपूर्णिमा षष्टि-घटीमाना यदा भवेत् । मासा छादश धान्यानां सुभिक्षं च सुख जने ॥१०॥ त्रिंशद्धटीभिः षण्मासात् सुखं दुःखं ततः परम् । चातुर्मास्यां पञ्चदश-घटीमाने सुभिक्षता ॥१०॥ न्यूनत्वे तु पञ्चदश-घटीभ्यो दुःखसम्भवः । वासवादल संयोगात् फले न्यूनाधिकाश्रयः ॥१०२॥ कुहूतः षोडशाहे वा आषाच्यां यदि वादलम् । पूर्वाषाढा च नक्षत्रं तदा कालः कणाकुलः ॥१०३|| यन्नानाख्यायते मास-स्तनक्षत्रस्य पूर्णया। योगे पूर्णो समर्घत्वं धान्ये न्यूने तथोनता ॥१०४॥ षाढानक्षत्र हो तो मध्यमफलदायक हो, समस्तदेशों में वर्ष तक मध्यम धान्य हो ॥६८॥ यदि पूर्णिमाको जिस प्रहर में बादल रहित पूर्व और उत्तर दिशाके अच्छे वायु चले तो उस मासमें निश्चयसे वर्षा हो ॥ १९ ॥ यदि अाषाढ पूर्णमा साठ घड़ी हो तो बरह महीने धान्यकी सुनिक्षता रहे और लोकमें सुख हो ॥ १०० ॥ तीस बड़ी हो तो छह महीने सुख और पीछे दुःख हो । पंद्रह घड़ी हो तो चार महीने सुभिक्ष रहे ॥ १०१ ॥ यदि पंद्रह घड़ीसे भी न्यून हो तो दुःख हो । वायु और बादलोंके संयोगसे फल में न्यूनाधिकता होती है ॥ १०२ ॥ अमावास्यासे सोलहवें दिन आषाढ पूर्णिमाको बादल हो और पूर्वाषाढा नक्षत्र भी हो तो दुष्काल हो तथा धान्य की आवुलता हो ॥ १०३ ॥ जिस नक्षत्रसे मास कहा जाता हो उस नक्षत्र पूर्णिमाके दिन पूर्णतया हो तो धान्य सस्ते हों तथा न्यून हो तो न्यूनता जानना ॥ १०४ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३५७) यदा त्रैलोक्यदीपके श्रीहेमप्रभसूरयःमासाभिधाननक्षत्रं राकायां क्षीयते यदिः । महत्वं तदा ननं वृद्धौ ज्ञेया समर्थता ॥१०॥ मासनामकनक्षत्रं राकायां न भवेद् यदा। महर्घ च तदावश्यं तत्तद्योगे विशेषतः ॥१०६।। धिष्ण्यवृद्धिदिने चन्द्रः क्रूरैर्यदिन दृश्यते । समर्प जायते धान्यं क्रूरदृष्टे महर्घता.॥१०७॥ विष्ण्यवृद्धिदिने यत्र तिथिपागिरीयसी । दिने तत्र समर्घ स्यात् तिथिवृद्धौ महर्घता ॥१८॥ ऋक्षवृद्धौ रसाधिक्यं कणाधिक्यं च निश्चितम् । योगाधिक्ये रसोच्छेदो दिनार्घप्रत्यहं स्फुटम् ॥१०९॥ षभिश्च नाडिकाभिश्च धिष्ण्यवृद्धिः क्रमाद्यादि । प्रत्येकं च तिथेर्यत्र समर्घ सन जायते ॥११०॥ षभिश्च नाडिकाभिश्च तिथिवृद्धिः क्रमाचदा । .... यदि महीनेका नक्षत्र पूर्णिमाके दिन क्षय हो जाय तो निश्चयसे अन्न महँगे हो और बढे तो सस्ते हों ॥१०५॥ महीनेका नक्षत्र यदि पूर्णिमाके दिन न हो तो उन २ योगों में विशेष कर अन्न महँगे हो ॥ १०६ ॥ नक्षत्रकी वद्धिके दिन चन्द्रमा यदि कर ग्रहसे दृष्टं न हो तो धान्य सस्ते हों और कर ग्रहसे दृष्ट हो तो महँगे हो ॥१०॥ नक्षत्रकी वद्धि के दिनकी तिथि यदि समीपकी तिथिसे. बड़ी हो तो उस दिन अन्न सस्ते हों। और समीपकी तिथि वद्धि हो तो महँगे हो ॥ १.२८॥ नक्षत्रकी वृद्धि हो तो निश्चयसे रस और धान्यकी अधिकता हो ।.योगकी वृद्धि हो तो रस का- नाश हो यह प्रतिदिन स्फुट है ॥ १.०६ ।। जहां प्रत्येक तिथि से नक्षत्रकी वृद्धि छह घड़ी अधिक हो तो वहां अन्न सस्ते हों ॥ ११० ॥ यदि प्रत्येक नक्षत्र से तिथि की वृद्धि छह घड़ी अधिक हो तो निश्चय से "Aho Shrutgyanam" Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५८) मेघमहोदये प्रत्येकं तत्र धिष्ण्याचमह विद्धि निधितम् ॥१११॥ तिथिनक्षत्रयोईद्धिं विज्ञाय प्रत्यहं व्योः । सर्व टिप्पनकं ज्ञात्वा लाभालाभौ विनिर्दिशेत् ॥११॥ यावन्नाज्य उडोर्बुद्धिः समर्घ तविंशोपकाः । यावन्नाज्यस्तिथेवृद्धि-महर्य तत्प्रमाणकम् ॥११३॥ मासमध्ये यदा छौ तु योगौ च त्रुटतः क्रमात् । महर्षे घृततैले हे योगवृद्धौ समर्घके ॥११४॥ वर्षाकालत्रिमासेषु नक्षत्रं वर्द्धतेस्फुटम् । तिथिहानिस्तु संलमा शुभकालस्तदा बहुः ॥११५।। वर्षाकालत्रिमासेषु नक्षत्रं त्रुटति धुषम् । तिथिश्च वर्द्धते तत्र ध्रुवं कालो विनश्यति ॥११६॥ तेन मूलोत्तराषाढे सर्वराकासु वर्जिते । भाषायां तु विशेषेण धान्यार्थस्य विनाशके ॥११७॥ यदुक्तं सारसङ्गहेमहँगे हों ॥१११॥ सब देशक पंचांगोंसे तिथि और नक्षत्रका विचार कर लाभालाभ कहना चाहिये ॥११२॥ जितनी घड़ी नक्षत्रकी वृद्धि हो उतने विंशोपके (विश्वे) धान्य सस्ते हों और जितनी घड़ी तिथिकी वृद्धि हो उतने विश्वे अन्न महँगे हो ॥११३॥ यदि एकही मास में योग दो बार क्षय हो तो क्रमसे धी और तैल महँगे हो। और वृद्धि हो तो सस्ते हों ॥११४॥ वर्षाकालके तीन महीनों में नक्षत्र बढ़े और तिथिका क्षय हो तो बहुत सुभिक्ष काल जानना ॥ ११५॥ यदि वर्षाकाल के तीन महीनों में नक्षत्र का क्षय हो और तिथि की वृद्धि हो तो निश्चय से दुश्काल जानना ॥११६॥ इसलिये हरएक मासकी पूर्णिमाको म्ल और उत्तराषाढा नक्षत्र नहीं होना चाहिये, इसमें भी आषाढ पूर्णिमाको तो विशेष कर नहीं होना चाहिये, यदि हो तो धान्य का विनाश हो ॥ ११७ ॥ पूर्णिमा के दिन "Aho Shrutgyanam" Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् मृगादिपञ्चके राका धान्ये महतां वदेत् । मघाचतुष्टये पूर्णा कुर्याद्धान्यसमर्घताम् ॥ ११८ ॥ राका चित्राष्टके युक्ता दुभिक्षात् कष्टकारिणी । श्रवणाद्रोहिणी यावनक्षत्रैः पूर्णिमा शुभा ॥ ११९॥ क्वचित्तु तुल्यार्थ पूर्णिमायां स्यान्मृगादिधिष्ण्यपश्च । मघाचतुष्के दुर्भिक्षं कष्टं चित्रादिकेऽष्टके ॥ १२०॥ कर्णादिदशके पूर्णा सुभिक्षसुखकारिणी । सोमवारेण संयोगे कुर्यादिग्रहबर्द्धनम् ॥१२१॥ तिथिकुलके विशेष: (३५६) तिथ उत्तरा य अद्द पुण्व्वस्त्र रोहिणी य जइ कहवि । हुति किर पुण्णिमाए तम्मासे जाण दुष्क्खं ॥ १२२॥ ग्रन्थान्तरे - आदचतुष्टये सूर्य-वारे पूर्णार्थनाशिनी । मृगशिर आदि पांच नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो धान्य महँगे हों । और मया आदि चार नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र हो तो सस्ते हों ॥ ११८ ॥ पूर्णिमाके दिन चित्रा आदि आठ नक्षत्रोंमेंसे कोई नक्षत्र हो तो दुर्भिक्ष तथा कष्टदायक हो । यदि श्रवणसे रोहिणी तक के नक्षत्र हो तो पूर्णिमा शुभदायक हो ॥ ११६ ॥ कोई कहते है कि- पूर्णिमा को मृगशिर आदि पांच नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो समान भाव रहे। मवादि चार नक्षत्र हो तो दुर्भिक्ष, चित्रादि आठ नक्षत्र हो तो कष्ट हो ॥ १२० ॥ श्रश्रवणादि दश नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो सुभिक्ष तथा सुखकारक हो, परंतु सोमवार का योग हो तो विग्रहकारक हो ॥ १२१ ॥ तिथिकुलक में इतना विशेष है वि.- पूर्णिमाके दिन तीनों उत्तरा, आर्द्रा, पुनर्वसु या रोहिणीनक्षत्र हो तो उस मासमें धान्य महँगे हों ॥ १२२॥ अन्य ग्रंथ में- पूर्णिमा के दिन रविवार हो और आर्द्रा आदि चार नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो अर्थका (लक्ष्मीका) नाश हो । यदि सोमवार हो और मवादि चार नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६०) मेघमहोदये मधाचतुष्टये सोमेऽप्येषा धान्यमहर्घकृत् ॥१२॥ चित्राष्टके भौमवारे पूर्णिमा व्याधिवर्द्धिनी। दुर्भिक्षाय शनौ शेष-वारःषु शुभावहा ॥१२४॥ तिथिनक्षत्रयोः साम्ये मृगादिधिष्ण्यपञ्चके । पूर्णिमायां विधोर्योगे तुल्यार्घमशनं भवेत् ॥१२५।। मेषादित्रितये सूर्ये शुभयुक्ते तिथिक्षये। कर्णादौ पूर्णिमायोगे समघे तु हठाद्भवेत् ॥१२६।। आषाढस्याप्यमावस्या यदि सोमवती भवेत् । सुभिक्षं कुरुतेऽवश्य नक्षत्रे मृगसप्तके ॥१२७॥ अथ श्रावणमासः ---- श्रावणे कृष्णपक्षे च प्रतिपद् गुरुयोगतः *। मुगा माषास्तिलास्तैलं महर्घ शीघ्रमादिशेत् ॥१२८॥ श्रावणे नवमीयुक्तः शनिः सन्तापकारकः । धान्य महँगे हों ॥ १२३ ॥ यदि मंगलवार हो और चित्रा आदि माठ नक्षत्रोंमें से कोई नक्षत्र हो तो माधि की वृद्धि हो और शनिवार हो तो दुर्भिक्ष हो । बाकी के बार और नक्षत्र सत्र शुभकारक हैं ॥१२४॥ तिथि और नक्षत्रकी बराबरी पूर्णिमाके दिन मृगशिरादि पांच नक्षत्र और सोमवार हो तो धान्यका समान भाव रहे ॥ १२५ ॥ मेषादि तीन राशि पर सूर्य हो और वह शुभ नहसे युक्त हो, तिथि का क्षय हो और पूर्णिमा को श्रवणादि दश नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो निश्चय से धान्य सस्ते हों ॥ १२६ ॥ भाषाह की अमात्रस सोमवती हो और मृगशिरादि सात नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो अवश्य सुभिक्ष होता है ॥१२७॥ इति आषाढमास || श्रावण कृण प्रतिपदाके दिन गुरुवार हो तो मूंग, उडद, तिलं और तैल महँगे हों ॥१२८॥ श्रावणकी नवमी शनिवारके दिन हो तो संताप * एक सनिचर बीज रवि, श्रीजी मंगल होय । गेहूं गोरस सालि पीय,चाखे विरलो कोय ॥१॥ "Aho Shrutgyanam" Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् छन्त्रमा विजानीया-दाश्विनान्ते न संशयः ॥१२९॥ दशम्यां श्रावणे सिंहे रविः संक्रमते शनौ । मही न दीना जलदै-रनन्ता धान्यसम्पदः ॥१३०॥ कृत्तिका श्रावणे कृष्ण-कादश्यां + मध्यमा समा। मुभिक्षं रोहिणी कुर्याद् दुर्भिक्षं मृगशीर्षतः ॥१३१॥ यदुतं लोके-सावण बहुल इगारसी, जो रोहिणीया होय घणु वरससे बदली, पासासइ जिय लोय ॥१३२॥ जह पुण आवे यारसे, तो मज्भट्ठो काल । . अहवा आवे तेरसी, तो रौरवदुकालः॥१३३॥ इति कृष्णादिमासमते कालीरोहिणी। श्रावणे शुक्लपक्षे चेद् यदा कश्चित् तिथिक्षयः । तदा कार्तिकमासे स्थाच्छन्नभङ्गोऽपि निश्चयात् ॥१३४॥ करे, आश्विनमासके अंतमें छत्रभंग हो || १२६ ॥ श्रावणमास में दशमी शनिवार के दिन सिंहसंक्रांति हो तो पृथ्वी मेघों से दुःखी न हो याने पूर्ण वर्षा हो और धान्य संपत्ति बहुत अच्छी हो ॥ १३० ॥ श्रावण कृष्ण एकादशी के दिन कृत्तिका नक्षत्र हो तो मध्यम वर्ष हो; रोहिणी हो तो सुभिक्ष करे और मृगशिर हो तो दुर्भिक्ष करे ॥१३१॥ लोक में भी कहा है कि- श्रावया कृया एकादशी को रोहिणी हो तो वर्षा अच्छी हो और लोक सुखी हों ॥१३२॥ यदि बारसके दिन रोहिणी भा जाय तो मध्यम काल और तेरसके दिन आ जाय तो दुष्काल हो ॥१३३॥ यदि श्रावण शुक्ल पक्षमें कोई तिथिका क्षय होतो कात्तिकमासमें निश्चयसे छत्रभंग हो ॥१३॥ +टी-श्रावण किसन एकादशी,तीन नक्खतलंत कृत्तिकातो करवरो, रोहिणी घणं सुखदंत ॥१॥ इगियारसि मिगसिर हुइ, तो प्रणधित्यो काल | काली रोहिणी टीप्पणे, जोसी फल भाल ॥२॥ __x संवत् १७४३ वर्ष राखडीपूर्णाक्षयस्तेन कार्तिके विद्यापुरदुर्गम इदं कदाचिदेव संभवति शुक्लपक्षे कदाचिन संभवत्यपि। "Aho Shrutgyanam" Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६२) मेघमहोदये श्रावणे कृष्णपक्षस्य प्रतिपहिवसे धृतौ। योगे धृतिः स्याद्धान्यस्य शेषयोगेषु विक्रयः ॥१३॥ श्रावणे वा भाद्रपदे प्रथमायां श्रुतिद्वयम् । कृष्णपक्षे तदा ज्ञेयं सुभिक्षं निश्चयाजने ॥१३॥ द्वादश्यां श्रावणे कृष्णे मघा यहोत्तरात्रयम् । तत्राभ्रे जलवृष्टौ वा जलयोगस्तदा महान् ॥१३७॥ श्रावणस्य त्रयोदश्यां रेवत्या रवियोगतः । बहुधान्यानि वस्तूनि जायन्ते बहुधान्यकम् ॥१३८॥ शनौ श्रावणसप्तम्यां जलपूर्णा क्सुन्धरा । श्रावणस्य चतुर्दश्या-मायामप्रसङ्गहः ॥१३॥ अमावस्या विचारःश्रावणस्य त्वमावस्यां पुष्याश्लेषा मघा यदि । मध्यम वर्षमादेश्यं वृष्टिर्न महती यदा ॥१४॥ यतः सारसङ्गहे-विशाखाद्यष्टके दर्श दुर्भिक्षं बहुधास्मृतम्। श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन धृतियोग हो तो धान्यका संग्रह करना उचित हैं और बाकीके योगमें विक्रय करना उचित है ॥१३५॥ श्रावण या भाद्रपद के कृपक्षकी प्रतिपदा के दिन श्रवण या धनिष्टानक्षत्र हो तो लोकमें निश्चयसे सुभिक्ष हो । १३६॥ श्रावणकृष्ण द्वादशीके दिन मया या तीनों उत्तरा इनमें से कोई नक्षत्र हो और बादल हो या वर्षा हो तो बड़ा जलयोग जानना ॥१३७॥ श्रावणकी त्रयोदशीके दिन रविवार और रेवती नक्षत्र हो तो बहुत धान्य और धनिया आदि वस्तु उत्पन्न हों ॥१३८॥ श्रावण सप्तमी के दिन शनिवार हो तो पृथ्वी जलसे पूर्ण हो । यदि श्रावण चतु. दशी आर्द्रा युक्त हो तो धान्यका संग्रह करना उचित है ॥ १३६ ॥ श्रावण आमावस को पुष्प आश्लेषा या मघा नक्षत्र हो तो वर्ष मध्यम हो और वर्षा अधिक न हो ॥ १४.० ॥ सारसंग्रह में-अमावास्याके दिन "Aho Shrutgyanam" Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३६३) सुभिक्षमेकादशके वारुणाये पुरोहितम् ॥१४॥ अमावस्यां मध्यवर्ष भवेत् पुष्यचतुष्टये। शनिः सूर्यः कुजो दर्श-ब्वनन्तरमरिष्टकृत् ॥१४२॥ तिमि य पूरव कत्तिका, चित्ता अरु असलेस। मिलि अमावसि धानरो, अरघ करे सविसेस ॥१४॥ अमावस्यातिथिर्धिष्ण्यं यदा भवति कृत्तिका । ईतिर्घमा क्षितौ नूनं वर्षे तत्र भविष्यति ॥१४४॥ पार्वणी यदि रौद्रे स्या-दादित्यं प्रतिपत्तिथौ । द्वितीया पुष्यसंयुक्ता जलं धान्यं तृणं न च ॥१४॥ अमावस्यादिने योगे पुनर्वस्वादिपञ्चके । समर्घमथ दुर्भिक्ष-मुत्तरादिचतुष्टये ॥१४६।। विशाखाद्यष्टके कष्टं वारुणादौ जने सुखम् । ऊचिरे केचनाचार्या दर्शनक्षत्र फलम् ॥१४७॥ विशाखा आदि आठ नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो बहुत करके दुर्भिक्ष हो और शतभिषा आदि ग्यारह नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र हो तो शुभ हो ।।१४१॥ यदि अमावसके दिन पुष्य प्रादि चार नक्षत्र हो तो मध्यम वर्ष हो। और शनि रवि या मंगलवार के दिन अमावस हो तो निरंतर दुःखदायक हो । १४२॥ यदि अमावसको तीनों पूर्वा, कृत्तिका, चित्रा या आश्लेषा नक्षत्र होतो धान्य महँगे हो ॥१४३॥ यदि आमावसके दिन कृत्तिका नक्षत्र हो तो पृथ्वी पर निश्चयसे उस वर्ष में ईति का उपद्रव हो ॥ १४४ ।। यदि अमावस को आर्दा, प्रतिपदा को पुनर्वसु और द्वितीया को पुष्य नक्षत्र हो तो वर्षा, तृण और धान्य न हो ॥ १४५ ॥ अमावस को पुनर्वसु आदि पांच नक्षत्र हो तो धान्य सस्ते हों, उत्तराफाल्गुनी आदि चार नक्षत्र हो तो दुर्भिक्ष हो ॥ १४६ ॥ विशाखा आदि आठ नक्षत्र हो तो कष्टदायक हो और शतभिषा आदि नक्षत्र हो तो मनुष्यों में सुख हो एसा अमावस "Aho Shrutgyanam" Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) मेघमहोदये यतः-अमावसीइ ति दिया होइ जयारिक्खट्ट उत्तरातिनि। रेवइधणि पुणब्बसु दुभिक्खं करइ मासम्नि ॥१४८॥ ग्रन्थान्तरे-- अहह वारुण चित्तह साई, कत्तिय भरणि अमावसि भाई। इण नक्ख ते जो तिथि जगी, निश्चय अर्घ वधावे दूणी ।। विरुद्धवारनक्षत्रेऽमावस्यो यहवोऽशुभाः।। वार्षिकं फलमादाः शेषाः मासफलप्रदाः ।।१५०॥ इति । श्रावणे शुक्लसप्तम्यां स्वातियोगसुभिक्षकृत् । श्रवणं पूर्णिमायां स्या-द्धान्यैरानन्दिताः प्रजाः ॥१५१॥ यत:-आखा रोहिण नवि मिले, पोसी मूल न होय । श्रावणि श्रवण न पामीइ, मही डोलती जोय ॥१५२॥ ज्येष्ठस्य प्रतिपद्वार-फलं प्राकथितं यथा । को नक्षत्र का फल कोई प्राचार्य कहते हैं ॥ १४७ ॥ मेघमालामें कहा है कि- अमावस के दिन तीनों उत्तरा, रेवती, धनिष्ठा या पुनर्वसु नक्षत्र हो तो एक मास दुर्भिक्ष करे ।। १४८ ॥ ग्रंथान्तर में- आर्द्रा, शतभिषा, चित्रा, स्वाति, कृत्तिका और भरणी इन नक्षत्रों में यदि अमावस आजाय और इन नक्षत्रोंसे तिथि जितनी न्यून हो उनसे दूना मूल्यसे धान्य बिके ॥१४६॥ विरुद्ध वार नक्षत्रों में अमावस हो तो बहुत अशुभ होती है। यह श्रावणकी अमावस वार्षिक फलदायक है और बाकी की मासफलदायक हैं ॥१५०॥ श्रावण शुक्ल सप्तमी को स्वाति नक्षत्र हो तो सुभिक्षकारक है । श्रावणपूर्णिमा को श्रवणनक्षत्र हो तो धान्य प्राप्ति बहुत हो जिससे प्रजा भानंदित हो ॥१५१॥ कहा है कि - आषाढ पूर्णिमाको रोहिणी, पोषपूर्णिमा को मूल और श्रावण पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र न हो तो पृथ्वी डामाडोल याने दुःखी हो ॥ १५२ ।। जैसा ज्येष्ठमास की प्रतिपदा का फल पहले कहा है वैसा श्रावणमासकी प्रतिपदाका फल राहां भी समझ लेना "Aho Shrutgyanam" Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् श्रावणेऽपि तथा वाच्यं प्राच्याः केचिदिहोचिरे ॥१५३।। अथ भाद्रपदमास:प्रथमायां तिथौ भाद्र गुरौ श्रवणसंयुते । प्रमों जायते वर्षे धनधान्यादि सम्पदा ॥१५४॥ भाद्रपदाऽसिताष्टम्यां रोहिणी शुभदायिनी । मवमी भाद्रशुक्लस्य रवौ मूले भयङ्करी ॥१५॥ दुर्भिक्षाय रवी मूले भाद्रे शुषले दशम्यपि । योग्योऽयं स्यात सुभिक्षाय प्रोचुरेवं च केचन ॥१५६॥ एकादशी भाद्रशुक्ले मूले दिनकृता युता । मेवेन वत्सरे सौख्यं लोकं व्याधिर्वियाधते ॥१५७॥ भाद्र कृष्णद्वितीयायां वितीयवारयोगतः । धान्यनिष्पत्तिरतुला सम्पदः स्युश्चतुष्पदैः ॥१५॥ शनी भाद्रपदे कृष्णा चतुर्थी यदि जायते । देशभङ्गश्च दुर्भिक्षं मुस्तयोदरपूरणम् ॥१५॥ चाहिए ॥१५३ ॥ इति श्रावणमास। . भादपद की प्रथम तिथि के दिन गुरुवार और श्रवण नक्षत्र हो तो वर्ष अच्छा हो और धन धान्य की प्राप्ति विशेष हो। १५४ ॥ भाद्रकृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र हो तो शुभदायक है। भाद्रशुक्ल नवमी को रवि वार और मूलनक्षत्र हो तो भयदायक है ॥ १५५॥ भाद्रशुक्ल दशमी को रविवार और भूलनक्षत्र हो तो दुर्भिक्ष होता है। परन्तु यही योग को कोई सुभिक्ष कारक कहते हैं ॥ १५६ ॥ भाद्रशुक्ल एकादशी को रविवार और मूलनक्षत्र हो तो वर्ष में वर्षासे तो सुख हो परंतु रोग का उपद्रव हो॥ १५७॥ भाद्रकृष्ण दूजको सोमवार हो तो धान्यकी प्राप्ति बहुत हो तथा पशुओंकी वृद्धि हो ॥१५८॥ भाद्रकृष्ण चतुर्थी को यदि शनिवार हो तो देशभंग और दुर्भिक्ष होने से लोक मुस्ता (मोथा) से उदरपूर्ति करें ॥ १५६ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये अत्र लोके प्राह+ आठमी काली पक्खना, सनि असलेसा जुत्त । मेह म जोइस महीयले, वरसे एहज वत्त ॥१६॥ ग्रन्थान्तरेऽपि-+नवम्यां स्वाति संयोगे भाद्रमासे सिते वदा। तदा सुखमयी भूमिघृतधान्यसमन्विता ॥१६॥ भाद्रशुक्लचतुर्थी चे द्वारा जीवेन्दुभार्गवाः । उत्तराहस्तचित्राभिः सुभिक्षं निश्चयात् तदा ॥१६२॥ भाद्रे धवलपञ्चम्यां स्वातियोगो यदा भवेत् । मासैश्चतुर्भिः कर्पास-रूतादेर्लाभसम्भवः ॥१६३॥ भाद्रमासे तृतीयायां भौमे चोत्तरफाल्गुनी। तदा वृष्टिकरो नैव प्रोन्नतोऽपि धनाधनः ॥१६४॥ भाद्रपदामावास्याफलम् ---- लोक भी कहते है कि भाद्रपद कृष्ण अष्टमी या आश्लेषा नक्षत्र के दिन : शनिवार हो तो पृथ्वी पर मेह न बरसे, वार्ता वरसे याने मेह का वृतांत ही सुना जाय ॥ १६० ॥ ग्रन्धान्तर में भी-- म द्र गुक्ल नवमी या स्वाति नक्षत्र के दिन शुक्रवार हो तो घी और धान्यसे पूर्ण सुखमयी पृथ्वी हो ॥१६१॥ भाद्रशुक्ल चतुर्थी को बृहस्पति सौंप या शुक्रवार हो और उत्तराफाल्गुनी हस्त या चित्रा नक्षत्र हो तो निश्वर से मुभिक्ष होता है ॥१६२ ॥ भाद्रशुक्ल पंचमी को स्वाति नक्षत्र हो तो चार मास कपास रूई आदि से लाभ हो ॥ १६३ भद्रास की तृतीया के दिन मंगलवार और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो तो उन्नत मेव उदय होकर भी न बरसे ॥ १६ ४ ॥ + टी-कृणादिमासमते इदं घटते, न शुक्लादिमते । अत्रायमर्थ:-भाद्रकृष्णे अष्टमी तथा आश्लेषानक्षत्रदिने च एतयोदिनयोः शनिघारोन शुभः। भाद्र शुक्ले स्वातिदिने यद्वा नवम्यांसितेशुक्रवारोः शुभः। यथा सूत्रव्याख्यायां योगी अघटमानौ । "Aho Shrutgyanam" Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् भाद्रमासे. ह्यमावस्यां रचौ घृतमहर्घता । धान्यं महर्घ भोमे ज्ञे शनौ तैलं विनिर्दिशेत् ॥१६॥ यतः-मुद्र जोग ए भादवे, अमावसि रविवार । उजेणी हुंती पश्चिमे होसी हाहाकार ।।१६६।। अन्यस्मिन्नपि मासे चे-देकैवामावसी रवौ । तदा वर्षस्य विश्वांशा मानं पश्चदश स्मृताः॥१६७॥ अमावसीयं सूर्य-वारे टिप्एनके यदा । दश विंशोपका वर्षे खण्डवृष्टयादिनोदिताः ॥१६८॥ रविवारादमावस्या प्रये पञ्च विंशोपकाः। छत्रभङ्गोऽथ दुष्कालो रवौ दर्शचतुष्टये ॥१६९॥ इत्यमावास्यारविवारफलम् । रुद्रदेवः सप्तवारफलान्याह:..."अमावास्याः फलं वक्ष्ये वार भुत्तया शृणु प्रिये। येन विज्ञायते कालो वत्सरे मासनिर्णयः ॥१७०॥ भाद्रपदकी अमावसको रविवार हो तो घी महँगे हों, मंगल या बुधवार हो तो धान्य महँगे हो और शनिवार हों तो तेल महँगे हों ॥१६॥ अमावसको रविवार हो तथा मुद्गरयोग भी हो तो उजयणी से पश्चिमदिशा में हाहाकार. अनिष्ठ हो ॥ १६६ ॥ इससे दूसर कोई मासकी अमावस को रविवार हो तो वर्षके विश्वा पंद्रह माना गया है ॥१६७॥ पंचांगमें यदि दो अमावस रविवार को हो तो वर्षके दश विश्वा माने हैं और खण्डवृष्टि होती है ॥१६८। तीन अमावस रविवार को हो तो पांच विश्वा माने है। यदि चार अमावस रविवार को हो तो छत्रभंग तथा दुष्काल हो ॥१६६॥ रुद्रदेवके मतसे हे प्रिये ! वारानु क्रमसे अमावसका फल कहता हूँ, जिससे * टी-मंगल करे पलेवडु, बाला बुधेमरंति। रविशनिहोय अमावसे, अन्न रस मुहका हुंति ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६८ मेघमहोदये जनानां बहुलाः क्लेशा राजा दुःखैः प्रपोज्यते। अमावस्यादिने सूर्यः सन्तापायार्थनाशनात् ॥१७१॥ सुभिक्षं क्षेममारोग्यं वर्षायाः प्रबलोदयः । . सस्योत्पत्तिः प्रजासौख्यं सोमवारे प्रवर्तते ॥१७२॥ राज्यभ्रंशो राज्ययुद्धं क्लेशानां च प्रवर्द्धनम् । उपघातोऽल्पवृष्टिश्च क्षयश्चार्थस्य भूमिजे ॥१७॥ दुर्भिक्षं राज्यनाशश्च प्रजानां दुःखभाजनम् । . स्थानत्यागो धान्यमल्पं बुधवारे प्रवर्तते ॥१७॥ सदा वृष्टिः सुभिक्षं च कल्याणं दुःखनाशनम् । आरोग्यं च प्रजा स्वस्था गुरुवारे समादिशेत् ॥१७॥ भृशं जलोशता मेघाः कृषीणां बहुरुद्भवः॥ तस्करोपद्रवा नित्यं शुक्रणामावसीदिने ॥१७६॥ . दुर्भिक्षं रौरवं घोरं महादुःखं महद्भयम् । पराङ्मुखाः पितुः पुत्रा व्यसनं शनिवासरे" ॥१७॥ वर्षमें मासका काल जाना जाता है ॥१७०॥ अमावसको रविवार हो तो मनुष्यों को बहुत क्लेश तथा राजा दुःखोंसे पीडित हो और अर्थका विनाश हो ॥ १७१ ॥ सोमवार हो तो सुभिक्ष, कुशलता, आरोग्य, वर्षाका प्रबल उदय, धान्यकी उत्पत्ति और प्रजा सुखी हो ॥ १७२ ॥ मंगलवार हो सो राज्यका विनाश, राजाओं में युद्ध, क्लेशोंकीवृद्धि, उत्पात, थोड़ी वर्षा और धन का नाश हो ॥१७३॥ बुधवार हो तो दुर्भिक्ष, राज्यका विनाश, प्रजा को दुःख, स्थान भ्रष्ट और धान्य थोड़ाहो ॥१७४॥ गुरुवार हो तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, कल्याण, दुःखका नाश, प्रजा सुखी और आरोग्यता हो । १७५॥ शुक्रवार हो तो जलसे उन्नत मेघ हो, कृषियों का बहुत उदय हो और चोरका हमेशा उपद्रव हो ॥१७६॥ शनिवार हो तो घोर दुर्भिक्ष हो, महादुःख, बडाभय और पुत्र पिता से पराङ्मुख हो ॥१७७॥ अमावास्या "Aho Shrutgyanam" Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् प्रमावस्याधिके ऋक्षे यदा चरति चन्द्रमा । अर्थे चा धिको ज्ञेया हीने हीनत्वमाभुयात् ॥१७८॥ प्रकृतम्-भाद्रपदे शुक्लषष्ठया-मनुराधा * यदा भवेत्। नक्षत्रान्तरदोषेऽपि सुभिक्षं निर्णयाद् वदेत् ।।१७।। अथाश्विनमास:------ आश्विने प्रथमायां चे-च्छुक्लायां शनिरागते । तदा धान्यं न विक्रय पुरस्तस्य महर्घता ।।१८०॥ + शुक्लायां च द्वितीयाया-माश्विने चन्द्रवारतः । मूलस्पर्श पुनो मूनात् तदा धान्यस्य संग्रहः ॥१८१॥ आश्विने हि तृतीयायां यदि भौमः शनैश्चरः। तदाग्निः प्रबलो भूम्या-मन्यवारे समता ॥१८२॥ चतुर्थ्यामाश्विने सूर्ये विक्रेतव्यं घृतं जनैः। का अधिक नक्षत्र पर चन्द्रमा गमन करे तो धानका भाव सम्ता हो और हीन नक्षत्र पर गमन करे तो धानका भाव तेज हो ॥१७८॥ भाद्रशुक्ल षष्ठी को यदि अनुराधानक्षत्र हो तो दूसरे नक्षत्रोंका दोष रहने पर भी निश्च से सुभिक्ष कहना ॥ ११६ ॥ इति भाद्रपदनास ॥ आश्विन शुक्लप्रतिपदाको शनिवार हो तो धान्यका संरह करना चाहिये, मागे वह महंगे भाव होंगे ॥१८०॥ आश्विन शुक्ल में धनुगशिका चंद्रमा के समय द्वितीया, और मूल नक्षत्र में सोमवार को धान्य का संग्रह करना चाहिये ॥ १८१॥ यदि तृतीयाके दिन मंगल या शनिवार हो तो पृथ्वी पर गरमी प्रचल हो और दूसरे वार हो तो सस्ते हो।। १८२ ॥ शुक्ल अटी-पारखडा सब बोलीया काई सचितो नाह भाबडो जग रेलसी, जो छठे अनुराह ।। इति लोक भाषायां ॥ +टी-इदमपिन संभवति-आश्विने शुषलद्वितीयायधनुशिचन्द्रमा प्राप्ते तेन द्वितीयादिने मूलदिने च चन्द्रवारे धान्यसंग्रहः । ४७ "Aho Shrutgyanam" Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) मेघमहोदये संगृह्यन्ते च धान्यानि पुरो लाभाय तान्यपि ॥१८॥ * आश्विने शुक्लपञ्चम्यां सोमे हस्तसमागमे । गन्तव्य मालवस्थाने निर्जला जलदायिनी ॥१८४॥ सप्तम्यां शनियुक्तायां सिते पक्षे यदाश्चिने । श्रवंग वा धनिष्ठा चेजगतो नाशकारणम् ॥१८॥ आश्विने च बुधेऽष्टम्यां विधेयो घृतसंग्रहः । कार्तिके विक्रयात् तस्य सम्पदः स्युः पदे पदे ॥१८६॥ नवम्यामाश्विने शुक्ले कुजवारेण संगती। मुद्ग कार्पास चपला-भाषादेः संग्रहो मतः ॥१८७॥ द्विगुणस्तु भवेल्लाभो चैत्रमासेऽथ विक्रये। आश्विने दशमी भौमे भूम्यां व्याधिरबाधितः ॥१८॥ xएकादश्यां शनौ तस्मि छत्रभङ्गोऽथवा भुवि । चतुर्थी को रविवार हो तो बी बेचना चाहिये और धान्य का संग्रह करना चाहिये जिससे आगे लाभ होगा !! १८३ ।। आश्विन शुक्ल पंचमी सोमवारके दिन और हस्त नक्षत्र पर सूर्य हो तब वर्षा होना अच्छा नहीं, यदि बरसे तो मालन देश में जाना चाहिये वहां निर्जलाभी जल देनेवाली है ॥ १८४ ॥ आश्विन शुक्ल सप्तमी शनिवार को श्रवण या धनिष्ठा नक्षत्र हो तो जगत् का नाशकारक होता है ।। १८५ ॥ शुक्लाष्टमीको बुधवार हो तो घी का संग्रह करना चाहिये । उसको कार्तिक में बेचने से विशेष लाभ हो ॥१८६॥ शुक्ल नवमीको मंगलवार हो तो मूंग, कपास, चौला उडद आदिका संग्रह करके ॥ १८७ || उसको चैत्र मासमें बेचनेसे दूना लाभ हो । आश्विन शुक्ल दशमी को मंगलवार हो तो पृथ्वी पर व्याधि (रोग) की पीड़ा हो ॥ १८८॥ आश्विन शुक्ल एकादशी को शनिवार हो * टी-अत्रापिआश्विने शुक्लपञ्चम्यांसोमवारेसतिसूर्येच हस्तेसमागते वृष्टिन शुभा, निर्जला पञ्चमी जलदायिनीत्यर्थः । टी-संवत् १७४३ आश्विनसित ११ तिथौ शनिर्विद्यापुरदुर्गमाः । "Aho Shrutgyanam" Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् नगरग्रामभङ्गः स्याद्वैरिचौराद्युपद्रवः ॥ १८६॥ + तृतीयारोहिणीयोगे वारयोः शनिभौमयोः । तदा कार्पासिकं ग्राह्यं फाल्गुने लाभमादिशेत् ॥ १९०॥ प्राश्विने कार्त्तिके वापि द्वितीया मङ्गलेऽसिता । लोके दहनजो दाहः प्रतिग्रामं प्रवर्त्तते ॥१९१॥ आश्विने कृष्णापञ्चम्यां रविवारः प्रवर्त्तते । माघे मासे ह्यमावस्यां महर्षे निश्चयाद् घृतम् ॥१९२॥ *पष्ठचामथाश्विने ज्येष्ठादित्यमूलादिसङ्गमे । सहः सर्वधान्यानां पञ्चमास्यां फलं भवेत् ॥ १६३॥ आश्विनैकादशी कृष्णा वारयोर्बुधसोमयोः । महिषीणां गवां मूल्यं महत् सञ्जायते जने ॥ १९४ ॥ द्वादशी शनिना युक्ता हस्तचित्रा समम्विता । तदा युगन्धरी ग्राह्या चैत्रे च त्रिगुणं फलम् ॥ १९५॥ तो पृथ्वी पर छत्रभंग हो, नगर-गांवका भंग हो और चोरोंका उपद्रव हों ॥ १८६ ॥ आश्विन कृष्ण तृतीया और रोहिणी नक्षत्र के दिन शनि या मंगलवार हो तो कपास का संग्रह करना, उस से फाल्गुन में लाभ होगा ॥ १६० ॥ आश्विन या कार्तिक कृष्णपक्ष में दूज मंगलवार की हो तो लोक में प्रत्येक गांव में अभि का उपद्रव हो ॥१६१ ॥ आश्विन कृष्ण पञ्चमी को रविवार हो तो माघ मास की अमावसको निश्रयसे वी महँगा हो ॥ १६२ ॥ आश्विन षष्ठीके दिन ज्येष्ठा या मूल नक्षत्र और रविवार हो तो सब धान्य का संग्रह करे तो पांचवें मास लाभदायक हो ॥ १६३ ॥ आश्विन कृष्ण एकादशीको बुध या सोमवार हो तो भैंस और गौका मूल्य अधिक हो ॥ १६४ ॥ द्वादशीको शनिवार हो और हस्त या चित्रा नक्षत्र हो तो युगंधरी (जूआर ) का संग्रह करें तो चैत्र में त्रिगुना लाभ हो ॥१६५॥ +टी-तृतीयायां वा रोहिणीदिने इत्यर्थः । *टी-आदित्यवारो ज्येष्ठायां मूले च नक्षत्रे इत्यर्थः । " Aho Shrutgyanam" (३७१) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) मेघमहोदये आश्विनस्याप्यमावस्यां शनिवारो यदा भवेत् । मध्यम वरमथवा दुष्कालः खण्डमगडले ॥१९६।। क'च तु-सनि आइच्चे मंगले, आसू अमावसि होय । बिमग तिगुगा च उगुणा, कणे कवड्डा होय ॥१९॥ ग्रन्थ म्तरे उत्तरतिन्नि धगिट्ट चउत्थी, अने पुनर्वसु रोहिणी छट्ठी। हुइ अमावसि एह संजुती, मास दुभिक्ख करे निरुती।१६८ इति सामान्यवचोऽपि आश्विनविषयमुक्तम् । अथ कात्तिकमास:कार्तिके प्रयमे पक्षे प्रथमा बुधसंयुता । तद्वर्षे मध्यमं वृष्टया-नावृष्टया च कचिद्भवेत् ॥१६॥ यतः-काती सुदि पक्षिका दिने, जो बुधवारि होय । आश्विन अमावस को शनिवार हो तो खण्डमंडल में वर्ष मध्यम, या दुष्काल हो ॥ १६६ [[ कोई कहते है कि- आश्विन अमावस को शनि वि या मंगलवार हो ही धान्यका दूना तीगुना और चौगुना लाभ हो । ॥१६७।। ग्रन्थन्तर-- आश्विन अमावसको तीनों उत्तरा, धनिष्ठा, पुनर्वसु या रोहिणी नक्षत्र हो तो एक मास दुर्भिक्ष हो।।१६८॥ इति आश्विनमास।। - कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को बुधवार हो तो कहीं वर्षा और कहीं अनावृष्टि के कारण वर्ष मध्यम फलदायक हो ॥ १६ ॥ जैसे- कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को बुधवार हो तो धान्यका दूना तीगुना और चौगुना भाव हो टी-शुक्लादिपक्षे सम्भवति। टी- संवत् १७४३ वर्षे कार्तिककृष्ण १ तिथौ बुधः कृष्णादिमते। टी-संवत् १६८७ वर्षे ज्येष्ठ कृष्ण १ तिथौशनौ, कार्तिककृष्ण १दिने मंगलः,पतदिन येरवारे दुर्लक्ष । टी-कालीमास अंधार पख, पडिवाये शनिवार । ए बिहुँ दुःखकारीया, जाणो रौरवकार ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकवनम् बिमणा तिगुणा चउगुणा, कणे कवड्डा होय ॥२०॥ कार्तिके सप्तमी शुक्ला शनौ धान्याघनाशिनी । श्वेतवस्तुमहर्ष स्यात् त्रिमासि द्विगुणं फलम् ॥२०१॥ कार्तिके रविणा रौद्र-योगे राज्ञां महारणः । रोहिण्यां कार्तिके सूर्यः पुरो वारिदवारणः ॥२०२॥ कार्तिके पञ्चमी रौद्र-योगे स्यात् तृणसङ्ग्रहः । चतुष्पदेऽन्यथा दुःखं जायतेऽग्रेऽल्पवृष्टिजम् ॥२०३॥ कार्तिके मङ्गले मूलं मङ्गलेऽननुकूलकम् । सप्तमी शनिना कृष्णा करोत्यन्नमहर्घताम् ॥२०४॥ कार्तिके दशमी कृष्णा शनौ रोगकरी जने । • रविः कृष्णत्रयोदश्यां यवगोधूममूल्यकृत् ॥२०५॥ कार्तिके कृष्णदशमी शनौ मघासमन्विता । महर्घ घृतपूगादि चातुर्मासान्तविक्रयः ॥२०॥ कार्तिके चेदमावस्यां शनिश्वाशननाशनः । ॥२००॥ कार्तिक शुक्ल सप्तमीको शनिवार हो तो धान्य का विनाश और श्वेत वस्तु महँगी हो इससे तीन मासमें द्विगुना लाभ हो ॥२०१॥ कार्तिक में रविवार और आर्द्रा का योग हो तो राजाओंका युद्ध हो । तथा रविवार और रोहिणी का योग तो हो आगे वर्षाका रोध हो ॥२०२॥ कार्तिक पंचमी को आर्द्रा हो तो तृणका संग्रह करना उचित है, नहीं तो पशुओं को दुःख होगा क्योंकि आगे बहुत थोड़ी वर्षा होगी ॥२०३॥ कार्तिकमें मंगलवार को मूल नक्षत्र हो तो मांगलिक कार्यमें अनुकूल नहीं होता । कृष्ण सप्तमी शनिवारको हो तो अन्न महँगे हो ॥२०४॥ कार्तिक कृष्ण दशमी शनिवार को हो तो रोग करें। और कृष्ण त्रयोदशी रविवार को हो तो यव और गेहूँ तेज हो । २०५ ॥ कार्तिक कृष्ण दशमी शनिवार और मघा नक्षत्र युक्त हो तो घी और सोपारी महँगे हो चौथे महीने बेचें ॥२०६॥ कार्तिक "Aho Shrutgyanam" Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७४) मेघमहोदये भौमे भूम्यां महावही रवियुद्धाय भूभुजाम् ॥२०७॥ *यत: होली पोली दीवालीइ, रवि शनि मंगल होय । खप्पर लीधे जग भमे, जीवे विरलो कोय ॥२०८।। चतुर्मासकुलकेनमिऊण तिलोयरविं जगवल्लह जलहरं महावीरं । चुच्छामि अग्घकण्डं जं कहियं जिणवरिंदेण ॥२०९॥ कत्तियपूनमदिवसे कत्तियरिक्खं च होइ संपुन्नं । ता चत्तारि वि मासा होइ सुभिक्खं सुहं लोए ॥२१॥ अह भरणी तहिवसे चत्तारि वि पुहर होइ संपुण्णा। ता जाणह दुन्भिक्खं मासा चउरो वि सस्साणं ॥२१॥ अह रोहिणी तदिवसे हविज्ज चत्तारि पहरसंपुरणं। ता जाणह अग्घहाणी मूलरसाणं च दवागां ॥२१२।। की अमावसको यदि शानवार हो ता धान्यका विनाश हो, मंगलवार हो तो पृथ्वी पर अग्नि का उपद्रव हो और रविवार हो तो राजाओं का युद्ध हो ॥ २०७ ॥ होली पोली (विजया दशमी) और दीवालीको रवि शनि या मंगल हो तो लोक खप्पर लेकर जगत् में घूमें याने बड़ा दुष्काल हो कोई विरला बचें ॥२०८॥ चतुर्मास कुलकमें कहा है कि- त्रिलोक के रवि, जगवल्लभ जलधर श्री महावीर जिनको नमस्कार करके जिनेंद्र भगवान ने कहा हुआ अर्द्धकाण्ड को कहता हूँ ॥२०॥ कार्तिक पूनमको कृतिका नक्षत्र पूर्णतया हो तो चारों ही महीने सुभिक्ष रहें और लोक सुखी हो ॥२१०॥ यदि उस दिन भरणी नक्षत्र चार प्रहर पूर्ण हो तो चार महीने धान्य महँगे (दुर्भिक्ष) हो ॥ २११॥ यदि उस दिन रोहिणी नक्षत्र चार प्रहर पूर्ण हो तो मूल रस और द्रव्यके अर्धकी हानि हो ॥२१२॥ पूर्णिमा *टी-स्वाति दीवा नव बले, विशाखा न खेले गाय । कै लाख गयंदा रण पडे, कै निष्फल शाखा जाय ॥१॥ दीपोत्सवादिने वारो भौमो वह्निभयावहः। संक्रांतीनां च नैकध्यं शुभ मर्यादिके नहि ॥२॥ "Aho Shrutgyanam" Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३७५) अह पुन्निमा य दिवसे नक्खत्तं रोहिणी अहोरत्तं । ता सव्व धण्णहाणी रसाण लोहाइधाउणं ॥२१३।। अह भरणी दुपुहरा दुन्निय पुहरा य कत्तिया होइ । ता कुणइ अग्घहाणी दो मासा लवणकप्पासे ॥२१४॥ अह कत्तिय दो पुहरा तउपरं रोहिणी उ छ पुहरा। दो मासाय सुगाली दो मासा होइ दुकालो ॥२१५॥ अथ मार्गशीर्षमास: +मार्गशीर्षचतुर्थ्यां चेन्मङ्गलो रेवतीदिने । प्रतिग्रामं वह्निभयं जगत्क्ले शव्यथामयम् ।।२१६॥ मार्गशीर्षेऽथवा पौषे फाल्गुने धवलांशके । नक्षत्रात् तिथिभोगेऽल्पे गोधूमा लाभदायिनः ॥२१७॥ छादश्यां मार्गशीर्षस्य भौमवारेऽकसंक्रमे । भावि वर्षविनाशाय ग्रहणं शीतगोस्तथा ॥१८॥ को दिनरात रोहिणी नक्षत्र हो तो समस्त धान्य,रस तथा लोहा आदिधातुओं का विनाश हो ॥२१३॥ यदि दो प्रहर भरणी और दो प्रहर कृत्तिका हो तो दो महीने लवण और कपास तेज हो ॥२१४॥ यदि दो प्रहर कृत्तिका और पीछे छह प्रहर रोहिणी हो तो दो महीना सुकाल याने सस्ता, और दो मास दुष्काल याने महँगा हो॥२१५॥ इति कात्तिकमासः ॥ मार्गशीर्ष चतुर्थीको या रेवती नक्षत्रके दिन मंगलवार हो तो प्रत्येक गांवमें अग्नि का भय और जगत् क्लेश-दुःखमय हो ॥२१६॥ मार्गशिर, पौष या फाल्गुन के शुक्लपक्षमें नक्षत्र के भोगसे तिथि भोग थोड़े हो तो गेहूँसे लाभ हो ॥२१७॥ मार्गशीर्ष द्वादशीको या सूर्य संक्रांतिको मंगलवार हो तथा चन्द्रग्रहण हो तो अगला वर्ष विनाश हो ॥ २१८॥ मार्गशीर को रविवार हो तो कपास रूई का संग्रह करना वैशाख में लाभदायक है Fटी-रेवतीदिने यद्वा चतुर्थीदिने मङ्गजः । -- "Aho Shrutgyanam" Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७६) . मेघमहोदय मार्गे नवम्यां रेवत्यां बुधो दुर्भिक्षकारकः । पञ्चमी गुरुणा योगात् पञ्चमासान् सुभिक्षदा ॥२१९|| मार्गशीर्षप्रतिपदि पुष्ये शुष्येच्चतुष्पदः । जलवृष्टया परं वर्ष गर्भस्रावाद विनश्यति ॥२२०॥ पुनर्वस्वोस्तथााया-स्तृतीयायां च सङ्गमे । धान्यं समर्घमादेश्यं राजा सुस्थः प्रजासुखम् ॥२२१॥ मार्गशीर्षस्य पञ्चम्यां मघाद्यं पञ्चकं यदा । पुरो वर्षविनाशाय जायते जलरोधतः ॥२२२॥ मार्गे नवम्यां चित्रायां धान्यं महर्घमादिशेत । *कृष्णा चतुर्दशी स्वातौ श्रावणे जलरोधिनी ॥२२३॥ मार्गशीर्षस्य दशमी मूले वा रविणा युता। सङ्गाह्याश्च तिलास्तलं ज्येष्ठान्ते लाभदायकम् ॥२२४॥ मार्गे यदि स्यादादित्य एकादश्यां तिथौ तदा । नवमी को रेवती नक्षत्र और बुधवार हो तो दुर्भिक्षकारक है । पंचमी को गुरुवार हो तो पांच मास सुभिक्ष हों ।। २१६ ॥ मार्गशीर प्रतिपदा को पुष्य नक्षत्र हो तो पशुओं को कष्ट हो और अगला वर्ष का गर्भ जल वृष्टि से विनाश हो || २२० ॥ तृतीया को पुनर्वसु तथा आर्द्रा नक्षत्र हो तो धान्य सस्ते, राजा प्रसन्न रहे, और प्रजा सुखी हो ॥ २२१ ॥ मार्गशीर्ष पंचमी को मघा आदि पांच नक्षत्र हो तो वर्षा न होनेसे अगला वर्ष विनाश हो ॥ २२२ ॥ मार्गशीर नवमीको चित्रा नक्षत्र हो तो धान्य महेंगे हो और कृष्ण चतुर्दशी स्वाति युक्त हो तो श्रावण में वर्षा न हो ॥ २२३ ॥ मार्गशीर्ष दशमीको मूलनक्षत्र और रविवार हो तो तिल तैल का संग्रह करना ज्येष्ठके अंतमें लाभदायक है ।।२२४॥ मार्गशीर एकादशी * टी-मागसिरि चादीस अंधारी स्वातिभोगहुई जोउविचारी। श्रावण ता जो प्रतिघण करइ, जाओ विदेस के सहुये मरइ ॥२॥ संवत् १७४३ वर्षे चतुर्दश्यां स्वातिभोग्यः। "Aho Shrutgyanam" Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् कार्पासरूतस्त्रादि ग्राय वैशाखलाभकृत ॥२२॥ अथवा देवयोगेन शनिवारस्य सङ्गमः। जलशोषः प्रजानाशनमस्तदा भवेत् ॥२२॥ अथ पौषमासः-- पौषमासे शुक्लपक्षे चतुर्थीदिनवासरे । यदा शनिस्तदादौस्थ्य बिमास्यं नैव संशयः ॥२२७॥ ससमी सोमवारेण पौषमासे यदा भवेत्। . तदा च महिषीवृन्दं म्रियते रोगपीडितम् ॥२२॥ थापनाद्रो व्रजेत् सूर्य-स्तावद् धान्यस्य संग्रहा। . शनिः पौषे नवम्यां चेत् पुरस्ताल्लाभकारणम् ।।२२९॥ एकादश्यां पौषशुक्ले कृत्तिकाभोगतः स्मृतः। रक्तवस्तुमहाल्लाभः सघान्यात प्रथमा बुधे (ऽम्बुद)॥२०॥ पूर्वाषाढा तथा ज्येष्ठा-ऽमावस्यां + पौषमासके। . ॥ २२५ ॥ यदि दैवयोग से शनिवार हो तो जल का सूखना, प्रजा का नाश और छत्रभंग हो ॥ २२६ ॥ इति मार्गशीर्ष मास ॥ पौष शुक्ल चतुर्थी को शनिवार हो तो तीन मास दुःख रहें इस में संदेह नहीं ॥२२७॥ पौष सप्तमी सोमवारको हो तो भैंस रोग से पीडित होकर मरें ॥२२८॥ पौष नवमीको शनिवार हो तो जब तक सूर्य भाद्रीमें न भाये तब तक धान्य संग्रह करना उचित है भागे लाभदायक है ।। २२६॥ पौष शुक्ल एकादशीको कृत्तिका हो तो लाल वस्तु से बड़ा लाभ हो और प्रथम वर्षा तक धान्य से लाभ हो ॥ २३० ॥ पौष अमावसको +टी-अत्र-पोसह मास अमावलि, पुण्य कृतिग पूर्वा होय । वार मंगल रवि थावरइ, तो घरस माठो होय ॥१॥ इति पुरातनवचनात् पुष्य उपतः न चास्य सम्मथः । वृधिकादित्रयसूर्ययोगात् एवं कृत्तिकायामपि भाग्यम् । 'पुसा जेट्ठग हो' इति पाठः शुद्धः । श्रमावास्यां शनिः पौषे लोक शोककारः परः । दोषानशेषान संशोभ्य सुमितं कुरुते गुरु "Aho Shrutgyanam" Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमये (३७८) वारा: शनिकुजादिस्या भाविवर्षविनाशकाः ॥२३१॥ पौषे मूलममावस्यां वृष्टये लोकतुये । शन्यादित्यकुजास्तस्यां बहुलाभाय धान्यतः ॥ २१२|| पौषकृष्णदशम्यां स्वाद् विशाखा निशि वा दिवा । भावि वर्षेऽम्बुदः प्रौढ्योऽपरं पार्श्वजिनेश्वरः || २३३|| कुलके-पोसस्स पुन्निमाए णक्खत्त पूसयं सथल दिवसे । तो रस अन्न समग्धं होइ संवच्छरं जाब ॥२३४॥ पौषकृष्णप्रतिपदि रोहिण्या भोगसम्भवे । सप्तमासाद् धान्यलाभ छत्र मंगोऽथवाम्बुदः ॥ २३५॥ अथ माघमासः - माघायदिवसे वारो बुधो भवति चेत्तदा । मासत्रयं महर्ष स्याद्भावि वर्ष विनश्यति ॥ २३६ ॥ माघाऽसितस्य प्रनिए- द्वितीया वा तृतीयका । त्रुटिता धान्यसङ्ग्रहे लाभाय वणिजां मता ॥ २३७॥ पूर्वाषाढा तथा ज्येष्ठा नक्षत्र हो और शनि रवि या मंगलवार हो तो अगले वर्षका विनाश हो ॥२३१॥ पौष अमावस को मूल नक्षत्र हो और शनि वि. या मंगलवार हो तो वर्षा हो, लोक संतुष्ट हों और धान्य से बहुत लाभ हो ॥२३२॥ पौष कृष्ण दशमीको विशाखा नक्षत्र रात दिन हो सोह अगला वर्षका मेघ पुष्ट होता है, जैसे दूसरा श्री पार्श्वजिनेश्वर हो ॥ २३३ ॥ कुलक में कहा है कि- पौष पूर्णिमा को पुष्य नक्षत्र समस्त दिन हो तो वर्षभर रस और धान्य सस्ते हों ॥ २३४ ॥ पौष कृष्ण प्रतिपदा को रोहिणी नक्षत्र हो तो सात महीने धान्य से लाभ हो या छत्रभंग हो ॥ २३५॥ इति पौषमास ॥ यदि माघ मास की प्रतिपदा को बुधवार हो तो तीन महीने तेजी रहे और अगला वर्ष विनाश हो ॥ २३६ ॥ माघ कृष्ण प्रतिपद द्वितीया या "Aho Shrutgyanam" Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् ससम्यां सोमवारः स्थान्मांधे पक्षे सिते यदि । दुर्भिक्षं जायते रौद्रं विग्रहोऽपि च भूभुजाम् ॥२३८॥ मावस्यशुक्लसप्तम्यां+रविवारी भवेद्यादि । मुर्भिक्षं हि महाघोरं विवरं च महाभयम् ॥२६॥ माघमासप्रतिपदि शनि गः प्रशस्यते । सर्वत्र धान्यनिष्पत्ति-रारोग्यं देशस्वस्थता ॥२४०॥ चतुर्थी माघमासस्य शनिवारेण संयुता। दुर्भिक्षं मृत्युचौराग्नि-भयं धान्यविनाशनम् ॥२४१॥ माघे शुक्ल प्रतिपदि वारा जीवेन्दुभार्गवाः । सुभिक्षाय रणायार्कः कुजे स्युबहुधेतयः ॥२४२॥ मावे शुक्ले यदाष्टम्यां कृत्तिका यदि नो भवेत् । फाल्गुने रोलिकापातः श्रावणे वा न वर्षणम् ॥२४॥ माचे च शुक्लसप्तम्यां सोमवारे च रोहिणी । तृतीयाका क्षय हो तो धान्यका संग्रह करनेसे वैश्योंको लाभ हो ॥२३७॥ माघ शुक्ल सप्तमी सोमवार को हो तो बड़ा दुर्भिक्ष और राजाओंमें विग्रह हो ॥२३८॥ माघ शुक्ल सप्तमीको रविवार हो तो बड़ा घोर दुर्भिक्ष, विग्रह और बड़ा भय हो ॥२३६॥ माघ मासकी प्रतिपदाको शनिवार हो तो अच्छा हो सब प्रकार की धान्य प्राप्ति, आरोग्यता और देश सुखी हो ॥२४०॥ माध की चतुर्थी को शनिवार हो तो दुर्भिक्ष, मृत्यु, चोर और अग्नि का भय, और धान्य का विनाश हो ।। २४१ ।। माघ शुक्ल प्रतिपदा को बृहस्पति सोम या शुक्रवार हो तो सुभिक्ष होता है । रविवार हो तो युद्ध और मंगलवार हो तो बहुत ईति (चूहा टिड्डि आदि) का उपद्रव हो ।। २४२ ।। मावः शुक्ल अष्टमीको कृत्तिका नक्षत्र न हो तो फाल्गुन में रोलिका पात या श्रावण में वर्षा न हो ॥२४३।। माघ शुक्ल सप्तमीको रोहिणी नक्षत्र हो तो +टी-संवत् १७४३ वर्षे माघसितसप्तम्यां शनिः । "Aho Shrutgyanam" Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८०) मेयमहोदये राज्ञां युद्ध प्रजारोगोऽथवा वर्ष तु मध्यम एवं निमित्तादेकस्मान्नानाफलविमर्शनम् । सिद्धान्ताज्ज्योतिषान् न्यायात् सिद्धं वा वैद्यकादपि ।२४५॥ माघमासे च सप्तम्यां भरणी यदि जायते । रोगनाशस्तदा लोके वसुधा बहुधान्यभृत् ॥२४६॥ मावेन नवम्यां कृष्णायां मूलऋक्षे सगर्भता । भाद्रपदेऽपि नवमी-दिने जलदहेतवे ॥२५७॥ अथ फाल्गुनमास:--- फाल्गुने कृष्णषष्ठी चेचित्रानक्षत्रसंयुता। त्रिभिर्मासैः सुभिक्षाय स्वात्या कुर्भिक्षसाधनम् ॥२५॥ फाल्गुने च त्रयोदश्यां शुक्लायां यदि भार्गवः । ज्येष्ठे रोगाय नूनं स्याङ्गोगो मासत्रयेऽथवा ॥२४॥ एकादश्यां फाल्गुनेऽर्का-दाऱ्यावर्षविडम्बिनी। राजाओंका युद्ध, प्रजामें रोग या उत्तम वर्ष हो ॥२४४॥ इसी तरह एक ही निमित्त से अनेक प्रकार के फल विचार पूर्वक कहें ये सिद्धान्त से, ज्योतिषसे न्यायसे और वैद्यकसे सिद्ध है ॥२४५॥ माघ मास की सप्तमी को यदि भरणी नक्षत्र हो तो लोगों में रोगका नाश तथा पृथ्वी धान्य से बहुत पूर्ण हो ॥२४६॥ माघ कृष्ण नवमीको मूल नक्षत्र हो तो मेघ गर्भ हो इससे भाद्रपद नवमीको जलवर्षा हो ॥२४७॥ इति माघमासः।। " फाल्गुन कृष्ण षष्ठी को चित्रानक्षत्र हो तो तीन महीने सुभिक्ष हो और स्वातिनक्षत्र हो तो दुर्भिक्ष हो ॥२१८॥ फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी को शुक्रवार हो तो ज्येष्टमें रोग हो या तीसरे महीने मोग हो ॥२४॥ फाल्गुन एकादशीको रविवार युक्त आनक्षत्र हो तो तीन महीने वर्ष कष्ट *टी-नवमीदिने तथा मूलनक्षत्रदिने च रसगर्भयोमेइत्यर्थः । शुलादिमते सम्भवः। "Aho Shrutgyanam" Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३८१) त्रिभिर्मासै: सुभिक्षाय सोमवारादसौ जने ॥२५॥ फाल्गुने प्रथमे पक्षे वारुणं प्रतिपदिने । भोगानुसाराद्वर्षस्य स्वरूपं च प्ररूपयेत् ।।२५।। फाल्गुने कृत्तिकायुक्तं सप्तम्यादिकपञ्चकम् । श्वेतपक्षे सुभिक्षाय भाद्रे जलदवृष्टये ॥२५२॥ तिथिकुलकेफग्गुण पुष्णिमदिवसे पुब्बाफरगुणि हविन णक्खत्तं । चत्तारि वि पुहाओ ता चउरो माससुभिक्खं ॥२५३॥ बे पुहरा अव महाणक्खत्तं होइ कहवि देवाला। ता जाणह दुवे मासा होइ महग्धं ण संदेहो ॥२५४॥ अह पुण्णा तद्दिवसे होइ महारिक्खयं जया कहवि । सत्तारि विमासा खलु ता जाणह विडरं कालं ॥२५॥ मह पुण्णिम दो पुहरा पुव्वाफग्गुणी हविज णखत्तं । उवरिं उत्तरफग्गुणी दो पुहरा होइ जइ कहवि ॥२५॥ दायक हो और सोमवार युक्त हो तो मुभिक्ष हो !! २५० ॥ फाल्गुन के प्रथम पक्ष में प्रतिपदाको शतभिषा नक्षत्र हो तो उसके भोगानुसार वर्ष का स्वरूप जानना ॥ २५१ ॥ फाल्गुन शुक्ल में सप्तमी आदि पांच तिथिको कृत्तिका नक्षत्र हो तो मुभिक्ष होता है और भाद्रपद में वर्षा होती है ॥ २५२ ॥ तिथिकुलक में फाल्गुन पूर्णिमा का विचार इस तरह कहा है- फाल्गुन पुर्णिमाके दिन चारोंही प्रहर पुर्वाफाल्गुनी नक्षत्र हो तो चार महीने सुभिक्ष रहें ॥२५३॥ यदि दैवयोगसे दो प्रहर मघा नक्षत्र हो तो दो महीने म.गे हो इसमें सन्देह नहीं ॥२५.४|| यदि उस दिन मघानक्षत्र पूर्ण हो तो चारोंही महीने बड़ा काल हो ॥२५५॥ दो प्रहर प्रथम पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र हो और आगे दो प्रहर उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो तो पहले दो महीने मुभिक्ष और सुग्ख हो इसमें संदेह नहीं और पीछे के दो "Aho Shrutgyanam" Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८२) hearter ता पढमा दो मासा होइ सुभिक्खं सुहं न संदेहों । दो उवरि पुणो मासा सस्सविणासेण दुक्कालो || २५७॥ अहँ पहरा चउरो अहवा जइ होइ उत्तरा जोगो । सरसाणं ता हाणी रसाण तह तिलदग्वाणं ॥ २५८ ॥ में द्वादशपूर्णिमाविचार: त्रस्य पूर्णिमास्यां हि निर्मलं गगर्न शुभम् । तहिने ग्रहणं तारा-पात भूकम्पवृष्टयः ॥ २५९ ॥ रजोवृष्टिः परिवेषो विद्युत्केतृदयादिना । उत्पातेन च सङ्ग्राहां धान्यं धातुव्ययादितः ॥ २६० ॥ विक्रये सप्तमे मासे भाद्रे विगुणलाभदम् । वैशाख्यामीदृशे चिहे कार्पासस्य महर्घता ॥२३१॥ गोधूममुद्रमाषादेः सङ्ग्रहो लाभकारणम् । क्रियागुणत्वेन मासे भाद्रपदे भवेत् ॥ २३२॥ ज्येष्ठस्य पूर्णिमाऽनभ्रा शुभाय कथिता बुधैः । महीने में धान्यका विनाश होनेसे दुष्काल हो ॥ २५६-५७॥ आठ या चार प्रहर तक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो तो धान्य रस तिल आदि द्रव्य -इन का विनाश हो ॥२५८॥ इति फाल्गुनमासः ॥ , चैत्र मास की पूर्णिमा को आकाश निर्मल हो तो शुभ है, यदि उस दिन ग्रहण हो, तारा का पात, भूकंप, वृष्टि ॥ २५६ ॥ रज: (धूली) की वर्षा, चंद्रमाका परिवेष (घेरा) बिजली चमके और केतु का उदय, ऐसे उत्पात हो तो धातु आदि बेचकर धान्य का संग्रह करना उचित है | २६० ॥ इस को माद्रपद में या सातवें महीने बेचने से दूना लाभ हो । वैशाख पूर्णिमा को भी ऐसे चिह्न हो तो कपास महँगे हो ॥ २६९ ॥ गेहूँ मूंग उड़द आदि का संग्रह करने से लाभदायक है, भाद्रपद में दूने लाभसे वे ॥२६२॥. ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा स्वच्छ हो तो अच्छी है और वर्षा "Aho Shrutgyanam" Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३८३) कृष्टया वा परिवेषेण तस्यां धान्यस्य संग्रहः ॥२६३॥ तुर्ये मासेऽथवा पौषे लाभस्तस्यानविक्रयात् । प्राषाढी निर्मला नेष्टा बार्दलाच्छादिता शुभा ॥२६४॥ नैर्मल्याद्धान्यसायं पञ्चमे मासि लाभदम् । श्रावणी निर्मला श्रेष्ठा साभ्रत्वे घृतसङ्कहः ॥२६५॥ विक्रयाद घृततैलादे-र्लाभो मासे तृतीयके । पूर्णा भाद्रपदे साभ्रा शुभा धान्यस्य विक्रयात् ॥२६॥ प्राश्विनी निर्मला पूर्णा शुभाय वादलोदये। संगृाधान्यं विक्रेयं द्वितीये मासि लाभदम् ॥२६७॥ कार्तिक्यां वादलबलाद घृतधान्यादिसंग्रहः।। विक्रयः पञ्चमे मासे चैत्रे वा लाभदायकः ॥२६८॥ पूर्णिमा मार्गशीर्षस्य कार्तिकीव विभाव्यताम् । पौषी सवादला श्रेष्ठा धातुसंग्रहलाभदा ॥२६॥ या परिवेष (घेरा) हो तो धान्यका संग्रह करना ॥२६३॥ चौथे या पौष मासमें उसको बेचनेसे लाभ होगा । आषाढ पूर्णिमा निर्मल हो तो अशुभ और बादलसे आच्छादित हो तो शुभ है ॥२६४॥ यदि निर्मल हो तो धान्य का संग्रह करने से पांचवें महीने लाभदायक हो । श्रावण पूर्णिमा निर्मल हो तो श्रेष्ठ है, और बादल सहित हो तो घी का संग्रह करना ॥ २६५॥ घी और तेल तीसरे महीने बेचने से लाभ हो । भाद्रपद पूर्णिमा को बादल होतो शुभ है, धान्यको बेच देना चाहिये ॥२६६॥ आश्विन पूर्णिमा निर्मल हो तो अच्छा है, यदि बादल सहित हो तो धान्य का संग्रह कर दूसरे महीने बेचे तो लाभ हो ॥२६७॥ कार्तिक पूर्णिमा बादल सहित हो तो घी और धान्य का संग्रह करना, पांचवें महीने या चैत्रमासमें बेचे तो लाभदायक हो ॥ २६८ ॥ मार्गशीर पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमाकी तरह विचार लेना । पौष पूर्णिमाको बादल हो तो श्रेष्ठ है धातुका संग्रहसे लाभ "Aho Shrutgyanam" Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये साम्रायां माघपूर्णायां धान्यसङ्ग्रह इष्यते । विक्रेयः सप्तमे मासे तस्य लाभाय सम्भवेत् ॥२७०॥ फाल्गुनी पूर्णिमा साभ्रा सवृष्टिर्वा सगर्जिता । धान्यसङ्ग्रहणान्मासे सप्तमे लाभदायिनी ॥ २७९ ॥ वर्षादिनसंख्या चित्त अमावस दिवहि सुरगुरुवारेण चित्तमाईहिं । तह होइ चित्तवरिसा विसाहि अणुराह वइसाहा || २७२ ॥ जिट्ठा मूले जे पूसा उसा य गुरु य आसाढे । सवण घट्ठिा सर्याभिसि होइ तहा सावणे वरिसा | २७३॥ पूभा उभा य रेवइ भद्दवमासे सुहाइ तह वरिला । अस्सणि असणि भरणीइ कत्तिय रोहिणी य कत्तिए । २७४ (३८४) हो ॥ २६६ ॥ मात्र मासकी पूर्णिमाको बादल हो तो धान्यका संग्रह करना, सातवें महीने बेचने से लाभ हो ॥ २७० ॥ फाल्गुन पूर्णिमा बादल वर्षा और गर्जना सहित हो तो धान्य का संग्रह करनेसे सातवें महीने लाभ हो ॥२७१ ॥ इति द्वादशपूर्णिमा विचारः ॥ चैत्र मास में अमावस के दिन या चित्रा या स्वाति नक्षत्र के दिन गुरुवार हो तो चित्र ( अच्छी ) वर्षा हो । इस तरह वैशाख में वि या अनुरावा । ज्येष्ठ में ज्येष्ठा या मूल | आषाढ में पूर्वाषाढा या षाढा | श्रावण में श्रवण, धनिष्ठा या शतभिषा । भाद्रपद में पूर्वाभाद्रपद उत्तराभाद्रपद या रेवती । आश्विन में अश्विनी या भरणी । कात्तिकमें कृत्तिका या रोहिणी | मार्गशीर्ष में मृगशीर्ष, आर्द्रा या पुनर्वसु । पौष में पुष्य या *टी-श्रीहीरसूरयः प्राहु:- माही पूनिम निरमली, तो सुहंगो आषाढ । कण वेची पोतो करे, व्याजे दाम में काढ ॥ १॥ अन्यत्रापि - पूनम माही निरसली, अन्न सुहंगो अठमास । जिण पुहरे वादल हुवे, अन्न ॥२॥ '॥३॥. "Aho Shrutgyanam" Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथिफलकथनम् (३८५) मिग हा य पुणन्वसु वह वरिसा मिगसिरमासे । पुस्स असलेस सुरगुरु बरिसा संभवइ तह पोसे ||२७५ || माहे महासु वरिसा पुष्का उष्फाय हस्थिफरगुणए । वरिसाए इय नाणं भगियं गणहारिहीरेगा ॥ २७६ ॥ गिरधरानन्दे ऽकालवर्षाफलम् -- पौषादिचतुरो मासान् वृष्टिः प्रोक्ता त्वकालजा । गर्भयोगं विना नेष्टा नृनं पशुपदाङ्किता ||२७७|| यावन्नाकालसम्भूतै विद्युद्गर्जितवर्षणैः । त्रिविधेरपि चोत्पातै वृष्टेरासप्तरात्रतः ॥ २७८ ॥ पौषे दिनत्रयं वर्ज्य मावे त्वात्ययिके द्वयम् । फाल्गुने दिनमेकं तु चैत्रे तु घटिकाद्वयम् ॥ २७६ ॥ श्रीहीरसूरिकृत मेघमालायाम्- माहाइ तिन्नि वासर फग्गुगादिाजुयलं चित्तदिणमेगं । आश्लेषा | माघ में मघा । फाल्गुन में पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी या हस्त इन प्रत्येक मास के नक्षत्र के दिन अथवा अमावस के दिन गुरुवार हो तो वर्षा अच्छी हो । ऐसा ज्ञान जगद्गुरु गच्छाधिपति श्री होर विनयने कहा है । २७२ से २७६॥ पौष आदि चार महीनों में गर्भकारक योगों के दिन को छोड़कर दूसरे समय पशुओं के चरण अंकित हो जाय ऐसी वर्षा हो तो अकाल वर्षा कही जाती है यह अनिष्टकारक है || २७७ ॥ बिजली गर्जना और वर्षा ये तीन प्रकार के दृष्टि के उत्पातों से सात रात्रि तक कुछ भी ( शुभकार्य ) न करे ॥ २७८ ॥ पौष में तीन दिन, माघ में दो दिन, फाल्गुनमें एक दिन और चैत्रमें दो घड़ी वर्षा आदि उत्पात होने के पीछे त्याग दें ॥ २७६॥ माघ में तीन दिन, फाल्गुन में दो दिन चैत्रमें एक दिन, वैशाखमें दो > શ્ "Aho Shrutgyanam" Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) मेघमहोदये पहरदुगं वइसाहे जिडेगं अह आसाहे ॥२८॥ इत्थं तिथीनां कथिता यथार्हा, कथा यथार्था वितथा न किञ्चित् । सम्यग्वरं वर्तनकं विमृश्य, वर्षस्य वाच्यं सुधिया स्वरूपम् ॥२८॥ इति श्रीमेघमहोदयसाधने वर्षप्रयोधे महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते तिथिफलकथनो नाम नवमोऽधिकारः॥ अथ सूर्यचारकथनो नाम दशमोऽधिकारः । संक्रान्तिविचारफलम् ---- अथादित्यगत्याधिगत्यान्दरूपं, यथाप्राप्तरूपैयरूपि स्वमत्या। तथा ब्रूमहे भूमहेशानतुष्ट थे, क्रमात् संक्रमाजन्यधान्यादिवार्ताम् ॥१॥ प्रहर, ज्येष्ठमें एक प्रहर और आषाढमें अर्द्ध प्रहर, इतने मासों में इतने समय ही वर्षा होकर रह जावे तो वह अकाल वर्षा क हीजाती है ॥२८॥ इसी प्रकार यथायोग कुछ भी असत्य नहीं ऐसी सत्य तिथियों की कथा कही । इसका अच्छी तरह विचार करके विद्वानों को वर्षका स्वरूप कहना चाहिये ।। २८१ ॥ सौराटाटान्तर्गत पादलितपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्यजैनेन विचितया मेवमहोइये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितो तिथिकल कथननामा नवमोऽधिकारः । अब सूर्यकी गतिका ज्ञानसे वर्षका स्वरूप जैसा प्राचीन आचार्यों ने अपनी बुद्रिके अनुसार बनाया है, वैसा सूर्य मेषादि राशि पर संक्रमसे उत्पन्न होने वाले धान्य आदि का फलकथन राजाओं की प्रसन्नता के लिये "Aho Shrutgyanam" Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यधारकथनम् संक्रान्तिसंज्ञावारफलम्--- घोरार्कवारे ऋरः ध्वांक्षीन्दौ क्षिप्रसंज्ञकैः । महोदरी चरैभौंमे मैत्रे मन्दाकिनी बुधे !॥२॥ धिष्ण्यधुवैर्गुरौ मन्दा भृगौ मिश्रा तु मिश्रभैः। राक्षसी दारुणैर्मन्दे संक्रान्तिः क्रमतोरवेः ॥३॥ शूद्रान् वैश्यांस्तथा चौरान भूपान् द्विजान् पशूनपि । म्लेच्छानानन्दयन्त्येते घोराद्या रविसंक्रमाः ॥४॥ रचौ रसस्य धान्यस्य पीडा सोमे सुभिक्षता। कुजे गोधनकष्टं स्याद बुधे रसमहर्षता ॥५॥ गुरौ सर्वशुभं शुक्रे गजादिवाहनक्षयः । शनौ सर्वरसाल्पत्वं संक्रान्तौ वारजं फलम् ॥६॥ चन्द्रमण्डले संक्रान्तिफलम्--- कहता हूँ ॥ १ ॥ क्रूरसंज्ञक नक्षत्र और रविवार को सूर्य संक्रांति हो तो घोरा नामकी संक्रांति कही जाती है । वैसें क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्र और सोमवारको संक्रांति हो तो ध्वांक्षी । चरसंज्ञक नक्षत्र और मंगलवार को महोदरी नामकी संक्रांति। मैत्रसंज्ञक नक्षत्र और बुधवारको मन्दाकिनी नामकी संक्रांति होती है ॥२॥ ध्रुवसंज्ञकनक्षत्र और गुरुवारको भन्दा नामकी, मिश्रसंज्ञकनक्षत्र और शुक्रवार को मिश्रा, दारुणसंज्ञक नक्षत्र और शनिवार को राक्षसी नामक संक्रांति होती है ॥३॥ उपरोक्त घोरा आदि सूर्य संक्रांति अनुक्रमसे-- शूद्र, वैश्य, चोर, राजा, ब्राह्मण, पशु और म्लेच्छ इनको मुखदायक होती हैं ॥४॥ सूर्यसंक्रांति रविवारको हो तो रस और धान्य का कष्ट, सोमवारको हो तो सुभिक्ष, मंगलवारको हो तो गौ आदिको कष्ट, बुधवारको हो तो रस महंगे हो ॥५॥ गुरुवार को हो तो समस्त शुभ, शुक्रवार को हो तो हाथी आदि वाहनों का नाश और शनिवार को हो तो समस्त रसकी अल्पता हो॥६॥ "Aho Shrutgyanam" Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये (३८८) संक्रान्ति दिवसे चन्द्रो दुर्भिक्षायाग्निमण्डले । वायौ चन्द्रे चौरभय-मथवा धान्यसंक्षयः ||७|| माहेन्द्रमण्डले चन्द्रे महावर्षा प्रजारुजः । वारुणे मण्डले चन्द्रे वृष्टिः क्षेमं प्रजासुखम् ||८|| दिनरात्रिविभागेन संक्रान्तिफलम् - पूर्वाह्णे भूपपीडायै मध्याह्ने द्विजजातिषु । वणिजामपराह्णे च संक्रान्तिर्दुःखदायिनी ॥ ६ ॥ अस्तप्राप्तौ च शूद्राणां गोपानामुदये रवेः । लिङ्गिवर्गस्य सन्ध्यायां पिशाचानां प्रदोषके ||१०|| नक्तंचरेष्वर्द्धरात्रेऽपररात्रे नटादिषु । रोगमृत्यु विनाशाय जायते रविसंक्रमः ॥११॥ कीदृशरवेः संक्रमस्तत्फलम् - सुप्तसंक्रमते नागे तैतिले वा चतुष्पदे । सूर्य संक्रांति दिन चन्द्रमा अग्निमण्डल में हो तो दुर्भिक्ष; वायुमण्डल में हो तो चोरका भय या धान्यका विनाश हो || ७ || माहेन्द्र मंडल में चंद्र हो सो बड़ी वर्षा हो और प्रजा में रोग हो । वारुणमंडल में चंद्रमा हो तो अच्छी वर्षा, मंगल और प्रजा सुखी हो ॥८॥ दिनके पहले भाग में संक्रांति हो तो राजाओं को पीडा, मध्याह्न में हो तो ब्राह्मणोंको और दिनके पीछला भाग में हो तो वैश्यों को दुःखदायक होती है ॥६॥ सूर्यास्त समय हो तो शूद्रोंको, सूर्योदय में हो तो पशुपालक (गोवाल ) को, संध्या समय हो तो लिंगीजन ( पाखंडी ) को और प्रदीप समय हो तो पिशाचोंको कष्ट करें ॥ १० ॥ अर्द्धरात्रि में हो तो राक्षसों को और पीछली रात्रि में हो तो नट आदिको रोग-मरण- विनाश करती है ॥ ११ ॥ नाग, तैतिल और चतुष्पद करण में सुप्त संक्रांति है । वाणिज, वृष्टि, बालब, गर और बव करण में बैठी संक्रांति होती है | शकुनि किंस्तुघ्न " Aho Shrutgyanam" Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् निविष्टो वाणिजे विष्टयां बालवे वा गरे बवे ॥१२॥ ऊवस्थितः स्थाच्छकुनौ किंस्तुन्ने कौलवे रविः । जघन्यमध्योत्कृष्टत्वं धान्यार्थवृष्टिषु क्रमात् ॥१३॥ संक्रान्तिमुहूर्तविचार: भेषु क्षणान् पञ्चदशेन्द्ररौद्र___ वायव्यसान्तकवारुणेषु । त्रिवान् विशाखादितिभध्रुवेषु, शेषेषु तु त्रिंशतमामनन्ति ॥१४॥ हीने मुहूर्तमे हीनं सम साम्येऽधिकेऽधिकम् । संक्रान्तिदिनभं ज्ञात्वा बुधो बक्ति शुभाशुभम् ॥१५॥ मृगकर्काजगोमीन-संक्रान्तिनिशि सौख्यदा । शेषाः सप्तदिने श्रेष्ठा अशुभाय विपर्ययः ॥१६॥ करण में रवि हो तो ऊर्च ( खड़ी) संक्रांति होती हैं ये तीन प्रकार की संक्रांति अनुक्रम से जघन्य मध्यम और उत्तम है; ये धान्य मूल वर्षा के लिये फलदायक है -१२-१३॥ ज्येष्ठा, आर्दा, स्वाति, आश्लेषा, भरणी और शतभिषा ये छह नक्षत्र पंद्रह मुह वाले हैं । विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा और रोहिणी ये छह नक्षत्र ४५ पैतालीस मुहर्तवाले हैं, और बाकी के- अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा और रेवती ये पंद्रह नक्षत्र तीस ३० मुहूत्र्तवाले हैं ॥ १४ ॥ हीन याने पंद्रह मुहर्त्तवाले नक्षत्रों में हीन, समान मुहूर्तावाले नक्षत्रोंमें समान और अधिक मुहवाले नक्षत्रों में अधिक ऐसा संक्रांतिदिनके नक्षत्रको जानकर पंडित शुभाशुभको कहें ।। १५ ॥ मकर, कर्क, मेष, वृष और मीन ये पांच संक्रांति रात्रि में हो तो सुखदायक हैं और बाकी सात संक्रांति दिनमें हो तो श्रेष्ठ "Aho Shrutgyanam" Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये संक्रान्तिर्जायते यत्र भास्करारशनैश्वरे । तस्मिन्मासे भयं घोरं दुर्भिक्षं दृष्टिचौरजम् ॥१७॥ ऊर्ध्वस्थितः सुभिक्षं करोति मध्ये फलं निविष्टस्तु । शयितो भानुरवृष्टिं दुर्भिक्षं तस्करभयं च ॥ १८ ॥ संक्रान्तीनां वाहनादीनि- (३९०) सिंहव्याघ्रौ शुकर खरगजमहिषा हयाश्वमेषवृषाः । कुर्कुट एवं वाहनमर्कस्य यवादिकरणबलात् ॥ १६ ॥ मतान्तरे - गजो बाजी वृषो मेषो खरोष्ट्रसिंहवाहनाः । भानोर्थवादिकरणे शेषे शकटवाहनः ||२०|| सितपीतनीलपाण्डुर- रक्तासितधवल चित्रवन्त्रधरः । कम्बलवान् नग्नोऽर्कः कृष्णांशुकमृद्धवादौ स्यात् ॥ २१ ॥ हैं, परन्तु इससे विपरीत हो तो अशुभ जानना ॥ १६ ॥ रवि, मंगल और शनिवार को संक्रांति हो तो उस महीने में चोरोंसे भय और वर्षा से दुर्भिक्ष हो ॥ १७ ॥ ऊर्ध्व स्थित (खड़ी) संक्रांति सुभिक्ष करती है । बैठी संक्रांति मध्यम फलदायक है और सुप्त संक्रांति अनावृष्टि, दुर्भिक्ष और चोरों का भदायक है || १८॥ बवादि सात चरकरण और शकुनि आदि चार स्थिरकरण ये ग्यारह करणके योगसे संक्रांतिके वाहन, वस्त्र, भोजन, विलेपन, आयुध, जाति, पुष्प आदि अनुक्रमसे जानना चाहिये । संक्रांति वाहन सिंह, व्याघ्र, वराह, गर्दन, हाथी, भैंसा, घोडा, कुत्ता, बकरा, वृष ( गौ), कूकडा ये ग्यारह वाहन हैं ॥ १६ ॥ मतान्तर से- हाथी, घोडा, बेल, बकरा, गर्दभ, ऊंट, सिंह और बाकी के सबको शकट ( गाड़ी) का वाहन हैं ॥ २० ॥ संक्रांति वस्त्र- श्वेत, पीला, हरा, पांडुर, लाल, कृष्ण, कज्जलवर्ण, अनेकवर्ण, कम्बल, नग्न और घनवर्ण ये ग्यारह वस्त्र हैं ॥२१॥ -- "Aho Shrutgyanam" Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् (३९.१) अोदनपायसभैक्षक-पक्कानं दुग्धधिविचित्रानम् । गुडमधुरसखण्डानां भक्ष्याणि रवेधादौ स्युः ॥२२॥ कस्तुरीकाश्मीरजचन्दनमृद्रोचनाख्यालक्तरसः । जवादि (रस) निशाकजलकृष्णागुरुचन्द्रलेपोऽर्के ॥२३॥ भृकुण्डीगदाखड्गदण्डं धनुश्च, रवेस्तोमरः कुन्तपाशांकुशास्त्रम्। असिर्वाण एवं बवायायुधानि, क्रमात्मक्रमस्याहि बोध्यानि धीरैः देवनागभूतपक्षिपशवो मृगसूकराः (भूसुराः)। राजन्यवैश्यशुद्राख्या जातयो वर्णसङ्करः ॥२५।। पुन्नागजातीफलकेसराख्या, श्रीकेतकं दौर्विकमर्कबिल्वे । स्यान्मालतीपाटलिका जपा च, जातिः क्रमात् संक्रमणेऽर्कः पुष्पम् ॥२६॥ ग्रन्थान्तरे तु-विष्टयां चतुष्पदे व्याघ्र महिषे नागतैतिले । संक्रांति भाजन- भात, पायस (दूब की मीठाई), भिक्षा (घर २ भिक्षा मांगना), पकांन्न (मालपूआ आदि), दूध, दही, विचित्र अन्न, गुड, मध, घी और सक्कर ये ग्यारह भोजन हैं ॥२२॥ ____ संक्रांति विलेपन- कस्तूरी, कुंकुम, चंदन, मट्टी, गोरोचन, अलक्त रस, मार्जारमद, हलदर, कजल, कालागुरु और कर्पूर ये ग्या ह विलेपन संक्रांतिके आयुध-- भूशुंडी, गदा, खड्ग, दंड, धनुष, तोमर, कुंस, पाश, अंकुश, तलवार, और बाण ये ग्यारह शस्त्र है ॥२४॥ संक्रांति जाति- देव, नाग, भूत, पक्षी, मृग, शूकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और वर्णसंकर ये ग्यारह जाति हैं ॥२५॥ संक्रांति पुष्य- नागकेसर, जायफल, केसर, कमल, केतकी, दूर्वा, अर्क, बिला, मालती पाडलि, और जपा ये ग्यारह पुष्प हैं ॥ २६ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९२) मेघमहोदये बघे गरे गजारूढो बालवे षणिजे वृषे ॥२७॥ किंस्तुन्ने शकुनी जातौ कौलवे करणे तथा। भास्वानश्वाधिरूढः स्यात् तमसामुपशामने ॥२८॥ संक्रान्तिफलम् ----- गजेस्वस्था मही मेधै-महिषे मृत्युमादिशेत् । अश्वारोहे महायुद्धं वृषभे बहुधान्यता ॥२६॥ सिंहे महर्घमन्नं स्यादेशे चौरभयं महत् । एवं वस्त्रादयो भावा भावनीया दिशाऽनया ॥३०॥ त्रैलोक्यदीपके-धारे चतुर्थे यदि पञ्चमे वा, धिष्ण्ये तृतीये यदि पञ्चमे वा । पूर्वक्रमात् संक्रमते यदार्क स्तदा च दौस्थ्यं नृपविड्वरं च ॥३१॥ संकान्तिधिष्ण्याचदि षष्ठसंख्ये,जायेत धिष्ण्ये रविसंक्रमश्चेत् । सदापि दौस्थ्यं नृपविड्वरश्च, त्रिभागतुच्छा भवतीह भूमिः॥ प्रथान्तर- विष्टि और चतुष्पद करणमें व्याघ्र, नाग और तैतिल करणमें महिष, बव और गर करण में हाथी, बालव और वणिज करण में वृष, ये वाहन हैं ॥ २७ ॥ किंस्तुन्न, शकुनि तथा कौलव करणमें अंधकार को नाश करने वाले सूर्यका अश्व वाहन है ॥२८॥ ___ संक्रांति का हाथी बाहन हो तो पृथ्वी वर्षा से सुखमय हो । महिष वाहन हो तो मरण, घोड़े का वाहन हो तो बड़ा युद्ध, वृषभ वाहन हो तो धान्य बहुत ॥२६॥ सिंह वाहनसे अनाज महँगे हो और देशमें चोर का बड़ा भय हो । इसी तरह वस्त्र आदिका भी विचार कर लेना ॥३०॥ प्रथम सूर्य संक्रान्तिसे दूसरी सूर्य संक्रान्ति यदि चौधा या पांचवां वार में तथा तीसरा या पांचवां नक्षत्र में प्रवेश हो तो दुःख और राजाओं का विप्लव हो ॥३१॥ छ नक्षत्रमें संक्रमण हो तो भी दुःख और राजाओं का "Aho Shrutgyanam" Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् तुर्ये धिष्ण्ये च पूर्वस्माद् यदि वारे तृतीयके । संक्रमो निशि सूर्य य सुभिक्षं स्यात् तदोत्तमम् ||३३|| लोके तु जिणवारे रविस्त्र मे, तिथी चउथे वार ! अशुभ फेडी शुभ करे, जोसी खरुं विचार ||३४|| पांचा होह करवरो, तिहु रस मुहंघो होय | जो आवे दो छठडे, पृथिवी परलय जोय ॥ ३५ ॥ बीजे श्रीजे पांचमे, रवि संचारो होय । खप्पर हत्थी जग भमे, जीवे चिरलो कोय ॥३६॥ सूर्यस्यान्यग्रहाणां वा गुरुभेऽभ्युदयास्तकौ । शशिष्टौ सुभिक्षं स्याद् दुर्भिक्षं लघुभे पुनः ॥ ३७॥ तिथिदिनोडुलझाना मायकराटे रविस्थितौ । सुभिक्षं जायतेऽवश्यं दुर्भिक्षं तु त्रिकण्टके ||३८|| (३९३) विप्लव हो और पृथ्वीपर मनुष्य तृतीयांश रह जाय ||३२|| यदि चौथा नक्षक्षेत्र और तीसरा वार में रात्रि के समय सूर्यसंक्रान्ति हो तो अच्छा सुभिक्ष हो ॥ ३३ ॥ लोक भाषा में बोलते है कि — जिस वार में पूर्वकी संक्रांति हो उससे चौथे वार में यदि दूसरी संक्रांति हो तो अशुभ को दूर करके शुभ फल करें ॥ ३४ ॥ यदि पाचवां वारमें प्रवेश हो तो करवरा हो । तीसरे वार में प्रवेश हो तो रस महँगा हो । छड्डे वार में प्रवेश हो तो पृथ्वी प्रलय हो याने बहुत से प्राणी मृत्यु प्राप्त हो || ३५ || दूसरे तीसरे या पांचवें वार में सूर्यसंक्रांति हो तो मनुष्य भीक्षा के लिये खप्पड़ लेकर घूमे याने बड़ा दुष्काल हो जिससे बहुत से प्राणियों का विनाश हो || ३६ || सूर्य या दूसरें ग्रह गुरु ( बृहत् ) नक्षत्र पर उदय हो या अस्त हो और उस पर मा की दृष्टि हो तो मुभिक्ष होता है और लघुसंज्ञक नक्षत्र पर हो तो दुभि होता है ॥ ३७ ॥ तिथि वार नक्षत्र और लग्न इन के पाद्य भागमें हो तो सुभिक्ष होता है और अन्त्यभाग में हो तो दुर्भिक्ष हो ॥ ५० " Aho Shrutgyanam" Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये मित्रस्वगृहतुङ्गस्थः शुभदृष्टयुतो रविः । पूर्वचन्द्रे महाधिष्ण्ये पूर्वसंक्रान्तितुर्यके ॥३६॥ तृतीयवारसम्बद्धः सुभिक्षः क्षेमदः स्मृतः । सुप्तोऽरिभे युतो दृष्टो विद्धः ऋरैस्तु नीचगा ॥४॥ अघकाण्डे संक्रान्तिऋक्ष नयनैश्च वेदैः, सौख्यं मुभिक्षं भवतीह भानोः। मध्यं हि सौख्यंसह जेषुकुर्याद,दुर्भिक्षपीडाऋतुषाणभेषा४१॥ तुच्छे मुहूर्तसंक्रान्तः पूर्वस्मात् त्रिकपञ्चके । ३८ ॥ मित्रराशि का, अपनी राशि का, या उच्च राशि का सूर्य शुभग्रह . से दृष्ट हो या युक्त हो और पूर्व संक्रांति के चन्द्र नक्षत्र से चौथे नक्षत्रमें और तीसरे वारमें संक्रमण हो तो सुभिक्ष और कल्याण करनेवाला होता है । यदि सूर्य उस समय सुप्त हो, शत्रुकी राशिका हो, कर ग्रहों से दृष्ट युक्त या वेधित हो, या नीचका हो तो अशुभ होता है ॥३६-४०॥ पूर्व संक्रांतिके नक्षत्रसे दूसरी संक्रांति दूसरे या चौथे नक्षत्रमें हो तो सुख और सुमित होता है । तीसरे नक्षत्रमें मध्यम मुख, पांचवे या छट्टे नक्षत्र में हो तो दुर्भिक्ष और दुःख हो ॥४१॥ पन्द्रह मुहर्तकी संक्रांति हो परंतु पूर्वकी संक्रांतिसे त्रिक या चकनक्षत्र *हो तो धान्यादि सस्ते हों। *टी- स्वात्याद्यष्टकमश्विन्यादित्रयं त्रिकसंझम्, मृगादिवशकं धनिष्ठापञ्चकमिदं पश्चकसंशम् । सर्वनक्षत्रमध्यस्था रोहिणीतत्रिकपके किन्तु सोम्ययोगे शुभा। ऋरयोगेऽशुभा इत्यर्थः । * देखो मेरा अनुवादित श्री हेमप्रभसूरिकत त्रैलोक्यप्रकाशः स्वात्याद्यष्टकसंयुक्तमश्विन्यादित्रयं पुनः। त्रिकसझं बुधर्वाच्यमघंकाण्डविशारदैः॥१॥ मृगादिदशकं चापि धनिष्ठा पञ्चसंयुतम् । पञ्चक नामकं ज्ञेयमनिर्णयहेतुकम् ॥२॥ अर्धकाण्ड में विशारद पण्डितों ने स्वाति आदि पाठ नक्षत्र और अश्विनी मादि तीन नपात्र ये ग्यारह नक्षत्रकी त्रिकसं कही है। तथा मृगशीर्ष प्रादि दशः नत्र और "Aho Shrutgyanam" Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् (३९५) समयमय दुर्भिदं चित्राद्यष्टसु दुःखदम् ॥४२॥ कर्णादौ धिष्ण्यदशके सुभिक्षं सततं भवेत् । अमावास्या हि नक्षत्रं विमृश्य फलमादिशेत् ॥४३॥ संक्रान्तेः सप्तमे चन्द्रे कर्तव्यो धान्यसङ्ग्रहः । हिमास्यां द्विगुणो लाभ-स्तदूर्ध्वं च विनश्यति ॥४४॥ बृहरक्षेषु जायन्ते द्वादशाप्यत्र संक्रमाः ! तत्र वर्षे समग्रेऽपि शुभकालो भवेद् ध्रुवम् ॥४५॥ ऊर्ध्व संक्रमणे मित्रे शुभयुक्ते च पूर्वकात् । त्रिवारे तूर्यके धिष्ण्ये बृहक्षेऽर्कसंक्रमः ॥४६॥ यदा भवेत् तदा वाच्यं सुभिक्षं सततं क्षितौ । रात्रौ सुप्ते च सकूरे पापविद्धेक्षितेऽपि वा ॥४७॥ पूर्वात् तृतीयपश्चः लघुभे यदि संक्रमः । तदा भवेन्महल्लोके दुर्भिक्षं कष्टकारकम् ॥४८॥ चित्रादि आठ नक्षत्रोंमें संक्रमण हो तो दुर्भिक्ष हो ॥४२॥ और श्रवणादि दश नक्षत्रों में संक्रमण हो तो हमेशा सुभिक्ष होता है ॥४३॥ संक्रांति से चंद्रमा सातवां हो तो धान्यका संग्रह करना चाहिये, दो महीने दुगुना लाभ हो और सातवैसे अधिक हो तो धान्यका विनाश हो ॥४४॥ यदि बारोंही सूर्यसंक्रांतियें जिस वर्ष में बृहत्संज्ञक नक्षत्रों में संक्रमण हो तो उस वर्ष में निश्वयसे सुभिक्ष होता है ॥४५॥ ऊर्ध्वसंज्ञक संक्रांतिमें सूर्य शुभ ग्रहसे युक्त हो तथा पूर्वकी संक्रांतिसे तीसरा या पांचवां बृहत्संज्ञक नक्षत्रमें संक्रमण हो ॥४६॥ तो पृथ्वी पर निरंतर मुभिक्ष होता है । रात्रि में सुप्त संक्रांति कूर प्रहसे युक्त हो, वेधित हो या दृष् हो ॥४७॥ तथा प्रथम संक्रांतिसे तीसरा पांचवां लघुसंज्ञक नक्षत्र में संक्रमण होतो जगत् में दुःख देनेवाला ऐसा दुर्भिक्ष धनिष्टा प्रादि पांच नक्षत्र ये पंद्रह नक्षत्रोंकी पंचकसंज्ञा कही है । यह वस्तुओंका अर्घ (मूल्य) का निर्णय के लिये बहुंत उपयोगी है। "Aho Shrutgyanam" Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ haratee (३९६) महर्क्षे मिश्रसंयुक्तेऽप्युपविष्टेऽपि संक्रमः । अर्धसाम्यं तदा वाच्यं सूर्यसंक्रान्तिलक्षणैः ॥४९॥ यदा धनुषि मार्त्तण्ड: संक्रामति तदा विधुः । चिलोक्यते बृहद्विषये किं मध्ये किं जघन्यके ॥५०॥ उत्तम सुभिक्षं स्यान्मध्यमे समता मता । जघन्येषु महर्चे स्यादेवं संक्रमणात् फलम् ॥५१॥ वेद याति मेषादौ विधौ सप्तमराशिगे । त्रिद्वयेकषट्शराम्भोधिमासेष्वधः क्रमाद्भवेत् ||५२|| मेषे रवौ तुलाचन्द्रः षण्मासे धान्यलाभदः । वृषेऽर्के वृश्चिके चन्द्रस्तुर्यमासेऽन्नलाभदः ||५३ || मिथुनेsh धनुञ्चन्द्रस्तिलतैलान्नसङ्ग्रहात् । मासैश्चतुर्भिर्लाभाय सकुरैश्चेन्न विद्वयते ॥५४॥ हो ॥ ४८ ॥ यदि उपविष्ट (बैठी हुई) संक्रांति बृहत्संज्ञक या मिश्रसंज्ञक नक्षत्र में हो तो सूर्य संक्रांति के लक्षणोंसे मूल्यका समान भाव कहना ॥ ४६ ॥ जब धनसंक्रांति हो उस दिन चन्द्रमा का विचार करना चाहिये कि बृहसंज्ञक मध्यसंज्ञक या जवन्यसंज्ञक नक्षत्रों में है ॥ ५० ॥ यदि बृहत्संज्ञक नक्षत्रों में हो तो सुभिक्ष, मध्यम संज्ञक नक्षत्रों में हो तो मध्यम (समान) और जघन्य• संज्ञक नक्षत्रों में हो तो महँगे फल कहना ॥ ५१ ॥ जब सूर्य मेषादि राशियों में प्रवेश होतच चन्द्रमा सक्षम राशि पर हो तो क्रम से तीन, दो, एक, छह, पांच और चार महीनों में धान्यादिकी महता हो ॥५२॥ मेष संक्रांति दिन तुलाका चन्द्रामा हो तो छड़े महीने धान्यका लाभ हो । वृषकी संक्रांति के दिन वृश्चिकका चन्द्रमा हो तो चौथे महीने अनका लाभ हो ॥ ५३ ॥ मिथुन संक्रांति के दिन धनका चन्द्रमा हो तो तिल तेल तथा अन्नका संग्रह करने से चौथे महीने लाभ हो, परंतु कूरग्रहसे वे - वित हो तो लाभ न हो ॥ ५४ ॥ कर्कसंक्रांतिको मकर का चन्द्रमा हो तो " Aho Shrutgyanam" Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यधारकथनम् कर्केऽर्के मकरे चन्द्रो दुर्भिक्षं कुरुते जने। घोरं यावश्चतुर्मासी दासीकृतधनेश्वरः ॥५५॥ षण्मासाद्विगुणो लाभः सिंहेऽर्के कुम्भचन्द्रतः। मीनेन्मुक्ति कन्या: छत्रभङ्गेन विग्रहम् ॥५६।। तुलार्के चन्द्रमा मेषे पश्चमे मासि लाभदः। वृश्चिकेऽर्के वृषे चन्द्रे तिलतेलान्नसङ्कहः ॥५७॥ प्रदत्ते द्विगुणं लाभ धान्यं मासयान्तरे । मिथुनेन्दुधनुष्यर्के पश्चमामान्नलाभदः ॥५८॥ कर्णसघृतसूत्रादेः पञ्चमे मासि लाभदः । मृगेऽर्के ककशीतांशुः पांसुलानां विनाशकः ॥५९॥ सिंहेन्दुः कुम्भभानौ चेत् तुर्ये मासेऽनलाभदः । *कन्याचन्द्रोऽपि मीनेऽर्के तादृशो धान्यसङ्कहात् ॥६॥ यदिने यार्कसक्रान्त्रिस्नद्राशौ नदिने शशी।। चार महीन तक लाकम दुर्भिक्ष कर, धनवान् भी दासा भाव धारण करें । ५५ ॥सिंहसंक्रातिको कुंभका. चन्द्रमा हो तो छह महीने दूना, लाभ हो । कन्यारक तिको मीनका चन्द्रमा हो तो छत्रभंग और विग्रह. हो ॥५६॥ तुलासंक्रति को मेषका चन्द्रा हो तो पांचवें महीने लाभ हो । वृश्चिकसक्रांति को वृषका च द्रा हो तो तिल तेल तथा अन्न का संग्रह करना उचित है ॥५७॥ इससे दो महीने बाद दूना लाभ हो । धनसंक्रांति को मिथुनका चन्द्रमा हो तो पांचवें महीने में अन्नसे लाभ हो ॥५६॥ और कपास, घी, सत आदि से पांचवें महीने लाभ हो । मकर की संक्रांति को कर्कका चन्द्रमा हो सो कुलटाओंका विनाश हो ॥ ५९॥ कुंमसंक्रांति को सिंहका चन्द्रमा हो तो चौथे महीने अन्नसे लाभ हो । मीनकी संक्रांति को कन्याका चंद्रमा हो तो धान्यका संग्रह करना चाहिये ॥ ६ ॥ *टी-कन्या...मोनेस्यायादिचन्द्रमाः । सर्वधान्यसंग्रहेगा लाभ: पंचगुणा कमात् ॥१॥ "Aho Shrutgyanam" Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९४) मेवमहोदय जन्मवेधादयं नेष्टः श्रेष्ठः स्वसुहृदो गृहे ॥६॥ यस्मिन् वारेऽस्ति संक्रान्तिस्तत्रैवामावसी तिथिः । लोके स्वर्परयोगोऽयं जीवाद्धान्याद्विनाशकः ॥२॥ शनिः स्यादाद्यसंक्रान्तौ द्वितीयायां प्रभाकरः। तृतीयायां कुजे योगः खप्पराख्योऽतिकष्टकृत् ॥६॥ स्यात् कार्तिके वृश्चिकसंक्रमाहे, सूर्ये महर्घ भुवि शुक्लवस्तु । म्लेच्छेषु रोगान् मरणाय मन्दः, कुजः परं धान्यरसग्रहाय ॥६४॥ लाभस्तु तस्य त्रिगुणस्त्रिमास्यां, बुधे च पूगादिफलं महर्षम् । गुरौ च शुक्रे तिलतैलसूत्रकर्पामरूतादिमहर्घता स्यात् ॥६५॥ जिस दिन सूर्यसंक्रांति हो उस दिन उसी राशि पर चंद्रमा हो याने कोई भी संकांतिके दिन सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि पर हो तो जन्म. वेध होता है वह अनिष्ट है और मित्रगृहमें हो तो श्रेष्ठ होता है ॥ ६१ ॥ जिस धार की संक्रांति हो उसी वार की अमावस भी हो तो लोक में खर्पर योग होता है यह प्राणी और धान्य आदिका नाश करता है॥६२॥ यदि प्रथम संक्रांति को शनिवार , दूसरी को रविवार और तीसरी को मंगलवार हो तो खर्पर योग होता है यह बहुत कष्टदायक होता है ॥६३॥ यदि कार्तिक मासमें वृश्चिकसंक्रांति रविवार की हो तो श्वेत वस्तु महँगी हो, शनिवार की हो तो म्लेच्छोंमें रोगसे मरण हो, मंगलवार की हो तो धान्य और रसका ग्रहण करना ॥६४। इसले तीन महीने त्रिगुना लाभ हो। बुधवार की हो तो पूगीफल ( सोपारी ) आदि महँगे हों। गुरुवार और शुक्रवार की हो तो तिल तेल सूत कपास रूई .आदि महंगे, "Aho Shrutgyanam" Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् सोमे सर्वजने सौख्यं सन्धिः सर्वत्र भूभुजाम् । तारग्रहवेधेऽल्प- मध्योत्कृष्टफलोदयः ॥ ६६ ॥ धनुषि तरणिभोगे मार्गशीर्षेऽर्क भौमौ, शनिरपि यदि वारचौडकर्णाटगौडाः । सुरगिरिमलयान्ता मालवास्तेषु राज्ञां, रणमरणविशेषाद विग्रहाय त्रयोऽमी ॥ ६७ ॥ कर्पास सूत्रादितिलाज्यतैलमहघेता लाभदशासुवर्णात् । शैत्यप्रवृद्धिर्भुवि सोमवारे, किञ्चिद्विनाशोऽप्यत एव धान्ये ॥६८॥ बुधे गुरौ वान्नसमघता स्थाच्छुके पुनम्लेच्छ जनप्रमोदः । पौषे मृगेऽर्कः शनिना भयाय, प्रभाकृता क्षत्रकुलक्षयाय ॥६९॥ बुधान् मुधा युद्धमुशन्ति बुधा (३९९) हो || ६.५ || सोमवार को हो तो समस्त मनुष्यों में सुख हो और राजाओं में सब जगह संधि हो । इस संक्रांतिके वारको गृहवेध होनेसे जवन्य मध्यम और उत्कृष्ट फल होता है ॥ ६६ ॥ यदि मार्गशीर्ष मास में धनसंक्रांति को रवि मंगल या शनिवार हो तो चौड, कर्णाट, गौड, देवगिरि, मलय, मालवा आदि देशोंके राजाओं में युद्ध मरण और विप्रह ये तीनों हों ॥६७॥ कपास, सूत, तिल, तेल, घी आदि तेज हो तथा सोना से लाभ हो । सोमवार हो तो पृथ्वीपर शीतकी वृद्धि हो इससे धान्य में कुछ विनाश हो ॥ ६८ ॥ या गुरुवार हो तो अनाज सस्ते हों शुक्रवार हो तो म्लेच्छलोगों को आनन्द - हो यदि पौष मास में मकरसंक्रांति को शनिवार हो तो भय हो । रविवार हो तो क्षत्रिय कुलका नाश हो ॥ ६६ ॥ बुधवार हो तो विना कारण युद्ध हो ऐसे पण्डित' "Aho Shrutgyanam" Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४००) मेघमहोदये गुरौ विरोध स्वकुले दिमास्याम् । युगन्धरीवल्लमसरधान्ये, हिमादिनाशश्चमकेऽपि सोमे ॥७॥ देवे गुरौ बादर एव शुक्रे, माघेऽथ कुम्भे दिनकृत्प्रसङ्गे । पृथ्वीभयं विग्रह एव घोर चतुष्पदानाभतिशायि कष्टम् ॥७॥ तथा वृषभसङ्कहो महिषविक्रयो वा शनी, रणः स्वपरमारणः क्षितिपतिग्रहान्मङ्गले । रवावपि तथा कथा गुरुबुधेन्दुशुक्रागमात् , समानविषमा कचित् सकललोकनिश्शोकता ॥७२॥ कुलत्थमाषमुद्गानां दिक्र रस्तुवरीकणाः । युगन्धेरीमसुराद्याः समर्घा देशसुस्थता ॥७३॥ घृतकसितैलादि गुडखण्डेक्षुशर्कराः । सङ्गहाद्विगुणो लाभस्तेषां मासद्धये गते ॥७४|| लोग कहते है । गुरुवार हो तो अपने कुल में विरोध हो । सोमवार हो तो दो महीने में युगंधरी (जुआर) वाल मसूा धान्य और चणे इनका हिम से विनाश हो ॥ ७० ॥ माघ मासमें कुंभर क्रांति को गुरु या शुक्रवार हो तो पृथ्वीमें भय, घोर विग्रह और पशुओं को कष्ट हो ॥ ७१ ॥ शनिवार हो तो वृषभ का संग्रह करना और महिषको बेचना, मंगलवार तथा रविवार हो तो राजाओंमें अन्योऽन्य घोर युद्ध हो। गुरु बुध चंद्रमा या शुक्र.. वार हो तो कचित्. समान या विषम रहें, समस्त लोक शोक ( चिन्ताः) रहित हो ॥ ७२ ॥ कुलथी, उडद, मूंगको बेच देना चाहिये, तूपरी, युगंधरी (जुआर) मसूर आदि सस्ते हो, देश सुखी हो ॥ ७३ ॥ घी कपास तेल गुड खाड ईक्षु सक्कर अादिका संग्रह करनेले दो महीने बाद. "Aho Shrutgyanam" Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् (४०१) मीनेऽके सति फाल्गुने शनिवशात् सामुद्रिकार्थक्षयो, __ भौमे हेन्नि सलामता रणनटाः सूर्ये भटा निष्ठिताः। तैलाज्यादिरसा मद्यविवसाश्चन्द्रे जनानां सुखं, शुक्रे चन्द्रसुते सुभिक्षमतुलं रोगप्रयोगो गुरौ ॥७॥ चैत्रे मेषरवी तथा क्षितिसुते मन्दे महर्घस्थिति गोधूमे चणके तथैव शशिना कार्पासतैलादिषु । जीवः क्षत्रियजीवनाशनकरः शुक्रोऽथवा चन्द्रजः , सर्व वस्तुमहर्षमेव कुरुते वैवाहसोत्साहताम् ॥७६॥ लोके तु-चैत किसन जोइन भडली, चार दिसावारु निरमली। मीन अर्क सनिवारे होइ, तेरसि दिन तो जीवे कोई ।।७७॥ वैशाखे वृषसंक्रमे शनिकुजादित्यादिदुर्भिक्षदा, देशे क्लेशरुचिमहर्घविधया प्राप्या न गोधूमकाः। दूना लाभ हो ॥ ७४ ॥ .. फाल्गुन मासमें मीनकी संक्रांति शनिवारको हो तो समुद्र से उत्पन्न होनेवाली या समुद्र में आने जानेवाली वस्तुओं में लाभ न हो। मंगलवार को हो तो सुवर्ण से लाभ हो । रविवार को हो तो योद्धाओं में वीरता हो और तेल घी आदि रस महँगे हो। सोमवारको हो तो मनुष्योंको सुख हो। शुक्र या बुधवार को हो तो बहुत सुभिक्ष हो और गुरुवारको हो तो रोग हो ॥७५॥ चैत्र मासमें मेषसंक्रांतिको मंगल या शनिवार हो तो गेहूँ चने का भाव तेज हो । सोमवारको हो तो कपास तेल आदि तेज हो । बृहस्पति हो तो क्षत्रिय और प्राणियों का नाशकारक है । शुक्र या बुधवार हो तो समस्त वस्तु महँगी हो और विवाह महोत्सव अधिक हो ॥ ७६ ॥ चैत्र कृष्णपक्षमें चारोंही दिशा निर्मल न हो और मीनसंक्रांति शनिवारको तेरस के दिन हो तो महामारी या दुष्काल हो ॥ ७७ ॥ वैशाखमें वृषसंक्रांतिको शनि मंगल या रविवार हो तो दुर्भिक्ष हों, देश में क्लेश हो, महँगाई के "Aho Shrutgyanam" Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये (४०२ ) कर्पासे फलवस्तुनीक्षुरसजे माशिष्ठकेऽत्यादरः, सोमे धान्यसमर्पता कविगुरुज्ञेषु प्रियाः स्यू रसाः ॥७८॥ ज्येष्ठे श्री मिथुनार्कतः शनिकुजादित्येषु पापाशयो, रोगोऽग्निज्वलनादिजं भयमपि प्रायो महर्धाः कणाः । सन्तुष्टा वसुधा सुधाकरसुते वस्तु प्रियं सिन्धुजं, दुर्भिक्षं शशिजीव भार्गवचलात् सार्वत्रिकं सूच्यताम् ॥७६॥ आषाढे कर्कसंक्रान्तौ क्रूरवारेऽतिवर्षणम् । क्षत्रियाणां क्षयोऽन्योऽन्यं गुरौ तु प्रबलोऽनिलः ||८०|| सोमे सौम्ये तथा शुक्रे जलस्नातं भुवस्तलम् । धान्यं समर्घमायाति परदेशाज्जने सुखम् ॥८१॥ सिंहेऽर्के श्रावणे भौमे शनौ वा बहुवृष्टये । तुच्छधान्पविनाशाय वायुपीडाकरो रबौ ॥८२॥ सममाज्यं देवेज्ये गुडतैलमहर्चता । कारण गेहूँ दुर्लभ हो, कपास, फल वस्तु, ईक्षुरस के पदार्थ, मंजीठ तेज हो । सोमवार हो तो धान्य सस्ते हो । शुक्र गुरु या बुधवार हो तो अच्छे मधुर रस उत्पन्न हों ॥ ७८ ॥ ज्येष्ठमासमें मिथुनसंक्रांति शनि मंगल या रविवारको हो, तो पापकारक रोग हो, अमिका भय और प्रायः धान्य भाव तेज हो । बुधवारको हो तो पृथ्वी संतुष्ट हो तथा सिंधुसे उत्पन्न होनेवाली वस्तुका भार हो । चंद्रमा बृहस्पति या शुक्रवार को हो तो सर्वत्र दुर्भिक्षका सूचन है ॥ ७६ ॥ आषाढ मास में कर्कसंक्रांति क्रूर वारकी हो तो अधिक वर्षा हो, क्षत्रियों का परस्पर क्षय हो । गुरुवारकी हो तो प्रचल पवन चलें ॥ ८० ॥ सोम बुध या शुक्रवार हो तो वर्षा अच्छी हो, धान्य सस्ते हो और परदेश से लोगों को मुख हो ॥ ८१ ॥ श्रावणमास में सिंहसंक्रांति मंगल या शनिवार की हो तो बहुत वर्षा हो और तुच्छ धान्यका नाश हो । रविवार की हो तो वायुका उपद्रव हो ॥ ८२ ॥ गुरुवार की हो तो घी सस्ते हो और गुड सेल " Aho Shrutgyanam" Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यधारकथनम् (४०३) सोमे शुक्रे बुधे छत्र-भङ्गकृल्लोकतोषदः ॥८॥ कन्यार्कतो भाद्रपदेऽल्पवृष्टिः, शनेर्जने स्याद् बहुधान्यनाशः । कुजाजाद्या बहुधेतयो वा, वृष्टिस्तदाल्पातिमहतान्ने ॥८४॥ जीवेन्दुशुक्रज्ञपराक्रमेण, क्रमेण सौख्यं न बहुश्रमेण । अमुद्रसामुद्रकभूपयुद्धं, किञ्चिछिनाशोऽपि च पश्चिमायाम् ॥८५॥ आश्विने रवितुलाधिरोहिणे भास्करो द्विजगवादिदुःखदः । राज्यविग्रहकरः शनैश्चरः सर्पिषः खलु महर्घतांवदेत् ॥८६॥ पहुधा बहुधान्यसम्भवाद् , वसुधा पूर्णसुधा बुधाश्रयात् । गुरुणातिसमर्घमन्नकं, शशिना वा भृगुसूनुना तथैव ॥८॥ कॉरपॉः शालिजूर्णाप्रमुखैर्वसुन्धरा पूर्णा ! . महंगे हो । सोम शुक्र या बुधवार की हो तो लोक को आनंददायक छत्रभंग हो ॥८३॥ भाद्रपदमासमें कर्कसंक्रांति रविवार को हो तो वर्षा थोड़ी हो, शनिवार को हो तो बहुत धान्यका नाश हो, मंगलवार को हो तो रोग आदि बहुत प्रकार की ईतिका उपद्रव, वर्षा थोडी और अनाज महँगे हो ॥८४॥ गुरु चंद्रमा शुक और बुध इनके पराक्रमसे थोडी महेनतसे कमसे सुख हो, समुदपर्यन्त राजाओंका युद्ध और पश्चिममें कुछ विनाश हो ॥८५॥ आश्विनमासमें सूर्यकी तुलासंक्रांति रविवारको हो तो ब्राह्मण गौ आदिको दःखदायक है, शनिवारको हो तो राज्यविग्रह हो और घी महँगे हो ॥८६॥ बुधवारको हो तो बहुत प्रकार के धान्यकी प्राप्ति, तथा पृथ्वी पूर्ण अमृतरसवाली हो । गुरुवारको हो तो अन्नाज सस्ते हो, इसी तरह चंद्रमा और शुक्रवार होनेसे भी अनाज सस्ता हो ॥८७॥मंगलवार हो तो कंगु अपंगु "Aho Shrutgyanam" Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Henriar विपुलाश्चपला नाम्ना कुलत्थहानिः पुनर्भीमे ॥८८॥ संक्रान्तयो द्वादश मासबद्धा:, . स्वमासमोक्षेण शुभाशुभानि । वारैः परं सप्तभिरादिशन्ति, विशन्ति मासं यदि चान्यमेवम् ॥८६॥ बालबोधे पुनः- संक्रान्तिः स्याद्यदा पौषे रविवारेण संयुता । द्विगुणं प्राक्तनाद्धान्ये मूल्यमाहुर्महाधियः ॥ ६०॥ शनौ त्रिगुणता मूल्ये मङ्गले च चतुर्गुणम् । समानं बुधशुक्राभ्यां मूल्यार्थं गुरुसोमयोः ॥ ९१ ॥ पाठान्तरे - त्रिगुणं भूसुते सौम्ये शनिवारे चतुर्गुगाम् । सोमे शुक्रे तुल्यमूल्यमर्द्धमूल्यं बृहस्पतौ ॥६२॥ ग्रन्थान्तरे (४०४) "जीने रविसंक्रमणे ससिगुरुसुक्केहि होइ सुभिक्खं । बहु पवनो रविवारे चउपयपरिपीडणं भोमे ॥ ६३॥ शालि जूर्गा आदि धान्यसे पृथ्वी पूर्ण हो, चौला बहुत और कुलथी की हानि हो ॥ ८८ ॥ जो मासबद्ध बान्ह संक्रांतियें हैं वे अपने २ मासको छोड़ने वाद सात वार द्वारा शुभाशुभ फलको कहती हैं, इसी तरह दूसरे मांस में प्रवेश करती है ॥ ८६ ॥ यदि पौषमासको संक्रांति रविवार को हो तो पहलेका धान्य दूने मूल्य से बिकें ॥ ६० ॥ शनिवार हो तो तीन गुने, मंगल हो तो चौगुने, बुध या शुक्र हो तो समान और गुरु या सोमवार हो तो अर्द्धमूल से बिकें ॥ ६१ ॥ प्रकारान्तर से - मंगल या बुब हो तो त्रिगुणे, शनिवार हो तो चौगुने, सोम या शुक्र हो तो समान और गुरुवार हो तो अर्द्धमूल्य से बिकें ॥ ६२ ॥ ग्रंथान्तर में - मीन संक्रांतिको सोम गुरु या शुक्रवार हो तो सुभिक्ष हो, रविवार हो तो पवन अधिक चलें, मंगलवार हो तो पशुओं को पीडा हों ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथमम् दुन्मिक्खं सनिवारे हवइ बुधवार देवजोएण। दुभिक्खं छत्तभंगा आगमसंवच्छरपरिखा" ॥१४॥ शनिभानुकुंजैरिबहवः संक्रमा यदा। महर्घमनिलं रोग कुर्वते राजविड्वरम् ॥६५॥ सूर्योदये विषुवती जगतो विपत्य, . मध्यंदिने सकलधान्यविनाशहेतुः। संक्रान्तिरस्तसमये धनधान्यवृद्धन्यै, क्षेमं सुभिक्षमवनौ कुरुते निशीथे ॥६६॥ अत्र लोकः-सीयाले सूती भली, बैठी वर्षावाल। उन्हाले उभी भली, जोसी जोस संभाल ॥९७॥ स्मृती सूत्र कपासह पूणे, वायु करे रस सयल विधूणे। आघकरे जग लोक संतावे, स्मृती संक्रांति इणि परिभावे॥ बैठीसंक्रांति ते बग बेसारे, वायुकरे चउपायु मारे । मंदवाड करि लोग खपावे, बैठी संक्रांति इसडी आवे।६। ६३ ॥ शनिवार हो तो दुर्भिक्ष हो, यदि दैवयोगसे बुधवार हो तो दुर्भिक्ष तथा छत्रभंग आगामि संवत्सर तक रहैं ॥१४॥ यदि शनि रवि और मंगलवारको बहुतसी संक्रांति हो तो अनाज महँगे हो, पवन की अधिकता, रोग और राज विग्रह हो ॥६५॥ यदि सूर्योदयके समय संक्रांति हो तो जगत्को विपत्तिके निमित हो, मध्य दिन में हो तो सब धान्यका विनाश हो, अस्त समय हो तो धन धान्यकी वृद्धिके लिये हो, और अर्द्धरात्रि में हो तो पृथ्वी पर क्षेम (कल्याण) और मुभिक्ष हो ॥ ६६ ॥ लोकिक में भी कहते है कि-शीतऋतु में सूतीसंक्रांति, वर्षाऋतु में बैठीसंक्रांति और प्रीष्मऋतु में खड़ीसंक्रांति ये शुभदायक होती हैं ॥ १७ ॥ सूतीसंक्रांति सूत कपासका नाश करे,अधिक वायु करे,समस्त रसका विनाश करें,और समस्त लोकको संताप करे ॥१८॥ बैठीसंकांति अधिक वायु करे, पशुओंका विनाश करे, रोगसे म "Aho Shrutgyanam" Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०६) मेषमहोदये उभीसंक्रांति ते उभी भावइ,वाधइप्रजाने राजसुख पाया। घरि घरि मंगलतर बजावइ,गौब्राह्मण सहु लोकसुखपायह।। पन्नरमुहूत्ती जो जगि खेलइ, तीडा मूसा चोरह ठेला । तीस मुहती रण उपजावे, माणस घोड़ाहाथी खपावइ।१०१॥ कण सुहंगो व्यापार वधारे, करे सुभिक्षने घरमसुधारे । पंचतालीस मुहूत्ती आई, घणो सुगाल नइ घणी वधाई।१०२॥ मृगकर्त्यजगोमीनेष्वर्को वामाघ्रिणा निशि । अलि सुप्तस्तु शेषेषु प्रचलेद दक्षिणाध्रिणा ॥१०३॥ स्वे स्वे राशौ स्थिते सौम्ये भवेदौस्थ्य व्यतिक्रमे । चिन्तनीयस्ततो यत्राद्रात्र्यहः प्रोक्तसंक्रमः ॥१०४॥ तुलाषट्कस्य संक्रान्तिःस्यादेकतिथिजा शुभा। द्वाभ्यां विमध्यमाञया बहुभिदौस्थ्यकारिणी ॥१०॥ नुष्योंका विनाश करे ॥६६खड़ीसंक्रांति प्रजाकी वृद्धि, राजाको सुख, घर घर मंगलिक और गौ ब्राह्मग आदि समस्त लोक सुख पावे ॥१०.०॥ संक्रांति पंद्रह मुहूर्त की हो तो जगत्में टिड्डी, मूंसे और चोर के उपद्रव हो तीस मुहूर्त की हो तो युद्धका संभव, मनुष्य बोड़ा हाथी इनका विनाश हो ॥१०१॥ पचतालीस मुहूत्ते की हो तो धान्य सस्ते, व्यापारकी वृद्धि, बहुत सुभिक्ष, बहुत मंगलिक और वर्ष अच्छा करे ॥ १०२॥ मकर कर्क मेष वृष और मीनराशिका सूर्य रात्रिमें संक्रमण हो तो बायी चरणसे चलता है। दिनमें संक्रमण हो तो सूर्य सुप्त माना गया है और बाकी के समय संक्रमण हो तो दक्षिण चरणसे चलता है ॥१०३॥ अपनी २ राशि पर ग्रह नियमानुसार रहे तो शुभ और विपरीत हो तो दुःख होता है । इसलिये दिनरात्रिमें कहे हुए संक्रांतिका यत्न से विचार करना चाहिये ॥१०४॥ तुला आदि छ: संकांति यदि एकही तिथिको हो तो शुभ,दो तिथिमें हो तो : मध्यम और बहुत तिथिमें हो तो दुर्भिक्षकारक होती है ॥ १०५ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयचारकथनम् (४०७) रिक्तायां रविसंक्रान्त्यां दैन्यसैन्याजनक्षयः । देशक्लेशो नरेशानां मृत्युर्दुःखाकुलाऽचला ॥१०६।। या:-तुलासंक्रान्तिषट्कं चेत् स्वस्या स्वस्या तिथेचलेत् । तदा दुःस्थं जगत्सर्व दुर्भिक्षं डमरादिभिः ॥१०७॥ यबारे रविसंक्रान्तिः पौषे तस्मिन्नमावसी। विलिश्चतुर्युगो लाभस्तदा धान्ये क्रमान्मतः ॥१०८॥ शनिभौमहते मार्गे यावश्चरति भास्करः। अवर्षणं तदा ज्ञेयं गर्भयोगशतैरपि ॥१०॥ यदाह लोकः-पाछह मंगल रविघरह, जइ आसाढइ जोय । वरसे तिहां घण मोकलो, उपराठइ दुःख होय ॥११॥ अग्गइ मंगल रविरहह, जइ रिक्खह भुंजेइ । ता नवि वरसह अंबुहर, जा नवि पछइ एइ ॥११॥ माचे कृष्णदशम्यां चेन्मकरेऽर्कः प्रवर्तते । धान्यसङ्कहणाल्लाभं तदाषाढे करोत्ययम् ॥११२॥ सूर्यसंक्रांति रिक्तातिथिमें हो तो सैन्यसे मनुष्योंका क्षय हो । देशमें कलह हो, राजाका मरण और पृथ्वी दुःखसे आकुल हो ॥१०६ ॥ तुला आदि छः संक्रांति अपनी २ तिथिसे चलित हो.तो सब जगत् दुःखी और दुर्भिक्ष हो ॥१०७॥ पौषमासमें सूर्यसंक्रांति जिस वारको हो और उसी वार को अमावस भी हो तो क्रमसे धान्यमें दूना त्रिगुना तथा चौगुना लाभ हो । १०८ ॥ शनि और मंगल का मार्गमें जितने समय सूर्य चले उतने समय सेंकडों गर्भके योग रहने पर भी वर्षा नहीं होती हैं ॥१०॥ लोकिकमें भी कहा है कि-यदि भाषाढमासमें सूर्यके स्थानसे मंगल पीछे हो तो वर्षा बहुत हो और आगे हो तो दुःख हो ॥११० ॥ एकही नक्षत्र पर रविसे मंगल आगे हो तो वर्षा न बरसे जब तक वह पीछे न हो ॥१११॥ यदि मकरसंक्रांति माघकृष्य दशमी के दिन हो तो धान्यका संग्रह करने से भाषा. "Aho Shrutgyanam" Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०८) मेघमहोदये वैशाखस्य तृतीयायां संक्रान्तिर्यदि जायते । रोगपीडैकमासे स्याद् यद्वा मेघमहोदयः ॥११३॥ श्रावणे कर्कसंक्रान्त्यां जाते मेघमहोदये । सप्तमासान् सुभिक्षं स्याद नान्यथा जिनभाषितम् ॥ ११४॥ बालबोधे तु नन्दायां मेष संक्रान्तिरल्पवृष्टिकरी मता । भद्रायां राजयुद्धाय जयायां व्याधये नृणाम् ॥ ११५ ॥ रिक्तायां पशुघाताय पूर्णायां धान्यवर्द्धिनी । इत्येतद्वालयोघोक्तं बहुशास्त्रेषु सम्मतम् ॥ ११६ ॥ चोथी नवमीने चउदसी, जो रवि संक्रम होय | देशभंगदलदुःख धरणा, जण जण दह दिन जोय ॥ ११७॥ मण्डलानुसारिनक्षत्रवारयोगार्थ : -- "अग्निमण्डलनक्षत्रे यदा संक्रमते रविः । सहितो भौमवारेण सस्पृहा धातुजातयः ॥ ११८ ॥ दमें लाभ हो ॥ ११२ ॥ वैशाख तृतीया को यदि संक्रांति हो तो एकमास रोगसे पीडा हो या मेघका उदय हो ॥ ११३ ॥ श्रावण में कर्कतक्रांति के दिन मेघका उदय होतो सात मास सुभिक्ष हो यह जिन वचन अन्यथान हो ।। ११४ ॥ यदि मेषसंक्रांति नंदा. १-६-११ तिथि को हो तो वर्षा थोड़ी हो । भद्रा २ ७ १२ तिथि को हो तो राजयुद्ध हो । जया ३.८-१३ तिथि को हो तो मनुष्यों को रोग हो ।। ११५ ।। रिक्ता ४.६ १४ तिथिको हो तो पशुओंका बात हो, पूर्णा- ५-१० १५ तिथिको हो तो वान्यकी वृद्धि हो । ये बालबोधमें कहा हुआ बहुतसे शास्त्रों से सम्मत है ॥ ११६ ॥ चोथ नवमी और चौदशके दिन सूर्यसंक्रांति हो तो देशका भंग और हरएक जगह मनुष्यों को बहुत दुःख हो ॥ १.१७ ॥ यदि सूर्य संक्रांति अग्निमडल में हो और साथ मंगलवार भी हो तो समस्त "Aho Shrutgyanam" Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् रूप्यं सुवर्ण ताम्रादि पुकांश्यानि पित्तलम् । धातुधिष्ण्ये तु संक्रान्ती मङ्घमादिशेच्छनौ ॥११॥ लोहभेदा रमाः सर्वे शीघ्रं भवन्ति सस्पृहाः । नक्षत्रैर्वारुणैर्वापि बुधवारेण संक्रमे ॥१२०॥ पीच्यन्ते धान्यभेदाश्च रत्नान्यम्भोधिजानि च । नक्षत्रैः पार्थिवैर्वापि सूर्यवारसमन्वितैः ॥१२१॥ सस्पृहायै सुगन्धाच्या वारगाद्याश्चतुष्पदाः । अथवा सर्वमासेषु पूर्णिमायां दिवानिशम् ॥१२२।। अन्वेषयेत् तदुत्पातान् परिवेषादिकान् तथा । यस्मिन् मण्डलनक्षत्रे दुनिमित्तं विलोक्यते ।।१२३।। तत्तन्मण्डलवाच्यार्थाः क्षणाद्भवन्ति सस्पृहाः । एवं वारेण संक्रान्तेरर्घकाण्डं प्रदर्शितम् ॥१२४॥ योगचक्रम्--- "दिनयोगं च नक्षत्रं संक्रान्तेह्यते घटी। धातु महँगी हों ॥ ११८॥ धातुसंज्ञक नक्षत्रों में सूर्यसंक्रांति हो और शनिवार हो तो चांदी सोना तांबा रांगा कांसी पित्तल आदि धातु महँगी हों। ११६ ॥ तथा सब प्रकारके लोहके भेद और रस महँगे हों । वारुणमण्डलनक्षत्र और बुधवारको सूर्यसंक्रांति हो ॥१२०॥ तो धान्यके भेद याने सब प्रकारके धान्य और समुद्र में उत्पन्न होनेवाले रत्न आदि महँगे हो । पार्थिवमण्डलनक्षत्र और रविवार को हो ॥१२१॥ तो सुगंधित वस्तु और घोडा आदि पशु ये महँगे हों । अथवा समस्त मासकी पूर्णिमाको दिनरातमें कोई उत्पात तथा सूर्य चंद्रमा को परिमंडल हो तो उसका विचार करें, जिस मण्डलके नक्षत्रों में दुनिमित्त हो ॥१२२११२३॥ तो उन २ मंडलोंमें कही हुई वस्तुशीघ्रही महँगी हो। इसी तरह संक्रातिके वारसे अर्वकाण्ड कहा ।१२। . दिनके योग और संक्रांतिका नक्षत्र इनको घड़ियों को इकट्ठा कर चार से "Aho Shrutgyanam" Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) मेघमहोदये चतुर्गुणं सप्तभागं पण्डितस्तद्विचारयेत् ॥ १२५ ॥ शून्ये भयं क्षयं रोगमेऽन्नं द्वितये रसः । त्रये रोगश्चतुर्षु स्याद् वस्त्रं महमुज्वलम् ॥ १२६ ॥ षट्पञ्चसु द्विजमुनीन् रोगेण परिपीडयेत् । संक्रान्तिसमये चेत्तद् विचार्य योगचक्रकम् " ॥१२७॥ द्वादशमास संक्रान्तिवृष्टिविचार:--- चैत्रे शनौ त्रयोदश्यां यदि मीनेऽर्कसंक्रमः । वत्सरः स्यात्तदा निन्द्यः सद्यो धान्यार्थनाशनः ॥ १२८ ॥ चैत्रमासस्य संक्रान्तौ यदि वर्षति माधवः । तदा चान्यस्य निष्पत्तिर्लोके बहुतरं सुखम् ॥ १२९ ॥ वैशाखज्येष्ठ संक्रान्तिर्वृष्टिर्मिश्रफला भवेत् । मध्यमं कुरुते वर्षे खण्डमण्डलवर्षणात् ॥ १३०॥ यदाह रुद्रदेव :- “चैत्रे च गौरिसंक्रान्तौ यदा वर्षति माधवः । गुण देना और इस गुणनफल को सात से भाग देकर शेष द्वारा विद्वान् उसका विचार करें || १२५ ॥ शून्य शेष हो तो भय तथा क्षयरोग हो, एक बचे तो अन्न प्राप्ति, दो बचे तो रस प्राप्ति, तीन बचे तो रोग, चार बचे तो सफेद वस्त्र महँगे हो ॥ १२६ ॥ छ पांच और सात बचे तो रोग से पीडा हो, संक्रांति के समय यह योगचक्रका विचार करना चाहिये ॥ १२७॥ इति योगचक्रका विचार | चैत्रमास में त्रयोदशी और मीन संक्रांति शनिवार को हो तो वर्ष निन्द्य (अशुभ) जानना यह शीघ्रही धान्य का नाशकारक होता है ॥ १२८॥ चैत्रमास की संक्रांति को यदि मेव वर्षा हो तो धान्यकी प्राप्ति तथा लोक में बहुत सुख हो ॥ १२६ ॥ वैशाख तथा ज्येष्ट मासकी संक्रांतिको वर्षा हो तो मिश्र (मिला हुआ) फलदायक होती है तथा खंडवर्षा होने से मध्यम वर्ष करती है ॥ १३० ॥ रुद्रदेव कहते है कि- चैत्र में मेषसंक्रांतिको तथा "Aho Shrutgyanam" Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् विचित्रं जायते वर्ष वैशाखज्येष्ठयोस्तथा" ॥१३१॥ वैशाख कृष्णपक्षान्त - वृपसंक्रमणे रविः । वृषे चन्द्रस्तदा ज्ञेयं सर्वक्लेशक्षयात् सुखम् ||१३२ || यदि स्याज्ज्येष्ठपञ्चम्यां वृषसंक्रमणादनु । दिनक्षयान्तर्जलदस्तदा सुभिक्षनिर्णयः ॥१३३॥ आषाढे चैव संक्रान्तौ यदि वर्षति माधवः । व्याधिरुत्पद्यते घोरः श्रावणे शोभनं तदा ॥ १३४ ॥ आषाढे कर्कसंक्रान्तौ शनिवारो भवेद्यति । तदा दुर्भिक्षमादेश्यं धान्यस्यापि महता ॥ १३५ ॥ * श्रावणे कर्कसंक्रान्तिर्दिने जलधरागमात् । न तीडा भूषका नैव जायन्ते तत्र वत्सरे ॥ १३६ ॥ दशम्यां शनिना युक्तः श्रावणे सिंहसंक्रमः । अनन्तधान्यनिष्पत्तिर्भवेन्मेघमहोदयः ॥ १३७॥ (४११) हो तो भयंकर वैशाख और ज्येष्ठ की संक्रांतिको वर्षा हो तो विचित्र वर्ष होता है ॥ १३१ ॥ वैशाख कृष्णपक्ष में वृषसंक्रांति हो उस दिन वृष का चंद्रमा भी हो तो समस्त क्लेशों का क्षय होकर सुख होता है ॥ १३२ ॥ यदि ज्येष्ठ मासकी पंचमी को वृषसंक्रांति हो उससे दो दिन के भीतर वर्षा हो तो सुभिक्ष होता है ॥ १३३ ॥ आषाढ मास की संक्रांति को यदि वर्षा व्याधि हो और श्रावण में शुभ हो ॥ १३४ ॥ आषाढ में कर्क संक्रांति को शनिवार हो तो दुर्भिक्ष तथा धान्य महँगे हो ॥ १३५ ॥ श्रावण की कर्क - संतिके दिन वर्षा हो तो टिड्डी आदिका उपद्रव न हो ॥ १३६ ॥ श्रावण में दशमी और सिंहसंक्रांति शनिवार को हो तो धान्य बहुत उत्पन्न हों और मेघवर्षा हो ॥ १३७॥ भाद्रपदमास में सिंहसंक्रांतिको वर्षा हो तो आगे वर्षा *टी-श्रावणे कर्कसंक्रान्तौ यदि वर्षति माधवः । व्याधि स कुरुते घोरां बहुधान्यां वसुन्धराम् ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१२) मेघमहोदये भाद्रपदसिंहसंक्रमदिने वर्षा जलदधन्धनी पुरतः । संक्रान्तेर्दिनयुग्मान्तरे न वृष्टिर्यदा दृष्टा ॥१३८॥ आश्विनस्यापि संक्रान्तौ दृष्टे मेघमहोदये। राजयुद्धं प्रजाः स्वस्था धान्यैरापूर्यते जगत् ॥१३९॥ मासे भाद्रपदे प्राप्ते संक्रान्तौ यदि वर्षति । बहुरोगाकुला लोका आश्विने शोभनं पुनः ॥१४॥ +कार्तिके मार्गशीर्षे वा संक्रान्तौ यदि वर्षति । मध्यमं कुरुते वर्ष पौषमासे सुभिक्षकृत् ॥१४१॥ यदाह लोक:-कातीमासि महावठो, जह संकेतिय अंति। बरसे मेह समोकलो, अवर म आणे चिंत ॥१४२॥ xकातीमासि अमावसि, संकंति सनिवार । गोरी खगडे गोखरू, किंहा न लभइ वार ॥१४॥ * अइह भद्दह सयभिसि, जोइ संकमतो भाण । को रोके और संक्रांतिके दो दिनके भीतर वर्षा न हो तो आगे वर्षा हो । १३८॥ आश्विन मासकी संक्रांतिके दिन वर्षा हो तो राजाओंमें युद्ध, प्रजा सुखी और पृथ्वी धान्यसे पूर्ण हो ॥१३६!! भाद्रपदमासमें संक्रांतिके दिन वर्षा हो तो लोक बहुतसे रोगोंसे व्याकुल हो, अाश्विनमें अच्छा हो ॥१४॥ कार्तिक या मार्गशीर्ष की संक्रांति को यदि वर्षा हो तो मध्यम वर्ष हो और पौष में सुभिक्षकारक हो ॥१४ १॥ लोकिक में भी कहा है कि- कार्तिक में संक्रांति के अंत में महावटा (वर्धा) हो तो आगे वर्ण बहुत बरसे चिंता नहीं करो ॥१४२॥ कार्तिक अमावस या संक्रतिके दिन शनिवारको वर्षा हो तो कहीं भी वर्षा न हो ॥१४३॥ पार्दा, पूर्वा तथा उत्तराभाद्रपद और शतभिषा इन नक्षत्रों के दिन सूर्यसंक्रमण हो तो युगप्रलय जानना ऐसा +टी-कार्तिकद्वये संक्रान्तिदिनवृष्टी वर्षमध्यमम् । xटी-संक्रान्तो शनिवारः। *टी-श्राद्रा पूर्वोत्तराभाद्रपदे २शतभिषक ३ अत्र सक्रमी निषिद्धः। "Aho Shrutgyanam" Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् तो जाणे जे जुगप्रलय, जोइस एह प्रमाण ॥ १४४ ॥ *मार्गशीर्षे धनूराशौ यदा याति दिवाकरः । तदा वर्षे च निर्दिग्धं वृश्चिकेऽर्के सुखावहः ॥ १४५ ॥ द्वादश्यां पश्चिमे पक्षे मार्गशीर्षे च क्रमे । यदि मङ्गलवारः स्याद् दुःखाय जगतो मतः ॥ १४६ ॥ पौषमासस्य संक्रान्ती यदा मेघमहोदयः । बहुक्षीरास्तदा गावो वसुधा बहुधान्यदा ॥ १४७ ॥ पौषमासे यदा भानो रविवारेण संक्रमः । हाहाभूतं जगत्सर्व दुर्भिक्षं नात्र संशयः ॥ १४८ ॥ माघमासे त्रयोदश्यां कुम्भे संक्रमणे रवेः । रोहिणी सूर्यवारेण कार्त्तिकान्ते महताम् ॥ १४६ ॥ फाल्गुने चैत्रसंक्रान्तौ यदि वर्षति माधवः । विचित्रं जायते सस्यं माधवज्येष्ठयोरपि ॥ १५० ॥ ज्योतिषका प्रमाण है ॥ १४४ ॥ मार्गशीर्ष में धनसंक्रांतिको वर्षा हो तो वर्ष पुष्ट हो और वृश्चिकसंक्रांति में हो तो सुख हो ॥ १४५ ॥ मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी और संक्रांति मंगलवार को हो तो जगत् का दुःखके लिये जानना चाहिये ॥ १४६ ॥ पौष मास्की संक्रांति को वर्षा हो तो गौ बहुत दूध दें और पृथ्वी बहुत धारयवाली हो ॥ १४७ ॥ पौष की सूर्यसंकांति रविवार को हो तो समस्त जगत् में हाहाकार और दुर्भिक्ष हो इसमें संदेह नहीं ॥ १४८ ॥ माघ मास में त्रयोदशी को कुंमसंक्रांति और रविवार युक्त रोहिणी नक्षत्र भी हो तो कार्तिक के अंत में अन्न महँगे हों ॥ १४६ ॥ फाल्गुन और चैत्रमें संक्रांति के दिन वर्षा हो तो अनेक प्रकार के अनाज पैदा हों, इसी तरह वैशाख और ज्येष्टका फल जानना ॥ १५० ॥ यदि मेष सूर्य होने पर अश्विनी आदि दश नक्षत्र याने दश दिनों में वर्षा हो *टी- मार्गशीर्षे धन्वराणौ यदा याति दिवाकरः । तदा दाहों लोकें 1 "Aho Shrutgyanam" (४१३) . Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) मेघमहोदये + जइ अस्सिणाह दहदिण भाणो संकमणि वरिसए मेहो । तह जाइ विलयगर्भ अद्दादहरिक्खं नो वरिसं ॥ १५१ ॥ एवं व-संक्रान्तौ घनवर्षणाद्वहुसुखं पौधे समाधाश्विने, चैत्रादित्रितये च खण्डजलदाद्दुःखं सुखं मिश्रितम् । भाद्राषाढकयोर्जने बहुरुजः स्युः श्रावणे सम्पदो, धान्ये फाल्गुनिकेषु मध्यमसमा मार्गे तथा कार्त्तिके ॥ १५२ ॥ * संक्रान्तिनाढ्यो नवभिर्विमिश्राः, सप्ताहताः पावकभाजिताश्च । समर्थमेकेन समं द्विकेन, शुन्ये महर्चे मुनयो वदन्ति ॥ १५३॥ मोनमेषान्तरेऽष्टम्यां मङ्गले धान्यसङ्ग्रहात् । तो गर्भ का विनाश हो और आर्द्रादि दश नक्षत्रों में वर्षा न हो ॥ १५१ ॥ पौष माव और आश्विन में संक्रांति के दिन मेत्र वर्षा हो तो बहुत सुख हो, चैत्र वैशाख और ज्येष्टमें संक्रांतिके दिन वर्षा हो तो आगे खंडवर्षा होने से दुःख और सुख मिश्रित फल हो, भाद्रपद और आषाढकी संक्रांति को वर्षा हो तो रोग बहुत हो, श्रावण में सुख संपदा हो, फाल्गुन में धान्य प्राप्ति, और कार्तिक तथा मार्गशीर्ष की संक्रांति में वर्षा हो तो मध्यम वर्ष जानना ॥ १५२ ॥ संक्रांति की घडीमें नव मिलाना, उसको सात से गुणाकर तीनसे भाग देना, यदि एक शेष बचे तो रस्ते, दो बचे तो समान और शून्य शेष हो तो महँगे हो ऐसा मुनियोंने कहा है ॥ १५३॥ मीन और मेषकी संक्रांति के अंतर याने बीच में अष्टमीको मंगलवार हो तो +टी- मेषे सूर्ये सति आश्विन्यादिदशनक्षत्रेषु चन्द्रे दशदिनानि यावदू वर्ष शुभ, वर्षगणे तुक्रमार्द्रादि सूर्य वार्षिकनक्षत्राणां गर्भनाश इत्यर्थः श्रीहीर मेघमालोक्तम् । 0 * डी - संक्रान्तिनाड्यः खन्तु सतमिश्रा' 'संक्रान्तिना ड्य स्तिथिवार - वृक्षधान्याक्षरं वह्निहरे तु भागम्' इत्यपि पाठः । "Aho Shrutgyanam" Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचारकथनम् द्वित्रिचतुर्गुणो लाभ इत्युक्तं पूर्वसूरिभिः ॥१५४॥ + कुम्भमोनान्तरेऽष्टम्यां नवम्यां दशमीदिने । रोहिणी चेत्तदा वृष्टिरल्पा मध्याधिका क्रमात् ।। १५५ ।। गार्गीयसंहितायां पुन: कार्तिके फाल्गुने मार्गे चैत्रे श्रावणभावयोः । संक्रमेष्वशुभः षट्सु यदि वर्षति वारिदः ॥१५६॥ पौषे माये सवैशाखे ज्येष्ठाषाढाश्विनेषु च । संक्रान्तो वर्षति घनः सर्वदैव सुशोभनः ॥ १५७॥ x इत्येवमादित्यसुराशिगत्या, विभाव्य भाव्यं फलमन्त्र मत्या । कार्यस्तदायैरिह वर्ष बोधः, परोपकाराय स निर्विरोधः ॥ १५८ ॥ (४१५) धान्यका संग्रह करने से द्विगुना, त्रिगुना या चौगुना लाभ हो ऐसा प्राचीन आचार्योंने कहा है ॥ १५४ ॥ कुंभ और मीनकी संक्रांति के अंतर याने बीच में अष्टमी, नवमी या दशमी के दिन रोहिणी नक्षत्र हो तो क्रमसे स्वल्प मध्यम और अधिक वर्षा हो ॥ १५५ ॥ गार्गीयसंहितामें कहा है किकार्तिक फाल्गुन मार्गशीर्ष चैत्र श्रावण और भाद्रपद इन छ: महीने की संक्रांति में यदि वर्षा हो तो अशुभ है ॥ १५६ ॥ पौष, माघ, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ और आश्विन इन छः महीने की संक्रांति के दिन वर्षा हो तो सर्वदा शुभ हो ॥ १५७ ॥ इसी तरह सूर्य की राशि पर डी गतिसे यहां बुद्धिसे विचार करके फल कहना । यह वर्षाका ज्ञान सज्जनोंने परोपकार के लिये किया है यह बात निर्विरोध है ॥ १५८ ॥ सूर्य द्वारा वर्षा + टी- अत्र कुम्भमीन संक्रान्त्योर्मध्ये इत्यर्थः । x टीमत का प्रमाणसंवत्सरे तुर्यो भेदः; याविस्य संवत्सरः प्रागुक्तः सिद्धान्ते । " Aho Shrutgyanam" Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये आदित्याज्जायते वृष्टिः स्मार्त्तवृष्टिरसौ स्मृता । तेन केवलयोधाय ध्येयोऽर्को भगवान् इह ॥१५॥ इति श्रीमेघमहोदयसाधने वर्षप्रबोधे श्रीमत्तपागच्छीय महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सूर्यचारकथनो नाम दशमोऽधिकारः ॥ अथ ग्रहगणविमर्शनो नाम एकादशोऽधिकारः। चन्द्रचारः-- अथ शशीस्ववशीकृततारक-श्चरतियत्र यथा फलकारकः। समयविक्रमतःक्रमतस्तथा, तिथिकथां कथितुं समुपक्रमे ॥१॥ तिथिबलाबलं तु चतुगुणं, भवति वारबलेऽष्टगुणा क्रिया। द्विगुणिता करणस्य ततो+युजि, तदनुषष्टिगुणाः खलु तारकाः। शीतगुः शतगुणस्ततो मतस्तत्सहस्रगुणलग्नवीर्यता । होती है इसलिये यह स्मार्त्तवृष्टि कही जाती है, इसलिये केवल बोधके लिये सूर्य भगवान् यहां ध्यान करने योग्य है ॥१५६।। सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्यजैनेन विचितया मेघमहोदये बालावधोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितो सूर्यचारकथनो नाम दशमोऽधिकार: । अपने वशीभूत करलिये है तारा जिस ने ऐसा चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर चलें वैसा फल कारक है, वैसे क्रमसे विक्रमका समयसे तिथिकथा कहने को आरंभ करता हूं ॥ १॥ तिथिचलसे नक्षत्रल चौगुना है, इससे. वारबल आठगुना, इससे करणबल द्विगुना, इससे योगबल द्विगुना इससे. ताराबल साठ गुना ॥ २॥ ताराबलसे चन्द्रबल शतगुना और चंद्रमासे +टी-अस्य वारवतस्प द्विगुणिता षोडशगुणवं ततोऽपि करणान् द्विगुणिता युजि योगे द्वात्रिंशद्गुणत्वम् । "Aho Shrutgyanam" Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् (४१७) लग्न शीतकरयोर्बलाबलादी हितं विदधतां सदा हितम् ||३|| बालबोधे तु-तिथिरेकगुणा प्रोक्ता वारस्तस्पाञ्चतुर्गुणः । तहषोडशगुणं धिष्ण्यं योगः शतगुणस्तथा ॥४॥ सहस्राधिगुणः सूर्यो लक्षाधिकगुणः शशी । दक्षजातिप्रियासाध्यो दक्षजातिप्रियस्ततः ॥५॥ बृहत्सु धान्यं कुरुते समर्धे जघन्यधिष्ण्येऽभ्युदितो महर्षम् । समेषु विष्ण्येषु समं हिमांशु- वेदन्त्यसन्दिग्धमिदं महान्तः | ६| फाल्गुनेऽर्के यदोदेति द्वितीया चन्द्रमास्तदा । राजा सुखी बहुर्वायुर्वहेरुपद्रवो महान् ||७|| तीडागमो बालरोगः करकापतनं भुवि । धान्यपीडा वनचरदुःखं धातुमहर्घना ॥८॥ सोमवारे घना मेघाभ्छत्रभङ्गान् महारणः । लग्नबल हजाग्गुना है। इसलिये लग्न और चंद्रमा का बलाबल का विचार कर सर्वशहितको धारण करना चाहिये || ३ || बालबोध में भी कहा है कि- तिथि एकगुना, इससे वारे चारगुना, इससे नक्षत्र सोलहगुना, इससे योग शतगुना ॥ ४ ॥ इससे सूर्य दूगुना और सूर्यसे चन्द्रमा लाखगुना अधिक फल देनेवाला है, वह चंद्रमा दक्ष जातिकी प्रियाओंसे साध्य है इसलिए दक्षजाति का प्रिय है ॥ ५ ॥ बृहत्संज्ञक नक्षत्र पर चंद्रमा उदय हो तो धान्य सस्ता, जघन्य संज्ञक नक्षत्र पर उदय हो तो महँगा और समसंनक्षत्र र उदय हो तो समान हो, यह विद्वानों ने संदेह रहित कहा है ॥ ६ ॥ फाल्गुन में रविवार को द्वितीया के दिन चंद्रमा उदय हो तो राजा सुखी, वायु अधिक, अग्नि का उपद्रव अधिक रहे ॥ ७ ॥ दीड्डी का भागमन, बालकों को रोग, पृथ्वीवर भोला गिरे, धान्य का विनाश, वनचर जीवको दु.ख और धातु महँगी हो ॥ ८ ॥ सोमवार को उदय हो तो बर्चा अधिक, छत्रभंग, महायुद्ध लोक सुखी, गौमों का दूध अधिक और धान्य "Aho Shrutgyanam" Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) मेघमहादये लोकः सुखी.गवां दुग्धं गहुधान्यसमुद्भवः ॥६॥ मङ्गले सबैलोकस्य कष्ट धान्यमहता। सूर्यस्य ग्रहां पुत्रविक्रयोऽनरुपद्रवः ॥१०॥ बुधे सर्वजनोगः पशुपीडाल्पनीरदः । राज्ञां विरोधोऽल्पफलं सर्वधान्यमहर्यता ॥११॥ गुरौ कर्षणनिष्पत्तिश्चतुष्पदमहासुखम् । व्यापारी निर्भया मार्गाः पातिसाहिरिनमः ॥१२॥ शुक्रे चन्द्रोदये खण्डवर्षा धान्यमहवैता। रोगो भयं जने दुःखं स्वल्पं वन्यप शुक्षयः ॥१३॥ शनौ धान्यमहर्घत्वं दक्षिणस्यां महारणः । स्वल्पमेवेन दुर्भिक्षं फाल्गुनस्य विदयात् ॥१४॥ शुक्लपक्षे दितीयाघां भानोर्वामोदयः शशी। तस्मिन मासे शुभं सर्व दुर्भिक्षं दक्षिगोदये ॥१५॥ अधिक उत्पन्न हों || ह ॥ मंलवारको उदय हो तो सब लोकको काट, धान्यं महेंगे, सूर्यका प्रहग, पुत्रका विक्रय और अग्निका उपद्रव हो ॥१०॥ बुधबार ही तो सब लोगों में व्याकुलता, पशुओं को पीडा, वर्षा थोड़ी, राजाओं में विरोध, फल थोड़े और सब प्रकार के धान्य महँगे हों ॥११॥ गुरुवार को उदय हो तो खेती अच्छी, पशुओं को बड़ा सुख, व्यापार अधिक, मार्ग निर्भय, पादशाह का पर्यटन हो ॥१२॥ शुक्रवार को उदय हो तो खंड वर्षा, धान्य महँगे, रोग भय, मनुष्योंमें थोडा दुःख और वनवासी पशुओं का नाश हो ॥१३॥ शनिवारको उदय हो तो धान्य महँगे, दक्षिण में बड़ा युद्ध, वर्षा थोड़ी और दुर्भिक्ष हो ऐसा फाल्गुन मासमें चंद्रोद का फल कहा ॥१४॥ शुक्लपक्ष द्वितीयाके दिन चंद्रमा सूर्यसे चामोदय (बायें सरफ उदय) हो तो उस महीने में सब शुभ हो और दक्षिणोदय हों ले समिक्ष हो॥१५॥ भाषाढ कृष्णपक्ष चंद्र के साथ रोहिणी को देखकर "Aho Shrutgyanam" Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफर्तम् वराह:- "प्राणेशमाषादतमित्रपते, क्षपाकरेोपगतं समीक्ष्य | वक्तव्यमिष्टं जगतोऽशुभं वा शास्त्रोपदेशाद् ग्रहचिन्तकेन ॥ रोहिणीशकटसोगः यथा रथात् पुरोऽश्वाः स्युः शीतगो रोहिणी तथा । उदेति चेत्सुभिक्षाय भवेन्मेघमहोदयः ॥१७ पल्लिपतिविनाशाय भूपाला रणकारिणः । विरोधान्मार्गसंरोधश्वर्यचर्या महाभयम् ॥१८॥ - रोहिणी रोहिणीनाथो रथे साम्यपथे व्रजेत । निष्पत्तावपि धान्यस्य नाशस्तीडादिदंष्ट्रया ॥ १९ ॥ हिमांशो रोहिणीपश्चादुदेत्यशुभवर्षकृत् । शुक्लतृतीयादिवसे वैशाखे तद्विचार्यते ||२०|| आर्द्रान्त्या तमोभुक्ते स्वातिमारभ्य यावता । विलोमगत्या कालेन तावता दैवयोगतः ॥२॥ भिनत्ति रोहिणीं चन्द्रस्तदा दुर्भिक्षमादिशेत् । शास्त्रों में कथानुसार ग्रहों के विचार द्वारा जगत् का शुभाशुभ कहना चाहिये ॥ १६ ॥ X जैसे रथके आगे घोड़े होते हैं, वैसे चंद्रमा के आगे यदि रोहिणी उदय हो तो मेघका उदय और सुभिक्ष हो ॥ १७ ॥ पल्लीपतीका विनाश, राजा युद्ध करनेवाले, विरोधसे मार्ग में अटकाव, चोरी और बड़ा भय हो ॥ १८ ॥ रोहिणी तथा चंद्रमा रथमें साम्यपथमें हो तो उत्पन्न हुए धान्य का टीड्डी आदि से विनाश हो ॥ १६ ॥ चंद्रमासे रोहिणी पीछे उदय हो तो अशुभ वर्षकारक है, इसका वैशाखशुक्ल तृतीया के दिन विचार करें ॥ २० ॥ राहु विलोम (उलटी ) गतिसे स्वातिसे आर्द्रा का अन्त्य भर्द्ध तक जिसने समयमें भोगे उतने समय में यदेि दैवयोगसे चंद्रमा रोहिणी को वेधे तो दुर्भिक्ष, राजाओं का विग्रहसे मरणा और प्रजाको अधिक दुःख हो ॥ २१ ॥ २२ ॥ "Aho Shrutgyanam" - Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोइये विपदाम्मरण राज्ञां प्रजानां दुःखमुल्वणम् ॥२२॥ देतीन्दुः स्तोकमपि रोहिणीशकट स्पृशन् । सम्पास्सैन्यबला धान्यनाशाविकटसङ्कटम् ॥२३॥ ब्राहया दक्षिण दिगभागे चरन् चन्द्रोऽतिदुःखदः । पाटयेद्रोहिणीमध्यं निशेशः क्लेशकृज्जने ॥२४॥ सूर्यचन्द्रमसौ ब्राहयां द्वितीयायां यदा स्थिती।। दुष्कालेन प्रजाहानिर्यदि वा विग्रहा ग्रहात् ॥२५॥ ऋरवेचे विधुः सौम्ये-दृष्टया ब्रहया उदग्दिशि । परंश्वराचरं विश्वं सुखभाक् कुरु तेजसा ॥२६॥ चन्द्रात् पृष्ठगता ब्राह्मी शुभा पुरोगतापि च । रोहिण्यामिन्दुराग्नेय्या-मुपसोय जायते ॥२७॥ नेत्यामीतिकृवायौ मध्या वृष्टिस्तु वायुनः । उत्तरैशानगश्चन्द्रः सर्वलोकशुभावहः ॥२८॥ इत्यर्घन: संहितायां रोहिणीशव योगः। यदि थोड़ा भी रोहिणी शकट को स्पर्श करता हुआ द्र ॥ उदय होतो. म्यसे सैन्यबलका और धान्धका विनाश ले बड़ा संकट हो ।। २३ ।। यदि चद्रमा रोहिणी के दक्षिण दिशामें रहकर उदय हो तो बहुत दुःखदायक हो और रोहिणी के मध्यमें उदय हो तो जगत् में क्लेशकारक हो ॥२४॥ सीया के दिन सूर्य और चंद्रना दोनों रोहिणी नक्षत्र पर स्थित हो तो दुष्कालते प्रजाका विनाश अथवा वित्रह हो ॥ २५ ।। रोहिणी की उत्तर दिशामें रहा हुमा चंद्रमा कूरग्रह से वेधित हो और शुभग्रह से देखे जाते हो तो चरा. घर जगत् सुखी हो ॥ २६ ॥ चंद्रमा से रोहिणी पीछे या आगे होतो. शु. भकारक है । रोहिणी की अग्नि कोण में चंद्रमा हो तो उपद्रव हो ॥२७॥ नैर्ऋत कोण में हो तो ईति कारक, वायव्य कोण में हो तो वायुसे मध्यम वर्षा, उसर और ईशान की तरफ चंद्रमा हो तो सब लोग सुखी हो ॥ २८॥ "Aho Shrutgyanam" Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिफ चन्द्राकृतिः वक्रोऽलिद्वितये सिंहे शूलाभः कन्यकाद्वये । मीने त्रये दक्षिणोच चन्द्रः शेषे समाकृतिः ॥ २९ ॥ विवरं हि समे चन्द्रे दुर्भिक्षं दक्षिणांनते । व्याविचौरभयं शूले सुभिक्षं चोत्तरोन्नते ॥ ३०॥ (४१) चन्द्रवस्त्रम् + सिंहे मेषइये रक्तः श्यामो मकरकुम्भयोः । तुलाकर्कालिषु श्वेतः पीतः शेषेषु शीतगोः ॥३१॥ - अरुणः शीतल किरणः करोति रसहानिमुग्ररणमर गाम् । " वृश्चिक धन और सिंहका चन्द्रमा कान टेढा, कन्या और तुला का चंद्रमा शूल की समान, मीन मेष और वृषका चन्द्रमा दक्षिण में ऊंचा और शेषराशिका चंद्रमा समान आकृतिवाला होता है ॥२६॥ सम चंद्रमा हो तो विग्रह, दक्षिण में ऊंचा हो तो दुर्लिक्ष, शूल समान हो तो रोग और चोरका भय और उत्तर तरफ ऊं हो तो मुभिक्ष हो ॥ ३० ॥ सिंह मेष और वृष में चंद्राका रक्त वस्त्र, मकर और कुंभ में श्याम (काला), तुला कर्क और दृश्चिक में श्वेत (सफेद) और शेर. शि में पीत व होता है ॥ ३१ ॥ रक्तचंद्र रस की हानि, बड़ा युद्ध और मग करता है । पीला चन्द्रमा रोग, मगरादि का भय और दुष्काल करता है +टी-चन्द्रवस्त्रवाहन - अजवृपविबुसिंह रक्तस्त्रैश्च नागेरलिमषमिथुने स्यात् पीतवस्त्राश्व वारी । तुलधनजलराशिः श्वेतवस्त्रैषा Hetaटककन्या श्यामवस्त्रैर्यमस्य ॥१॥ पुनः- मेत्रे च सिंहे वृषरक्तवस्त्र, कया च मीने धनुपीतवरूम् । तुलालिकर्केषु च श्वेतवस्त्रं युग्मे च कुम्भे मकरेहि श्यामम् ॥ १॥ रक्तवस्त्रे पीतवस्त्रे शुभाशुभम् । तवस्त्रे भवेल्लाभो कृष्णे च मरणं ध्रुवम् ॥२॥ "Aho Shrutgyanam" Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे पीतरोगनियोगं मकरादिभयं पुनः कालः ||३२|| धवलान्मङ्गलधवलैर्गानं सानन्दनं भुवनम् । व्यवसायेऽध्यवसायस्त्रिशायमपि धर्मकर्मजने ॥ ३३ ॥ सूरीन्दुजाङ्गारकसौरिभास्कराः, प्रदक्षिणां यान्ति यदा हिमद्युतेः । तदा सुभिक्षं धनवृद्धिरुत्तमा, विपर्यये धान्यधनक्षयादि ||३४|| दृश्यते यदि न रोहिणीयुनश्चन्द्रमा नभसि तोयदावृते । रुभयं महदुपस्थितं तदा भूश्च भूरि जल संस्य : युना ||३५|| नन्दायां ज्वलितो वह्निः पूर्णायां पांशुपातनम् । भद्रायां गोकुली क्रीडा देशनाशाय जायते ॥ ३६ ॥ यद्दिने गोकुली क्रीडा तद्दिनेऽभ्युदिते विधौ । तदा श्रोणि विनश्यन्ति प्रजा गावो महीपतिः ||३७|| अथ चन्द्रादर्धन् - ॥ ३२ ॥ सफेद चंद्रमा अनेक प्रकार के धवल मंगलादि गीतों से पृथ्वी मानंदित करता है, व्यापार में उत्साह और मनुष्यों में धर्मकर्म अधिक कराता है ॥३३॥ बृहस्पति बुध मंगल शनि और सूर्य ये चंद्रमा के दक्षिण चलें तो सुभिक्ष तथा धन वृद्धि उत्तम हो और विपरीत हो तो धन धान्य आदि का विनाश हो ॥ ३४ ॥ यदि मेव युक्त आकाश में चंदमा रोहिणी सहित न दीखें तो महा रोगभय हो और पृथ्वी जल और धान्य से पूर्ण हो । ३५ ॥ नंदातिथि में प्रकाशमान अग्नि, पूर्णातिथि में धूलि की वर्षा और भद्रातिथिमें गोकुल क्रीडा हो तो देश का विनाश हो ॥ ३६ ॥ जिस दिन गोकुलकीडा हो उस दिन चंद्रमा का उदय हो तो प्रजा गौ और राजाका विनाश हो ॥ ३७ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् "याञ्चन्द्रनाथ्यो मनुसंयुनास्ता, गुण्या नगैः पावकभागमत्ताः एकाक्शेषे कथितं सुभिक्षं, शून्येन शून्यं द्वितयेऽघहानिः ।। केवलकोतिराहःज्येष्ठोत्तारे समावस्यां भानोरस्तं विलोकयेत् । तथा चन्द्रमसश्चापि द्वितीयायां महोदयम् ॥३६॥ यद्युत्तरां शशी याति मध्यं या दक्षिणां रवेः । उत्तमो मध्यमो नीचकालः सम्पद्यते तदा ॥४०॥ रुद्रदेवस्तु-ज्येष्ठस्यान्ते प्रतिपदि सूर्यस्यास्तं विलोकयेत् । द्वितीयायां वीक्ष्यतेऽजं गतमुत्तरदक्षिणम् ॥४१॥ सुभिक्षमुत्तरदिशि विपरीतं तु दक्षिणे । तत्माम्ये मध्यम वर्ष ज्येष्ठान्ते तबदेवहि ॥४२॥ अथ सप्तनाडीचऋविमर्श:--- सप्तनाडीमये चक्रे शनिसूर्यारसूरयः । शुक्रज्ञचन्द्रा नाथाः स्युरष्टाविंशतिर्भानि च ॥४३॥ चंद्रनाकी घड़ी में चौदह जोड़कर सातसं गुणा करें पीछे इसमें तीन का भाग दें, एक शेष बचे तो मुभिक्ष, शून्य बचे तो शून्यता और दो बचे तो भर्धका विनाश हो ॥ ३८ ॥ ____ ज्येष्ठ अमावसके दिन सूस्त के समय देखे, वैसे द्वितीया के दिन चंद्रमाका उदयको देखे ॥३६॥ यदि सूर्यसे चंद्रमा उत्तर मध्य या दक्षिण तरफ उदय हो तो क्रमसे उत्तर मध्यम और नीच काल होता है ॥४०॥ ज्येष्ठ मास के अंत में प्रतिपदा को सुस्त समय या द्वितिण को उत्तर या दक्षिण तरफ चंद्राको दे वा चाहिये ॥४१॥ यदि उत्तर दिशामें उदय हो तो मुभिक्ष, दक्षिणमें उदय हो तो दुकाल और मध्यमें उदय हो तो मध्यम वर्ष हो । ४२॥ संतनाडीचक्रमें शनि सूर्य मंगल बृहस्पति शुक्र बुध और चंद्रमा के "Aho Shrutgyanam Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२४) मेत्रमहोदये प्रचण्डा प्रथमा नांडी पचना दहनी ततः। सौम्यनीरजलाख्याता अमृताख्यात्र सप्तमी ॥४४॥ नक्षत्रे ये ग्रहा यत्र ख्याद्यास्तत्र भान् न्यसेत् । तित्रः पातालसंज्ञाः स्यु ड्यस्तिस्त्रस्तथोर्ध्वगाः ॥४५॥ एका मध्यगता नाडी फलमासां परिस्फुटम् । नामानुसाराविज्ञेयं कृत्तिकादिभसप्तके ॥४६॥ रुद्रदेवस्तु"मध्यमार्गस्थिता सौम्या नाडी तदग्रपृष्ठतः। सौम्पय.म्याभिषं ज्ञेयं नाडिकानां त्रिकं त्रिकम् " ॥४७॥ याम्यनाडीगतः क्रुराः सौम्या सौम्यदिशि स्थिताः । सौम्यनाडी तु मध्यस्था ग्रहानुगफला इमा ॥४८॥ प्रावृहकाले समायाते रवेरा समागते । नाडीवेधसमायोगान्जलवृष्टिनिवेद्यते ॥४९।। यत्र नाडीस्थितश्चन्द्रस्तत्रस्थैः ऋरसौम्यकैः। . तदा भवेद महावृष्टिर्या वत्तस्थांशके शशी ॥५०॥ . अट्ठाईस नक्षत्रों का स्वामी हैं ॥४३॥ प्रथमा प्रचंडा नाडी, पवना, दहनी, सौम्य, नीर, जल और अमृता ये कमसे नाड़ी के सात नाम हैं ॥४४॥ रेवि आदि ग्रह जिम नक्षत्र पर हो उस नक्षत्रसे रखें । तीन नाडी पाताल संज्ञक, तीन नाडी उर्ध्व गामिनी और एक मध्य नाडी हैं इनका नामानुसार कृत्तिकादि सात २ नक्षत्र पर से स्फुट फल है ॥४५॥४६ ॥ मध्यमें रही हुई सौम्य नाडी है उसके अ.गे पीछे की सौम्य और याम्यनाडी ये सीन २ जानना !! ४७ ॥ याम्पनाडीने कामह और सौम्यनाडीमें शुभग्रह, मध्यकी सौम्यनाडी ये सब ग्रहों का गम से फलदायक हैं ॥४८॥ वर्षाकाल के समय रविका आर्द्रा में प्रवेश हो उस समय नाडीवेध द्वारा मेघवृष्टि मानी भासी है ॥ ४६॥ जिस नाडी पर चंद्रमा स्थित हो उस नाडी पर कर "Aho Shrutgyanam' Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् केवलैः सौम्यैः पापैर्वा ग्रहैयुक्तो यदा शशी । दत्ते सुस्थितपानीयं दुर्दिनं भवति ध्रुवम् ॥५१॥ नाडीस्वामियुतश्चन्द्रस्तद् दृष्टो वा जलप्रदः । शुक्रदृष्टो विशेषेण यदि क्षीणो न जायते ॥५२॥ पीयूषनाडीगश्चन्द्रो युक्तः खेटैः शुभाशुभैः । मुञ्चते तत्र पानीयं दिनान्येकत्र सप्तकम् ॥५३॥ दिनत्रयं पूर्णयांगे साई दिनं तदद्रके। पादोनयांगे दिवसो दिनार्द्ध पादतोऽम्बुदः ॥५४॥ निर्जला जलदा नाडी भवेद्योगे शुभाधिके । ऋराधिकसमायोगे जलदाप्यम्बुबाधिका ॥५॥ सौम्यनाडीगताः सर्वे वृष्टिदाः स्युर्दिनत्रये। शेषनाडीगताः सर्वे दृष्टवृष्टिप्रदा ग्रहाः ॥५॥ और सौम्य ग्रह स्थित हो तो जितना अंश चंद्रमा रहे उतना समय महान् वर्षा हो ॥५०॥ यदि चंद्रमा केवल सौम्य या पाप ग्रहों से युक्त हो तो वर्षा अच्छी हो तथा दुर्दिन निश्चय करके हो ॥ ५१ ॥ पंद्रना नाडीके स्वामीके साथ हो या दृट हो तो जलायक हो.।है, यदि शुक्रसे दृष्ट हो तो विशेष करके जलदायक होता है किंतु चंद्राक्षीग न हो तो ॥५२॥ मृतनाडी पर चंद्रमा शुभाशुभ ग्रहों से युक्त हो तो एक साथ सात दिन तक वर्षा हो ॥५३॥ पूर्ण योग हो तो तीन दिन, आबा योग हो तो डेढ दिन, पावयोग हो तो एक दिन और पावसे का यो। हो तो आधा दिन वर्षा होती है ॥५४॥ शुभग्रहों का योग अधिक हो तो निर्जला नाडी भी जलदायक हो जाती है और क्रू ग्रहोंका योग अधिक हो तो जलदायकनाडी भी वर्षाकी बाधक होती है ॥५५॥ सौम्यनाडी पर सब ग्रह हो तो तीन दिन में वृष्टिदायक होते हैं और बाकी की नाडी पर सब ग्रह हों तो दुष्ट वर्षादायक होते हैं ॥५६॥ याम्यनाडी पर क्र ग्रह स्थित हो तो विलंब से "Aho Shrutgyanam" Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) मेघमहोदये याम्यनाडीस्थिताः ऋरा दूरा धृष्टिप्रदा ग्रहाः । शुभयुक्ता जलनाड्यां सर्वे वृष्टिर्विधायिना ॥५॥ ग्राममं सौम्यनाडीस्थं तत्र चन्द्रसितस्थितौ । क्रूरयोगे महावृष्टिरल्पा क्रूरस्य दर्शने ॥५८॥ उदयास्तंगते मार्गे वक्रतायां च खेचराः । सचन्द्रजलनाडीस्था मेघोदयकरा मताः ॥५६॥ यदाहुः श्रीभद्रबाहुगुरुपादाः "रेहाहिं कित्तियाइ अट्ठावीसं पि ठवह पतीए । निप्पाइऊण ताहिं सत्तहिं नाडीहिं महभोई ॥१०॥ नाडीइ जत्थ चंदो पावो सोमो य तत्थ जइ दोवि । हुंती तहिं जाण वुट्टी इय भासह भद्दबाहुगुरू ॥६॥ एसोवि य पुणचंदो संजुत्तो केवलोव जइ होइ। केवलचन्दो नाडीइ ता नियमा दुद्दिणं कुणइ ॥२॥ वृष्टिदायक होते हैं। और शुभ ग्रहों के साथ जलनाडीमें हो तो सब वृष्टिकारक होते हैं ।। ५७ ॥ गांधका नक्षत्र सौम्यनाडीमें हो उस पर द्र। और शुक भी स्थित हो और कूरग्रह का योग हो तो महान् वर्षा हो तथा कूरग्रह की दृष्टि हो तो थोड़ी वर्षा हो ।। ५८ ।। ग्रह उदयास्त और. वक्री तथा मार्गी होनेके समय में चंद्रमा के साथ जलनाडीमें स्थित हो तो मेधके उदयकारक माना गया है ।।५।। महाभुजंगसदृश सप्तनाडी वाला चक बनाकर इसमें सीधी रेखामें कृसिकादि अट्ठाईस नक्षत्र क्रमसे रखें ॥६० ॥ जिस नाडी पर चंद्रमा हो उस नाडी पर यदि केवल पाप और शुभ ग्रह हो या दोनों साथ हो तो वर्षा होती है ऐसा भद्रबाहु गुरु कहते हैं ॥६१॥ ऐसे. पूर्ण चंद्रमा अन्यग्रहोंसे युक्त होगा केवल हो तो भी वर्षा होती है । अकेला चन्द्रना.ही नाडी में स्थित हो तो दुर्दिन निश्चय से होता है ॥ ६२ ॥ इन नाडियों में अमृता दि "Aho Shrutgyanam" Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् (४२७) एयाणं पि य मज्झे अमियाइ तिए जलासयो अहिओ। तुरियाए वायमिस्सो सेसासु समीरणो अहिओ ॥१३॥ जइ सव्वाणवि जोगो गहाण अमियाइ तिगे अनाधुट्टी। अट्ठार १८बार १२छर्दहिण सेसासु फलं जहापत्तं ॥४॥ विजला वि वाउनाडी देइ जलं सोमखहरयाजोगा । जलनाडी तुच्छजलं पावाहियजोगओ देह ॥६५॥ जइ वाउनाडीपत्ता सणिभोमा किमवि नहु जलं दिति। मोमजुना तेउ जलं अइसयजोएण वरिसंति ॥६॥ + विसमयरकुंभमीणा सीहो काकडयविच्छियतुलाओ। सजलाओ रासीओ सेसा सुका वियाणाहि ॥७॥ रविसणिभोमनुक्का चंदविढप्पो य बुहगुरू सुक्को । एए सजला णिचं णायव्वा आणुपुन्बीए ॥६॥" . इति भद्रबाहुसंहितायाम् । तीन नाडी अधिक जलदायक होती हैं, चौथी नाडी वायु मिश्र जलदायक है और बाकी की नाडी अधिक वायुकारक हैं ।। ६३॥ यदि समस्त ग्रहों का योग अमृतादि तीन नाडी पर हों तो क्रमसे अठारह बारह और छ दिन अनावृष्टि रहे और बाकी के नाडी का फल यथायोग्य जानना ॥६४॥ यदि शुभग्रहों का अधिक योग हो तो निर्जला-वायुनाडी भी जलदायक हो जाती है और पापग्रहों का अधिक योग हो तो जलनाडी भी तुच्छ जल देती है ॥६५॥ यदि शनि तथा मंगल वायुनाडी में हो तो कुछ भी जल नहीं देती किंतु शुभग्रहों के साथ अतिशय जोग हो तो जल बरसते हैं ॥६६॥ वृष मकर कुंभ मीन सिंह कर्कट वृश्चिक और तुला ये राशि जलदायक हैं और बाकी की शुष्क (निर्जल ) हैं ॥ ६७ ॥ रवि शनि मंगल ये शुष्क (निर्जल) +टी- कुभमीनमृगकर्कटवृषवृश्चिकतौलसंशकाः। सप्ताः स्युर्जलराशय एते शेषा जलवर्जिताः पञ्च ॥९॥ "Aho Shrutgyanam" Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२८) विशेषश्चात्र ग्रन्थान्तरात्कृत्तिकादिभररायन्तं सप्तनाडीसमन्वितम् । भुजङ्गभीमसंस्थानं चक्रमेवं क्रमालिखेत् ॥ ६९ ॥ शुभनक्षत्रमारुतैः शुभवारगतैर्ग्रहैः । चन्द्रं संश्रयते वृष्टिर्नार्ड चक्रे व्यवस्थितम् ॥७०॥ क्रूगः क्रूरेण सम्भिन्नाः सौम्याः सौम्येन संयुताः । दुर्दिनं तत्र विज्ञेयं मित्रैर्वृष्टिमिहादिशेत् ॥ ७१ ॥ शनैश्चरार्कचन्द्राणां यद्वा योगे x ज्ञशुक्रयोः । एकनाड्यां तदा दीप्तस्तडित्पातश्च दुर्दिनम् ॥७२॥ यदा शुक्रेन्दुजीवानामेकनाड्यां समागमः । तदा भवेन्महावृष्टया सर्वत्रैकार्णवा मही ॥७३॥ एकनाडी समारूढौ चन्द्रमावरणीसुतौ । यदि तत्र भवेज्जीवो योग एकार्णवस्तदा ||७४ || मेघमहोदये हैं, पूर्ण चंद्रमा बुध गुरु और शुक्र ये कर निश्चय से जलायक जानना ॥६८॥ कृत्तिकादिसे भरणी तक के नक्षत्र और सप्तनाडी वाला ऐसा बड़ा भयंकर सर्व के आकार का चक्र बनाना ॥ ६६ ॥ इसमें शुभनक्षत्र और शुभग्रहोंसे चन्द्रमा युक्त हो तो वृष्टिकारक होता है ॥ ७० ॥ क्रूर ग्रह क्रूरों के और सौम्प्ग्रह सौम्यग्रहों के साथ हो तो दुर्दिन जाना, और मित्रहो तो वृष्टिकारक होते हैं ॥ ७१ ॥ शनि और सूर्य के साथ या बुध और शुक के साथ चंद्रमा एक नाडी पर हो तो विद्युत्पात और दुर्दिन होता है ॥ ७२ ॥ यदि शुक चन्द्रमा और बृहस्पति एक नाडी पर हो तो महान् वृष्टिसे पृथ्वी एकार्णव ( जलमय ) हो जाय ॥ ७३ ॥ चन्द्रमा और मंगल एक नाडी पर हो और साथ बृहस्पति भी हो तो पृथ्वी जलमय हो जाय ॥ ७४ ॥ शुभ और क्रूर x टीलोकेऽपि तुरगुरु जो बुध मिले, तीजो शशिहर जोय । ॥ वेला मैं तुझ कयुं, जलहर सुरे जोय ॥१ - "Aho Shrutgyanam" Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् ऊयनाडीस्थितैर्वायुः खण्डवृष्टिस्तु मध्यगैः । ग्रहैः पातालनाडीस्थैः सौम्यैः क्रूरैजेलं बहु ॥७॥ ऊर्ध्वनाडीगते शुक्रे चन्द्रेऽधो नाडिकास्थिते । महावायुरधो नाड्यां योर्योगे महाजलम् ॥६॥ सौम्यग्रहयुते चन्द्रे सौम्यनाडी प्रचारिणी । जलराशिप्रसङ्गेन वृष्टियोगः प्रकीर्तितः ॥७॥ एकत्र बुधशुक्राभ्यां जलनाड्यां शशी भवेत् । महावृष्टिस्तदा वाच्याऽहिचक्रे सप्तनाडिके॥७८॥ अमृतांशुरयं साक्षात् करोत्यमृतवर्षणम् । स्थितोऽप्यमृतनाड्यां चेत् सौम्यासौम्यसमन्वितः ॥७६|| इति सप्तनाडीचक्रे चन्द्राद् वृष्टिज्ञानम् । उत्तरेण ग्रहाणां तु चन्द्रचारो भवेद्यदि । सुभिक्षं क्षेममारोग्यं विग्रहो नात्र वत्सरे ॥८॥ पश्चतारा ग्रहा यत्र सोमं कुर्वन्ति दक्षिणे। ग्रह ऊर्चनाडी पर हो तो वायु चल, मध्यनाडी पर हो तो खण्डवर्षा हो और पातालनाडी पर हो तो वर्षा अधिक हो । ७५ ॥ ऊर्ध्वनाडी पर शुक्र और अधःनगडी पर चंद्रमा हो तो अध:नाडी से महावायु और दोनों के योगमें महावृष्टि हो ॥ ७६ ॥ चन्द्रमा सौम्यग्रहों के साथ सौम्यनाडी पर हो तो जलराशि के द्वारा वर्षाका योग कहा है ॥ ७७॥ सतनाडीवक्रमें एकही साथ बुध शुक्र और चंद्रमा जलनाडी पर हो तो महान् वर्षा हो ॥ ७८॥ यदि चन्द्रमा शुभग्रहों के साथ अमृतनाडी पर हो तो अमृत-जल की वर्षा करता है ॥ ७९ ॥ इति सप्तनाडीचक !! प्रोंके उत्तर भागमें चन्द्रमा हो तो उस वर्ष में सुभिक्ष, क्षेम, और आरोग्यता हो,विन न हो ॥८०॥ यदि पांच प्रड क्रमसे चन्द्रमा के दक्षिण दिशामें हों तो उसका फल-मंगल हो तो राजाको कष्टकारक, शुक्र हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) मेघमहोदये भौमे च राजमारी स्याज्जनमारी च भार्गवे ॥८१॥ बुधे रसक्षयं विद्याद् गुरौ कुर्यान्निरौदकम् । शनावर्थक्षयं कुर्याद् मासे मांसे विलोकयेत् ॥८२॥ चित्रानुराधा ज्येष्ठा च कृतिका रोहिणी तथा । मघा मृगशिरो मूलं तथाषाढा विशाखयोः ॥८३॥ एतेषामुत्तरामार्गे यदा चरति चन्द्रमाः । सुभिक्षं क्षेमवृद्धिश्च सुष्षृष्टिर्जायते तदा ॥८४॥ एतेषां दक्षिणे मार्गे यदा चरति चन्द्रमाः । क्षयं गछन्ति भूनाथा दुर्भिक्षं च भयं पथि ॥८५॥ इति * श्रथ चन्द्रोदयफलम् चन्द्रोदये मेषराशौ ग्रीष्मे धान्यमहघेता । वृषे माषतिलमुद्गतुच्छधान्य महता ||८६ ॥ कर्पाससूत्ररूतादिमहर्घ मिथुने स्मृतम् । मनुष्यों को कष्ट, बुध हो तो रसक्षय, गुरु हो तो निर्जल और शनि हो तो धनक्षय जानना | यह प्रतिमास देखकर फल कहें ॥ ८१ ॥ ८२ ॥ चित्रा, अनुराधा, ज्येष्ठा, कृत्तिका, रोहिणी, मत्रा, मृगशिरा, मूल, पूर्वाषाढा और विशाखा, इन नक्षत्रों के उत्तर मार्ग में चन्द्रमा चलें तो मुभिक्ष, कल्याण की वृद्धि और वर्षा अच्छी हो ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ और इनके दक्षिण मार्ग में चंद्रमा चले तो राजाओं का विनाश, दुर्भिक्ष और मार्ग में भय हो ॥८५॥ चंद्रमाका उदय मेषराशि हो तो ग्रीष्मऋतु में धान्य महँगे हों । वृषराशिमें हो तो उड़द, तिल, मूंग और तुच्छ धान्य महँगे हों ॥ ८६ ॥ मिथुनराशि *टो-जो शशि उगे सोम शनि, ए अचंभो दिन जोय । छत्र पडे दिन तीसमे, अन्न महंगो होय ॥१॥ अह भरणि असलेस वि जिट्ठा, धने पुनर्वसु सयभिस ट्टा | यह रिक्खे जह उगमे मयंका, तो महीमंडल रूलैकारंका ॥२॥ " Aho Shrutgyanam" Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् (४३१) अनावृष्टिः कर्कराशौ सिंहे धान्यमहर्घता ॥८७॥ चतुष्पदविनाशोऽपि राज्ञामन्योऽन्यविग्रहः । द्विजादिपीडा कन्यायां तुलायाणकं प्रियम् ॥८॥ वृश्चिके धान्यनिष्पत्तिधनुर्मकरयोः शुभम् । कुम्भे चणकमाषादि-तिलानां नाश इष्यते ॥८९।। मीने सुभिक्षमारोग्यं फलं द्वादशराशिजम् । एवं ज्ञेय द्वितीयायां नियमेऽप्यत्र भावनात ॥६॥ इति । चन्द्रास्तफलम् - चन्द्रास्ते मेषराशिस्थे सर्वधान्यमहर्घता । वृषे च गणिकापीडा मृत्युश्चौरभयं जने ॥११॥ मिथुनेऽप्यतिवृष्टिः स्याद् बीजवापेन पुष्टये । कर्कटेऽप्यतिवृष्टिः स्यात् सिंहे धान्यमहर्षता ॥२॥ में हो तो कपास, सूत, रूई अदि महँगे हो । कर्कराशि में हो तो अनावृष्टि । सिंहराशि में हो तो धान्य महँगे हों ||८७॥ तथा पशुओंका विनाश और राजाओं में परस्पर विग्रह हो । कन्या राशि में हो तो ब्राह्मण आदिको पीडा । तुलाराशि में हो तो कयाणक (व्यापार ) प्रिय हो ||८८|| वृश्चिकराशि में हो तो धान्य की उत्पत्ति हो । धनु और मकरराशि में हो तो शुभ होता है । कुंभराशि मे हो तो चणा, उडद, तिल इनका विनाश हो ||. ८६॥ मीनराशि में हो तो सुभिक्ष और आरोग्यता हो । यह बारह राशियोंके फल शुक्ल द्वितीया के दिन याने शुक्ल पक्ष में नवीन चन्द्रोदय के दिन विचार करें ऐसा नियम है ॥६० ॥ इति चन्द्रोदय ॥ - चंद्रमाका अस्त मेषराशि पर हो तो सब प्रकार के धान्य महँगे हो । वृषराशिमें हो तो वेश्याको पोडा, मनुष्यों का अधिक मरण और चोर का भय हो ॥११॥ मिथुनराशिमें हो तो वर्षा बहुत हो, बीज बोनेसे अधिक मुष्ट हो । कर्कराशि में हो तो वर्षा बहुत हो । सिंहराशि में हो तो धान्य "Aho Shrutgyanam Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३२) मेघमहोदये कन्यायां खण्डवृष्टिश्च सर्वधान्यमहर्घता। तुलायामल्पवृष्टया स्याद् देशभङ्गो भयं पथि ॥६॥ वृश्चिके मध्यमं वर्षे ग्रामनाशोऽप्युपद्रवात् । सुभिक्षं धनुषि धान्यैर्मकरे धान्यपीडनम् ॥१४॥ कुम्भेऽल्पवृष्र्धािन्यानि महर्षाणि प्रजाभयम् । सुखसम्पत्तयो मीने मासं यावदिदं फलम् ॥६५॥ अमावसी यदा लग्ना तद्राशिरिह चिन्तये। शुक्लस्यादावुद्यवन्न चन्द्रास्तकथान्यथा ॥६६॥ वारनक्षत्रफलवत्तहिने राशिजं फलम् । अमावस्या विचारेण शेषं फलमिहोयताम् ॥९॥इति ॥ वैशाखे यदि वा ज्येष्ठे उत्तरस्यां विधूदये । बहुधा धान्यनिष्पत्त्यै भवेन्मेघमहोदयः ॥१८॥ म.गे हो ॥ ६२ ॥ कन्यासाश में हो तो खंडवर्षा और सब प्रकार के धान्य महँगे हो । तुलाराशिने हो तो वर्षा थोड़ी, देशका भंग और रास्ता में भय हो ॥ ३ ॥ वृश्चिकमें हो तो वर्ष मध्यम और उपद्रवोंसे गांव का विनाश हो । धनुराशिमें हो तो धान्यसे सुभिक्ष हो । मकरराशि में हो तो धान्यका विनाश हो ॥१४॥ कुंभराशि में हो तो वर्षा थोड़ी, धान्य महंगे और प्रजा को भय हो । मीनराशिमें हो तो सुख संपत्ति हो । यह एकमास तक का फल जानना ॥ ६५ ॥ किंतु चंद्रास्त का विचार अमावस जिस समय लगें उस समय राशिका विचार करना, जैसे शुक्लपक्षके दिमें उदय का विचार करते हैं वैसे चंदास्त का विचार है यह अन्यथा नहीं है ॥ १६ ॥ राशियों के फल वार नक्षत्र की तरह उस दिन विचार करें और शेष फल अमावसके विचारसे यहां कहें ॥१७॥ वैशाख और ज्येष्ठ मास में चंद्रमा का उदय उत्तर दिशा में हो तो धान्यकी प्राप्ति अधिक हो तथा मेघका उदय हो ॥१८॥ तिथिका प्रमाण "Aho Shrutgyanam" Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् तिथिः षष्टिघटीमाना त्र्यंशेऽस्या विंशनाडिकाः । वृहधिष्ण्यस्य चाद्यांशे नाड्यः पञ्चदश स्मृताः ॥१९॥ त्रिंशन्नाख्यो द्वितीयांशे तृतीयेंऽशे युगेषवः। राशिभोगात् तथैवेन्दोस्न्यंशाःकल्प्याःस्वयं धिया ॥१०॥ बृहदधिष्ण्यस्य चाधोंऽशश्चन्द्रतिथ्योरथांशकः । प्राये भवेत् त्रिधातौल्येसूर्यो धनुषि याति चेत् ॥१०॥ उत्तमाघस्तदा वर्षे रवौ शुभेऽक्षितेऽधिकः। यदा तु गुरुधिष्ण्यस्य कण्टकः स्याद् द्वितीयकः ॥१०२॥ चन्द्रराशेस्तिथेश्चापि कण्टकोऽथ द्वितीयकः। तदाप्युत्तम एवा? विज्ञातव्यो महर्द्धिकैः ॥१०॥ यदा तु गुरुधिष्पयस्य तृतीयकण्टको भवेत् । चन्द्रधिष्ण्यतिथेचापि तृतीयश्चोत्तमोत्तमः ॥१०४॥ बृहदृक्षाद्यभागश्चेचन्द्रतियोईितीयकः । तदापि चोत्तमाघः स्यान्नक्षत्रस्य स्वभावतः ॥१०॥ साठ घड़ी और उसका तृतीयांश वीस घड़ी हैं । बृहत्संज्ञक नक्षत्रका प्राद्य अंश पंद्रह घड़ी का होता है | ह ॥ द्वितीयांश तीस घड़ी का और तृतीयांश पैतालीस घड़ी का होता है । इसी त ह राशिके भोगसे चंद्रमाका तीन अंश स्वयं बुद्धिसे विचार लेना ॥१०॥ यदि सूर्य धनुराशि पर हो और बृहत् संज्ञकनक्षत्र चंद्रमा और तिथि ये तीनों आद्य अंश में हो तो ॥ १०१ ॥ उस वर्ष में उत्तन धान्य प्राति हो, यदि सूर्य शुभग्रहों से देखा जाता हो तो विशेष अधिक धान्य प्राप्ति हो । यदि बृहद्नक्षत्र का दूसरा अंश और चंद्रराशि तथा तिथि का भी दूसरा अंश हो तो उत्तन प्राप्ति धनवानोंको जाननी ॥१०२॥१०३॥ यदि बृहदनक्षत्रका तीसरा अंश हो और चंद्रमा तथा तिथि का भी तीसरा अंश हो तो उत्तमोत्तम प्राप्ति हो ॥१०४॥ बृहदुनक्षत्रका प्रथम अंश और चंद्रमा तथा तिथिका दूसरा अंश "Aho Shrutgyanam" Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये बृहदृक्षाद्य भागश्च प्रान्तश्चन्द्र तिथेरपि । तदोत्तमस्वदेश्यार्घपादः स्याच्छास्त्रसम्मतः ॥१०६ ॥ गुर्वृक्षमध्यमो भागश्चन्द्र तिथ्योरथान्तिमः । तदा मध्यो भवेदर्धो गुरुनक्षत्रवैभवात् ॥ १०७॥ एवं चन्द्रतिथिभ्यां च महद्दक्षं विचारितम् । त्रिंशन्मुहूर्त्तकेऽप्येवमादिमध्यान्तकल्पना ॥ १०८ ॥ मध्यर्क्षस्याद्यभागञ्चेचन्द्र तिथ्पोरथादिमः । तदा मध्योत्तमार्घः स्याद्धान्यस्य विदुषो मतः ॥ १०६ ॥ मध्यर्क्षमध्यभागश्वेश्चन्द्रतिध्योश्च मध्यमः । तदा मध्योत्तमार्घः स्यादन्तिमेऽपि च मध्यमः ॥ ११० ॥ मध्यर्क्षस्यापि मध्यश्चेचन्द्र तिथ्योरथादिमः । तदापि मध्य एवार्थो द्वयोर्मध्येऽपि मध्यमः ॥ १११ ॥ पञ्चदशमुहूर्त्त भं चन्द्रेण तिथिना स्मृतम् । (३६) हो तो भी नक्षत्रका स्वभाव से उत्तम धान्य प्राप्ति हो ॥ १०५॥ बृहद्नक्षत्र का प्रथम भाग और चंद्रमा तथा तिथिका अन्त्यभाग हो तो उत्तन प्राप्ति हो यह शास्त्र में माननीय है ॥ १०६ ॥ बृहद्नक्षत्रका मध्य भाग और चंद्रमा तथा तिथिका अंत्य भाग हो तो नक्षत्रका प्रभावसे मध्यम प्राप्ति हो ॥ १०७ ॥ इसी तरह चंद्रमा तिथि और बृहद्नक्षत्रका विचार किया । उसी तरह तीस मुहूर्त्तत्राला मध्यनक्षत्रका भी आदि मध्य और अन्त्य ऐसे तीन भाग कल्पना करना ॥ १०८ ॥ मध्यनक्षत्रका आदि अंश और चंद्रमा तथा तिथिका भी आदि अंश हो तो मध्यम उत्तन धान्य प्राप्ति हो ऐसा विद्वानों का मत है ॥ १०६॥ मध्यनक्षत्रका मध्य भाग और चंद्रमा तथा तिथिका भी मध्य भाग हो तो मध्यम उत्तम हो और अंतिम भाग में हो तो मध्यम प्राप्ति हो ॥ ११० ॥ मध्यनक्षत्र का मध्य भाग और चंद्रमा तथा तिथिका आदि भाग हो तो मध्यम और दोनों मध्य भागमें हो तो भी मध्यम प्र.वि. "Aho Shrutgyanam" Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रचारफलम् प्राथमध्यान्तभागेन जघन्याप्रसाधनम् ॥११२॥ लध्यक्षस्थाधभागश्चेचन्द्रतिथ्योरथादिमः ।। स्याजघन्योत्तमा?ऽपि लघ्वक्षमध्यमो यदि ॥११३॥ चन्द्रतिथ्योश्च मध्योऽस्ति सदा जघन्यमध्यमः । लध्यक्षस्थान्त्यभागश्चेचन्द्रतिथ्योस्तथान्त्यगः ॥११४॥ तदा दुर्भिक्षमादेश्यं नक्षत्रदुष्टभावतः । विकल्पैः सकलैरेवं सुभिक्षं पृच्छतां वदेत् ॥११॥ शुक्रः कुजो वुधः शौरिगुरुधिष्ण्येऽस्ति राशिगः। तदा जने समर्घ स्यान्मध्यं मध्येऽधमेऽधमम् ॥११६॥ इति धनुःसंक्रमे चन्द्रतिथिनक्षत्रविभागैर्वार्षिकमर्घज्ञानं तदनुसारेण सर्वसंक्रान्तिदिनापेक्षया मासिकमज्ञानं चं बोध्यम् । रामविनोदग्रन्थकर्ता तु वर्षराजापेक्षया तत्तद्राशिधन्मनुष्याणामायव्ययवद्धान्येऽपि विशेषार्थज्ञानाय यंत्रकं प्राह--- हो ॥१११॥ इसी तरह पंद्रह मुहूर्त वाला जघन्य नक्षत्र चंद्रमा और तिथि इनका मादि मध्य और अंत्य ऐसे तीन २ भाग जघन्य अर्घ साधन के लिये कल्पना करें ॥११२॥ लघुनक्षत्र का प्राद्य भाग और चंद्रमा तथा तिथि का भी आदि भाग हो तो जघन्य उत्तमार्य प्राप्ति । लघुनक्षत्रका मध्य भाग और चंद्रमा तथा तिथिका भी मध्यभाग हो तो जघन्य मध्यम । लघुनक्षत्र का अंत्यभाग और चंद्रता तथा तिथिका भी अन्त्यभाग हो तो नक्षत्र का दुष्टभाव से दुर्भिक्ष कहना । इसी तरह समस्त विकल्पों का विचार कर पूछनेवालेको सुंभिक्ष प्रादि कहें ॥११३ से ११५॥ शुक्र, मंगल, बुध और शनि ये बृहदनक्षत्र पर हो तो लोक में धान्यादि सस्ते, मध्यनक्षत्र पर हो तो मध्यम और अधमनक्षत्र पर हो तो अधम कहना ॥११६॥ यह धनुसंक्रांति में चंद्रमा तिथि और नक्षत्र के विभाग द्वारा वार्षिक अर्घज्ञान कहाँ । इसी तरह सब संक्रांतिके दिनकी अपेक्षासे मासिक अर्घज्ञान जानना चाहिये। "Aho Shrutgyanam" Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये अष्टोत्तरीदशावः संशोधितमिदमायव्यय चक्रम् .. 3 - - - -- - - - इति वर्षराजस्योपरि सर्वराशिषु आयव्यययंत्रस्थापना। आयेऽधिके समर्घत्वं महर्घत्वं व्ययेऽधिके । योः साम्ये च समता त्रिधा धान्याता मता ॥११॥ रामविनोद ग्रन्थकारक तो वर्षराजाकी अपेक्षास उन २ रशियों की तरह मनुष्यों का प्राय व्ययकी तरह धान्यमें भी विशेष जानने के लिये यंत्र कहते है-- आय अधिक हो तो सस्ते, व्यय अधिक हो तो महँगे और दोनों "Aho Shrutgyanam" Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गल चारफलम् धातुमूलजीववस्तुष्वेवमर्ध समादिशेत् । ग्रहवेधो न चेत्तत्र सर्वतोभद्रसम्भवः ॥ ११८ ॥ सकलापि कलाभृतः कला यदि नास्त्यचला चलाचला । जलदैर्जल दैन्यवार कै- बहुधान्योदयलब्धवारकैः ॥ ११६ ॥ (४३७) अथ मङ्गलचारः । नक्षत्रोपरिचारफलम् --- शीतपीडाविनीभौमे तुषधान्यमर्घता । द्विजपीडा भरण्यारे नाशः स्यादतसीद्रुमे ॥ १२० ॥ सर्वदेशे ग्रामपीडा धान्यानां च महघेता । कृत्तिकायां मङ्गलः स्याद् भङ्गोऽपि तापसाश्रमे ॥ १२१ ॥ वृक्षपीडा श्वापदानां रोगः स्यादु रोहिणीकुजे । महघेतापि कर्पासे वस्त्रे सूत्रे विशेषतः ॥ १२२ ॥ बराबर हो तो समान भाव रहें, यह तीन प्रकार से धान्यकी अर्वता कही || ११७ ॥ इसी तरह धातु मूल और जीव वस्तुओंका भाव कहें, यदि वहां सर्वतोभद्र से उत्पन्न ग्रहवेध न हो तो ॥ ११८ ॥ कलाको धारण करनेवाले चन्द्र की कला जल की दीनता को निवारण करनेवाले तथा बहुत धान्य के उदयकी प्राप्ति को निवारण करनेवाले ऐसे मेघोंसे अचल नहीं हैं किंतु चलाचल है ॥ ११६ ॥ मंगल अश्विनी नक्षत्र पर हो तो शीतकी पीडा, तुष और धान्य महँगे हो ! भरणीनक्षत्र पर मंगल हो तो ब्राहाणोंको पीडा, और वृक्ष में अलसी का नाश हो ॥ १२० ॥ तथा सब देशों में गाँवको पीडा और धान्य महँगे . हो । कृत्तिका में मंगल हो तो तापसोंके आश्रम का विनाश हो ॥१२१॥ रोहिणी में मंगल हो तो वृक्षों का नाश तथा पशुओं को रोग हो । और "Aho Shrutgyanam" Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३८) मेघमहोदये कर्पासनाशः प्रमलं सुभिक्षं, - मृगे कुजे भूजलपूरितैव । वृष्टिने रौद्रेऽदितिजे तिलानां, - नाशो विनाशो महिषीकुलस्य ॥१२॥ पुष्ये कुजे चौरभयं विरोधाच्छुभं न किञ्चिन्नुपनिर्यलत्वम् । सार्थेऽल्पवृष्टिबहुधान्यनाशादु, दुर्भिक्षमेवोरगदंशभीतिः॥ पैत्र्ये न वृष्टिस्तिलमाषमुग-विनाशनं दुर्लभताऽन्यधान्ये । स्याद्योनिदेवे क्षितिजेऽल्पवृष्टिःप्रजासु पीडागुडतैलमूल्यम्।। तथोत्तरायां जलवृष्टिरोधाचतुष्पदे पीडनमश्वमूल्यम् । हस्ते कुजेऽल्पाम्बु च तुच्छधान्यं, . घृतं गुडो वा लवणं महर्घम् ।।१२६॥ चित्राकुजे तीव्ररुजोऽतिपीडा, शालीष्टगोधूममहतापि । कपास, वस्त्र, सूत ये विशेष करके महँगे हो ॥१२२॥ मृगशिर में मंगल हो तो कपास का विनाश तथा बहुत मुभिक्ष हो और पृथ्वी जलसे पूर्ण हो । आद्रा में मंगल हो तो वर्षा न हो । पुनर्वसु में मंगल हो तो तिल. और भैसकुलका विनाश हो ॥१२३॥ पुण्यमें मंगल हो तो चोरों का भय हो, विरोध हो जाने से कुछ भी शुभ न हो और राजा निर्बल हो। आश्लेषा में मंगल हो तो वर्षा थोड़ी, बहुत धान्यका विनाश होनेसे दुर्भिक्ष और सर्पका भय हो ॥ १२४ । मघामें मंगल हो तो वर्षा न हो, तिल उड़द और मूंगका विनाश, तथा धान्य दुर्लभ हो । पुर्वाफाल्गुनीमें मंगल हो तो वर्षा थोडी, प्रजा में पीडा, गुड और तेल तेज हो ॥ १२५ ॥ उत्तराफाल्गुनीमें मंगल हो तो जलवर्षा का रुकाव होनेसे पशुओं में पीडा तथा घोड़ों का मूल्य अधिक हो । हस्त में मंगल हो तो जंल थोडा, तुच्छ धान्य, घी गुड और लूण (नमक) ये महंगे हों ॥१२६॥ चित्रामें मंगल "Aho Shrutgyanam" Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलचारफलम् (४३९) स्वातायनावृष्टिरथ द्विदेवे, कर्पा सगोधूमहभावः ॥ १२७॥ मैत्रे सुभिक्षं पशुपक्षिपीडा, ज्येष्ठाकुजे स्वल्पजलं च रोगाः । मूले द्विजक्षत्रियवर्गपीडा, महता वा तुपधान्धराशेः ॥ १२८ ॥ पूषा कुजे भूरि जलाः पयोदा, गावोऽल्पदुग्धा वसुधान्नपूर्णा । महता शालितिलाज्यमाषे वग्रेऽपि तत्पूर्ववदेव भाव्यम् ॥ १२६ ॥ श्रुतौ च रोगा बहुधान्ययोगो, भूम्यां न पश्चाज्जलदागमश्च । स्पाइसवे वासववत्समृद्धि-धन्यैः समर्धे गुडशर्करादि | १३०| स्युर्वारुणे कीटकमूषकाद्यास्तथापि धान्यानि बहूनि भूम्याम् । हो तो तीव्ररोग की बहुत पीडा, चावल और गेहूँ महँगे हो । स्वाति में मंगल हो तो अनावृष्टि हो । विशाखा में मंगल हो तो कपास और गेहूँ महँगे हो ॥ १२७॥ अनुराधा में मंगल हो तो सुभिक्ष और पशु पक्षियों को पीड़ा हो । ज्येष्ठा में मंगल हो तो जल थोडा तथा रोग हो । मूल में मंगल हो तो ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग को पीडा, या तुष और धान्य महँगे हों ॥ १२८ ॥ पूर्वाषाढा में मंगल हो तो बहुत जल देनेवाले मेघ हों, स्मै, दूध. थोड़ा दें तथा पृथ्वी धान्यसे पूर्ण हो । चावल, तिल, घी, उडद ये महँगे हो । उत्तराषाढामें भी पूर्वाषाढाकी तरह जानना ॥ १२६ ॥ श्रवण में मंगल हो तो रोग हो, धान्य की अधिक प्राप्ति और पीछे भूमि पर वर्षा न हो । धनिष्ठामें मंगल हो तो इंद्रकी तरह समृद्धि हो, धान्य और गुड. चीनी सस्ते हों ॥ १३० ॥ शतभिषा में मंगल हो तो कीट चूहा श्रादिका उपद्रव हो तो भी पृथ्वीमें बहुत धान्य हो । पूर्वाभाद्रपदा में मंगल "Aho Shrutgyanam" Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४०) मेघमहोदये पूभामहीजे तिलवस्त्ररूतकर्पासपूगादिमहर्घता वा॥१३१॥ दुर्भिक्षमेवोत्तरभाद्रिकायां, वर्षा न मेघो नयनेऽपि किश्चित्। सौख्यं सुभिक्ष क्षितिजे सपौष्ण्ये नरेषुरोगा बहुधान्यलक्ष्म्या ।।१३२।। इति ।। मङ्गलवक्रिफलम्यत्र राशौ कुजो याति वक्र तत्र सुनिश्चितम् । तबाच्यानि क्रयाणानि महर्षाणि भवन्ति हि ॥१३३॥ मकरे मङ्गले सौख्य ततः कुम्भादिपञ्चके । यदा गच्छेत्तदा दौस्थ्यं तुलायामफि मङ्गले ॥१३४॥ कर्णसरसमञ्जिष्ठा बहुमूल्यास्तदोदिताः । सऋरे मङ्गले विद्धे ऋरान्तरगतेऽपि च ॥१३॥ मीने मेषे च सिंहे धनुषि वृषमृगे वक्रितो मन्दभौमौ, हो तो तिल, वस्त्र, रूई, कपास, सोपारी आदि महँगे हो । १३१ ।। उत्तराभाद्रपदामें मंगल हो तो दुर्भिक्ष हो तथा बिन्दुमात्र भी वर्षा न बरसे।' रेवतीनक्षत्र में मंगल हो तो पृथ्वी पर सुख और सुभिक्ष हो, मनुथ्योंमें रोग और धान्य लक्ष्मीकी अधिकता हो ॥१३२॥ जिस राशिमें मंगल हो उस राशि में निश्चय करके वक्री होता है । यदि वक्री हो तो भयाणक महँगे हो ॥ १३३ ॥ मकर में मंगल वक्री हो तो सुख और कुंभादि पांच राशि तथा तुलार शि में मंगल वक्री हो तो दुःख हो ॥१३४॥ कपास रस और मँजीठ ये महँगे हो । मंगल करग्रहों के साथ हो या अलग होकर ऋग्रहोंसे वेधित हो तो भी कपास आदि महंगे हों ॥१३५॥ मीन, मेष, सिंह, धनुः, वृष और मकर इन राशियों में मंगल तथा शनि वक्री हो तो पृथ्वी संक्षिप्त देहवाली हो धोड़े और सुभटों का मरण, राजाओं का विग्रह, दुर्भिक्ष, धान्य का विनाश, भय, "Aho Shrutgyanam" Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलवारफलम् पृथ्वी संक्षिप्तदेहा हयभटमरणं विग्रहः पार्थिवानाम् । दुर्भिक्षं धान्यनाशो भयरुधिररुजः पित्तरोगः प्रजानां, पीयन्ते गौगजाश्वावृषमहिषनरामार्गगौतौन यावत्।१३६। ग्रन्थान्तरेसिंहे मीनेऽय कन्यामिथुनधनुषि वा वक्रितो मन्दभौमौ, पृथ्वीमुबासरूपां रिपुदलदलितां विग्रहान्तां च घोराम। दुर्मिक्षं सस्यनाशं भयमपि कुरुतः पापरोगं प्रजानां, पीच्यन्ते गोमहिष्योभुविनरपतयः पापचिन्ता भवन्ति।१३७ कन्यामीनधनुःसिंहेष्वार्किभौलौ च वक्रितो । दुर्वन्ति विभ्रमं लोके नृपाणां क्षयकारको ॥१३८॥ . कृत्तिकारोहिणीसौम्यमघाचित्राविशाखिकाः । .. ज्येष्ठानुराधामूलानि पूर्वाषाढा तथा पुनः ॥१३९॥ एतेषां चैव ऋक्षाणां भौमः शुक्रस्तथा शनिः। उत्तरस्यां यदा यान्ति मास्याषाढे विशेषतः ॥१४०॥ .. रुधिरव्याधि, प्रजाओं को पितका रोग, गौ, हाथी, घोडा, बैल, भैंस और मनुष्य ये सब जब तक शनि और मंगल मार्गगामी न हो तब तक दुःखी को ॥१३६॥ प्रथान्तर में-- सिंह मीन कन्या मिथुन और धनु इन राशि पर शनि तथा मंगल वक्री हो तो पृथ्वी द्वेष रूपवाली, शत्रु दलसे दलित मौर घोर विग्रहवाली हो, दुर्भिक्ष, धान्यका विनाश और भय, प्रजा पाप रोगसे दुःखी, गौ भैन अ.दि पशुओंको दुःख और राजाओं पाप चिन्ता बोले हो ॥ १३७ ॥ कन्या मीन धनु और सिंह इन राशिमें शनि तथा मगल वक्री हों तो लोकमें विभ्रम और राजाओंका क्षयकारक होते हैं ॥१३॥ सका, रोहिणी, मृगशिर, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्टा, अनुराधा, मूल और भीष हा इन नक्षत्रों के उत्तर भागमें मंगल, शुक्र और शनि ये भाषा समें विशेष कर भावे तो सुभिक्ष, यल्याण और आरोग्य हो, मध्य में titman "Aho Shrutgyanam" Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैत्रमहोदये सुभिक्षं क्षेममारोग्यं मध्ये च मध्यम फलम् । दक्षिणेन यदा यान्ति ईतिरोगभयं भवेत् ॥१४॥ कुलके-"सुरगुरु रविसुरा धरणिसुय, जइ एकत्थ मिलंति। भूमिकवाले मंडिया, भारी भीख भमन्ति ॥१४२॥ जह वका धरणिसुप्रो विसाहमहमूलकत्तियारूढो। अन्नं कुणइ महरवं इकं निवई विणासेइ" ॥१४३:। चलत्यङ्गारके वृष्टिरुदये च बृहस्पतेः । शुक्रायास्तंगमे वृष्टिस्त्रिधा वृष्टिः शनैश्चरे ॥१५॥ लोकेऽपि-"सुकह केरे अत्यमण, मंगल केरे चाल । राउ तीया भूमी मरे, कह वरसे मेह अकाल ॥१४॥ भौमशुक्रार्किजीवाना-मेकोऽपीन्दु भिनत्ति चेत् । पतत्सुभटकोटीभिः प्रीतप्रेता तदा जिभूः ॥१४६॥ मेषवृश्चिकयोमध्ये यदा तिष्ठति भूसुतः। - तदा धान्यं महर्घ स्यान्मासळ्यमुदाहृतम् ॥१४७॥ आवे तो मध्यम और दक्षिण भागमें आवे तो ईति और रोग भय हो । १३६ ॥ १४० ॥ १४१ ॥ यदि बृहस्पति शनि और मंगल ये एक साथ हो तो महा युद्ध और बड़ा दुष्काल हो !॥ १४२ ॥ यदि विशाखा, मघा, मूल और कृतिका इन नक्षत्रों पर मंगल वक्री हो तो अनाज महगे हों और कोई एक राजा का विनाश हो ॥ १४३ ॥ मंगलके बदलने पर वर्षा, बृहस्पति के उदय में वर्षा, शुरु का अस्त में वर्षा और शनैश्चर की तीनों भवस्थाओं में वर्षा होती है ॥१४४॥ शुक्रके अस्तमें मंगल का उदय हो तो राजाओं युद्ध में मरे, की वर्षा और कहीं दुकाल हो ॥१४५॥ मंगल शुक्र और चूहा स्वति इनमें से एक भी चंद्रमाको वेवता हो तो गिरे हुए मुभट समुह से पृथ्वी प्रेतमय हो ॥१४६॥ मेष और वृश्चिकके बीच में मंगल स्थित से - - "Aho Shrutgyanam" Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावारपलम् लोकेऽपि-"रविराहशनिश्चरभूमिसुना, उदयन्ति च मध्यमराशिगताः । धनवान्यहिरण्यधिनाशकरा, बिलयन्ति महीपतिछत्रधराः" ॥१४८॥ शानिर्मीने गुरुः कर्के तुलायामपि मङ्गलः । याचरति लोकस्य तावत्कष्टपरम्परा ॥१४९।। भौमस्याधो गुरुस्तिष्ठेद् गुर्वधोऽपि शनैश्चरे । प्रहाणां मुशलं ज्ञेयमिदं जगदरिष्टकृत् ॥१५॥ रविराशेः पुरो भौमो वृष्टिसृष्टिनिरोधकः । भौमाद्या याम्यगाश्चन्द्राञ्चत्वारो वृष्टिनाशकाः ॥१५॥ महबक्रिफलम् - भौमयके अनावृष्टिर्बुधवक्रे धनक्षयः । गुरुबक्रे स्थिरो रोगो शुक्रवके सुखी प्रजा ॥१५॥ niremium तब दो मास धान्य तेज रहें ।।.१४७ ॥ रवि राहु शनि और मंगल ये मयम राशिमें उदय हो तो धन धान्य सुवर्ण का विनाश करें तथा छत्रधारी राजाका नाश हो ॥१४८॥ मीनराशि पर शनि, कर्क पर गुरु और तुला पर मंगल जब तक रहे तब तक कष्ट रहें ॥१४६॥ मंगल के नीचे वृहस्पति, और बृहस्पति के नीचे शनि हो तो यह ग्रहों का मुशल योग आनना यह जगत्को अरिष्ट करनेवाले हैं ॥ १५० ॥ सूर्य राशिसे आगे मंगल हो तो वर्षाकी उत्पत्ति को रोके और चंद्रमा से मंगल आदि चार ग्रह दक्षिण और हो तो वष्टि का नाशकारक होते हैं ॥ १५१ ॥ मंगल के की होने में जनावृष्टि, बुवके वक्री होने में धन का क्षय, गुरुके वक्री रोगकी स्थिति, शुक्रके वक्री में प्रजा सुखी ॥ १५२ ॥ शनि के यकी में #टी-मीनशनैश्वर कर्कगुरु, जो तुलमंगल होइ । मेहंगोरस सालि बीय, विरलो चाखे कोइ ॥१॥ "Aho Shrutgyanam" Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदय, शनियके जने पीड़ा राहुः स्यादग्निकारकः । चतुग्रहा न वक्राः स्युर्युगपञ्चेति मन्यते ॥१५॥ पाठान्तरे-भौमवक्रे भूपयुद्धं बुधवक्रे धनक्षयः। गुरुवक्रे सुभिक्षं च वक्रे शुक्र प्रजासुखम् ॥१५४॥ शनिवळे महामारी गैरवं च भयं पथि। धनधान्यं च वस्त्रे च रुण्डमुण्डा च मेदिनी ॥१५॥ यत्र मासे ग्रहाः सर्वे वक्रत्वं यान्ति देवतः । तन्मातेऽतिमहर्ष स्यादु धान्यं वा राजविग्रहः ॥१५॥ श्रावणे शनिवक्रत्वे भौमस्यास्तोदयो यदा । तदा युध्यन्ति भूमीशा द्विमासान्तन संशयः ॥१५॥ अतिचारफलम् ~~ . सौम्यैकत्रकोऽप्यशुभातिचारः, करोति सर्व विपुलं समघम् । ---कोकचक्रश्च शुभातिचारो, ... धान्यं विधत्ते भुवने महर्षम् ॥१५८॥ मनुन्यों में ीडा और राहु के वक्रीमें अग्निका उपद्रव हो । एक साथ चार ग्रह वक्री नहीं होते हैं ऐसी मान्यता है ॥१५३॥ पाठान्तर- मंगल वकी "हो तो राजाओंका युद्ध, बुध की हो तो धन का क्षय, गुरु वक्री हो तो सुभिक्ष, शुक्र वक्री हो तो प्रजा को सुख ॥ १५४ ॥ शनि वक्री हो तो. महामारी, मार्गमें महाभय, धनधान्य और वस्त्र महंगे तथा पृथ्वी रूंडमुंड हो । . .१.५५॥ जिस महीने में देवयोगसेसब ग्रह वक्री हो तो उस महीने में धान्य महँगे हो या राजाओंमें वित्रह हो ॥१५६॥ श्रावणमें शनि वक्री हो और मंगलका: प्रस्त: या उदय हो तो राजाओं दो महीने के भीतर युद्ध करें. इसमें संशयः । नहीं ॥१५॥............... .... .............. सौम्य एक प्रइ वक्री हो और एक अशुभ मह शीघ्रगामी हो तो सम "Aho Shrutgyanam" Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारफ Paytm) सुभिक्षं च तदैव स्याद वक्रत्वे सितसौम्ययोः । वक्रत्वे तु गुरोर्नूनं राशिप्रान्ते महर्घकम् ।।१५९।। कन्यायां बुधवक्रत्वे सुभिक्षं निश्चितं मतम् । वर्षाकालेऽप्यतिचारे मह भुवि जायते ॥ १६० ।। भौमायोरप्यतिबारे सुभिक्षं भवति स्फुटम् । सौम्पानामप्यतिचारे धिष्ण्यहानौ तु निष्कणम् ॥ १६१ ॥ राशिपरत्वे मंगलोदयफलम् - मेषे भूमिसुतोदये च चपला माषास्तिलाः स्युः प्रिया, नाशः स्याच्च वृषे चतुष्पदले युग्मेऽन्नदुष्प्रापता । वैश्यानां बहुपीडनं शशिगृहे वृष्टयातिवान्योदयः, सिंहे शालिमहघेता द्विज़रुजः कन्योदये भूर्भुवः ॥ १६२ ॥ | धान्यानि भूयांसि तुलोदये स्युः, कन्याइये तेन सुभिक्षमेव । स्त धान्य बहुत सस्ते करें । एक क्रू ग्रह. चक्री हो और एक शुभ ग्रह शीघ्रगामी हो तो पृथ्वी में धान्य महँगे करें ॥१५८८। शुक्र और बुध के वकी होनेमें सुभिक्ष होता है और बृहस्पतिके वक्रीनें राशिके अंत्यभाग में निश्चय करके महँगे हो ॥ १५६ ॥ कन्याराशि बुक की हो तो निश्चयसे मुभिक्ष हो किंतु वर्षा ऋतु में अतिचारी हो तो पृथ्वी पर महँगे हो ॥ १६० 11 मंगल और शनि प्रतिचारी हो तो उत्तम सुभिक्ष होता है । बुधका शीघ्र 1. गमनमें नक्षत्रकी हानि हो तो धान्य प्राप्ति न हो ॥ १६९ ॥ 1 मंगलका उदयः मेषराशिमें हो तो चवला, उडद, तिल इनका आदर 4. घराशिमें हो तो पशुओं का नाश हो, मिथुनराशि में हो तो अन कठिनतासे मिले, कर्करराशिमें हो तो वैश्यों को पीडा तथा वर्षाद से धान्य प्राप्त हो । सिंहराशिमें चावल महँगे हो । कन्याराशिमें हो तो ब्राह्मण क्षत्रियों को रोग प्राप्ति ॥ १६२ ॥ तुलाराशि में हो तो धान्य बहुत हो, "Aho Shrutgyanam" Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमदादये चौरा निभीतिर्नृपष्टनीतिनिष्पत्तिरन्नस्य तु षृश्चिकस्थे ॥ १६३॥ धनुषि रसातलष्षृष्टिः शालिगुडादेर्महर्घता मकरे । पश्चिमघान्य विनाशो वर्षाप्यतिशायिनीदेशे ॥१६४॥ कुम्भे तोडागमात् पीडा यदि वा मूषिकादिना । मीने कुजोदयान्नैव वर्षा दुर्भिक्षसाधनम् ॥ १६५॥ इति ॥ मंगलास्तंगमफलम् ---- मङ्गला स्तंगमान्मेषे पाषाणानां महर्चता । तृणादेः खलु वस्तूनां सुभिक्षं सुस्थता वृषे ॥ १६६ ॥ युग्मेऽतिवृष्टिः कर्कस्थे तस्मिन् मूचान्यशून्यता । सिंहेऽश्वखरयोः पीडा चतुष्पदमहर्घता ॥ १६७॥ कन्याइये महर्घाः स्युर्गोधूमाश्रणका यवाः । अलौ सुभिक्षं नृपभी-धनुर्महर्घशालिकृत् ॥१६८॥ इसलिये कन्या और तुला में सुभिक्ष कहा है । वृश्चिक में हो तो चौर तथा अनिका भय हो, राजनीति में अन्याय और अन्नकी प्राप्ति हो ॥ १६३ ॥ धनुराशिमें हो तो वृष्टि रसातल में हो, चावल गुड आदि महँगे हो । मकर में हो तो पश्चिम देशके धान्यका विनाश तथा देशमें वर्षा बहुत हो ॥ १६४ ॥ कुंभराशि में टीड्डीका भागमनसे दुःख या चूहे आदि का उपद्रव से दुःख हो । मीनराशि में मंगल का उदय हो तो वर्षा न हो और दुर्भिक्ष हो ॥ १६५॥ मंगलका अस्त मेषराशिमें हो तो पत्थर महँगे हो । वृषराशिनें हो तो तृण आदि वस्तुओं की सुविक्षता और नीरोग्यता हो ॥ १६६ ॥ नियुनराशि हो तो वर्षा अधिक हो । कर्कराशिमें हो तो भूमिके धान्य शून्य हो । सिंहराशिमें हो तो घोडे तथा खच्चरों को पीडा और पशु महँगे हो ॥ १६७॥ कन्या और तुलाराशिमें हो तो गेहूँ चरणा और यंत्र ये महँगे हो । दृषि कराशिनें हो तो सुभिक्ष तथा राजाओं का भय हो । धनराशि हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधवारफलम् तुच्छधान्यं गुडस्तद्वन्मकरे विपुलं जलम् । चौरवमयं देशे कुम्भे राजसु विग्रहः ॥ १६९ ॥ मीने कुजास्तंगमनान्नमनागाकुला प्रजा । बहुप्रजा सुभिक्षेण सोत्सवः शुभलक्षणः ॥ १७० ॥ इति मङ्गलचारविचारः । अथ बुधचारः । नक्षत्रोपरिगभनफलम् -- बुधेऽश्विन्यां तु पीड्यन्ते गोधूमाश्च यवादयः । इक्षुरधरसादीनां समर्धे च घृतादिषु ॥ १७१ ॥ बुधे भरण्यां मातङ्गपीडा चाण्डालनाशनम् । तीव्ररोगा धान्यवस्तुमहर्ष लोकबैरतः ॥१७२॥ कृत्तिकायां बुधे विप्रपीडा मेघाल्पता जने । अन्नमयं ज्वरयाधा वचिद्विग्रहकारणम् १. १७३॥ (२४) दख आदि ॥ १६८ ॥ तुच्छ धान्य और गुड महँगे हो । मकर राशिमें हो तो इसी तरह तुच्छ धान्य और गुड महँगे हो और वर्षा विक हो । कुंभराशि हो तो देशमें चोर अग्निका भय हो तथा राजाओं में विग्रह हो ॥ १६६ ॥ मीनराशि मंगलका अस्त हो तो अन्न थोडे हो और प्रजा व्याकुल हो । पीछे सुभिक्ष हो तथा प्रजायें कच्चे महोत्सव हो ॥ १७० ॥ इति मंगलवारः ॥ अश्विनी में बुध हो तो गेहूँ और यव ध्यादिका नाश हो, ईख दूध घी भादि रस सस्ते हों ॥ १७१ ॥ भरणी में बुध हो तो हथियों को पीडा, चालका नाश, तीत्र रोग, धान्य वस्तु तेज और लोकमें वैर हो ॥ १७२ ॥ कृतिका में बुध हो तो ब्रह्मगको पीडा, वर्षा थोडी, अन्न थोडे, मनुष्यों में कबर पीडा तथा कहीं विग्रह हो ॥ १७३ ॥ रोहिणी में बुत्र हो तो कपास, "Aho Shrutgyanam" Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (882) मेघमहोदये ब्रायां बुधे च कर्पासतिलरूतमहघेता । मृगशीर्षे सुभिक्षं स्याद् वातवृष्टिर्महीयसी ॥१७४॥ गोधूमतिलमाषादिसमर्धे सुखिनो जनाः । व्यायां दृष्टितुला गृहपातः प्रवाहतः ॥ १७२ ॥ पुनर्वसौ घालपीडा कर्पासरूतमन्दता । जनेषु सर्वसंयोगः पुष्ये राज्ञां भयं जयः ॥ १७६ ॥ आश्लेषायां महावृष्टिस्नुषधान्यसमुद्भवः । मघावुधेऽलावृष्टिश्च धान्यनाशः प्रजाभयम् ॥ १७७॥ पूफायां नृपसङ्ग्रामः क्षेत्रबाधान्नमन्दता । उफायां तु माषमुद्गाद्यल्प निष्पत्तिमादिशेत् ॥ १७८ ॥ हस्ते बुधे सुभिक्षं स्वाद्धान्यमारोग्यमम्बुदाः । चित्रायां गतिकाशिलिम-द्विज डाल्पवर्षणम् ॥ १७६ ॥ सातौ बुधे मन्दवृष्टि-विशाखायां सुभिक्षता । व्याधिर्भयं च दुर्भिक्षं किञ्चित्कुत्रापि जायते ॥१८०॥ तिन, रुई ये महँगे हा । मृगशिर में हो तो सुभिक्ष हो तथा वायु वर्षा विक हो । १७४ ॥ आर्द्रा में हो तो गेहूँ, तिल, उडद आदि सस्ते हो मनु य सुखी हों, वर्षा अधिक, जल प्रवाह से घरों का पात हो ॥ १७५ ॥ नमें बालकों को पीडा, कपास, सूत मंदा हो । पुण्य में मनुष्यों में योग तथानों का भय तथा उनका जय हो ॥ १७६ ॥ आश्लेषा महावर्षा और तुपधान्यकी उत्पत्ति हो । मघा में बुध हो तो वर्षा थोडी, धान्य क न.श तथा प्रजा को भय ही ॥ ९७७ ॥ पूर्वाफाल्गुनी में हो तो राजाओं में संग्राम, क्षेत्र पीडा, अन्न मंदा हो । उत्तराफाल्गुनी में हो तो उडद, मूग मीदिकी के प्ति थोडी हो ॥ १७८ ॥ हस्तमें बुध हो तो सुभिक्ष, धान्य, चारोंग्यता, और वर्षा हो । चित्रामें हो तो वेश्या, शिल्पी और ब्राह्मण इन को हो तथा वर्षा थोडी हो ॥ १७६ ॥ स्वाति में बुध हो तो म "Aho Shrutgyanam" Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधचारफलम् (४४९) सुभिक्षमनुराधायां पक्षिपीडा प्रजासुखमं । ज्येष्ठायामिक्षुशाल्याज्य - महताऽश्वरोगिता ॥ १८९ ॥ मूले पक्षिद्विजपशु-पालपीडा विजायते । धान्यं मन्दं च पूषायां व्याधिग्रष्मेऽपि वर्षणम् ॥१८२॥ उषायां सम्यनिष्पत्तिर ष्टवर्षशिशुक्षयम् । श्रुतौ गुडातसीधान्यचणकेषु हिमाद् भयम् ॥१८३॥ वासवे तु गवां पीडा वारुणे शुद्ररोगता । दुर्भिक्षमथ प्रभायां क्षेममारोग्ययोग्यता ॥ १८४॥ उभायां नृपतिक्लेश आरोग्यं पशुपक्षिणाम् । रेवत्यां नन्दनं चन्द्रो मह कुंकुमाद्यपि ॥ १८५ ॥ बुधोदयराशिफलम् -- मेषे बुधस्योदयतो गवादिश्चतुष्पदानां महतीह पीडा । विशाखा में हो तो सुभिक्ष हो कहीं किंचित् व्याधि भय और दुर्भिक्ष हो ॥ १८० ॥ अनुराधा में हो तो सुनिक्ष, पक्षियों को पीडा और प्रजा सुखी हो । ज्येष्टा में हो तो ईग्न चावल वी महँगे हो और घोड़े को रोग हो १८१ ॥ मूलमें हो तो पशु पक्षी ब्राह्मण तथा बालक इन को पीडा हो । पूर्वाषाढा में हो तो धान्य मंदा, व्याधि और ग्रीष्मकाल में भी वर्षा हो ॥' ॥१८२॥ उत्तराषाढामें हो तो धान्यकी प्राप्ति तथा आठ वर्ष के बालकों का नाश हो | श्रवण में हो तो गुड, अलसी धान्य और चणा इनको हिमसे भय हो ॥ १८३ ॥ धनिष्ठा में हो तो गौओंको पीडा । इतभिषा में हो तो शूद्रोंको पीडा | पुर्वाभाद्रपदा में हो तो दुर्भिक्ष, क्षेत्र तथा आरोग्यता हो ॥ १८४ ॥ उत्तराभाद्रपदा में हो तो राजाको हेश तथा पशु पक्षीयों को आरोग्यता हो । रेवती में बुध हो तो कुंकुम आदि महँगे हो ॥ १८५ ॥ - बुबका उदय मेषराशि में हो तो गौ आदि पशुओं को बहुत पीडा मौर टिड्डी आदिले धान्य महँगे हो। दूषरा। शिमें हो तो अतिवृष्टि । मिथुन में हो ५७ "Aho Shrutgyanam" Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदय तोडादिना धान्यमहर्घताच, वृषेऽतिवृष्टिर्मिथुने न वर्षा । कर्के मुखं सिंहपदे चतुष्पान् म्रियेत कन्या यहुधान्यसौख्यम् । भूकम्पयुद्धादितुलोदितेजे,तथाष्टमे राजभयंसुभिक्षम् ॥१८॥ धनुर्बुधस्याभ्युदयात् सुखानि, मृगे मही धान्यरसादिपूर्णा । कुम्भेऽतिवायुः पथिभीश्च मीने दुर्भिक्षपक्षो यदि वातिपुष्टिः। पौषाषाढश्रावणवैशाखेष्विन्दुजः समाधेषु । रष्टो भयाय जगतः शुभफलकृत्प्रोषितस्तेषु ।।१८६॥ अन्यत्रापि-- आषाढमासे यदि शुक्लपक्षे, चन्द्रस्य पुत्रोभ्युदयं करोति। शुक्रस्य चेच्छ्रावणमासि चास्तं, धान्यं सुवर्णेन समं तदाप्यम् ॥ भाद्र शुक्लचतुथ्यों पञ्चम्यां वोदितौ यदा ज्ञसितौ। धान्यं पुष्टिकायद्धं तदा जने लभ्यमतिकष्टकृत् ।।१६१॥ . लोके पुन:-"सुरगुरुत्रुध मेलावडो, जइ इकाईए होय। तो वर्षा न हो ॥१८६॥ कर्कमें सुख, सिंहमें पशुओं का विनाश, कन्यामें धान्य अधिक और सुख, तुला भूमिका युद्ध श्रादि, वृश्चिक में राजभय और सुभिक्ष हो ॥ १८७॥ धनुराशिमें बुध का उदय होनेसे सुख हो । मकरगशि में धान्य, रस आदि से पृथ्वी पूर्ण हो। कुंभ में वायु अधिक चले और मार्ग में भय हो । मीनराशि में बुध का उदय हो तो दुर्भिक्ष हो अथवा अतिवृष्टि हो ॥१८॥ पौष, आषाढ, श्रावण, वैशाख और माघ इन महीनों में बुधका उदय हो तो जगत् को भय हो, तथा इन महीनों में अस्त हो तो शुभ फलदायक होता है ॥१८६॥ आषाढ महीने का शुल पक्षमें बुक्का उदय हो और श्रावण मासमें शुक्र का अस्त होतो सुवर्णके बरामर धान्य हो ॥ १६० ॥ भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पंचमीको बुध और शुक्र का उदय हो तो धान्य पुष्ट हो वह मनुष्यों में बहुत कष्टकारक प्राप्त हो ॥ १६१ ॥ बृहस्मृति और बुत्र यदि एक साथ हो वो बोक में "Aho Shrutgyanam Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a) ॥ १६३॥ मह तुजं कहिउं भंडली, मेह न बरसे लोय ॥ १६२॥ अह बुध उग्गह भद्दवे, तौ बहु महवा करेइ । अहवा आसू उगम, तौ काकर कमल करेइ" शुक्रस्यास्तंगते सौम्यः प्रोदेति श्रावणे यदा । तदा भाद्रपदे वापि मेघो नैव प्रवर्षति ॥ पाठान्तरमर्द्ध- 'चतुष्पद विनाशेन तक्रं न कत्रापि लभ्यते ' ॥१६४॥ श्री होरसूरिकृतमेघमालायाम् "सिंह तणा दस दिवस वलि, बोल्या उगै बुध । इंद महोच्छव मांडल्यइ, महीयल वरसे युध ॥ १९५॥ मैत्रेमासि मंडली सुणे, धारसि बुद्धि निहाण । जह शुभग्रह उगमण हुइ, घृत मत बेचि सुजाण ॥ १६६ ॥ यासी बुधगमें, तो कप्पास विणास । यहवा तेहु प्राथमे, राती वस्तु विणास ॥१६७॥ कांद तुं पूछइ भडुली, काती तणो विचार | बुध ऊगे अंधारी, अन्न हुइ निवार ॥ १६८ ॥ वर्षा न बरसे ॥ १६२॥ यदि भाद्रपदमें बुध उदय हो तो वर्षा अधिक हो, यदि पासोज में उदय हो तो कमलकर (सूर्य) वर्षा न करे ॥ १६३ ॥ शुकका अस्त होने पर श्रावर में बुधका उदय हो तो भाद्रपद में वर्षा न बरसे या पशुओंका विनाश हो जानेसे छास कहीं भी न मिले ॥१६४॥ सिंह कांति से दशवें दिन बुत्र का उदय हो तो इन्द्रमहोत्सव याने पृथ्वी पर वर्षा अच्छी हो ॥ १६५॥ चैत्र मासमें द्वादशी को बुध को देखें यदि इस की पूर्व तरफ शुभग्रह हो तो घी नहीं बेचना चाहिये ॥१६६॥ आसोज में बुध का उदय हो तो कपासका विनाश हो, अथवा अस्त हो तो लाल वस्तुका विनाश हो ॥ १६७॥ कार्त्तिक कृष्णपक्ष में बुधका उदय हों तो निवार पन्न हो ॥ १६८ ॥ कार्तिक शुक्लपक्षमें बुधका उदय हो तो तिल "Aho Shrutgyanam" Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये तिलव्रीहि विनाशाय कार्तिकेन्दुबुधोदयः । मार्गशीर्षोदितः सौम्यः कर्पासस्य कियत्फलम् ।.१६९। मागसिरे बुह उगमे, अह अस्थमै जू सुक्क । .. तौ तूं मत पूछसि घj, चउपग चहुटइं विक॥२०॥ मीगसिर मास एकादशी, वुध अत्थमण हवंति । कपडा कारा बेचि करि, कण ते अग्घ लहंति ॥२०॥ डमरं कुरुते पौषे माघमासोदये वुधः । फाल्गुने शशिपुत्रस्योद्यो दुर्भिक्षकारणम् ॥२०॥ पोसमासे बुध उगमह, जइ अस्थमइ तिण मास । महाराउ तजीया चवइ, भड्डुली घणु विमास"||२०३॥ इति खुमास्तफलम्-- मेषे बुधास्ते भुयने सुभिक्षं, चतुष्पदां नाशकरं वृषेःस्तम् । राज्ञांतु पीडा मिथुनेऽथ कर्केनावृष्टये मृत्युभयं च चौराः।१०४ "तथैव सिंहेऽल्पजलं युक्त्यां, वुधास्त नश्चौरभयोऽतिवृष्टिः । ब्रीहिका नाश हो । मार्गशिरमें बुधका उदय हो ता कपासकी थोड़ी प्र.प्ति हो ॥१६६॥ मार्गशिर म. बुवका उदय हो अथवा शुक्र का अस्त हो तो पशुओं को बेचना चाहिये ॥२००। मृगशिर महीने की एकादशी को बुध का अस्त हो तो कपडां आदि बेच कर धान्य खरीदना च.हिये ॥२०१॥ पौष तथा मान महीने में बुबका उदय हो तो कलह करें । फाल्गुनमें बुध: का उदय हो तो दुर्भिक्षकारक होता है ॥ २२ ॥ पौप्य महीने में बुक्का, उदय तथा अस्त हो तो महान् राजाओं का विनाश हो ऐसा हे भडली! बहुत विचार कर ॥२०॥ बुधका अस्त मेपराशि में हो तो पृथ्वी में सुभिक्ष हो । वृपराशि में हो तो पशुओं का विनाश । मिथुनमें हो तो राजाओंको पीडा । कर्कम हो तो अनावृष्टि मृत्युभय तथा चोरका भय हो । २०४ ।। इसी तरह सिंह "Aho Shrutgyanam" Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्रचारपलिम् (axs) ऋयाणकानां च महर्घतायै तुलाप्पलिधीतुमहर्घतायै ।।२०५॥ राज्ञां भयं धन्विनि रोगचारो, मृगेऽल्पलाभो व्यवसायिलोके। कुम्भेऽतिवायुर्हिमदग्धवृक्षा,मीनेऽनधीना नृपधर्मपीडा॥२० अथ शुक्रचारः । गुरुमन्दतमाकेतुफलं प्रांगेव निश्चितम् । क्रमाक्रान्तस्य शुक्रस्य फलं. चारगतं ध्रुवे ॥२०॥ शुकचतुष्कचनम् चतुष्कं चतुष्कं ततः पञ्चकं च, ... त्रिकं पञ्चक पटकमायाति भानाम् । यदा भागवो मागवोढाथ वक्रो, . . निविदा प्रसिद्धैः परैः करखेटः ॥२०८॥ .प्रथमचतुमके गोधनपीडा, मेघमहोदधदोऽग्रचतुष्के । गाशि में भी फल जानना, तथा जल थोडा । कन्यारराशिने बुध अस्स हो तो चोरों का भय, अतिवर्षा और कमाणक म.गे हो । तुला और वृश्चिक में भी धातु महँगी हो ॥२०५॥ धनूरपशि में बुधका अस्त हो तो राजाओं का भय हो । मकर में व्यापारी लोगों में लाभ थोड़ा हो । कुंभ में वायु अधिक चलें तथा हिम से वृक्ष नष्ट हो। मीनराशिमें बुधका अस्त हो तो पराधीन ऐसी राजवर्गको पीडा हो ॥ २०६ ।। इति बुधवार- ... गुरु, शनि, राहु और केतु इन का फल पहले कहा गया है, अब क्रमसे शुक्रवार को फल कहता हूँ ॥२०७॥ शुक्र क्रमसे चार, चार,पांच तीन, पांच और छ इन नक्षत्रों पर आता है। यदि इन नक्षत्रों पर शुक मार्गी हो या वक्री हो या अन्य प्रसिद्ध दूर ग्रहों से वेवा जाता हो इस का फल कहता हूँ॥ २०८ ॥ प्रथम चतुक ( चार नक्षत्रों) में शुक्र हो तो मौओं को पीडा, दूसरा चार नक्षत्रों में हो तो मेघ का उदय हो, दोनों "Aho Shrutgyanam" Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशकयुग्मै धान्यविनाशी, षटूत्रिकचारी सुखदः शुकः ॥ २८२॥ पत्रिकमध्ये धान्यं ग्राह्यं पञ्चकमध्ये धान्यं देयम् । एवं लक्ष्मी धान्यवतां स्याद् भार्गवचारस्यैष विचारः ॥ २१० ॥ भरणीतः समारभ्य लभ्यमेतत्फलं जने । शुक्रचारे युद्धमन्ये नृपाणां प्राहुरादिमा ॥ २१९ ॥ पदाह लोक:- "बुधग्रह केरे अत्थमण, शुक्रह केरें चारू । खांडो जागे क्षत्रियां, के हुइ मेह अकाल” ॥२१२॥ नंदायामसुरानन्दी समुदीतो महामुदे । घनाघना घना धान्यं समर्धे सुखिता जनाः ॥२९३॥ सिंहशुक्रस्तुला भौमः कर्कजीवो यदा भवेत् । धूलिवर्षा महान् षायुर्भवेद्धान्यमहार्घता ॥ २१४॥ पाठान्तरे 'कर्क शुक्र सर भरिया सूकै, सिंह शुक्र जल फिमे न सुकै । पदक नक्षत्रों शुक्र हो तो धान्य का विनाश, छ: और त्रिक नक्षत्रों में शुक हो तो सुखदायक होता है ॥ २०६ ॥ छः और त्रिक नक्षत्रों में शुक्र हो सो धान्यका संग्रह करना और पंचकनक्षत्रोंनें धान्य बेचना उचित है । इसी तरह धनवानोको लक्ष्मी होती है, यह शुक्रवारका विचार है ॥२१॥ भरणीनक्षत्रसे आरंभ कर मनुष्यों में इस का फल प्राप्त है । प्राचीन लोग शुक्र का चार में राजाओंका युद्ध मानते है ॥ २११ ॥ बुधग्रहका मस्तमें शुक का उदय हो तो युद्ध हो या अकाल वर्षा हो ॥ २१२ ॥ नंदातिथिमें शुक्र का उदय हो तो बड़ा हर्ष, बहुत वर्षा, बहुत धान्य, सुभिक्ष और मनुष्य सुखी हो ॥ २९३ ॥ सिंहगशिके शुक्र, तुलाके मंगल और कर्क राशि के बृहस्पति यदि हो तो धूलि की वर्षा, महावायु और धान्य महँगे हों ॥ २१४॥ पाटान्तरसे - 'कर्कराशि के शुक्र हो तो भरा हुआ सरोवर सूक जाय सिंहराशिके शुक्र हो तो जलवर्षा न हो, कन्याराशिमें मंगल हो तो धूलि www "Aho Shrutgyanam" Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्रवारफलम् (४५५) कन्या मंगळ ए. अहिनाणी, वर से धूलि न वरसह पाणी ॥ २१५ ॥ मेघमालायां तु 'सिंहशुक्र आणि ते आई, तो जलहरमूलहथयो जाई । बरसै मेह तो प्रतिवरसेह, मासु काती रोग करेइ' ॥२२६॥ अथ शुक्रद्वाराणि - भरण्याष्टके भानां मेघद्वारं कवेः स्मृतम् । मेघवृष्टिः प्रजानन्दः समर्थ धान्यमेव च ॥ २१७ || मघादिपञ्चके शुको धूलिद्वारेऽभ्युदीयते । प्रजादुःखाज्जलनाशात् तदोपद्रवमादिशेत् ॥२१८॥ स्वात्पादिसप्तके राजद्वारं शुक्रोदयो भवेत् । लोके भयं छत्रपतिक्षयं तत्र निवेदयेत् ॥ २१६ ॥ श्रुत्यादिसप्तके शुक्रोदये लोकसुखं बहु | कनकवारसादिष्टं सुभिक्षं तत्र निश्चितम् ॥ २२० ॥ मतान्तरे - स्वात्यादित्रितये धर्मद्वारं शुकोदये शुभम् । की वर्षा हो किंतु जलवर्षा न हो' ॥ २१५ ॥ सिंहराशि पर शुक्र श्रावणा मासमें आये तो बरसातका मूलसे नाश हो, यदि बरसात बरसे तो बहुत अधिक बरसे और आसोज या कार्तिक महीने में रोग करें ॥ २१६ ॥ भरणी आदि माठ नक्षत्र पर शुक्र का उदय हो तो मेघद्वार होता इस में मेववृष्टि, प्रजा को प्रानंद और धान्य सस्ते हों ॥। २१७ ॥ मत्रादि पांच नक्षत्र पर शुक्र का उदय हो तो धूलिद्वार होता है, इस में प्रजा को दुःख, जल का नाश और उपद्रव होते हैं ।। २१८ ॥ स्वाति भादि सात नक्षत्र पर शुक्रका उदय हो तो राजद्वार होता है, इसमें लोकमें भय और छपते का नाश होता है ॥ २१६ ॥ श्रवण आदि सात नक्षत्रों पर शुकका उदय हो तो कनकद्वार होता है, इसमें लोक बहुत सुखी हो तथा विसे, सुभिक्ष हो ॥ २२० ॥ पाठान्तर से स्वाति माति तीन "Aho Shrutgyanam" Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२६). मेघमहोदये ज्येष्ठाचतुष्टये हेमद्वारं मिश्रफलं स्मृतम् ॥२२१॥ श्रुत्यादिसप्तके वाच्यं ऋजुद्रारं भृगृदये। दुर्भिक्षं लोकमारककारणं सुखवारणम् ॥२२२॥ इति सुभिक्षदुर्मिक्षविग्रहदेशभंगज्ञानाय शुक्रवारविचारः। शुक्रोदयमासफलम्--- शुक्रोदयात् फाल्गुनमासिवृद्धि-रर्थस्य धान्यादिषु भैक्षवृत्तिः । चैत्रे विभूति विमाधवे. च, रगो महान् वृष्टिरतीव शुक्र।२२३॥ आषाढमासे जलदुर्लभत्वं, चतुष्पदातिर्नभसि प्रदिष्टा । समृद्विरन्नस्य तु भाद्रमासे, तथाश्विने सम्पद एव सर्वाः ।। शुभं परं कार्तिकमार्गमाहो:, पौषे महच्छन्नविभङ्ग एव । मावेऽपि तद्वत्सकलं फलं स्थान चेत्परादे जलदस्य रोधः।। भादव? जो ऊगमण, सुकह सुबह वार । . तो तूं हरखज आणजे अन्न घणा संसार ॥२२६।। नक्षत्रों पर शुक्र का उदय हो तो धर्मद्वार, यह शुभ है। ज्येष्ठा आदि चार नक्षत्रों पर शुक्रका उदय हो तो हेमद्वार, यह मिश्रफलदायक है।। २२१ ॥ श्रवण आदि सात नक्षत्र पर शुक का उदय हो तो ऋजुद्वार . कहना, यह दुर्भिक्ष, लोकमें रोग और दुःस्वका कारक है ॥२२.२॥ '. शुक्रका उदय फाल्गुन मासमें हो तोधनकी वृद्धि और धान्यमें भिक्षा त्ति रहे अर्थात् धान्य महँगे हो। चैत्र और वैशाख मही में हो तो पृथ्वी में संपत्ति हो बड़ा युद्ध और बहुत वर्षा हो ॥२२३॥ आपाढ मासमें हो तो जलकी दुर्लभता, श्रावगमें हो तो पशुओं को पीडा, भाद्रपदभे हो तो अन्न की समृद्धि (वृद्धि), आश्विन में सब प्रकार की संपत्ति हो ॥२२४॥ कार्तिक और मार्गशीर्ष में हो तो शुभ, पौध महान् छत्रभंग , मावमें शुक्र का उदय हो तो पौषके सदृश फल जानना, यदि पीछला वर्षमें वर्षाका रोध नं हो तो ॥२२५॥ भाद्रपद महीनेमें शुक्रवार के दिन शुकका उदय हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्रवारफलम् (४५.७) शुक्रोदयराशिफलम् मेषे शुक्रोदये धान्ये मह रोगसम्भवः । तृषे धान्यं समर्थ स्यान्नृपास्तुष्टाः प्रजासुखम् ॥ मिथुने लोकसरणं गोधूमा बहवो भुवि । कर्केऽतिवृष्टिस्य विनाशं चौरजं भयम् ॥ २२८॥ . सिंहेऽपि कर्कवाच्यं कन्यायां नृपपीडनम् । स्वल्पाः वृष्टिस्तुलायोगे समर्धे धान्यमाहितम् ॥२६॥ वृश्चिके पहला वृष्टिर्दुर्भिक्षं धान्यमल्पकम | धनुष्यवर्षणं धान्यं मह मकरे तथा ॥ २३०॥ कुम्भेऽतिविरलो मेघश्चतुष्पदविनाशनम् । मीने सुभिक्षं लोकानां सुखं मेघमहोदयः ॥२३१॥ शुक्रनक्षत्र भोगफलम् -- शुक्रेऽश्विन्यां ब्राह्मणजातिविरोधो यवास्तिला माषाः । संसारमें अनाज बहुत हो और आनंद हो || २२६॥ ३ ፡፡ शुक्र का उदय मेपराशिमें हो तो धान्य महँगे और रोगको प्राप्ति हो । वृषराशिमें हो तो धान्य सस्ते, राजा संतुष्ट और प्रजा सुखी हो ॥२२७॥ मिथुन में हो तो लोकमें मरण हो तथा गेहूँ की प्राप्ति पृथ्वी पर बहुत हो । कर्कमें हो तो अतिवृष्टि, धान्यका विनाश और चोरोंका भय हो ॥२२८॥ सिंहराशि कर्कराशिकी जैसा फल समझना ! कन्यामें राजाओंको पीडा हो। तुलासशि में हो तो वर्षा थोड़ी और धान्य सस्ते हो ॥ २२६॥ वृश्चिक में हो. तो वर्षा बहुत, दुर्भिदा और धान्यकी अल्पता हो । धनु तथा मकरराशि में हो तो वर्षा न हो और धान्य महँगे हो ॥ २३० ॥ कुंभमें हो तो बहुत-थोड़ी वर्षा हो और पशुओं का विनाश हो । मीनराशिमें शुक्र का उदय हो सो सुभिक्ष, लोकोंको मुख और मेघका उदय हो ॥२३१३१ 14 शुकोदय अश्विनी नक्षत्र में हो तो ब्राह्मण जातिमें विरोध, यब तिल्ल द " Aho Shrutgyanam" Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi) मैयमोदये स्वल्पा भरण्या संस्पें तुपधान्यमहघेता व तिलनाशः ॥ २३२॥ सर्वभाषाल्पत्वमाग्नेये सर्वधान्यनिष्यत्तिः । रोहियमारोग्यं मृगे महर्घाणि धान्यानि ॥२३३॥ रौद्रेऽल्पवृष्टिरनमधोमुखं तदपि नश्यति विशेषात् । पुष्ये दुर्भिक्षभयं चौराः सार्वे न वर्षा स्यात् ॥ २३४ ॥ मधादित्रितये कष्टं हस्ते मेघमहोदयः । रोगा अवृष्टिवित्रायां स्वातौ क्षेमं सुभिक्षता ॥ २३५॥ तदेव विशाखायां तुषधान्यमहर्घता । अल्पवृष्टि मैत्रर्क्ष चतुष्पदप्रपीडनम् ॥ २३६ ॥ द्वारानुसाराच्छेषेषु फलमाधैर्निगद्यते । चारानुसाराद् दुर्भिक्षं सुभिक्षं स्वल्पमादिशेत् ॥ २३७॥ शुक्रोदय तिथिफलम् -- पृथ्वीसुखं स्वात्प्रतिपचतुष्के, चौरोदयः पश्चमिकाचतुष्के । । , उड़द ये धोडे हों । भरणी में हो तो तुष धान्य महँगे हों और तिल का विनाश हो ॥ २३२ ॥ कृत्तिका में हो तो सरसव, उड़द थोडे हो और सर्व प्रकारके धान्य की प्राप्ति हो । रोहिणी में हो तो आरोग्य रहें । मृगशिरमें हो तो धान्य महँगे हो || २३३ ॥ भर्द्रा में हो तो वर्षा धोड़ी, www अधोमुख हो यह भी विशेष करके नाश हो । पुण्य में दुर्भिक्ष मौर चोरोंका भय हो । आश्लेषामें वर्षा न हो ॥ २३४ ॥ मघा, पुर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी ये तीन नक्षत्रोंमें हो तो दुःख हो । हस्तमें, वर्षा का उदय हो । चित्रामें हो तो रोग हो तथा वर्षा न हो । स्वातिमें क्षेम और सुभिक्ष हो || २३५|| विशाखा में हो तो तुष धान्य महँगे हो । अनुराधा में हो तो वर्षा थोड़ी तथा पशुओंको दुःख हो ॥ २३६ ॥ बाकी के नक्षत्रोंका फल पहले जो द्वारोंके अनुसार कहा है इसके अनुसार सुभिक्ष या दुर्भिक्ष इनका विचार कहना ॥ २३७॥ "Aho Shrutgyanam" Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५१) भूपालयुद्धं नवमीचतुष्के, दुर्भिक्षवातासुखं तु शेषे । २३८ लोके तु पंडिया छट्टि एकादशी, जो असुरां गुरु उगंति । जल बहुला अन्न मोकला, प्रजा लील करंति ॥ २३९ ॥ कवारफलम् शुक्रास्तभासफलम् शुक्रस्यास्तंगमा ज्येष्ठे महापृष्टेः प्रजाक्षयः । आषाढे जलशोषः स्याच्छ्रावो रौरवं महत् ॥ २४० ॥ धनधान्यादिसम्पत्तिर्भवेद्भाद्रपदास्ततः । आश्विनेऽपि सुभिक्षाय कार्त्तिके दृष्टिहेतवे ॥ २४९ ॥ मार्गशीर्षे भूपयुद्धं प्रजानां सुखसम्भवः । पौषे माघे छत्रभङ्गः फाल्गुनेऽग्निभयं महत् ॥ २४२॥ बण्मासानपि दुर्भिक्षं चैत्र वनविनाशनम् । फलं तथैव वैशाखे पीड़ा काचिचतुष्पदे ॥ २४३॥ प्रतिपदा आदि चार तिथियों में शुक्रका उदय हो तो पृथ्वीमें सुख, पंचमी आदि चार तिथियों में हो तो चोरों का उपद्रव, नवमी आदि चार तिथियोंमें हो तो राजाओंमें युद्ध, और बाकी तिथियोंमें दुर्भिक्ष, वायु और कष्ट आदि हों ॥ २३८ ॥ लोक भाषा में भी कहा है कि- पडिवा कुठ और एकादशी इन तिथियों में शुकका उदय हो तो जल अधिक वर्षे और अनाज भी बहुत हो, प्रजामें आनंद रहें ॥२३६॥ ज्येष्ठमास में शुक्रका अस्त हो तो महावर्षा हो और प्रजाका नाश हो । आषाढमें हो तो जल सूक जाय, श्रावण में हो तो बड़ा रौरव (कष्ट) हो ॥ २४० ॥ भाद्रपद में हो तो धन धान्यकी प्राप्ति हो । आश्विन में हो तो सुभिक्ष, कार्तिक में हो तो वृष्टि के लिये हो ॥ २४९ ॥ मार्गशिर में हो तो राजाओं में युद्ध तथा प्रजा को सुख हो । पौष और माघ मास में हो तो छत्रभंग हो, फाल्गुन में बड़ा अशिका भय हो ॥ २४२ ॥ चैत्रमें हो तो छः महीने दुर्भिक्ष रहें तथा वनका विनाश हो । वैशाखमें हो तो दुर्भिक्ष I " Aho Shrutgyanam" Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . (४६०) मथमहादय त्रैलोक्यदीपके श्रविणे दधिदुग्धेस्तु भूमि सिञ्चति मेघतः । भाद्रपदे धनैर्धान्यमंधों हर्षात प्रमादयेत् ॥२४॥ लोके तु-बुध ऊगमणो सुकत्थमणो, जइ.हुव श्रावणमास। इम जाणे चो भडली, मणुप्रा न पीइ छास ॥२४॥ हीरसूरयः--'आसोइ वुध ऊगमण, पुहवी हुइ सुगाल । आसोइ शुक्र आधमें, तो रौरवो दुकाल ॥२४॥ मागसिरे सुकत्थमण, अहवा उगे मज्का जो जाणे तुजुग प्रलय, गुरु आवे ए गुज्म' ॥२४॥ अर्घकाण्डेऽपि स्वात्यादिनवके ग्राह्य भरण्याष्टके धृतिः। विक्रयः शेषऋक्षेषु शुक्रास्ते फलमुत्तमम् ॥२४८॥ पाठान्तरे-'श्रीधणे कृष्ण पक्षे च प्रतिपदिवसे धृतिः । विक्रयः शेषऋक्षेषु शुक्रास्ते फलमुत्तमम् ॥२४॥ और कुछ प्रशुओंमें पीडा हो ॥२४३॥ श्रावणमें हो तो दही दूध अधिक हो तशा वर्षी से भूमि तृप्त हो । भौद्रपद में हो तो धन धान्य की प्राप्ति पूर्वकें बरसाद हर्षसे आनंदित करता है ॥२.४४॥ यदि श्रावगमासमें बुध का उदय हो और शुक्र का अस्त हों तो मनुष्य छोस न पीवें अर्थात समय अच्छा हो ॥२४५।। आश्विन महीनमें बुध का उदय हो तो पृथ्वी मैं सुकॉल हो, किंतु आश्विन शुकको अस्त हो तो बड़ाभयंकर दुष्काल हो ॥ २१६ ! मार्गशिर में शुक्र का अस्त या उदय हों तो युगप्रलय जानना ॥ २४७ ॥ शुक्र का अस्त स्वाति आदि नव नक्षत्रों में हो तो धान्य आदि ग्वरीद करना , भरणी. आदि मा नक्षत्रों में हो ती संग्रह करना और बाकी के नक्षत्रोंमें हो तो बेचना, इत्यादि शुकास्त का उत्तम फल कहा ।२.८ ॥ पाठान्तरंसे- शुक्रास्त में श्रावण कृष्ण पचवाके दिन संग्रह करना और बाकी के नक्षत्रों में बेचना अच्छा फल कहा . .... "Aho Shrutgyanam" Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ প্রাম मिगसिर जइ सुंकह गुरु, उदयत्यमण करति । तो तुं जो ए भडुली, पुथवी चक्र.सर्मति ।।२५०॥ शुक्लपक्षे यदा शुक्ररसमुदेल्यस्तमेति वा । राजपुत्रसहस्राणां मही पियति शोणितम् ॥२५॥ अत्र हीरसूरयःपौषाधिकारे इमं श्लोकमाहुस्तेन पौषस्येवेद फैलम शुक्रास्तराशिफलम् शुक्रस्यास्तंगमान् मेघे सर्वधान्यमहर्घता। वृषे चतुष्पदे पीड़ा धान्यनिष्पत्तिरल्पिका ॥२५२॥ मैथुने वैश्यपीडा स्यादल्पवर्षा प्रजाभयम् । कर्कटे बहुलावृष्टिलघुयालव्यथा तथा ॥२५३॥ सिंहे पीडा भूपवर्गे तथानावृष्टिजं भयम् । कन्यायवैद्यलोकस्य सूत्रधारस्य पीडनम् ॥२५४।। तुलायां सिंहबत् सर्व दुर्भिक्षं वृश्चिके मतम् । स्त्रीधान्यनाशो धनुषि मकरे धान्यसम्पदः ॥२५॥ है ॥२४॥ मार्गशिरमें यदि गुरु तथा शुक्र का उदय और अस्त हो तो पृथ्वी में कटक उपद्रव हो ॥२५०॥ यदि शुक्रका शुक्लपक्षमें उदय या अस्त हो तो महा युद्ध हो, हजारों वीर पुरुषोका रुधिर पृथ्वी पीवें ॥२५१॥ - शुक्रका अस्त मेषरोशिमें हो तो सब प्रकारके धान्य महँगे हो । वृष में हो तो पशुओं को पीडा तथा धान्य की प्राप्ति थोडी हो ॥ २५२ ॥ मिथुन में हो तो वैश्यको पीडा, वर्षा थोड़ी तथा प्रजामें भय हो । कर्क में हो तो वर्घा: बहुत हो तथा बालकोंको दुःख हो ॥ २५३ ॥ सिंहराशि में हो तो राजवर्गमें पीडा तथा अनावृष्टि का भय हो । कन्या में हो तो वैद्य लोग और सूत्रवार को पीडा हो ॥ २५४॥ तुलामें हो तो सब फल सिंहराशिकी ताह जानना । वृश्चिक में हो तो दुर्भिक्ष हो । धनुराशिमें हो तो स्त्री और धान्यका नाश हो । मकर में हो तो धान्य प्राप्ति हो ॥ २५५ ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदय द्विजपीडा कुम्भराशौ मीने मेघमहोदयः। रोगनाशः प्रजासौख्यं पृथिव्यां बहुमङ्गलम् ॥२५॥ इतिशुक्रचारप्रकरणम् । अथ ग्रहयोगफलम् - यदि तिष्ठति भौमस्य क्षेत्रे कोऽपि ग्रहस्तदा। षण्मासं तुषधान्यानां जायते च महर्घता ॥२५७॥ शुक्रक्षेत्रे कुजे मासधये नूनं महर्घता। चन्द्रे च दिननाथे च सर्वरोगोऽशुभं सदा ॥२५८।। शनौ राही सर्वधान्यं महर्घ राजविग्रहः। बुधक्षेत्रे रचौ चन्द्र विरोधः सर्वभूभुजाम् ॥२५६॥ उत्पत्तिस्तुषधान्यानां पञ्चमासान् प्रजायते । शुक्रक्षेत्रे बुधे भद्रं चन्द्रक्षेत्रे भृगाः सुते ॥२६०॥ पाखण्डानां भवेवृद्धिः धान्यानां च महर्थता । रविक्षेत्रे भृगोः पुत्रे पशूनां च महता ॥२६॥ कुंभराशि में हो तो ब्राह्मणों को पीडा हो । मीनराशिमें शुक्रका मस्त हो तो मेघ का उदय, रोग का विनाश, प्रजाको सुख और पृथ्वीमें बहुम मंगल हों ॥ २५६ ॥ इति शुक्रचार ।। यदि मंगल के क्षेत्रमें कोई भी ग्रह हो तो छः महीने तुष और धान्य महँगे हो ॥ २५७॥ शुक्र के क्षेत्रमें मंगल हो तो दो महीने महंगे। चंद्रमा या सूर्य हो तो सच प्रकार के रोग तथा अशुभ करें ॥२५८॥ शनि या राहु हो तो सब धान्य महँगे तथा राजविग्रह हो । बुधके क्षेत्रमें राव या चंदमा हो तो सब राजाओं में विरोध हो ॥२५६ ।। तथा तुष धान्य की उत्पत्ति पांच महीने हो । शुक्रके क्षेत्रमें बुध हो तो कल्याण हो । चंद्रमा के क्षेत्रमें शुक्र होती ॥२६०॥ पाखंडियों की वृद्धि तथा धान्य महँगे हों। रवि क्षेत्रमें शुक्र हो तो पशुओं का भाव तेज हो ॥२६१॥ बुध के क्षेत्रमें "Aho Shrutgyanam" Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहयोगफलम् बुषक्षेत्रे शनौ चन्द्रे सप्तधान्यमहर्घता । शुक्रक्षेत्रे गुरौ भौमे कर्पासादिमहर्घता ॥२६२॥ शनिक्षेत्रे शनौ राहौ घृतधान्यमहर्षता । चन्द्रभास्करयोः क्षेत्रे सुभिक्षं चन्द्रसूर्ययोः ॥२६॥ पशुनाशो धान्यवृद्धिगुंडादीनां महर्घता । गुरुक्षेत्रे शनौ राहो पशुनाशस्तृणक्षयः ॥२४॥ भौमे राज्ञां विरोधश्च बुधे वृष्टिस्तु भूयसी। भौमक्षेत्रे यदा सन्ति राहुभौमार्कभार्गवाः ॥२६॥ षण्मासान् गुडकर्पासघृतक्षीरमहर्घता । मन्दक्षेत्रे यदा सन्ति मन्दराहुबुधास्तदा ॥२६॥ चतुष्पदानां नाशश्च द्विपदे मारिविग्रहो। भौमक्षेत्रे यदाऽपीयुः शुक्रभौमनिशाकराः ॥२६७।। तदा मुक्तापशूनां च शंखस्य च महर्घता । भौमक्षेत्रे भार्गवे च धान्यानां च महर्घता ॥२६८॥ शनि या चंद्रमा हो तो सात प्रकारके धान्य महँगे हों । शुक्र के क्षेत्रमें गुरु, या मंगल हो तो कपास आदि महँगे हों ॥२६२॥ शनि के क्षेत्रमें शनि या राहु होतोघी और धान्य महँगे हों। चन्द्र और सूर्य के क्षेत्रमें चंद्र और सूर्य हो तो सुभिक्षहोता है ॥२६३॥ तथा पशुओं का विनाश, धान्यकी वृद्धि और गुड आदि महँगे हो 1 गुरु के क्षेत्रमें शनि या गहु हो तो पशुभोंका विनाश तथा तृण (घास) का क्षय हो ॥२६४॥ मंगल हो तो राजामों का विरोध, बुध हो तो बहुत वर्षा हो । मंगल के क्षेत्रमें यदि राहु मंगल सूर्य और शुक्र हो तो ॥२६५॥ छः महीने गुड, कपास, घी, दूध मादि महँगे हो । शनि क्षेत्रमें यदि शनि राहु तथा बुध हो तो ॥२६६॥ पशुओं का नाश और मनुष्योंमें महामारी तथा विग्रह हो । मंगलके क्षेत्रमें शुक्र, मंगल और चंद्रमा होतो ॥ २६७ ।। मोति, पशु और शंख की तेजी हो। "Aho Shrutgyanam" Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये शनिक्षेत्रे चन्द्रभान्वो वस्त्राणां च महघेता । शुक्रे भौमे गुरुक्षेत्रे प्रजापीडा प्रजायते ॥ २६६ ॥ चन्द्रोदये कुजक्षेत्रे तुषधान्यस्य वृद्धये । चन्द्रोदये भृगुक्षेत्रे शुक्लबस्तृयो भवेत् ॥ २७०|| रविक्षेत्रेऽतुलावृद्धिः शनिसोमभृगुदये । चन्द्रक्षेत्रे शुक्रचन्द्रबुधानामुदयो यदि ॥ २७९ ॥ षण्मास्यां स्याच दुर्भिक्षमतिवृष्टिः प्रजायते । उदितौ च बुध क्षेत्रे यदि राहुशनैश्वरौ ॥ पशुक्षयः प्रजापीडा धान्यानां च महर्घता || २७२|| शुक्रक्षेत्रे सोमसूर्यो सूर्यपुत्रोदयो यदा । राजयुद्धं च धान्यानां जायतेऽतिमहता ॥ २७३ ॥ यदोदयः शनिक्षेत्रे भौमभास्करयोर्भवेत् । घृतादीनां तदा वृद्धिर्गुडानां रक्तवाससाम् || २७४|| यदा समुदयं याति शनिक्षेत्रे शनैश्वरः । (४६४) मंगलके क्षेत्रमें शुक्र हो तो धान्य महँगे हो ॥ २६८ ॥ शनिके क्षेत्रमें चंद्रमा और सूर्य हो तो वस्त्र महँगे हों । गुरु क्षेत्रमें शुक्र और मंगल हो तो प्रजा को पीडा हो ॥ २६६ ॥ मंगलके क्षेत्रमें चंद्रमा का उदय हो तो तुष धान्य की वृद्धि हो । शुक्र के क्षेत्रमें चन्द्रमा का उदय हो तो शुक्ल वस्तुका उदा हो ॥२७०॥ रवि क्षेत्रमें शनि सोम और शुक्र का उदय हो तो बहुत वृद्धि हो | चंद्र क्षेत्र में शुक्र चन्द्रमा और बुधका उदय हो तो ॥ २७१ ॥ छः महीने दुर्भिक्ष हो तथा बहुत वर्षा हो । बुधक्षेत्र में राहु और शनिका उदय हो तो पशुओंका क्षय, प्रजाकों पीडा और धान्य गहँगे हों ॥२७॥ शुक्र के क्षेत्र में चंद्रमा सूर्य तथा शनि का उदय होतो राजाओंका युद्ध हो तथा धान् बहुत महँगे हीं ॥ २७३॥ शनि क्षेत्र में मंगल और सूर्यका उदय हो तो बी ग्रह तथा लाल वस्त्र की वृद्धि हो ॥ २७४ ॥ यदि शनिक्षेत्र में शनि का उ P "Aho Shrutgyanam" Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहयोगफलम् तदा स्यात्तृणकाष्ठानां लोहानां च महता ॥ २७५ ॥ यदा ग्रहेण सौम्येन क्रूरेणापि च संमुखः । विद्धः करः शुभां वापि दुर्भिक्षं तत्र निश्चितम् ॥ २७६ ॥ ग्रहयुद्धे भूपयुद्धं ग्रहवके देशविभ्रमो भवति । ग्रहवेधे सति पीडा निर्दिष्टा सर्वलोकानाम् ॥ २७७॥ ज्येष्ठमासे रवियुता ग्रहाः पञ्चैकराशिगाः । श्रावणे मेघरोधाय छत्रभङ्गाय कुत्रचित् ॥ २७८ ॥ सप्तम्यां च शनिभौमौ भवेतां वक्रपामिनौ । हाहाकारस्तदा लोके विशेषादक्षिणापथे ॥ २७९ ॥ शनिः कुजो देवगुरुर्यादि शुक्रगृहे त्रयम् । एकत्र गुरुशुक्रौ वा तदा वृष्टी रणोऽथवा ॥ २८०॥ कार्त्तिकस्य नवम्यां चेद् ग्रहाः पञ्चैकराशिगाः । कालेऽपि महावृष्ट्या नद्यः पूर्णाः पयोभरैः ||२८१ ॥ शनिः पञ्चग्रहैर्युक्तो मार्गशीर्षेऽतिरोगकृत् । (४६५.) २७५ ॥ दय हो तो तृण काट और लोहा ये महँगे हो यदि शुभ और वह परस्पर संमुख हो याने दोनोंका परस्पर वेधहो तो निसे दुर्भिक्ष होता है ॥ २७६ ॥ ग्रहों का युद्ध हो तो राजाओं में युद्ध, ग्रहोंकी वक्रतामें देशमें विभ्रम, और ग्रहोंका वेव हो तो सब लोगोंको पीडा हो ॥ २७७ ॥ ज्येष्ठ महीने में सूर्य के साथ पांच ग्रह एक राशि पर हो तो श्रावण में वर्षाका रोध हो तथा कहीं छत्रभंग हो ॥ २७८ ॥ शनि और मंगल सप्तमी के दिन वक्री हो तो लोक में हाहाकार हो तथा विशेष करके दक्षिण देशमें हो |t २७६ ॥ यदि शुक्र गृह (बर) में शनि, मंगल और गुरु ये तीन ग्रह हो अथवा गुरु और शुक इकट्ठे हो तो वर्षा अथवा युद्ध हो ॥ २८० ॥ कार्तिक महीने की नवमी के दिन पांच ग्रह एक राशि पर हो तो अकालमें बहुत वर्षासे नदी जलसे पूर्ण हो ॥ २ = १ ॥ मार्गशीर्ष में शनि के साथ पांचग्रह हो तो बहुत रोगकारक होते ५६ "Aho Shrutgyanam" Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) मेघमहोदये मार्गस्य योगः पूर्णायां पञ्चानां रणकारणम् ||२८२|| मार्गशीर्षे ग्रहाः पञ्च यदि स्युरेकराशिमाः । सदा जनेऽतिमारी स्थान्नृपस्य मरणं कचित् ॥ २८३ ॥ अन्यत्रापि - असुह सुहा पंचग्गहा, इक्कह राशि मिलति । तहवि नराहिव कोइ मरइ, ग्रह जलहर वरसति ॥ २८४ ॥ भानुवक्रतमः क्रोडास्तृतीयस्था गुरोर्यदि । सुभिक्षं जायते तस्यामीदृशे योगसम्भवे ॥ २८५॥ तमोवकसवित्राचाश्चत्वारः क्रूरखेचराः । तृतीयस्था शनेरेते सौख्यः सद्भक्ष्यकारकाः ॥ २८६ ॥ भानुवक्रतमः क्रोडाः पञ्चमस्था गुरोर्यदि । दुर्भिक्षं जायते घोरं घोरयोगे समागते ॥ २८७॥ तमोवक्रः सवित्राद्याश्चत्वारः क्रूरखेचराः । पश्चमस्थाः शनेरेते दौस्थ्यदुर्भिक्षकारकाः || १८८८ || मन्दराहोरपि क्रूरास्तृतीयाः सौख्यकारकाः । हैं । मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के दिन पांच ग्रहोंका योग हो तो युद्ध कारक होता है ॥२८२ ॥ मार्गशीर्ष में यदि पांच ग्रह एकाराशि पर हो तो लोक में महा मारी और क्वचित् राजाका मरणा हो ॥ २८३ ॥ यदि शुभ या अशुभ पांच ग्रह एकराशि पर हो तो कोई राजाका भरण हो और वर्षा बहुत बरसे ॥ २८४ ॥ यदि बृहस्पति से तीसरे स्थान में रवि, मंगल, राहु और शनि, एसा योग हो तो सुभिक्ष होता है || २८५ ॥ राहु, मंगल, सूर्य व्यादि चारक्रूर ग्रहों हैं, ये शनिसे तीसरे स्थान में हो तो सुख और सुभिक्षकारक होते हैं ॥ २८६ ॥ यदि बृहस्पति से पांचवें स्थान में सूर्य मंगल राहु और शनि का घोर योग हो तो दुर्भिक्ष होता है || २८७ || राहु केतु मंगल और सूर्य आदि चार क्रूर ग्रह शनिसे पांचवें स्थानमें हो तो दुःख और दुर्भिक्ष कारक होते हैं ||२८|| शनि और राहुसे भी तीसरे स्थानमें क्रूर ग्रह हो "Aho Shrutgyanam" Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहयोगफलम् (४६७) एतयो पश्चमाः क्रूरा दुःखदुर्भिक्षहेतवे ॥२८९॥ बृहस्पतितमःसौरिमङ्गलानां यदैककः । त्रिके च पञ्चके कार्यों धान्यस्य क्रयविक्रयौ ॥२६॥ गुरोः सप्तान्त्यपछि स्थानगा वीक्षता अपि । शनिराहुकुजादित्याः प्रत्येक देशभञ्जकाः ॥२९॥ इत्येवं ग्रहवकमार्गगमनांस्तत्प्राप्तिरूपोदया नाचार्याविनिषेवणेन सुधिया सम्यगु विचार्यादरात् । वर्षे भावि शुभाशुभ फलमलं वाच्यं विविच्य स्वयं, येन स्यात्कमला स्वपाणिकमलग्राहाय बद्वाग्रहा।।२९२॥ इतिश्रीमेघहोदयसाधने वर्षयोधे तपागच्छीयमहोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते ग्रहगणविमर्शनो नाम एकादशोऽधिकारः ॥ तो सुखकारक होते हैं, और पंचम स्थान में क्रूर ग्रह हो तो दुःख और दुर्भिक्षकारक होते हैं ।।२८६। बृहस्पति, राहु, शनि और मंगल, इनमेंसे कोई ग्रह तृतीय और पंचममें हो तो क्रमसे धान्यका क्रय विक्रय करना याने खरीदना तथा बेचना ॥२६०। यदि बृहस्पति से सातयां, बारहवां, पांचवां और दूसरा इन स्थानों में शनि, राहु, मंगल और सूर्य इनमेंसे कोई ग्रह हो या उनकी दृष्टि हो तो देशका नाशकारक होते हैं ॥२६॥ इसी तरह ग्रहों का कक और मार्ग गमन को तथा उसकी प्रतिरूप उदय को आचार्योंका चरण कमलकी भक्तिपूर्वक सेवा करके और बुद्धि से विचार करके भावि वर्षका शुभाशुभ फलको स्वयं विचारके ही कहना चाहिये, जिससे लक्ष्मी उसका कर कमल ग्रहण करने के लिये आग्रहवाली होती है ॥२६॥ सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत-पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्यजैनेन विचितया मेघमहोदये बालावधोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितो प्रहगणविमार्शननाम एकादशमोऽधिकारः । "Aho Shrutgyanam Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघसहोदये अथ द्वारचतुष्टयकथनो नाम द्वादशोऽधिकारः+ वारद्वारं पुराप्रोक्तं तिथिमासनिरूपणे । नक्षत्रमत्र वक्ष्यामि वर्षबोधविधित्सया ॥१॥ कृत्तिकादिकनक्षत्रं त्रयोदशकमब्दतः । सूर्यभोग्यं भवेद् योग्य-मब्दस्येह शुभप्रदम् ॥२॥ अश्विनी धान्यनाशाय जलनाशाय रेवती । भरणी सर्वनाशाय यदि वर्षेन्न कृत्तिका ॥ ३ ॥ कृत्तिकायां निपतिता पञ्चषा अपि बिन्दवः | पूर्वपचाद्भवान् दोषान् हत्वा कल्याणकारिणः ||४|| रोहिण्यां भावतो भोगे निषिद्धमपि वर्षणम् । नद्याः प्रवाहे नो दुष्टं स्याद्वादी विजयी ततः ॥५॥ रोहिण्यां भास्वतस्तापाद्वर्षायां स्याद्धनो घनः । गोखुरोत्खातरजसा वृष्टिर्दुष्टा प्रकीर्त्तिता ॥ ६ ॥ (४६८) तिथि मास का निर्णय करने के लिये वार द्वार पहले कह दिया, अत्र वर्ष शुभाशुभ फल जानने के लिये नक्षत्र द्वार को कहता हूँ ॥ १ ॥ वर्ष में सूर्यभोग्य के कृत्तिका आदि तेरह नक्षत्र वर्ष के योग्य हो तो शुभ फल दायक होते हैं ॥२॥ यदि कृत्तिका में वर्षा नहीं तो अश्विनी धान्यका, रेवती जलका और भरणी सब का नाशकारक होते हैं ||३|| यदि कृत्तिका में जल के पांच छ: भी बूंद गिरे तो पहले और पीछे होनेवाले दोषों का नाश कर के कल्याण करने वाले होते हैं ||४|| सूर्य रोहिणी नक्षत्र पर हो तत्र वर्षांद होना अच्छा नहीं और विशेष वर्षा होकर नदियोंमें पूर आये तो दोष नहीं ऐसा स्याद्वाद मत है || ५ || रोहिणी में सूर्य से बहुत ताप (गरमी) पड़े तो आगे वर्षा बहुत अच्छी हो । गौओंके खुर से रज (शुल्क धूलि ) निकल आ ऐसी अल्प वृष्टि अच्छी नहीं ॥ ६ ॥ , "Aho Shrutgyanam" Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रावतुष्टयम् अत्र रोहिणीचक्रम्मेषेऽर्कसंक्रमदिने यन्नक्षत्रं प्रजायते । संक्रान्तिसमये देयं पूर्वाधौ सच भव्यम् ॥७॥ ततः सृष्टयाः तटे चैकमेकसन्धौ च पर्वते । अष्टाविंशति ऋक्षाणामेवं न्यासो विधीयते ॥८॥ सन्धयोऽष्टौ तटान्यष्ट चतुर्दिक्षु पयोधरः । . विदिक्षु शैलाश्चत्वारस्तदन्तःस्थास्तु सन्धयः ॥६॥ रोहिणी यत्र सम्प्राप्ता स्थानं तच्च विचार्यते। शैले सन्धौ खण्डवृष्टिरतिवृष्टिः पयोनिधौ ।। तटे सुभिक्षमादेश्यं रोहिण्या सति सङ्गमे ॥१०॥ सन्धौ वणिग्गृहे वासः पर्वते कुम्भकृद्गृहे । मालाकारगृहे सन्धौ रजकस्य गृहे तटे ॥११॥ इति वर्षावासफलम् । दिना! मासार्यश्चअर्घकाण्डे त्रैलोक्यदीपककारः प्राह__मेष संक्रांतिके दिन जो नक्षत्र हो वह संक्रांतिके समय पूर्वदक्षिणादि क्रमसे चक्र लिखें, समुद्र में दो २ नक्षत्र |७|| तट संधि तथा पर्वत इन प्रत्येक में एक एक ऐसे अट्ठाईस नक्षत्र लिखें ॥८॥ संधि आठ, तट आठ, चार दिशामें चार समुद्र और विदिशामें चार पर्वत इनके अंत्यमें संधि हों ऐसा चक्र बनाना ॥ ६ ॥ इस चक्र में रोहिणी जिस स्थान पर हो उसका विचार करें ! पर्वत तथा संधि पर हो तो खंडवर्षा हो, समुद्र पर हो तो अति वृष्टि हो और तट पर हो तो मुभिक्ष हो ॥ १० ॥ संधि में रोहिणी हो तो वणिक् के घर, पर्वत में हो तो कुम्हार के घर, संधि में हो तो माली के घर और तटमें हो तो धोबीके घर वांका वास समझना ॥११॥ "Aho Shrutgyanam" Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेषमहोवर स्वास्यायष्टकसंयुक्तमाश्विन्यादित्रिकं पुनः । त्रिकसंशं बुधैर्वाच्यमकाण्डविशारदः ॥१२॥ मृगादिदशकं वापि धनिष्ठापशकं तथा। संज्ञायां पञ्चकं ज्ञेयमनिर्णयहेतुकम् ॥१३॥ त्रिकयोगे त्रिकयोगः पञ्चके पश्चकं पुनः । गृह्यते त्रिकयोगेन दीयते पञ्चके धनम् ॥१४॥ त्रिके च जीवराशेच ऋरा यदि त्रिके गता । अन्योऽन्यं च त्रिके वा स्युच्यते तत्क्रयाणकम् ॥१५॥ पञ्चके जीवराशेस्तु यदि गच्छति पञ्चके । अन्योऽन्यं पञ्चके वा स्युर्दीयते तत्तदेव हि ॥१६॥ यदा धिष्ण्यत्रिके चन्द्रः केतव्यं तत्क्रयाणकम् । यदा च पञ्चके चन्द्रो विक्रतव्यं तदाखिलम् ॥१७॥ जीवक्षे तमाशौरिभौमपंग्वोर्गुरुनिके । ... स्वाति आदि आठ और अश्विनी आदि तीन, इन नक्षत्रोंकी अर्घकांड के विशारद पंडितोंने त्रिक संज्ञा मानी है ॥ १२ ॥ मृगशीर्ष आदि दश और धनिष्ठा प्रादि पांच, इन नक्षत्रों की अर्व का निर्णय करने के लिये पंचक संज्ञा की हैं ॥ १३ ॥ ग्रह त्रिक नक्षत्रों में हो तो त्रिकयोग और पंचक नक्षत्रों में हो तो पंचकयोग माना है । त्रिकयोग, धन ग्रहण करना और पंचकयोगमें देना चाहिये । १४ ॥ त्रिक नक्षत्रोंमें यदि जीवराशि (वृहस्पतिकी राशि)से क्रूर ग्रह त्रिक में हों या कूरगाहोंसे जीवराशि त्रिकमें हो तो क्रपाणक ग्रहण करना याने खरीदना चाहिये ।।१५।। इसी तरह पंचक नक्षत्र में जीवराशि तथा क्रूर ग्रह ये परस्पर पंचक में हो तो खरीदी हुई वस्तुको बेचना चाहिये ॥१६॥ यदि त्रिकनक्षत्रमें चंद्रमा हो तो कयासहक को खरीदना, तथा पंचकनक्षत्रमें हो तो बेचना चाहिये ॥१७॥ बृहस्पतिके नक्षत्रों में राहु और शनि हो या राहु और मंगल के त्रिक में बृह. "Aho Shrutgyanam" Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारचतुष्टयम् अन्योऽन्यं पञ्चकेऽप्येते देहिलाहि त्रिके कणान् ॥१८॥ त्रिके यदि ग्रहाः सर्वे जीवान्मन्दतमःकुजाः । तदा भुवि समर्थ स्यात् तिथिवृद्धौ विशेषतः ॥१६॥ यदि स्याद्देवयोगेन भत्रिके धिष्ण्यपञ्चकम् । तदा किञ्चिन्मह स्यात् सौम्यवेधेऽधिकं पुनः ||२०|| पाके वेद ग्रहाः सर्वे संमिलन्ति यदैव हि । तदा भुवि महर्षे स्याद् धिष्ण्यहीनौ विशेषतः ॥२१॥ राशिपञ्चकयोगे तु धिष्यपत्रिकं यदा भवेत् । तदा किञ्चित्सम स्यात् सौम्यवके शुभं बहुः ॥२२॥ मंशरास्तु यदा जीवाद राशिनक्षत्रपचके । घोरदौस्थ्यं तदा ज्ञेयमृक्षे न्यूनेऽतिरौरवम् ||२३|| राशिधिष्यपत्रिके पूर्वे ग्रहाः सर्वे भवन्ति चेत् । महा सौस्थ्यं तदा भूम्यां सौम्यवक्रे महोत्सवः ||२४|| (४७१) ● स्पति हो, अथवा ये ग्रह अन्योन्य पंचकर्मे या त्रिकमें था जावें तो अन्न बेचने से लाहि (लाभ) होता है ||१८|| यदि सब ग्रह या बृहस्पतिसे शनि, राहु और मंगल ये त्रिकमें हो तो पृथ्वी पर धान्यादि सस्ते हो और तिथि की वृद्धि हो तो विशेष कर सस्ते हों । ॥ १६ ॥ यदि दैवयोग से त्रिकनक्षत्र में पंचकनक्षत्र हो तो कुछ महँगे हो और शुभग्रह का वेध हो तो अधिक हो ॥ २ | यदि सब ग्रह एक साथ पंचकमें हो तो पृथ्वी पर महँगे हो और नक्षत्र की हानि हो तो विशेष करके महँगे हो || २१ ॥ पंचक राशिके योग में त्रिकनक्षत्र हो तो कुछ सस्ते हो और बुधग्रह बकी हो तो बहुत शुभ हो ॥२२॥ मंगल, शनि, राहु ये ग्रह बृहस्पतिसे एक राशि पर हो और पंचक में हो तो बड़ा दुःख जानना और नक्षत्रकी हानि हो तो बड़ा रौरव हो ॥ २३ ॥ सब ग्रह त्रिक नक्षत्र पर हो तो बड़ा सुख हो और बुध ग्रह वक्री हो तो महा उत्सव हो ||२४| "Aho Shrutgyanam" Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये प्रकृतम्-सर्वनक्षत्रमध्ये तु रोहिणी पतिता त्रिके । सौम्ययोगे शुभैव स्यादशुभाः ऋरयोगतः ॥२५!! अतिवृष्टिरनावृष्टिमूषकाः शलभाः शुकाः । स्वचक्रं परचक्रं च मृगशीर्षे द्विकैरिदम् ॥२६॥ श्रााप्रवेश:..सूर्योदये रोगकरी स्मृतार्दा, घटीद्धये विग्रहरोगयोगः । मध्याहकाले कृषिनाशनाय,धान्यं महर्घ च तृणस्य नाशः।२७। सन्ध्यास्थितार्दा कुरुते सुभिक्ष,रात्रौ स्थिता सर्वसुखायलोके। भोगं प्रदत्ते खलुमध्यरात्रे, पूर्व मुखं दुःखमतोऽपरात्रे ।२८॥ "मिगसिर वाय न वाइया, अह न घूठा मेह । इम जाणे वो भडली, वरसइ दीधौ छेह" ॥२९॥ नक्षत्रद्वार:----- भघार्कदिवसं त्यक्त्वा सर्वनक्षत्रवर्षणम् । सब नक्षत्रों के मध्यमें रोहिणी त्रिकमें हो और शुभग्रहों का योग हो तो शुभ और अशुभ ग्रहोंका योग हो तो अशुभ होता है ।।२५।। मृगशीर्ष नक्षत्र पर शुभ और अशुभ ग्रह हो तो कभी अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहा, कीडा, स्वचक्र, और कभी परचक्र इत्यादिके उपद्रव हो ॥२६॥ - सूर्यका आर्द्रा में प्रवेश सूर्योदयमें हो तो रोग करनेवाला होता है। सूर्योदय से दो घड़ी दिन चढ़ने बाद हो तो विवाह और रोगकारक होता है । मध्याह्न दिन में हो तो खेतीका नाश, धान्य महँगे और तृणका नाश हो ॥२७॥ सन्ध्या समय आर्दा हो तो सुभिक्ष करें, रात्रिमें हो तो लोक में सब प्रकारके सुखकारक होता है। मध्यरातमें हो तो भोग प्रदान करें और पीछली शेष रात्रिमें हो तो पहला सुख और पीछे दुःख करें॥२८॥ मृगशिर नक्षत्र में वायु अधिक न चले तथा आम मेघष्टि न हो तो वर्षा न बरसे ॥२६॥ "Aho Shrutgyanam" Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारचतुष्टयम् हर्षणं सर्वलोकानां कर्षणं फलदायकम् ॥३०॥ हस्तार्कसंगमे वर्षा सर्वामीतिं निवारयेत् । स्वातिवृष्टिोक्तिकानि निष्पादयति नीरधौ ॥३२॥ सौम्यवारेऽर्कनक्षत्रे चारः शुभकरः स्मृतः । अर्कारमन्दवारेषु नक्षत्रभ्रमणेऽशुभम् ॥३२॥ इति ।। अथ सर्वतोभद्रचक्रम्----- कीरचकं प्रागुक्तं सर्वतोभद्रमुच्यते । तत्र नक्षत्रानुसाराद ज्ञेयं देशशुभाशुभम् ॥३॥ *सौम्यवेधे समर्घत्वं ऋरवेधे महर्घता । देश: कालच वस्तूनि ग्रहवेधस्त्रिषु स्मृतः ॥३४॥ भयानक्षत्रमें सूर्य आवे उस दिनको छोड़ कर बाकीके सब नक्षत्रों में वर्षा हो तो मब लोगोंको हर्षदायक और किसानों को लाभदायक होता है ॥३०॥ हस्त नक्षत्रमें सूर्य आवे तब वर्षा हो तो सब प्रकारकी ईतिका निवारण हो । स्वातिनक्षत्रमें सूर्य प्रानेसे वर्षा हो तो समुद्रमें सीपियों में मोती उत्पन्न करें ॥३१॥ शुभवारके दिन सूर्यका एक नक्षत्रसे दूसरे नक्षत्र पर गमन हो तोः शुभ फलदायक होता है । रवि, मंगल और इ.नि इन पारों में सूर्यका. नक्षत्र पर गमन हो तो अशुभ होता है ॥३२॥ कर्पूरचक पहले कहा है, अब सर्वतोभद्रचक कहता हूँ, इसमें नक्षत्रके वेधं के अनुसार देशमें शुभाशुभ जाना जाता हैं ॥३३॥ सौम्यग्रहका वेध हो तो, सस्ते और कूरमाहका वेध हो तो महँगे हों। ये देश, काल और वस्तु इन * जामने का प्रकारयस्मिन् भने स्थितः खेदस्ततो घेधत्रयं भवेत् । रविशेमात्र वामदक्षिणसम्मुखम् ॥१॥ . . यो प्रदेश पुनरज गजेन्द्रदेश, संस्थानादिद्वयगतस्य कलादिकस्य । एकोऽपरस्त्वभिमुसस्थितमध्यनासा,पर्यन्तभागयुतकेवलंधिप्पय पवार। सावक्षिका ररिमिरिच शीनगे। "Aho Shrutgyanam" Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४): भ रे उ पू JG घ A. ल च द स ग H रो A ल मेष 長 कुंभ मृ 18 व वृष 宙 abs मकर 約 मेघमहोदये W श्रा पु क नंदा पूर्ण मिथुन कर्क श्र Abs I hot 3 "Aho Shrutgyanam" पु 4 ड तुला ए 官 ऊ म 2 प र สี 4 भ भ पू उ ह Acala 善 近 सांमुखी मध्यचारे च ज्ञेया भौमादिपञ्चके ॥३॥ राहुकेतू सदा वक्रौ शीघ्रगौ चन्द्रभास्करौ । गतेरेकस्वभावत्वा-देषां दृष्टिश्रयं सदा ||४|| सर्वतोभद्रचक्रमें जिस नक्षत्र पर ग्रह स्थित हो, उस नक्षत्र के स्थानसे मह दृष्टि के अनुसार वाम (बाय) दक्षिण तथा सम्मुख, ऐसे तीन प्रकार के वेध होते हैं भ र्थात् ग्रह की दृष्टि जिस तरफ हो उस तरफ वेध होता है ॥ १॥ ग्रहों का वेव गजेन्द्र के दांत का संस्थान की जैसे दो तरफ याने बायीं और दक्षिणके वेधसे राशि, अक्षर स्वर तिथि और नक्षत्र ये पांचों ही वेधे जाते हैं । किंतु सम्मुख रही हुई नाशिका का अग्रभाग की जैसे केवल सामने का एक नक्षत्र ही बेधा जाता है, ऐसा कईएक भाचार्यों का मत चि स्वा वि Id Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रपक्रम पथ नक्षत्रक्रमेण वस्तूनां नामानि देशांश्व-~-~ब्रीहिर्यवाब मणयो हीरका धातवस्तिलाः । कृत्तिकावेधतो मासा-नष्टयाम्यदिशोऽसुखम् ॥३५॥ रोहिण्यां सर्वधान्यानि सर्वे रसाश्च धातवः। जीर्णाः कम्बलकाः प्राध्या-ममुखं दिनसप्तकम् ॥३६॥ भृगशीर्वेऽश्चमहिषी गावो लाक्षादिकोद्रवः । खरा रत्नानि तुरी बोदक्पीडा षष्टिवासरान् ॥३७॥ मार्दायां तैललवणसर्वक्षाररसादयः । श्रीखण्डादिसुगन्धीनि मासं स्यात् पश्चिमाऽसुखम् ॥३८॥ तीनोंमें ग्रहवेध द्वारा जानना ॥३४॥ कृत्तिकाके वेधसे चावल, यव, मणि हीरा , धातु और तिल इन में वेध होता है, तथा आठ महीने दक्षिण दिशा में दुःख होता है ॥ ३५ ॥ रोहिणी में वेध हो तो सब प्रकार के धान्य रस धातु और जीर्ण कंबल इन में वेध हो , तथा पुर्व दिशा में सात दिन दुःख होता है । ३६॥ मृगशीर्ष में वेध हो तो घोड़ा, भैस, गौ , लाख , कोद्रव , गदहा , रन और तुवरी इन का वेध तथा उरारदिशामें साठ दिन पीडा हो ॥३७॥ माके वेधसे तेल,लवण आदि सब प्रकार के क्षार , रस और चंदन आदि मुगंधित वस्तु का वेध तथा है, इसके लिए नरपतिजयचर्या में सर्वतोभद्र की संस्कृत टीका भी कहा है कि--"ग्रहः सध्यापसव्येन चक्षुषा वेधयेत् पुनः । ऋक्षाक्षरस्वरादिस्तु सम्मुखेनान्त्यभं तथा" | याने बाथीं या दक्षिण ओर दृष्टि होतो राशि, नक्षत्र स्वर, व्यजन और तिथि इन पांचों का वेध होता है। किंतु सम्मुख दृष्टि हो तो अन्त्यका एक नक्षत्र का ही वेध होता है ॥२॥ भौ: दि पांच ( मंगल बुध गुरु शुक्र और शनि ) ग्रहों में से जो ग्रह वक्री हो उसकी दृष्टि दक्षिण मोर,शीघ्रगामी (अतिचारी) ही उमकी दृष्टि बायीं ओर और मध्यचारी हो उसकी तुष्टि सम्मुख होती है ॥३॥ राहु और केतु की सर्वदा वक्रगति तथा चंद्रमा और सूर्य की सदा-शीघ्रगति है, इसलिए इन चारों ग्रह की गति सर्वदा एक ही प्रकार होने से उनकी दृष्टि भी सर्वदा तीनों ओर होती है ॥४॥ "Aho Shrutgyanam" Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेमहोदये पुनर्वस्वोः स्वर्णरूत कर्पास युगन्धरी । कुसुम्भः श्यामकौशेयं मासयुग्मोत्तराऽसुखम् ||३९|| पुष्ये स्वर्णघृतं रूप्यं शालिसौंचलसर्वपाः । सर्जिकातैलहिंग्वादि याम्पपीडाष्टमासिकी ॥४०॥ आश्लेषायां च मञ्जिष्ठाऽऽर्दक गोधूमठिकाः । मरिचकोद्रवाः शालि-र्मासिक पत्रिमासुखम् ॥४१॥ मघायां तिलतैलाज्य प्रवालचणकातसी । मुद्राः कर्दक्षिणस्यां विग्रहश्चाष्टमासिकः ॥४२॥ प्रूफायां कम्बलोण दि-युगन्धरी तिलास्तथा । रजकं वस्तुपल्याणं याम्यपीडाष्टमासिकी ||४३|| 'उफायां माषमुद्गाद्यं तन्दुलाः कोद्रवाः पुनः । * सैन्धवं लशुनं सज्जिर्मासयुग्मोत्तरा व्यथा ॥४४॥ हस्ते श्रीखण्ड कर्पूरदेवकाष्ठागरुस्तथा । रक्तचन्दनकन्दाद्यं मासयुग्मोत्तराऽसुखम् ॥४५॥ ... , पश्चिम दिशा में एक महीना दुःख हो ॥३८॥ पुनर्वसु के वेधसे सोना, रूई, कपास, जूमार, कुसुंभ और कृष्ण रेशमी वस्त्र का वेव तथा दो महीने उत्तर दिशा में अशुभ रहें ॥ ३६ ॥ पूयमें सोना, वी, चांदी, चावल, शोचर लोन, सरसों, सजीवार तेल, हिंग, तथा आठ महीने दक्षिण दिशा में पीडा रहें ।। ४० ॥ आश्लेषा मँजीठ आदा गेहूँ सोंठ मिर्च कोद्रवा और चावल तथा पश्चिममें एक मास दुःख रहें ॥४१॥ मघामें तिल, तेल, घी, प्रवाल (मूंगा), चने, अलसी, मूंग, और कंगु तथा दक्षिण दिशामें आठ महीने -विग्रह हो ॥४२॥ पूर्वाफाल्गुनी में कंबल, रेशमी वस्त्र, ज्वार, तिल, चांदी और दक्षिणदिशा में आठ महीने पीडा ॥ ४३ ॥ उत्तराफाल्गुनी में उडद मूंग चावले कोद्रव, सैंचय, लसून, सज्जी, और उत्तर में दो महीने पीडा ॥ ४४ ॥ हस्तमें चंदन, कपूर, देवदार, अगर, रक्तचंदन चंद आदि और "Aho Shrutgyanam" Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रचक्रम् स्वर्ण र तु चित्रायां मुद्गमाषप्रवालकम् । अश्वादिवाहनं मास-छयं पीडोत्तरा दिशि ॥४॥ स्वाती पूगीमरिचःसर्वपतैलादिराजिकाहिङ्गः । खर्जरादिकपीडा सप्तदिनान्युत्तरे देशे-॥४॥ विशाखापांयवाः शालिगोधूमा-मुद्राजिका। मसूरामकुष्टाश्च याम्या पीडाष्टमासिकी ॥४८॥ राधायां तुवरीसर्वविदलान्नं च तन्दुलाः । मकुष्टकडचणकाः प्रापीडा दिनसप्तकम् ॥४९॥ ज्येष्ठायां गुग्गुलं गुई लाक्षाकर्पूरपारदाः । हिहिङ्गलुकांस्यानि प्राकपीडा दिनसप्तकम् ।।५०॥ भूले श्वेतानि वस्तृनिःरसा धान्यानि सैन्धवम् । कसलवणाधं च मासिकं पश्चिमासुखम् ॥५१॥ पूषायामचनतुषधान्यघृतमूलजूर्गादिः । बेध्यं सशालिपश्चिमदिशि मासिकमशुभमन्यद्वा ॥५२॥ उत्तामें दो महीने पीडा ४५ चित्रा में सोना, रत्न, मूंग, उडद, मूंगा, घोडा, आदि वाहन और दो महीने उत्तर दिशा में पीडा ॥४६॥ स्वाति में सोपारी, मिर्च, सरसब, तेल, राई, हिंग खजूर आदि तथा उत्तर देश में सात दिन पीडा ॥ १७ ॥ विशाखामें यव, चावल, गेहूँ, मूंग, राई, मसुर, वनमूंग तथा दक्षिण दिशाम आठ महीने पीडा॥४८॥ अनुराधामें तुमरीमादि सब विदल अन्न, चावल, वनमूंग, कंगु, चने तथा पूर्वदिशाके देश में सात दिन पीड़ा रहे ॥ ४६॥ ज्येष्ठामें गुगल, गुड, लाख, कपूर, पारा, हिंग, हिंगलु और कांसी इन में वेध तथा पूर्व दिशा में सात दिन पीड रहें ॥५०॥ मूल में सफेद वस्तु, रस, धान्य, संधव, कपास, लवणादि में वेध और पश्चिममें एक मास दुःख ॥५१॥ पूर्वाषाढा में अंजन तुघ धान्य घी कंदमूल, जूर्ग (चावल) मादिको वेधते है तथा पश्चिम दिशामें एक "Aho Shrutgyanam" Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवमहोदये उषायामश्ववृषभा गजलोहादिधातवः । सर्व व सारवस्त्वाज्यं प्रारव्यथादिनससकम् ॥५३॥ द्राक्षाखजूरपूगैला मुगा जातिफलं हयाः ।। अभिजिछेधतः पूर्वा व्यथा वा दिनसतकम् ॥५४॥ श्रवणेऽखोडचालि पिप्पली पूगवायवम् । तुषधान्यानि वेध्यानि प्राक्शुभं सप्तवासरान् ॥५॥ धनिष्ठायां स्वर्णरूप्य-धातवः सर्वनाणकम् । मणिमौक्तिकरनादि सप्ताहं पूर्वतः शुभम् ।।५६॥ तेलं कोद्रवमयादि धातकीपनमूलकम् । छल्लिः शतभिषग्वेध्यं वारुण्यां मासिकं शुभम् ॥५॥ प्रियङ्गमूलजात्यादि सर्वधान्यानि धातवः । । सर्वोषधं देवदार्याम्यां पीडाऽष्टमासिकी ॥५८॥ पूर्वाभाद्रपदे वेध्यमथोभावेध्यमुच्यते । मास अशुभ रहे ॥ ५२ ॥ उत्तरषाढा में घोडा, बैल, हाथी, लोह आदि. धातु सत्र सार वस्तु और धीको वेधते है, तथा पूर्व में सात दिन व्यथा हो ॥ ५३ ॥ अभिजित् का वेध से द्राक्ष खजूर सोपारी इलायची मूंग जायफल और घोडा को वेधते है तथा पूर्व देश के देश में सात दिन पीडा हो ॥ ५४ ॥ श्रवण में अखरोट ची.जी पीपल सोपारी यत्र तुष धान्य इनको भी वेधत है और पूर्व में सात दिन शुभ रहें ॥५५॥ धनिष्ठामें सोना चांदी आदि धातु, सब प्रकार के द्रव्य, मणि मोती और ग्ल आदिको वेधते है तथा पूर्व में सात दिन शुभ रहें ॥ ५६ ।। शतभिषा में तेल कोद्रव मद्य आद्रि आवला के पत्र मूल और छिलका को वेधते है, तथा पश्चिम दिशा में एक मास शुभ रहें ।। ५७ ॥ पूर्वाभाद्रपदा में वेध हो तो प्रियंगु, मूल, जायफल सब प्रकारके धान्य तथा औषध, देवदारु इनको वेधते है, तथा दक्षिण आठ महीने पीडा रहे ॥ ५८॥ उत्तरा "Aho Shrutgyanam" Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रंयक्रम् (४७६) गुडखण्डाः शर्करा य खलं तिलाश्च शालयः ॥५९॥ घृतं मणिमौक्तिकानि वारुण्यां मासिकं शुभम् । पौष्णे श्रीफलपूगादि मौक्तिकं मणयोऽपि च ॥ बेडा ऋयाणकं सर्व वारुण्यां मासिकं शुभम् ॥६॥ प्रश्चिन्यां व्रीहयो जूर्णा वेसरोष्ट्रघृतादिकम् । . सर्वाणि धान्यवस्त्राणि मासयोत्तरा व्यथा ॥६॥ भरण्यां तुषधान्यानि युगन्धरी च वेध्यते । मरिचायौषधं सर्व याम्यां पीडाष्टमासिकी ॥३२॥ . इति नक्षत्रवेधे शुभाशुभफलम् । अथार्घ सम्प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ब्रह्मयामले । एकाशीतिपदे चक्रे ग्रहवेधे शुभाशुभम् ॥६३॥ देशः कालस्तथापण्यमिति त्रेधानिर्णये । चिन्तनीयानि विद्धानि सर्वदेव विचक्षणः ॥४॥ भाद्रपदमें वेध हो तो गुड, खांड, सक्कर, खली, तिल, चावल, घी, मणि, मोती इनका वेध होता है तथा पश्चिम दिशा में एक महीने शुभ रहें । ५६ ॥ रेवती नक्षत्र में वेध हो तो श्रीफल, सोपारी, मोती, मणि, बेडा, ऋयाणक, वस्तुको वेध होता है तथा पश्चिममें एक महीने शुभ रहे ॥६०॥ अश्विनी में चावल, जूर्ण, वेसर, ऊंट, घी सब प्रकार के धान्य तथा वस्त्र को वेध होता है और दो महीने उत्तर में पीडा हो ॥ ६१ ॥ भरणी में तुष धान्य, ज्वार, मिर्च मादि औषध इन सब को वेधते है तथा दक्षिण में आठ महीने पीडा रहें ॥६२॥ -- : क्रय विक्रय पदार्थों के अर्घ (मूल्य) का निर्णय जैसा ब्रह्मयामल नामक ग्रंथ में ग्रह वेधद्वारा शुभाशुभ कहा है, वैसा इस इक्यासी पद वाला सर्वतोभद्रचक्र में कहता हूँ॥ ६३ ॥ सर्वदा विचक्षण पुरुषों को भर्ष का निर्णय करने योग्य देश, काल और पण्य ये तीनों के वेध का "Aho Shrutgyanam" Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८०) मेघमहादये देशकालपण्यनिर्णयः-- देशोऽथ मण्डलं स्थानमिति देशस्त्रियोच्यते। वर्ष मासो दिनं चेति त्रिधा कालोऽपि कथ्यते ॥६॥ धातुर्मूलं तथा जीव इति पण्यं त्रिधामतम् । अस्य त्रिकं त्रयस्थापि वक्ष्यामि स्वामिखेचरान ॥६॥ देशादीनां स्वामिज्ञानम् ----- .. देशेशा राहुमन्देज्या मण्डलस्वामिनः पुनः । केतुसूर्यसिताः स्थाननाथाश्चन्द्रारचन्द्रजाः ॥७॥ वर्षेशा राहुकेत्वार्किजीवा मासाधिपाः पुनः ।। भौमार्कज्ञसिता ज्ञेयाश्चन्द्रः स्यादिवसाधिपः ॥८॥ धात्वीशाः सौरिराहारा जीवेशाज्ञेन्दुसूरयः । . मूलेशाः केतुशुक्राळ इति पण्याधिपाः ग्रहाः ॥६६॥ पुंग्रहा राहुकेत्वार्कजीवभूमिसुता मताः । विचार करना चाहिये ॥६४॥ देश, मंडल और स्थान, इन भेदोंसे देश तीन प्रकारका है । तथा वर्ष, मास और दिन, इन भेर्दोसे काल भी तीन प्रकारका. कहा है ॥ ६५ ॥ धातु, मूल और जीव इन भेदों से पण्य भी तीन प्रकार का माना है । तीन प्रकारके देश, तीन प्रकारके काल और तीन प्रकारके पण्य इन तीन त्रिकोंके स्वामी ग्रहको कहता हूँ ॥६६॥ देश का स्वामी--- राहु, शनि और बृहस्पति हैं । मंडल का स्वा. मी-केतु सूर्य और शुक्र हैं । तथा स्थान का स्वामी-चंद्रमा, मंगल और बुध हैं।।। ६७ ॥ वर्ष के स्वामी-राहु, केतु, शनि और बृहस्पति हैं। महीने के स्वामी- मंगल सूर्य बुध और शुक्र हैं । तथा दिनका स्वामी चन्द्रमा है ॥ ६८ ॥ धातु के स्वामी- शनि, राहु और मंगल हैं । जीवके स्वामी बुध चन्द्रमा और बृहस्पति हैं ! तथा मूल के स्वामी- केतु शुक्र और सूर्य हैं । ये पण्य के स्वामी ग्रह हैं ।। ६६ ।। "Aho Shrutgyanam" Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रचक्रम् श्रीग्रहौ सितशीतांशू सौरिसोम्यौ नपुंसकौ ॥७०॥ सितेन्द्र सितवर्णेशौ रक्तेशौ भीमभास्करी । पीतेशौ सगुरु कृष्णनाथाः केतुतमोऽर्कजाः ।।७१४ वशात् स्वामिनिर्णय: ग्रहो वकोदयो यो यदा स्याद् बलाधिकः । देशादीनां सः एवैकः स्वामी खेटस्तदा मतः ॥७२॥ क्षेत्रबलम् स्वक्षेत्रस्थे बलं पूर्ण पादोनं मित्रभे गृहे । अ समगृहे ज्ञेयं पादं शत्रुग्रहे स्थिते ॥७३॥ चक्रोदय बलम् - वक्रोदयाहमाना पूर्णवीर्यो ग्रहो भवेत् । (४१) राहु केतु सूर्य बृहस्पति और मंगल ये पुरुष संज्ञा वाले ग्रह हैं । शुक और चंद्रमा ये दोनों स्त्री संज्ञावाले ग्रह हैं । तथा शनि और बुध ये दोनों नपुंसक संज्ञावाले ग्रह हैं ॥७०॥ श्वेत वर्णके स्वामी- शुक्र और चंद्रमा, [क्त वर्ण के स्वामी मंगल और सूर्य, पीत वर्ण के स्वामी बुध और गुरु; तथा कृष्ण वर्ण के स्वामी केतु राहु और शनि हैं ॥७१॥ उपर जो देश आदि के स्वामी ग्रह कहे हैं, इनमें से जो मह, वक, उदय, उच्च और क्षेत्र इन चार प्रकारके बलों में से जो अधिक बलवाला हो, वही एक ग्रह उन देशादिक का स्वामी होता है अर्थात् जिस के दो तीन आदि ग्रह स्वामी होते हैं इनमें जो बलवान् हो वह स्वामी माना जाता है ॥७२॥ ग्रह अपनी राशि पर हो तो पूर्ण (चार पाद), मित्रकी राशि पर हों तो तीन पाद, सम ग्रहकी राशि पर हो तो भाधा (दो पाद), और शत्रु ग्रहकी राशि पर हो तो एक पाद बल होता है ॥ ७३ ॥ , जिसने दिन प्रह वक्री या उदय रहें, इसका आधा समय बीत जाने " Aho Shrutgyanam" Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८२) मेघमहोदये तदनपृष्टगे खेटे बल राशिकान मतम ॥७४॥ उच्चबलम्उच्चांशस्थे...बलं पूर्ण नीचांशस्थे बलं खिलम् । त्रैराशिकवशाद् ज्ञेयमन्तरे तु बलं बुधैः ।।७५॥ स्वामिवशाद् वेधफलनिर्णयः-- एवं.देशाधिनाथा ये ते वेधकग्रहं प्रति । सुहृदः शत्रवो मध्याश्चिन्तनीयाः प्रयत्नतः ॥७६।। स्वमित्रसमशत्रूणां विध्यन् देशादिकं क्रमात् । दुष्टं दुष्टग्रहः कुर्यादेकछित्रिचतुष्पदे ।।७।। स्वमित्रसमशत्रूणां विध्यन् देशादिकं क्रमात् । शुभग्रहः शुभं दत्त चतुस्त्रिद्वयेकपादजम् ।।७८॥ पर वक्री को या उदयका मध्य फल जानना, इस समय ग्रह पूर्ण बलवान् होता है। उस मध्य कालसे जितना आगे या पीछे रहे उतना न्यून बल राशिक गणितसे जानना ॥७४॥ ग्रह उच्च राशि में परम उच्च अंश पर हो तो पूर्ण बल, तथा नीच राशि में परम नीच अंश पर हो तो बलहीन जानना, और इन दोनोंके बीच में कहीं हो तो उसका बल विद्वानोंको. त्रैराशिक गणितसे जानना चाहिये।७५॥ इसी तरह जो, देश आदिके स्वामी ग्रह कहे हैं, वे ग्रह अपने २ देश मादि को वने वाले ग्राह के पति मित्र शत्रु या सम इनमें से क्या है ? इसका यत्न से विचार करें ॥ ७६ ॥ देश आदि का वेध करनेवाला ग्रह अशुभ हो तो क्रमसे अशुभ फल देता है। स्वामी स्वयं वेधकर्ता हो तो एक पार्द, बधकता मित्रग्राह हो तो दो पाद, समान ग्रह हो तो तीन पाद, और शत्रु ग्रह हो तो पूर्ण फल करता है ॥ ७७ ॥ देश आदि का वेध करनेवाला ग्रह शुभ हो तो क्रमसे शुभ फल देता है । स्वामी स्वयं मेध "Aho Shrutgyanam" Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रम् वेध्यं पूर्णदृशा पश्यमेतत्पादुफलं ग्रहः । विदधात्यन्यथा ज्ञेयं फलं दृष्टचनुमानतः ॥ ७६ ॥ वर्णाद्युपरि दृष्टिज्ञानम् -- वर्णादिस्वरराशीनां मेषाचें राशिमण्डले । ग्रहदृष्टिवशाद दृष्टिषेधे बदयो मताः ॥८०॥ स्वरवर्णान् स्वचोक्तान् तिथिविद्धानि पीडयेत् । तिथिवर्णेषु यो राशिस्तद्दृष्टौ स्यान्निरीक्षणम् ॥८॥ अशुभो वा शुभो वात्र शुक्ले विध्यन् तिथिग्रहःसर्व निजफलं दत्ते कृष्णपक्षे तदर्धताः ॥८२॥ खेटस्य स्वांशके ज्ञेया पूर्णदृष्टिः सदा बुधैः । दृष्टिहीने पुनर्वेधे न स्यात् किश्चिच्छुभाशुभम् ॥८३॥ : (४-३) कर्त्ता हो तो पूर्ण फल, वेध कर्ता मित्रग्रह हो तो तीन पाद, समान ग्रह हो तो दो पाद और शत्रुग्रह हो तो एक पाद फल करता है ७८ ॥ कर्ता ग्रह यदि पूर्ण दृष्टिसे देखे तो उपरोक्त पाद क्रम से जितना वेध फल कहा है उतना पूर्ण देता है, और पूर्ण दृष्टिसे न देखे तो दृष्टि के अनुसार फल देता है ॥७६॥ "Aho Shrutgyanam" मेषादि द्वादश राशिचक्र में वेधकर्ताको दृष्टि जिस वर्ण स्वर आदिकी राशि पर हो तो वह दृष्टि उसके वर्ण स्वर आदिके पर भी मानी है ॥ ८० ॥ सर्वतोभद्रचक्र में स्वर और वर्णकी तिथिको वेध होनेसे वे स्थर और वर्ण भी वेधे जाते है, और उन तिथि वर्णों की राशि पर वेध हो तो उनं तिथि स्वर और वर्णके पर भी दृष्टि होती है ॥१॥ वेवकर्ता ग्रह चाहे अशुभ हो या शुभ हो परंतु तिथिको शुक्लपक्षमें वेधे तो पूर्वोक्त वेधफल जितना हो उतना पूर्ण फल देता है, और कृष्णपक्ष में वेधे तो आधा फल देता ॥८२॥ अपने अशोंमें ग्रहकी पूर्ण दृष्टि विद्वानों को जानना चाहिये | वेधकर्ता ग्रह की दृष्टि न हो और केवल वेध ही हो तो कुछ भी शुभाशुभ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवमहोदय बेघद्धाराविश्वानिर्णय:---- सौम्या पूर्णरशा पश्यन् विध्यन् वर्णादिपशकम्। फल विंशोपकान् पञ्च रस्तु चतुरो दिशेत् ॥८॥ पर्णादिपलके यावत् स्थानत्वे वैव यावता। इष्टिस्तदनुमानेन वाच्यास्तत्र विंशोपकाः ॥८॥ एवं पिशोपका यत्र संभवन्ति शुभाशुभाः। भन्योऽन्यशोधने तेषां फलं ज्ञेयं शुभाशुभम् ॥८६॥ वर्तमानाघेविंशांशाः कल्पा इह विशोपकाः ।... नहीं होता ॥३॥ यदि वेधकर्ता ग्रह वर्ण आदि पांचों को पूर्ण दृष्टि से देखें और वेधे तो शुभप्राह पांच विश्वा, और कूरग्रह चार विश्वा फल देते हैं ॥ ८४ ॥ वर्ण, स्वर, तिथि, नक्षत्र और राशि इन पांचोमें वेधकर्ता ग्रह की. जितने पाद दृष्टि हो उसके अनुसार ग्रहोंके विश्वे कहना चाहिये ॥८५ ॥ इस प्रकार जहां शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के ग्रहोंके विश्वे प्राप्त हो, वहां उन दोनोंका परस्पर अंतर करें, इसमें बाकी शुभ ग्रहों के विश्वे रहे तो शुभ और क्रूर ग्रहोंके रहे तो अशुभ जानना ॥८६॥ जिस वस्तु का वेध द्वारा निर्णय करना हो उस वस्तु का वर्तमान में (अर्थात वर्ष मास तथा दिनमेंसे जिस समय निर्णय करना हो उसके * वर्ष प्रवेशमें) जो भाव हो उसके वीश विश्वे याने वीस भाग कल्पना करें, उनमेंसे एक भाग तुल्य विश्वे मान कर पूर्वोक्त क्रमसे प्राप्त शेष विश्वे जो शुभग्रहोंके हो तो उस में मिला दें और कूरग्रहों के हो तो घटा दें। ऐसा करनेसे यदि बीस से जिसने अधिक हो उतने विश्वे वस्तु मन्दी और जितने न्यून हो उतने *प्रलोक्य प्रकाशम भी चैत्रमे याने वर्ष प्रवेशमें जो मुख्य भाव हो उसका यहां ग्रहण करना इत्यादि कहा है। जैसे-~_.. "चैत्रेया र प्रधानोऽर्थः स पण्या?ऽत्र गृह्यते। प्रत्यहं प्रतिमंचापि प्रतिपण्यं च नूतनः " ॥१॥ "Aho Shrutgyanam" Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतोभद्रम् ते क्रमाद वर्तमानायें देयाः पात्याः शुभाशुभे ॥८७॥ भूमिकम्परजोरक्लैर्दृष्टिर्निघातवर्जिते । देशे सर्वसुखोपेते वेधादर्घ वदेद बुधैः ॥८८॥ इति सर्वतोभद्रचक्रम् । अथ सर्वविचारचक्रे बलाबलं पूर्वाचार्यकथितं यथाशुक्रास्ते भाद्रमासे शुभभगणगते वाक्पतौ सौस्थ्य हेतौ, ज्येष्ठाचाहे सुवारे शशिसितधिषणेषूदिते निश्यगस्त्ये । क्रूरे भूपादिवर्गे विघटिनि समये मङ्गले वक्रितेऽपि, आषाढ्यां पूर्णविष्ण्ये प्रहरवसुगते जायते दिव्यकालः ॥८६॥ भूपेऽमात्येऽनाथे कुशलकृति रवेः संक्रमे वृद्धभे स्या दाषायां सौम्यपूर्वे प्रसरति पवने दुर्द्दिनं सर्वयाम्याम् । रात्रावार्द्राप्रवेशे वृषभतनुगते सौम्ययुक्ते च सूर्ये, (*) विश्व तेजी जाननं । याने वस्तुके विश्वे बढ़े तो वस्तुकी वृद्धि और मूल्य की ह नि, तथा वस्तुके विश्वे घंटे सो वस्तु की हानि और मूल्यको वृद्धि होती है ॥ ८७ ॥ भूमि कंप रज तथा लोही की वृष्टि, और उल्कापान इनसे रहित सब सुखवाले देशों में वेध द्वारा विद्वानोंको अर्ध (मूल्यभाव) कहने चाहिये ॥८॥ > - भाद्रमासमें शुक्र का अस्त हो, सुखके हेतुभूत बृहस्पति शुभ राशि पर हो, ज्येष्ट शुकी आदिमें अच्छे वारको चंद्रमा और शुक्र के नक्षत्रों में रात्रि के समय अगस्ति का उदय हो, क्रूर ग्रह राजवर्ग में हो, सुन्दर समय हो और मंगल की हो, तथा आषाढ पूर्णिमा को आषाढी नक्षत्र आठ प्रहर पूर्ण हो तो दिव्य काल (शुभ वर्ष) होता है ॥ ८६ ॥ वर्षके राजा मंत्री और धान्याधिपति ये शुभ हो, रवि की संक्रांति बृहत् नक्षत्र में हो, भाषा पूर्णिमाको उत्तर तथा पूर्व दिशाका वायु चलें, आठों ही प्रहर दुर्दिन रहें, रात्रि भद्रां प्रवेश हो, वृष लग्न में स्थित सूर्य सौम्य ग्रह से "Aho Shrutgyanam" Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) मेघमदोव चिद्वैरेभिः सुकालो जगति शुभकरो वर्षणे कृत्तिकायाम्। ६०। रात्रौ संक्रान्तिरार्द्रायामप्यगस्त्योदयो यदा-1 तदा वर्षे सुभिक्षं स्याद विपरीते विपर्ययः ॥९१॥ इति । अथ जलयोग: अष्टौ न युतौ कुरै ईशुक्रावेकराशिगौ । जीवदृष्टौ विशेषेण महावृष्टिस्तदा भवेत् ||१२|| ज्ञजीवावेकराशिस्थौ क्रूरदृष्टिर्विवर्जिती । शुक्रदृष्टौ विशेषेण कुरुते वृष्टिमुत्तमाम् ॥६३॥ जीवशुक्रौ यदा युक्तौ क्रूरेणापि विलोकितौ । बुधदृष्टौ महावृष्टि कुरुते जलयोगतः ॥६४॥ गुरुर्बुधा दानवेन्द्रा एकराशिगत त्रयम् । अदृष्ट क्रूर खेचरैर्महावर्षाविधायिकम् ॥ ६५ ॥ यदा शुक्रश्च भौमश्च मन्दश्चक राशिगः । युक्त हो तथा कृतिकामें वर्षा हो, इत्यादि शुभ चिह्न हो तो जगत्में सुकाल होता है ॥ ६० ॥ यदि रात्रि के समय सूर्यका आर्द्रा में संक्रमण हो और अगस्ति का उदय हो तो वर्ष में सुभिक्ष होता है और इससे विपरीत हो तो विपरीत याने दुष्काल होता है ॥ ६१ ॥ 4415 बुध और शुक ये दोनों एक राशि पर हो किंतु क्रूर ग्रह साथ न हो तथा उनकी दृष्टि भी न हो और बृहस्पति की दृष्टि हो तो विशेष करके महा वर्षा होती है ॥६२॥ बुध और शुक एक राशि पर हो और क्रूर ग्रह की दृष्टि से रहित हो किंतु शुक्र की वृष्टि हो तो विशेष कर के उत्तम वर्षा होती है ॥ ६३ ॥ बृहस्पति और शुक्र एक साथ हो और क्रूर ग्रह से देखे जाते हो तथा बुध की भी दृष्टि हो ऐसा जलयोग महा वर्षा करता है ॥ ६४ ॥ गुरु बुध और शुक्र ये तीनों एक राशि पर हो और उन पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि न हो तो महा वर्षा कारक होते हैं ॥ ६५॥ " "Aho Shrutgyanam" Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलयोगा। तदा वर्षति पर्जन्यो जीवदृष्टौ न संशयः ॥९॥ शुक्र चन्द्रसमायुक्ते. भौमे वा चन्द्रसंयुते । उहन्धना दिशः सर्वाः जलयोगस्तदा महान् ॥६॥ अप्रतो वा स्थिताः सौम्याः ऋराणां तु परस्परम् । वदते सलिल भूरि न तोयं स्थाविपर्यये ॥६८.. एकराशिगतो जीवः सूर्येण सह वर्षति। . यावन्नास्तमनं याति योगे नाम्मो ज्ञजीवयोः ॥६॥ उन्मार्गगमनं कृत्वा यदा शुक्रं त्यजेद् बुधः। तदा वर्षति पर्जन्यो दिनानि पञ्च सप्त वा ॥१०॥ कर्कटे तु प्रविशन्तं सूर्यं पश्येद् यदा गुरुः ।... पादोनं पूर्णदृष्ट्या वा तत्र काले महाजलम् ॥१०॥ उदयेऽस्तंगमे चेत् स्थाज्जीवदृष्टो यदा ग्रहः । पादोनं पूर्णदृष्ट्या था तदा वर्षति नान्यथा ॥१०२॥ यदि शुक्र मंगल और शनि ये तीनों एक राशि पर हो और उन पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो मेव बरसता है इसमें संशय नहीं ॥६६॥ शुक के साथ चंद्रमा हो या मंगलके साथ चंद्रमा हो और समस्त दिशा वादल समेत हो तो महान् जलयोग होता है ॥ ६७ ॥ कूर ग्राहोंके आगे शुभ प्रह स्थित हों तो जल बहुत बरसे और इससे विपरीत होतो वर्षा न हो ॥६८ ॥ सूर्यके साथ एक राशि पर बृहस्पति हो तो वर्षा हो जब तक बुध और बृहस्पति भरत न हो और यह योग रहें ॥ ६६ ॥ तथा बुध वक्री होकर शुक्रको त्यागे तब पांच या सात दिन वर्षा हो ॥ १० ॥ यदि कर्कराशि में प्रवेश करता हुआ सूर्य को बृहस्पति पौन या पूर्ण दृष्टि से देखे तो महावर्षा हो ॥१०१॥ उद्य और अस्त होते समय कोई भी . ग्रह बृहस्पतिसे पौन या पूर्ण दृष्टिसे देख जाय तो वर्षा हो अन्यथा न हो ॥९०२ ॥ सब मैडलों में स्थित ग्राह पौन या पूर्ण दृष्टिसे बृहस्पति देखे "Aho Shrutgyanam" Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८८) मेघमहोदये मण्डलेषु च सर्वेषु संक्रमान्तं यदा ग्रहः । पादोनं पूर्णदृष्ट्या वा गुरुमन्ये जलावहम् ॥ १०३ ॥ शनौ शुक्रेऽल्पवृष्टिः स्यान्न सस्यानि भवन्ति च । वकोत्तीर्णाः शुभाः क्रूरा जीवो वऋगतः शुभः ॥ १०४॥ अतिचारगताः क्रूराः स्वल्पवृष्टिप्रदायकाः । सौम्या यदा वक्रतास्तदा वृष्टिविधायिनः ॥ १०५ ॥ सिंहे कन्यायां तुलायां यास्यते च यदा गुरुः । एकाकीग्रहयुक्तो वा वर्षत्येव महाजलम् ॥ १०६ ॥ शुक्रस्य यदि भौमेन यदि स्यात् समसप्तकम् । दृष्टिर्मासे तदा काले तथैव शनिजीवयोः ॥ १०७॥ क्रूराणां सह सौम्यैश्च यदि स्यात् समसप्तकम् । अनावृष्टिस्तदा ज्ञेया लोकपीडा महत्यपि ॥ १०८ ॥ इति ॥ अथ सूर्यचन्द्रकृतजलयोगः- - रेवत्यादिश्चतुष्कं च रौद्रं पञ्चकमेव च । तो जल वर्षा हो ॥ १०३ || शनि शुक्र एक राशि पर हो तो वर्षा थोड़ी हो और धान्य न हो । क्रूर ग्रह की हो चूकने बाद शुभ होते है और बृहस्पति वक्री हो तो शुभ होता है ॥ १०४ ॥ क्रूर ग्रह यदि अतिचारी हो तो थोड़ी वर्षा करनेवाले होते हैं । सौम्यग्रह यदि वक्री हो तो अधिक दृष्टि करनेवाले होते हैं ॥ १०५ ॥ यदि सिंह कन्या और तुला राशि पर बृहस्पति हो और साथ कोई एक प्रह हो तो महावर्षा होती है ॥ १०६ ॥ यदि मंगल के साथ शुक्र का समसप्तक अर्थात् शुक्रसे सातवीं राशि पर मंगल हो या मंगल से सातवीं राशि पर शुक्र हो तो एक महीने वर्षा हो । इसी तरह: शनि और बृहस्पति का समसप्तक हो तो भी वर्षा हो ॥ १०७॥ यदि शुभ ग्रहों के साथ कूरों का समसप्तक हो तो मनावृष्टि तथा लोकपीडा हो । १०८ । रेवती आदि चार, आर्द्रा- मादि पांच, पूर्वाषाढा मादि चार चौर - तीर्मो "Aho Shrutgyanam" Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलयोगः पूषाचतुष्कं चन्द्रस्य भानीमानि तथोत्तरा ॥१०६॥ शेषाणि सूर्यशक्षाणि फलमेषामिहोदितम् । सूर्ये सूर्ये महान् वायुश्चन्द्रे चन्द्रे न वर्षणम् ॥११॥ *सूर्यचन्द्रमसोर्योगो यदि स्याद रात्रिसम्भवः । तदा महावृष्टियोगः कीर्त्तितोऽयं पुरातनैः ॥११॥ पुंस्त्रीनपुंसकनक्षत्रयोगः-- भानि नार्यो दशार्द्रातः क्लीव त्रयं द्विदैवतः । मृलाश्चतुर्दशआणि पुरुषाख्यानि कीर्तयेत् ॥११२॥ नरे नरे भवेत्तापो महातापो नपुंसके। स्त्रिया स्त्रिया महावातो वृष्टिः स्त्रीनरसङ्गमे ॥११॥ एवं द्वारचतुष्टयी समुदिता प्रोक्ता पुनदिशे, उत्तरा ये चन्द्रमाके नक्षत्र हैं ॥१०६॥ और बाकी के सूर्य नक्षत्र हैं। इनका फल सूर्यका नक्षत्र में प्रवेश के समय विचारना-- चंद्र और सूर्यके दोनों नक्षत्र सूर्य के हो तो महावायु चलें और दोनों नक्षत्र चंद्रमाके हो तो वर्षा न हो॥११०॥परंतु सूर्य चंद्रमा दोनों के नक्षत्र हो तो प्राचीन लोगोंने बडा धृष्टि योग कहा है ॥१११॥ आर्द्रा आदि दश नक्षत्र स्त्रीसंज्ञक है, विशाखा आदि तीन नक्षत्र नपुंसक संज्ञक हैं और मूल आदि चौदह नक्षत्र पुरुष संज्ञक हैं ॥११२॥ सूर्यका नक्षत्रमें प्रवेश समय सूर्य और चंद्रमा दोनों पुरुषसंज्ञक नक्षत्रमें हो तो गरमी पड़े, नपुंसक संज्ञक नक्षत्र में हो तो महान् ताप (गरमी) पड़े, स्त्रीसंज्ञक नक्षत्र में हो तो महावायु चले तथा स्त्रीसंज्ञक और पुरुष संज्ञक नक्षत्र में हो तो वर्षा हो ॥११३॥ *विशेषः- बुधः शुक्रसमीपस्थः करोत्येकार्णवां महीम्। तयोरन्तर्गतो भानुः समुद्रमपि शोषयेत् ॥१॥ . .. बुध और शुक्र पास २ हो तो बहुत दर्षा हो यदि इन दोनों के मध्यमें सूर्य हो तो समुद्र भी शुष्क होजाय अर्थात् वर्षा न हो। "Aho Shrutgyanam" Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (BED) मेघमहोदये बर्षे मेघमहोदयावगमने स्फारेऽधिकारे मया । सर्वस्मिन् रमति ध्रुवं वरमतिर्यस्य प्रभाशालिनः, शास्त्रेऽस्मिन्ननु तस्य वश्यमखिलं जायेत भूमण्डलम् ।११४ इति श्रीमेघमहोदयसाधने वर्ष बांधे तपागच्छीयमहोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते द्वारचतुष्टयकथनो नाम: द्वादशोऽधिकारः ॥ अथ शकुननिरूपणो नाम त्रयोदशोऽधिकारः । तत्र प्रथमं पृच्छाल नम् छालने चतुर्थस्थौ शनिराह यदा पुनः । दुर्भिक्षं च महाघोरं तत्र वर्षे धुवं भवेत् ॥ १॥ चतुर्णामपि केन्द्राणां मध्ये यत्र शुभा ग्रहाः । तस्यां दिशि च निष्पत्ति: सुभिक्षं च प्रजायते ॥२॥ यस्यां दिशि शनिर्दष्टः क्रूरैः शत्रुग्रहस्थितः । इसी प्रकार महोदय का ज्ञान करानेवाला वर्ष प्रबोध - तुष्ट नाम का बारहवां अधिकार मैंने कहा, जिस प्रभावशाली की श्रेष्ठ बुद्धि इस सम्पूर्ण शास्त्र में रमति है उसको संपूर्व भूमंडल निश्चय से बशीभूत होता है ॥ ११४ ॥ सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत- पादलिप्त पुरनिवासिना पण्डितभगवानदासा व्यजैनेन विरचितया मेघमहोदये बालाव बोधिन्याऽऽर्यभाषया टीकितो - हारचतुष्टयनामो द्वादशोऽधिकारः । वर्षा प्रश्न में चौथे स्थान में शनि और राहु हो तो उस वर्ष में महाघोर दुर्भिक्ष हो ॥१॥ प्रथम चतुर्थ सप्तम और दशम इन चारों केन्द्र के मध्य में जहां शुभ ग्रह हो उसी दिशा में धान्य प्राप्ति और सुभिक्ष हो - ॥ २ ॥ क्रूर ग्रह के साथ या शत्रु ग्रह में स्थित शनि की दृष्टि जिस दिशा में "Aho Shrutgyanam" Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হলথ दिशि तस्यां बुधैर्वाच्यं दुर्भिक्षस्वं न संशयः ॥३॥ प्रय वृष्टिपृच्छा --- सूर्यचन्द्रमसौ शुक्रशनी सप्तमगौ यदा। "चतुरस्त्रेऽथवा लग्नाहिनीयौ वा तृतीयगौ ॥४॥ वृष्टियोगोऽयमेवं स्यात् सौम्या वा जलराशिगाः । शुक्लपक्षे वित्रिकेन्द्रगसाश्चन्द्रोम्बुराशिगः ॥५॥ चतुश्चन्द्रशुक्रायश्चन्द्र वा लग्नपतिनि । महावृष्टिरनावृष्टिः क्रूरैस्तु विलग्नगः ॥६॥ वृष्टियभार्थशकुने श्यामगोघटदर्शने । नियां वा श्यामवस्त्रायां दृष्टायां वृष्टिमादिशेत् ॥७॥ पञ्चाङ्गुलिस्पर्शनेऽपि यद्यगुठं जनः स्पृशेत् । हो उस दिशामें विद्वानोंको दुर्भिक्ष कहना चाहिये, इसमें संशय नहीं ॥३॥ सूर्य और चंद्रमा अथवा शुक्र और शनिये लमसे सप्तम, चतुर्थ, द्वि. तीय या तृतीय स्थानमें हो तो ॥ ४ ॥ यह पृष्टि योग होता है। शुभग्रह जलराशि में हो तथा शु पक्ष में दूसरे तीसरे और केन्द्र स्थान में हो, चंद्रमा जलराशिमें हो ॥५|| चतुर्थमें चंद्र शुक हो, चंद्रमा लग्नमें हो, ये सब महा वर्षा करनेवाले योग हैं। यदि क्रूर ग्रह चतुर्थ और विलामें हो तो अनावृष्टि हो ॥६॥ . दृष्टिका प्रश्नके शकुनमें कृष्ण गौ या भरे हुए कृष्ण घडा का दर्शन, अथवा कृष्ण वस्त्रवाली स्त्रीका दर्शन हो तो वर्षाका होना कहना ॥ ७॥ .. * टी-वर्षे प्रश्ने सलिलनिलयं राशिमाश्रित्य चन्द्रो,ल यातो भबसि यदि वा केन्द्रगः शुक्लपक्षे । सौम्यष्टो प्रचुरसमुदकं पापडष्टोऽल्पमम्मा, प्राट्काले सृजति न चिराचन्द्रवद्भार्गवोऽपि ॥१॥ आद्र द्रव्य स्मरति यदि वा पारि तत्संक्षकं घा, तोयासमो भवति तृषया तोयकाघोच्नुलोवा,प्रष्टा वाच्यः सलिलमचिरादस्तिन संशयेन, पृच्छाकाले सलिलमिति वा भूयते यत्र शब्दः॥२॥इति धाराहसंहितायाम् ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदये तदा कृष्टिस्तु महती सावित्री स्पर्शनेऽल्पिका:10 अन्यच्च-दिणयाहिवस्स तइए पंचमनवमे जलग्गहो जासिं। लहुवरिसस्सइ मेहो दिननवसगपंचममम्मि ॥९॥ मंत्र-ॐ नट्ठमयठाणे पणहकमट्ठनहसंसारे । परमट्टनिहि ? अगुणाधीसरं वंदे (स्वाहा)।। अथवा-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं आँ लक्ष्मी स्वाहा । अनेन मंत्रेणाभिमंत्र्य वस्तुधान्यादिकं तोलयित्वा ग्रन्थौ बयते, रात्रौ शीर्षे मुच्यते, घटते चेदस्तु तदा महर्घ, वर्द्धते चेत्समघम् । अक्षयतृतीयाविचारः .. अक्षयायां तृतीयायां सन्ध्यायां सप्तधान्यम । पुंजीकृत्य स्थापनीयं पृथक् पृथक् तरोरधः ॥१०॥ यद्विस्तृत स्यात्तद्धान्यं तद्व बहु जायते । यत्पुंजरूपं वा तिष्ठेनैव निष्पद्यते पुनः ॥११॥ . वैदि प्रश्नकारक पांच अंगुली के स्पर्श में अँगूठेको स्पर्श करे तो महावर्षी हो, * सावित्री ( अनामिका ) को स्पर्श करे तो थोडी वर्षा हो ॥८॥ सूर्य से तीसरा पांचवां और सातवां स्थान में जलगशिके ग्राह"हो तो नय संत या पांच दिन के भीतर वर्षा बरसे ॥६॥ वस्तु या. धान्य आदि उपरोक्त मंत्र से मंत्रितकर तथा तोलकर गांठ बांधकर रात्रि मस्तक नीचे धो, पीछे दिन में फिर तोले जो दस्तु याः धान्य घट जाय वह महँगे हों और जो बढ़ जाय वह सस्ते हों ।। .. अक्षय तृतीया (वैशाख शुक तीज) को संध्याके समय सात प्रकार के. धान्य इकट्ठे करके वृक्ष के नीचे अलग अलग रखें ॥१०॥ यदि वे धान्य विखर जाय तो उस वर्ष में बहुत धान्य हो और इकट्ठे ही पड़े रहे तो. .. * " अनामिका सावित्री गौरी भगवती शिवा" ऐसा महा महोपाध्याय,श्री मेघविजयगणि कृत 'हस्तसंजीवन' नामक सामुद्रिक ग्रंथम कहा है. 1: ................ "Aho Shrutgyanam" Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम् अक्षयण्यां तृतीयायां प्रपूर्य स्थालमम्बुना। रविं विलोकयेन्मध्ये तत्परूपं विमृश्यते ॥१२॥ रक्ते सूर्ये विग्रहः स्यान्नीले पीते महारुजः । श्वेते सुभिक्षं रजसा धूसरे तोडमूषकाः ॥१३॥ भिक्षुकानां च भिक्षाप्तिबहुला सा सुभिक्षकृत् । जलेऽधिके महावर्षा धान्ये वृद्धऽतिसुस्थता ॥१४॥ पूर्णकुम्भोऽथवा स्थाप्यो मृत्पिण्डानां चतुष्टये।। आषाढादिचतुर्मास्या पृथक् नाम्ना प्रतिष्ठिते ॥१५॥ : कुम्भाद्गलजलेनाा यावन्तः पिण्डकामृदः । . . वृष्टिस्तावत्सु मासेषु शुष्के पिण्डे न वर्षणम् ॥१६|| अथ राखडी ( रक्षाबंधपर्व ) विचार:-.---. . श्रावण्यामथ राकायां रक्षापर्वणि वीक्षते । आगच्छगोधनं सायं तस्माद् या गौ पुरस्सरा ॥१॥ तस्याश्चिवर्षयोधः शुभाशुभविनिश्चयात् ।. उत्पत्ति न्यून हो ॥ ११ ॥ अक्षय तृतीयाको एक थालीमें जल भर कर इसमें सूर्य को देखे और उसका स्वरूप विचारें ॥१२॥ सूर्य लाल. दीखे तो विग्रह, नीला तथा पीला दीखे तो महा रोग, सफेद दीखे तो सुभिक्ष, मट्टी युक्त धूसर वर्ण दीखे तो टिड्डी चूहें आदि का उपद्रव हो ॥१३॥ भिक्षुकों को भिक्षा की प्राप्ति अधिक हो तो वह सुभिक्षकारक जानना । जलकी अधिकता प्राप्त हो तो महर्षाि और धान्य की अधिकता हो तो बहुत सुख हो ॥१४॥ 'आषाढ अादि चार महीने का नामवाले माटी के चार पिंड (गोले) बनाकर उनके उपर जलसे पूर्ण घड़ेको रखें ॥१५॥ जितने विंडकी माटी कुंभसे झरता छुपा जल से भींज जाय, उतने महीने में वर्षा हो और शुष्क पड़ी रहे उस महीने में वर्षा ने हो ॥१६॥ रक्षा बंधनका पर्व याने श्रावण शुक्ल पूर्णिमाके संध्या समय गोंधन (गौ समुह) को आला "Aho Shrutgyanam" Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा गौ सुरूपा सुरक्षा श्रेष्ठा प्रोणदुधामता ॥१८॥ तस्या पुच्छे चमरे पडसत्रस्य लामकृत् । पणि व्यवसाय: स्याशपुच्छ कतितं शुभम् ॥१६॥ गोर्दम्भने प्रजादुःखं तयुद्धे राजविग्रहः। ... गोपेन ताध्यमानायां तस्यां रोगाद् मयं भुवि ॥२०॥ निःशृङ्गायांगचि छत्रभः पुच्छे च वक्रिते । समादेश्यं वर्षयकं खण्डवृष्टिः पयोमुवा ॥२१॥ गोप्रवेशसमये सितो वृषो याति.कृष्णपशुरेव वा पुरः। भूरि वारिसबलेनमध्यमं नासितेऽम्परिकल्पना परेः॥२२॥ नामाद्विस्तिस्त्रमृदादिकुम्भः, प्रदक्षिणांश्रावणापूर्वमासः । हुभा देखे, उस में जो गौ आगे हो ॥ १७ ॥ उस के चिह्न के अनुसार शुभाशुभ वर्ष का बोध करें--- वह गौ सुंदर, अच्छे सौंगवाली, अच्छा द्रोण भर दूध देनेवाली ॥१८॥ मोर पूँछ पर केशवाली हो तो व्यापारियों को व्यापार में रेशम, सन भादिके वस्त्रों से लाभ हो। और पूँछ के बाल काठा हुआ हो तो अशुभ होता है ॥१६॥ गौ द ग (भागसे जलने का चिह) वाली हो तो प्रजा को दुःख, उसका युद्ध से राऊवित्रह, ग्वाला मारता हुमा हो तो घृथिवी पर रोग का भय हो ॥२०॥ सींग विनाकी हो तो छत्रभंग, वक (टेढा) पूँछ्वाली हो तो वर्ष भी वक कहमा तथा मेघ खंड वर्षा करें ॥ २१ ॥ ... गौ प्रवेशके समय सफेद बैल या काला वर्णके बैल इन दोनों में से सफेद बैल (गौ) आगे हो तो बहुत वर्षा और कृष्ण बैल भागे हो तो मध्यम वर्षा हो ॥२२॥ जलसे पूर्ण ऐसे मृत्तिका (मिट्टी)के कलशों (धड़े) पर श्रावण आदि तीन महीनोंका नाम लिखकर प्रदक्षिणा करें, याने उक्त कलशोंको मस्तक पर लेकर जालाश्रय या देवमंदिरकी प्रदक्षिणा करें । इसमें जो कलश पूर्ण "Aho Shrutgyanam" Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम् पूर्णैः समासः सलिलेन पूर्णो भनेः श्रुतैस्तैः परिकल्प्यननैः ॥ अथ वारादिसंहितायामाषाढपूर्णिमाविचारःभाषायां समतुलिताधिवासितानामन्ये चुर्यदधिकतामुपैति योजम् । तद्विर्भवति न जायते यदूनं, मंत्रोऽस्मिन् भवति तुला भिमंत्रणार्थम् ॥ २४॥ स्तोतव्या मंत्रयोगेन सत्या देवी सरस्वती । दर्शयिष्यसि यत्सत्यं सत्ये सत्यव्रता ह्यसि ॥२५॥ येन सत्येन चन्द्रार्कौ ग्रहा ज्योतिर्गणास्तथा । उतिष्ठन्तीह पूर्वेण पञ्चादस्तं व्रजन्ति च ॥ २६ ॥ यत्सत्यं सर्वदेवेषु यत्सत्यं ब्रह्मवादिषु । यत्सत्यं त्रिषु लोकेषु तत्सत्यमिह दृश्यताम् ॥२७॥ ब्रह्मणो दुहितासि त्वं मदनेति प्रकीर्तिता । रहे उस मास में वर्षा पूर्ण जानना और जो कलश टूट जाय, जल करने लगे या जलसे न्यून हो जाय तो अल्प वर्षा जाननी ॥२३॥ उत्तराषाढा युक्त आषाढ पूर्णिमा के दिन सब प्रकार के धान्यों को बराबर तोलकर और पूर्वोक्त मं से अभिमंत्रित कर रख दें; पीछे दूसरे दिन तोले जिस धान्य का बीज बढ़ जाय तो उस वर्ष में उसकी वृद्धि, और घट जाय उसकी हानि कहना । इस विधिर्मे नीचे तुलाभिमंत्रके लिये नीचे लिखा हुआ मंत्र पढ़ना ॥ २४ ॥ सत्य कहनेवाली देवी सरस्वती की मंत्रपूर्वक स्तुति करनी चाहिये; हे देवी सरस्वति ! आप सत्य बतवाली हैं, इसलिये जो सत्य है उनको दिखा दें ॥ २५ ॥ जिस सत्य के प्रभाव से चन्द्रमा, सूर्य ग्रह और ज्योतिर्गण ये सब पूर्वमें उदय होते हैं और पश्चिम में मस्त हो जाते हैं ॥ २६ ॥ सर्व देवों में ब्रह्मवादियों में और त्रिलोकमें जो सत्य है वह यहां दीखें ॥२७॥ तूं झाकी पुत्री है और 'मदना' नाम "Aho Shrutgyanam" Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहोदय श्यपीगोत्रतश्चैवें नामतों विश्रुता तुला ॥२८ क्षौमं चतुःसूत्रकसन्निबद्धं, . __ षडगुलं शिक्यकवस्त्रमस्याः। खत्रप्रमाणंचदशाङ्गुलानि, षडेव कक्षोभवशिक्यमध्ये ॥२६॥ याम्ये शिक्ये काश्चनं सन्निवेश्य, . शेषद्रव्याण्युत्तरेऽम्बूनि चैवम् । तोयैः कौप्यैः स्पन्दिभिः सारसश्च, वृष्टिहीना मध्यमा चोत्तमा च ॥३०॥ दन्तै गा गोहयाद्याश्च लोम्ना,.. भूपश्चाज्यैः सिक्केन द्विजाद्याः । तबदेशा वर्षमासा दिनाच, शेषद्रव्याण्यात्मरूपस्थितानि ॥३॥ से प्रसिद्ध है, तूं गोत्रमें काश्यपी और 'तुला' नामसे प्राव्यात है ॥२८॥ . सन की बनी हुई चार डोरियों से बंधि हुई छह अंगुलका विस्तारवाली तखड़ी (पल्ला) होनी चाहिये, और उसकी चारों डोरियों का प्रमाण दश दश अंगुल होना चाहिये । इन दोनों तखड़ी के बीच में छह अंगुल की * कता रखनी चाहिये ॥ २६ ॥ दक्षी ग ओर के पल्लों सोना और बांयी ओरके पल्ले में धान्य आदि दूध तपां जल रखकर तोड़ना चाहिये। कुंमा सरोवर और नदी के जल से क्रम से हीन मध्यम और उत्तम वर्षा जानना अर्थात् कूप का जल बढ़े तो तो हीन वर्षा, सरोवर का जल बढ़े. तो मध्यम वर्षा और नदी का जल बढ़े तो उत्तम वर्षा कहना ॥ ३० ॥ दांतो से हाथी', लोम से गौ घोड़ा आदि पशु , घीसे राजा , सिक्थ से ब्राहीण आदि की वृद्धि या हानि जानी जाती है। उसी तरह - * मिस सूत्र को पकडकर तराजू को उठाते है उसको ऋक्षा कहते है। . .. ............... .......................... "Aho Shrutgyanam" Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम् हैमी प्रधाना रजतेन मध्या, तयोरलाभे खदिरेण कार्या। विद्धः पुमान् येन शरेण सा वा, तुला प्रमाणेन भवेद्वितस्तिः ॥३२॥ हीनस्य नाशोऽभ्यधिकस्य वृद्धि स्तुल्येन तुल्यं तुलितं तुलायाम् । एतत्तुलाकोशरहस्यमुक्तं, प्राजेशयोगेऽपि नरो विदध्यात् ॥३३॥ स्वातावषाढास्वपि रोहिणीषु, पापग्रहा योगगता न शस्ताः । ग्रावं तु योगव्यमप्युपोष्य, पदाधिमासो द्विगुणीकरोति ॥३४॥ प्रयोऽपि योगाः सदृशाः फलेन, यदा तदा वाच्यससंशयेन । देश, वर्ष, माम और दिन तथा शेष द्रव्य ( धान्यादि ) की वृद्धि हानि जाननी ॥ ३१ ॥ तराजूकी डांडी सुवर्णकी हो तो श्रेष्ठ, चांदीकी मध्यम है. इन दोनों में से न हो तो खदिरकी लकड़ी की दगडी बनानी चाहिये। जो शर (बाण)से पुरुष विधे जाते है, उसी प्राकारकी और एक बित्ता याने बारह भंगुलके प्रमाण की दांडी बनानी चाहिये ॥ ३२ ॥ तराजूमें बराबर तोलने में जिसकी ह नि उसका नाश और जिस की वृद्धि उसकी अधिकता जाननी । यह तुलाकोशका रहस्यको कहा। मनुष्य इसको रोहिणी के योगमें भी धारण करते हैं ॥३३॥ स्वाति भाषाढी और रोहिणी, 'इन नक्षत्रों में पाप ग्रहका योग हो तो अच्छा नहीं । यदि भाषाढ मास भधिक हो सो उस वर्षमें स्वाति और रोहिणीके योग में करना चाहिये ॥३॥ तीनों योग समान फलदायक हो तो संदेह रहित शुभाशुभ फल कहना । "Aho Shrutgyanam" Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६८) मेघमहोदये विपर्यये यत्त्विह रोहिणीजफलात्सदेवाभ्यधिकं निगद्यम् ॥३५॥. इत्याषाढपूर्णायां तुलातुलितयोजशकुनम् । अथ कुसुमलताफलम् -- फलकुसुमसम्प्रवृद्धिं वनस्पतीनां विलोक्य विज्ञेयम् । सुलभत्वं द्रव्याणां निष्पत्तिः सर्वसस्यानाम् ॥३६॥ शालेन कलमशाली रक्ताशोकेन रक्तशालिश्च । पाण्डूकः क्षीरिकया नीलाशोकेन शूकरिकः ॥३७॥ न्यग्रोधेन तु यवकस्तिन्दुकवृद्धथा च षष्टिको भवति । अश्वत्थेन ज्ञेया निष्पत्तिः सर्वसस्थानाम् ॥३८॥ जम्बूभिस्तिलमाषाः शिरीषवृद्धया च कङ्गुनिष्पत्तिः । गोधूमाश्च मधुकैर्यववृद्धिः सप्तपर्णेन ॥३९॥ . . अतिमुक्तककुन्दाभ्यां कर्पासः सर्षपान् वदेदशनैः । बदरीभिश्च कुलत्यांश्चिरबिल्वेनादिशेन् मुगान् ॥४०॥ और वीपरीत हो तो रोहिणीमे उत्पन्न हुआ फल से अधिक कहा गया है ॥३५॥ वनस्पतियों के फल और फूलों की वृद्धि ( अधिकता ) देखकर सब वस्तुओं की सुलभता और सब प्रकार के धान्यकी उत्पति जानना चाहिए ॥३६॥ शालवृक्ष के फलफूलों की वृद्धिसे कलमशाली, रक्त अशोक की वृद्धिसे रक्तशाली, दूधकी वृद्धिसे पांडुक, और नील अशोक की वृद्धि से शुकर धान्य की प्राप्ति होती है ॥ ३७॥ वड़की वृद्धि से यव, तिन्दुककी वृद्धिसे सही और पीपल की वृद्धिसे सब प्रकार के धान्यकी उत्पत्ति हो। ३८॥ जामनफल की वृद्धिसे तिल उड़द, शिरीष की वृद्धिसे कंगनी, महुऍकी वृद्धिसे गेहूँ और सप्तपर्ण की वृद्धिसे यव की वृद्धि होती है ॥३६॥ प्रतिमुक्तक और कुन्द के पुष्पवृक्ष की वृद्धि हो तो कपास, अशन की वृद्धि से सरसव, बेर से कुलथी और चिरबिल्बसे मूंग की वृद्धि होती है ॥४०॥ "Aho Shrutgyanam" Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुन निरुमणम् तसीवेतपुष्पैः पलाशकुसुमैश्ा कोद्रवा ज्ञेयाः । तिलकेन शंखमौक्तिकर जतान्यथा चेङ्गदेन शणाः ॥४१॥ करिणश्च हस्तिकर्णैरादेश्या वाजिनोऽश्वकर्णेन । गाव पाटलाभिः कदलीभिरजाविकं भवति ॥४२॥ चम्पककुसुमैः कनकं विद्रुमसम्पच बन्धुजीवेन । कुरुबकवृद्धया वज्रं वैडूर्य नन्दिकावत्तैः ॥४३॥ विन्याच सिन्दुवारेण मौक्तिकं कुंकुमं कुसुम्भेन । रक्तोत्पलेन राजा मंत्री नीलोत्पलेनोक्तः ॥ ४४ ॥ श्रेष्ठी सुवर्णपुष्पैः पद्मेर्विप्राः पुरोहिताः कुमुदै:: सौगन्धिकेन बलपतिरर्केण हिरण्यपरिवृद्धिः ॥४५॥ आत्रेः क्षेमं भल्लातकैर्भयं पीलुभिस्तथारोग्यम् । - खदिरशमीभ्यां दुर्भिक्षमर्जुनैः शोभना वृष्टिः ॥ ४६ ॥ पिचुमन्दनागकुसुमैः सुभिक्षमथ मारुतः कपित्थेन । वेतस के पुष्पसे अलसी, पलास के पुष्पसे कोद्रव, तिलसे शंख मोती तथा चांदी और इंगुदी की वृद्धिसे कुष्टा की वृद्धि हो ॥ ४१ ॥ हस्तिक वनस्पति की वृद्धि हाथियों की, अश्वकर्णसे घोडे की, पाटलसे गौ की और कदली की वृद्धिसे बकरी तथा मेढ़े की वृद्धि होती है ॥ ४२ ॥ चंपा के फूलों से सुवर्ण, दुपहरिया की वृद्धिसे मूंग, कुरुबक की वृद्धिसे वज्र, नंदिकावते की वृद्धिसे वैडूर्य की वृद्धि होती है ॥ ४३ ॥ सिंदुवार की वृद्धिसे मोती, कुसुंभ से कुंकुम, लालकमलपे राजा और नीलकमलसे मंत्री का उदय होता है ॥ ४४ ॥ सुवर्णपुष्प से सेठ (वणिक), कमलोंसे ब्राह्मण, कुमुद्दोंसे राज: पुरोहित, सौगंधिक द्रव्यसे सेनापति, और आक की वृद्धि से सुवर्ण की वृद्धि होती है ॥ ४५ ॥ आमकी वृद्धि से कल्याण, भिलावें से भय, पीलुसे आरोग्य, खैर और शमी से दुर्भिक्ष, और अर्जुन से अच्छी वर्षा इनकी वृद्धि हो ॥ ४६ ॥ पिचुमंद और नागकेसर से सुभिक्ष, कैथ से वायु, निचुल से "Aho Shrutgyanam" Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैषमहोदये निचुलेनावृष्टिमयं व्याधिभयं भवति कुटजेन ॥ ४७ ॥ दूर्वाकुशकुसुमाभ्यामिक्षुर्वहिच कोविदारेण । श्यामालताभिष्टद्वद्या बन्धक्यो वृद्धिमायान्ति ॥ ४८ ॥ यस्मिन् देशे स्निग्धनिछिद्रपत्राः, सन्दृश्यन्ते वृक्षगुल्मा लताश्च । तस्मिन् वृष्टिः शोभना सम्प्रदिष्टा, रूक्षर स्पैरल्पमम्भः प्रदिष्टम् ॥ ४६ ॥ इतिकुसुमैर्धान्यादिनिष्पत्तिलक्षणं वाराहसंहितायाम् ॥ (ive) लोके पुनरेवम्- माके गेहूं नींव तिल, व्रीहि कहै फ्लास । कंधेरी फूली नहीं, मुंगा केही ग्रास ॥ ५० ॥ पाठन्तरे- आके गेहूं कयरतिल, कंटालीये कपास । सर्व वसुंधर नीपजै, जो चिहुँ दिसि फलै पलास ॥५१॥ अथ वृक्षरूपम् राष्ट्रविभेदस्त्वनौ बालवधूटीव कुसुमिते पाले । अवृष्टिका भय और कुटज से व्याधिका भय, इनकी वृद्धि होती है ॥४७॥ दूब और कुश की वृद्धि से देखकी दृद्धि, कचनारसे अनिका भय, श्यामलता की वृद्धिले व्यभिचारिणी स्त्रियोंकी वृद्धि होती है ॥ ४८ ॥ जिस देशमें जिस समय वृक्ष गुल्म और लता ये चिकने और छिद्र रहित पत्ते से युक्त दिखाई दें उस देशमें उस समय अच्छी वर्षा होगी, तथा रूखे और छिद युक्त हो तो थोड़ी वर्षा होती है ॥ ४६ ॥ आकी वृद्धि से गेहूँ, नींव से तिन, पलास से व्रीहि ( चावल ) की कंधेरी फूले नहीं तो मूंग की आशा ही रखना ॥५०॥ आकसे गेहूँ, कयर से तिल और कंडाली से कपास ये सब जगत् में उत्पन्न होते है, यदि चारों ही दिशा में पास फलें तो ॥ ५१ ॥ वृद्धि होती है और "Aho Shrutgyanam" Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम् वृक्षात् क्षीरश्रावे सर्वद्रव्यक्षयो भवति ।। ५२॥ इति । अथ काकाण्डानि । वित्रिचतुःशावत्वं सुभिद पञ्चभिर्टपान्यत्वम् । अण्डावकिरणमेकानुजा प्रसूतिश्च न शिवाय ॥५॥ क्षारकवर्णैश्चौराश्चिमृत्युः सितैश्च बहिमयम् । विकलैर्दुर्भिक्षमय काकानां निर्दिशेच्छिशुभिः॥५४॥ अथ टिटिभाण्डानि । "चत्वारिटिहिभाण्डानि मासाश्चत्वार आहिता। अधोमुखाण्डमासे स्याद् वृष्टिोंर्ध्वमुखाण्डके ॥५५॥ जलप्रवाहेऽप्यण्डानां मुक्तिर्दृष्टिनिरोधिनी। उच्चभागे टिहिभाण्डमुक्त्या मेघमहोदयः॥५६॥ रुद्रदेवस्तु- काकस्याण्डानि चत्वारि वाण प्रथम स्मृतम्। __ यदि वालवृक्ष (नालियर ) में बालवधूटी की जैसे विना ऋतुके फल आजाय तो देशमें विभेद हो तथा वृक्षसे दूध स्रवे तो सब द्रव्यों का क्षय हो ॥५२॥ कौवें के दो तीन या चार बच्चे हों तो सुभिक्ष, पांच हों तो दूसरा राजा हो, एक अंडा ही प्रसवे तो अशुभ होता है || ५३ ॥ क्षारवर्ण के अंडेसे चोर भय, चित्रवर्णसे मृत्यु, सफेदसे अनि भय, और विकलवर्णसे दुर्मिक्ष इत्यादि कौएँ के बच्चोंके वर्ण परसे शुभाशुभ जानना ॥ ५४ ॥ टिटहरी के चार अंडे परसे आषाढादि चार महीने कल्पना करें, जितने भगडे अधोमुख हो उतने महीने वर्षा और ऊर्ध्वमुख वाले अगहे हो तो वर्षा न हो ॥ ५५ ॥ टिटहरी जल प्रवाह (नदी तालाव आदि जला. शय ) में अण्डे रक्खे तो वृष्टिका रोध हो और ऊंची भूमि पर रक्खे तो वर्षा अच्छी हो ॥ ५६ ॥ कौवे के चार प्रकार के अण्डे माने हैं-प्रथम वारुण, दूसरा आग्रेय, "Aho Shrutgyanam" Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) मेघमहोदये तथा छितीयमाग्नेयं वायवीयं तृतीयकम् ॥ *चतुर्थ भूमिजं प्रोक्तमेषां फलमथोदितम् ॥५॥ षट्पदी-क्षेमं सुभिक्षं सुखिता च धात्री, ........ .... स्यामिजेऽण्डेऽभिमता च वृष्टिः । पृथ्वी तथा नन्दति सस्यमाद्य,. . वर्षाविशेषेण जलाण्डतः स्यात् ॥५८॥ जातानि धान्यानि समीरजाण्डे, .. खादन्ति कोटा: शलभाः शुकाश्च । , दुर्भिक्षमण्डेऽग्निभवे निवेद्य, ..... जानीहि मासान् चतुरोऽपि चाण्डे ।।५९॥ ॥ इति काकाण्डफलम् ।। काकालयःप्राग्दिशि भूरुहस्य, सुभिक्षकृत् स्वल्पधनस्तथाग्नौ। तीसरा वायवीय और चोथा भूमिज | इनका फल कहा है ॥५७॥ भूमिज अंडे हो तो कल्याण, सुभिक्ष, जगत् को मुख और अनुकूल वर्षा हो । वारुण [जल ] अंडे हो तो पृथ्वी आनंदित हो तथा विशेष वांसे धान्य आदि बहुत हो ॥ ५८॥ समीर (वायु) अण्डे हो तो धान्य उत्पन्न हो किंतु कीड़े शलभ और शुक ये खा जावें ! अग्नि अण्डे हो तो दुर्भिक्ष जानना । इस प्रकार अण्डे परसे चार महीने जानना !!५६ ॥ ___कौत्रा अपना घोंसला (अण्डा रखने का स्थान) वृक्ष पर पूर्व दिशा में बना तो सुभिक्षकारक है, अग्नि कोण में बनावे तो वर्षा थोड़ी हो, * नदी तीरे नद्यासन्नवृतेऽण्डमोक्षे वारुणम् १। गेहप्राकारे "भूमिजम् २। वृक्षे वायवीयम् ३। शेषस्थाने आग्नेयम् ४ । यद्वा वृत्तकोणभागे चतुर्भाण्डानि-ईशान्यां वारुणम् १ । अग्नावाने रम् २१ नैर्ऋते वायवीयम् ३ । वायुकोणे.भूमिजम् ४।' "Aho Shrutgyanam" Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासव्यं धृष्टिकरो पाच्या ततो न वृष्टिहिमपात एव ।। ६० ॥ मासदयेऽतीव घनः प्रतीच्या, निष्पत्तिरम्नस्य तदोच्चभूम्याम् । स्ततोऽप्यवृष्टियदि वाल्पवर्षा, स वातवृष्टिः पवनस्य कोणे ॥११॥ पूर्व न वृष्टिनिकतौ पयोदाः, पश्चाद् घना लोकसरोगता च । स्यादुस्तरस्यां भवने सुभिक्ष मीशानभागेऽपि सुखं सुभिक्षम् ॥२॥ गार्गीयसंहितायां तुवृक्षाग्रे तु महावर्षा वृक्षमध्ये तु मध्यमा । अधःस्थाने नैव वर्षा वृक्षे काकालयाद वदेत् ॥६॥ वक्षकोटरके गेहे प्राकारे काकमालके । दुर्भिक्षं विग्रहो राज्ञां याम्यां छत्रस्य पातनम् ॥१४॥ दक्षिणमें बनावे तो दो महीनौ वर्षा हो और पीछे वर्षा न हो किंतु हिमपात हो ॥६०॥ पश्चिम दिशा में बनावे तो दो महीने बहुत वर्षा हो तब ऊंची भूमिमें धान्यकी उत्पत्ति अच्छी हो, और पीछे दो महीने वर्षा न हो या थोड़ी. वर्षा हो । वायु कोण में बनाये तो वायु के साथ वर्षा हो । ६१ ॥ नैर्ऋत्य कोणमें बनावे तो रहले वर्षा न हो पीछे बहुत वर्षा हो और. लोकमें रोग हो । कौआ अपना घोंसला उत्तर दिशा में बनाये तो सुभिक्ष होता है । ईशान कोणमें बनावे तो भी सुभिक्ष और सुख हो ॥६२॥ ___. कौवा. अपना वोंसला वृक्ष उपरके अग्र भागमें बनावे तो महा वर्षा, मध्य भागमें बनावे तो मध्यम वर्षा और नीचेके भाग में बनाये तो वर्षा न हो ॥६३॥ कौओंका घोंसला वृक्षके कोटर (खोखला) घर और किला में "Aho Shrutgyanam" Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४) मेघमहोदये नदीतीरे काकगृहे मेघप्रश् न वर्षणम् । पक्षौ विधूनयन् काको वृक्षाग्रे शीघ्रमेघकृत् ॥६५॥ विना भक्ष्यं काकदृष्टो दुर्भिक्षं दक्षिणादिशि । पीत्वा जलं शिरःपक्षौ धुन्वन् काको जलं वदेत् ॥ ६६ ॥ वर्षा काले महावृष्टिः शीतकाले च दुर्दिनम् । उष्णकाले महाविघ्नं काकस्थानाद विनिर्दिशेत् ॥ ६७॥ बहिस्थाने च पाषाणे पर्वते शिखरे तरोः । भूमौ ग्रामे च नगरे काकस्थानात् फलं स्मृतम् ॥६८॥ वृक्षस्य पूर्वशाखायां वायसः कुरुते गृहम् | सुभिक्षं क्षेममारोग्यं मेघश्चैव प्रवर्षति ॥ ६९ ॥ आग्रेयां वृक्षशाखायां निलयं कुरुते यदि । अल्पोदकास्तथा मेघा ध्रुवं तत्र न वर्षति ||७० || दक्षिणस्यां दिशो भागे वायसः कुरुते गृहम् । हो तो दुर्भिक्ष, राजाभोंमें विग्रह और दक्षिण में छत्रपात हो ॥ ६४ ॥ नदी के तट पर कौमों का घोंसला हो तो वर्षा न बरसे । मेघ के प्रश्न समय यदि कौआ पंख कंपाता हुआ वृक्ष के अग्र भाग में बैठा हो तो शीघ्र ही वर्षा हो ॥ ६५ ॥ भक्षण' विना को देख पड़े तो दक्षिण दिशा में दुर्भिक्ष होता है । कौआ जल पीकर माथा और पंख कंपावे तो जलागमन को कहता है ॥ ६६ ॥ उस समय वर्षाकाल हो तो महावर्षा, शीतकाल हो तो दुर्दिन और उष्णकाल हो महा विघ्न इन की सूचना करता है ॥ ६७ ॥ मन का स्थान, पाषाण, पर्वत, वृक्ष के शिवर, भूमि, गांव और नगर, इन स्थानों में कौएँ के घोंसले परसे फल का विचार करना ॥६८॥ कौवे वृक्षकी पूर्व शाखा में घोंसला करें तो सुभिक्ष, कल्याण और भारोग्य हो तथा मेघवर्षा हो ॥ ६६ ॥ वृक्षकी ममेय शाखा में वोंसला करें तो बादल मोड़े नलवाले हो तथा वर्षा न बरसे ॥ ७० ॥ दक्षिण दिशामें घोंसला "Aho Shrutgyanam" Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम वो मासौ वर्षते मेघस्तुषारेण ततः परम् ॥७१॥ नैर्ऋत्या च दिशो भागे निलयं कुरुते खगः । आधा नास्ति तदा वृष्टिः पश्चादेषा प्रवर्षति ॥७२॥ पश्चिमे च दिशो भागे वायसः कुरुते गृहम् । वातवृष्टिः सदा तंत्र अल्पवृष्टिश्च जायते ॥ ७३ ॥ उत्तरस्या दिशो भागे वायसः कुरुते गृहम् । अल्पोदकं विजानीयाद् राजा कश्चिद्विरुध्यते ॥ ७४ ॥ ईशाने तु दिशो भागे वायसः कुरुते गृहम् । बहुस्थानि जायन्ते सुभिक्षं क्षेममेव च ॥ ७५ ॥ भागे तु वृक्षस्य वायसः कुरुते गृहम् | मर्दा तु सत्यनिष्पत्तिरधमो वर्षते तदा ॥७६॥ प्राकारे कोटरे वापि वायसानां समागमः । विग्रहं तु विजानियाद् राजस्थानं विनश्यति ॥७७॥ गृहेषु गृहशालायां करोति निलयं यदा । दुर्भिक्ष तु विजानीयान्महा द्वादशवार्षिकम् ॥ ७८ ॥ (20) करें तो दो महीना वर्षा हो और पीछे हिमपात हो ॥ ७१ ॥ नैर्ऋत्य दिशां में घोंसला बनावे तो प्रथम वर्षा न हो और पीछे वर्षा हो ॥ ७२ ॥ पश्चिम दिशा में कौवे वोंसले करें तो हमेशा वायु युक्त थोड़ी वर्षा हो । . ७३ ॥ उत्तर दिशामें घोंसला बनावे तो जल थोडा बरसे और कोई राजा विरोध करें ॥ ७४ ॥ ईशान दिशामें घोंसला करे तो धान्य बहुत हो, तथा सुभिक्ष और कल्याण हो || ७५ ॥ कौवा वृक्षका आधा भाग में घोंसला करे सो धान्य प्राप्ति मध्यम हो तथा वर्षा अच्छी न हो ॥ ७६ ॥ प्राकार (कोट) या वृक्ष की कोटर में कौवेंका समागम हो तो विग्रह जानना, तथा राजस्थान का विनाश हो ॥ ७७ ॥ घरोंमें या घरशाला में कौवे का स्थान हो तो बड़ा बारह वर्षका दुर्भिक्ष जानना ॥७८॥ भूमि पर घोंसला करे सो गाँव और "Aho Shrutgyanam" Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मेवमहादयें मामडलनाश च भूम्यां च कुरुते ग्रहम् । विग्रहं तु विजानीयाच्छून्यं तु मण्डलं भवेत् ॥६॥ कपिलानां शतं हत्वा ब्राह्मणानां शतव्यम् । तत्पापं परिगृहसि यदि मिथ्या बलि हरेत् ।।८०॥ शाल्योदनेन साज्येन कृत्वा पिण्डऽत्रयं बुधः । . समार्जिते शुभे स्थाने स्थापयेन्मन्त्रपूर्वकम् ॥८॥ माहानकरमन्त्रेण पाहयाइलिभोजनम् । स्थाप्यं स्थापनमन्त्रेण पिण्डनयमिदं क्रमात् ।।८२॥ आहानमन्त्री यथा-ॐतुण्डब्रह्मणे सुराय असुरेन्द्राय एहि एहि हिरण्यपुण्डरीकाय स्वाहाः । पिण्डाभिमन्त्रण पधा-ॐ तिरिटि मिरिटि काकपिण्डालये स्वाहाः ।। देशकालपरीक्षार्थ वृषम चायपिण्डके । मितीये तुरंग न्यस्य तृतीये हस्तिनं क्रमात् ॥८३॥ वृषभे चोत्तमकालो मध्यमश्च तुरङ्गमे । हस्तिपिण्डेन जानीयान्महान्तं राजविवरम् ॥८४॥ मंडलका नाश हो, विग्रह हो तथा मंडल शून्य हो ॥७६ ॥ हे कांक: यदि तूं मिथ्या बलिको ग्रहण करें तो एक सौ गौ और दो सौ ब्राह्मयों की हत्याका पाप लगे ॥८०॥ घी मिश्रित अच्छे चावल का सीन पिंड बनाकर अच्छा स्वच्छ स्थानमें मंत्रपूर्वक स्थापन करें ॥८॥ पीछे ॐ तुपटे' इस मंत्र से कौमा को बोलावे, बोलानेसे माया हुमा काक ॐ तिरिटि' इस मंत्र पूर्वक स्थापन किये हुए तीन पिंडोंमेंसे जिस को महण करे उसका क्रमसे फल कहना ॥२॥ देशके काल की परीक्षा के लिये प्रथम पिंडकी वृषभ, दूसरेकी तुरंग और तीसरेकी हाथी, ऐसी जनसे संज्ञा-करें ॥८३॥ वृषभपिंड को ग्रहण करे तो उत्तम समय, तुरंग कोकरे तो-मध्यम समय और इस्तिपिंडको ग्रहण करे तो बड़ा . "Aho Shrutgyanam" Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम् वर्षाज्ञानाय संस्थाप्यं प्रथमे पिण्डके जलम् । हितीये मृत्तिका स्थाप्या तृतीयेऽकारक: पुन: ॥८॥ शीर्घ वर्षति पानीये (पर्जन्यो) मृत्तिकायास्तु पिण्डके। पक्षान्तेन तु वृष्टिः स्यादगारे नास्ति वर्षणम् ॥८६॥ - अथ गौतमीयज्ञानम्--- ॐ नमो भगवओ गोयमसामिस्स सिद्धस्स बुखस्ताक्खीणमहाणस्स भगवन्! भास्करीयं श्रियं आनय २ परप२ आश्विनस्य चतुर्दश्यां मंत्रोऽयं जप्यते निशि। सहस्रमेकं तपसा धूपोत्क्षेपपुरस्सरम् ॥८॥ प्रातः पूर्णादिने मुखे लेख्ये गौतमपादुके। . . यजना सुरभिद्रव्यैरर्चनीये सुभाविना ॥८॥ यत्पात्रे पादुके लेख्ये वस्त्रेणाच्छाचते च तत् । मार्जारदर्शनं वय यावश्च क्रियते विधिः ॥८६॥ समये पात्रकं लात्वा भिक्षार्थ गम्यते गृहे । राजविवर हो ||८४॥ वर्षाको जानने के लिये प्रथमपिंडमें जल, दूसरे पर मृतिका (मिट्टी) और तीसरे पर कोयला रक्खें ॥ ८५ ॥ जलवाला. पिंड ग्रहण करे तो शीघ्रही वर्षा हो, मृत्तिकापिंड ग्रहण करे तो पक्ष (पंद्रह दिन) के पीछे वर्षा हो और अंगारपिंड को ग्रहण करे तो वर्षा न हो ॥८६॥ : इस मंत्रका आश्विन चतुर्दशी की रात्रिमें उपवास करके धूप पूर्वक एक हजार वार जाप करें ॥८७॥ पूर्णिमा के दिन प्रातः काल एक पात्र में श्रीपौतमस्वामी की चरण पादुका आलेखना, पीछे उसकी भक्ति पूर्वक सुगंधित द्रव्योंसे पूजा करें ॥८॥ जिस पात्र में पादुका भालेखी है उस. को वस्त्रसे ढंके हुए रक्खे और जबतक यह विधि करे तब तक बिल्ली को न देखें ॥८६॥ फिर भिक्षा के समय उस पात्रको लेकर भिक्षा के लिये "Aho Shrutgyanam" Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (K)-! मेघमहोदये दातुर्महेभ्यश्राद्धस्थं यत्प्राप्तं तद्विचार्यते ॥ ६०॥ सधवा सतनूजा स्त्री भिक्षादात्री शुभाय या । यहहु प्राप्यते धान्यं तन्निष्पत्तिः पुरो भवेत् ॥९१॥ नास्ति वेलेत्युत्तरेण दुर्भिक्षं भाविवत्सरे । विलम्बदाने मेघोऽपि विलम्बेनैव वर्षति ॥ ६२॥ तत्र क्लेशदर्शनेन राजविग्रहमादिशेत् । भने पात्रस्य भाण्डस्य छत्रभङ्गो विचार्यते ॥९३॥ व्यंगा वा रुदती दत्ते तदा रोगाद्युपद्रवाः । गौतमीयमिदं ज्ञानं न वाच्यं यत्र कुत्रचित् ॥६४॥ उपश्रुतिस्तद्दिने वा वर्षबोधे विचार्यते । लोको वदति यद्वाक्यं ज्ञेयं तस्माच्छुभाशुभम् ||६|| इति गौतमीयज्ञानम् । इत्येवं शकुनं विचार्य सुधिया वाच्यं फलं वार्षिक, यस्योद्बोधनतो धनं भुवि घनं सर्वार्थसंसाधनम् । दातार महान् श्रावक के घर जायँ और वहां से जो प्राप्त हो उसका विचार करे ॥ ६० ॥ भिक्षा देनेवाली सौभाग्यवती पुत्रवती स्त्री हो तो अगला वर्ष. अच्छा हो तथा धान्यकी प्राप्ति बहुत हो । ६१ ॥ यदि वहां से ऐसा उत्तर: मिले कि इस समय नहीं है तो अगला वर्ष में दुर्भिक्ष जानना | विलक ( देर ) से दान दे तो वर्षा भी विलंब से बरसे ॥६२॥ यदि वहां क्लेश होता देखे तो राजा में विग्रह हो । पात्र का भंग हो तो छत्रभंग जानना ॥६३॥ यदि अंगहीन या रूदन करती हुई दान दे तो रोग आदि उपद्रव हों यह गौतमीय ज्ञान: जहाँ तहाँ उच्चारा न करें ॥ ६४ ॥ अथवा उस दिन लोग जो वचन बोले उसके अनुसार शुभाशुभ फल वर्ष बीच में विचारः करें ६५ ॥ इसी प्रकार शकुनों का बुद्धि से विचार कर के वार्षिक फल कहना. "Aho Shrutgyanam" • Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम् राजन्यैरपि मान्यते स निपुण: प्रोल्लासि भास्वङ्गणः, शान् यन्मनसि स्फुरत्यतिशयाच्छ्री वर्ष बोधाह्वयम् ॥९६॥ त्रयोदशोऽधिकारोऽभूच्छास्त्रेऽस्मिन् शकुनाश्रयः । मदेकविंशतिद्वरिग्रन्थोऽलभत पूर्णताम् ॥९७॥ स्थानाङ्गसूत्रविषयीकृतवर्षबोध ज्ञानाय यत्प्रकरणं विहितं वितत्य । भक्त्या व्यदीपि जिनदर्शनमेव तेन, "लोकः सुखीभवतु शाश्वतबोधलक्ष्म्या ||१८|| प्रन्थकार-प्रशस्तिः --------- श्रीमत्तपागणविभुः प्रसरत्प्रभावः, पश्चोतते विजयतः प्रभनामसूरिः । तत्पट्टपद्मरणि विजयादिरत्नः, स्वामी गणस्य महसा विजितसुरत्नः ॥९९॥ (ko) चाहिये। जिसका उद्बोधन (विकाश) से पृथ्वी पर सर्व अर्थीका साधन रूप बहुत धन प्राप्त होता है और जिसके मन में श्रीवर्षप्रबोध (मेघमहोदय) नामका शास्त्र स्फुरायमान है ऐसा प्रकाशवाले गुणोंसे निपुण पुरुष राजाओं को भी माननीय होता है || ६ || इस ग्रंथ में यह शकुननिरूपण नाम का लेरहवां अधिकार है और इक्कीश द्वारोंसे यह ग्रंथ पूर्णताको प्राप्त होता है ॥ ६७ ॥ स्थानांगसूत्र का विषयीभूत ऐसा वर्षबोध का ज्ञानके लिये जो प्रकरण मैंने रचा है उसको भक्तिसे फैला करके जो जैन दर्शनको दीपावे बह शाश्वतज्ञानरूप लक्ष्मीसे सुखी हो ॥६८॥ जिनका प्रभाव फैल रहा है ऐसे श्रीमान् तपागच्छ के नायक श्री विजयप्रभसूरि' नामके आचार्य दीप रहे थे, उनके पट्टरूप कमलको विकाशः करने में सूर्य समान और अपने तेज से जीत लिया है सूर्य को जिन्होंने ऐसे 'श्री विजयरत्नसूरि' नामके आचार्य हुए ॥ ६६ ॥ विश्वको प्रकाशित "Aho Shrutgyanam" Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) मेधमहोदये :तच्छासमे जयति विश्वविभासनेऽभूद, विद्वान् कृपादिविजयो दिवि जन्मसेव्यः । शिष्योऽस्य मेघविजयायवाचकोऽसौ, ग्रन्थः कृतः सुकृतलाभकृतेऽत्र तेन ॥१०॥ क्वचित्पाच्यैर्वाच्यैरतिशयरसात् श्लोककथनैः, क्वचिन्नव्यैः श्रव्यैः प्रकरणमभूदेतदखिलम् । सतां प्रामाण्याय क्वचिदुचितलोकोक्तिचितं, जिनश्रद्धांभाजामपि चतुरराजां समुचितम् ॥१०॥ अनुष्टुभां सहस्राणि त्रीणि सार्दानि मानितः। गंथोऽयं वर्षबोधाख्यो यावन्मेरुः प्रवर्तताम् ॥१०॥ यत्पुनरुक्तमयुक्तं दुरुक्तमिह तद्विशोधितुं युक्तम् । घद्धाञ्जलिनेति मयाऽभ्यर्थन्ते सकलगीतार्थाः ॥१०॥ मेरोर्विजयकृद्धैर्यादलंध्यो मेरुवद्धिया। करनेवाले उनके शासन में देवताओं से भी सेवनीय ऐसे 'श्री कृपाविजय नामके विद्वान हुए । उनके शिष्य 'श्री मेघविजय' उपाध्याय हुए, जिन्होंने यह ग्रंथ सुकृतका लाभके लिये किया ॥१०॥ इस ग्रंथ में कोई जगह तो अतिशय रस पूर्वक कहने लायक प्राचीन श्लोकों से और कोई जगह तो प्रवण करने योग्य नवीन श्लोकों से तथा सत्पुरुषों को प्रमाण होने के लिये कोई जगह मनोहर ऐसी उचित लोकोक्तियों से . यह प्रकरण संपूर्ण हुआ । जिनेश्वरके उपर श्रद्धा रखनेवाले चतुर जनों को उचित है कि इसका आदर करें ।। १०१ ॥ यह वर्षप्रबोध नाम का ग्रंथः अनुष्टुभ श्लोकोंके मानसे साहे तीन हजार श्लोकके प्रमाण है । जब तक मेरु पर्वत प्रवर्तमान रहै तब तक यह ग्रंथ भी प्रवर्त्तमान रहो ॥ १०२ ॥ इस प्रथमें मैं ने पुनरुक्त प्रयुक्त या दुरुक्त कहा हो उसको समस्त ज्ञानी पुरुष शुद्ध कर लें ऐसी हाथ जोड़के प्रार्थना है ॥ १०३ ॥ जो मेरुको विजय करने "Aho Shrutgyanam" Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुननिरूपणम् भक्त्या मे रोचितः शिष्यः श्रीमेरुविजयः कविः ॥१०४॥ भाविवत्सरबोधाय तस्य बालस्य शालिनः । . कुरुतां गुरुतां ग्रन्थो हिताद्धालस्य पालनात्॥१०॥ इतिश्रीतपागच्छीयमहोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते वर्षप्रयोधे मेघमहोदयसाधने शकुननिरूपगो . नाम त्रयोदशोऽधिकारः॥ . योग्य धैर्यसे भी अलंघनीय है तथा जिन की बुद्धि मेरु की तरह अचल है .ऐसे शिष्य श्रीमेरुविजय' नामके कवि भक्तिसे मेरेको रूचे हुए हैं ॥१०४॥ शोभनेवाले बालकको भावि वर्षका बोधके लिये बालक का पालन करके यह ग्रंथ गुरुता को करो ॥१०॥ मेघमहोदयाभिधो ग्रन्थोऽयमनुवादितः । .. चन्द्रेष्वन्धिद्वये वर्षे वीरजिननिर्वाणत: ॥१॥ इति श्रीसौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत-पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्य जैनेन विरचितया मेघमहोदये बालावबोधिन्याऽऽर्यभाषया टिकितः . . शकुननिरूपणो नाम त्रयोदशोऽधिकारः । .... अवशिष्ट टीप्पणियें। पछ-६३, श्लोक-१०६ ..दक्षिणवायुरपि शापकः स्यात् स्थापकत्वे विकल्पः । पह-८३, श्लोक-२३ की नीचे का गद्य---- त्रि३ षट् द्वि२ बाण ५ भूसिन्धु ४ शून्यानि स्युः पुनः पुनः क्रमात् सप्तवर्षेषु तेनेदं व्यभिचारभाक् । पृष्ठ-२३६ अनोच्यते-- ___ चैत्रे मेघमहारम्भ' इत्युक्तेमहावृष्टिनिषेधपरत्वात् । एव चैत्रो ऽयं बहुरूप इत्यादि वाताधिकारोक्तं सत्यायित्तम्, पृछ-२५० का गद्य सूत्रे 'उक्कोसेख जाव टु मासस्स' न रूपगर्भपरं तस्यैव पत्रोन "Aho Shrutgyanam" Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघमहादये द्विशतीदिनमानत्वात् भावि वृष्टिसूचको हि निमित्तरूपगर्भः तस्य दिनमानं सार्द्धषणमास्या न्यूनमधिकं वा भवेत् , अत एवं 12 मेघमालायांनिमित्समितिरूपं साभिप्रायं श्रीहीरसूरिमिरपिप्रासाढ अइह लगे भडुली दुधिरण मूल / सो दिवस पंचग्गलन मेहा मग्ग.निहाल // 2 // पृष्ठ-२८६ 'कृष्णपञ्चम्याः ---- ननु चैत्रकृष्णपञ्चम्या प्रारभ्य नवदिननि भलता उक्ता तन्मध्य एव प्रायः कृष्णाष्टम्यां दिनदिनसम्भवात् मुलादिभरण्यन्तनवनक्षत्रनिर्मलता कथिता पुनस्तन्मध्य प्रव चैत्रशुक्लसम्भवाट आर्द्रादिस्वात्यन्तनक्षत्रेषु दुर्दिनमपि निषिद 'जर अस्सिण' इत्यादि मेषसंक्रमादपि परं दशदिनेषु वृष्टित्युक्तः, तहि, मेषसंक्रांतिकालानु' इत्यादिस्तथा मीनसंकास्तिकाले चैत्रादेर्वचनस्य कथमवकाशः तथा च 'पवनधनदृषियुक्ता' इत्यादिः, पुनः 'चैत्रसितपक्षजाता' इत्यादेवराहवाक्यस्य न कदाचिदतिरत्रोच्यते चैत्रे महावृष्टेरेव निषेधः, वार्दलाना सम्भवेऽपि न दोष इत्युक्तं प्राक तथैव च न वृष्टं, दुर्दिनं शुभमि ति सूत्राशयः / पृ. 261 श्लो. 182- 'श्राद्री थकां नक्षत्र नव जे वरसे मेह अनंतः इति वचनात् इति चैत्रेऽपि श्राद्रादिषु वृष्टिः शुभाइति न गन्तव्य 'चैत्रस्यादौ दिवसदशक मित्यादिना मेघमालाविरोधात्।। 1. 261 श्लो. 187- अत्र शुक्लेति पाठोऽपि यतः-- वैसाही सुदी एकमें, बादल वीज करेइ / द्रामे द्रोण वसाह वा विक्रि न साखी धरे // 2 // पृ. 26 श्लो. 231- अत्र कृष्णादिमासः अश्विन्यास्तत्रैव सम्भवात् / 1.384 श्लो. 272-- चैत्रेऽमावसीदिवसे गुरुवारेऽथवा चित्रामक्षा दिने गुरुवारस्तदा वर्षी वृष्टिः शुभा, एवं वैशाखे विशाखादिन पि वाच्यम्। पृ. 485 क्लो. ८६-राशि मंत्रिणि धान्याधिपे च करेऽपि सति समये विरुद्धेऽपि मझले पक्रेऽपि वर्ष शुभं स्यादित्यर्थः / * इति शुभम् * "Aho Shrutgyanam"