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मेघमहोदय,
मार्गशीर्षे दिष्यवृष्टिः स्त्रीणां पीडा गृहे गृहे ॥१०१ पूर्वकाले भवेद धान्यं गोधूमशालिशर्कराः । कर्पासश्च प्रवालानि कांश्यलोहं धृतं त्रपुः ॥१०२॥ हेमरूप्यं मह_णि तिलास्तैलं गुडस्तथा । . . . . पूगीफलं श्वेतवस्त्रं समर्घ च कचिद् भवेत् ॥१०॥ भार्गशीर्षात् पुनयेष्ठं यावद् घृतमहार्यता। " महिषीवाजिननां मञ्जिष्ठाया महर्घता ॥१०४॥ . देशभङ्गश्च दुर्भिक्षं कचिन्मरकसम्भवः । .... सजाते शीतकालेऽथ ग्रीष्मे म्लेच्छजनक्षयः ॥१०॥ श्रावणे धान्यकलशी त्रिंशता स्कन्दकैर्भवेत् । .. पश्चाशत् स्कन्दकैराज्यमणं भाद्रेऽम्बुदो महान् ॥१०॥ आश्विने रोगिता सर्प-दंशो धान्यमणं पुनः । दशभिः स्कन्दराज्य-मणं तापभिरेव च ॥१०७॥ खण्डा लभ्या शेरमिता एकेन स्कन्दकेन च।। गुडे सितोपलायां च महर्घत्वं कचिद् भवेत् ॥१०८॥ पास मूंगे कांसी लोहा घी तांबा ॥ १०२ ॥ सोना चांदी तिल तेल और गुड ये तेज हो; तथा मुपारी और श्वेतवस्त्र ये कभी थोड़े सस्ते हों ॥ १०३ ॥ मार्गशीर्षसे ज्येष्ठ तक घी तेज हो. और भैस घोडागौ तथा मैंजीठं भी तेज हो ॥ १०४ ॥ देशभंग और दुष्काल हो, कभी शीतकालमें महामारीका संभव हो, ग्रीष्मकालमें म्लेच्छोंका क्षय हों ॥ १०५ ॥ श्रावणमें तीस स्कंदोंमे कलशी धान्य बिके, पचास स्कन्दोंसे मण मर धी बिके, भाद्रपद में बड़ी वर्षा हो ॥ १०६ ॥ प्राश्विनमें रोग अधिक, सर्प दंशका भय, दश स्कन्दोंसे मण भर धान्य और इतना ही घी बिके ॥ १०७ ॥ एक स्कंदसे शेर भर खांड विके, गुड सक्कर कहीं महंगे हो । १०८॥ कुलथी भादि अनाज लालवस्त्र गेहूँ और जब ये तेज हो और
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