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मेघमहोदये
धान्यनाशः स्वल्पवर्षा नृपाणां दारुणो रणः । तस्करा बहुला रोगा रुधिरोद्गारिवत्सरे ॥ १९ ॥ रोगान्मृत्युश्च दुर्भिक्षं धान्यौषधप्रपीडनम् । पापबुद्धिरता लोका रक्ताक्षिवत्सरे प्रिये ! ||२०|| ननु रोगाश्च दुर्भिक्षं विविधोपद्रवास्तथा । क्रोधश्च लोके भूपेषु संजाते क्रोधने प्रिये ! ॥ २१ ॥ मेदिनीचलनं देवि ! व्याकुलाश्च चराचराः । देशभङ्गश्च दुर्भिक्षं क्षयाब्दे क्षीयते प्रजा ||२२|| सौराष्ट्रे मध्यदेशे च दक्षिणस्यां च कौङ्कणे । दुर्भिक्षं जायते घोरं क्षये संवत्सरे प्रिये ! ॥ २३॥ इति रौद्रीयमेघमाला शिवकृता ।
अथ जैनमते दुर्गदेवः स्वकृतपटिसंवत्सरग्रन्थे पुनरेवमाह ॐ नमः परमात्मानं वन्दित्वा श्रीजिनेश्वरम् ।
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जो कुछ भी हो वह बेच कर धान्य का संग्रह करना अच्छा है ॥ १८ ॥ धान्य का नाश हो, थोडी वर्षा हो, राजाओं का बड़ा बोर युद्ध हो, बहुत चोर और रोग हो ॥ १६ ॥ हे प्रिये ! रक्ताक्षिवर्ष में रोगसे बहुत प्राणी मरै, दुष्काल हो, धान्य और औषधियों का नाश हो, और लोग पापबुद्धि वाले हो || २० || हे प्रिये ! कोधनवर्ष में निश्चयसे रोग और दुष्काल हो, अनेक प्रकारके उपद्रव हों, लोगों में बहुत क्रोच हो ||२१|| हे देवि ! क्षयसंवत्सर में भूकम्प हो, पृथ्वी चराचर व्याकुल हो, देशभङ्ग हो, दुष्काल हो और प्रजा का नाश हो || २२ || सोरठदेश मध्यदेश और दक्षिण में कोणदेश आदि में बडा दुष्काल हो || २३ || इति रौद्रीयमेवमालायां तृतीया विंशतिका ॥
पश्च परमेष्ठी के वाचक ॐकार को नमस्कार करके, तथा परमात्मा जिनेश्वरदेव के वन्दन करके और केवलज्ञान का आश्रय लेकर दुर्गदेवमुनि
"Aho Shrutgyanam"