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(३५८)
मेघमहोदये
प्रत्येकं तत्र धिष्ण्याचमह विद्धि निधितम् ॥१११॥ तिथिनक्षत्रयोईद्धिं विज्ञाय प्रत्यहं व्योः । सर्व टिप्पनकं ज्ञात्वा लाभालाभौ विनिर्दिशेत् ॥११॥ यावन्नाज्य उडोर्बुद्धिः समर्घ तविंशोपकाः । यावन्नाज्यस्तिथेवृद्धि-महर्य तत्प्रमाणकम् ॥११३॥ मासमध्ये यदा छौ तु योगौ च त्रुटतः क्रमात् । महर्षे घृततैले हे योगवृद्धौ समर्घके ॥११४॥ वर्षाकालत्रिमासेषु नक्षत्रं वर्द्धतेस्फुटम् । तिथिहानिस्तु संलमा शुभकालस्तदा बहुः ॥११५।। वर्षाकालत्रिमासेषु नक्षत्रं त्रुटति धुषम् । तिथिश्च वर्द्धते तत्र ध्रुवं कालो विनश्यति ॥११६॥ तेन मूलोत्तराषाढे सर्वराकासु वर्जिते । भाषायां तु विशेषेण धान्यार्थस्य विनाशके ॥११७॥ यदुक्तं सारसङ्गहेमहँगे हों ॥१११॥ सब देशक पंचांगोंसे तिथि और नक्षत्रका विचार कर लाभालाभ कहना चाहिये ॥११२॥ जितनी घड़ी नक्षत्रकी वृद्धि हो उतने विंशोपके (विश्वे) धान्य सस्ते हों और जितनी घड़ी तिथिकी वृद्धि हो उतने विश्वे अन्न महँगे हो ॥११३॥ यदि एकही मास में योग दो बार क्षय हो तो क्रमसे धी और तैल महँगे हो। और वृद्धि हो तो सस्ते हों ॥११४॥ वर्षाकालके तीन महीनों में नक्षत्र बढ़े और तिथिका क्षय हो तो बहुत सुभिक्ष काल जानना ॥ ११५॥ यदि वर्षाकाल के तीन महीनों में नक्षत्र का क्षय हो और तिथि की वृद्धि हो तो निश्चय से दुश्काल जानना ॥११६॥ इसलिये हरएक मासकी पूर्णिमाको म्ल और उत्तराषाढा नक्षत्र नहीं होना चाहिये, इसमें भी आषाढ पूर्णिमाको तो विशेष कर नहीं होना चाहिये, यदि हो तो धान्य का विनाश हो ॥ ११७ ॥ पूर्णिमा के दिन
"Aho Shrutgyanam"