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मेघमहोदये गत्या गच्छतीत्यर्थः । 'उत्तरकिरिय' ति वायुकायस्य हि मू. लशरीरमौदारिकं, उत्तरं तु वैक्रियम् । अत उत्तरा उत्तरशरीराश्रया क्रिया गति लक्षणा, गत्र गमने तदुत्तरक्रियं तद्यथा-भवतीत्येवं रीयते गच्छति । वाचनान्तरे त्वाद्य कारणं महावातवर्जितानां, द्वितीयं तु महावातवर्जितानां, तृतीयं तु चतुर्णामप्युक्तमिति तद्वृत्तिः । एवं वातविशेषेण वर्षाऽवर्षाविशेषणात् । शुभाशुभादियोगेन वातादब्दे विचित्रता ॥॥ वातस्तु त्रिविधः प्रोक्तो वापकः स्थापकोऽपरः । तृतोयो ज्ञापको वृष्टेः स्थानाङ्गे मध्यसङ्गहात ॥७॥ तुलादण्डस्य नीत्यात्र ग्राह्यावाद्यन्त्यमारुतौ । प्राद्यस्तुत्पादकोऽभ्रादेः परो न विशरारुकृत् ॥८॥ तृतीयो भाविनी वृष्टिं पूर्वमेव निवेदयेत् । तत्कालं वृष्टिकृत्कालान्तरे वाद्योऽपि च द्विधा ॥९॥ __ इस तरह वर्ष में वायुविशेष स वृष्टि या अदृष्टि की विशेषता और शुभाशुभ योगों से वायु की विशेषता ये विचित्रता है ॥ ६ ॥स्थानांग सूत्रमें वायु तीन प्रकार के कहे हैं ... वापक स्थापक और तीसरा वृष्टि कारक ज्ञापक है || ७ !! तुलादण्डनीति के अनुसार यहां आद्य और अन्त्य वायु ग्रहण करना चाहिये,आद्य वायु वर्मा का उत्पादक है। दूसरा वायु विनाश कारक नहीं है ॥ ८ ॥ तीसग होने वाली वृष्टि की प्रथम से बतलाने वाला है और तत्काल वृष्टि करने वाला या कालान्तर में वृष्टि करने वाला है । इसी प्रकार वर्षा को उत्पन्न करने वाला पहला वापक वायु के भी दो भेद हैं ...- प्रथम वर्षाकाल में बादलों को उत्पन्न करके तत्काल वर्षा करता है और दूसरा शीत कालमें बादलों को उत्पन्न करके बहुत काल पीछे वर्षा करता है ॥ ६ ॥
"Aho Shrutgyanam"