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वाद के विषय में दूसरे अनुवादक पं हनूमानजी शर्मा लिखते है कि" ( यह ग्रंथ) सव्यवस्था रूपसे अब कहीं मिलता भी नहीं है यद्यपि भाषा टीका सहित एक मिलता है किंतु वह ऐसा है मानों खुले पत्रोंकी पुस्तक अांधीमें उड़ गई हो और उसीको ढूँढ ढांढ कर विना नम्बर देखे ही ज्यों की त्यों छाप दी हो, क्योंकि उस में एक ही विषय के दश दश अंगोंमसे आठ २ अंग जाते रहे हैं। और कई एक विषय इधर उधर छिन्न भिन्न होकर खंडित हो रहे है । यह दशा तो पहले संस्करण की है। परंतु दुसरा संस्करण और भी एकदम विचित्र है। समस्त ग्रंथ का प्रमाण ३५०० श्लोक है, पर दूसरे में भी लगभग २००० श्लोक नदारद हैं। इसमें भी हमे अत्यन्त आश्चर्य तोतब होता है जबयह देखते हैं कि पं. हनुमानजी शर्माने अपनी ओर से कईएक जहां तहां के श्लोक घुसेड़ कर प्रथम मंगलाचरगा से ही पूर्ण ग्रंथ का बिलकुल परिवर्तन कर दिया है। अतः मुझे दुःख पूर्वक कहना पड़ता है कि अच्छा होता यदि पं. महाशयने इतिहास और प्राचीन साहित्य में क्षति पहुँचाने के लिये कलम ही न चलाई होती, अथवा अन्त में ग्रंथकर्ता श्री मेघविजयजी की प्रशस्ति न देकर अपने नाम से ही प्रकट किया होता। इस पर भी अनुवादक तुरी यह लिखते है कि " ... इसे अन्य कोई छापनेका दुस्साहस न करें" धन्य महाशय न जाने किस हनु से आपके संस्करण में ग्रंथ का सारा स्वरूप बदला गया है, और उसे असली हालत में जनता के उपकारार्थ प्रगट करनेवाले का साहस दुस्साहस होगा? अस्तु ।
ऐसे अनुवादकों को मेरी प्रार्थना है कि प्राचीन साहित्य का इस तरह दुरुपयोग न कीजिये । यों ही संस्कृत साहित्य कहीं भण्डारों में पड़ा हुआ दीमक या चूहों का आहार बन रहे हैं । जो कुछ प्राप्त हो सकता है उसे इस तरह विकृत कर डालना वड़ी अप्रशंसा की बात है।
उक्त दोनों अनुवादकों और प्रकाशकोंने यदि उदारता से इस ग्रंथ की पूरी खोज की होती तो शायद मुझे इस नवीन अनुवाद को लेकर न उपस्थित होना पडता । परंतु हमारे दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। इसलिए इसका प्रकाशित होना न होना लगभग बराबर ही था। इसी कारण मैंने इस ग्रंथको व्यवस्थित ढंगसे पूरे पाठकी खोज करके और प्राचीन टिप्पणियोंसे युक्त करके पाठकों के समक्ष रखनेका दुस्साहस(१)
"Aho Shrutgyanam"