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संवत्सराधिकारः
ज्झए सस्सं ॥४॥ प्राइञ्चतेयतविया खणलवदिवसा उऊ परिणमंति । पूरेइरेणुथलताइं तमाहु अभिवडिढयं नाम ॥५॥ सणिच्छरसंवच्छरे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठावीसहविहे पण्णत्ते. तंजहा-- अभिई सवण धणिहा सयभिसया दो अ हुंति भवया रेवइ अस्सिणी भरणी कत्तिया तह रोहिणी चेव जाव उत्तरासाढाओ ज वा सणिच्छरे महग्गहे तीसाहिं संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमण्डलं समाणेइ सेत्तं सणिच्छरसंवच्छरे ॥ इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्थानाङ्गे च ॥
एवं गुरोः पञ्चकृत्वः शनेभिगणभ्रमात् । अधिक शीत न हो और दृष्टि अधिक हो उसको नक्षत्रसंवत्सर कहते हैं ? । जिस वर्ष में पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्ण कलायुक्त हो तथा नक्षत्र विषमचारी याने मासकी पूर्णिमा के नाम सदृश न हो और अधिक शीत, अधिक उष्णता अधिक वृष्टि हो उसको चन्द्रसंवत्सर कहते हैं ॥ २॥ जिस वर्ष में वृक्ष में फल फूल नवीन पत्ते विना ऋतु के आजाय, वृष्टि अच्छी तरह न हो उस को कर्मसंवत्सर, ऋतुसंवत्सरे और सावनसंवत्सर कहते हैं ॥३॥ जिस वर्षमें पृथ्वी और पानीका रस मधुर तथा स्निग्ध हो, समयानुकूल वृक्षमें फलफूल आवें, थोडी वृष्टि होनेपर भी धान्य अच्छी तरह उत्पन्न हों इत्यादि लक्षणयुक्त संवत्सर को आदित्यसंवत्सर कहते हैं ॥ ४ ॥ जिस वर्षमें सूर्य के तेजसे क्षण मुहूर्त श्वासोच्छ्वास प्रमाण का दिवस, दोमास का ऋतु ये सब यथास्थित रहें और पवन रेती( रजः) से खड्डा पूर दे, उसको अभिवर्द्धित संवत्सर कहते हैं ५॥ ४ ॥ जितने समयमें शनैश्चर पूर्ण नक्षत्रमण्डल को याने बारह राशियों को तीस वर्षमें भोग करले उसको शनैश्चर संवत्सर कहते हैं, वह श्रवणादि अट्ठाईस नक्षत्र से अट्ठाईस प्रकार का है ॥५॥ ___इस तरह गुरु पांच वार, शनैश्चर दो वार और राहु तृतीयांश सहित तीन (३१) वार भगण (पूर्ण नक्षत्र मंडल) में भ्रमण करे इतने समय में
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