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मेघमहोदये वत्सराणां भवेत् षष्टी राहोस्त्रिस्न्यंशयुगभ्रमात्॥४०॥ न संमतं तेन शतं समानां, ज्योतिर्विदांकापि च शास्त्ररीत्या। संवत्सराख्या द्विपविंशकार्थ-ग्रहप्रचारैः फलमत्र चिन्त्यम्॥४१॥ संवत्सरे स्थाद्विषमे प्रायो दुर्भिक्षसम्भवः । राजविग्रहमारीणां सम्भवः समवत्सरे ॥४२॥ वर्षेशाः सर्वतोभद्रे जीवार्किशिखिराहवः । तेषां चारानुसारेण भवेत् सांवत्सरं फलम् ॥४३॥ सांवत्सरफलग्रन्थान् प्राच्यानव्याननेकशः । विलोकयेत् सुधीस्तेन ज्ञेयो मेघमहोदयः ॥४४॥ अत्रं च वचनप्रामाण्याय रामविनोदग्रन्थ एवम्यो निर्गुणो गुगमयं वितनोति विश्वं,
तापत्रयं हरति यस्तपनोऽप्यजस्रम् । कालात्मको जगति जीवयते च जन्तून् ,
ब्रह्माण्डसम्पुटमणिं शुमणि तमीडे ॥४॥ साठ वर्ष पूर्ण होते हैं ॥ ४० ॥ 'पष्टि' ऐसा कहा है इस लिए शास्त्र रीति से किसी भी जगह विद्वानोंका सेकडे (सौ वर्ष) का मत नहीं है । संवत्सर के नाम की द्विपविंशतिका का फलादेश ग्रहों के चालन से जानना ।। ४१ ॥ विषम संवत्सर में प्रायः दुर्भिक्ष का संभव रहता है और सम वर्ष में राज में विग्रह या महामारी आदि रोग का संभव रहता है।॥४२॥ सर्वतोभद्रचक्र में वर्षाधिपति - गुरु शनि राहु और केतु कहे हैं, उनकी गति के अनुसार संवत्सा का फल होता है ॥ ४३ ॥ संवत्सरफल सम्बन्धी प्राचीन और नवीन अनेक ग्रन्थों को देखकर उससे विद्वान लोग मेध महोदय को जानें ॥ ४४ ॥
जो स्वयं गुणरहित होकर भी गुणवाला जगतको रचता है, स्वयं निरंतर तपनवाला होकर भी तीन प्रकारके तापोंका नाश करता है, काल
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