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मेघमहोदये
गोयमा ! पचविहे तंजहा -- समगं गाक्खन्त जोगं जोयंति समगं उऊ परिणमन्ति । गाखुण्ह णाइसीओ बहूदओ होइ गाक्खतो ॥१॥ ससिसगलपुण्णमासी जोयंति विसमचारिणक्खता । कडूओ बहूदओआ तमाह संवच्छरं चदं ||२|| विसमं पवालिगो परिणमंति अणऊसु देति पुप्फफलम् । वासं पण सम्म वासह तमाहु सवच्छरं कम्मं ॥ ३॥ पुढविदगाणं तु रसं पुष्पफलाणं च देह आइचो । ऋप्पेण विवासेणं सम्मं निष्कहोता है । इन पांच संवत्सरों के समूह को युग कहते हैं और अभिवर्द्धित संवत्सर में एक अधिक मास होता है || २ || प्रमाणसंवत्सर पांच प्रकार का है
-नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्द्धित । नक्षत्र चन्द्र और अभिवर्द्धितसंवत्सर का लक्षण पहले कह दिया है । ऋतु - तीस अहोरात्र का एक ऋतुमास, ऐसे बारह मास का एक ऋतुसंवत्सर होता है, उसकी दिम संख्या ३६० पूरी है । आदित्य- . ३०१ दिन का एक आदित्य (सूर्य)
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मास । ऐसे बारह मास का एक आदित्य ( सूर्य ) संवत्सर होता है उसकी दिन संख्या ३६६ है ॥ ३ ॥ लक्षण संवत्सर-संवत्सर के नक्षत्रादि लक्षण प्रधान को लक्षणसंवत्सर कहते हैं, वह पांच प्रकार का है- जिस जिस तिथि में जो जो नक्षत्र आने को कहा है उन उन तिथियों में वह आजाय, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को कृत्तिका, माघ की पूर्णिमा को मघा चैत्री पूर्णिमा को चित्रा इत्यादि । किन्तु “ जेट्ठो वच्चइ मूलेण सावणो वचइ धणिहिं | अदासु य मग्गसिरो सेसा नक्खत्तनामिया मासा ॥ १ ॥ अर्थ --- ज्येष्ठ पूर्णिमा को मूल, श्रावण पूर्णिमा को धनिष्ठा और मार्गशिर पूर्णिमा को आर्द्रा नक्षत्र होता है और बाकी नक्षत्र के नाम सदृश मास की पूर्णिमा होती है । समकालीन अनुक्रम से ऋतु परिवर्तन हो, कार्तिक पूर्णिमा पीछे हेमंतु ऋतु, पौष पूर्णिमा पीछे शिशिर ऋतु, माघपूर्णिमा पीछे वसन्त ऋतु इत्यादि समानपन से रहें । जिस वर्ष में अधिक उष्णता न हो,
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" Aho Shrutgyanam"