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मेघमहोदये
पाषाणवर्षणे ज्ञेया सर्वधान्यमहर्घता ॥१७१॥ विद्युत्पाते जलाभावः प्रजानाशोऽन्धकारिते। ऋतूनां व्यत्यये रोगः सर्वजन्तुषु जायते ॥१७२॥ जन्तूनां विकृतोत्पत्ती राजविघ्नकरी मता । विग्रहो जायते घोरश्चन्द्रसूर्यविपर्यये ॥१७३॥ ग्रहयुद्धे भवेद् युद्धं युतौ चैव महर्घता। सूर्येन्दुपरिवेषाणां फलं वक्ष्ये स्वरूपतः ॥१७४॥ दूरस्थे मण्डलेऽन्यत्र स्वदेशे मध्यवर्निनि । प्रत्यासन्ने फलं ज्ञेयं मण्डलाधिपतेर्महत् ॥१७॥ श्वेतवर्णे भवेद् भव्यं पीतवर्णे रुजाकरः । रक्तवर्णे भवेद युद्ध कृष्णवर्णे नृपक्षयः॥१७६।। नीलवणे महावृष्टि-धूम्रवर्णे च धूमरी । त्थर की वर्षा होनेसे सब अन्न महँगे होते हैं ।। १७१ । विद्युत् के उत्पात में जल का अभाव, अंधकार से प्रजा का नाश, ऋतुओं की विपरीतता से सब प्राणियों में रोग होता है ॥ १७२ ॥ जन्तुओं की विकृत (विरूप) उत्पत्ति राजा को विघ्नकारी होती है, चन्द्रसूर्य की विपरीतता से बड़ा संग्राम होता है ॥ १७३ ॥ ग्रहों के युद्ध से युद्ध और ग्रहयुति से धान्य की महर्घता होती है । सूर्यचन्द्रमा के मण्डल का फल अपने रूप के अनुसार कहना चाहिये ॥ १७४ || दूरदेश स्वदेश और मध्यदेश इन में जहां मण्डल का अधिपतित्व हो वहां विशेष फल जानना । १७५ ।। श्वेत वर्ण का मण्डल हो तो कल्याण कारक, पीत वर्ण का रोग कारक, रक्त वर्ण का युद्ध कराने वाला, कृष्ण वर्ण का राजा का क्षय कारक | १७६ ॥ निल वर्ण का हो तो महावर्षा, धूम्र वर्ण होनेसे धूमस, थोडा वर्ण होने से थोडा और अधिक होने से अधिक फल दायक होता है ॥
"Aho Shrutgyanam"